योग सामान्य निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> योग सामान्य निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">योग सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 11: | Line 11: | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1187/1178/4 <span class="SanskritText"> योगस्य वीर्यपरिणामस्य....=</span> <span class="HindiText">वीर्यपरिणामरूप जो योग...(और भी देखें [[ अगला शीर्षक ]]) । <br /> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1187/1178/4 <span class="SanskritText"> योगस्य वीर्यपरिणामस्य....=</span> <span class="HindiText">वीर्यपरिणामरूप जो योग...(और भी देखें [[ अगला शीर्षक ]]) । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">योग कथंचित् पारिणामिक भाव है</strong> </span><br /> | ||
धवला 5/1, 7, 48/225/10 <span class="PrakritText">सजोगो त्ति को भावो । अणादिपारिणामिओ भावो । णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलंभा । ण खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माणं खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोदयजणिओ, णट्ठे वि घादिकम्मोदए केवलिम्हि जोगुवलंभा । णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयशरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास-संठाणागमणादीणमणुवलंभा । तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो । कम्मइओदयविणट्ठसमए चेव जोगविणासदंसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संत भवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा । तदो सिद्धं जोगस्स पारिणामियत्तं ।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong> ‘सयोग’ यह कौनसा भाव है ? <strong>उत्तर−</strong> ‘सयोग’ यह अनादि पारिणामिक भाव है । इसका कारण यह है कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीयकर्म के उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है । न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों के क्षय से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । योग घातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी सयोगिकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदय जनित भी है, क्योंकि अघाति कर्मोदय के रहने पर भी अयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीव-परिस्पन्दन का कारण होने में विरोध है । <strong>प्रश्न−</strong>कार्मण शरीर पुद्गल विपाकी नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है । इसलिए योग को कार्मण शरीर से (औदयिक) उत्पन्न होने वाला मान लेना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि सर्व कर्मों का आश्रय होने से कार्मण शरीर भी पुद्गल विपाकी ही है । इसका कारण यह है कि वह सर्व कर्मों का आश्रय या आधार है । <strong>प्रश्न−</strong>कार्मण शरीर के उदय विनष्ट होने के समय में ही योग का विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मण शरीर जनित है, ऐसा मानना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर ही विनष्ट होने वाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी औदयिकपने का प्रसंग प्राप्त होगा । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से योग के पारिणामिकपना सिद्ध हुआ । <br /> | धवला 5/1, 7, 48/225/10 <span class="PrakritText">सजोगो त्ति को भावो । अणादिपारिणामिओ भावो । णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलंभा । ण खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माणं खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोदयजणिओ, णट्ठे वि घादिकम्मोदए केवलिम्हि जोगुवलंभा । णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयशरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास-संठाणागमणादीणमणुवलंभा । तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो । कम्मइओदयविणट्ठसमए चेव जोगविणासदंसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संत भवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा । तदो सिद्धं जोगस्स पारिणामियत्तं ।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong> ‘सयोग’ यह कौनसा भाव है ? <strong>उत्तर−</strong> ‘सयोग’ यह अनादि पारिणामिक भाव है । इसका कारण यह है कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीयकर्म के उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है । न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों के क्षय से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । योग घातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी सयोगिकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदय जनित भी है, क्योंकि अघाति कर्मोदय के रहने पर भी अयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीव-परिस्पन्दन का कारण होने में विरोध है । <strong>प्रश्न−</strong>कार्मण शरीर पुद्गल विपाकी नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है । इसलिए योग को कार्मण शरीर से (औदयिक) उत्पन्न होने वाला मान लेना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि सर्व कर्मों का आश्रय होने से कार्मण शरीर भी पुद्गल विपाकी ही है । इसका कारण यह है कि वह सर्व कर्मों का आश्रय या आधार है । <strong>प्रश्न−</strong>कार्मण शरीर के उदय विनष्ट होने के समय में ही योग का विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मण शरीर जनित है, ऐसा मानना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर ही विनष्ट होने वाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी औदयिकपने का प्रसंग प्राप्त होगा । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से योग के पारिणामिकपना सिद्ध हुआ । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> |
Revision as of 14:27, 20 July 2020
- योग सामान्य निर्देश
- योगमार्गणा में भावयोग इष्ट है
देखें योग - 2.5 (क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव को उपयोग होता है वास्तव में वही योग है ।)
देखें योग - 2.1 (आत्मा के धर्म न होने से अन्य पदार्थों का संयोग योग नहीं कहला सकता ।)
देखें मार्गणा (सभी मार्गणास्थानों में भावमार्गणा इष्ट है ।)
- योग वीर्य गुण की पर्याय है
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1187/1178/4 योगस्य वीर्यपरिणामस्य....= वीर्यपरिणामरूप जो योग...(और भी देखें अगला शीर्षक ) ।
- योग कथंचित् पारिणामिक भाव है
धवला 5/1, 7, 48/225/10 सजोगो त्ति को भावो । अणादिपारिणामिओ भावो । णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलंभा । ण खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माणं खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोदयजणिओ, णट्ठे वि घादिकम्मोदए केवलिम्हि जोगुवलंभा । णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयशरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास-संठाणागमणादीणमणुवलंभा । तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो । कम्मइओदयविणट्ठसमए चेव जोगविणासदंसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संत भवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा । तदो सिद्धं जोगस्स पारिणामियत्तं । = प्रश्न− ‘सयोग’ यह कौनसा भाव है ? उत्तर− ‘सयोग’ यह अनादि पारिणामिक भाव है । इसका कारण यह है कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीयकर्म के उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है । न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों के क्षय से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । योग घातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी सयोगिकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदय जनित भी है, क्योंकि अघाति कर्मोदय के रहने पर भी अयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीव-परिस्पन्दन का कारण होने में विरोध है । प्रश्न−कार्मण शरीर पुद्गल विपाकी नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है । इसलिए योग को कार्मण शरीर से (औदयिक) उत्पन्न होने वाला मान लेना चाहिए ? उत्तर−नहीं, क्योंकि सर्व कर्मों का आश्रय होने से कार्मण शरीर भी पुद्गल विपाकी ही है । इसका कारण यह है कि वह सर्व कर्मों का आश्रय या आधार है । प्रश्न−कार्मण शरीर के उदय विनष्ट होने के समय में ही योग का विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मण शरीर जनित है, ऐसा मानना चाहिए ? उत्तर−नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर ही विनष्ट होने वाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी औदयिकपने का प्रसंग प्राप्त होगा । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से योग के पारिणामिकपना सिद्ध हुआ ।
- योग कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है
धवला 7/2, 1, 33/75/3 जोगो णाम जीवपदेसाणं परिप्फंदो संकोचविकोचलक्खणो । सो च कम्माणं उदयजणिदो, कम्मोदयविरहिदसिद्धेसु तदणुवलंभा । अजोगिकेवलिम्हि जोगाभावाजोगो ओदइयो ण होदि त्ति वोत्तुं ण जुत्तुं, तत्थ सरीरणामकम्मोदया भावा । ण च सरीरणामकम्मोदएण जायमाणो जोगो तेण विणा होदि, अइप्पसंगादो । एवमोदइयस्स जोगस्स कधं खओवसमियत्तं उच्चते । ण सरीरणामकम्मोदएण सरीरपाओग्गपोग्गलेसु बहुसु संचयं गच्छमाणेसु विरियंतराइयस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण तेसिं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण समुब्भवादो लद्धखओवसमववएसं विरियं वड्ढदि, तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोच विकोच वइढदि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वुत्तो । विरियंतराइयखओवसमजणिदबलवड्ढि-हाणीहिंतो जदि-जीवपदेसपरिप्फंदस्स वड्ढिहाणीओ होंति तो खीणंतराइयम्मि सिद्धे, जोगबहुत्तं पसज्जदे । ण, खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधत्तदंसणादो । ण च खओवसमियबलवड्ढि-हाणीहिंतो वड्ढि-हाणीणं गच्छमाणो जीवपदेसपरिप्फंदो खइयबलादो वड्ढिहाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो । = प्रश्न−जीव प्रदेशों के संकोच और विकोचरूप परिस्पंद को योग कहते हैं । यह परिस्पन्द कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों के वह नहीं पाया जाता । अयोगि केवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता है, क्योंकि अयोगि केवली के यदि योग नहीं होता तो शरीरनामकर्म का उदय भी तो नहीं होता । शरीरनामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा । इस प्रकार जब योग औदयिक होता है, तो उसे क्षायोपशमिक क्यों कहते हैं । उत्तर−ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय होता है और वीर्यान्तरायकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव से व उन्हीं स्पर्धकों के सत्त्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य (बल) बढ़ता है, तब उस वीर्य को पाकर चूँकि जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिए योग क्षायोपशमिक कहा गया है । प्रश्न−यदि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से प्रदेशों के परिस्पन्द की वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अन्तरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीवों में योग की बहुलता का प्रसंग आता है । उत्तर−नहीं आता, क्योंकि क्षायोपशमिक बल से क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है । क्षायोपशमिक बल की वृद्धि-हानि से वृद्धि-हानि को प्राप्त होने वाला जीव प्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बल से वृद्धिहानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आता है ।
- योग कथंचित् औदयिक भाव है
धवला 5/1, 7, 48/226/7 ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाणंतरं जोगविणासुवलंभा । ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंधविरोहिणो तस्स कम्मजणिदत्तविरोहा । = ‘योग’ यह औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्म के उदय का विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है और ऐसा मानकर भव्यत्व भाव के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि कर्म सम्बन्ध के विरोधी भव्यत्व भाव की कर्म से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ।
धवला 7/2, 1, 13/76/3 जदि जोगो वीरियंतराइयखओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे । ण उवयारेण खओवसमियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्था भावविरोहादो । = प्रश्न−यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगि केवलि में योग के अभाव का प्रसंग आता है । उत्तर−नहीं आता, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से है । असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोगि केवलि में अभाव मानने में विरोध आता है ।
धवला 7/2, 1, 61/105/2 किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तादो । तेण कसाए फिट्टे वि जोगो अत्थि... । = शरीर नामकर्मोदय के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है । इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है ।
धवला 9/4, 1, 66/316/2 जोगमग्गणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो । = योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है ।
- उत्कृष्ट योग दो समय से अधिक नहीं रहता
धवला 10/4, 2, 4, 31/108/4 जदि एवं तो दोहि समएहि विणा उक्कस्सजोगेण णिरंतरं बहुकालं किण्ण परिणमाविदो । ण एस दोसो, णिरंतरं तत्थ तियादिसमयपरिणामाभावादो । = प्रश्न−दो समयों के सिवा निरन्तर बहुत काल तक उत्कृष्ट योग से क्यों नहीं परिणमाया? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निरन्तर उत्कृष्ट योग में तीन आदि समय तक परिणमन करते रहना सम्भव नहीं है ।
- तीनों योगों की प्रवृत्ति क्रम से ही होती है युगपत् नहीं
धवला 1/1, 1, 47/279/3 त्रयाणां योगानां प्रवृत्तिरक्रमेण उत नेति । नाक्रमेण, त्रिष्वक्रमेणैकस्यात्मनो योगनिरोधात् । मनोवाक्कायप्रवृत्योऽक्रमेण क्वचिद् दृश्यन्त इति चेद्भवतु तासां तथा प्रवृत्तिर्दृष्टत्वात्, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिस्तथोपदेशाभावादिति । अथ स्यात् प्रयत्नो हि नाम बुद्धिपूर्वकः, बुद्धिश्च मनोयोगपूर्विका तथा च सिद्धो मनोयोगः शेषयोगाविनाभावीति न, कार्यकारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात् । = प्रश्न−तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् होती है या नहीं । उत्तर−युगपत् नहीं होती है, क्योंकि एक आत्मा के तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् मानने पर योग निरोध का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् किसी भी आत्मा में योग नहीं बन सकेगा । प्रश्न−कहीं पर मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ युगपत् देखी जाती हैं ? उत्तर−यदि देखी जाती हैं, तो उनकी युगपत् वृत्ति होओ । परन्तु इससे, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के लिए जो प्रयत्न होते हैं, उनको युगपत् वृत्ति सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि आगम में इस प्रकार उपदेश नहीं मिलता है । (तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ हो सकती है, प्रयत्न नहीं ।) प्रश्न−प्रयत्न बुद्धि पूर्वक होता है और बुद्धि मनोयोग पूर्वक होती है । ऐसी परिस्थिति में मनोयोग शेष योगों का अविनाभावी है, यह बात सिद्ध हो जानी चाहिए । उत्तर−नहीं, क्योंकि कार्य और कारण इन दोनों की एक काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।
धवला 7/2, 1, 33/77/1 दो वा तिण्णि वा जोगा जुगवं किण्ण होंति । ण, तेसिं णिसिद्धाकमवुत्तीदो । तेसिमक्कमेण वुत्ती वुवलंभदे चे । ण,... । = प्रश्न−दो या तीन योग एक साथ क्यों नहीं होते ? उत्तर−नहीं होते, क्योंकि उनकी एक साथ वृत्ति का निषेध किया गया है । प्रश्न−अनेक योगों की एक साथ वृत्ति पायी तो जाती है ? उत्तर−नहीं पायी जाती, (क्योंकि इन्द्रियातीत जीव प्रदेशों का परिस्पन्द प्रत्यक्ष नहीं है ।−दे योग/2/3 ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/242/505 जोगोवि एक्ककाले एक्केव य होदि णियमेण । = एक काल में एक जीव के युगपत् एक ही योग होता है, दो वा तीन नहीं हो सकते, ऐसा नियम है ।
- तीनों योगों के निरोध का क्रम
भगवती आराधना /2117-2120/1824 बादरवचिजोगं बादरेण कायेण बादरमणं च । बादरकायंपि तधा रुभंदि सुहुमेण काएण ।2117। तध चेव सुहुममणवचिजोगं सुहमेण कायजोगेण । रुंभित्तु जिणो चिट्ठदि सो सुहुमे काइए जोगे ।2118। सुहुमाए लेस्साए सुहुमकिरियबंधगो तगो ताधे । काइयजोगे सुहुमम्मि सुहुमकिरियं जिणो झादि ।2119। सुहुमकिरिएण झाणेण णिरुद्धे सुहुमकाययोगे वि । सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ।2120। = बादर वचनयोग और बादर मनोयोग के बादर काययोग में स्थिर होकर निरोध करते हैं तथा बादर काय योग से रोकते हैं ।2117। उस ही प्रकार से सूक्ष्म वचनयोग और सूक्ष्म मनोयोग को सूक्ष्म काययोग में स्थिर होकर निरोध करते हैं और उसी काययोग से वे जिन भगवान् स्थिर रहते हैं ।2118। उत्कृष्ट शुक्ललेश्या के द्वारा सूक्ष्म काययोग से साता वेदनीय कर्म का बंध करने वाले वे भगवान् सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरे शुक्लध्यान का आश्रय करते हैं । सूक्ष्मकाययोग होने से उनको सूक्ष्मक्रिया शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है ।2119। सूक्ष्मक्रिया ध्यान से सूक्ष्म काययोग का निरोध करते हैं । तब आत्मा के प्रदेश निश्चल होते हैं और तब उनको कर्म का बन्ध नहीं होता । ( ज्ञानार्णव/42/48-51 ); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/533-536 ) ।
धवला 6/1, 9-8, 16 एतो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरकायजोगेण बादरमगजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरउस्सासणिस्सासं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमवचिजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायनोगेण सुहुमउस्सासं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरुं भमाणो । (414/5)। इमाणि करणाणि करेदि पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणहेट्ठादो । (415/2) । एत्तोअंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि ।....किट्टीकरणे णिट्ठिदे तदो से काले पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च णासेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि । (416/1) । तदो अंतोमुहुत्तं जोगाभावेण णिरुद्धासवत्तो.... सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छदि । (417/1) । =- यहाँ से अन्तर्मुहूर्त्त जाकर बादरकाय योग से बादरमनोयोग का निरोध करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त्त से बादर काययोग से बादर वचनयोग का निरोध करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त से बादर काययोग से बादर उच्छवास-निश्वास का निरोध करता है । पुनःअन्तर्मुहूर्त्त से बादर काय योग से उसी बादर काययोग का निरोध करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्म काययोग से उच्छ्वास-निश्वास का निरोध करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्मकाय योग से सूक्ष्म काययोग का निरोध करता हुआ ।
- इन कारणों को करता है −प्रथम समय में पूर्वस्पर्धकों के नीचे अपूर्व स्पर्धकों को करता है ।...फिर अन्तर्मुहूर्त्तकाल पर्यन्त कृष्टियों को करता है....उसके अनन्तर समय में पूर्व स्पर्द्धकों को और अपूर्वस्पर्द्धकों को नष्ट करता है । अन्तर्मुहूर्त्त काल तक कृष्टिगत योग वाला होता है ।.... तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक अयोगि केवली के योग का अभाव हो जाने से आस्रव का निरोध हो जाता है ।...तब सर्व कर्मों से विमुक्त होकर आत्मा एक समय में सिद्धि को प्राप्त करता है। ( धवला 13/5, 4, 23/84/12 ); ( धवला 10/4, 2, 4, 107/321/8 ); ( क्षपणासार/ मू./627-655/739-758) ।
- योगमार्गणा में भावयोग इष्ट है