क्षत्रिय: Difference between revisions
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<p>श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार (देखें [[ इतिहास ]]) आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुतकेवली) के पश्चात् तृतीय 11 अंग व चौदह पूर्वधारी हुए हैं। अपरनाम कृतिकार्य था। समय–वी॰नि॰ 191-208; ई॰पू॰ 336-319 पं॰ कैलाशचन्द जी की अपेक्षा वी॰नि॰ 251-268 (देखें [[ इतिहास ]] /4/4)</p> | |||
<p> महापुराण/16/284, 243 <span class="SanskritText"> क्षत्रिया: शस्त्रजीवितम् ।184। स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभु:। क्षतात्त्राणे नियुक्ता हि क्षत्रिया: शस्त्रपाणय:।243।</span>=<span class="HindiText">उस समय जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए।284। उस समय भगवान् ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की थी, अर्थात् उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश दिया था, सो ठीक ही है, जो हाथों में हथियार लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं।243। ( महापुराण/16/183 ); ( महापुराण/38/46 ) </span></p> | |||
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Revision as of 22:39, 22 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार (देखें इतिहास ) आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुतकेवली) के पश्चात् तृतीय 11 अंग व चौदह पूर्वधारी हुए हैं। अपरनाम कृतिकार्य था। समय–वी॰नि॰ 191-208; ई॰पू॰ 336-319 पं॰ कैलाशचन्द जी की अपेक्षा वी॰नि॰ 251-268 (देखें इतिहास /4/4)
महापुराण/16/284, 243 क्षत्रिया: शस्त्रजीवितम् ।184। स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभु:। क्षतात्त्राणे नियुक्ता हि क्षत्रिया: शस्त्रपाणय:।243।=उस समय जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए।284। उस समय भगवान् ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की थी, अर्थात् उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश दिया था, सो ठीक ही है, जो हाथों में हथियार लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं।243। ( महापुराण/16/183 ); ( महापुराण/38/46 )
पुराणकोष से
(1) महावीर के पश्चात् हुए ग्यारह श्रुतधर मुनियों में तीसरे श्रुतघर मुनि । ये ग्यारह अंग और दस पूर्व के धारी थे । महापुराण 2.143, 76.521-524, हरिवंशपुराण 1.62, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.45-47
(2) आगामी छठे तीर्थंकर का जीव । महापुराण 76.472
(3) वृषभदेव द्वारा सृजित तीन वणों में प्रथम वर्ण । भगवान् वृषभदेव ने क्षत्रियों को विद्या सिखायी और निर्बलों की रक्षा के लिए नियुक्त किया । दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का परिपालन इनका धर्म था । सोते हुए, बन्धन में बँधे हुए, नम्रीभूत और भयभीत जीवों का वध करना इनका धर्म नहीं है राज्य की स्थिति के लिए वृषभदेव ने इस वर्ण के चार वंश स्थापित किये थे― इक्ष्वाकु, कुरु, हरि और नाथ । महापुराण 16.183-184,243, 38.46, 259, 44.30, पद्मपुराण 3.256, 11.202, 78.11-12, हरिवंशपुराण 9.39, पांडवपुराण 2.161-164