अपूर्वकरण: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p>जीवोंके परिणामोंमें क्रमपूर्वक विशुद्धिकी वृद्धियोंके स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्गमें 14 गुणस्थानोंका निर्देश किया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान है।</p> | <p>जीवोंके परिणामोंमें क्रमपूर्वक विशुद्धिकी वृद्धियोंके स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्गमें 14 गुणस्थानोंका निर्देश किया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान है।</p> | ||
<p>• इस गुणस्थाके स्वामित्व | <p>• इस गुणस्थाके स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ सत् ]]।</p> | ||
<p>• इस गुणस्थानकी सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, | <p>• इस गुणस्थानकी सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
<p>• इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका | <p>• इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बंध, उदय व सत्त्व।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
<p>• इस गुणस्थानमें कषाय, योग व संज्ञाओंका सद्भाव तथा | <p>• इस गुणस्थानमें कषाय, योग व संज्ञाओंका सद्भाव तथा तत्संबंधी शंकाएँ।-देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
<p>• इस गुणस्थानकी पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा।-देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]</p> | <p>• इस गुणस्थानकी पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा।-देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]</p> | ||
<p>• इस गुणस्थानमें मृत्युका विधि-निषेध।-देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]।</p> | <p>• इस गुणस्थानमें मृत्युका विधि-निषेध।-देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]]।</p> | ||
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<p>1. अपूर्वकरण गुणस्थानका लक्षण</p> | <p>1. अपूर्वकरण गुणस्थानका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/17-19 भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥17॥ एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥18॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ॥19॥</p> | <p class="SanskritText">पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/17-19 भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥17॥ एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥18॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ॥19॥</p> | ||
<p class="HindiText">= इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोंमें करण अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। | <p class="HindiText">= इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोंमें करण अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किंतु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं ॥14॥ इस गुणस्थानमें यतः विभिन्न समयस्थित जीवोंके पूर्वमें अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं, अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं ॥18॥ इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामोंमें स्थित जीव मोहकर्मके क्षपण या उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनोंने कहा है ॥17-19॥ </p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 1/1,1,17/116-118/183), ( गोम्मट्टसार | <p>( धवला पुस्तक 1/1,1,17/116-118/183), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 51,52,54/140), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/35-37)।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,16/180/1 करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,16/180/1 करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यांतर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमवयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।</p> | ||
<p class="HindiText">= करण शब्दका अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समयमें क्रमसे बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके | <p class="HindiText">= करण शब्दका अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समयमें क्रमसे बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके अंतर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवोंको छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवोंके परिणामोंसे भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समयमें होनेवाले अपूर्व परिणामोंको अपूर्वकरण कहते हैं।</p> | ||
<p class="SanskritText">अभिधान | <p class="SanskritText">अभिधान राजेंद्रकोश/अपुव्वकरण "अपूर्वमपूर्वां क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणम्। तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः अन्यश्च स्थितिबंधः इत्येते पंचाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्त्तंते इत्यपूर्वकरणम्।</p> | ||
<p class="HindiText">= अपूर्व-अपूर्व क्रियाको प्राप्त करता होनेसे अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समयसे ही- | <p class="HindiText">= अपूर्व-अपूर्व क्रियाको प्राप्त करता होनेसे अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समयसे ही-स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण और स्थितिबंधापसरण ये पाँच अधिकार युगपत् प्रवर्त्तते हैं। क्योंकि ये इससे पहिले नहीं प्रवर्तते इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं।</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 13/14 स | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 13/14 स एवातीतसंज्वलनकषायमंदोदये सत्यपूर्वपरमाह्लादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्त्ती भवति</p> | ||
<p class="HindiText">= वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषायका | <p class="HindiText">= वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषायका मंद उदय होनेपर अपूर्व, परम आह्लाद सुखके अनुभवरूप अपूर्वकरणमें उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है।</p> | ||
<p>• अपूर्वकरणके चार आवश्यक, परिणाम तथा अनिवृत्तिकरणके साथ इसका भेद।-देखें [[ कारण#5 | कारण - 5]]।</p> | <p>• अपूर्वकरणके चार आवश्यक, परिणाम तथा अनिवृत्तिकरणके साथ इसका भेद।-देखें [[ कारण#5 | कारण - 5]]।</p> | ||
<p>• अपूर्वकरण लब्धि। देखें [[ करण#5 | करण - 5]]।</p> | <p>• अपूर्वकरण लब्धि। देखें [[ करण#5 | करण - 5]]।</p> | ||
<p>2. इस गुणस्थानमें क्षायिक व औपशमिक दो ही भाव | <p>2. इस गुणस्थानमें क्षायिक व औपशमिक दो ही भाव संभव है</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,16/182/4 | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,16/182/4 पंचसु गुणेषु कोऽत्रनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिकः उपशमकस्यौपशमिकः।.....सम्यक्त्वापेक्षया तुक्षपकस्य क्षायिको भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपत्तेः। उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलंभात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-पाँच प्रकारके भावोंमें-से इस गुणस्थानमें कौन-सा भाव पाया जाता है? उत्तर-(चारित्रकी अपेक्षा) क्षपकके क्षायिक और उपशमके औपशमिक भाव पाया जाता है।....सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिक भाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है, वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। और उपशमके औपशमिक या क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-पाँच प्रकारके भावोंमें-से इस गुणस्थानमें कौन-सा भाव पाया जाता है? उत्तर-(चारित्रकी अपेक्षा) क्षपकके क्षायिक और उपशमके औपशमिक भाव पाया जाता है।....सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिक भाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है, वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। और उपशमके औपशमिक या क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है।</p> | ||
<p>3. इस गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम या क्षय नहीं होता</p> | <p>3. इस गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम या क्षय नहीं होता</p> | ||
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<p class="HindiText">= तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानमें, कर्म प्रकृतियोंका न उपशम है और न क्षय।</p> | <p class="HindiText">= तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानमें, कर्म प्रकृतियोंका न उपशम है और न क्षय।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,27/211/3 अपुव्वकरणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुव्वकरणो पडिसमयणंतगुण-विसोहीए वढ्ढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंट्ठिदिखंडयं घादेंतो संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबंधोसरणाणि करेदि। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,27/211/3 अपुव्वकरणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुव्वकरणो पडिसमयणंतगुण-विसोहीए वढ्ढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंट्ठिदिखंडयं घादेंतो संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबंधोसरणाणि करेदि। </p> | ||
<p class="HindiText">= अपूर्वकरण गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम नहीं होता है। | <p class="HindiText">= अपूर्वकरण गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम नहीं होता है। किंतु अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समयमें अनंतगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ एक-एक अंतर्मुहूर्तमें एक एक स्थितिखंडोंका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिखंडोंका घात करता है। उतने ही स्थिति बंधापसरणोंको करता है।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/9 सो ण एक्कं वि कम्मं क्खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्जगुणसरूवेण पदेस णिज्जरं करेदि। अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकंडयवादे करदि। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/9 सो ण एक्कं वि कम्मं क्खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्जगुणसरूवेण पदेस णिज्जरं करेदि। अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकंडयवादे करदि। </p> | ||
<p class="HindiText">= वह एक भी कर्गका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणित रूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है। एक-एक | <p class="HindiText">= वह एक भी कर्गका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणित रूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है। एक-एक अंतर्मुहूर्तमें एक स्थिति कांडकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थिति कांडकोंका घात करता है। और उतने ही स्थिति बंधापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजारगुणे अनुभागकांडकोंका घात करता है।</p> | ||
<p>4. उपशम व क्षय किये बिना भी इसमें वे भाव कैसे | <p>4. उपशम व क्षय किये बिना भी इसमें वे भाव कैसे संभव हैं</p> | ||
<p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/1/19/590/12 पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशमं क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटवदुपचर्यते।</p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/1/19/590/12 पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशमं क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटवदुपचर्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार घीके घड़ेकी तरह हो जाता है।</p> | <p class="HindiText">= आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार घीके घड़ेकी तरह हो जाता है।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4 अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4 अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। सत्येवमतिप्रसंगः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबंधरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलंभात्। </p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मोका क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि, भावी अर्थमें भूतकालीन अर्थके समान उपचार कर लेनेसे आठवें गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि | <p class="HindiText">= प्रश्न-आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मोका क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि, भावी अर्थमें भूतकालीन अर्थके समान उपचार कर लेनेसे आठवें गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबंधक मरणके अभावमें नियमसे चारित्र-मोहका उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोहका क्षय करने वाले, अतएव उपशमन व क्षपणके सन्मुख हुए और उपचारसे क्षपक या उपशमक संज्ञाको प्राप्त होनेवाले जीवोंके आठवें गुणस्थानमें भी क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/4)</p> | <p>( धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/4)</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/2 उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/2 उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।</p> | ||
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<p class="HindiText">= प्रश्न किसी भी कर्मके नष्ट नहीं करनेवाले अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके भी कर्म क्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं।....अथवा उपचारसे अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचारका आश्रय करनेपर अतिप्रसंग दोष क्यों न आयेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थके प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिबंध हो जाता है।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न किसी भी कर्मके नष्ट नहीं करनेवाले अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके भी कर्म क्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं।....अथवा उपचारसे अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचारका आश्रय करनेपर अतिप्रसंग दोष क्यों न आयेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थके प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिबंध हो जाता है।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 7/2,1,49/93/5 खवगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि थोवथोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदंसणादो। पडिसमयं कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलंभादो च।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 7/2,1,49/93/5 खवगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि थोवथोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदंसणादो। पडिसमयं कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलंभादो च।</p> | ||
<p class="HindiText">= क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो | <p class="HindiText">= क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अंतिम सयमें भी कार्य पूरा होता नहीं पाया जा सकता।</p> | ||
<p>देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.10 | सम्यग्दर्शन - IV.2.10 ]]दर्शनमोहका उपशम करने वाला जीव उपद्रव आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता।</p> | <p>देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.10 | सम्यग्दर्शन - IV.2.10 ]]दर्शनमोहका उपशम करने वाला जीव उपद्रव आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता।</p> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> चौदह गुणस्थानों में आठवाँ गुणस्थान । इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व-अपूर्व (नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मे अवकरण के समान जीव स्थिति और अनुभाग | <p> चौदह गुणस्थानों में आठवाँ गुणस्थान । इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व-अपूर्व (नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मे अवकरण के समान जीव स्थिति और अनुभाग बंध तो कम करता ही रहता है साथ ही वह स्थिति और अनुभाग बंध का संक्रमण और निर्जरा करता हुआ उन दीपों के अग्रभाग को भी नष्ट कर देता है । ऐसे जीव उपशमक और झपक दोनों प्रकारों के होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20. 252-255, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.8 0, 83, 142 </span>देखें [[ गुणस्थान ]]</p> | ||
Revision as of 16:17, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
जीवोंके परिणामोंमें क्रमपूर्वक विशुद्धिकी वृद्धियोंके स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्गमें 14 गुणस्थानोंका निर्देश किया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान है।
• इस गुणस्थाके स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
• इस गुणस्थानकी सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -देखें वह वह नाम ।
• इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बंध, उदय व सत्त्व।-देखें वह वह नाम ।
• इस गुणस्थानमें कषाय, योग व संज्ञाओंका सद्भाव तथा तत्संबंधी शंकाएँ।-देखें वह वह नाम ।
• इस गुणस्थानकी पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा।-देखें संयम - 2
• इस गुणस्थानमें मृत्युका विधि-निषेध।-देखें मरण - 3।
• सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम।-देखें मार्गणा ।
1. अपूर्वकरण गुणस्थानका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/17-19 भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥17॥ एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥18॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ॥19॥
= इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोंमें करण अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किंतु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं ॥14॥ इस गुणस्थानमें यतः विभिन्न समयस्थित जीवोंके पूर्वमें अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं, अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं ॥18॥ इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामोंमें स्थित जीव मोहकर्मके क्षपण या उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनोंने कहा है ॥17-19॥
( धवला पुस्तक 1/1,1,17/116-118/183), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 51,52,54/140), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/35-37)।
धवला पुस्तक 1/1,1,16/180/1 करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यांतर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमवयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।
= करण शब्दका अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समयमें क्रमसे बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके अंतर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवोंको छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवोंके परिणामोंसे भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समयमें होनेवाले अपूर्व परिणामोंको अपूर्वकरण कहते हैं।
अभिधान राजेंद्रकोश/अपुव्वकरण "अपूर्वमपूर्वां क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणम्। तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः अन्यश्च स्थितिबंधः इत्येते पंचाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्त्तंते इत्यपूर्वकरणम्।
= अपूर्व-अपूर्व क्रियाको प्राप्त करता होनेसे अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समयसे ही-स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण और स्थितिबंधापसरण ये पाँच अधिकार युगपत् प्रवर्त्तते हैं। क्योंकि ये इससे पहिले नहीं प्रवर्तते इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 13/14 स एवातीतसंज्वलनकषायमंदोदये सत्यपूर्वपरमाह्लादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्त्ती भवति
= वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषायका मंद उदय होनेपर अपूर्व, परम आह्लाद सुखके अनुभवरूप अपूर्वकरणमें उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है।
• अपूर्वकरणके चार आवश्यक, परिणाम तथा अनिवृत्तिकरणके साथ इसका भेद।-देखें कारण - 5।
• अपूर्वकरण लब्धि। देखें करण - 5।
2. इस गुणस्थानमें क्षायिक व औपशमिक दो ही भाव संभव है
धवला पुस्तक 1/1,1,16/182/4 पंचसु गुणेषु कोऽत्रनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिकः उपशमकस्यौपशमिकः।.....सम्यक्त्वापेक्षया तुक्षपकस्य क्षायिको भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपत्तेः। उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलंभात्।
= प्रश्न-पाँच प्रकारके भावोंमें-से इस गुणस्थानमें कौन-सा भाव पाया जाता है? उत्तर-(चारित्रकी अपेक्षा) क्षपकके क्षायिक और उपशमके औपशमिक भाव पाया जाता है।....सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिक भाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है, वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। और उपशमके औपशमिक या क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है।
3. इस गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम या क्षय नहीं होता
राजवार्तिक अध्याय 9/1/19/590/11 तत्र कर्मप्रकृतीनां नोपशमो नापि क्षयः।
= तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानमें, कर्म प्रकृतियोंका न उपशम है और न क्षय।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/211/3 अपुव्वकरणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुव्वकरणो पडिसमयणंतगुण-विसोहीए वढ्ढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंट्ठिदिखंडयं घादेंतो संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबंधोसरणाणि करेदि।
= अपूर्वकरण गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम नहीं होता है। किंतु अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समयमें अनंतगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ एक-एक अंतर्मुहूर्तमें एक एक स्थितिखंडोंका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिखंडोंका घात करता है। उतने ही स्थिति बंधापसरणोंको करता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/9 सो ण एक्कं वि कम्मं क्खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्जगुणसरूवेण पदेस णिज्जरं करेदि। अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकंडयवादे करदि।
= वह एक भी कर्गका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणित रूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है। एक-एक अंतर्मुहूर्तमें एक स्थिति कांडकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थिति कांडकोंका घात करता है। और उतने ही स्थिति बंधापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजारगुणे अनुभागकांडकोंका घात करता है।
4. उपशम व क्षय किये बिना भी इसमें वे भाव कैसे संभव हैं
राजवार्तिक अध्याय 9/1/19/590/12 पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशमं क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटवदुपचर्यते।
= आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार घीके घड़ेकी तरह हो जाता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4 अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। सत्येवमतिप्रसंगः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबंधरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलंभात्।
= प्रश्न-आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मोका क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि, भावी अर्थमें भूतकालीन अर्थके समान उपचार कर लेनेसे आठवें गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबंधक मरणके अभावमें नियमसे चारित्र-मोहका उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोहका क्षय करने वाले, अतएव उपशमन व क्षपणके सन्मुख हुए और उपचारसे क्षपक या उपशमक संज्ञाको प्राप्त होनेवाले जीवोंके आठवें गुणस्थानमें भी क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है
( धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/4)
धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/2 उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।
= उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है।
धवला पुस्तक 5/1,7,9/206/1 अपुव्वकरणस्स अविट्ठकम्मस्स कंध खइयो भावो। ण तस्स वि कम्मक्खयणिमित्तपरिणामुवलंभादो।....उवयारेण वा अपुव्वकरणस्स खइओ भावो। उवयारे आसयिज्जमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अइप्पसंगपडिसेहादो।
= प्रश्न किसी भी कर्मके नष्ट नहीं करनेवाले अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके भी कर्म क्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं।....अथवा उपचारसे अपूर्वकरणसंयतके क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचारका आश्रय करनेपर अतिप्रसंग दोष क्यों न आयेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थके प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिबंध हो जाता है।
धवला पुस्तक 7/2,1,49/93/5 खवगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि थोवथोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदंसणादो। पडिसमयं कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलंभादो च।
= क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अंतिम सयमें भी कार्य पूरा होता नहीं पाया जा सकता।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.10 दर्शनमोहका उपशम करने वाला जीव उपद्रव आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता।
पुराणकोष से
चौदह गुणस्थानों में आठवाँ गुणस्थान । इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व-अपूर्व (नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मे अवकरण के समान जीव स्थिति और अनुभाग बंध तो कम करता ही रहता है साथ ही वह स्थिति और अनुभाग बंध का संक्रमण और निर्जरा करता हुआ उन दीपों के अग्रभाग को भी नष्ट कर देता है । ऐसे जीव उपशमक और झपक दोनों प्रकारों के होते हैं । महापुराण 20. 252-255, हरिवंशपुराण 3.8 0, 83, 142 देखें गुणस्थान