अमूढदृष्टि: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 4: | Line 4: | ||
<p>( समयसार / आत्मख्याति गाथा 232)।</p> | <p>( समयसार / आत्मख्याति गाथा 232)।</p> | ||
<p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 6/24/1/529/12 "बहुविधेषु दुर्नयदर्शनवर्त्मसु तत्त्ववदाभासमानेषु युक्त्यभावं परीक्षाचक्षुषा व्यवसाय्य विरहितमोहता अमूढदृष्टिता</p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 6/24/1/529/12 "बहुविधेषु दुर्नयदर्शनवर्त्मसु तत्त्ववदाभासमानेषु युक्त्यभावं परीक्षाचक्षुषा व्यवसाय्य विरहितमोहता अमूढदृष्टिता</p> | ||
<p class="HindiText">= बहुत प्रकारके मिथ्यावादियोंके | <p class="HindiText">= बहुत प्रकारके मिथ्यावादियोंके एकांत दर्शनोंमें तत्त्वबुद्धि और युक्तियुक्तता छोड़कर परीक्षारूपी चक्षुद्वारा सत्य असत्यका निर्णय करता हुआ मोह रहित होना अमूढ़दृष्टिता है।</p> | ||
<p class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह वृ./टी./41/173/9 निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढदृष्टिगुणस्य | <p class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह वृ./टी./41/173/9 निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढदृष्टिगुणस्य प्रसादेनांतस्तत्त्वबहिस्तत्त्वनिश्चये जाते सति समस्तमिथ्यात्वरागादिशुभाशुभसंकल्प-विकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेयबुद्धिं हितबुद्धिं ममत्वाभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि यन्निश्चलावस्थानं तदेवामूढदृष्टित्वमिति।"</p> | ||
<p class="HindiText">= निश्चयनयसे व्यवहार अमूढ़दृष्टिगुणके प्रसादसे जब | <p class="HindiText">= निश्चयनयसे व्यवहार अमूढ़दृष्टिगुणके प्रसादसे जब अंतरंग और बहिरंग तत्त्वका निश्चय हो जाता है, तब संपूर्ण मिथ्यात्व रागादि शुभाशुभ संकल्प विकल्पोंमें इष्ट बुद्धिको छोड़कर त्रिगुप्तिरूपसे विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजात्मामें निश्चल अवस्थान करता है, वही अमूढ़-दृष्टिगुण है।</p> | ||
<p>2. अमूढ़दृष्टिका व्यवहार लक्षण</p> | <p>2. अमूढ़दृष्टिका व्यवहार लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 256 लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं। णच्चा दंसणघादी ण य कायव्वं ससत्तीए ॥256॥</p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 256 लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं। णच्चा दंसणघादी ण य कायव्वं ससत्तीए ॥256॥</p> | ||
<p class="HindiText">= मूढ़ताके चारभेद हैं-लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, सामायिक मूढ़ता, अन्यदेवतामूढ़ता इन चारोंको दर्शनघातक जानकर अपनी शक्तिकर नहीं करना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= मूढ़ताके चारभेद हैं-लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, सामायिक मूढ़ता, अन्यदेवतामूढ़ता इन चारोंको दर्शनघातक जानकर अपनी शक्तिकर नहीं करना चाहिए। </p> | ||
<p>( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 14)।</p> | <p>( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 14)।</p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText">रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 14 कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽत्यसम्मतिः। असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥14॥</p> | ||
<p class="HindiText">= कुमार्ग व कुमार्गियोंमें मनसे सम्मत न होना, कायसे सराहना नहीं करना, वचनसे प्रशंसा नहीं करनी सो अमूढ़दृष्टिनामा अंग कहा जाता है।</p> | <p class="HindiText">= कुमार्ग व कुमार्गियोंमें मनसे सम्मत न होना, कायसे सराहना नहीं करना, वचनसे प्रशंसा नहीं करनी सो अमूढ़दृष्टिनामा अंग कहा जाता है।</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/173/5 कृदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं-अज्ञानिजनवित्तचमत्कारो त्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचिं भक्तिं न कुरुते स एवं व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/173/5 कृदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं-अज्ञानिजनवित्तचमत्कारो त्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचिं भक्तिं न कुरुते स एवं व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= कुदृष्टियोंके द्वारा बनाये हुए, अज्ञानियोंके चित्तमें विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रसायनादिक शास्त्रोंको देखकर या सुनकर जो कोई मूढ़भावसे धर्मबुद्धि करके उनमें प्रीति तथा भक्ति नहीं करता है उसको व्यवहारसे अमूढ़दृष्टि कहते है।</p> | <p class="HindiText">= कुदृष्टियोंके द्वारा बनाये हुए, अज्ञानियोंके चित्तमें विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रसायनादिक शास्त्रोंको देखकर या सुनकर जो कोई मूढ़भावसे धर्मबुद्धि करके उनमें प्रीति तथा भक्ति नहीं करता है उसको व्यवहारसे अमूढ़दृष्टि कहते है।</p> | ||
<p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 589-595,596,775 अतत्त्वेतत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षणात्। नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्यमूढदृक् ॥589॥ अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह। अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढता ॥595॥ कुदेवाराधनं कुर्यादैहिकश्रेयसे कुधीः। मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढता ॥596॥ देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्त्वार्थदर्शनी। ख्याताऽप्यमूढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढ़दृष्टिता ॥775॥</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 589-595,596,775 अतत्त्वेतत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षणात्। नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्यमूढदृक् ॥589॥ अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह। अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढता ॥595॥ कुदेवाराधनं कुर्यादैहिकश्रेयसे कुधीः। मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढता ॥596॥ देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्त्वार्थदर्शनी। ख्याताऽप्यमूढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढ़दृष्टिता ॥775॥</p> | ||
<p class="HindiText">= मूढ़ दृष्टि लक्षणकी अपेक्षासे अतत्त्वोंमें तत्त्वपनेके श्रद्धानको मूढ़दृष्टि कहते हैं। वह मढ़दृष्टि जिस जीवकी नहीं है सो अमूढ़दृष्टिवाला प्रगट सम्यग्दृष्टि है ॥589॥ इस लोकमें जो कुदेव हैं, उनमें देवबुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि, तथा कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है वह देवादिमूढ़ता कहनेमें आती है ॥595॥ इस लोक | <p class="HindiText">= मूढ़ दृष्टि लक्षणकी अपेक्षासे अतत्त्वोंमें तत्त्वपनेके श्रद्धानको मूढ़दृष्टि कहते हैं। वह मढ़दृष्टि जिस जीवकी नहीं है सो अमूढ़दृष्टिवाला प्रगट सम्यग्दृष्टि है ॥589॥ इस लोकमें जो कुदेव हैं, उनमें देवबुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि, तथा कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है वह देवादिमूढ़ता कहनेमें आती है ॥595॥ इस लोक संबंधी श्रेयके लिए जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवीओं की आराधना करता है, वह मात्र मिथ्यालोकोपचारवत् करानेमें आयी होनेसे अकल्याणकारी लोकमूढ़ता है ॥596॥ देवमें, गुरुमें और धर्ममें समीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह अमूढ़दृष्टि कहलाती है और असमीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह मूढ़दृष्टि है ॥775॥</p> | ||
<p>( समयसार / 236/पं. | <p>( समयसार / 236/पं.जयचंद) ( दर्शनपाहुड़ / पं.जयचंद/2)</p> | ||
<p>3. कुगुरु आदिके निषेधका कारण</p> | <p>3. कुगुरु आदिके निषेधका कारण</p> | ||
<p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार /2/85/211 | <p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार /2/85/211 सम्यक्त्वगंधकलभः प्रबलप्रतिपक्षकरीटसंघट्टम्। कुर्वन्नेव निवार्यः स्वपक्षकल्याणमभिलषता ॥85॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस प्रकार अपने यूथकी कुशल चाहनेवाला सेनापति अपने यूथके मदोन्मत्त हाथीके बच्चेकी प्रतिपक्षियोंके प्रबल हाथीसे रक्षा करता है, क्योंकि वह बच्चा है। बड़ा होनेपर उस प्रबल हाथीका घात करने योग्य हो जायगा तब स्वयं उसका घात कर देगा। ऐसे ही पहिली भूमिकामें अन्यदृष्टिके साथ भिड़नेसे अपनेको बचाये।</p> | <p class="HindiText">= जिस प्रकार अपने यूथकी कुशल चाहनेवाला सेनापति अपने यूथके मदोन्मत्त हाथीके बच्चेकी प्रतिपक्षियोंके प्रबल हाथीसे रक्षा करता है, क्योंकि वह बच्चा है। बड़ा होनेपर उस प्रबल हाथीका घात करने योग्य हो जायगा तब स्वयं उसका घात कर देगा। ऐसे ही पहिली भूमिकामें अन्यदृष्टिके साथ भिड़नेसे अपनेको बचाये।</p> | ||
<p>• कुगुरु आदिकी विनयका निषेध-दे विनय/4।</p> | <p>• कुगुरु आदिकी विनयका निषेध-दे विनय/4।</p> |
Revision as of 16:17, 19 August 2020
1. अमूढदृष्टिका निश्चय लक्षण-
समयसार / मूल या टीका गाथा 232-जो हवइ अम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेषु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी सुणेयव्वो ॥232॥
= जो चेतयिता समस्त भावोंमें अमूढ़ है। यथार्थ दृष्टिवाला है, उसको निश्चयसे अमूढदृष्टि सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
( समयसार / आत्मख्याति गाथा 232)।
राजवार्तिक अध्याय 6/24/1/529/12 "बहुविधेषु दुर्नयदर्शनवर्त्मसु तत्त्ववदाभासमानेषु युक्त्यभावं परीक्षाचक्षुषा व्यवसाय्य विरहितमोहता अमूढदृष्टिता
= बहुत प्रकारके मिथ्यावादियोंके एकांत दर्शनोंमें तत्त्वबुद्धि और युक्तियुक्तता छोड़कर परीक्षारूपी चक्षुद्वारा सत्य असत्यका निर्णय करता हुआ मोह रहित होना अमूढ़दृष्टिता है।
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./41/173/9 निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढदृष्टिगुणस्य प्रसादेनांतस्तत्त्वबहिस्तत्त्वनिश्चये जाते सति समस्तमिथ्यात्वरागादिशुभाशुभसंकल्प-विकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेयबुद्धिं हितबुद्धिं ममत्वाभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि यन्निश्चलावस्थानं तदेवामूढदृष्टित्वमिति।"
= निश्चयनयसे व्यवहार अमूढ़दृष्टिगुणके प्रसादसे जब अंतरंग और बहिरंग तत्त्वका निश्चय हो जाता है, तब संपूर्ण मिथ्यात्व रागादि शुभाशुभ संकल्प विकल्पोंमें इष्ट बुद्धिको छोड़कर त्रिगुप्तिरूपसे विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजात्मामें निश्चल अवस्थान करता है, वही अमूढ़-दृष्टिगुण है।
2. अमूढ़दृष्टिका व्यवहार लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 256 लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं। णच्चा दंसणघादी ण य कायव्वं ससत्तीए ॥256॥
= मूढ़ताके चारभेद हैं-लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, सामायिक मूढ़ता, अन्यदेवतामूढ़ता इन चारोंको दर्शनघातक जानकर अपनी शक्तिकर नहीं करना चाहिए।
( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 14)।
रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 14 कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽत्यसम्मतिः। असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥14॥
= कुमार्ग व कुमार्गियोंमें मनसे सम्मत न होना, कायसे सराहना नहीं करना, वचनसे प्रशंसा नहीं करनी सो अमूढ़दृष्टिनामा अंग कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/173/5 कृदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं-अज्ञानिजनवित्तचमत्कारो त्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचिं भक्तिं न कुरुते स एवं व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते।
= कुदृष्टियोंके द्वारा बनाये हुए, अज्ञानियोंके चित्तमें विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रसायनादिक शास्त्रोंको देखकर या सुनकर जो कोई मूढ़भावसे धर्मबुद्धि करके उनमें प्रीति तथा भक्ति नहीं करता है उसको व्यवहारसे अमूढ़दृष्टि कहते है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 589-595,596,775 अतत्त्वेतत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षणात्। नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्यमूढदृक् ॥589॥ अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह। अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढता ॥595॥ कुदेवाराधनं कुर्यादैहिकश्रेयसे कुधीः। मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढता ॥596॥ देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्त्वार्थदर्शनी। ख्याताऽप्यमूढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढ़दृष्टिता ॥775॥
= मूढ़ दृष्टि लक्षणकी अपेक्षासे अतत्त्वोंमें तत्त्वपनेके श्रद्धानको मूढ़दृष्टि कहते हैं। वह मढ़दृष्टि जिस जीवकी नहीं है सो अमूढ़दृष्टिवाला प्रगट सम्यग्दृष्टि है ॥589॥ इस लोकमें जो कुदेव हैं, उनमें देवबुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि, तथा कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है वह देवादिमूढ़ता कहनेमें आती है ॥595॥ इस लोक संबंधी श्रेयके लिए जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवीओं की आराधना करता है, वह मात्र मिथ्यालोकोपचारवत् करानेमें आयी होनेसे अकल्याणकारी लोकमूढ़ता है ॥596॥ देवमें, गुरुमें और धर्ममें समीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह अमूढ़दृष्टि कहलाती है और असमीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह मूढ़दृष्टि है ॥775॥
( समयसार / 236/पं.जयचंद) ( दर्शनपाहुड़ / पं.जयचंद/2)
3. कुगुरु आदिके निषेधका कारण
अनगार धर्मामृत अधिकार /2/85/211 सम्यक्त्वगंधकलभः प्रबलप्रतिपक्षकरीटसंघट्टम्। कुर्वन्नेव निवार्यः स्वपक्षकल्याणमभिलषता ॥85॥
= जिस प्रकार अपने यूथकी कुशल चाहनेवाला सेनापति अपने यूथके मदोन्मत्त हाथीके बच्चेकी प्रतिपक्षियोंके प्रबल हाथीसे रक्षा करता है, क्योंकि वह बच्चा है। बड़ा होनेपर उस प्रबल हाथीका घात करने योग्य हो जायगा तब स्वयं उसका घात कर देगा। ऐसे ही पहिली भूमिकामें अन्यदृष्टिके साथ भिड़नेसे अपनेको बचाये।
• कुगुरु आदिकी विनयका निषेध-दे विनय/4।
• देवगुरु धर्म मूढ़ता-देखें मूढ़ता ।