आहारक: Difference between revisions
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जीव हर अवस्थामें निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है इसलिए भले ही कवलाहार करे अथवा न करे वह आहारक कहलाता है। जन्म धारणाके प्रथण क्षणसे ही वह आहारका हो जाता है। परन्तु विग्रहगति व केवली समुद्घातमें वह उस आहारको ग्रहण न करनेके कारण अनाहारक कहलाता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं बड़े ऋषियोंको एक ऋद्धि प्रगट हो जाती है, जिसके प्रताप से वह इन्द्रियागोचर एक विशेष प्रकारका शरीर धारण करके इस पंच भौतिक शरीरसे बाहर निकल जाते हैं, और जहाँ कहीं भी अर्हन्त भगवान् स्थइर हो वहाँ तक शीघ्रतासे जाकर उनका स्पर्श कर शीघ्र लौट आते हैं, पुनः पूर्ववत् शरीरमें प्रवेश कर जातें हैं, ऐसे शरीरको आहारकत शरीर कहते हैं। यद्यपि इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता पर विशेष योगियोंको ज्ञान द्वारा इसका वर्ण धवल दिखाई देता है। इस प्रकार आहारक शरीर धारकका शरीरसे बाहर निकलना आहारक समुद्घात कहलाता है। नोकर्माहारके ग्रहण करते रहनेके कारण इसकी आहारक संज्ञा है। | जीव हर अवस्थामें निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है इसलिए भले ही कवलाहार करे अथवा न करे वह आहारक कहलाता है। जन्म धारणाके प्रथण क्षणसे ही वह आहारका हो जाता है। परन्तु विग्रहगति व केवली समुद्घातमें वह उस आहारको ग्रहण न करनेके कारण अनाहारक कहलाता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं बड़े ऋषियोंको एक ऋद्धि प्रगट हो जाती है, जिसके प्रताप से वह इन्द्रियागोचर एक विशेष प्रकारका शरीर धारण करके इस पंच भौतिक शरीरसे बाहर निकल जाते हैं, और जहाँ कहीं भी अर्हन्त भगवान् स्थइर हो वहाँ तक शीघ्रतासे जाकर उनका स्पर्श कर शीघ्र लौट आते हैं, पुनः पूर्ववत् शरीरमें प्रवेश कर जातें हैं, ऐसे शरीरको आहारकत शरीर कहते हैं। यद्यपि इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता पर विशेष योगियोंको ज्ञान द्वारा इसका वर्ण धवल दिखाई देता है। इस प्रकार आहारक शरीर धारकका शरीरसे बाहर निकलना आहारक समुद्घात कहलाता है। नोकर्माहारके ग्रहण करते रहनेके कारण इसकी आहारक संज्ञा है। | ||
१. आहारक मार्गणा निर्देश | |||
1. आहारक मार्गणाके भेद | |||
2. आहारक जीवका लक्षण | |||
3. अनाहारक जीवका लक्षण | |||
4. आहारक जीव निर्देश | |||
5. अनाहारक जीव निर्देश | |||
6. आहारक मार्गणामें नोकर्मका ग्रहण है, कवलाहारका नहीं | |||
• आहारक व अनाहारक मार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व - दे. आहारक १/४-५ | |||
7. पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं | |||
8. कार्माण कर्मयोगीको अनाहारक कैसे कहते हो | |||
• आहारक व अनाहारकके स्वामित्व सम्बन्धी जीव-समास, मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ - दे. सत् | |||
• आहारक व अनाहारकके सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - दे वह वह नाम | |||
• आहारक मार्गणामें कर्मोंका बन्ध उदय व सत्त्व - दे वह वह नाम | |||
• भाव मार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय होनेका नियम - दे मार्गणा | |||
२. आहारक शरीर निर्देश | |||
1. आहारक शरीरका लक्षण | |||
• पाँचो शरीरोंका उत्तरोत्तर सूक्ष्मत्व व उनका स्वामित्व - दे. शरीर १,२ | |||
2. आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है | |||
3. मस्तकसें उत्पन्न होता है | |||
4. कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करनेमें समर्थ | |||
• आहारक शरीर सर्वथा अप्रतिघाती नहीं है - दे. वैक्रियक | |||
• आहारक शरीर नामकर्म का बन्ध उदय सत्त्व - दे. वह वह नाम | |||
• आहारक शरीरकी संघातन परिशातन कृति - दे. [[धवला]] पुस्तक संख्या ९/पृ.३५५-४५१ | |||
5. आहारक शरीरमें निगोद राशि नहीं होती | |||
6. आहारक शरीरकी स्थिति | |||
7. आहारक शरीरका स्वमित्व | |||
• आहारक शरीरके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संचय का स्वमित्व - दे.[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.४४५-४९०/४१४ | |||
8. आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन | |||
३. आहरक समुद्धात निर्देश | |||
1. आहारक ऋद्धिका लक्षण | |||
2. आहरक समुद्घातका लक्षण | |||
3. आहारक समुद्घातका स्वामित्व | |||
4. इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लंबे सूच्यंयगुल योजन चौड़े ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार हैं | |||
• केवल एकही दिशामें गमन करता है तथा स्थिति संख्यात समय है - दे. समुद्घात | |||
5. समुद्घात गत आत्म प्रदेशोंका पुनः औधरिक शरीरमें संघटन कैसे हो | |||
• सातों समुद्घातके स्वमित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा - दे. समुद्घात | |||
• आहारक समुद्घातकमें वर्ण शक्ति आदि - दे. आहारक शरीरवत् | |||
४. आहरक व मिश्र काययोग निर्देश | |||
1. आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण | |||
2. आहारक काययोगका स्वामित्व | |||
3. आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विरोध तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान आदि | |||
• आहारक शरीर व योगका मनःपर्ययज्ञान, प्रथमोपशमसम्यक्त्व परिहार विशुद्धि संयमसे विरोध है - दे. परिहार विशुद्धि | |||
• आहारक काययोग और वैक्रियक काययोगकी युगपत् प्रवृत्ति संभव नहीं - दे. ऋद्धि १० | |||
4. आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे | |||
5. आहारक काय योगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना | |||
• प्रायप्तावस्थामें भी कार्माण शरीर तो होता है, फिर तहाँ मिश्र योग क्यों नहीं कहते? - दे. काय ३ | |||
6. आहारक मिश्रयोगीमें अपर्याप्तपना कैसे संभव है | |||
7. यदि है तो वहाण अपर्याप्तवस्थामें भी संयम कैसे संभव है | |||
• आहारक व मिश्र योगमें मरण सम्बन्धी - दे. मरण ३ | |||
१. आहारक मार्गणा निर्देश | |||
१. आहारक मार्गणाके भेद | |||
[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या १/१,१/सू.१७५/४०९ आहाराणुवादेण अत्थि आहारा अणाहारा ।।१७५।। | |||
= आहारक मार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीव होते हैं ।।१७५।। | |||
द्र.सं.वृ./टी.१३/४० आहारकानाहारकजीवभेदनाहारकमार्गणापि द्विधा। | |||
= आहारक अनाहारक जीवके भेदसे आहारक मार्गणा भी दो प्रकार की है। | |||
२. आहारक जीवका लक्षण | |||
[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७६ आहारइ जीवाणं तिण्हं एक्कदरवग्गाणाओ य। भासा मणस्स णियमं तम्हा आहारओ भणिओ ।।१७६।। | |||
= जो जीव औदारिक वेक्रियक और आहारक इन शरीरोंमे-से उदयको प्राप्त हुए किसी एक शरीरके योग्य शरीर वर्गणाको तथा भाषा वर्गणा और मनोवर्गणाको नियमसे ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है ।।१७६।। | |||
([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७७), ([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,५/९७-९८/१५३), ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या १/२४०), ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ६६४-६६६) | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/३०/१८६/९ त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः। | |||
= तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करनेको आहार कहते हैं। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/३०/४/१४०), ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/९४) | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/७/११/६०४/१९ उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारः तद्विपरीतोऽनाहारः। तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति। अनाहारः शरीरनामत्रयोदयाभावत् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति। | |||
= उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोंका आहार है। उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्मके उदय और विग्रहगति नामकर्मके उदयाभावसे आहार होता है। शरीर नामकर्मके उदयाभाव और विग्रहगति नामकर्मके उदयसे अनाहार होता है। | |||
३. अनाहारक जीवका लक्षण | |||
सं.सि.२/३०/१८६/१० तदभावनाहारकः ।।३०।। | |||
= तीन शरीरों और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलों रूप आहार जिनके नहीं होता, वह अनाहारक कहलाते हैं। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/३०/४/१४०), ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/७/११-६०४/१९), ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/९४) | |||
४. अहारक जीव निर्देश | |||
पं.सा./प्रा.१/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ।।१७७।। | |||
= विग्रहगत जीव, प्रतर व लोक पूरण प्राप्त सयोग केवली और अयोग केवली, तथा सिद्ध भगवान्के अतिरिक्त शेष जीव आहारक होते हैं। | |||
([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,४/९९/१५३), ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ६६६) | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/३०/१८६/११ उपपादक्षेत्र ऋजव्यां गतौ आहारकः। | |||
= जब यह जीव उपपाद क्षेत्रके प्रति ऋजुगतिमें रहता है तब आहारक होता है। (क्योंकि शरीर छोड़ने व शरीर ग्रहणके बीच एक समय का भी अन्तर पड़ने नहीं पाता।) | |||
५. अनाहारक जीव निर्देश | |||
[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या १/१,१/सू.१७७/४१० अणाहारा चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ।।१७७।। | |||
= विग्रहगतिको प्राप्त मिथ्यात्व सासादन और अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान गत जीव तथा समुद्घातगत सयोगि केवलि, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगी केवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं। | |||
([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या १/८/३३/९), ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या २/९५) | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या २/३० एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः । | |||
= विग्रहगतिमें एक, दो तथा तीन समयके लिए जीव अनाहारक होता है। | |||
[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिदो समुहदो अजोगी य। सिद्धाय अणाहार...जीवा ।।१७७।। | |||
= विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारों गतिके जीव, प्रतर और लोक समुद्घातको प्राप्त सयोगि केवली और अयोगि केवली तथा सिद्ध ये सब अनाहारक होते हैं। | |||
([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,४/९९/१५३), ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ६६६) | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/३०/६/१४०/१२ विग्रहगतौ शेषस्याहारस्याभावः। | |||
= विग्रहगति में नोकर्मसे अतिरिक्त बाकी के कवलाहार, लेपाहार आदि कोईभी आहार नहीं होते। | |||
[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ६९८...। कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धेऽवि णायव्वो। | |||
= मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत व सयोगी इनकै कर्मण अवस्था विषै और अयोगी जिन व सिद्ध भगवान् इन विषै अनाहार है। | |||
[[क्षपणासार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ६१९/७३० णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ।।६१९।। | |||
= इतना विशेष जो केवली समुद्घातको प्राप्त केवली विषै दो तो प्रतर समुद्घातके समय (आरोहण व अवरोहण) और एक लोकपूर्णका समय इन तीन समयनिविषै नोकर्मका आहार नियमसे नहीं होता। | |||
६. आहारक मार्गणामें नोकर्माहारका ग्रहण है कवलाहार का नहीं | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१७६/४०९/१० अत्र कवललेपोष्ममनः कर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सह विरोधात्। | |||
= यहाँपर आहार शब्दसे कवलाहार, लेपाहार, उष्माहार, मानसिकाहार, कर्माहारको छोड़कर नोकर्माहारका ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरहके साथ विरोध आता है। | |||
७. पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१/५३०/१ अजोगिभगवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणूणामभावं पेक्खिऊण पज्जत्ताणमणाहरित्तं लब्भदि। | |||
= प्रश्न - मनुष्योंमें पर्याप्त अवस्थामें भी अनाहारक होनेका कारण क्या है? उत्तर - मनुष्योंमें पर्याप्त अवस्थामें अनाहारक होनेका कारण यह है कि अयोगिकेवली भगवान्के शरीरके निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओंके अभाव देखकर पर्याप्तक मनुष्यको भी अनाहारकपना बन जाता है। | |||
८. कार्माण काययोगीको अनाहारक कैसे कहते हो | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/६६९/५ कम्ममग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णि-समय-विरहकालोवलद्धादो। | |||
= प्रश्न - कार्माण काययोगकी अवस्थामें भी कर्म वर्गणाओंके ग्रहणका अस्तित्व पाया जाता है। इस अपेक्षासे कार्माण योगी जीवोंको आहारक क्यों नहीं कहा जाता? उत्तर - उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोगके समय नोकर्म वर्गणाओंके आहार का अधिकसे अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता है। (आहारक मार्गणामें नोकर्माहार ग्रहण किया गया है कवलाहार नहीं। दे. आहार१/६) | |||
२. आहारक शरीर निर्देश | |||
१. आहारक शरीरका लक्षण | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या २/३६/१९१/७ सूक्ष्मपदार्थ निर्ज्ञानार्थम संयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते निर्वर्त्यते तदित्याहारकम्। | |||
= सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करनेके लिए या असमयको दूर करनेकी इच्छासे प्रमत्त संयत जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/३६/७/१४६/९) | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/४९/३/१५२/२९ न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघातो नाप्यन्येनाहारकस्येत्युभयतो व्याघाताभावादव्याघाती ति व्यपदिश्यते। | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/४९/८/१५३/१४ दुरधिगमसूक्ष्मपदार्थ निर्णयलक्षणमाहारकम्। | |||
= न तो आहारक शरीर किसीका व्याघात करता है, न किसीसे व्याघातित ही होता है, इसलिए अव्याघाती है। सूक्ष्म पदार्थके निर्णयके लिए आहारक शरीर होता है। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,५६/१६४/२९४ आहरदि अणेण मुणी सुहुमे अट्ठे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलि-पांस... ।।१६४।। | |||
= छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि अपने को सन्देह होने पर जिस शरीरके द्वारा केवलीके पास जाकर सूक्ष्म पदार्थोंका आहरण करता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १,१,५६/२९२/३ आहरति अतामासात्करोति सूक्ष्मानर्थानेनेति आहारः। | |||
= जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थोंका ग्रहण करता है, उसको आहारक शरीर कहते हैं। | |||
[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.२३९/३२६ णिवुणाणं वा णिण्णाणं सुहुवाणं वा आहारदव्वाणं सुहुमदरमिदि आहारयं ।।२३९।। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,२४०/१२७/४ णिउणा, अण्हा, मउआ..णिण्हां धवला सुअंधा सुट्ठ सुंदरा त्ति... अप्पडिहया सुहुमा णाम। आहरदव्वाणं मज्झे णिउणदरं णिण्णदरंखंधं आहारसरीरणिप्पायणट्ठं आहारदि गेण्हदि त्ति आहारयं। | |||
= निपुण, स्निग्ध और सूक्ष्म आहारक द्रव्योंमें सूक्ष्मतर है, इसलिए आहारक है ।।२३९।। निपुण अर्थात् अण्हा और मृदु स्निग्ध अर्थात् धवल, सुगन्ध, सुष्ठु और सुन्दर... अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है। आहार द्रव्योंमें-से आहारक शरीरको उत्पन्न करनेके लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कन्दको आहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहरक कहलाता है। | |||
[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३७ उत्तमअंगम्हि हवे धादुविहीणं सुहं असंहणणं। सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं पसत्थुदयं ।।२३७।। | |||
= सो आहारक शरीर कैसा हो रसादिक सप्तधातु करि रहति हो है। बहुरि शुभ नामकर्मके उदय तै प्रशस्त अवयवका धारी प्रशस्त हो है, बहुरि संहनन करि रहित हो है। बहुरि शुभ जो समचतुरस्र संस्थान वा अंगोपांगका आकार ताका धारण हो है। बहुरि चन्द्रमणि समान श्वेत वर्ण, हस्त प्रमाण हो है। प्रशस्त आहारक शरीर बन्दननादिक पुण्यरूप प्रकृति तिनिका उदय जाका ऐसा हो है। ऐसा आहारक शरीर उत्तमांग जो है मुनिका मस्तक तहाँ उत्पन्न हो है। | |||
२. आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/६ तं च हत्थुस्सेधं हंसधवलं सव्वगसुन्दरं। | |||
= एक हाथ उँचा, हंसके समान धव वर्ण वाला तथा सर्वांग सुन्दर होता है। | |||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३७) | |||
३. मस्तकसे उत्पन्न होता है | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/७ उत्तमंगसंभवं। | |||
= उत्तमांग अर्थात् मस्तकसे उत्पन्न होने वाला है। | |||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३७) | |||
४. कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करनेमें समर्थ | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/६ अणेयजोजणलक्खगमणक्खमं अपडिहयगमणं। | |||
= क्षणमात्रमें कई लाख योजन गमन करनेमें समर्थ, ऐसा अप्रतिहत गमन वाला। | |||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३८) | |||
५. आहारक शरीरमें निगोद राशि नहीं होती | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,९१/८१/८... आहारसरीरा पमत्तसंजदा...पत्तेयसरीरा वुच्चंति, एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो। | |||
= आहारक शरीरी, प्रमत्तसंयत...ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते है। क्योंकि इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता। | |||
६. आहारक शरीरकी स्थिति | |||
[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३८ अंतोमुहुत्तकालट्ठिदो जहण्णिदरे... ।।२३८।। | |||
= बहुरि जाको (आहारक शरीरकी) जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मूहूर्त काल प्रमाण है। | |||
७. आहारक शरीरका स्वामित्व | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/४९/६/१५३/६ यदा आहारकशरीरं निर्वर्तयितुमारभते तदा प्रमतो भवतीति प्रमत्तसंयतस्येत्युच्यते। | |||
= जिस समय मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है, उस समय प्रमत्तसंयत हो होता है। | |||
(विशेष दे. आहारक/३/३) | |||
८. आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/४९/४/१५३/१ कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावाज्ञानार्थं कदाचित्सूक्ष्मपदार्थ निर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च भरतैरावतेषु केवलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु केवलिसकाशं जिगमिषुरौदारिकेण मे महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निर्वर्तयति। | |||
= कदाचित् ऋद्धिका सद्भाव जाननेके लिए, कदाचित सूक्ष्म पदार्थोंका निर्णय करनेके लिए, संयमके परिपालनके अर्थ, भरत ऐरावत क्षेत्रमें केवली का अभाव होनेसे, तत्त्वोंमें, संशयको दूर करनेके लिए महा विदेह क्षेत्रमें और शरीरसे जाना तो शक्य नहीं है, और इससे मुझे असंयम भी बहुत होगा, इसलिए विद्वान् मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है। | |||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३५-२३६,२३९) | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/७ आणाकणिट्ठदाए असंजमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं। | |||
= जो आज्ञाकी अर्थात् श्रुतज्ञानकी कनिष्टता अर्थात् हीनता के होनेपर और असंयमकी बहुलता होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है ऐसा है। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,२३९/३२६/३ असंजमबहुलदा आणाकणिट्ठदा सगखेत्ते केवलि विरहो त्ति एदेहि तीहि कारणेहिं साहू आहारशरीरं पडिवज्जंति। जल-थल-आगासेसु अक्कमेण सुहुमजीवेहि दुप्परिहणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि। तप्परिणट्ठं..आहारशरीरं साहू पडिवज्जंति। तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदबहुलदाणिमित्तमिदि भण्णदि।..तिस्से कणिट्ठदा सगखेत्ते थोवत्तं आणाकणिट्ठदा णाम। एदं विदियं कारणं। आगमं मोत्तुण अण्णपमाणं गोयरमइक्कमिदूण ट्ठिदेसुव्वपज्जाएसु संदेहे समुप्पण्णो सगसंदेहे विणासणट्ठं परखेत्तट्ठिय सुदकेवलि-केवलीणं वा पादमूलं गच्छामि त्ति चिंतविदूण आहारसरीरेण परिणमिय गिरि-सरि-सायर-मेरु-कुलसेलपायालाणं गंतूण विणएण पुच्छिय विणट्टसंदेहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छंति त्ति भणिदं होई। परखेत्तम्हि माहमुणीणं केवलाणाणुप्पत्ती। परिणिव्वाणगमणं परिणिक्खमणं वा तित्थयराणं तदियं कारणं विडव्वणरिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साहू ओहिणाणेण सुदणाणेण वा देवागमचिंतेण वा केवलणाणुप्पत्तिमवगतूण वंदणाभत्तीए गच्छामि त्ति चिंतिदूण आहारसरीरेण परिणमिय तप्पदेसं गंतूण तेसिं केवलीणण्णेसिं च जिण-जिणहराणं वदणं काऊण आगच्छंति। | |||
= असंयम बहुलता, आज्ञा कनिष्ठता और अपने क्षेत्रमें केवली विरह इस प्रकार इन तीन कारणोंसे साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते हैं। जल, स्थल और आकाशके एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवोंसे आपूरित होनेपर असंयम बहुलता होती है। उसका परिहार करनेके लिए साधु...आहारक शरीरको प्राप्त होते हैं। इसलिए आहारक शरीरका प्राप्त करना असंयम बहुलता निमिक्तक कहा जाता है। आज्ञा..उसकी कनिष्ठता अर्थात् उसका अपने क्षेत्रमें थोड़ा होना आज्ञाकनिष्ठता कहलाती है। वह द्वितीय कारण है। आगमको छोड़कर द्रव्य और पर्यायोंके अन्य प्रमाणोंके विषय न होने पर अपने सन्देह को दूर करनेके लिए परक्षेत्रमें श्रुतकेवली और केवलीके पादमूलमें जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूप से परिणमन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पातालमें केवली और श्रुतकेवलीके पास जाकर तथा विनयसे पूछकर सन्देहसे रहित होकर औट जाते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परक्षेत्रमें महामुनियोंके केवलज्ञानकी उत्पत्ति और परिनिर्माणगमन तथा तीर्थंकरोंके परिनिष्क्रमण कल्याणक यह तीसरा कारण है। विक्रियाऋद्धिसे रहित और आहारक लब्धसे युक्त साधु अवधिज्ञानसे या श्रुतज्ञानसे देवोंके आगमनके विचारसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति जानकर वन्दना भक्तिसे जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूपसे परिणमन कर उस प्रदेशमें जाकर उन केवलियोंकी और दूसरे जिनोंकी व जिलायोंकी वन्दना करके वापिस आते हैं। | |||
३. आहारक समुद्घात निर्देश | |||
१. आहारक ऋद्धिका लक्षण | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,६०/२९८/४ संयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादनशक्तिराहारर्द्धिरिति। | |||
= संयम विशेषसे उत्पन्न हुई आहारक शरीरके उत्पादन रूप शक्तिको आहारक ऋद्धि कहते हैं। | |||
२. आहारक समुद्घातका लक्षण | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/२०/१२/७७/१८ अल्पसावद्यसूक्ष्मार्थ ग्रहणप्रयोजनाहारकशरीरनिर्वत्त्यर्थं आहारकसमुद्घातः।..आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन् श्रेणिगतित्वात्... आत्मदेशानसंख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरम्...निर्वर्तयति। | |||
= अल्प हिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनों के लिए आहारक शरीरकी रचनाके निमित्त आहारक समुद्घात होता है।... आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणी गति होनेके कारण... असंख्य आत्माप्रदेश निकल कर एक अरत्नि प्रमाण आहारक शरीर को बनाते हैं। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ७/२,६,१/३००/६ आहारसमुग्घादो णाम हत्थपमाणेण सव्वंगसुंदरेणसमचउरससंठालेण हंसधवखेण सररुधिर-मांस-मेदट्ठि-मज्ज-सुक्कसत्तधा उवज्जिएण विसग्गि सत्थादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिला-थंभ-जल पव्वयगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमणं। | |||
= हस्त प्रमाण सर्वांग सुन्दर, समचतुरस्र-संस्थानसे युक्त, हंसके समान, रस, रूधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओंसे रहित, विष अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओंसे मुक्त, वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्वतोंमें-से गमन करनेमे दक्ष, तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरीरसे तीर्थंकरके पादमूलमें जानेका नाम आहारक समुद्घात है। | |||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १०/२६ समुत्पन्नपदार्थ भ्रान्तेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षेर्मूलशरीरं परित्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यान्निर्गम्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्त मध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तद्दर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थ निश्चयं समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति, असावाहारकसमुद्घातः। | |||
= पद और पदार्थमें जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋषिके मस्तकमें-से मूल शरीरको न छोड़कर निर्मल स्फटिकके रंगका एक हाथका पुतला निकल कर अन्तर्मुहूर्तमें जहाँ कहींभी केवलीको देखता है दब उन केवलीके दर्शनसे अपने आश्रय मुनिको पद और पदार्थका निश्चय उत्पन्न कराकर फिर अपने स्थानमे प्रवेशकर जावे सो आहारक समुद्घात है। | |||
३. आहारक समुद्घातका स्वामित्व | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या २/४९ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ।।४९।। | |||
= आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयत के ही होता है। | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ८/१/३७६/२ आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते संभवात्। | |||
= प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहारक ऋद्धिधारी मुनिके आहारक काय योग और आहारक मिश्र योग भी सम्भव है। | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/४९/७/१५३/८ प्रमत्तसंयतस्यैवाहरकं नान्यस्य। | |||
= प्रमत्तसंयतके ही आहारक शरीर होता है। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/५ आहारसमुग्घादो णाम पत्तिड्ढीणं महारिसीणं होदि। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,२/३८/९ मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,६१/१२३/७ णवरि पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,३,८२/१३५/६ णवरिपरिहारविसुद्धो पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहार णत्थि। | |||
१. जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे महर्षियोंके होता है। | |||
२. मिथ्यादृष्टि जीव राशिके...(आहारक समुद्घात) सम्भव नहीं, क्योंकि इसके कारणभूत गुणोंका मिथ्यादृष्टि और असंयत व संयतासंयतोंके अभाव हैं। | |||
३. (प्रमत्त संयतमें भी) परिहार विशुद्धि संयतके आहारक व तैजस समुद्घात नहीं होता। ४. प्रमत्तसंयतके उपशम सम्यकत्वके साथ...आहारक समुद्घात नहीं होता है। | |||
([[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,४,१३५/२८६/११) | |||
४. इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लम्बे सूच्यंगुल योजत चौड़े ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार हैं | |||
गो.जी./भाषा ५४३/९४९/९ आहारक समुद्घात विषैं एक जीवकैं शरीर तै बाह्य निकसै प्रदेश तै संख्यात योजन प्रमाणलम्बा अर सूच्यंगुल का संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौड़ा ऊँचा क्षेत्रकौं रोकैं। याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात् घनांगुल प्रमाण भया। इसकरि आहारक समुद्घात वाले जीवनिका संख्यात् प्रमाण है ताकौं गुणैं जो प्रमाण होई तितना आहारक समुद्घातविषैं क्षेत्र जानना। लू शरीर तैं निकसि आहारक शरीर जहाँ जाई तहाँ पर्यन्त लम्बी आत्माके प्रदेशनिकी श्रेणी सूच्यंगुलका संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौड़ी अर ऊँची आकाश विषै है। | |||
५. समुद्घात गत आत्म प्रदेशोंका पुनः औदारिक शरीर में संघटन कैसे हो | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,५६/२९२/८ न च गलितायुषस्तमिन् शरीरे पुनरुत्पत्तिर्विरोधात्। ततो न तस्यौदारिकशरीरेण पुनः संघटनमिति। | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,५६/२९३/३ सर्वात्मना तयोर्वियोगो मरणं नैकदेशेन आगलादप्युपसंहृतजोवावयवानां मरणामनुपलम्भात् जीविताछिन्नहस्तेन व्यभिचाराच्च। न पुनरस्यार्थः सर्वावयवैः पूर्वशरीरपरित्यागः समस्ति येनास्य मरणं जायेत। | |||
= प्रश्न - जिसकी आयु नष्ट हो गयी है ऐसे जीवकी पुनः उस शरीरमें उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। अतः जीवका औदारिक शरीरके साथ पुनः संघटन नहीं बन सकता अर्थात् एक बार जीव प्रदेशोंका आहारक शरीरके साथ सम्बन्ध हो जानेपर पुनः उन प्रदेशोंका पूर्व औदारिक शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता? उत्तर - ऐसा नहीं है, तो भी जीव और शरीरका सम्पूर्ण रूपसे वियोग ही मरण हो सकता है। उनका एकदेश रूपसे वियोग मरण नहीं हो सकता, क्योंकि जिनके कण्ठ पर्यन्त जीव प्रदेश संकुचित हो गये हैं, ऐसे जीवोंका मरण भी नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोगको भी मरण माना जावे, तो जीवित शरीरसे छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उसके साथ व्यभिचार आयेगा। इसी प्रकार आहारक शरीरको धारण करना इसका अर्थ सम्पूर्ण रूपसे पूर्व (औदारिक) शरीरका त्याग करना नहीं है, जिससे कि आहारक शरीरके धारण करने वालेका मरण माना जावे। | |||
४. आहारक व मिश्र काययोग निर्देश | |||
१. आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण | |||
पं./सं./प्रा.१/९७-९८ आहरइ अणेण मुणि सुहुमे अट्ठे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारकाय जोगो सो ।।९७।। अंतोमुहूत्तमज्झं वियाणमिस्सं च अपरिपुण्णा ति। जो तेण संपयोगो आहारयमिस्सकायजोगो सो ।।९८।। | |||
= स्वयं सूक्ष्म अर्थमें सन्देह उत्पन्न होनेपर मुनि जिसके द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर अपने सन्देह को दूर करता है, उसे आहारक काय कहते हैं। उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाले योगको आहारक काययोग कहते हैं ।।९७।। आहारक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेतक अन्तर्मुहूर्तके मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको आहारक मिश्र काय कहते हैं। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता है। | |||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या २३९) | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१/१६४-१६५/२९४...। तम्हा आहारको जोगो ।।१६४।। आहारयमुत्तत्थं वियाणमिस्सं च अपरिपुण्णंयात। जो तेण संपयोगो आहारयमिस्सको जोगो ।।१६५।। | |||
= आहारक शरीरके द्वारा होने वाले योगको आहारक काययोग कहते हैं ।।१६४।। आहारकका अर्थ कह आये हैं। वह आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक उसको आहारक मिश्र कहते हैं। और उसके द्वारा जो संप्रयोग होता है उसे आहारक मिश्र काययोग कहते हैं ।।१६५।। | |||
(गो.जी/मू.२४०) | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,५६/२९३/६ आहारकार्मणस्कन्धतः समुत्पन्नवीर्येण योगः आहारमिश्रकाययोगः। | |||
= आहारक और कार्माणकी वर्गणाओंसे उत्पन्न हुए वीर्यके द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग हैं। | |||
२. आहारक काययोगका स्वामित्व | |||
[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या १/१,१,५१/सू.५९,६३/२९७,३०६ आहारकायजोगो आहारकमिस्सकायजोगो संजदाणमिड्ढि पत्ताणं ।।५९।। आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्तसंजद-ट्ठाणे ।।६३।। | |||
= आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग ऋद्धि प्राप्त छठें गुणस्थानवर्ती सयतोंके होता है ।।५९।। आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग एक प्रमत्त गुणस्थानमें ही होते हैं ।।६३।। | |||
(सि.सि.८/२/३७६/३) | |||
३. आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विरोध तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१,५१३/१ मणुसिणीणं भण्णमाणे....आहारआहारमिस्सकाय जोगा णत्थि। किं कारणं। जेसि भावो इत्थिवेदो दव्वं पुण पुरिसवेदो, ते जीवा संजम पडिवज्जंति। दव्वित्थिवेदा संजमं ण पडिवज्जंति, सचेलत्तादो। भावित्थिवेदाणं दव्वेण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धीसमुप्पज्जदि दव्व-भावेहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पज्जदि तेणित्थिवेदे पि णिरुद्धे आहारदुंग णत्थि। | |||
= मनुष्यनी स्त्रियोंके आलाप कहने पर...आहारक मिश्रकाययोग नहीं होता। प्रश्न - मनुष्य-स्त्रियोंके आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग नहीं होनेका कार्ण क्या है? उत्तर - यद्यपि जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भाव स्त्री) जीव भी संयमको प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा स्त्री वेदवाले जीव संयम को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि, वे सचेल अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी भावकी अपेक्षा स्त्री वेदी और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुष वेदी संयमधारी जीवोंके आहारक ऋद्धि नहीं होती। किन्तु द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदोंकी अपेक्षा से पुरुष वेद वालेके आहारक ऋद्धि होती है। | |||
(और भी दे. वेद/६/३) | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/६६७/३ अप्पसत्थवेदेहि साहारिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति। | |||
= अप्रशस्त वेदोंके साथ आहारक ऋद्धि नहीं उत्पन्न होते हैं | |||
([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ३/२२/$४२६/२४१/१३) | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/६८१/६ आहारदुगं...वेददुगोदयस्स विरोहादो। | |||
= आहारकद्विक....के साथ स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदय होनेका अभाव है। | |||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ७१५) | |||
४. आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/४४१/४ संजदा-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।..आहारमिस्सकायजोदो अपज्जत्ताणं त्ति...अणवगासत्तादो।....अणेयतियादो...किमेदेण जाणाविज्जदि।..एदं सुत्तमणिच्चमिदि। | |||
= प्रश्न - (ऐसा माननेसे) संयतासंयत और संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्त होते हैं। (यह सूत्र कि) “आहारक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है'' बाधा जाता है। उत्तर - इस सूत्रमें अनेकान्त दोष आ जाता है (क्योंकि अन्य सूत्रोंसे यह भी बाधित हो जाता है।) प्रश्न - (सूत्रमें पड़े) इस नियम शब्दसे क्या ज्ञापित होता है। उत्तर - इससे ज्ञापित होता है कि...यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं प्रवृत्ति न हो इसका नाम अनित्यता है। | |||
५. आहारक काययोगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,९०/३३०/६ पूर्वाभ्यस्तवस्तुविस्मरणमन्तरेण शरीरोपादानाद्वा दुःखमन्तरेण पूर्वशरीरपरित्यागाद्वा प्रमत्तस्तदवस्थायां पर्याप्त इत्युपचर्यते। निश्चयनयाश्रयणे तु पुनरपर्याप्तः। | |||
= पहले अभ्यास की हुई वस्तुके विस्मरणके बिना ही आहारक शरीरका ग्रहण होता है, या दुःखके बिना ही पूर्व शरीर (औदारिक) का परित्याग होता है, अतएव प्रमत्त संयत अपर्याप्त अवस्थामें भी पर्याप्त है, इस प्रकारका उपचार किया जाता है। निश्चय नयका आश्रय करने पर तो वह अपर्याप्त ही है। | |||
६. आहारक मिश्रयोगीमें अपर्याप्तपना कैसे सम्भव है | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,७८/३१७/१० आहारकशरीरोत्थापकः पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः। तथा चाहारमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तकस्येति न घटामटेदिति चेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायत्वात्। तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तकः औदारिकशरीरगतष्टपर्यापत्यपेक्षया, आहारशरीरगतपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावापेक्षया त्वपर्याप्तकोऽसौ। पर्याप्तापर्याप्तत्वयोंर्नैकत्राक्रमेण संभवो विरोधादिति चेन्न....इतीष्टत्वात्। कथं न पूर्वोऽभ्युपगम इति विरोध इति चेन्न, भूतपूर्वगतन्यापेक्षया विरोधासिद्धेः। | |||
= प्रश्न - आहारक शरीरको उत्पन्न करनेवाला साधु पर्याप्तक ही होता है। अन्यथा उसके संयतपना नहीं बन सकता। ऐसी हालतमें आहारक मिश्ररकाययोग अपर्याप्तके होता है, यह कथन नहीं बन सकता? उत्तर - नहीं क्योंकि, ऐसा कहने वाला आगमके अभिप्रायको नहीं समझा है। आगमका अभिप्राय तो इस प्रकार है कि आहरक शरीरको उत्पन्न करनेवाला साधु औदारिक शरीरगत छह पर्याप्तियोंकी अपेक्षा पर्याप्त के भले ही रहा आवे, किन्तु आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तिके पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह अपर्याप्तक है। प्रश्न - पर्याप्त और अपर्याप्तना एक साथ एक जीवमें सम्भव नहीं, क्योंकि एक साथ एक जीवमें इन दोनोंके रहनेमें विरोध है? उत्तर - नहीं, क्योंकि... यह तो हमें इष्ट ही है? प्रश्न - तो फिर हमारा पूर्व कथन क्यों न मान लिया जाये, अतः आपके कथनमें विरोध आता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा विरोध असिद्ध है। अर्थात् औदारिक शरीर संबन्धी पर्याप्तपनेकी अपेक्षा आहारक मिश्र अवस्थामें भी पर्याप्तपनेका व्यवहार किया जा सकता है। | |||
७. यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्थामें भी संयम कैसे सम्भव है | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,७८/३१८/५ विनष्टौदारिकशरीरसंबन्धषट्पर्याप्तेरपरिनिष्ठिताहारशरीरगतपर्याप्तेरपर्याप्तस्य कथं संयम इति चेन्न, संयमस्यास्रवनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासिद्धेः। विरोधे वा न केवलिनोऽपि समुद्धातगतस्य संयमः तत्राप्यपर्याप्तकयोगास्तित्वं प्रत्यविशेषात्। `संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता इत्यनेनार्षेण सह कथं न विरोधः स्यादिति चेन्न, द्रव्यार्थिकनयापेक्षया प्रवृत्तसूत्रस्याभिप्रायेणाहारशरीरानिष्पत्त्यवस्थायामपि षट्पर्याप्तीनां सत्त्वाविरोधात्। | |||
प्रश्न - जिसके औदारिक शरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियाँ नष्ट हो चुकी हैं, और आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तियाँ अभी पूर्ण नहीं हूई है, ऐसे अपर्याप्त साधुके संयम कैसे हो सकता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिसका लक्षण आस्रवका निरोध करना है, ऐसे संयमका मन्द योग (आहारक मिश्र) के साथ होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। यदि इस मन्द योगके साथ संयमके होनेमें कोई विरोध आता ही है ऐसा माना जावे, तो समुद्घातको प्राप्त हुए केवलोके भी संयम नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ परभी अपर्याप्त सम्बन्धी योगका सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न - `संयतासंयतसे लेकर सभी गुणस्थानोमें जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं' इस आर्ष वचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यों नहीं आता? उत्तर - नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुए इस सूत्रके अभिप्रायसे आहारक शरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें भी औदारिक शरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियोंके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। | |||
([[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,९०/३२९/९)। |
Revision as of 09:58, 8 May 2009
जीव हर अवस्थामें निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है इसलिए भले ही कवलाहार करे अथवा न करे वह आहारक कहलाता है। जन्म धारणाके प्रथण क्षणसे ही वह आहारका हो जाता है। परन्तु विग्रहगति व केवली समुद्घातमें वह उस आहारको ग्रहण न करनेके कारण अनाहारक कहलाता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं बड़े ऋषियोंको एक ऋद्धि प्रगट हो जाती है, जिसके प्रताप से वह इन्द्रियागोचर एक विशेष प्रकारका शरीर धारण करके इस पंच भौतिक शरीरसे बाहर निकल जाते हैं, और जहाँ कहीं भी अर्हन्त भगवान् स्थइर हो वहाँ तक शीघ्रतासे जाकर उनका स्पर्श कर शीघ्र लौट आते हैं, पुनः पूर्ववत् शरीरमें प्रवेश कर जातें हैं, ऐसे शरीरको आहारकत शरीर कहते हैं। यद्यपि इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता पर विशेष योगियोंको ज्ञान द्वारा इसका वर्ण धवल दिखाई देता है। इस प्रकार आहारक शरीर धारकका शरीरसे बाहर निकलना आहारक समुद्घात कहलाता है। नोकर्माहारके ग्रहण करते रहनेके कारण इसकी आहारक संज्ञा है। १. आहारक मार्गणा निर्देश 1. आहारक मार्गणाके भेद 2. आहारक जीवका लक्षण 3. अनाहारक जीवका लक्षण 4. आहारक जीव निर्देश 5. अनाहारक जीव निर्देश 6. आहारक मार्गणामें नोकर्मका ग्रहण है, कवलाहारका नहीं • आहारक व अनाहारक मार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व - दे. आहारक १/४-५ 7. पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं 8. कार्माण कर्मयोगीको अनाहारक कैसे कहते हो • आहारक व अनाहारकके स्वामित्व सम्बन्धी जीव-समास, मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ - दे. सत् • आहारक व अनाहारकके सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - दे वह वह नाम • आहारक मार्गणामें कर्मोंका बन्ध उदय व सत्त्व - दे वह वह नाम • भाव मार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय होनेका नियम - दे मार्गणा २. आहारक शरीर निर्देश 1. आहारक शरीरका लक्षण • पाँचो शरीरोंका उत्तरोत्तर सूक्ष्मत्व व उनका स्वामित्व - दे. शरीर १,२ 2. आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है 3. मस्तकसें उत्पन्न होता है 4. कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करनेमें समर्थ • आहारक शरीर सर्वथा अप्रतिघाती नहीं है - दे. वैक्रियक • आहारक शरीर नामकर्म का बन्ध उदय सत्त्व - दे. वह वह नाम • आहारक शरीरकी संघातन परिशातन कृति - दे. धवला पुस्तक संख्या ९/पृ.३५५-४५१ 5. आहारक शरीरमें निगोद राशि नहीं होती 6. आहारक शरीरकी स्थिति 7. आहारक शरीरका स्वमित्व • आहारक शरीरके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संचय का स्वमित्व - दे.षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.४४५-४९०/४१४ 8. आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन ३. आहरक समुद्धात निर्देश 1. आहारक ऋद्धिका लक्षण 2. आहरक समुद्घातका लक्षण 3. आहारक समुद्घातका स्वामित्व 4. इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लंबे सूच्यंयगुल योजन चौड़े ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार हैं • केवल एकही दिशामें गमन करता है तथा स्थिति संख्यात समय है - दे. समुद्घात 5. समुद्घात गत आत्म प्रदेशोंका पुनः औधरिक शरीरमें संघटन कैसे हो • सातों समुद्घातके स्वमित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा - दे. समुद्घात • आहारक समुद्घातकमें वर्ण शक्ति आदि - दे. आहारक शरीरवत् ४. आहरक व मिश्र काययोग निर्देश 1. आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण 2. आहारक काययोगका स्वामित्व 3. आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विरोध तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान आदि • आहारक शरीर व योगका मनःपर्ययज्ञान, प्रथमोपशमसम्यक्त्व परिहार विशुद्धि संयमसे विरोध है - दे. परिहार विशुद्धि • आहारक काययोग और वैक्रियक काययोगकी युगपत् प्रवृत्ति संभव नहीं - दे. ऋद्धि १० 4. आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे 5. आहारक काय योगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना • प्रायप्तावस्थामें भी कार्माण शरीर तो होता है, फिर तहाँ मिश्र योग क्यों नहीं कहते? - दे. काय ३ 6. आहारक मिश्रयोगीमें अपर्याप्तपना कैसे संभव है 7. यदि है तो वहाण अपर्याप्तवस्थामें भी संयम कैसे संभव है • आहारक व मिश्र योगमें मरण सम्बन्धी - दे. मरण ३ १. आहारक मार्गणा निर्देश १. आहारक मार्गणाके भेद षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १/१,१/सू.१७५/४०९ आहाराणुवादेण अत्थि आहारा अणाहारा ।।१७५।। = आहारक मार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीव होते हैं ।।१७५।। द्र.सं.वृ./टी.१३/४० आहारकानाहारकजीवभेदनाहारकमार्गणापि द्विधा। = आहारक अनाहारक जीवके भेदसे आहारक मार्गणा भी दो प्रकार की है। २. आहारक जीवका लक्षण पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७६ आहारइ जीवाणं तिण्हं एक्कदरवग्गाणाओ य। भासा मणस्स णियमं तम्हा आहारओ भणिओ ।।१७६।। = जो जीव औदारिक वेक्रियक और आहारक इन शरीरोंमे-से उदयको प्राप्त हुए किसी एक शरीरके योग्य शरीर वर्गणाको तथा भाषा वर्गणा और मनोवर्गणाको नियमसे ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है ।।१७६।। ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७७), (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,५/९७-९८/१५३), ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या १/२४०), (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ६६४-६६६) सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/३०/१८६/९ त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः। = तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करनेको आहार कहते हैं। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३०/४/१४०), (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/९४) राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/७/११/६०४/१९ उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारः तद्विपरीतोऽनाहारः। तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति। अनाहारः शरीरनामत्रयोदयाभावत् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति। = उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोंका आहार है। उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्मके उदय और विग्रहगति नामकर्मके उदयाभावसे आहार होता है। शरीर नामकर्मके उदयाभाव और विग्रहगति नामकर्मके उदयसे अनाहार होता है। ३. अनाहारक जीवका लक्षण सं.सि.२/३०/१८६/१० तदभावनाहारकः ।।३०।। = तीन शरीरों और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलों रूप आहार जिनके नहीं होता, वह अनाहारक कहलाते हैं। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३०/४/१४०), ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/७/११-६०४/१९), (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/९४) ४. अहारक जीव निर्देश पं.सा./प्रा.१/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ।।१७७।। = विग्रहगत जीव, प्रतर व लोक पूरण प्राप्त सयोग केवली और अयोग केवली, तथा सिद्ध भगवान्के अतिरिक्त शेष जीव आहारक होते हैं। (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,४/९९/१५३), (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ६६६) सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/३०/१८६/११ उपपादक्षेत्र ऋजव्यां गतौ आहारकः। = जब यह जीव उपपाद क्षेत्रके प्रति ऋजुगतिमें रहता है तब आहारक होता है। (क्योंकि शरीर छोड़ने व शरीर ग्रहणके बीच एक समय का भी अन्तर पड़ने नहीं पाता।) ५. अनाहारक जीव निर्देश षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १/१,१/सू.१७७/४१० अणाहारा चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ।।१७७।। = विग्रहगतिको प्राप्त मिथ्यात्व सासादन और अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान गत जीव तथा समुद्घातगत सयोगि केवलि, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगी केवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/८/३३/९), (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या २/९५) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या २/३० एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः । = विग्रहगतिमें एक, दो तथा तीन समयके लिए जीव अनाहारक होता है। पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या १/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिदो समुहदो अजोगी य। सिद्धाय अणाहार...जीवा ।।१७७।। = विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारों गतिके जीव, प्रतर और लोक समुद्घातको प्राप्त सयोगि केवली और अयोगि केवली तथा सिद्ध ये सब अनाहारक होते हैं। (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,४/९९/१५३), (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ६६६) राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३०/६/१४०/१२ विग्रहगतौ शेषस्याहारस्याभावः। = विग्रहगति में नोकर्मसे अतिरिक्त बाकी के कवलाहार, लेपाहार आदि कोईभी आहार नहीं होते। गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ६९८...। कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धेऽवि णायव्वो। = मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत व सयोगी इनकै कर्मण अवस्था विषै और अयोगी जिन व सिद्ध भगवान् इन विषै अनाहार है। क्षपणासार / मूल या टीका गाथा संख्या ६१९/७३० णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ।।६१९।। = इतना विशेष जो केवली समुद्घातको प्राप्त केवली विषै दो तो प्रतर समुद्घातके समय (आरोहण व अवरोहण) और एक लोकपूर्णका समय इन तीन समयनिविषै नोकर्मका आहार नियमसे नहीं होता। ६. आहारक मार्गणामें नोकर्माहारका ग्रहण है कवलाहार का नहीं धवला पुस्तक संख्या १/१,१,१७६/४०९/१० अत्र कवललेपोष्ममनः कर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सह विरोधात्। = यहाँपर आहार शब्दसे कवलाहार, लेपाहार, उष्माहार, मानसिकाहार, कर्माहारको छोड़कर नोकर्माहारका ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरहके साथ विरोध आता है। ७. पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं धवला पुस्तक संख्या १/१,१/५३०/१ अजोगिभगवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणूणामभावं पेक्खिऊण पज्जत्ताणमणाहरित्तं लब्भदि। = प्रश्न - मनुष्योंमें पर्याप्त अवस्थामें भी अनाहारक होनेका कारण क्या है? उत्तर - मनुष्योंमें पर्याप्त अवस्थामें अनाहारक होनेका कारण यह है कि अयोगिकेवली भगवान्के शरीरके निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओंके अभाव देखकर पर्याप्तक मनुष्यको भी अनाहारकपना बन जाता है। ८. कार्माण काययोगीको अनाहारक कैसे कहते हो धवला पुस्तक संख्या २/१,१/६६९/५ कम्ममग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णि-समय-विरहकालोवलद्धादो। = प्रश्न - कार्माण काययोगकी अवस्थामें भी कर्म वर्गणाओंके ग्रहणका अस्तित्व पाया जाता है। इस अपेक्षासे कार्माण योगी जीवोंको आहारक क्यों नहीं कहा जाता? उत्तर - उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोगके समय नोकर्म वर्गणाओंके आहार का अधिकसे अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता है। (आहारक मार्गणामें नोकर्माहार ग्रहण किया गया है कवलाहार नहीं। दे. आहार१/६) २. आहारक शरीर निर्देश १. आहारक शरीरका लक्षण सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/३६/१९१/७ सूक्ष्मपदार्थ निर्ज्ञानार्थम संयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते निर्वर्त्यते तदित्याहारकम्। = सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करनेके लिए या असमयको दूर करनेकी इच्छासे प्रमत्त संयत जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३६/७/१४६/९) राजवार्तिक अध्याय संख्या २/४९/३/१५२/२९ न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघातो नाप्यन्येनाहारकस्येत्युभयतो व्याघाताभावादव्याघाती ति व्यपदिश्यते। राजवार्तिक अध्याय संख्या २/४९/८/१५३/१४ दुरधिगमसूक्ष्मपदार्थ निर्णयलक्षणमाहारकम्। = न तो आहारक शरीर किसीका व्याघात करता है, न किसीसे व्याघातित ही होता है, इसलिए अव्याघाती है। सूक्ष्म पदार्थके निर्णयके लिए आहारक शरीर होता है। धवला पुस्तक संख्या १/१,१,५६/१६४/२९४ आहरदि अणेण मुणी सुहुमे अट्ठे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलि-पांस... ।।१६४।। = छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि अपने को सन्देह होने पर जिस शरीरके द्वारा केवलीके पास जाकर सूक्ष्म पदार्थोंका आहरण करता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं। धवला पुस्तक संख्या १,१,५६/२९२/३ आहरति अतामासात्करोति सूक्ष्मानर्थानेनेति आहारः। = जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थोंका ग्रहण करता है, उसको आहारक शरीर कहते हैं। षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.२३९/३२६ णिवुणाणं वा णिण्णाणं सुहुवाणं वा आहारदव्वाणं सुहुमदरमिदि आहारयं ।।२३९।। धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,२४०/१२७/४ णिउणा, अण्हा, मउआ..णिण्हां धवला सुअंधा सुट्ठ सुंदरा त्ति... अप्पडिहया सुहुमा णाम। आहरदव्वाणं मज्झे णिउणदरं णिण्णदरंखंधं आहारसरीरणिप्पायणट्ठं आहारदि गेण्हदि त्ति आहारयं। = निपुण, स्निग्ध और सूक्ष्म आहारक द्रव्योंमें सूक्ष्मतर है, इसलिए आहारक है ।।२३९।। निपुण अर्थात् अण्हा और मृदु स्निग्ध अर्थात् धवल, सुगन्ध, सुष्ठु और सुन्दर... अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है। आहार द्रव्योंमें-से आहारक शरीरको उत्पन्न करनेके लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कन्दको आहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहरक कहलाता है। गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३७ उत्तमअंगम्हि हवे धादुविहीणं सुहं असंहणणं। सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं पसत्थुदयं ।।२३७।। = सो आहारक शरीर कैसा हो रसादिक सप्तधातु करि रहति हो है। बहुरि शुभ नामकर्मके उदय तै प्रशस्त अवयवका धारी प्रशस्त हो है, बहुरि संहनन करि रहित हो है। बहुरि शुभ जो समचतुरस्र संस्थान वा अंगोपांगका आकार ताका धारण हो है। बहुरि चन्द्रमणि समान श्वेत वर्ण, हस्त प्रमाण हो है। प्रशस्त आहारक शरीर बन्दननादिक पुण्यरूप प्रकृति तिनिका उदय जाका ऐसा हो है। ऐसा आहारक शरीर उत्तमांग जो है मुनिका मस्तक तहाँ उत्पन्न हो है। २. आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/६ तं च हत्थुस्सेधं हंसधवलं सव्वगसुन्दरं। = एक हाथ उँचा, हंसके समान धव वर्ण वाला तथा सर्वांग सुन्दर होता है। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३७) ३. मस्तकसे उत्पन्न होता है धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/७ उत्तमंगसंभवं। = उत्तमांग अर्थात् मस्तकसे उत्पन्न होने वाला है। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३७) ४. कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करनेमें समर्थ धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/६ अणेयजोजणलक्खगमणक्खमं अपडिहयगमणं। = क्षणमात्रमें कई लाख योजन गमन करनेमें समर्थ, ऐसा अप्रतिहत गमन वाला। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३८) ५. आहारक शरीरमें निगोद राशि नहीं होती धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,९१/८१/८... आहारसरीरा पमत्तसंजदा...पत्तेयसरीरा वुच्चंति, एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो। = आहारक शरीरी, प्रमत्तसंयत...ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते है। क्योंकि इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता। ६. आहारक शरीरकी स्थिति गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३८ अंतोमुहुत्तकालट्ठिदो जहण्णिदरे... ।।२३८।। = बहुरि जाको (आहारक शरीरकी) जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मूहूर्त काल प्रमाण है। ७. आहारक शरीरका स्वामित्व राजवार्तिक अध्याय संख्या २/४९/६/१५३/६ यदा आहारकशरीरं निर्वर्तयितुमारभते तदा प्रमतो भवतीति प्रमत्तसंयतस्येत्युच्यते। = जिस समय मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है, उस समय प्रमत्तसंयत हो होता है। (विशेष दे. आहारक/३/३) ८. आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन राजवार्तिक अध्याय संख्या २/४९/४/१५३/१ कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावाज्ञानार्थं कदाचित्सूक्ष्मपदार्थ निर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च भरतैरावतेषु केवलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु केवलिसकाशं जिगमिषुरौदारिकेण मे महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निर्वर्तयति। = कदाचित् ऋद्धिका सद्भाव जाननेके लिए, कदाचित सूक्ष्म पदार्थोंका निर्णय करनेके लिए, संयमके परिपालनके अर्थ, भरत ऐरावत क्षेत्रमें केवली का अभाव होनेसे, तत्त्वोंमें, संशयको दूर करनेके लिए महा विदेह क्षेत्रमें और शरीरसे जाना तो शक्य नहीं है, और इससे मुझे असंयम भी बहुत होगा, इसलिए विद्वान् मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३५-२३६,२३९) धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/७ आणाकणिट्ठदाए असंजमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं। = जो आज्ञाकी अर्थात् श्रुतज्ञानकी कनिष्टता अर्थात् हीनता के होनेपर और असंयमकी बहुलता होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है ऐसा है। धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,२३९/३२६/३ असंजमबहुलदा आणाकणिट्ठदा सगखेत्ते केवलि विरहो त्ति एदेहि तीहि कारणेहिं साहू आहारशरीरं पडिवज्जंति। जल-थल-आगासेसु अक्कमेण सुहुमजीवेहि दुप्परिहणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि। तप्परिणट्ठं..आहारशरीरं साहू पडिवज्जंति। तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदबहुलदाणिमित्तमिदि भण्णदि।..तिस्से कणिट्ठदा सगखेत्ते थोवत्तं आणाकणिट्ठदा णाम। एदं विदियं कारणं। आगमं मोत्तुण अण्णपमाणं गोयरमइक्कमिदूण ट्ठिदेसुव्वपज्जाएसु संदेहे समुप्पण्णो सगसंदेहे विणासणट्ठं परखेत्तट्ठिय सुदकेवलि-केवलीणं वा पादमूलं गच्छामि त्ति चिंतविदूण आहारसरीरेण परिणमिय गिरि-सरि-सायर-मेरु-कुलसेलपायालाणं गंतूण विणएण पुच्छिय विणट्टसंदेहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छंति त्ति भणिदं होई। परखेत्तम्हि माहमुणीणं केवलाणाणुप्पत्ती। परिणिव्वाणगमणं परिणिक्खमणं वा तित्थयराणं तदियं कारणं विडव्वणरिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साहू ओहिणाणेण सुदणाणेण वा देवागमचिंतेण वा केवलणाणुप्पत्तिमवगतूण वंदणाभत्तीए गच्छामि त्ति चिंतिदूण आहारसरीरेण परिणमिय तप्पदेसं गंतूण तेसिं केवलीणण्णेसिं च जिण-जिणहराणं वदणं काऊण आगच्छंति। = असंयम बहुलता, आज्ञा कनिष्ठता और अपने क्षेत्रमें केवली विरह इस प्रकार इन तीन कारणोंसे साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते हैं। जल, स्थल और आकाशके एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवोंसे आपूरित होनेपर असंयम बहुलता होती है। उसका परिहार करनेके लिए साधु...आहारक शरीरको प्राप्त होते हैं। इसलिए आहारक शरीरका प्राप्त करना असंयम बहुलता निमिक्तक कहा जाता है। आज्ञा..उसकी कनिष्ठता अर्थात् उसका अपने क्षेत्रमें थोड़ा होना आज्ञाकनिष्ठता कहलाती है। वह द्वितीय कारण है। आगमको छोड़कर द्रव्य और पर्यायोंके अन्य प्रमाणोंके विषय न होने पर अपने सन्देह को दूर करनेके लिए परक्षेत्रमें श्रुतकेवली और केवलीके पादमूलमें जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूप से परिणमन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पातालमें केवली और श्रुतकेवलीके पास जाकर तथा विनयसे पूछकर सन्देहसे रहित होकर औट जाते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परक्षेत्रमें महामुनियोंके केवलज्ञानकी उत्पत्ति और परिनिर्माणगमन तथा तीर्थंकरोंके परिनिष्क्रमण कल्याणक यह तीसरा कारण है। विक्रियाऋद्धिसे रहित और आहारक लब्धसे युक्त साधु अवधिज्ञानसे या श्रुतज्ञानसे देवोंके आगमनके विचारसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति जानकर वन्दना भक्तिसे जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूपसे परिणमन कर उस प्रदेशमें जाकर उन केवलियोंकी और दूसरे जिनोंकी व जिलायोंकी वन्दना करके वापिस आते हैं। ३. आहारक समुद्घात निर्देश १. आहारक ऋद्धिका लक्षण धवला पुस्तक संख्या १/१,१,६०/२९८/४ संयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादनशक्तिराहारर्द्धिरिति। = संयम विशेषसे उत्पन्न हुई आहारक शरीरके उत्पादन रूप शक्तिको आहारक ऋद्धि कहते हैं। २. आहारक समुद्घातका लक्षण राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०/१२/७७/१८ अल्पसावद्यसूक्ष्मार्थ ग्रहणप्रयोजनाहारकशरीरनिर्वत्त्यर्थं आहारकसमुद्घातः।..आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन् श्रेणिगतित्वात्... आत्मदेशानसंख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरम्...निर्वर्तयति। = अल्प हिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनों के लिए आहारक शरीरकी रचनाके निमित्त आहारक समुद्घात होता है।... आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणी गति होनेके कारण... असंख्य आत्माप्रदेश निकल कर एक अरत्नि प्रमाण आहारक शरीर को बनाते हैं। धवला पुस्तक संख्या ७/२,६,१/३००/६ आहारसमुग्घादो णाम हत्थपमाणेण सव्वंगसुंदरेणसमचउरससंठालेण हंसधवखेण सररुधिर-मांस-मेदट्ठि-मज्ज-सुक्कसत्तधा उवज्जिएण विसग्गि सत्थादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिला-थंभ-जल पव्वयगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमणं। = हस्त प्रमाण सर्वांग सुन्दर, समचतुरस्र-संस्थानसे युक्त, हंसके समान, रस, रूधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओंसे रहित, विष अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओंसे मुक्त, वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्वतोंमें-से गमन करनेमे दक्ष, तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरीरसे तीर्थंकरके पादमूलमें जानेका नाम आहारक समुद्घात है। द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १०/२६ समुत्पन्नपदार्थ भ्रान्तेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षेर्मूलशरीरं परित्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यान्निर्गम्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्त मध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तद्दर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थ निश्चयं समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति, असावाहारकसमुद्घातः। = पद और पदार्थमें जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋषिके मस्तकमें-से मूल शरीरको न छोड़कर निर्मल स्फटिकके रंगका एक हाथका पुतला निकल कर अन्तर्मुहूर्तमें जहाँ कहींभी केवलीको देखता है दब उन केवलीके दर्शनसे अपने आश्रय मुनिको पद और पदार्थका निश्चय उत्पन्न कराकर फिर अपने स्थानमे प्रवेशकर जावे सो आहारक समुद्घात है। ३. आहारक समुद्घातका स्वामित्व तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या २/४९ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ।।४९।। = आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयत के ही होता है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ८/१/३७६/२ आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते संभवात्। = प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहारक ऋद्धिधारी मुनिके आहारक काय योग और आहारक मिश्र योग भी सम्भव है। राजवार्तिक अध्याय संख्या २/४९/७/१५३/८ प्रमत्तसंयतस्यैवाहरकं नान्यस्य। = प्रमत्तसंयतके ही आहारक शरीर होता है। धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/२८/५ आहारसमुग्घादो णाम पत्तिड्ढीणं महारिसीणं होदि। धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,२/३८/९ मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो। धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,६१/१२३/७ णवरि पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि। धवला पुस्तक संख्या ४/१,३,८२/१३५/६ णवरिपरिहारविसुद्धो पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहार णत्थि। १. जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे महर्षियोंके होता है। २. मिथ्यादृष्टि जीव राशिके...(आहारक समुद्घात) सम्भव नहीं, क्योंकि इसके कारणभूत गुणोंका मिथ्यादृष्टि और असंयत व संयतासंयतोंके अभाव हैं। ३. (प्रमत्त संयतमें भी) परिहार विशुद्धि संयतके आहारक व तैजस समुद्घात नहीं होता। ४. प्रमत्तसंयतके उपशम सम्यकत्वके साथ...आहारक समुद्घात नहीं होता है। (धवला पुस्तक संख्या ४/१,४,१३५/२८६/११) ४. इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लम्बे सूच्यंगुल योजत चौड़े ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार हैं गो.जी./भाषा ५४३/९४९/९ आहारक समुद्घात विषैं एक जीवकैं शरीर तै बाह्य निकसै प्रदेश तै संख्यात योजन प्रमाणलम्बा अर सूच्यंगुल का संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौड़ा ऊँचा क्षेत्रकौं रोकैं। याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात् घनांगुल प्रमाण भया। इसकरि आहारक समुद्घात वाले जीवनिका संख्यात् प्रमाण है ताकौं गुणैं जो प्रमाण होई तितना आहारक समुद्घातविषैं क्षेत्र जानना। लू शरीर तैं निकसि आहारक शरीर जहाँ जाई तहाँ पर्यन्त लम्बी आत्माके प्रदेशनिकी श्रेणी सूच्यंगुलका संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौड़ी अर ऊँची आकाश विषै है। ५. समुद्घात गत आत्म प्रदेशोंका पुनः औदारिक शरीर में संघटन कैसे हो धवला पुस्तक संख्या १/१,१,५६/२९२/८ न च गलितायुषस्तमिन् शरीरे पुनरुत्पत्तिर्विरोधात्। ततो न तस्यौदारिकशरीरेण पुनः संघटनमिति। धवला पुस्तक संख्या १/१,१,५६/२९३/३ सर्वात्मना तयोर्वियोगो मरणं नैकदेशेन आगलादप्युपसंहृतजोवावयवानां मरणामनुपलम्भात् जीविताछिन्नहस्तेन व्यभिचाराच्च। न पुनरस्यार्थः सर्वावयवैः पूर्वशरीरपरित्यागः समस्ति येनास्य मरणं जायेत। = प्रश्न - जिसकी आयु नष्ट हो गयी है ऐसे जीवकी पुनः उस शरीरमें उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। अतः जीवका औदारिक शरीरके साथ पुनः संघटन नहीं बन सकता अर्थात् एक बार जीव प्रदेशोंका आहारक शरीरके साथ सम्बन्ध हो जानेपर पुनः उन प्रदेशोंका पूर्व औदारिक शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता? उत्तर - ऐसा नहीं है, तो भी जीव और शरीरका सम्पूर्ण रूपसे वियोग ही मरण हो सकता है। उनका एकदेश रूपसे वियोग मरण नहीं हो सकता, क्योंकि जिनके कण्ठ पर्यन्त जीव प्रदेश संकुचित हो गये हैं, ऐसे जीवोंका मरण भी नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोगको भी मरण माना जावे, तो जीवित शरीरसे छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उसके साथ व्यभिचार आयेगा। इसी प्रकार आहारक शरीरको धारण करना इसका अर्थ सम्पूर्ण रूपसे पूर्व (औदारिक) शरीरका त्याग करना नहीं है, जिससे कि आहारक शरीरके धारण करने वालेका मरण माना जावे। ४. आहारक व मिश्र काययोग निर्देश १. आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण पं./सं./प्रा.१/९७-९८ आहरइ अणेण मुणि सुहुमे अट्ठे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारकाय जोगो सो ।।९७।। अंतोमुहूत्तमज्झं वियाणमिस्सं च अपरिपुण्णा ति। जो तेण संपयोगो आहारयमिस्सकायजोगो सो ।।९८।। = स्वयं सूक्ष्म अर्थमें सन्देह उत्पन्न होनेपर मुनि जिसके द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर अपने सन्देह को दूर करता है, उसे आहारक काय कहते हैं। उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाले योगको आहारक काययोग कहते हैं ।।९७।। आहारक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेतक अन्तर्मुहूर्तके मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको आहारक मिश्र काय कहते हैं। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता है। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या २३९) धवला पुस्तक संख्या १/१,१/१६४-१६५/२९४...। तम्हा आहारको जोगो ।।१६४।। आहारयमुत्तत्थं वियाणमिस्सं च अपरिपुण्णंयात। जो तेण संपयोगो आहारयमिस्सको जोगो ।।१६५।। = आहारक शरीरके द्वारा होने वाले योगको आहारक काययोग कहते हैं ।।१६४।। आहारकका अर्थ कह आये हैं। वह आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक उसको आहारक मिश्र कहते हैं। और उसके द्वारा जो संप्रयोग होता है उसे आहारक मिश्र काययोग कहते हैं ।।१६५।। (गो.जी/मू.२४०) धवला पुस्तक संख्या १/१,१,५६/२९३/६ आहारकार्मणस्कन्धतः समुत्पन्नवीर्येण योगः आहारमिश्रकाययोगः। = आहारक और कार्माणकी वर्गणाओंसे उत्पन्न हुए वीर्यके द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग हैं। २. आहारक काययोगका स्वामित्व षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १/१,१,५१/सू.५९,६३/२९७,३०६ आहारकायजोगो आहारकमिस्सकायजोगो संजदाणमिड्ढि पत्ताणं ।।५९।। आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्तसंजद-ट्ठाणे ।।६३।। = आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग ऋद्धि प्राप्त छठें गुणस्थानवर्ती सयतोंके होता है ।।५९।। आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग एक प्रमत्त गुणस्थानमें ही होते हैं ।।६३।। (सि.सि.८/२/३७६/३) ३. आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विरोध तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान धवला पुस्तक संख्या २/१,१,५१३/१ मणुसिणीणं भण्णमाणे....आहारआहारमिस्सकाय जोगा णत्थि। किं कारणं। जेसि भावो इत्थिवेदो दव्वं पुण पुरिसवेदो, ते जीवा संजम पडिवज्जंति। दव्वित्थिवेदा संजमं ण पडिवज्जंति, सचेलत्तादो। भावित्थिवेदाणं दव्वेण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धीसमुप्पज्जदि दव्व-भावेहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पज्जदि तेणित्थिवेदे पि णिरुद्धे आहारदुंग णत्थि। = मनुष्यनी स्त्रियोंके आलाप कहने पर...आहारक मिश्रकाययोग नहीं होता। प्रश्न - मनुष्य-स्त्रियोंके आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग नहीं होनेका कार्ण क्या है? उत्तर - यद्यपि जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भाव स्त्री) जीव भी संयमको प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा स्त्री वेदवाले जीव संयम को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि, वे सचेल अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी भावकी अपेक्षा स्त्री वेदी और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुष वेदी संयमधारी जीवोंके आहारक ऋद्धि नहीं होती। किन्तु द्रव्य और भाव इन दोनों ही वेदोंकी अपेक्षा से पुरुष वेद वालेके आहारक ऋद्धि होती है। (और भी दे. वेद/६/३) धवला पुस्तक संख्या २/१,१/६६७/३ अप्पसत्थवेदेहि साहारिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति। = अप्रशस्त वेदोंके साथ आहारक ऋद्धि नहीं उत्पन्न होते हैं (कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ३/२२/$४२६/२४१/१३) धवला पुस्तक संख्या २/१,१/६८१/६ आहारदुगं...वेददुगोदयस्स विरोहादो। = आहारकद्विक....के साथ स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदय होनेका अभाव है। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या ७१५) ४. आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे धवला पुस्तक संख्या २/१,१/४४१/४ संजदा-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।..आहारमिस्सकायजोदो अपज्जत्ताणं त्ति...अणवगासत्तादो।....अणेयतियादो...किमेदेण जाणाविज्जदि।..एदं सुत्तमणिच्चमिदि। = प्रश्न - (ऐसा माननेसे) संयतासंयत और संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्त होते हैं। (यह सूत्र कि) “आहारक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है बाधा जाता है। उत्तर - इस सूत्रमें अनेकान्त दोष आ जाता है (क्योंकि अन्य सूत्रोंसे यह भी बाधित हो जाता है।) प्रश्न - (सूत्रमें पड़े) इस नियम शब्दसे क्या ज्ञापित होता है। उत्तर - इससे ज्ञापित होता है कि...यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्ति हो और कहीं प्रवृत्ति न हो इसका नाम अनित्यता है। ५. आहारक काययोगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना धवला पुस्तक संख्या १/१,१,९०/३३०/६ पूर्वाभ्यस्तवस्तुविस्मरणमन्तरेण शरीरोपादानाद्वा दुःखमन्तरेण पूर्वशरीरपरित्यागाद्वा प्रमत्तस्तदवस्थायां पर्याप्त इत्युपचर्यते। निश्चयनयाश्रयणे तु पुनरपर्याप्तः। = पहले अभ्यास की हुई वस्तुके विस्मरणके बिना ही आहारक शरीरका ग्रहण होता है, या दुःखके बिना ही पूर्व शरीर (औदारिक) का परित्याग होता है, अतएव प्रमत्त संयत अपर्याप्त अवस्थामें भी पर्याप्त है, इस प्रकारका उपचार किया जाता है। निश्चय नयका आश्रय करने पर तो वह अपर्याप्त ही है। ६. आहारक मिश्रयोगीमें अपर्याप्तपना कैसे सम्भव है धवला पुस्तक संख्या १/१,१,७८/३१७/१० आहारकशरीरोत्थापकः पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः। तथा चाहारमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तकस्येति न घटामटेदिति चेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायत्वात्। तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तकः औदारिकशरीरगतष्टपर्यापत्यपेक्षया, आहारशरीरगतपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावापेक्षया त्वपर्याप्तकोऽसौ। पर्याप्तापर्याप्तत्वयोंर्नैकत्राक्रमेण संभवो विरोधादिति चेन्न....इतीष्टत्वात्। कथं न पूर्वोऽभ्युपगम इति विरोध इति चेन्न, भूतपूर्वगतन्यापेक्षया विरोधासिद्धेः। = प्रश्न - आहारक शरीरको उत्पन्न करनेवाला साधु पर्याप्तक ही होता है। अन्यथा उसके संयतपना नहीं बन सकता। ऐसी हालतमें आहारक मिश्ररकाययोग अपर्याप्तके होता है, यह कथन नहीं बन सकता? उत्तर - नहीं क्योंकि, ऐसा कहने वाला आगमके अभिप्रायको नहीं समझा है। आगमका अभिप्राय तो इस प्रकार है कि आहरक शरीरको उत्पन्न करनेवाला साधु औदारिक शरीरगत छह पर्याप्तियोंकी अपेक्षा पर्याप्त के भले ही रहा आवे, किन्तु आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तिके पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह अपर्याप्तक है। प्रश्न - पर्याप्त और अपर्याप्तना एक साथ एक जीवमें सम्भव नहीं, क्योंकि एक साथ एक जीवमें इन दोनोंके रहनेमें विरोध है? उत्तर - नहीं, क्योंकि... यह तो हमें इष्ट ही है? प्रश्न - तो फिर हमारा पूर्व कथन क्यों न मान लिया जाये, अतः आपके कथनमें विरोध आता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा विरोध असिद्ध है। अर्थात् औदारिक शरीर संबन्धी पर्याप्तपनेकी अपेक्षा आहारक मिश्र अवस्थामें भी पर्याप्तपनेका व्यवहार किया जा सकता है। ७. यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्थामें भी संयम कैसे सम्भव है धवला पुस्तक संख्या १/१,१,७८/३१८/५ विनष्टौदारिकशरीरसंबन्धषट्पर्याप्तेरपरिनिष्ठिताहारशरीरगतपर्याप्तेरपर्याप्तस्य कथं संयम इति चेन्न, संयमस्यास्रवनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासिद्धेः। विरोधे वा न केवलिनोऽपि समुद्धातगतस्य संयमः तत्राप्यपर्याप्तकयोगास्तित्वं प्रत्यविशेषात्। `संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता इत्यनेनार्षेण सह कथं न विरोधः स्यादिति चेन्न, द्रव्यार्थिकनयापेक्षया प्रवृत्तसूत्रस्याभिप्रायेणाहारशरीरानिष्पत्त्यवस्थायामपि षट्पर्याप्तीनां सत्त्वाविरोधात्। प्रश्न - जिसके औदारिक शरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियाँ नष्ट हो चुकी हैं, और आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तियाँ अभी पूर्ण नहीं हूई है, ऐसे अपर्याप्त साधुके संयम कैसे हो सकता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिसका लक्षण आस्रवका निरोध करना है, ऐसे संयमका मन्द योग (आहारक मिश्र) के साथ होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। यदि इस मन्द योगके साथ संयमके होनेमें कोई विरोध आता ही है ऐसा माना जावे, तो समुद्घातको प्राप्त हुए केवलोके भी संयम नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ परभी अपर्याप्त सम्बन्धी योगका सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न - `संयतासंयतसे लेकर सभी गुणस्थानोमें जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं' इस आर्ष वचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यों नहीं आता? उत्तर - नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुए इस सूत्रके अभिप्रायसे आहारक शरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें भी औदारिक शरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियोंके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। (धवला पुस्तक संख्या १/१,१,९०/३२९/९)।