कारण: Difference between revisions
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<p class="HindiText">कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहते हैं। वह दो प्रकार का | <p class="HindiText">कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहते हैं। वह दो प्रकार का है–अंतरंग व बहिरंग। अंतरंग को उपादान और बहिरंग को निमित्त कहते हैं। प्रत्येक कार्य इन दोनों से अवश्य अनुगृहीत होता है। साधारण, असाधारण, उदासीन, प्रेरक आदि के भेद से निमित्त अनेक प्रकार का है। यद्यपि शुद्ध द्रव्यों की एक समय स्थायी शुद्धपर्यायों में केवल कालद्रव्य ही साधारण निमित्त होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य निमित्तों का विश्व में कोई स्थान ही नहीं है। सभी अशुद्ध व संयोगी द्रव्यों की चिर काल स्थायी जितनी भी चिदात्मक या अचिदात्मक पर्यायें दृष्ट हो रही हैं, वे सभी संयोगी होने के कारण साधारण निमित्त (काल व धर्म द्रव्य) के अतिरिक्त अन्य बाह्य असाधारण सहकारी या प्रेरक निमित्तों के द्वारा भी यथा योग्य रूप में अवश्य अनुगृहीत हो रही हैं। फिर भी उपादान की शक्ति ही सर्वत: प्रधान होती है क्योंकि उसके अभाव में निमित्त किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। यद्यपि कार्य की उत्पत्ति में उपरोक्त प्रकार निमित्त व उपादान दोनों का ही समान स्थान है, पर निर्विकल्पता के साधक को मात्र परमार्थ का आश्रय होने से निमित्त इतना गौण हो जाता है, मानो वह है ही नहीं। संयोगी सर्व कार्यों पर से दृष्टि हट जाने के कारण और मौलिक पदार्थ पर ही लक्ष्य स्थिर करने में उद्यत होने के कारण उसे केवल उपादान ही दिखाई देता है निमित्त नहीं और उसका स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही दिखाई देता है, संयोगी अशुद्ध परिणमन नहीं। ऐसा नहीं होता कि केवल उपादान पर दृष्टि को स्थिर करके भी वह जगत् के व्यावहारिक कार्यों को देखता या तत्संबंधी विकल्प करता रहे। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्मों के निमित्त से जीव के परिणाम और उन परिणामों के निमित्त से नवीन कर्मों का बंध, ऐसी अटूट श्रृंखला अनादि से चली आ रही है, तदपि सत्य पुरुषार्थ द्वारा साधक इस शृंखला को तोड़कर मुक्ति लाभ कर सकता है, क्योंकि उसके प्रभाव से सत्ता स्थित कर्मों में महान् अंतर पड़ जाता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तों के लक्षण—देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]]। <br /> | <li class="HindiText"> सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तों के लक्षण—देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> करण का लक्षण तथा करण व कारण में | <li class="HindiText"> करण का लक्षण तथा करण व कारण में अंतर।—देखें [[ करण#1 | करण - 1]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए।<br /> | <li class="HindiText"> एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से होना | <li class="HindiText"> एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से होना संभव है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं।<br /> | <li class="HindiText"> कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो जाये ऐसा नियम नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो जाये ऐसा नियम नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य होना | <li class="HindiText"> कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य होना असंभव है।</li> | ||
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<li class="HindiText"> उपादान अपने परिणमन में | <li class="HindiText"> उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> यदि योग्यता ही कारण है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूप से क्यों नहीं परिणम जाते—देखें [[ | <li class="HindiText"> यदि योग्यता ही कारण है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूप से क्यों नहीं परिणम जाते—देखें [[ बंध#5 | बंध - 5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है—देखें [[ नय#IV.1.6 | नय - IV.1.6]];3/7।<br /> | <li class="HindiText"> कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है—देखें [[ नय#IV.1.6 | नय - IV.1.6]];3/7।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है।<br /> | <li class="HindiText"> उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> विघ्नकारी कारण भी | <li class="HindiText"> विघ्नकारी कारण भी अंतरंग ही है।</li> | ||
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<li class="HindiText"> निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना।<br /> | <li class="HindiText"> निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> निमित्त नैमित्तिक | <li class="HindiText"> निमित्त नैमित्तिक संबंध।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अन्य सामान्य उदाहरण।</li> | <li class="HindiText"> अन्य सामान्य उदाहरण।</li> | ||
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<li class="HindiText"> उपादान अपने परिणमन में | <li class="HindiText"> उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है—देखें [[ कारण#II.1 | कारण - II.1]]।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव की गौणता</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong> कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव की गौणता</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है—देखें [[ विभाव#4 | विभाव - 4 ]]<br /> | <li class="HindiText"> कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है—देखें [[ विभाव#4 | विभाव - 4 ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानी कर्म के | <li class="HindiText"> ज्ञानी कर्म के मंद उदय का तिरस्कार करने को समर्थ है।—देखें [[ कारण#IV.2.7 | कारण - IV.2.7]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> विभाव कथंचित् अहेतुक है।—देखें [[ विभाव#4 | विभाव - 4]]।<br /> | <li class="HindiText"> विभाव कथंचित् अहेतुक है।—देखें [[ विभाव#4 | विभाव - 4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व कर्म में कारण कार्य | <li class="HindiText"> जीव व कर्म में कारण कार्य संबंध मानना उपचार है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानियों को कर्म अकिंचित्कर है।<br /> | <li class="HindiText"> ज्ञानियों को कर्म अकिंचित्कर है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> निमित्त नैमित्तिक | <li class="HindiText"> निमित्त नैमित्तिक संबंध वस्तुभूत है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कारण होने पर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> कारण होने पर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक | <li class="HindiText"> जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव व कर्म की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है।<br /> | <li class="HindiText"> जीव व कर्म की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मोह का जघन्यांश यद्यपि स्व | <li class="HindiText"> मोह का जघन्यांश यद्यपि स्व प्रकृतिबंध का कारण नहीं पर सामान्य बंध का कारण अवश्य है।—देखें [[ बंध#3 | बंध - 3 ]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> बाह्य द्रव्यों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ता है।—देखें [[ वेदनीय#8 | वेदनीय - 8 ]]तथा तीर्थंकर/2/7 <br /> | <li class="HindiText"> बाह्य द्रव्यों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ता है।—देखें [[ वेदनीय#8 | वेदनीय - 8 ]]तथा तीर्थंकर/2/7 <br /> | ||
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<li class="HindiText"> कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।<br /> | <li class="HindiText"> कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> प्रत्येक कार्य | <li class="HindiText"> प्रत्येक कार्य अंतरंग व बहिरंग दोनों कारणों के सम्मेल से होता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अंतरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> व्यवहार नय से निमित्त वस्तुभूत है और निश्चय नय से कल्पना मात्र।<br /> | <li class="HindiText"> व्यवहार नय से निमित्त वस्तुभूत है और निश्चय नय से कल्पना मात्र।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> निमित्त स्वीकार करने पर भी | <li class="HindiText"> निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तुस्वतंत्रता बाधित नहीं होती।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अचेतन कर्म चेतन के गुणों का घात कैसे कर सकते हैं।—देखें [[ विभाव#5 | विभाव - 5 ]]<br /> | <li class="HindiText"> अचेतन कर्म चेतन के गुणों का घात कैसे कर सकते हैं।—देखें [[ विभाव#5 | विभाव - 5 ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> वास्तव में कर्म जीव से बँधे नहीं बल्कि संश्लेश के कारण दोनों का विभाव परिणमन हो गया है।—देखें [[ | <li class="HindiText"> वास्तव में कर्म जीव से बँधे नहीं बल्कि संश्लेश के कारण दोनों का विभाव परिणमन हो गया है।—देखें [[ बंध#4 | बंध - 4 ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कर्म व जीव के परस्पर निमित्त नैमित्तिक | <li class="HindiText"> कर्म व जीव के परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष | <li class="HindiText"> कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष संभव है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText"> जीव कर्म | <li class="HindiText"> जीव कर्म बंध की सिद्धि।—देखें [[ बंध#2 | बंध - 2 ]]<br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1">(1) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति | <p id="1">(1) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति संभव नहीं होती । इसके दो भेद है― उपादान और सहकारी (निमित्त) । कार्य की उत्पत्ति मे मुख्य कारण उपादान और सहायक कारण सहकारी होता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.11,14 </span></p> | ||
<p id="2">(2) | <p id="2">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.149 </span></p> | ||
Revision as of 16:21, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहते हैं। वह दो प्रकार का है–अंतरंग व बहिरंग। अंतरंग को उपादान और बहिरंग को निमित्त कहते हैं। प्रत्येक कार्य इन दोनों से अवश्य अनुगृहीत होता है। साधारण, असाधारण, उदासीन, प्रेरक आदि के भेद से निमित्त अनेक प्रकार का है। यद्यपि शुद्ध द्रव्यों की एक समय स्थायी शुद्धपर्यायों में केवल कालद्रव्य ही साधारण निमित्त होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य निमित्तों का विश्व में कोई स्थान ही नहीं है। सभी अशुद्ध व संयोगी द्रव्यों की चिर काल स्थायी जितनी भी चिदात्मक या अचिदात्मक पर्यायें दृष्ट हो रही हैं, वे सभी संयोगी होने के कारण साधारण निमित्त (काल व धर्म द्रव्य) के अतिरिक्त अन्य बाह्य असाधारण सहकारी या प्रेरक निमित्तों के द्वारा भी यथा योग्य रूप में अवश्य अनुगृहीत हो रही हैं। फिर भी उपादान की शक्ति ही सर्वत: प्रधान होती है क्योंकि उसके अभाव में निमित्त किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। यद्यपि कार्य की उत्पत्ति में उपरोक्त प्रकार निमित्त व उपादान दोनों का ही समान स्थान है, पर निर्विकल्पता के साधक को मात्र परमार्थ का आश्रय होने से निमित्त इतना गौण हो जाता है, मानो वह है ही नहीं। संयोगी सर्व कार्यों पर से दृष्टि हट जाने के कारण और मौलिक पदार्थ पर ही लक्ष्य स्थिर करने में उद्यत होने के कारण उसे केवल उपादान ही दिखाई देता है निमित्त नहीं और उसका स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही दिखाई देता है, संयोगी अशुद्ध परिणमन नहीं। ऐसा नहीं होता कि केवल उपादान पर दृष्टि को स्थिर करके भी वह जगत् के व्यावहारिक कार्यों को देखता या तत्संबंधी विकल्प करता रहे। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्मों के निमित्त से जीव के परिणाम और उन परिणामों के निमित्त से नवीन कर्मों का बंध, ऐसी अटूट श्रृंखला अनादि से चली आ रही है, तदपि सत्य पुरुषार्थ द्वारा साधक इस शृंखला को तोड़कर मुक्ति लाभ कर सकता है, क्योंकि उसके प्रभाव से सत्ता स्थित कर्मों में महान् अंतर पड़ जाता है।
- कारण सामान्य निर्देश
- कारण के भेद व लक्षण
- कारण सामान्य का लक्षण।
- कारण के अंतरंग बहिरंग व आत्मभूत अनात्मभूत रूप भेद।
- उपरोक्त भेदों के लक्षण।
- सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तों के लक्षण—देखें निमित्त - 1।
- करण का लक्षण तथा करण व कारण में अंतर।—देखें करण - 1।
- कारण सामान्य का लक्षण।
- उपादान कारण कार्य निर्देश
- निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है।
- द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य।
- त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य।
- पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कारण है और उत्तरवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कार्य।
- वर्तमान पर्याय ही कारण है और वही कार्य।
- कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद।
- निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है।
- निमित्त कारण कार्य निर्देश
- भिन्न गुणों या द्रव्यों में भी कारण कार्य भाव होता है।
- उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है जिस किसी को नहीं।
- कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तुमात्र को कारण नहीं कह सकते।
- कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु को कारणपना प्राप्त है।
- कार्य पर से कारण का अनुमान किया जाता है—देखें अनुमान - 2।
- अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना न्याय है।
- भिन्न गुणों या द्रव्यों में भी कारण कार्य भाव होता है।
- * षट्द्रव्यों में कारण अकारण विभाग—देखें द्रव्य - 3।
- कारण के भेद व लक्षण
- कारण कार्य संबंधी नियम
- कारण के बिना कार्य नहीं होता—देखें कारण - III.4।
- कारण सदृश ही कार्य होता है।
- कारणभेद से कार्यभेद अवश्य होता है—देखें दान - 4।
- कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा नियम नहीं।
- एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते।
- पर एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं।
- एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए।
- एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से होना संभव है।
- कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं।
- दोनों कथंचित् समकालवर्ती भी होते हैं—देखें कारण - IV.2.5।
- कारण व कार्य में व्याप्ति अवश्य होती है।
- कारण कार्य का उत्पादक हो ही ऐसा नियम नहीं।
- कारण कार्य का उत्पादक न ही हो ऐसा भी नियम नहीं।
- कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो जाये ऐसा नियम नहीं।
- कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य होना असंभव है।
- कारण के बिना कार्य नहीं होता—देखें कारण - III.4।
- उपादान कारण की मुख्यता गौणता
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता
- उपादान कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद—देखें कारण - I.2।
- अन्य अन्य को अपने रूप नहीं कर सकता।
- अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता।
- निमित्त किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता।
- स्वभाव दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता।
- परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है।
- उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है।
- प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। दूसरा द्रव्य उसे निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।—देखें कर्ता - 3।
- सत् अहेतुक होता है।—देखें सत् ।
- सभी कार्य कथंचित् निर्हेतुक है—देखें नय - IV.3.9।
- उपादान के परिणमन में निमित्त प्रधान नहीं है।
- परिणमन में उपादान की योग्यता ही प्रधान है।
- यदि योग्यता ही कारण है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूप से क्यों नहीं परिणम जाते—देखें बंध - 5।
- कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है—देखें नय - IV.1.6;3/7।
- काल आदि लब्धि से स्वयं कार्य होता है—देखें नियति ।
- निमित्त के सद्भाव में भी परिणमन तो स्वत: ही होता है।
- उपादान कारण कार्य में कथंचित् भेदाभेद—देखें कारण - I.2।
- उपादान की कथंचित् प्रधानता
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव।
- उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति होती है।
- अंतरंग कारण ही बलवान् है।
- विघ्नकारी कारण भी अंतरंग ही है।
- उपादान के अभाव में कार्य का भी अभाव।
- उपादान की कथंचित् परतंत्रता
- निमित्त सापेक्ष पदार्थ अपने कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं कहा जा सकता।
- व्यावहारिक कार्य करने में उपादान निमित्तों के अधीन है।
- जैसा-जैसा निमित्त मिलता है वैसा-वैसा ही कार्य होता है।
- उपादान को ही स्वयं सहकारी नहीं माना जा सकता।
- निमित्त सापेक्ष पदार्थ अपने कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं कहा जा सकता।
- उपादान की कथंचित् स्वतंत्रता
- निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता
- निमित्त कारण के उदाहरण
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव।
- द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप निमित्त।
- धर्मास्तिकाय की प्रधानता—देखें धर्माधर्म - 2.3।
- कालद्रव्य की प्रधानता—देखें काल - 2।
- सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में निमित्तों की प्रधानता—देखें सम्यग्दर्शन - III.2।
- निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना।
- निमित्त नैमित्तिक संबंध।
- अन्य सामान्य उदाहरण।
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव।
- निमित्त की कथंचित् गौणता
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते।
- धर्म आदिक द्रव्य उपकारक है प्रेरक नहीं।
- अन्य भी उदासीन कारण धर्म द्रव्यवत् जानने।
- बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे।
- सहकारी को कारण कहना उपचार है।
- सहकारीकारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है।
- सहकारी को कारण मानना सदोष है।
- सहकारीकारण अहेतुवत् होता है।
- सहकारीकारण निमित्तमात्र होता है।
- परमार्थ से निमित्त अकिंचित्कर व हेय है।
- भिन्नकारण वास्तव में कोई कारण नहीं।
- द्रव्य का परिणमन सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है।
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते।
- उपादान अपने परिणमन में स्वतंत्र है—देखें कारण - II.1।
- कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव की गौणता
- जीव भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।
- अनुभागोदय में हानि वृद्धि रहने पर भी ग्यारहवें गुणस्थान में जीव के भाव अवस्थित रहते हैं।
- जीव के परिणामों को सर्वथा कर्माधीन मानना मिथ्या है।—देखें कारण - III.2.12।
- जीव व कर्म में बध्य घातक विरोध नहीं है।
- कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है—देखें विभाव - 4
- ज्ञानी कर्म के मंद उदय का तिरस्कार करने को समर्थ है।—देखें कारण - IV.2.7।
- विभाव कथंचित् अहेतुक है।—देखें विभाव - 4।
- जीव व कर्म में कारण कार्य संबंध मानना उपचार है।
- ज्ञानियों को कर्म अकिंचित्कर है।
- मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामों की विवक्षा प्रधान है, कर्म के परिणामों की नहीं।
- कर्मों के उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्नसाध्य हैं।
- जीव भाव को निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।
- निमित्त की कथंचित् प्रधानता
- निमित्त की प्रधानता का निर्देश—देखें कारण - III.1।
- धर्म व काल द्रव्य की प्रधानता—देखें कारण - III.1।
- निमित्त नैमित्तिक संबंध वस्तुभूत है।
- कारण होने पर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं।
- उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है।
- उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता।
- निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं।
- उपादान भी निमित्ताधीन है।—देखें कारण - II.3
- जैसा-जैसा निमित्त मिलता है वैसा-वैसा कार्य होता है।—देखें कारण - II.3।
- द्रव्य क्षेत्रादि की प्रधानता।—देखें कारण - III.1/2।
- निमित्त के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना सदोष है।
- सभी कारण धर्मद्रव्यवत् उदासीन नहीं होते।
- निमित्त की प्रधानता का निर्देश—देखें कारण - III.1।
- निमित्त अनुकूल मात्र नहीं होता।—देखें कारण - 1.3।
- निमित्त कारण के उदाहरण
- कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव की कथंचित् प्रधानता
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश।
- जीव व कर्म की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है।
- जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है।
- विभाव भी सहेतुक है।—देखें विभाव - 3
- कर्म की बलवत्ता के उदाहरण।
- जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं।
- कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं।
- मोह का जघन्यांश यद्यपि स्व प्रकृतिबंध का कारण नहीं पर सामान्य बंध का कारण अवश्य है।—देखें बंध - 3
- बाह्य द्रव्यों पर भी कर्म का प्रभाव पड़ता है।—देखें वेदनीय - 8 तथा तीर्थंकर/2/7
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश।
- कारण कार्यभाव समन्वय
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।
- प्रत्येक कार्य अंतरंग व बहिरंग दोनों कारणों के सम्मेल से होता है।
- अंतरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण।
- व्यवहार नय से निमित्त वस्तुभूत है और निश्चय नय से कल्पना मात्र।
- निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तुस्वतंत्रता बाधित नहीं होती।
- कारण व कार्य में परस्पर व्याप्ति अवश्य होनी चाहिए।—देखें कारण - I.4.8
- उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन।
- उपादान को परतंत्र कहने का कारण प्रयोजन।
- निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन।
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है, न सर्वथा परत:।
- कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव विषयक
- जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे?
- कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं?
- अचेतन कर्म चेतन के गुणों का घात कैसे कर सकते हैं।—देखें विभाव - 5
- वास्तव में कर्म जीव से बँधे नहीं बल्कि संश्लेश के कारण दोनों का विभाव परिणमन हो गया है।—देखें बंध - 4
- कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु।
- वास्तव में विभाव व कर्म में निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं।
- समकालवर्ती इन दोनों में कारण कार्य भाव कैसे हो सकता है?
- विभाव के सहेतुक अहेतुकपने का समन्वय।—देखें विभाव - 5
- निश्चय से आत्मा अपने परिणामों का और व्यवहार से कर्मों का कर्ता है।—देखें कर्ता - 4.3
- कर्म व जीव के परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता।
- कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष संभव है।
- जीव कर्म बंध की सिद्धि।—देखें बंध - 2
- कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में कारण प्रयोजन।
- जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे?
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
पुराणकोष से
(1) कार्य का नियामक हेतु । इसके बिना कार्योत्पत्ति संभव नहीं होती । इसके दो भेद है― उपादान और सहकारी (निमित्त) । कार्य की उत्पत्ति मे मुख्य कारण उपादान और सहायक कारण सहकारी होता है । हरिवंशपुराण 7.11,14
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.149