क्षेत्र 01: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> समुद्घातों में क्षेत्र विस्तार | <li class="HindiText"> समुद्घातों में क्षेत्र विस्तार संबंधी—देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में | <li class="HindiText"> वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अंतर।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> गतिमार्गणा में | <li class="HindiText"> गतिमार्गणा में संभव पदों की अपेक्षा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व | <li class="HindiText"> नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व लौकांतिक देवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जलचर जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3]]।<br /> | <li class="HindiText"> जलचर जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ तिर्यंच#3 | तिर्यंच - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तेज व अप्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5 ]]<br /> | <li class="HindiText"> तेज व अप्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5 ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घात के क्षेत्र संबंधी दृष्टिभेद। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> अष्टकर्म के चतु: | <li class="HindiText"> अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अष्टकर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | <li class="HindiText"> अष्टकर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मोहनीय के सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | <li class="HindiText"> मोहनीय के सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पाँचों शरीरों के योग्य | <li class="HindiText"> पाँचों शरीरों के योग्य स्कंधों की संघातन परिशातन कृति के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पाँच शरीरों में 2, 3, 4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | <li class="HindiText"> पाँच शरीरों में 2, 3, 4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong> क्षेत्र सामान्य का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong> क्षेत्र सामान्य का लक्षण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 <span class="SanskritText"> ‘‘क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषय:।’’</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 <span class="SanskritText"> ‘‘क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषय:।’’</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/25/132/4 <span class="SanskritText">क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान काल विषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं। ( गोम्मटसार | सर्वार्थसिद्धि/1/25/132/4 <span class="SanskritText">क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान काल विषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/10 ) जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है वह (उस उस ज्ञान का) नाम क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/1/25 ।..../15/86)।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़/2/2,22/11/1/7 <span class="PrakritText">खेत्तं खलु आगासं तव्विवरीयं च हवदि णोखेत्तं/1।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्र नियम से आकाश है और आकाश से विपरीत नोक्षेत्र है।</span><br /> | कषायपाहुड़/2/2,22/11/1/7 <span class="PrakritText">खेत्तं खलु आगासं तव्विवरीयं च हवदि णोखेत्तं/1।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्र नियम से आकाश है और आकाश से विपरीत नोक्षेत्र है।</span><br /> | ||
धवला 13/5,3,8/6/3 <span class="SanskritText"> | धवला 13/5,3,8/6/3 <span class="SanskritText"> क्षियंति निवसंति यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम् ।</span>=<span class="HindiText">क्षि धातु का अर्थ ‘निवास करना’ है। इसलिए क्षेत्र शब्द का यह अर्थ है कि जिसमें पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं। ( महापुराण/4/14 )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> क्षेत्रानुगम का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> क्षेत्रानुगम का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद</strong></span><br /> | ||
धवला 4/1,3,1/8/6 <span class="PrakritText">दव्वट्ठियणयं च पडुच्च एगविधं। अथवा पओजणमभिसमिच्च दुविहं लोगागासमलोगागासं चेदि।...अथवा देसभेएण तिविहो, मंदरचूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है। अथवा प्रयोजन के आश्रय से (पर्यायार्थिक नय से) क्षेत्र दो प्रकार का है—लोकाकाश व अलोकाकाश।...अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है= | धवला 4/1,3,1/8/6 <span class="PrakritText">दव्वट्ठियणयं च पडुच्च एगविधं। अथवा पओजणमभिसमिच्च दुविहं लोगागासमलोगागासं चेदि।...अथवा देसभेएण तिविहो, मंदरचूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है। अथवा प्रयोजन के आश्रय से (पर्यायार्थिक नय से) क्षेत्र दो प्रकार का है—लोकाकाश व अलोकाकाश।...अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है=मंदराचल (सुमेरूपर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है, मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.6" id="1.6"><strong> क्षेत्र के भेद—स्वस्थानादि </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.6" id="1.6"><strong> क्षेत्र के भेद—स्वस्थानादि </strong> </span><br /> | ||
धवला 4/1,3,2/26/1 <span class="PrakritText"> सव्वजीवाणमवत्था तिविहा भवदि, सत्थाणसमुग्घादुववादभेदेण। तत्थ सत्थाणं दुविहं, सत्थाणसत्थाणं विहारवदिसत्थाणं चेदि। समुग्घादो सत्तविधो, वेदणसमुग्घादो कसायसमुग्घादो वेउव्वियसमुग्घादो मारणांतियसमुग्घादो तेजासरीरसमुग्घादो आहारसमुग्घादो केवलिसमुग्घादो चेदि।</span>=<span class="HindiText">स्वस्थान, समुद्घात और उपादान के भेद से सर्व जीवों की अवस्था तीन प्रकार की है। उनमें से स्वस्थान दो प्रकार का है—स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान। समुद्घात सात प्रकार का है—वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियक समुद्घात, | धवला 4/1,3,2/26/1 <span class="PrakritText"> सव्वजीवाणमवत्था तिविहा भवदि, सत्थाणसमुग्घादुववादभेदेण। तत्थ सत्थाणं दुविहं, सत्थाणसत्थाणं विहारवदिसत्थाणं चेदि। समुग्घादो सत्तविधो, वेदणसमुग्घादो कसायसमुग्घादो वेउव्वियसमुग्घादो मारणांतियसमुग्घादो तेजासरीरसमुग्घादो आहारसमुग्घादो केवलिसमुग्घादो चेदि।</span>=<span class="HindiText">स्वस्थान, समुद्घात और उपादान के भेद से सर्व जीवों की अवस्था तीन प्रकार की है। उनमें से स्वस्थान दो प्रकार का है—स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान। समुद्घात सात प्रकार का है—वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियक समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात, तैजस शरीर समुद्घात, आहारक शरीर समुद्घात और केवली समुद्घात। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/12 )।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="1.7" id="1.7">.<strong> निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="1.7" id="1.7">.<strong> निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद</strong> <br /> | ||
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प.का./त.प्र./43<span class="SanskritText"> द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ से गुण और गुणी दोनों का एक क्षेत्र होने के कारण दोनों अभिन्नप्रदेशी हैं। अर्थात् द्रव्य का क्षेत्र उसके अपने प्रदेश है, और उन्हीं प्रदेशों में ही गुण भी रहते हैं। </span><br /> | प.का./त.प्र./43<span class="SanskritText"> द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ से गुण और गुणी दोनों का एक क्षेत्र होने के कारण दोनों अभिन्नप्रदेशी हैं। अर्थात् द्रव्य का क्षेत्र उसके अपने प्रदेश है, और उन्हीं प्रदेशों में ही गुण भी रहते हैं। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 <span class="SanskritText">लोकाकाशप्रमिता: शुद्धासंख्येयप्रदेशा: क्षेत्रं भण्यते।</span>=<span class="HindiText">लोकाकाश प्रमाण जीव के शुद्ध असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र कहलाता है। (अर्थापत्ति से अन्य द्रव्यों के प्रदेश उसके परक्षेत्र हैं।)</span><br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 <span class="SanskritText">लोकाकाशप्रमिता: शुद्धासंख्येयप्रदेशा: क्षेत्रं भण्यते।</span>=<span class="HindiText">लोकाकाश प्रमाण जीव के शुद्ध असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र कहलाता है। (अर्थापत्ति से अन्य द्रव्यों के प्रदेश उसके परक्षेत्र हैं।)</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/148,449 <span class="SanskritGatha">अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेक:।148। क्षेत्रं इति वा सदभिष्ठानं च भूर्निवासश्च। तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ।449।</span>=<span class="HindiText">जो एक देश जितने क्षेत्र को रोक करके रहता है वह उस देश का—द्रव्य का क्षेत्र है, और अन्य क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं हो सकता। | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/148,449 <span class="SanskritGatha">अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेक:।148। क्षेत्रं इति वा सदभिष्ठानं च भूर्निवासश्च। तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ।449।</span>=<span class="HindiText">जो एक देश जितने क्षेत्र को रोक करके रहता है वह उस देश का—द्रव्य का क्षेत्र है, और अन्य क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं हो सकता। किंतु दूसरा दूसरा ही रहता है, पहला नहीं। यह क्षेत्र व्यतिरेक है।148। प्रदेश यह अथवा सत् का आधार और सत् की भूमि तथा सत् का निवास क्षेत्र है और वह क्षेत्र भी स्वयं सत् रूप ही है किंतु प्रदेशों में रहने वाला जितना सत् है उतना वह क्षेत्र नहीं है।449।<br /> | ||
राजवार्तिक/ हिं./1/6/49 देह प्रमाण संकोच विस्तार लिये (जीव प्रदेश) क्षेत्र हैं। <br /> | राजवार्तिक/ हिं./1/6/49 देह प्रमाण संकोच विस्तार लिये (जीव प्रदेश) क्षेत्र हैं। <br /> | ||
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 जन्म योनि के भेद करि (जीव) लोक में उपजै, लोक कूं स्पर्शे सो परक्षेत्र संसार है।<br /> | राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 जन्म योनि के भेद करि (जीव) लोक में उपजै, लोक कूं स्पर्शे सो परक्षेत्र संसार है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.10" id="1.10"><strong> क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.10" id="1.10"><strong> क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण</strong></span><br /> | ||
धवला 4/1,3,1/3-4/7 <span class="PrakritText">खेत्तं खलु आगासं तव्वदिरितं च होदि णोखेत्तं। जीवा य पोग्गला वि य धम्माधम्मत्थिया कालो।3। आगासं सपेदसं तु उड्ढाघो तिरियो विय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं।4।</span>=<span class="HindiText">आकाश द्रव्य नियम से तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है और आकाश द्रव्य के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल द्रव्य नोक्षेत्र कहलाते हैं।3। आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान् ने | धवला 4/1,3,1/3-4/7 <span class="PrakritText">खेत्तं खलु आगासं तव्वदिरितं च होदि णोखेत्तं। जीवा य पोग्गला वि य धम्माधम्मत्थिया कालो।3। आगासं सपेदसं तु उड्ढाघो तिरियो विय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं।4।</span>=<span class="HindiText">आकाश द्रव्य नियम से तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है और आकाश द्रव्य के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल द्रव्य नोक्षेत्र कहलाते हैं।3। आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान् ने अनंत कहा है। ( कषायपाहुड़ 2/2,22/11/6/9 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.11" id="1.11"><strong> स्वस्थानादि क्षेत्र पदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.11" id="1.11"><strong> स्वस्थानादि क्षेत्र पदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 4/1,3,2/26/2 <span class="PrakritText"> सत्थाणसत्थाणणाम अप्पणो उप्पणण्गामे णयरे रण्णे वा सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारजुत्तेणच्छणं। विहारवदिसत्थाणं णाम अप्पणो उप्पण्णगाम-णयर-रण्णादीणि छड्डिय अण्णत्थ सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारेणच्छणं।</span><br /> | धवला 4/1,3,2/26/2 <span class="PrakritText"> सत्थाणसत्थाणणाम अप्पणो उप्पणण्गामे णयरे रण्णे वा सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारजुत्तेणच्छणं। विहारवदिसत्थाणं णाम अप्पणो उप्पण्णगाम-णयर-रण्णादीणि छड्डिय अण्णत्थ सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारेणच्छणं।</span><br /> | ||
धवला/4/1,3,2/29/6 <span class="PrakritText">उववादो एयविहो। सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि।</span>=<span class="HindiText">1. अपने उत्पन्न होने के ग्राम में, नगर में, अथवा अरण्य में—सोना, बैठना, चलना आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थान-स्वस्थान अवस्थान है। ( धवला 4/1,3,58/121/3 ) उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादि को छोड़कर अन्यत्र गमन, निषीदन और परिभ्रमण आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम विहारवत् स्वस्थान है। ( धवला/7/2,6,1/300/5 ) ( गोम्मटसार | धवला/4/1,3,2/29/6 <span class="PrakritText">उववादो एयविहो। सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि।</span>=<span class="HindiText">1. अपने उत्पन्न होने के ग्राम में, नगर में, अथवा अरण्य में—सोना, बैठना, चलना आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थान-स्वस्थान अवस्थान है। ( धवला 4/1,3,58/121/3 ) उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादि को छोड़कर अन्यत्र गमन, निषीदन और परिभ्रमण आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम विहारवत् स्वस्थान है। ( धवला/7/2,6,1/300/5 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/11 )। 2. उपपाद (अवस्थान क्षेत्र) एक प्रकार का है। और वह उत्पन्न होने (जन्मने) के पहले समय में ही होता है—इसमें जीव के समस्त प्रदेशों का संकोच हो जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.12" id="1.12"><strong> निष्कुट क्षेत्र का लक्षण</strong></span><br> सर्वार्थसिद्धि/2/28/ टिप्पणी। पृ.108 <span class="SanskritText">जगरूपसहायकृत-लोकाग्रकोणं निष्कुटक्षेत्रं।</span>=<span class="HindiText">लोक शिखर का कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। (विशेष देखें [[ विग्रह गति#6 | विग्रह गति - 6]])।</span></li> | <li><span class="HindiText" name="1.12" id="1.12"><strong> निष्कुट क्षेत्र का लक्षण</strong></span><br> सर्वार्थसिद्धि/2/28/ टिप्पणी। पृ.108 <span class="SanskritText">जगरूपसहायकृत-लोकाग्रकोणं निष्कुटक्षेत्रं।</span>=<span class="HindiText">लोक शिखर का कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। (विशेष देखें [[ विग्रह गति#6 | विग्रह गति - 6]])।</span></li> |
Revision as of 16:21, 19 August 2020
मध्य लोकस्थ एक-एक द्वीप में भरतादि अनेक क्षेत्र हैं। जो वर्षधर पर्वतों के कारण एक-दूसरे से विभक्त हैं—देखें लोक - 7।
क्षेत्र नाम स्थान का है। किस गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानादि वाले जीव इस लोक में कहाँ तथा कितने भाग में पाये जाते हैं, इस बात का ही इस अधिकार में निर्देश किया गया है।
- भेद व लक्षण
- क्षेत्र सामान्य का लक्षण।
- क्षेत्रानुगम का लक्षण।
- क्षेत्र जीव के अर्थ में।
- क्षेत्र के भेद (सामान्य विशेष)।
- लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।
- क्षेत्र के भेद स्वस्थानादि।
- निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद।
- स्वपर क्षेत्र के लक्षण।
- सामान्य विशेष क्षेत्र के लक्षण।
- क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण।
- स्वस्थनादि क्षेत्रपदों के लक्षण।
- समुद्घातों में क्षेत्र विस्तार संबंधी—देखें वह वह नाम ।
- निष्कुट क्षेत्र का लक्षण।
- निक्षेपोंरूप क्षेत्र के लक्षण।–देखें निक्षेप ।
- नोआगम क्षेत्र के लक्षण।
- क्षेत्र सामान्य का लक्षण।
- क्षेत्र सामान्य निर्देश
- क्षेत्र व अधिकरण में अंतर।
- क्षेत्र व स्पर्शन में अंतर।
- वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अंतर।
- क्षेत्र व अधिकरण में अंतर।
- क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा।
- गतिमार्गणा में संभव पदों की अपेक्षा।
- नरक, तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक, व लौकांतिक देवों का लोक में अवस्थान।–देखें वह वह नाम ।
- जलचर जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें तिर्यंच - 3।
- भोग व कर्मभूमि में जीवों का अवस्थान—देखें भूमि - 8।
- मुक्त जीवों का लोक में अवस्थान—देखें मोक्ष - 5।
- इंद्रियादि मार्गणाओं में संभव पदों की अपेक्षा—
- इंद्रियमार्गणा;
- कार्यमार्गणा;
- योगमार्गणा;
- वेद मार्गणा;
- ज्ञानमार्गणा;
- संयम मार्गणा;
- सम्यक्त्व मार्गणा;
- आहारक मार्गणा।
- एकेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान—देखें स्थावर ।
- विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें तिर्यंच - 3।
- तेज व अप्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान।–देखें काय - 2.5
- त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, जीवों का लोक में अवस्थान–देखें वह वह नाम ।
- मारणांतिक समुद्घात के क्षेत्र संबंधी दृष्टिभेद।
- गुणस्थानों में संभव पदों की अपेक्षा।
- क्षेत्र प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेत परिचय।
- जीवों के क्षेत्र की ओघ प्ररूपणा।
- जीवों के क्षेत्र की आदेश प्ररूपणा।
- सारणी में प्रयुक्त संकेत परिचय।
- अन्य प्ररूपणाएँ
- अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- अष्टकर्म सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- मोहनीय के सत्त्व के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- पाँचों शरीरों के योग्य स्कंधों की संघातन परिशातन कृति के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- पाँच शरीरों में 2, 3, 4 आदि भंगों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- 23 प्रकार की वर्गणाओं की जघन्य, उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा।
- प्रयोग समवदान, अध:, तप, ईयापथ व कृतिकर्म इन षट् कर्मों के स्वामी जीवों की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- अष्टकर्म के चतु:बंध की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा।
- उत्कृष्ट आयुवाले तिर्यंचों के योग्य क्षेत्र–देखें आयु - 6.1।
- भेद व लक्षण
- क्षेत्र सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 ‘‘क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषय:।’’
सर्वार्थसिद्धि/1/25/132/4 क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते।=वर्तमान काल विषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/10 ) जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है वह (उस उस ज्ञान का) नाम क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/1/25 ।..../15/86)।
कषायपाहुड़/2/2,22/11/1/7 खेत्तं खलु आगासं तव्विवरीयं च हवदि णोखेत्तं/1।=क्षेत्र नियम से आकाश है और आकाश से विपरीत नोक्षेत्र है।
धवला 13/5,3,8/6/3 क्षियंति निवसंति यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम् ।=क्षि धातु का अर्थ ‘निवास करना’ है। इसलिए क्षेत्र शब्द का यह अर्थ है कि जिसमें पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं। ( महापुराण/4/14 )
- क्षेत्रानुगम का लक्षण
धवला 1/1,1,7/102/158 अत्थित्तं पुण संतं अत्थित्तस्स यत्तदेव परिमाणं। पच्चुप्पण्णं खेत्तं अदीद-पदुप्पण्णाणं फसणं।102।
धवला 1/1,1,7/156/1 णिय-संखा-गुणिदोगाहणखेत्तं खेत्तं उच्चदे दि।=1. वर्तमान क्षेत्र का प्ररूपण करने वाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीत स्पर्श और वर्तमान स्पर्श का कथन करने वाली स्पर्शन प्ररूपणा है। 2. अपनी अपनी संख्या से गुणित अवगाहनारूप क्षेत्र को ही क्षेत्रानुगम कहते हैं।
- क्षेत्र जीव के अर्थ में
महापुराण/24/105 क्षेत्रस्वरूपस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्चते।105।=इसके (जीव के) स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्रज्ञ भी कहलाता है।
- क्षेत्र के भेद (सामान्य विशेष)
पंचाध्यायी x`/5/270 क्षेत्रं द्विधावधानात् सामान्यमथ च विशेषमात्रं स्यात् । तत्र प्रदेशमात्रं प्रथमं प्रथमेतरं तदंशमयम् ।270।=विवक्षा वश से क्षेत्र सामान्य और विशेष रूप इस प्रकार का है।
- लोक की अपेक्षा क्षेत्र के भेद
धवला 4/1,3,1/8/6 दव्वट्ठियणयं च पडुच्च एगविधं। अथवा पओजणमभिसमिच्च दुविहं लोगागासमलोगागासं चेदि।...अथवा देसभेएण तिविहो, मंदरचूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति।=द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है। अथवा प्रयोजन के आश्रय से (पर्यायार्थिक नय से) क्षेत्र दो प्रकार का है—लोकाकाश व अलोकाकाश।...अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है=मंदराचल (सुमेरूपर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है, मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
- क्षेत्र के भेद—स्वस्थानादि
धवला 4/1,3,2/26/1 सव्वजीवाणमवत्था तिविहा भवदि, सत्थाणसमुग्घादुववादभेदेण। तत्थ सत्थाणं दुविहं, सत्थाणसत्थाणं विहारवदिसत्थाणं चेदि। समुग्घादो सत्तविधो, वेदणसमुग्घादो कसायसमुग्घादो वेउव्वियसमुग्घादो मारणांतियसमुग्घादो तेजासरीरसमुग्घादो आहारसमुग्घादो केवलिसमुग्घादो चेदि।=स्वस्थान, समुद्घात और उपादान के भेद से सर्व जीवों की अवस्था तीन प्रकार की है। उनमें से स्वस्थान दो प्रकार का है—स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान। समुद्घात सात प्रकार का है—वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियक समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात, तैजस शरीर समुद्घात, आहारक शरीर समुद्घात और केवली समुद्घात। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/12 )।
- . निक्षेपों की अपेक्षा क्षेत्र के भेद
धवला 4/1,3,1/ पृ.3-7।
पृ.3/1
चार्ट
- स्वपर क्षेत्र के लक्षण
प.का./त.प्र./43 द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात् ।=परमार्थ से गुण और गुणी दोनों का एक क्षेत्र होने के कारण दोनों अभिन्नप्रदेशी हैं। अर्थात् द्रव्य का क्षेत्र उसके अपने प्रदेश है, और उन्हीं प्रदेशों में ही गुण भी रहते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 लोकाकाशप्रमिता: शुद्धासंख्येयप्रदेशा: क्षेत्रं भण्यते।=लोकाकाश प्रमाण जीव के शुद्ध असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र कहलाता है। (अर्थापत्ति से अन्य द्रव्यों के प्रदेश उसके परक्षेत्र हैं।)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/148,449 अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेक:।148। क्षेत्रं इति वा सदभिष्ठानं च भूर्निवासश्च। तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ।449।=जो एक देश जितने क्षेत्र को रोक करके रहता है वह उस देश का—द्रव्य का क्षेत्र है, और अन्य क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं हो सकता। किंतु दूसरा दूसरा ही रहता है, पहला नहीं। यह क्षेत्र व्यतिरेक है।148। प्रदेश यह अथवा सत् का आधार और सत् की भूमि तथा सत् का निवास क्षेत्र है और वह क्षेत्र भी स्वयं सत् रूप ही है किंतु प्रदेशों में रहने वाला जितना सत् है उतना वह क्षेत्र नहीं है।449।
राजवार्तिक/ हिं./1/6/49 देह प्रमाण संकोच विस्तार लिये (जीव प्रदेश) क्षेत्र हैं।
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 जन्म योनि के भेद करि (जीव) लोक में उपजै, लोक कूं स्पर्शे सो परक्षेत्र संसार है।
- सामान्य विशेष क्षेत्र के लक्षण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/270 तत्र प्रदेशमात्रं प्रथमं प्रथमेतरं तदंशमयम् ।=केवल ‘प्रदेश’ यह तो सामान्य क्षेत्र कहलाता है, तथा यह वस्तु का प्रदेशरूप अंशमयी अर्थात् अमुक द्रव्य इतने प्रदेशवाला है इत्यादि विशेष क्षेत्र कहलाता है।
- क्षेत्र लोक व नोक्षेत्र के लक्षण
धवला 4/1,3,1/3-4/7 खेत्तं खलु आगासं तव्वदिरितं च होदि णोखेत्तं। जीवा य पोग्गला वि य धम्माधम्मत्थिया कालो।3। आगासं सपेदसं तु उड्ढाघो तिरियो विय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं।4।=आकाश द्रव्य नियम से तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है और आकाश द्रव्य के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल द्रव्य नोक्षेत्र कहलाते हैं।3। आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान् ने अनंत कहा है। ( कषायपाहुड़ 2/2,22/11/6/9 )।
- स्वस्थानादि क्षेत्र पदों के लक्षण
धवला 4/1,3,2/26/2 सत्थाणसत्थाणणाम अप्पणो उप्पणण्गामे णयरे रण्णे वा सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारजुत्तेणच्छणं। विहारवदिसत्थाणं णाम अप्पणो उप्पण्णगाम-णयर-रण्णादीणि छड्डिय अण्णत्थ सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारेणच्छणं।
धवला/4/1,3,2/29/6 उववादो एयविहो। सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि।=1. अपने उत्पन्न होने के ग्राम में, नगर में, अथवा अरण्य में—सोना, बैठना, चलना आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थान-स्वस्थान अवस्थान है। ( धवला 4/1,3,58/121/3 ) उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादि को छोड़कर अन्यत्र गमन, निषीदन और परिभ्रमण आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम विहारवत् स्वस्थान है। ( धवला/7/2,6,1/300/5 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/543/939/11 )। 2. उपपाद (अवस्थान क्षेत्र) एक प्रकार का है। और वह उत्पन्न होने (जन्मने) के पहले समय में ही होता है—इसमें जीव के समस्त प्रदेशों का संकोच हो जाता है।
- निष्कुट क्षेत्र का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/28/ टिप्पणी। पृ.108 जगरूपसहायकृत-लोकाग्रकोणं निष्कुटक्षेत्रं।=लोक शिखर का कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। (विशेष देखें विग्रह गति - 6)। - नो आगम क्षेत्र के लक्षण
धवला 4/1,3,1/6/9 वदिरित्तदव्वखेत्तं दुविहं, कम्मदव्वखेत्तं णोकम्मदव्वखेत्तं चेदि। तत्थ कम्मदव्वक्खेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं।...णोकम्मदव्वखेत्तं तु दुविहं, ओवयारियं पारमत्थियं चेदि। तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं बीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासद्रव्यं। धवला 4/1,3,1/8/2 आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचरिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियापगमाधारो भूमि त्ति एयट्ठो।=1. तो तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य क्षेत्र है वह कर्मद्रव्यक्षेत्र और नोकर्म द्रव्य क्षेत्र के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मद्रव्य को कर्मद्रव्यक्षेत्र कहते हैं। (क्योंकि जिसमें जीव निवास करते हैं, इस प्रकार की निरुक्ति के बल से कर्मों के क्षेत्रपना सिद्ध है)। नोकर्मद्रव्य क्षेत्र भी औपचारिक और पारमार्थिक के भेद से दो प्रकार है। उनमें से लोक में प्रसिद्ध शालि-क्षेत्र, ब्रीहि (धान्य) क्षेत्र इत्यादि औपचारिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम-द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है। 2. आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित (यक्षों के विचरण का स्थान) अवगाहन लक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नोआगमद्रव्य के क्षेत्र के एकार्थनाम हैं।