परतंत्रवाद: Difference between revisions
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श्वेताश्वतरोपनिषद्/1/2<span class="SanskritText"> कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छाभूतानि योनिः पुरुषेति चित्तम्। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्मा-प्यनीशः सुखदुःख-हेतुः। 2। </span>= <span class="HindiText">आत्मा को यह सुख व दुःख स्वयं भोगने से नहीं होते, अपितु काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथ्वी आदि चार भूत, योनिस्थान, पुरुष व चित्त इन नौ बातों के संयोग से होता है। क्योंकि आत्मा दुःख-सुख भोगने में | श्वेताश्वतरोपनिषद्/1/2<span class="SanskritText"> कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छाभूतानि योनिः पुरुषेति चित्तम्। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्मा-प्यनीशः सुखदुःख-हेतुः। 2। </span>= <span class="HindiText">आत्मा को यह सुख व दुःख स्वयं भोगने से नहीं होते, अपितु काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथ्वी आदि चार भूत, योनिस्थान, पुरुष व चित्त इन नौ बातों के संयोग से होता है। क्योंकि आत्मा दुःख-सुख भोगने में स्वतंत्र नहीं है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">सम्यगेकांत की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं. 29, 34 <span class="SanskritText">अस्वभावनयेनायस्कारनिशित-तीक्ष्णविशिखवत्संस्कारसार्थक्यकारि। 29। ईश्वरनयेन धात्रीहटा- | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं. 29, 34 <span class="SanskritText">अस्वभावनयेनायस्कारनिशित-तीक्ष्णविशिखवत्संस्कारसार्थक्यकारि। 29। ईश्वरनयेन धात्रीहटा-बलेह्यमानपांथबालकवत्पारतंत्रयभोक्तृ। 34।</span> = <span class="HindiText">आत्मद्रव्य अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करनेवाला है (अर्थात् आत्मा को अस्वभावनय से संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभाव से नोक नहीं होती, किंतु संस्कार करके) लुहार के द्वारा नोक निकाली गयी हो ऐसे पैने बाण की भाँति। 29। आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>उपादान कारण की भी कथंचित् | <li><span class="HindiText"><strong>उपादान कारण की भी कथंचित् परतंत्रता -</strong>देखें [[ कारण#II.3 | कारण - II.3]]। </span></li> | ||
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Revision as of 16:28, 19 August 2020
- मिथ्या एकांत की अपेक्षा
श्वेताश्वतरोपनिषद्/1/2 कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छाभूतानि योनिः पुरुषेति चित्तम्। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्मा-प्यनीशः सुखदुःख-हेतुः। 2। = आत्मा को यह सुख व दुःख स्वयं भोगने से नहीं होते, अपितु काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथ्वी आदि चार भूत, योनिस्थान, पुरुष व चित्त इन नौ बातों के संयोग से होता है। क्योंकि आत्मा दुःख-सुख भोगने में स्वतंत्र नहीं है।
- सम्यगेकांत की अपेक्षा
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं. 29, 34 अस्वभावनयेनायस्कारनिशित-तीक्ष्णविशिखवत्संस्कारसार्थक्यकारि। 29। ईश्वरनयेन धात्रीहटा-बलेह्यमानपांथबालकवत्पारतंत्रयभोक्तृ। 34। = आत्मद्रव्य अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करनेवाला है (अर्थात् आत्मा को अस्वभावनय से संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभाव से नोक नहीं होती, किंतु संस्कार करके) लुहार के द्वारा नोक निकाली गयी हो ऐसे पैने बाण की भाँति। 29। आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति।
- उपादान कारण की भी कथंचित् परतंत्रता -देखें कारण - II.3।