भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान: Difference between revisions
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सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/4 <span class="SanskritText">वेद्यत इति वेदः | सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/4 <span class="SanskritText">वेद्यत इति वेदः लिंगमित्यर्थः । </span>=<span class="HindiText"> जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं । उसका दूसरा नाम लिंग है । ( राजवार्तिक/2/52/1/157/2 ); ( धवला 1/1, 1, 4/140/5 ) । </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/101 <span class="PrakritGatha">वेदस्सुदरिणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ।101।</span> = <span class="HindiText">वेदकर्म की उदीरणा होने पर यह जीव नाना प्रकार के बालभाव अर्थात् चांचल्य को प्राप्त होता है; और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसकभाव का वेदन करता है । अतएव वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । ( धवला 1/1, 1, 4/ गा.89/141); ( गोम्मटसार | पं.सं./प्रा./1/101 <span class="PrakritGatha">वेदस्सुदरिणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ।101।</span> = <span class="HindiText">वेदकर्म की उदीरणा होने पर यह जीव नाना प्रकार के बालभाव अर्थात् चांचल्य को प्राप्त होता है; और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसकभाव का वेदन करता है । अतएव वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । ( धवला 1/1, 1, 4/ गा.89/141); ( गोम्मटसार जीवकांड/272/593 ) । </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 4/ पृष्ठ/पंक्ति-<span class="SanskritText">वेद्यत इति वेदः । (140/5) । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । (140/7) । अथवा-त्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । (141/1) । </span><br /> | धवला 1/1, 1, 4/ पृष्ठ/पंक्ति-<span class="SanskritText">वेद्यत इति वेदः । (140/5) । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । (140/7) । अथवा-त्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । (141/1) । </span><br /> | ||
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<li class="HindiText"> जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं । </li> | <li class="HindiText"> जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं । </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को मोह कहते हैं । यहाँ पर मोह शब्द वेद का पर्यायवाची है । ( धवला 7/2, 1, 3/7 ); ( गोम्मटसार | <li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को मोह कहते हैं । यहाँ पर मोह शब्द वेद का पर्यायवाची है । ( धवला 7/2, 1, 3/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/272/594/3 ) । </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । </li> | <li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । </li> | ||
<li><span class="HindiText"> अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं । </span><br /> | <li><span class="HindiText"> अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं । </span><br /> | ||
धवला 5/1, 7, 42/222/8 <span class="PrakritText">मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो ।</span> =<span class="HindiText"> मोहनीय के द्रव्यकर्म | धवला 5/1, 7, 42/222/8 <span class="PrakritText">मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो ।</span> =<span class="HindiText"> मोहनीय के द्रव्यकर्म स्कंध को अथवा मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को वेद कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> शास्त्र के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> शास्त्र के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
धवला 13/5, 5, 50/286/8 <span class="SanskritText">अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः | धवला 13/5, 5, 50/286/8 <span class="SanskritText">अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धांतः । एतेन सूत्रकंठग्रंथकथाया वितथरूपायाः वेदत्वमपास्तम् । </span>= <span class="HindiText">अशेष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धांत है । इससे सूत्रकंठों अर्थात् ब्राह्मणों की ग्रंथकथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है । (श्रुतज्ञान ही वास्तव में वेद है ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> वेद के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> वेद के भेद</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम/1/1, 1/ सूत्र 101/340 <span class="PrakritText">वेदाणुवादेण अत्थि इत्थिवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा अवगदवेदा चेदि ।101। </span>= <span class="HindiText">वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेद वाले जीव होते हैं ।101। </span><br /> | |||
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/104 <span class="SanskritText">इत्थि पुरिस णउंसय वेया खलु दव्वभावदो होंति । </span>= <span class="HindiText">स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक ये तीनों ही वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं । </span><br /> | पंचसंग्रह / प्राकृत/1/104 <span class="SanskritText">इत्थि पुरिस णउंसय वेया खलु दव्वभावदो होंति । </span>= <span class="HindiText">स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक ये तीनों ही वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं । </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/5 <span class="SanskritText"> | सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/5 <span class="SanskritText"> लिंगं त्रिभेदं, स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेद इति ।</span> = <span class="HindiText">लिंग तीन प्रकार का है-स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । ( राजवार्तिक/9/7/11/604/5 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/10 ) । </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/4 <span class="SanskritText">तद् द्विविधं- | सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/4 <span class="SanskritText">तद् द्विविधं-द्रव्यलिंगं भावलिंगं चेदि । </span>= <span class="HindiText">इसके दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग । ( सर्वार्थसिद्धि/9/47/462/3 ); ( राजवार्तिक/2/6/3/109/1 ); ( राजवार्तिक/9/47/4/638/10 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1079 ) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य व भाव वेद के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य व भाव वेद के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/5 <span class="SanskritText"> | सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/5 <span class="SanskritText">द्रव्यलिंगं योनिमेहनादिनामकर्मोदयनिर्वर्तितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिंगम् ।</span> =<span class="HindiText"> जो योनि मेहन आदि नाम कर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषाय के उदय से प्राप्त होती है वह भावलिंग है । ( गोम्मटसार जीवकांड/ जी.मू./271/591); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1080-1082 ) । </span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/6/3/109/2 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/2/6/3/109/2 <span class="SanskritText"> द्रव्यलिंगं नामकर्मोदयापादितं...भावलिंगमात्मपरिणामः स्त्रीपुंनपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षणः । स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदस्योदयाद्भवति । </span>= <span class="HindiText">नामकर्म के उदय से होने वाला द्रव्यलिंग है और भावलिंग आत्मपरिणामरूप है । वह स्त्री, पुरुष व नपुंसक इन तीनों में परस्पर एक दूसरे की अभिलाषा लक्षण वाला होता है और वह चारित्रमोह के विकल्परूप स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नाम के नोकषाय के उदय से होता है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> अपगतवेद का लक्षण </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> अपगतवेद का लक्षण </strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/108 <span class="PrakritGatha">करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवरसोक्खा ।108। </span>= <span class="HindiText">जो कारीष अर्थात् | पं.सं./प्रा./1/108 <span class="PrakritGatha">करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवरसोक्खा ।108। </span>= <span class="HindiText">जो कारीष अर्थात् कंडे की अग्नि तृण की अग्नि और इष्टपाक की अग्नि के समान क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणामों के वेदन से उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मा में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनंत सुख के धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगत वेदी कहलाते हैं । ( धवला 1/1, 1, 101/ गा.173/343); ( गोम्मटसार जीवकांड/276/597 ) । </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 101/342/3 <span class="SanskritText">अपगतास्त्रयोऽपि वेदसंतापा येषां तेऽपगतवेदाः । | धवला 1/1, 1, 101/342/3 <span class="SanskritText">अपगतास्त्रयोऽपि वेदसंतापा येषां तेऽपगतवेदाः । प्रक्षीणांतर्दाह इति यावत् । </span>=<span class="HindiText"> जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला संताप या अंतर्दाह दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वेद के लक्षणों | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वेद के लक्षणों संबंधी शंकाएँ</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 4/140/5 <span class="SanskritText">बेद्यत इति वेदः । अष्टकर्मोदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत्वं प्रत्यविशेषादिति चेन्न, ‘सामान्यचोदनाश्च | धवला 1/1, 1, 4/140/5 <span class="SanskritText">बेद्यत इति वेदः । अष्टकर्मोदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत्वं प्रत्यविशेषादिति चेन्न, ‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठंते’ इति विशेषावगतेः ‘रूढितंत्रा व्युत्पत्तिः’ इति वा । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशात् । अथवात्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः ।</span> = <span class="HindiText">जो वेदा जाय उसे वेद कहते हैं । <strong>प्रश्न–</strong>वेद का इस प्रकार का लक्षण करने पर आठ कर्मों के उदय को भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि वेदन की अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनों ही समान हैं? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, 1. क्योंकि सामान्यरूप से की गयी कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पायी जाती है, इसलिए विशेष का ज्ञान हो जाता है । ( धवला 7/2, 1, 37/79/3 ) अथवा 2. रौढ़िक शब्दों की व्युत्पत्ति रूढि के अधीन होती है, इसलिए वेद शब्द पुरुषवेदादि में रूढ़ होने के कारण ‘वेद्यते’ अर्थात् जो वेदा जाय इस व्युत्पत्ति से वेद का ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के उदय का नहीं । अथवा आत्म प्रवृत्ति में सम्मोह के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । <strong>प्रश्न–</strong>इस प्रकार के लक्षण के करने पर भी संपूर्ण मोह के उदय को वेद संज्ञा प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि वेद की तरह शेष मोह भी व्यामोह को उत्पन्न करता है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रूढ़ि के बल से वेद नाम के कर्म के उदय को ही वेद संज्ञा प्राप्त है । अथवा आत्मप्रवृत्ति में मैथुन की उत्पत्ति वेद है । <br /> | ||
देखें [[ वेद#2.1 | वेद - 2.1 ]](यद्यपि लोक में मेहनादि लिंगों की स्त्री, पुरुष आदिपना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नहीं) । </span></li> | देखें [[ वेद#2.1 | वेद - 2.1 ]](यद्यपि लोक में मेहनादि लिंगों की स्त्री, पुरुष आदिपना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नहीं) । </span></li> | ||
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Revision as of 16:30, 19 August 2020
- भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान
- वेद सामान्य का लक्षण
- लिंग के अर्थ में ।
सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/4 वेद्यत इति वेदः लिंगमित्यर्थः । = जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं । उसका दूसरा नाम लिंग है । ( राजवार्तिक/2/52/1/157/2 ); ( धवला 1/1, 1, 4/140/5 ) ।
पं.सं./प्रा./1/101 वेदस्सुदरिणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ।101। = वेदकर्म की उदीरणा होने पर यह जीव नाना प्रकार के बालभाव अर्थात् चांचल्य को प्राप्त होता है; और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसकभाव का वेदन करता है । अतएव वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । ( धवला 1/1, 1, 4/ गा.89/141); ( गोम्मटसार जीवकांड/272/593 ) ।
धवला 1/1, 1, 4/ पृष्ठ/पंक्ति-वेद्यत इति वेदः । (140/5) । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । (140/7) । अथवा-त्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । (141/1) ।
धवला 1/1, 1, 101/341/1 वेदनं वेदः । =- जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं ।
- अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को मोह कहते हैं । यहाँ पर मोह शब्द वेद का पर्यायवाची है । ( धवला 7/2, 1, 3/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/272/594/3 ) ।
- अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं ।
- अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं ।
धवला 5/1, 7, 42/222/8 मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो । = मोहनीय के द्रव्यकर्म स्कंध को अथवा मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को वेद कहते हैं ।
- शास्त्र के अर्थ में
धवला 13/5, 5, 50/286/8 अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धांतः । एतेन सूत्रकंठग्रंथकथाया वितथरूपायाः वेदत्वमपास्तम् । = अशेष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धांत है । इससे सूत्रकंठों अर्थात् ब्राह्मणों की ग्रंथकथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है । (श्रुतज्ञान ही वास्तव में वेद है ।)
- लिंग के अर्थ में ।
- वेद के भेद
षट्खंडागम/1/1, 1/ सूत्र 101/340 वेदाणुवादेण अत्थि इत्थिवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा अवगदवेदा चेदि ।101। = वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेद वाले जीव होते हैं ।101।
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/104 इत्थि पुरिस णउंसय वेया खलु दव्वभावदो होंति । = स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक ये तीनों ही वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं ।
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/5 लिंगं त्रिभेदं, स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेद इति । = लिंग तीन प्रकार का है-स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । ( राजवार्तिक/9/7/11/604/5 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/37/10 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/4 तद् द्विविधं-द्रव्यलिंगं भावलिंगं चेदि । = इसके दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग । ( सर्वार्थसिद्धि/9/47/462/3 ); ( राजवार्तिक/2/6/3/109/1 ); ( राजवार्तिक/9/47/4/638/10 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1079 ) ।
- द्रव्य व भाव वेद के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/5 द्रव्यलिंगं योनिमेहनादिनामकर्मोदयनिर्वर्तितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिंगम् । = जो योनि मेहन आदि नाम कर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषाय के उदय से प्राप्त होती है वह भावलिंग है । ( गोम्मटसार जीवकांड/ जी.मू./271/591); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1080-1082 ) ।
राजवार्तिक/2/6/3/109/2 द्रव्यलिंगं नामकर्मोदयापादितं...भावलिंगमात्मपरिणामः स्त्रीपुंनपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षणः । स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदस्योदयाद्भवति । = नामकर्म के उदय से होने वाला द्रव्यलिंग है और भावलिंग आत्मपरिणामरूप है । वह स्त्री, पुरुष व नपुंसक इन तीनों में परस्पर एक दूसरे की अभिलाषा लक्षण वाला होता है और वह चारित्रमोह के विकल्परूप स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नाम के नोकषाय के उदय से होता है ।
- अपगतवेद का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/108 करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवरसोक्खा ।108। = जो कारीष अर्थात् कंडे की अग्नि तृण की अग्नि और इष्टपाक की अग्नि के समान क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणामों के वेदन से उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मा में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनंत सुख के धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगत वेदी कहलाते हैं । ( धवला 1/1, 1, 101/ गा.173/343); ( गोम्मटसार जीवकांड/276/597 ) ।
धवला 1/1, 1, 101/342/3 अपगतास्त्रयोऽपि वेदसंतापा येषां तेऽपगतवेदाः । प्रक्षीणांतर्दाह इति यावत् । = जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला संताप या अंतर्दाह दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं ।
- वेद के लक्षणों संबंधी शंकाएँ
धवला 1/1, 1, 4/140/5 बेद्यत इति वेदः । अष्टकर्मोदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत्वं प्रत्यविशेषादिति चेन्न, ‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठंते’ इति विशेषावगतेः ‘रूढितंत्रा व्युत्पत्तिः’ इति वा । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशात् । अथवात्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । = जो वेदा जाय उसे वेद कहते हैं । प्रश्न–वेद का इस प्रकार का लक्षण करने पर आठ कर्मों के उदय को भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि वेदन की अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनों ही समान हैं? उत्तर–ऐसा नहीं है, 1. क्योंकि सामान्यरूप से की गयी कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पायी जाती है, इसलिए विशेष का ज्ञान हो जाता है । ( धवला 7/2, 1, 37/79/3 ) अथवा 2. रौढ़िक शब्दों की व्युत्पत्ति रूढि के अधीन होती है, इसलिए वेद शब्द पुरुषवेदादि में रूढ़ होने के कारण ‘वेद्यते’ अर्थात् जो वेदा जाय इस व्युत्पत्ति से वेद का ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के उदय का नहीं । अथवा आत्म प्रवृत्ति में सम्मोह के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । प्रश्न–इस प्रकार के लक्षण के करने पर भी संपूर्ण मोह के उदय को वेद संज्ञा प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि वेद की तरह शेष मोह भी व्यामोह को उत्पन्न करता है? उत्तर–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रूढ़ि के बल से वेद नाम के कर्म के उदय को ही वेद संज्ञा प्राप्त है । अथवा आत्मप्रवृत्ति में मैथुन की उत्पत्ति वेद है ।
देखें वेद - 2.1 (यद्यपि लोक में मेहनादि लिंगों की स्त्री, पुरुष आदिपना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नहीं) ।
- वेद सामान्य का लक्षण