विभाव का कथंचित् अहेतुकपना: Difference between revisions
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समयसार/121-125, 136 <span class="PrakritGatha">ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।123। अह सयमप्पा परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धो। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।124। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्ते य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।125। तं खलु जीवणिवद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।136। </span>= <span class="HindiText">सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे भाई ! यदि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है।121। और इस प्रकार संसार के अभाव का तथा सांख्यमत का प्रसंग प्राप्त होता है।122। यदि क्रोध नाम का पुद्गल कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते हैं, कि स्वयं न परिणमते हुए को वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है?।123। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूप से परिणमता है, ऐसा मानें तो ‘क्रोध जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है’ यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।124। इसलिए यह | समयसार/121-125, 136 <span class="PrakritGatha">ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।123। अह सयमप्पा परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धो। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।124। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्ते य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।125। तं खलु जीवणिवद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।136। </span>= <span class="HindiText">सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे भाई ! यदि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है।121। और इस प्रकार संसार के अभाव का तथा सांख्यमत का प्रसंग प्राप्त होता है।122। यदि क्रोध नाम का पुद्गल कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते हैं, कि स्वयं न परिणमते हुए को वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है?।123। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूप से परिणमता है, ऐसा मानें तो ‘क्रोध जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है’ यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।124। इसलिए यह सिद्धांत है कि, क्रोध, मान, माया व लोभ में उपयुक्त आत्मा स्वयं क्रोध, मान, माया व लोभ है।125। कार्माण वर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब वास्तव में जीव में बँधता है तब जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावों का हेतु होता है।136। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/ कलश नं.<span class="SanskritText">कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो योजयेत्, कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।....।152। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया, नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि। | समयसार / आत्मख्याति/ कलश नं.<span class="SanskritText">कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो योजयेत्, कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।....।152। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया, नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरंतश्चकास्ति, व्यत्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात्।219। रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयंति ये तु ते। उत्तरंति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरांधबुद्धयः।221।</span> = <span class="HindiText">कर्म ही उसके कर्ता को अपने फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता। फल की इच्छा वाला ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को पाता है।152। तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है।219। जो राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अंध है, ऐसे मोहनदी को पार नहीं कर सकते।221। </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/372 <span class="SanskritText">न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति | समयसार / आत्मख्याति/372 <span class="SanskritText">न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शंक्यं; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाद् सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात्।372।</span> = <span class="HindiText">ऐसी आशंका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीव को रागादि उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। (देखें [[ कर्ता#3.6 | कर्ता - 3.6]], 7)। </span><br /> | ||
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/13 <span class="SanskritText"> परिणाममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्ग्लिकं कर्म तस्यापि।13 </span>= <span class="HindiText">निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामों से आप ही परिणमते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल | पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/13 <span class="SanskritText"> परिणाममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्ग्लिकं कर्म तस्यापि।13 </span>= <span class="HindiText">निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामों से आप ही परिणमते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल संबंधी ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म कारण मात्र होते हैं। <br /> | ||
देखें [[ विभाव#5.4 | विभाव - 5.4 ]](ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा कषाय आदि अहेतुक हैं, क्योंकि इन नयों की अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।)। <br /> | देखें [[ विभाव#5.4 | विभाव - 5.4 ]](ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा कषाय आदि अहेतुक हैं, क्योंकि इन नयों की अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।)। <br /> | ||
देखें [[ विभाव#2.2.3 | विभाव - 2.2.3 ]](रागादि जीव के अपने अपराध हैं, तथा कथंचित् जीव के स्वभाव हैं)। <br /> | देखें [[ विभाव#2.2.3 | विभाव - 2.2.3 ]](रागादि जीव के अपने अपराध हैं, तथा कथंचित् जीव के स्वभाव हैं)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/32 <span class="SanskritText">यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन | समयसार / आत्मख्याति/32 <span class="SanskritText">यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एवं तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यार्क्तनेन हटान्मोहं न्यक्कृत्य.....आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिनः। </span>= <span class="HindiText">मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से, इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, अपने आत्मा को अनुभव करते हैं, वे निश्चय से जितमोह जिन हैं। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्यः-‘औदयिका भावाः | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्यः-‘औदयिका भावाः बंधकारण’ इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति। परिहारमाह-औदयिका भावा बंधंकारणं भवंति, परं किंतु मोहोदय सहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति। यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बंधो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बंध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः। </span>= <span class="HindiText">[पुण्य के फलरूप अर्हंत को विहार आदि क्रियाएँ यद्यपि औदयिकी हैं, परंतु फिर भी मोहादि भावों से रहित होने के कारण उन्हें क्षायिक माना गया है- प्रवचनसार 45 ] <strong>प्रश्न–</strong>इस प्रकार मानने से औदयिक भाव बंध के कारण है’ यह आगमवचन मिथ्या हो जाता है? <strong>उत्तर</strong>–इसका परिहार करते हैं। औदयिक भाव बंध के कारण होते हैं किंतु यदि मोह के उदय से सहित हो तो। द्रव्यमोह के उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से नहीं परिणमता है, तब बंध नहीं होता है। यदि कर्मोदय मात्र से बंध हुआ होता तो संसारियों को सदैव बंध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योंकि उनके कर्म का उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोह से तात्पर्य दर्शनमोह में सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोह में क्रोधादि का अंतिम जघन्य अंश है, ऐसा प्रतीत होता है।] </span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/136/191/13 <span class="SanskritText"> उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमतीति तदा | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/136/191/13 <span class="SanskritText"> उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमतीति तदा बंधो भवतीति नैवोदयमात्रेण धेरोपसर्गेऽपि पांडवादिवत्। यदि पुनरुदयमात्रेण बंधो भवति तदा सर्वदैव संसार एव। कस्मादिति चेत् संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्।</span> = <span class="HindiText">उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में) यदि जीव स्व स्वभाव को छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय (भावकर्म) रूप से परिणमता है तो उसे बंध होता है, केवल उदयमात्र से नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आने पर भी पांडव आदि। (शेष अर्थ ऊपर के समान); ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/164-165/230/18 )। <br /> | ||
देखें [[ कारण#III.3.5 | कारण - III.3.5]]-ज्ञानियों के लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान है)। <br /> | देखें [[ कारण#III.3.5 | कारण - III.3.5]]-ज्ञानियों के लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान है)। <br /> | ||
देखें [[ बंध#3.5 | बंध - 3.5]], 6। (मोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के | देखें [[ बंध#3.5 | बंध - 3.5]], 6। (मोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध का तो कारण है, परंतु स्वप्रकृति बंध का कारण नहीं)। </span></li> | ||
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Revision as of 16:35, 19 August 2020
- विभाव का कथंचित् अहेतुकपना
- जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है
समयसार/121-125, 136 ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।123। अह सयमप्पा परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धो। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।124। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्ते य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।125। तं खलु जीवणिवद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।136। = सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे भाई ! यदि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है।121। और इस प्रकार संसार के अभाव का तथा सांख्यमत का प्रसंग प्राप्त होता है।122। यदि क्रोध नाम का पुद्गल कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते हैं, कि स्वयं न परिणमते हुए को वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है?।123। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूप से परिणमता है, ऐसा मानें तो ‘क्रोध जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है’ यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।124। इसलिए यह सिद्धांत है कि, क्रोध, मान, माया व लोभ में उपयुक्त आत्मा स्वयं क्रोध, मान, माया व लोभ है।125। कार्माण वर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब वास्तव में जीव में बँधता है तब जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावों का हेतु होता है।136।
समयसार / आत्मख्याति/ कलश नं.कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो योजयेत्, कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।....।152। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया, नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरंतश्चकास्ति, व्यत्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात्।219। रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयंति ये तु ते। उत्तरंति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरांधबुद्धयः।221। = कर्म ही उसके कर्ता को अपने फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता। फल की इच्छा वाला ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को पाता है।152। तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है।219। जो राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अंध है, ऐसे मोहनदी को पार नहीं कर सकते।221।
समयसार / आत्मख्याति/372 न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शंक्यं; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाद् सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात्।372। = ऐसी आशंका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीव को रागादि उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। (देखें कर्ता - 3.6, 7)।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/13 परिणाममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्ग्लिकं कर्म तस्यापि।13 = निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामों से आप ही परिणमते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल संबंधी ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म कारण मात्र होते हैं।
देखें विभाव - 5.4 (ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा कषाय आदि अहेतुक हैं, क्योंकि इन नयों की अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।)।
देखें विभाव - 2.2.3 (रागादि जीव के अपने अपराध हैं, तथा कथंचित् जीव के स्वभाव हैं)।
देखें नियति - 2.3 (कालादि लब्धि के मिलने पर स्वयं सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है)।
- ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है
समयसार / आत्मख्याति/32 यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवंतमपि दूरत एवं तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यार्क्तनेन हटान्मोहं न्यक्कृत्य.....आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिनः। = मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से, इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, अपने आत्मा को अनुभव करते हैं, वे निश्चय से जितमोह जिन हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/45/58/19 अत्राह शिष्यः-‘औदयिका भावाः बंधकारण’ इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति। परिहारमाह-औदयिका भावा बंधंकारणं भवंति, परं किंतु मोहोदय सहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति। यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बंधो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बंध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः। = [पुण्य के फलरूप अर्हंत को विहार आदि क्रियाएँ यद्यपि औदयिकी हैं, परंतु फिर भी मोहादि भावों से रहित होने के कारण उन्हें क्षायिक माना गया है- प्रवचनसार 45 ] प्रश्न–इस प्रकार मानने से औदयिक भाव बंध के कारण है’ यह आगमवचन मिथ्या हो जाता है? उत्तर–इसका परिहार करते हैं। औदयिक भाव बंध के कारण होते हैं किंतु यदि मोह के उदय से सहित हो तो। द्रव्यमोह के उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से नहीं परिणमता है, तब बंध नहीं होता है। यदि कर्मोदय मात्र से बंध हुआ होता तो संसारियों को सदैव बंध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योंकि उनके कर्म का उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोह से तात्पर्य दर्शनमोह में सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोह में क्रोधादि का अंतिम जघन्य अंश है, ऐसा प्रतीत होता है।]
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/136/191/13 उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमतीति तदा बंधो भवतीति नैवोदयमात्रेण धेरोपसर्गेऽपि पांडवादिवत्। यदि पुनरुदयमात्रेण बंधो भवति तदा सर्वदैव संसार एव। कस्मादिति चेत् संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्। = उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में) यदि जीव स्व स्वभाव को छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय (भावकर्म) रूप से परिणमता है तो उसे बंध होता है, केवल उदयमात्र से नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आने पर भी पांडव आदि। (शेष अर्थ ऊपर के समान); ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/164-165/230/18 )।
देखें कारण - III.3.5-ज्ञानियों के लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान है)।
देखें बंध - 3.5, 6। (मोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध का तो कारण है, परंतु स्वप्रकृति बंध का कारण नहीं)।
- जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है