शौच: Difference between revisions
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<p> <span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/9/4/412/6 प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्ति: शौचम् ।</span> =<span class="HindiText">प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौच धर्म है। ( राजवार्तिक/9/6/5/595/28 ), ( चारित्रसार/62/4 )।</span></p> | <p> <span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/9/4/412/6 प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्ति: शौचम् ।</span> =<span class="HindiText">प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौच धर्म है। ( राजवार्तिक/9/6/5/595/28 ), ( चारित्रसार/62/4 )।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/46/154/14 द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपात: सकल इति तत: परित्यागो लाघवं।</span> =<span class="HindiText">धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं ऐसी अभिलाष बुद्धि ही सर्व संकटों से मनुष्य को गिराती है इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही लाघव अर्थात् शौचधर्म है।</span></p> | <p> <span class="SanskritText"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/46/154/14 द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपात: सकल इति तत: परित्यागो लाघवं।</span> =<span class="HindiText">धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं ऐसी अभिलाष बुद्धि ही सर्व संकटों से मनुष्य को गिराती है इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही लाघव अर्थात् शौचधर्म है।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"> तत्त्वसार/5/16-17 परिभोगोपभोगत्वं | <p> <span class="SanskritText"> तत्त्वसार/5/16-17 परिभोगोपभोगत्वं जीवितेंद्रियभेदत:।16। चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्ति: शौचमुच्यते।17।</span> =<span class="HindiText">भोग व उपभोग का, जीने का, इंद्रियविषयों का; इन चारों प्रकार के लोभ के त्याग का नाम शौचधर्म है।</span></p> | ||
<p> <span class="PrakritText"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/397 सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह मल पुंजं। भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं।397।</span> =<span class="HindiText">जो समभाव और | <p> <span class="PrakritText"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/397 सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह मल पुंजं। भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं।397।</span> =<span class="HindiText">जो समभाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म होता है।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">पं.वि./1/64 यत्परदारार्थादिषु | <p> <span class="SanskritText">पं.वि./1/64 यत्परदारार्थादिषु जंतुषु नि:स्पृहमहिंसकं चेत:। दुश्छेदयंतर्मलहृत्तदेव शौचं परं नान्यत् ।93।</span> =<span class="HindiText">चित्त जो परस्त्री एवं परधन की अभिलाषा न करता हुआ षट्काय जीवों की हिंसा से रहित होता है, इसे ही दुर्भेद्य अभ्यंतर कलुषता को दूर करने वाला उत्तम शौचधर्म कहा जाता है, इससे भिन्न दूसरा शौचधर्म नहीं है।94।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>3. गंगादि में स्नान करने से शौचधर्म नहीं</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>3. गंगादि में स्नान करने से शौचधर्म नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.वि./1/95 | <p><span class="SanskritText">पं.वि./1/95 गंगासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि न जायते तनुभृत: प्रायो विशुद्धि: परा। मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो बाह्येऽतिशुद्धोदकैर्धौत: किं बहुशोऽपि शुद्धयति सुरापूरप्रपूर्णो घट:।95।</span> =<span class="HindiText">यदि प्राणी का मन मिथ्यात्वादि दोषों से मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करने पर भी प्राय: करके वह अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता (ठीक भी है - मद्य के प्रवाह से परिपूर्ण घट को यदि बाह्य में अतिशय विशुद्ध जल में बहुत बार धोया जावे तो भी क्या वह शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं।95।</span></p> | ||
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<strong>4. शौचधर्म के चार भेद</strong></p> | <strong>4. शौचधर्म के चार भेद</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/8/596/5 अतस्तन्निवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमवसेयम् ।</span> =<span class="HindiText">(जीवन लोभ, | <p> <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/8/596/5 अतस्तन्निवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमवसेयम् ।</span> =<span class="HindiText">(जीवन लोभ, इंद्रियलोभ, आरोग्य लोभ व उपयोग लोभ के भेद से लोभ चार प्रकार है - | ||
देखें [[ लोभ ]]) इस चार प्रकार के लोभ का त्याग करने से शौच भी चार प्रकार का हो जाता है ( चारित्रसार/63/2 )।</span></p> | देखें [[ लोभ ]]) इस चार प्रकार के लोभ का त्याग करने से शौच भी चार प्रकार का हो जाता है ( चारित्रसार/63/2 )।</span></p> | ||
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<strong>5. शौच व त्याग धर्म में | <strong>5. शौच व त्याग धर्म में अंतर</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/20/598/10 शौचवचनात् (त्यागस्य) सिद्धिरिति चेत्; न तत्रासत्यपि गर्द्धोपपत्ते:।20। असंनिहिते परिग्रहे कर्मोदयवशात् गर्द्ध उत्पद्यते, तन्निवृत्त्यर्थं शौचमुक्तम् । त्याग: पुन: सनिहितस्यापाय: दानं वा स्वयोग्यम्, अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - शौच वचन से ही त्याग धर्म की सिद्धि हो जाती है, अत: त्याग धर्म का पृथक् निर्देश व्यर्थ है। <strong>उत्तर</strong> - नहीं क्योंकि शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्याग का अर्थ स्व योग्य दान देना है। संयत के योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।</span></p> | <p> <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/20/598/10 शौचवचनात् (त्यागस्य) सिद्धिरिति चेत्; न तत्रासत्यपि गर्द्धोपपत्ते:।20। असंनिहिते परिग्रहे कर्मोदयवशात् गर्द्ध उत्पद्यते, तन्निवृत्त्यर्थं शौचमुक्तम् । त्याग: पुन: सनिहितस्यापाय: दानं वा स्वयोग्यम्, अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - शौच वचन से ही त्याग धर्म की सिद्धि हो जाती है, अत: त्याग धर्म का पृथक् निर्देश व्यर्थ है। <strong>उत्तर</strong> - नहीं क्योंकि शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्याग का अर्थ स्व योग्य दान देना है। संयत के योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।</span></p> | ||
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<strong>6. शौच व आकिंचन्य धर्म में | <strong>6. शौच व आकिंचन्य धर्म में अंतर</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/7/596/1 स्यादेतत्-आकिंचन्यं वक्ष्यते, तत्रास्यावरोधात् शौचग्रहणं पुनरुक्तमिति; तन्न; किं कारणम् । तस्य नैर्मम्यप्रधानत्वात् । स्वशरीरादिषु | <p> <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/7/596/1 स्यादेतत्-आकिंचन्यं वक्ष्यते, तत्रास्यावरोधात् शौचग्रहणं पुनरुक्तमिति; तन्न; किं कारणम् । तस्य नैर्मम्यप्रधानत्वात् । स्वशरीरादिषु संस्कारद्यपोहार्थमाकिंचन्यमिष्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - आगे आकिंचन्य धर्म का कथन करेंगे, उसी से इसका अर्थ भी घेर लिया जाने से शौच धर्म का ग्रहण पुनरुक्त है। <strong>उत्तर</strong> - ऐसा नहीं है, क्योंकि आकिंचन्यधर्म स्वशरीर आदि में संस्कार आदि की अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है और शौच धर्म लोभ की निवृत्ति के लिए अत: दोनों पृथक् हैं।</span></p> | ||
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<strong>7. शौचधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ</strong></p> | <strong>7. शौचधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ</strong></p> | ||
<p> <span class="PrakritText"> भगवती आराधना/1436-1438/1359 लोभे कए वि अत्थोण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स। अकएवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स।1436। सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणंतखुत्तो मे। अत्थेसु इत्थ कोमज्झ विंभओ गहिदविजडेसु।1437। इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो।1438। | <p> <span class="PrakritText"> भगवती आराधना/1436-1438/1359 लोभे कए वि अत्थोण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स। अकएवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स।1436। सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणंतखुत्तो मे। अत्थेसु इत्थ कोमज्झ विंभओ गहिदविजडेसु।1437। इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो।1438। | ||
</span>=<span class="HindiText">लोभ करने पर भी पुण्य रहित मनुष्य को द्रव्य मिलता नहीं है और न करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती है। इसलिए धन प्राप्ति में आसक्ति कारण नहीं, | </span>=<span class="HindiText">लोभ करने पर भी पुण्य रहित मनुष्य को द्रव्य मिलता नहीं है और न करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती है। इसलिए धन प्राप्ति में आसक्ति कारण नहीं, परंतु पुण्य ही कारण है ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिए।1436। इस त्रैलोक्य में मैंने अनंतबार धन प्राप्त किया है, अत: अनंतबार ग्रहणकर त्यागे हुए इस धन के विषय में आश्चर्य चकित होना फजूल है।1437। इहपर लोक में यह लोभ अनेकों दोषों को उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करना चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/27/599/16 शुच्याचारमिहापि | <p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/9/6/27/599/16 शुच्याचारमिहापि संमानयंति सर्वे। विश्रंभादयश्च गुणा: तमधितिष्ठंति। लोभभावनाक्रांतहृदये नावकाशं लभंते गुणा:; इह चामुत्र चाचिंत्यं व्यसनमावश्नुते।</span> =<span class="HindiText">शुचि आचार वाले निर्लोभ व्यक्ति का इस लोक में सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं। लोभी के हृदय में गुण नहीं रहते। वह इस लोक और परलोक में अनेक आपत्तिओं और दुर्गति को प्राप्त होता है। ( अनगारधर्मामृत/6/27 )</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"> ज्ञानार्णव/19/69-71 शाकेनापीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमा:। लोभात्तथापि | <p> <span class="SanskritText"> ज्ञानार्णव/19/69-71 शाकेनापीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमा:। लोभात्तथापि वांछंति नराश्चक्रेश्वरश्रियम् ।69। स्वामिगुरुबंधुवृद्धानबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन् । व्यापाद्य विगतशंको लोभार्तो वित्तमादत्ते।70। ये केचित्सिद्धांते दोषा: श्वभ्रस्य साधका: प्रोक्ता:। प्रभवंति निर्विचारं ते लोभादेव जंतूनाम् ।71।</span> =<span class="HindiText">अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छा से शाक से पेट भरने को कभी समर्थ नहीं होते तथापि लोभ के वश से चक्रवर्ती की सी संपदा को वाँछते हैं।69। इस लोभकषाय से पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बंधु, स्त्री, बालक तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादि को भी नि:शंकता से मारकर धन को ग्रहण करता है।70। नरक को ले जाने वाले जो जो दोष सिद्धांत शास्त्र में कहे गये हैं वे सब जीवों के नि:शंकतया लोभ से प्रगट होते हैं।71। ( अनगारधर्मामृत/6/24-26,31 )।</span></p> | ||
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<strong>* अन्य | <strong>* अन्य संबंधित विषय</strong></p> | ||
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<li>शौचधर्म व मनोगुप्ति में | <li>शौचधर्म व मनोगुप्ति में अंतर। - देखें [[ गुप्ति#2.5 | गुप्ति - 2.5]]।</li> | ||
<li>दशधर्म निर्देश। - देखें [[ धर्म#8 | धर्म - 8]]।</li> | <li>दशधर्म निर्देश। - देखें [[ धर्म#8 | धर्म - 8]]।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1">(1) सातावेदनीय कर्म का एक आस्रव । जीवन, | <p id="1">(1) सातावेदनीय कर्म का एक आस्रव । जीवन, इंद्रिय, आरोग्य और उपयोग इन चार प्रकार के लोभ के त्याग से उत्पन्न निर्लोभवृत्ति शौच है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.94 </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 23.67 </span></p> | ||
<p id="2">(2) उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में पाँचवाँ धर्म । इसमें | <p id="2">(2) उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में पाँचवाँ धर्म । इसमें इंद्रिय विषयों की लोलुपता का त्याग किया जाता है । इन्हीं दस धर्मों को धर्म ध्यान की दस भावनाएँ भी कहा है । <span class="GRef"> महापुराण 36.157-3,158, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.9 </span></p> | ||
Revision as of 16:37, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से == 1. शौच सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/13/331/4 लोभप्रकाराणामुपरम: शौचम् । =लोभ के प्रकारों का त्याग करना शौच है। ( राजवार्तिक/9/6/10/523/4 )।
2. शौच धर्म का लक्षण
बारस अणुवेक्खा/75 कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो। जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सौचं।75। =जो परममुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारों से युक्त होकर आचरण करता है उसको शौच धर्म होता है।
सर्वार्थसिद्धि/9/4/412/6 प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्ति: शौचम् । =प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौच धर्म है। ( राजवार्तिक/9/6/5/595/28 ), ( चारित्रसार/62/4 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/46/154/14 द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपात: सकल इति तत: परित्यागो लाघवं। =धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं ऐसी अभिलाष बुद्धि ही सर्व संकटों से मनुष्य को गिराती है इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही लाघव अर्थात् शौचधर्म है।
तत्त्वसार/5/16-17 परिभोगोपभोगत्वं जीवितेंद्रियभेदत:।16। चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्ति: शौचमुच्यते।17। =भोग व उपभोग का, जीने का, इंद्रियविषयों का; इन चारों प्रकार के लोभ के त्याग का नाम शौचधर्म है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/397 सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह मल पुंजं। भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं।397। =जो समभाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म होता है।
पं.वि./1/64 यत्परदारार्थादिषु जंतुषु नि:स्पृहमहिंसकं चेत:। दुश्छेदयंतर्मलहृत्तदेव शौचं परं नान्यत् ।93। =चित्त जो परस्त्री एवं परधन की अभिलाषा न करता हुआ षट्काय जीवों की हिंसा से रहित होता है, इसे ही दुर्भेद्य अभ्यंतर कलुषता को दूर करने वाला उत्तम शौचधर्म कहा जाता है, इससे भिन्न दूसरा शौचधर्म नहीं है।94।
3. गंगादि में स्नान करने से शौचधर्म नहीं
पं.वि./1/95 गंगासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि न जायते तनुभृत: प्रायो विशुद्धि: परा। मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो बाह्येऽतिशुद्धोदकैर्धौत: किं बहुशोऽपि शुद्धयति सुरापूरप्रपूर्णो घट:।95। =यदि प्राणी का मन मिथ्यात्वादि दोषों से मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करने पर भी प्राय: करके वह अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता (ठीक भी है - मद्य के प्रवाह से परिपूर्ण घट को यदि बाह्य में अतिशय विशुद्ध जल में बहुत बार धोया जावे तो भी क्या वह शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं।95।
4. शौचधर्म के चार भेद
राजवार्तिक/9/6/8/596/5 अतस्तन्निवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमवसेयम् । =(जीवन लोभ, इंद्रियलोभ, आरोग्य लोभ व उपयोग लोभ के भेद से लोभ चार प्रकार है - देखें लोभ ) इस चार प्रकार के लोभ का त्याग करने से शौच भी चार प्रकार का हो जाता है ( चारित्रसार/63/2 )।
5. शौच व त्याग धर्म में अंतर
राजवार्तिक/9/6/20/598/10 शौचवचनात् (त्यागस्य) सिद्धिरिति चेत्; न तत्रासत्यपि गर्द्धोपपत्ते:।20। असंनिहिते परिग्रहे कर्मोदयवशात् गर्द्ध उत्पद्यते, तन्निवृत्त्यर्थं शौचमुक्तम् । त्याग: पुन: सनिहितस्यापाय: दानं वा स्वयोग्यम्, अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते।=प्रश्न - शौच वचन से ही त्याग धर्म की सिद्धि हो जाती है, अत: त्याग धर्म का पृथक् निर्देश व्यर्थ है। उत्तर - नहीं क्योंकि शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्याग का अर्थ स्व योग्य दान देना है। संयत के योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।
6. शौच व आकिंचन्य धर्म में अंतर
राजवार्तिक/9/6/7/596/1 स्यादेतत्-आकिंचन्यं वक्ष्यते, तत्रास्यावरोधात् शौचग्रहणं पुनरुक्तमिति; तन्न; किं कारणम् । तस्य नैर्मम्यप्रधानत्वात् । स्वशरीरादिषु संस्कारद्यपोहार्थमाकिंचन्यमिष्यते। =प्रश्न - आगे आकिंचन्य धर्म का कथन करेंगे, उसी से इसका अर्थ भी घेर लिया जाने से शौच धर्म का ग्रहण पुनरुक्त है। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि आकिंचन्यधर्म स्वशरीर आदि में संस्कार आदि की अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है और शौच धर्म लोभ की निवृत्ति के लिए अत: दोनों पृथक् हैं।
7. शौचधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भगवती आराधना/1436-1438/1359 लोभे कए वि अत्थोण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स। अकएवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स।1436। सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणंतखुत्तो मे। अत्थेसु इत्थ कोमज्झ विंभओ गहिदविजडेसु।1437। इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो।1438। =लोभ करने पर भी पुण्य रहित मनुष्य को द्रव्य मिलता नहीं है और न करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती है। इसलिए धन प्राप्ति में आसक्ति कारण नहीं, परंतु पुण्य ही कारण है ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिए।1436। इस त्रैलोक्य में मैंने अनंतबार धन प्राप्त किया है, अत: अनंतबार ग्रहणकर त्यागे हुए इस धन के विषय में आश्चर्य चकित होना फजूल है।1437। इहपर लोक में यह लोभ अनेकों दोषों को उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
राजवार्तिक/9/6/27/599/16 शुच्याचारमिहापि संमानयंति सर्वे। विश्रंभादयश्च गुणा: तमधितिष्ठंति। लोभभावनाक्रांतहृदये नावकाशं लभंते गुणा:; इह चामुत्र चाचिंत्यं व्यसनमावश्नुते। =शुचि आचार वाले निर्लोभ व्यक्ति का इस लोक में सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं। लोभी के हृदय में गुण नहीं रहते। वह इस लोक और परलोक में अनेक आपत्तिओं और दुर्गति को प्राप्त होता है। ( अनगारधर्मामृत/6/27 )
ज्ञानार्णव/19/69-71 शाकेनापीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमा:। लोभात्तथापि वांछंति नराश्चक्रेश्वरश्रियम् ।69। स्वामिगुरुबंधुवृद्धानबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन् । व्यापाद्य विगतशंको लोभार्तो वित्तमादत्ते।70। ये केचित्सिद्धांते दोषा: श्वभ्रस्य साधका: प्रोक्ता:। प्रभवंति निर्विचारं ते लोभादेव जंतूनाम् ।71। =अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छा से शाक से पेट भरने को कभी समर्थ नहीं होते तथापि लोभ के वश से चक्रवर्ती की सी संपदा को वाँछते हैं।69। इस लोभकषाय से पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बंधु, स्त्री, बालक तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादि को भी नि:शंकता से मारकर धन को ग्रहण करता है।70। नरक को ले जाने वाले जो जो दोष सिद्धांत शास्त्र में कहे गये हैं वे सब जीवों के नि:शंकतया लोभ से प्रगट होते हैं।71। ( अनगारधर्मामृत/6/24-26,31 )।
* अन्य संबंधित विषय
- शौचधर्म व मनोगुप्ति में अंतर। - देखें गुप्ति - 2.5।
- दशधर्म निर्देश। - देखें धर्म - 8।
पुराणकोष से
(1) सातावेदनीय कर्म का एक आस्रव । जीवन, इंद्रिय, आरोग्य और उपयोग इन चार प्रकार के लोभ के त्याग से उत्पन्न निर्लोभवृत्ति शौच है । हरिवंशपुराण 58.94 पांडवपुराण 23.67
(2) उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में पाँचवाँ धर्म । इसमें इंद्रिय विषयों की लोलुपता का त्याग किया जाता है । इन्हीं दस धर्मों को धर्म ध्यान की दस भावनाएँ भी कहा है । महापुराण 36.157-3,158, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.9