श्रुतकेवली: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="1"><strong>1. दश या चतुर्दश पूर्वी निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="1"><strong>1. दश या चतुर्दश पूर्वी निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.1"><strong>1. चतुर्दश पूर्वी का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.1"><strong>1. चतुर्दश पूर्वी का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/4/1001 सयलागमपारगया सुदकेवलिणामसुप्पसिद्धा जे। एदाण बुद्धिरिद्धि चोद्दसपुव्वि त्तिणामेण।1001।</span> = <span class="HindiText">जो महर्षि | <p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/4/1001 सयलागमपारगया सुदकेवलिणामसुप्पसिद्धा जे। एदाण बुद्धिरिद्धि चोद्दसपुव्वि त्तिणामेण।1001।</span> = <span class="HindiText">जो महर्षि संपूर्ण आगम के पारंगत हैं और श्रुतकेवली नाम से प्रसिद्ध हैं उनके चौदह पूर्वी नामक बुद्धि ऋद्धि होती है।1001।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/3/202/9 | <p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/3/202/9 संपूर्ण श्रुतकेवलिता चतुर्दशपूर्वित्वम् ।</span> = <span class="HindiText">पूर्ण श्रुतकेवली हो जाना चतुर्दशपूर्वित्व है। ( धवला 9/4,1,13/70/7 )।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/214/2 श्रुतकेवलिनां चतुर्दशपूर्वित्वम् । </span><span class="HindiText">श्रुतकेवली के चतुर्दशपूर्वित्व नाम की ऋद्धि होती है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/214/2 श्रुतकेवलिनां चतुर्दशपूर्वित्वम् । </span><span class="HindiText">श्रुतकेवली के चतुर्दशपूर्वित्व नाम की ऋद्धि होती है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2"><strong>2. दशपूर्वी का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.2"><strong>2. दशपूर्वी का लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/4/998-1000 रोहिणिपहुदीणमहाविज्जाणं देवदाउ पंचसया। अंगुट्ठपसेणाइं खुद्दअविज्जाण सत्तसया।998। एत्तूण पेसणाइं दसमपुव्वपढणम्मि। णेच्छंति संजमंता ताओ जेते अभिण्णदसपुव्वी।999। भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुव्वी णाम बोद्धव्वा।1000।</span> =<span class="HindiText">दसवें पूर्व के पढ़ने में रोहिणी प्रभृति महाविद्याओं के पाँच सौ और अंगुष्ठ प्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं। इस समय जो महर्षि | <span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/4/998-1000 रोहिणिपहुदीणमहाविज्जाणं देवदाउ पंचसया। अंगुट्ठपसेणाइं खुद्दअविज्जाण सत्तसया।998। एत्तूण पेसणाइं दसमपुव्वपढणम्मि। णेच्छंति संजमंता ताओ जेते अभिण्णदसपुव्वी।999। भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुव्वी णाम बोद्धव्वा।1000।</span> =<span class="HindiText">दसवें पूर्व के पढ़ने में रोहिणी प्रभृति महाविद्याओं के पाँच सौ और अंगुष्ठ प्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेंद्रिय होने के कारण उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते हैं, 'वे विद्याश्रमण' इस पर्याय नाम से भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं। उन मुनियों की बुद्धि को दशपूर्वी जानना चाहिए।998-1000।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/3/202/7 महारोहिण्यादिभिस्त्रिरागताभि:प्रत्येकमात्मीयरूपसामर्थ्याविष्करणकथनकुशलाभिर्वेगवतीभिर्विद्यादेवताभिरविचलित-चारित्रस्य दशपूर्वदुस्तरसमुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् ।</span>=<span class="HindiText">महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओं के प्रलोभन में न पड़कर दशपूर्व का पाठी होता है वह दशपूर्वित्व है। ( चारित्रसार/214/1 )।</span></p> | <span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/3/202/7 महारोहिण्यादिभिस्त्रिरागताभि:प्रत्येकमात्मीयरूपसामर्थ्याविष्करणकथनकुशलाभिर्वेगवतीभिर्विद्यादेवताभिरविचलित-चारित्रस्य दशपूर्वदुस्तरसमुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् ।</span>=<span class="HindiText">महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओं के प्रलोभन में न पड़कर दशपूर्व का पाठी होता है वह दशपूर्वित्व है। ( चारित्रसार/214/1 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3"><strong>3. भिन्न व अभिन्न दशपूर्वी के लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.3"><strong>3. भिन्न व अभिन्न दशपूर्वी के लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,12/69/5;70/1 एत्थ दसपुव्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होंति। तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगयचूलिका त्ति पंचाहियारणिद्धाद्धिट्ठिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादिं कादूण पढंत्ताणं दसपुव्वीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादि सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति ढुक्कंति। एवं ढुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम (69/5)। ण च तेसिं (भिण्णदसपुव्वीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहव्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">यह भिन्न और अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें 11 अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद के पढ़ते सम उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वाले के दशमपूर्व विद्यानुवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ ‘भगवान् क्या आज्ञा देते हैं’ ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभ को प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। | <p><span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,12/69/5;70/1 एत्थ दसपुव्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होंति। तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगयचूलिका त्ति पंचाहियारणिद्धाद्धिट्ठिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादिं कादूण पढंत्ताणं दसपुव्वीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादि सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति ढुक्कंति। एवं ढुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम (69/5)। ण च तेसिं (भिण्णदसपुव्वीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहव्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">यह भिन्न और अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें 11 अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद के पढ़ते सम उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वाले के दशमपूर्व विद्यानुवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ ‘भगवान् क्या आज्ञा देते हैं’ ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभ को प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। किंतु जो कर्मक्षय का अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। भिन्नदशपूर्वियों के जिनत्व नहीं हैं, क्योंकि जिनके महाव्रत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/34/125/14 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.4"><strong>4. चतुर्दशपूर्वी को पीछे नमस्कार क्यों</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.4"><strong>4. चतुर्दशपूर्वी को पीछे नमस्कार क्यों</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,12/70/3 चोद्दसपुव्वहराणं णमोक्कारो किण्ण कदो। ण, जिणवयणपच्चयट्ठाणपदुप्पायणदुवारेण दसपुव्वीणं | <p><span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,12/70/3 चोद्दसपुव्वहराणं णमोक्कारो किण्ण कदो। ण, जिणवयणपच्चयट्ठाणपदुप्पायणदुवारेण दसपुव्वीणं चागमहप्पपदरिसंठं पुव्वं तण्णसोक्कारकरणादो। सुदपरिवाडीए वा पुव्वं दसपुव्वीणं णमोक्कारो कुदो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - चौदह पूर्वों के धारकों को पहले नमस्कार क्यों नहीं किया ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि जिनवचनों पर प्रत्यय स्थान अर्थात् विश्वास उत्पादन द्वारा दशपूर्वियों के त्याग की महिमा दिखलाने के लिए पूर्व में उन्हें नमस्कार किया है। अथवा श्रुत की परिपाटी की अपेक्षा से पहले दशपूर्वियों को नमस्कार किया गया है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5"><strong>5. चौदहपूर्वी अप्रतिपाती</strong> <strong>हैं</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.5"><strong>5. चौदहपूर्वी अप्रतिपाती</strong> <strong>हैं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,13/79/9 चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो।</span> =<span class="HindiText">चौदह पूर्व का धारक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, और उस भव में असंयम को भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है।</span></p> | <p><span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,13/79/9 चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो।</span> =<span class="HindiText">चौदह पूर्व का धारक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, और उस भव में असंयम को भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है।</span></p> | ||
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<strong>3. श्रुतकेवली के उत्कृष्ट व जघन्य ज्ञान की सीमा</strong></p> | <strong>3. श्रुतकेवली के उत्कृष्ट व जघन्य ज्ञान की सीमा</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/9/47/461/8 श्रुतं - पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वधरा:। कषायकुशीला | <span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/9/47/461/8 श्रुतं - पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वधरा:। कषायकुशीला निर्ग्रंथाश्चतुर्दशपूर्वधरा:। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु। बकुशकुशीला निर्ग्रंथानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातर:। स्नातका अपगतश्रुता: केवलिन:।</span> =<span class="HindiText">श्रुत-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील उत्कृष्ट रूप से अभिन्नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं। कषाय कुशील और निर्ग्रंथ चौदह पूर्वधर होते हैं। जघन्य रूप से पुलाक का श्रुत आचार वस्तु प्रमाण होता है। बकुश, कुशील और निर्ग्रंथों का श्रुत आठ प्रवचन मातृका प्रमाण होता है। स्नातक श्रुतज्ञान से रहित केवली होते हैं। ( राजवार्तिक/9/47/4/698/1 ), ( चारित्रसार/103/4 )।</span></p> | ||
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देखें [[ ध्याता#1 | ध्याता - 1 ]]उत्सर्ग रूप से 14 पूर्वों के द्वारा और अपवाद रूप से अष्ट प्रवचन मातृका का मात्र ज्ञान से ध्यान करना | देखें [[ ध्याता#1 | ध्याता - 1 ]]उत्सर्ग रूप से 14 पूर्वों के द्वारा और अपवाद रूप से अष्ट प्रवचन मातृका का मात्र ज्ञान से ध्यान करना संभव है।</p> | ||
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देखें [[ शुक्लध्यान#3.1 | शुक्लध्यान - 3.1]],2 पृथक्त्व व एकत्व वितर्क ध्यान 14, 10 व 9 पूर्वी को होते हैं।</p> | देखें [[ शुक्लध्यान#3.1 | शुक्लध्यान - 3.1]],2 पृथक्त्व व एकत्व वितर्क ध्यान 14, 10 व 9 पूर्वी को होते हैं।</p> | ||
<p class="HindiText" id="2.4"> | <p class="HindiText" id="2.4"> | ||
<strong>4. मिथ्यादृष्टि साधु को 11 अंग तक भाव ज्ञान | <strong>4. मिथ्यादृष्टि साधु को 11 अंग तक भाव ज्ञान संभव है</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> लाटी संहिता/5/18-20 | <span class="SanskritText"> लाटी संहिता/5/18-20 एकादशांगपाठोगि तस्य स्याद् द्रव्यरूपत:। आत्मानुभूतिशून्यत्वाद्भावत: संविदुज्झित:।18। न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थत:। यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विंदंति केचन।19। तत: पाठोऽस्ति तेषूच्चै: पाठस्याप्यस्ति ज्ञातृता। ज्ञातृतायां च श्रद्धानं प्रतीती रोचनं क्रिया।20।</span> =<span class="HindiText">कोई मिथ्यादृष्टि मुनि 11 अंग के पाठी होते हैं, महाव्रतादि क्रियाओं को बाह्यरूप से पूर्णतया पालन करते हैं, परंतु उन्हें अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं होता, इसलिए वे परिणामों के द्वारा सम्यग्ज्ञान से रहित हैं।18। ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि ‘मिथ्यादृष्टि को 11 अंग का ज्ञान केवल पठन मात्र होता है, उसके अर्थों का ज्ञान उसको नहीं होता ? क्योंकि शास्त्रों में यह कथन आता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टियों के उपदेश से अन्य कितने ही भव्य जीवों को सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान हो जाता हे।18। इससे सिद्ध होता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनियों के ग्यारह अंगों का ज्ञान पाठमात्र भी होता है और उसके अर्थों का ज्ञान भी होता है, उस ज्ञान में श्रद्धान होता है, प्रतीति होती है, रुचि होती है और पूर्ण क्रिया होती है।</span></p> | ||
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<strong>* श्रुतज्ञानी में भावश्रुत इष्ट है</strong> - देखें [[ श्रुतकेवली#2.4 | श्रुतकेवली - 2.4]]।</p> | <strong>* श्रुतज्ञानी में भावश्रुत इष्ट है</strong> - देखें [[ श्रुतकेवली#2.4 | श्रुतकेवली - 2.4]]।</p> | ||
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<strong>5. श्रुतज्ञान सर्वग्राहक कैसे</strong></p> | <strong>5. श्रुतज्ञान सर्वग्राहक कैसे</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,7/57/1 णासेसपयत्था सुदणाणेण परिच्छिज्जंति, - पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।17। इदि वयणादो त्ति उत्ते होदु णाम सयलपयत्थाणमणं तिमभागो दव्वसुदणाणविसओ, भावसुदणाणविसओ पुण सयलपयत्था; अण्णहा तित्थयराणं वागदिसयत्ता भावप्पसंगादो। [तदो] बीजपदपरिच्छेदकारिणी बीजबुद्धि त्ति सिद्धं।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को नहीं जानता है, क्योंकि, वचन के अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थों के | <span class="PrakritText"> धवला 9/4,1,7/57/1 णासेसपयत्था सुदणाणेण परिच्छिज्जंति, - पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।17। इदि वयणादो त्ति उत्ते होदु णाम सयलपयत्थाणमणं तिमभागो दव्वसुदणाणविसओ, भावसुदणाणविसओ पुण सयलपयत्था; अण्णहा तित्थयराणं वागदिसयत्ता भावप्पसंगादो। [तदो] बीजपदपरिच्छेदकारिणी बीजबुद्धि त्ति सिद्धं।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को नहीं जानता है, क्योंकि, वचन के अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थों के अनंतवें भाग प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकर की सातिशय दिव्यध्वनि में प्रतिपाद्य होते हैं। तथा प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनंतवें भाग द्वादशांग श्रुत के विषय होते हैं ? इस प्रकार का वचन है ? <strong>उत्तर</strong> - इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि समस्त पदार्थों का अनंतवाँ भाग द्रव्य श्रुतज्ञान का विषय भले ही हो, किंतु भाव श्रुतज्ञान का विषय समस्त पदार्थ है, क्योंकि ऐसा मानने के बिना तीर्थंकरों के वचनातिशय के अभाव का प्रसंग होगा। [इसलिए] बीजपदों को ग्रहण करने वाली बीजबुद्धि है, यह सिद्ध हुआ।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.6"> | <p class="HindiText" id="2.6"> | ||
<strong>6. जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है</strong></p> | <strong>6. जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"> समयसार/15 जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं। अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं।15।</span> =<span class="HindiText">जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य अविशेष (तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त) देखता है - वह जिनशासन बाह्य श्रुत तथा | <span class="PrakritText"> समयसार/15 जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं। अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं।15।</span> =<span class="HindiText">जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य अविशेष (तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त) देखता है - वह जिनशासन बाह्य श्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञान रूप भाव श्रुतवाला है।15।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText"> योगसार ( | <span class="PrakritText"> योगसार (योगेंदुदेव)/95 जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ सरीरविभिण्णु। सो जाणइ सत्थइं सयल सासय-सुक्खहं लीणु।95।</span> =जो आत्मा को अशुचि शरीर से भिन्न समझता है, वह शाश्वत सुख में लीन होकर समस्त शास्त्रों को जान जाता है।95।</p> | ||
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<span class="SanskritText"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./3/68 पर एको भाव: सर्वभावस्वभाव:। सर्वे भावा एकभावस्वभावा:। एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध: सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धा:।1।</span> =<span class="HindiText">एक भाव सर्व भावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभावस्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्व से एक भाव को जाना उसने समस्त भावों को यथार्थतया जाना। ( ज्ञानार्णव/35/13/ पृ.344 पर उद्धृत)।</span></p> | <span class="SanskritText"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./3/68 पर एको भाव: सर्वभावस्वभाव:। सर्वे भावा एकभावस्वभावा:। एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध: सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धा:।1।</span> =<span class="HindiText">एक भाव सर्व भावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभावस्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्व से एक भाव को जाना उसने समस्त भावों को यथार्थतया जाना। ( ज्ञानार्णव/35/13/ पृ.344 पर उद्धृत)।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText"> परमात्मप्रकाश/ मू./1/99 जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ। अप्पह केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।</span>=<span class="HindiText">हे योगी ! एक अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिंबित हुआ बस रहा है।</span></p> | <span class="PrakritText"> परमात्मप्रकाश/ मू./1/99 जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ। अप्पह केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।</span>=<span class="HindiText">हे योगी ! एक अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिंबित हुआ बस रहा है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> समयसार / आत्मख्याति/9-10 य: श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो, य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहार:। तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किंमनात्मा। न तावदनात्मा | <span class="SanskritText"> समयसार / आत्मख्याति/9-10 य: श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो, य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहार:। तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किंमनात्मा। न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्ते:। ततो गत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति। अत: श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति य: आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव। एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम् । अथ च य: श्रुतेन केवलं शुद्धात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहार: परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति।9-10।</span> =<span class="HindiText">प्रथम, जो श्रुत से केवल शुद्धात्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं वह तो परमार्थ है; और जो सर्व श्रुतज्ञान को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं यह व्यवहार है। यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं - उपरोक्त सर्वज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्मा का पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि जो समस्त जड़ रूप अनात्मा आकाशादिक पाँच द्रव्य हैं, उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य बनता ही नहीं। (क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है) इसलिए अन्यपक्ष का अभाव होने से 'ज्ञान आत्मा ही है, यह पक्ष सिद्ध हुआ। इसलिए श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा होने से जो आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है' ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ ही है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कहने वाला जो व्यवहार है, उससे भी परमार्थ मात्र ही कहा जाता है; उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता। और जो श्रुत से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं, इस प्रकार परमार्थ का प्रतिपादन करना अशक्य होने से, 'जो सर्व श्रुतज्ञान को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं' ऐसा व्यवहार परमार्थ के प्रतिपादकत्व से अपने को दृढ़ता पूर्वक स्थापित करता है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">पं.वि./1/158 ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं जीवस्य | <span class="SanskritText">पं.वि./1/158 ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं जीवस्य नार्थांतरं - शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इत्युच्यते। पर्यायैश्च गुणैश्च साधु विदते तस्मिन् गिरा-सद्गुरोर्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभि:।158।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध नय की अपेक्षा समस्त पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान और दर्शन ही जीव का स्वरूप है जो उस जीव से पृथक् नहीं है। इससे भिन्न कोई दूसरा जीव का स्वरूप नहीं हो सकता है। अतएव वह चिद्रूप अर्थात् चेतन स्वरूप ऐसा कहा जाता है। उत्तम गुरु के उपदेश से अपने गुणों और पर्यायों के साथ उस ज्ञान दर्शन स्वरूप जीव के भले प्रकार जान लेने पर योगियों ने क्या नहीं जाना, क्या नहीं देखा, और क्या नहीं प्राप्त किया ? अर्थात् सब कुछ जान, देख व प्राप्त कर लिया।159।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/9-10/22/9 अयमत्रार्थ: - यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चयश्रुतकेवली भवति। यस्तु स्वशुद्धात्मानं न संवेदयति न भावयति बहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति।</span>=<span class="HindiText">यहाँ यह तात्पर्य है कि - जो भावश्रुत रूप स्व संवेदन ज्ञान के बल से शुद्ध आत्मा को जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है। और जो शुद्धात्मा का न संवेदन करता है - न भावना भाता है, | <span class="SanskritText"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/9-10/22/9 अयमत्रार्थ: - यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चयश्रुतकेवली भवति। यस्तु स्वशुद्धात्मानं न संवेदयति न भावयति बहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति।</span>=<span class="HindiText">यहाँ यह तात्पर्य है कि - जो भावश्रुत रूप स्व संवेदन ज्ञान के बल से शुद्ध आत्मा को जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है। और जो शुद्धात्मा का न संवेदन करता है - न भावना भाता है, परंतु बाह्य द्रव्य श्रुत को जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> परमात्मप्रकाश टीका/1/99/94/1 वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे ज्ञाते सति | <span class="SanskritText"> परमात्मप्रकाश टीका/1/99/94/1 वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे ज्ञाते सति समस्तद्वादशांगस्वरूपं ज्ञातं भवति। कस्मात् । यस्माद्राघवपांडवादयो महापुरुषा जिनदीक्षां गृहीत्वा द्वादशांगं पठित्वा द्वादशांगाध्ययनफलभूते निश्चयरत्नत्रयात्मके परमात्मध्याने तिष्ठंति तेन कारणेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति। अथवा निर्विकल्पसमाधिसमुत्पंनपरमानंदसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति। किं जानाति। वेत्ति मम स्वरूपमन्यद्देहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवति। अथवा आत्मा कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन कारणभूतेन सर्वं लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवतीति। अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिबलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिंबवत् सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवतीति। </span>=<span class="HindiText">वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञान से शुद्धात्म तत्त्व के जानने पर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है। क्योंकि जैसे - 1. रामचंद्र, पांडव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराज की दीक्षा लेकर द्वादशांग को पढ़ने का फल निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन हुए थे। इसलिए वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान से जिन्होंने अपनी आत्मा को जाना उन्होंने सबको जाना। 2. अथवा निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो परमाननद सुख रस उसके आस्वाद होने पर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है कि मेरा स्वरूप पृथक् है, और देहरागादिक मेरे से दूसरे हैं, इसलिए परमात्मा के जानने से सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपने आत्मा को जाना उसने सर्व भिन्न पदार्थ जाने। 3. अथवा आत्मा श्रुतज्ञान रूप व्याप्ति ज्ञान से सब लोकालोक को जानता है, इसलिए आत्मा के जानने से सब जाना गया। 4. अथवा वीतराग निर्विकल्प परम समाधि के बल से केवलज्ञान को उत्पन्न करके जैसे दर्पण में घट पट आदि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पण में सब लोकालोक भासते हैं। इससे यह बात निश्चित हुई कि आत्मा के जानने पर सब जाना जाता है।</span></p> | ||
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देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5 ]]अल्प भूमिका में कथंचित् शुद्धात्मा का अनुभव होता है।</p> | देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5 ]]अल्प भूमिका में कथंचित् शुद्धात्मा का अनुभव होता है।</p> | ||
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देखें [[ दर्शन#2.7 | दर्शन - 2.7 ]]दर्शन द्वारा आत्मा का ज्ञान होने पर उसमें | देखें [[ दर्शन#2.7 | दर्शन - 2.7 ]]दर्शन द्वारा आत्मा का ज्ञान होने पर उसमें प्रतिबिंबित सब पदार्थों का ज्ञान भी हो जाता है।</p> | ||
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देखें [[ केवलज्ञान#6.6 | केवलज्ञान - 6.6 ]](ज्ञेयाकारों से | देखें [[ केवलज्ञान#6.6 | केवलज्ञान - 6.6 ]](ज्ञेयाकारों से प्रतिबिंबित निज आत्मा को जानता है)।</p> | ||
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<strong>* पूर्व श्रुतकेवलीवत् वर्तमान में भी | <strong>* पूर्व श्रुतकेवलीवत् वर्तमान में भी संभव है। - </strong> देखें [[ अनुभव#5.8 | अनुभव - 5.8]]।</p> | ||
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Revision as of 16:38, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
ज्ञान स्वरूप होने के कारण आत्मा स्वयं ज्ञेयाकार स्वरूप है। इसलिए आत्मा को जानने से ही सकल विश्व प्रत्यक्ष रूप से जाना जाता है। अत: केवल आत्मा को जानने वाला अथवा सकलश्रुत को जानने वाला ही श्रुतकेवली है। इसी से 10 या 14 अंगों के जानने से भी श्रुतकेवली कहलाता है और केवल समिति गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन मात्र को जानने से भी श्रुतकेवली कहलाता है।
1. दश या चतुर्दश पूर्वी निर्देश
1. चतुर्दश पूर्वी का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/4/1001 सयलागमपारगया सुदकेवलिणामसुप्पसिद्धा जे। एदाण बुद्धिरिद्धि चोद्दसपुव्वि त्तिणामेण।1001। = जो महर्षि संपूर्ण आगम के पारंगत हैं और श्रुतकेवली नाम से प्रसिद्ध हैं उनके चौदह पूर्वी नामक बुद्धि ऋद्धि होती है।1001।
राजवार्तिक/3/36/3/202/9 संपूर्ण श्रुतकेवलिता चतुर्दशपूर्वित्वम् । = पूर्ण श्रुतकेवली हो जाना चतुर्दशपूर्वित्व है। ( धवला 9/4,1,13/70/7 )।
चारित्रसार/214/2 श्रुतकेवलिनां चतुर्दशपूर्वित्वम् । श्रुतकेवली के चतुर्दशपूर्वित्व नाम की ऋद्धि होती है।
2. दशपूर्वी का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/4/998-1000 रोहिणिपहुदीणमहाविज्जाणं देवदाउ पंचसया। अंगुट्ठपसेणाइं खुद्दअविज्जाण सत्तसया।998। एत्तूण पेसणाइं दसमपुव्वपढणम्मि। णेच्छंति संजमंता ताओ जेते अभिण्णदसपुव्वी।999। भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुव्वी णाम बोद्धव्वा।1000। =दसवें पूर्व के पढ़ने में रोहिणी प्रभृति महाविद्याओं के पाँच सौ और अंगुष्ठ प्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेंद्रिय होने के कारण उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते हैं, 'वे विद्याश्रमण' इस पर्याय नाम से भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं। उन मुनियों की बुद्धि को दशपूर्वी जानना चाहिए।998-1000।
राजवार्तिक/3/36/3/202/7 महारोहिण्यादिभिस्त्रिरागताभि:प्रत्येकमात्मीयरूपसामर्थ्याविष्करणकथनकुशलाभिर्वेगवतीभिर्विद्यादेवताभिरविचलित-चारित्रस्य दशपूर्वदुस्तरसमुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् ।=महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओं के प्रलोभन में न पड़कर दशपूर्व का पाठी होता है वह दशपूर्वित्व है। ( चारित्रसार/214/1 )।
3. भिन्न व अभिन्न दशपूर्वी के लक्षण
धवला 9/4,1,12/69/5;70/1 एत्थ दसपुव्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होंति। तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगयचूलिका त्ति पंचाहियारणिद्धाद्धिट्ठिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादिं कादूण पढंत्ताणं दसपुव्वीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादि सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति ढुक्कंति। एवं ढुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम (69/5)। ण च तेसिं (भिण्णदसपुव्वीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहव्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो। =यह भिन्न और अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें 11 अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद के पढ़ते सम उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वाले के दशमपूर्व विद्यानुवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ ‘भगवान् क्या आज्ञा देते हैं’ ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभ को प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। किंतु जो कर्मक्षय का अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। भिन्नदशपूर्वियों के जिनत्व नहीं हैं, क्योंकि जिनके महाव्रत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/34/125/14 )।
4. चतुर्दशपूर्वी को पीछे नमस्कार क्यों
धवला 9/4,1,12/70/3 चोद्दसपुव्वहराणं णमोक्कारो किण्ण कदो। ण, जिणवयणपच्चयट्ठाणपदुप्पायणदुवारेण दसपुव्वीणं चागमहप्पपदरिसंठं पुव्वं तण्णसोक्कारकरणादो। सुदपरिवाडीए वा पुव्वं दसपुव्वीणं णमोक्कारो कुदो। =प्रश्न - चौदह पूर्वों के धारकों को पहले नमस्कार क्यों नहीं किया ? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिनवचनों पर प्रत्यय स्थान अर्थात् विश्वास उत्पादन द्वारा दशपूर्वियों के त्याग की महिमा दिखलाने के लिए पूर्व में उन्हें नमस्कार किया है। अथवा श्रुत की परिपाटी की अपेक्षा से पहले दशपूर्वियों को नमस्कार किया गया है।
5. चौदहपूर्वी अप्रतिपाती हैं
धवला 9/4,1,13/79/9 चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो। =चौदह पूर्व का धारक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, और उस भव में असंयम को भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है।
2. निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश
1. श्रुतकेवली का अर्थ आगमज्ञ
समयसार/10 जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलिं तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा।10। =जो जीव सर्व श्रुतज्ञान को जानता है उसे जिनदेव श्रुतकेवली कहते हैं, क्योंकि ज्ञान सब आत्मा ही है इसलिए वह श्रुतकेवली के है।10।
सर्वार्थसिद्धि/9/37/453,4 पूर्वविदो भवत: श्रुतकेवलिन इत्यर्थ:। =पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के होते हैं।
महापुराण/2/61 प्रत्यक्षश्च परोक्षश्च द्विधा ते ज्ञानपर्यय:। केवलं केवलिन्येकस्ततस्त्वंश्रुतकेवली।61। =(श्रेणिक राजा गौतम गणधर की इस प्रकार स्तुति करते हैं।) हे देव ! केवली भगवान् में मात्र एक केवल ज्ञान ही होता है और आपमें प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से दो प्रकार का ज्ञान विद्यमान है। इसलिए आप श्रुतकेवली कहलाते हैं।61।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/34/125/12 सुदकेवलिणा समस्तश्रुतधारिणा कथितं चेति। =द्वादशांग श्रुतज्ञान को धारण करने वाल महर्षियों को श्रुतकेवलि कहते हैं। (और भी देखें श्रुतकेवली - 1.1)।
2. श्रुतकेवली का अर्थ आत्मज्ञ
समयसार/9 जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा।9। =जो जीव निश्चय से (वास्तव में) श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, उसे लोक को प्रगट करने वाले ऋषीश्वर श्रुतकेवली कहते हैं।9।
प्रवचनसार/33 जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवकरा।33।=जो वास्तव में श्रुतज्ञान के द्वारा स्वभाव से ज्ञायक (ज्ञायकस्वभाव) आत्मा को जानता है उसे लोक के प्रकाशक ऋषीश्वरगण श्रुतकेवली कहते हैं।
3. श्रुतकेवली के उत्कृष्ट व जघन्य ज्ञान की सीमा
सर्वार्थसिद्धि/9/47/461/8 श्रुतं - पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वधरा:। कषायकुशीला निर्ग्रंथाश्चतुर्दशपूर्वधरा:। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु। बकुशकुशीला निर्ग्रंथानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातर:। स्नातका अपगतश्रुता: केवलिन:। =श्रुत-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील उत्कृष्ट रूप से अभिन्नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं। कषाय कुशील और निर्ग्रंथ चौदह पूर्वधर होते हैं। जघन्य रूप से पुलाक का श्रुत आचार वस्तु प्रमाण होता है। बकुश, कुशील और निर्ग्रंथों का श्रुत आठ प्रवचन मातृका प्रमाण होता है। स्नातक श्रुतज्ञान से रहित केवली होते हैं। ( राजवार्तिक/9/47/4/698/1 ), ( चारित्रसार/103/4 )।
देखें ध्याता - 1 उत्सर्ग रूप से 14 पूर्वों के द्वारा और अपवाद रूप से अष्ट प्रवचन मातृका का मात्र ज्ञान से ध्यान करना संभव है।
देखें शुक्लध्यान - 3.1,2 पृथक्त्व व एकत्व वितर्क ध्यान 14, 10 व 9 पूर्वी को होते हैं।
4. मिथ्यादृष्टि साधु को 11 अंग तक भाव ज्ञान संभव है
लाटी संहिता/5/18-20 एकादशांगपाठोगि तस्य स्याद् द्रव्यरूपत:। आत्मानुभूतिशून्यत्वाद्भावत: संविदुज्झित:।18। न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थत:। यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विंदंति केचन।19। तत: पाठोऽस्ति तेषूच्चै: पाठस्याप्यस्ति ज्ञातृता। ज्ञातृतायां च श्रद्धानं प्रतीती रोचनं क्रिया।20। =कोई मिथ्यादृष्टि मुनि 11 अंग के पाठी होते हैं, महाव्रतादि क्रियाओं को बाह्यरूप से पूर्णतया पालन करते हैं, परंतु उन्हें अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं होता, इसलिए वे परिणामों के द्वारा सम्यग्ज्ञान से रहित हैं।18। ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि ‘मिथ्यादृष्टि को 11 अंग का ज्ञान केवल पठन मात्र होता है, उसके अर्थों का ज्ञान उसको नहीं होता ? क्योंकि शास्त्रों में यह कथन आता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टियों के उपदेश से अन्य कितने ही भव्य जीवों को सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान हो जाता हे।18। इससे सिद्ध होता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनियों के ग्यारह अंगों का ज्ञान पाठमात्र भी होता है और उसके अर्थों का ज्ञान भी होता है, उस ज्ञान में श्रद्धान होता है, प्रतीति होती है, रुचि होती है और पूर्ण क्रिया होती है।
* श्रुतज्ञानी में भावश्रुत इष्ट है - देखें श्रुतकेवली - 2.4।
5. श्रुतज्ञान सर्वग्राहक कैसे
धवला 9/4,1,7/57/1 णासेसपयत्था सुदणाणेण परिच्छिज्जंति, - पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।17। इदि वयणादो त्ति उत्ते होदु णाम सयलपयत्थाणमणं तिमभागो दव्वसुदणाणविसओ, भावसुदणाणविसओ पुण सयलपयत्था; अण्णहा तित्थयराणं वागदिसयत्ता भावप्पसंगादो। [तदो] बीजपदपरिच्छेदकारिणी बीजबुद्धि त्ति सिद्धं। =प्रश्न - श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को नहीं जानता है, क्योंकि, वचन के अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थों के अनंतवें भाग प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकर की सातिशय दिव्यध्वनि में प्रतिपाद्य होते हैं। तथा प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनंतवें भाग द्वादशांग श्रुत के विषय होते हैं ? इस प्रकार का वचन है ? उत्तर - इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि समस्त पदार्थों का अनंतवाँ भाग द्रव्य श्रुतज्ञान का विषय भले ही हो, किंतु भाव श्रुतज्ञान का विषय समस्त पदार्थ है, क्योंकि ऐसा मानने के बिना तीर्थंकरों के वचनातिशय के अभाव का प्रसंग होगा। [इसलिए] बीजपदों को ग्रहण करने वाली बीजबुद्धि है, यह सिद्ध हुआ।
6. जो एक को जानता है वही सर्व को जानता है
समयसार/15 जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं। अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं।15। =जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य अविशेष (तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त) देखता है - वह जिनशासन बाह्य श्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञान रूप भाव श्रुतवाला है।15।
योगसार (योगेंदुदेव)/95 जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ सरीरविभिण्णु। सो जाणइ सत्थइं सयल सासय-सुक्खहं लीणु।95। =जो आत्मा को अशुचि शरीर से भिन्न समझता है, वह शाश्वत सुख में लीन होकर समस्त शास्त्रों को जान जाता है।95।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक ./3/68 पर एको भाव: सर्वभावस्वभाव:। सर्वे भावा एकभावस्वभावा:। एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध: सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धा:।1। =एक भाव सर्व भावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभावस्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्व से एक भाव को जाना उसने समस्त भावों को यथार्थतया जाना। ( ज्ञानार्णव/35/13/ पृ.344 पर उद्धृत)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/464 जो अप्पाणं जाणदि असुइ-सरीरा दु तच्चदो भिण्णं। जाणग-रूव सरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं।465। =जो अपनी आत्मा को इस अपवित्र शरीर से निश्चय से भिन्न तथा ज्ञापक स्वरूप जानता है वह सब शास्त्रों को जानता है।465।
* जो सर्व को नहीं जानता वह एक को भी यथार्थ नहीं जानता - देखें केवलज्ञान - 4.1।
7. निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली का समन्वय
परमात्मप्रकाश/ मू./1/99 जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ। अप्पह केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।=हे योगी ! एक अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिंबित हुआ बस रहा है।
समयसार / आत्मख्याति/9-10 य: श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो, य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहार:। तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किंमनात्मा। न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्ते:। ततो गत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति। अत: श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति य: आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव। एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम् । अथ च य: श्रुतेन केवलं शुद्धात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहार: परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति।9-10। =प्रथम, जो श्रुत से केवल शुद्धात्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं वह तो परमार्थ है; और जो सर्व श्रुतज्ञान को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं यह व्यवहार है। यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं - उपरोक्त सर्वज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्मा का पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि जो समस्त जड़ रूप अनात्मा आकाशादिक पाँच द्रव्य हैं, उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य बनता ही नहीं। (क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है) इसलिए अन्यपक्ष का अभाव होने से 'ज्ञान आत्मा ही है, यह पक्ष सिद्ध हुआ। इसलिए श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा होने से जो आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है' ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ ही है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कहने वाला जो व्यवहार है, उससे भी परमार्थ मात्र ही कहा जाता है; उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता। और जो श्रुत से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं, इस प्रकार परमार्थ का प्रतिपादन करना अशक्य होने से, 'जो सर्व श्रुतज्ञान को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं' ऐसा व्यवहार परमार्थ के प्रतिपादकत्व से अपने को दृढ़ता पूर्वक स्थापित करता है।
पं.वि./1/158 ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं जीवस्य नार्थांतरं - शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इत्युच्यते। पर्यायैश्च गुणैश्च साधु विदते तस्मिन् गिरा-सद्गुरोर्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभि:।158। =शुद्ध नय की अपेक्षा समस्त पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान और दर्शन ही जीव का स्वरूप है जो उस जीव से पृथक् नहीं है। इससे भिन्न कोई दूसरा जीव का स्वरूप नहीं हो सकता है। अतएव वह चिद्रूप अर्थात् चेतन स्वरूप ऐसा कहा जाता है। उत्तम गुरु के उपदेश से अपने गुणों और पर्यायों के साथ उस ज्ञान दर्शन स्वरूप जीव के भले प्रकार जान लेने पर योगियों ने क्या नहीं जाना, क्या नहीं देखा, और क्या नहीं प्राप्त किया ? अर्थात् सब कुछ जान, देख व प्राप्त कर लिया।159।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/9-10/22/9 अयमत्रार्थ: - यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चयश्रुतकेवली भवति। यस्तु स्वशुद्धात्मानं न संवेदयति न भावयति बहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति।=यहाँ यह तात्पर्य है कि - जो भावश्रुत रूप स्व संवेदन ज्ञान के बल से शुद्ध आत्मा को जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है। और जो शुद्धात्मा का न संवेदन करता है - न भावना भाता है, परंतु बाह्य द्रव्य श्रुत को जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/99/94/1 वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे ज्ञाते सति समस्तद्वादशांगस्वरूपं ज्ञातं भवति। कस्मात् । यस्माद्राघवपांडवादयो महापुरुषा जिनदीक्षां गृहीत्वा द्वादशांगं पठित्वा द्वादशांगाध्ययनफलभूते निश्चयरत्नत्रयात्मके परमात्मध्याने तिष्ठंति तेन कारणेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति। अथवा निर्विकल्पसमाधिसमुत्पंनपरमानंदसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति। किं जानाति। वेत्ति मम स्वरूपमन्यद्देहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवति। अथवा आत्मा कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन कारणभूतेन सर्वं लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवतीति। अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिबलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिंबवत् सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवतीति। =वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञान से शुद्धात्म तत्त्व के जानने पर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है। क्योंकि जैसे - 1. रामचंद्र, पांडव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराज की दीक्षा लेकर द्वादशांग को पढ़ने का फल निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन हुए थे। इसलिए वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान से जिन्होंने अपनी आत्मा को जाना उन्होंने सबको जाना। 2. अथवा निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो परमाननद सुख रस उसके आस्वाद होने पर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है कि मेरा स्वरूप पृथक् है, और देहरागादिक मेरे से दूसरे हैं, इसलिए परमात्मा के जानने से सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपने आत्मा को जाना उसने सर्व भिन्न पदार्थ जाने। 3. अथवा आत्मा श्रुतज्ञान रूप व्याप्ति ज्ञान से सब लोकालोक को जानता है, इसलिए आत्मा के जानने से सब जाना गया। 4. अथवा वीतराग निर्विकल्प परम समाधि के बल से केवलज्ञान को उत्पन्न करके जैसे दर्पण में घट पट आदि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पण में सब लोकालोक भासते हैं। इससे यह बात निश्चित हुई कि आत्मा के जानने पर सब जाना जाता है।
देखें अनुभव - 5 अल्प भूमिका में कथंचित् शुद्धात्मा का अनुभव होता है।
देखें दर्शन - 2.7 दर्शन द्वारा आत्मा का ज्ञान होने पर उसमें प्रतिबिंबित सब पदार्थों का ज्ञान भी हो जाता है।
देखें केवलज्ञान - 6.6 (ज्ञेयाकारों से प्रतिबिंबित निज आत्मा को जानता है)।
* पूर्व श्रुतकेवलीवत् वर्तमान में भी संभव है। - देखें अनुभव - 5.8।
पुराणकोष से
बारह अंग और चौदह पूर्वरूप श्रुत में पारंगत मुनि । ये प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ज्ञानों के धारी होते हैं । महापुराण 2.60-61