संवेग: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Revision as of 16:40, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से == 1. संसार से भय के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/11 संसारदु:खान्नित्यभीरुता संवेग:। =संसार के दु:खों से नित्य डरते रहना संवेग है ( राजवार्तिक/6/24/5/529/25 ); ( चारित्रसार/53/5 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/7 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/35/127/13 संविग्गो संसाराद् द्रव्यभावरूपात् परिवर्तनात् भयमुपगत:। =संवेग अर्थात् द्रव्य व भावरूप पंचपरिवर्तन संसार से जिसको भय उत्पन्न हुआ है।
2. धर्मोत्साह के अर्थ में
धवला 8/3,41/86/3 सम्मदंसणणाणचरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम। हरिसो संतो संवेगो णाम। लद्धीए संवेगो लद्धिसंवेगो, तस्स संपण्णदा संपत्ती। =सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जो जीव का समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं, और हर्ष व सात्त्विक भाव का नाम संवेग है। लब्धि से या लब्धि में संवेग का नाम लब्धि संवेग और उसकी संपन्नता का अर्थ संप्राप्ति है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/112/7 पर उद्धृत - धम्मे य धम्मफलम्हि दंसणे य हरिसो य हुंति संवेगो। =धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है, वह संवेग है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/431 संवेग: परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चित्त:। सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु।431। =धर्म में व धर्म के फल में आत्मा के परम उत्साह को संवेग कहते हैं, अथवा धार्मिक पुरुषों में अनुराग अथवा पंचपरमेष्ठी में प्रीति रखने को संवेग कहते हैं।431।
* संवेगोत्पादक कुछ भावनाएँ - देखें वैराग्य - 2।
* अकेले संवेग से तीर्थंकरत्व के बंध की संभावना - देखें भावना - 2।
3. संवेग में शेष 15 भावनाओं का समावेश
धवला 8/3,41/86/5 कधं लद्धिसंवेगसंपयाएं सेसकारणाणं संभवो। ण सेसकारणेहि विणा लद्धिसंवेगस्स संपया जुज्जदे, विरोहादो। लद्धिसंवेगो णाम तिरयणदोहलओ, ण सो दंसणविसुज्झदादीहिं विणा संपुण्णो होदि, विप्पडिसेहादो हिरण्णसुवण्णादीहि विणा अड्ढो व्व। तदो अप्पणो अंतोखित्तसेसकारणा लद्धिसंवेगसंपया छट्टं कारणं। =प्रश्न - लब्धिसंवेग संपन्नता में शेष कारणों की संभावना कैसे है ? उत्तर - क्योंकि शेष कारणों के बिना विरुद्ध होने से लब्धिसंवेग की संपदा का संयोग ही नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि रत्नत्रय जनित हर्ष का नाम लब्धिसंवेग है। और वह दर्शनविशुद्धतादिकों के बिना संपूर्ण होता नहीं है, क्योंकि, इसमें हिरण्य सुवर्णादिकों के बिना धनाढय होने के समान विरोध है। अतएव शेष कारणों को अपने अंतर्गत करने वाली लब्धिसंवेग संपदा तीर्थंकर कर्मबंध का छठा कारण है।
पुराणकोष से
(1) सोलहकारण भावनाओं में पाँचवीं भावना । जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि शारीरिक और मानसिक दु:खों के भार से युक्त संसार से नित्य डरते रहना संवेग भावना है । यह भावना विषयों का छेदन करती है । महापुराण 63.323, हरिवंशपुराण 34.136
(2) सम्यग्दर्शन के प्राथमिक प्रशम आदि चार गुणों में एक गुण । धर्म और धार्मिक फलों में परम प्रीति और बाह्य पदार्थों में उदासीनता होना संवेग-भाव कहलाता है । महापुराण 9.123, 10.157