नय: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText"> <strong name="I.1.3" id="I.1.3"> नय के मूल भेदों के नाम निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"> <strong name="I.1.3" id="I.1.3"> नय के मूल भेदों के नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
त.सू./१/३३ <span class="SanskritText">नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।</span>=<span class="HindiText">नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। (ह.पु./५८/४१), (ध.१/१,१,१/८०/५), (न.च.वृ./१८५), (आ.प./५); (स्या.म./२८/३१०/१५); (इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो नय/III)।</span><br /> | त.सू./१/३३ <span class="SanskritText">नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।</span>=<span class="HindiText">नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। (ह.पु./५८/४१), (ध.१/१,१,१/८०/५), (न.च.वृ./१८५), (आ.प./५); (स्या.म./२८/३१०/१५); (इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो [[नय#III | नय/III ]])।</span><br /> | ||
स.सि./१/३३/१४०/८ <span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।</span>=<span class="HindiText">उस (नय) के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। (स.सि./१/६/२०/९), (रा.वा./१/१/२/४/४), (रा.वा./१/३३/१/९४/२५), (ध.१/१,१,१/८३/१०); (ध.९/४,१,४५/१६७/१०), (क.पा.१/१३-१४/१७७/२११/४), (आ.प./५/गा.४), (न.च.वृ./१४८), (स.सा./आ./१३/क.८की टीका), (पं.का./त.प्र./४), (स्या.म./२८/३१७/१), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - [[ नय#IV | नय / IV ]])।</span><br /> | स.सि./१/३३/१४०/८ <span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।</span>=<span class="HindiText">उस (नय) के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। (स.सि./१/६/२०/९), (रा.वा./१/१/२/४/४), (रा.वा./१/३३/१/९४/२५), (ध.१/१,१,१/८३/१०); (ध.९/४,१,४५/१६७/१०), (क.पा.१/१३-१४/१७७/२११/४), (आ.प./५/गा.४), (न.च.वृ./१४८), (स.सा./आ./१३/क.८की टीका), (पं.का./त.प्र./४), (स्या.म./२८/३१७/१), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - [[ नय#IV | नय / IV ]])।</span><br /> | ||
आ.प./५/गा.४ <span class="PrakritText">णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं।</span>=<span class="HindiText">सब नयों के मूल दो भेद हैं‒निश्चय और व्यवहार (न.च.वृ./१८३), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - [[ नय#V | नय / V ]])।</span><br /> | आ.प./५/गा.४ <span class="PrakritText">णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं।</span>=<span class="HindiText">सब नयों के मूल दो भेद हैं‒निश्चय और व्यवहार (न.च.वृ./१८३), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - [[ नय#V | नय / V ]])।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> <strong name="I.2.8" id="I.2.8"> प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"> <strong name="I.2.8" id="I.2.8"> प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक </strong></span><br /> | ||
न.च.वृ./२४७ <span class="PrakritGatha">इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खु जं हवे दव्वं। णयविसयं तस्संसं सियभणितं तं पि पुव्वुत्तं।२४७।</span>=<span class="HindiText">केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों की निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाण का विषय है और जो उसके अंश अर्थात् अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नय के विषय हैं। (विशेष दे. | न.च.वृ./२४७ <span class="PrakritGatha">इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खु जं हवे दव्वं। णयविसयं तस्संसं सियभणितं तं पि पुव्वुत्तं।२४७।</span>=<span class="HindiText">केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों की निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाण का विषय है और जो उसके अंश अर्थात् अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नय के विषय हैं। (विशेष दे. [[नय#I.1.1.3 | नय/I/१/१/३ ]])।</span><br /> | ||
आ.प./९ <span class="SanskritText">सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं।</span>=<span class="HindiText">सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु ग्राहक प्रमाण है।</span><br /> | आ.प./९ <span class="SanskritText">सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं।</span>=<span class="HindiText">सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु ग्राहक प्रमाण है।</span><br /> | ||
ध.९/४,१,४५/१६६/१ <span class="SanskritText">प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थ:। तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थ:। तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यत्वानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषा: पर्याया: तेषां प्रकर्षेण रूपक: प्ररूपक: निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">प्रकर्ष से अर्थात् संशयादि से रहित वस्तु का ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धर्मों को विषय करने वाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात् पर्यायें हैं, उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषों से रहित होकर निरूपण करने वाला नय है। (क.पा.१/१३-१४/१७४/२१०/३)।</span><br /> | ध.९/४,१,४५/१६६/१ <span class="SanskritText">प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थ:। तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थ:। तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यत्वानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषा: पर्याया: तेषां प्रकर्षेण रूपक: प्ररूपक: निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">प्रकर्ष से अर्थात् संशयादि से रहित वस्तु का ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धर्मों को विषय करने वाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात् पर्यायें हैं, उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषों से रहित होकर निरूपण करने वाला नय है। (क.पा.१/१३-१४/१७४/२१०/३)।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> <strong name="I.2.9" id="I.2.9"> प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"> <strong name="I.2.9" id="I.2.9"> प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को </strong></span><br /> | ||
ध.९/४,१,४५/१६३ <span class="SanskritText">किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा। न प्रतिषेधमात्रम्, विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेत, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषयं विज्ञानम् ।...प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप: नयनिबन्धन:। तत: सकलो व्यवहारो नयाधीन:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेध को नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थों की व्यावृत्ति किये बिना ज्ञान में संकरता का या अज्ञानरूपता का प्रसंग आता है, और विधि को जाने बिना ‘यह इससे भिन्न है’ ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाण में विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा होने पर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाण का विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करने वाला नहीं है।‒प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है। (नय/V/९/४) (पं.ध./पू./६६५)।</span><br /> | ध.९/४,१,४५/१६३ <span class="SanskritText">किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा। न प्रतिषेधमात्रम्, विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेत, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषयं विज्ञानम् ।...प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप: नयनिबन्धन:। तत: सकलो व्यवहारो नयाधीन:।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेध को नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थों की व्यावृत्ति किये बिना ज्ञान में संकरता का या अज्ञानरूपता का प्रसंग आता है, और विधि को जाने बिना ‘यह इससे भिन्न है’ ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाण में विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा होने पर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाण का विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करने वाला नहीं है।‒प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है। ([[नय#V.9.4 | नय/V/९/४ ]]) (पं.ध./पू./६६५)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./७१<span class="PrakritGatha"> इत्थित्ताइसहावा सव्वा सब्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णओ गउणमुक्खभावेण।७१।</span>=<span class="HindiText">अस्तित्वादि जितने भी वस्तु के निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला प्रमाण है, और उन्हें गौण मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है।</span><br /> | न.च.वृ./७१<span class="PrakritGatha"> इत्थित्ताइसहावा सव्वा सब्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णओ गउणमुक्खभावेण।७१।</span>=<span class="HindiText">अस्तित्वादि जितने भी वस्तु के निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला प्रमाण है, और उन्हें गौण मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है।</span><br /> | ||
न्या.दी./३/८५/१२९/१ <span class="SanskritText">अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतैकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य।</span>=<span class="HindiText">अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय है। (पं.ध./पू./६८०)। (और भी | न्या.दी./३/८५/१२९/१ <span class="SanskritText">अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतैकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य।</span>=<span class="HindiText">अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय है। (पं.ध./पू./६८०)। (और भी दे०‒[[अनेकांत#3.1 | अनेकांत.३/१]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> <strong name="I.2.10" id="I.2.10"> प्रमाण स्यात्पद युक्त होने से सर्व नयात्मक होता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"> <strong name="I.2.10" id="I.2.10"> प्रमाण स्यात्पद युक्त होने से सर्व नयात्मक होता है</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> <strong name="I.3.2" id="I.3.2"> नय पक्ष कथंचित् हेय है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"> <strong name="I.3.2" id="I.3.2"> नय पक्ष कथंचित् हेय है</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./परि/क.२७० <span class="SanskritText">चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्य: प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमान:। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि।२७०।</span>=<span class="HindiText">आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्ति का ग्राहक एक-एक नय है इसलिए यदि नयों की एकान्त दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा का खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होने से स्याद्वादी, नयों का विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तु को अनेकशक्तिसमूहरूप सामान्यविशेषरूप सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें - [[ | स.सा./आ./परि/क.२७० <span class="SanskritText">चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्य: प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमान:। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि।२७०।</span>=<span class="HindiText">आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्ति का ग्राहक एक-एक नय है इसलिए यदि नयों की एकान्त दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा का खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होने से स्याद्वादी, नयों का विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तु को अनेकशक्तिसमूहरूप सामान्यविशेषरूप सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें - [[ अनेकांत#5 | अनेकान्त / ५ ]]), (पं.ध./पू./५१०)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> <strong name="I.3.3" id="I.3.3"> नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं </strong></span><br>स.सा./मू./१४३ <span class="PrakritGatha">दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।</span>=<span class="HindiText">नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्ष को किंचित्मात्र भी ग्रहण नहीं करता। </span></li> | <li><span class="HindiText"> <strong name="I.3.3" id="I.3.3"> नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं </strong></span><br>स.सा./मू./१४३ <span class="PrakritGatha">दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।</span>=<span class="HindiText">नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्ष को किंचित्मात्र भी ग्रहण नहीं करता। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText"><strong name="I.3.4" id="I.3.4"> नय पक्ष को हेय कहने का कारण व प्रयोजन</strong></span> <br>स.सा./आ./१४४/क.९३-९५ <span class="SanskritText">आक्रामन्नविकल्पभावनचलं पक्षैर्नयानां विना, सारो य: समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान: स्वयम् । विज्ञानैकरस: स एष भगवान्पुण्य: पुराण: | <li> <span class="HindiText"><strong name="I.3.4" id="I.3.4"> नय पक्ष को हेय कहने का कारण व प्रयोजन</strong></span> <br>स.सा./आ./१४४/क.९३-९५ <span class="SanskritText">आक्रामन्नविकल्पभावनचलं पक्षैर्नयानां विना, सारो य: समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान: स्वयम् । विज्ञानैकरस: स एष भगवान्पुण्य: पुराण: पुमान्, ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।९३। दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो, दूरादेव विवकेनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् । विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्, आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।९४। विकल्पक: परं कर्ता विकल्प: कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।९५।</span>=<span class="HindiText">नयों के पक्षों से रहित अचल निर्विकल्प भाव को प्राप्त होता हुआ, जो समय का सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार, जो कि आत्मलीन पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, वह विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, पवित्र पुराण पुरुष है। उसे चाहे ज्ञान कहो या दर्शन वह तो यही (प्रत्यक्ष) ही है, अधिक क्या कहें ? जो कुछ है, सो यह एक ही है।९३। जैसे पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढाल वाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बल पूर्वक मोड़ दिया जाये, तो फिर वह पानी, पानी को पाने के लिए समूह की ओर खेंचता हुआ प्रवाह-रूप होकर अपने समूह में आ मिलता है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था। उसे दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया। इसलिए केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभव में आता है ऐसा वह आत्मा, आत्मा को आत्मा में खींचता हुआ, सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है।९४। (स.सा./आ./१४४)। विकल्प करने वाला ही केवल कर्ता है, और विकल्प ही केवल कर्म हैं, जो जीव विकल्प सहित है, उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता।९५। </span><br> | ||
नि.सा./ता.वृ./४८/क.७२ <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं, शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं। इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।७२।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध हैं। इस प्रकार परमागम के अतुल अर्थ को, सारासार के विचार वाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं।</span> स.सा./ता.वृ./१४४/२०२/१३ <span class="SanskritText">समस्तमतिज्ञानविकल्परहित: सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित: समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थै: पुरुषैर्दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत: कारणात् नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञां लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति।</span>=<span class="HindiText">समस्त मतिज्ञान के विकल्पों से रहित होकर बद्धाबद्ध आदि नयपक्षपात से रहित समयसार का अनुभव करके ही, क्योंकि, निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इसलिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञा को प्राप्त होता है, बद्ध या अबद्ध आदि व्यपदेश को प्राप्त नहीं होता। (स.सा./ता.वृ./१३/३२/७)। </span><br> | नि.सा./ता.वृ./४८/क.७२ <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं, शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं। इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।७२।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध हैं। इस प्रकार परमागम के अतुल अर्थ को, सारासार के विचार वाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं।</span> स.सा./ता.वृ./१४४/२०२/१३ <span class="SanskritText">समस्तमतिज्ञानविकल्परहित: सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित: समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थै: पुरुषैर्दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत: कारणात् नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञां लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति।</span>=<span class="HindiText">समस्त मतिज्ञान के विकल्पों से रहित होकर बद्धाबद्ध आदि नयपक्षपात से रहित समयसार का अनुभव करके ही, क्योंकि, निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इसलिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञा को प्राप्त होता है, बद्ध या अबद्ध आदि व्यपदेश को प्राप्त नहीं होता। (स.सा./ता.वृ./१३/३२/७)। </span><br> | ||
पं.ध./पू./५०६ <span class="SanskritText">यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थ:। नयतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ।५०६।</span>=<span class="HindiText">अथवा ज्ञान के विकल्प का नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान के विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय ही, परन्तु ज्ञेय के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान का विकल्प मात्र है। स.सा./पं.जयचन्द/१२/क.६ भाषार्थ‒यदि सर्वथा नयों का पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है। </span></li> | पं.ध./पू./५०६ <span class="SanskritText">यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थ:। नयतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ।५०६।</span>=<span class="HindiText">अथवा ज्ञान के विकल्प का नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान के विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय ही, परन्तु ज्ञेय के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान का विकल्प मात्र है। स.सा./पं.जयचन्द/१२/क.६ भाषार्थ‒यदि सर्वथा नयों का पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है। </span></li> | ||
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पं.ध./पू./६४५-६४८ <span class="SanskritText">ननु चैवं परसमय: कथं स निश्चयनयावलम्बी स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य:।६४५।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>व्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्यरूप से भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है।६४५। <strong>उत्तर‒</strong>(उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनों नयों को विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है)।६४६-६४८। </span></li> | पं.ध./पू./६४५-६४८ <span class="SanskritText">ननु चैवं परसमय: कथं स निश्चयनयावलम्बी स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य:।६४५।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>व्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्यरूप से भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है।६४५। <strong>उत्तर‒</strong>(उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनों नयों को विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है)।६४६-६४८। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.6" id="I.3.6"> प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चयव्यवहार के विकल्प नहीं रहते </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.3.6" id="I.3.6"> प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चयव्यवहार के विकल्प नहीं रहते </strong></span><br /> | ||
न.च.वृ./२६६ <span class=" | न.च.वृ./२६६ <span class="PrakritText">तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण। णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहओ जम्हा।</span>=<span class="HindiText">तत्त्वान्वेषण काल में ही युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा आत्मा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय वे विकल्प नहीं होते, क्योंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है।</span> न.च./श्रुत/३२ <span class="SanskritText">एवमात्मा यावद्व्यवहारनिश्चयाभ्यां तत्त्वानुभूति: तावत्परोक्षानुभूति:। प्रत्यक्षानुभूति: नयपक्षातीत:।</span>=<span class="HindiText">आत्मा जब तक व्यवहार व निश्चय के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है तब तक उसे परोक्ष अनुभूति होती है, प्रत्यक्षानुभूति तो नय पक्षों से अतीत है। </span><br /> | ||
स.सा./आ./१४३ <span class="SanskritText">तथा किल य: व्यवहारनिश्चयनयपक्षयो:... परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुकतया स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु...चिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् ...समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कथंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्य: परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र: समयसार:।</span>=<span class="HindiText">जो श्रुतज्ञानी, पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, व्यवहार व निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा, अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होने से, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तव में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है।</span> पु.सि.उ./८ <span class="SanskritText">व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ:। प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्य:।</span>=<span class="HindiText">जो जीव व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् उभय नय के पक्ष से अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेश के सकल फल को प्राप्त होता है। </span><br /> | स.सा./आ./१४३ <span class="SanskritText">तथा किल य: व्यवहारनिश्चयनयपक्षयो:... परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुकतया स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु...चिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् ...समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कथंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्य: परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र: समयसार:।</span>=<span class="HindiText">जो श्रुतज्ञानी, पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, व्यवहार व निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा, अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होने से, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तव में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है।</span> पु.सि.उ./८ <span class="SanskritText">व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ:। प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्य:।</span>=<span class="HindiText">जो जीव व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् उभय नय के पक्ष से अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेश के सकल फल को प्राप्त होता है। </span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./१४२ का अन्तिम वाक्य/१९९/११ <span class="PrakritText">समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नयद्वयात्मिका वर्तते, बुद्धतत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हेयोपादेयतत्त्वे तु विनिश्चित्य नयद्वयात्, त्यक्त्वा हेयमुपादेयेऽवस्थानं साधुसम्मतं।</span>=<span class="HindiText">तत्त्व के व्याख्यानकाल में जो बुद्धि निश्चय व व्यवहार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्व में स्थित उस पुरुष की नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनों नयों से हेय व उपादेय तत्त्व का निर्णय करके हेय को छोड़ उपादेय में अवस्थान पाना ही साधुसम्मत है। </span></li> | स.सा./ता.वृ./१४२ का अन्तिम वाक्य/१९९/११ <span class="PrakritText">समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नयद्वयात्मिका वर्तते, बुद्धतत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हेयोपादेयतत्त्वे तु विनिश्चित्य नयद्वयात्, त्यक्त्वा हेयमुपादेयेऽवस्थानं साधुसम्मतं।</span>=<span class="HindiText">तत्त्व के व्याख्यानकाल में जो बुद्धि निश्चय व व्यवहार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्व में स्थित उस पुरुष की नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनों नयों से हेय व उपादेय तत्त्व का निर्णय करके हेय को छोड़ उपादेय में अवस्थान पाना ही साधुसम्मत है। </span></li> | ||
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स.सि./१/३३/१४६/६ <span class="SanskritText">अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य।</span>=<span class="HindiText">(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक् है, निरपेक्ष नहीं, जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्य का उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जाने पर शंकाकार कहता है।) प्रश्न‒निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिक में तो शक्ति की अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नय में ऐसा नहीं है; अत: दृष्टान्त विषम है)। उत्तर‒यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयों के विषय में भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शन के हेतु रूप से परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्त के साथ साम्य ही है। (रा.वा./१/३३/१२/९९/२६) </span></li> | स.सि./१/३३/१४६/६ <span class="SanskritText">अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य।</span>=<span class="HindiText">(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक् है, निरपेक्ष नहीं, जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्य का उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जाने पर शंकाकार कहता है।) प्रश्न‒निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिक में तो शक्ति की अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नय में ऐसा नहीं है; अत: दृष्टान्त विषम है)। उत्तर‒यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयों के विषय में भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शन के हेतु रूप से परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्त के साथ साम्य ही है। (रा.वा./१/३३/१२/९९/२६) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.10" id="I.3.10"> नय पक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.3.10" id="I.3.10"> नय पक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय </strong></span><br /> | ||
पं.ध./पू./५०८ <span class="SanskritText">उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प: स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:।</span>=<span class="HindiText">जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदय को प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष) स्वयं अस्त को प्राप्त हो जाता है। और भी दे.नय/I/३/६ प्रत्यक्षानुभूति के समय नय विकल्प नहीं होते। </span></li> | पं.ध./पू./५०८ <span class="SanskritText">उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प: स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:।</span>=<span class="HindiText">जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदय को प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष) स्वयं अस्त को प्राप्त हो जाता है। और भी दे.[[नय#I.3.6 | नय/I/३/६]] प्रत्यक्षानुभूति के समय नय विकल्प नहीं होते। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.4" id="I.4.4"> तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.4" id="I.4.4"> तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध </strong></span><br /> | ||
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.९६-९७/२८८ <span class="SanskritText">सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने। स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननया: स्थिता:।९६। वैधीयमानवस्त्वंशा: कथ्यन्तेऽर्थ नयाश्च ते। त्रैविध्यं व्यवतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावत:।९७।</span>=<span class="HindiText">श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करने पर तो सभी नय शब्दनय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करने पर सभी नय स्वार्थप्रकाशी होने से ज्ञाननय हैं।९६। ‘नीयतेऽनेन इति नय:’ ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय ज्ञाननय हो जाते हैं। और ‘नीयते ये इति नय:’ ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय अर्थनय हो जाते हैं, क्योंकि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूप से ये नय तीन प्रकार से व्यवस्थित होते हैं। (और भी दे.नय/III/१/४)।<br /> | श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.९६-९७/२८८ <span class="SanskritText">सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने। स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननया: स्थिता:।९६। वैधीयमानवस्त्वंशा: कथ्यन्तेऽर्थ नयाश्च ते। त्रैविध्यं व्यवतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावत:।९७।</span>=<span class="HindiText">श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करने पर तो सभी नय शब्दनय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करने पर सभी नय स्वार्थप्रकाशी होने से ज्ञाननय हैं।९६। ‘नीयतेऽनेन इति नय:’ ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय ज्ञाननय हो जाते हैं। और ‘नीयते ये इति नय:’ ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय अर्थनय हो जाते हैं, क्योंकि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूप से ये नय तीन प्रकार से व्यवस्थित होते हैं। (और भी दे. [[नय#III.1.4 | नय/III/१/४]])।<br /> | ||
नोट‒अर्थनयों व शब्दनयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता (दे.नय/III/१/७)।<br /> | नोट‒अर्थनयों व शब्दनयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता (दे.[[नय#III.1.7 | नय/III/१/७ ]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.5" id="I.4.5"> शब्दनय का विषय </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.5" id="I.4.5"> शब्दनय का विषय </strong></span><br /> | ||
ध.९/४,१,४५/१८६/७ <span class="PrakritText">पज्जवट्ठिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेतकरणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो। कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दवववहारो। अणप्पिदअत्थगयभेयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणक्षयी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषता से संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्यवाचक भेद का अभाव है। (विशेष दे.नय/IV/३/८/५) प्रश्न–तो फिर तीनों ही शब्दनयों में शब्द का व्यवहार कैसे होता है? उत्तर–अर्थगत भेद की अप्रधानता और शब्द निमित्तक भेद की प्रधानता रखने वाले उक्त नयों के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे.निक्षेप/३/६)।<br /> | ध.९/४,१,४५/१८६/७ <span class="PrakritText">पज्जवट्ठिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेतकरणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो। कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दवववहारो। अणप्पिदअत्थगयभेयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणक्षयी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषता से संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्यवाचक भेद का अभाव है। (विशेष दे. [[नय#IV.3.8.5 | नय/IV/३/८/५]]) प्रश्न–तो फिर तीनों ही शब्दनयों में शब्द का व्यवहार कैसे होता है? उत्तर–अर्थगत भेद की अप्रधानता और शब्द निमित्तक भेद की प्रधानता रखने वाले उक्त नयों के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे.निक्षेप/३/६)।<br /> | ||
दे.नय/III/१/९ (शब्दनयों में दो अपेक्षा से शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है‒शब्दभेद से अर्थ में भेद करने की अपेक्षा और अर्थ भेद होने पर शब्दभेद की अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहार; तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थों का वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार)।<br /> | दे.[[नय#III.1.1 | नय/III/१/९]] (शब्दनयों में दो अपेक्षा से शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है‒शब्दभेद से अर्थ में भेद करने की अपेक्षा और अर्थ भेद होने पर शब्दभेद की अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहार; तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थों का वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार)।<br /> | ||
दे.नय/III/६,७,८ (तहां शब्दनय केवल लिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादि वाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्था में पदार्थ को एक ही नाम से पुकारकर अभेद करता है। और एवंभूतनय क्रियापरिणति के अनुसार अर्थ भेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है। यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तक को स्वीकार नहीं करता)।<br /> | दे. [[नय#III.6 | नय/III/६ ]],[[नय#III.7 | ७ ]],[[नय#III.8 | ८ ]] (तहां शब्दनय केवल लिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादि वाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्था में पदार्थ को एक ही नाम से पुकारकर अभेद करता है। और एवंभूतनय क्रियापरिणति के अनुसार अर्थ भेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है। यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तक को स्वीकार नहीं करता)।<br /> | ||
दे.आगम/४/४ (यद्यपि यहाँ पदसमास आदि की सम्भावना न होने से शब्द व वाक्यों का होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होने वाले वर्णों व पदों से उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रम से रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है)।<br /> | दे.आगम/४/४ (यद्यपि यहाँ पदसमास आदि की सम्भावना न होने से शब्द व वाक्यों का होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होने वाले वर्णों व पदों से उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रम से रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है)।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="I.5.1.2" id="I.5.1.2">उत्तरभावप्रज्ञापननय, भाविनैगमनय </strong></span></li> | <li> <span class="HindiText" name="I.5.1.2" id="I.5.1.2">उत्तरभावप्रज्ञापननय, भाविनैगमनय </strong></span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="I.5.1.3" id="I.5.1.3"> प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय, वर्तमानविषयनय, प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापन नय, इत्यादि। तहाँ ये तीनों काल विषयक नयें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावि नयें तो द्रव्यार्थिकनय में तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक में। अथवा नैगमादि सात नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुसूत्रादि चार नयों में। अथवा नैगम व ऋजुसूत्र इन दो में गर्भित हो जाती हैं‒भूत व भावि नयें तो नैगमनय में और वर्तमाननय ऋजुसूत्र में। श्लोक वार्तिक में कहा भी है‒ </span><br> | <li><span class="HindiText" name="I.5.1.3" id="I.5.1.3"> प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय, वर्तमानविषयनय, प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापन नय, इत्यादि। तहाँ ये तीनों काल विषयक नयें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावि नयें तो द्रव्यार्थिकनय में तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक में। अथवा नैगमादि सात नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुसूत्रादि चार नयों में। अथवा नैगम व ऋजुसूत्र इन दो में गर्भित हो जाती हैं‒भूत व भावि नयें तो नैगमनय में और वर्तमाननय ऋजुसूत्र में। श्लोक वार्तिक में कहा भी है‒ </span><br> | ||
श्लो.वा.४/१/३३/३ <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रनय: शब्दभेदाश्च त्रय, प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिण:। शेषा नया उभयभावविषया:। </span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय को तथा तीन शब्दनयों को प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष तीन नयों को प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी। (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानग्राही दो प्रकार की हैं‒एक अर्ध निष्पन्न में निष्पन्न का उपचार करने वाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमान के एक समयमात्र को सत्रूप से अंगीकार करने वाली। तहाँ पहली तो वर्तमान नैगम नय है और दूसरी सूक्ष्म ऋजुसूत्र। विशेष के लिए देखो आगे नय/III में नैगमादि नयों के लक्षण भेद व उदाहरण)। </span></li> | श्लो.वा.४/१/३३/३ <span class="SanskritText">ऋजुसूत्रनय: शब्दभेदाश्च त्रय, प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिण:। शेषा नया उभयभावविषया:। </span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय को तथा तीन शब्दनयों को प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष तीन नयों को प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी। (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानग्राही दो प्रकार की हैं‒एक अर्ध निष्पन्न में निष्पन्न का उपचार करने वाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमान के एक समयमात्र को सत्रूप से अंगीकार करने वाली। तहाँ पहली तो वर्तमान नैगम नय है और दूसरी सूक्ष्म ऋजुसूत्र। विशेष के लिए देखो आगे [[नय#III | नय/III]] में नैगमादि नयों के लक्षण भेद व उदाहरण)। </span></li> | ||
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Revision as of 07:28, 25 September 2020
== सिद्धांतकोष से ==
अनंत धर्मात्मक होने के कारण वस्तु बड़ी जटिल है (देखें अनेकांत )। उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रमपूर्वक उसका निरूपण करने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। कौन धर्म को पहले और कौन को पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। यथा अवसर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्म को मुख्य करके उसका कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणा को क्रम-पूर्वक सुनता हुआ अंत में वस्तु के यथार्थ अखंड व्यापकरूप को ग्रहण कर लेता है। अत: गुरु-शिष्य के मध्य यह न्याय अत्यंत उपकारी है। अत: इस न्याय को सिद्धांतरूप से अपनाया जाना न्याय संगत है। यह न्याय श्रोता को वस्तु के निकट ले जाने के कारण ‘नयतीति नय:’ के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ता के अभिप्राय को या वस्तु के एकांश ग्राही ज्ञान को नय कहते हैं। संपूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके अंश को नय कहते हैं।
अनेक धर्मों को युगपत् ग्रहण करने के कारण प्रमाण अनेकांतरूप व सकलादेशी है, तथा एक धर्म के ग्रहण करने के कारण नय एकांतरूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञान की अर्थात् अन्य धर्मों की अपेक्षा को बुद्धि में सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जाने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षा को छोड़कर उतनी मात्र ही वस्तु को जानने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या श्रोता को इस प्रकार की एकांत हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं‒देखें एकांत ।
यद्यपि वस्तु का व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञान का विषय न होने के कारण नयज्ञान का ग्रहण ठीक नहीं, परंतु प्रारंभिक अवस्था में उसका आश्रय परमोपकारी होने कारण वह उपादेय है। फिर भी नय का पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है। समन्वय की दृष्टि से काम लेना ही नयज्ञान की उपयोगिता है‒देखें स्याद्वाद ।
पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं‒या तो वे अर्थात्मक अर्थात् वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात् वाचकरूप हैं और या ज्ञानात्मक अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अत: उन-उनको विषय करने के कारण नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकार के हैं‒अर्थनय, शब्दनय व ज्ञाननय। मुख्य गौण विवक्षा के कारण वक्ता के अभिप्राय भी अनेक प्रकार के होते हैं, जिससे नय भी अनेक प्रकार के हैं। वस्तु के सामान्यांश अर्थात् द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक और उसके विशेषांश अर्थात् पर्याय को विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदों के भी आगे अनेकों उत्तरभेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तु के अंतरंगरूप या स्वभाव को विषय करने वाला निश्चय और उसके बाह्य या संयोगी रूप को विषय करने वाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणी में अभेद को विषय करने वाला निश्चय और उनमें कथंचित् भेद को विषय करने वाला व्यवहार कहलाता है। तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदों का यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु। उस सबका परिचय इस अधिकार में दिया जायेगा।
- नय सामान्य
- नय सामान्य निर्देश
- नय व निक्षेप में अंतर।‒देखें निक्षेप - 1
- नयों व निक्षेपों का परस्पर अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2, निक्षेप - 3
- नयाभास निर्देश।‒देखें नय - II।
- नय व निक्षेप में अंतर।‒देखें निक्षेप - 1
- आगम व अध्यात्म पद्धति।‒देखें पद्धति ।
- नय-प्रमाण संबंध
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद।
- नय व प्रमाण में कथंचित् भेद।
- श्रुतज्ञान में ही नय होती है, अन्य ज्ञानों में नहीं।
- प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना।
- प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है।
- प्रमाण अनेकांतग्राही है और नय एकांतग्राही।
- प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी।
- नय भी कथंचित् सकलादेशी है।‒देखें सप्तभंगी - 2।
- प्रमाण सकलवस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक।
- प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को।
- सकल नयों का युगपत् ग्रहण ही सकलवस्तु ग्रहण है।‒देखें अनेकांत - 2
- प्रमाण सापेक्ष ही नय सम्यक् है।‒देखें नय - II.10
- प्रमाण व नय सप्तभंगी‒देखें सप्तभंगी - 2।
- नय की कथंचित् हेयोपादेयता
- तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।
- नयपक्ष कथंचित् हेय है।
- नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं।
- नयपक्ष को हेय कहने का कारण प्रयोजन।
- परमार्थत: निश्चय व व्यवहार दोनों का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है।
- प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चय व्यवहार के विकल्प नहीं रहते।
- परंतु तत्त्वनिर्णयार्थ नय कार्यकारी है।
- आगम का अर्थ करने में नय का स्थान।‒देखें आगम - 3.3।
- तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।
- शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश
- शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।
- शब्दादि नयनिर्देश व लक्षण।
- वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है शब्दादिक को नय कहना उपचार है।
- शब्द में प्रमाण व नयपना।‒देखें आगम - 4.6।
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें आगम - 4.1।
- शब्दनय का विषय।‒देखें नय - III.1.9।
- शब्दनय की विशेषताएँ‒देखें नय - III.6-8।
- नय प्रयोग शब्द में नहीं भाव में होता है‒देखें स्याद्वाद /4।
- शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।
- अन्य अनेकों नयों का निर्देश
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।
- अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश।
- नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश।
- सामान्य-विशेष आदि धर्मोंरूप 47 नयों का निर्देश।
- अनंत नय होने संभव हैं।
- उपचरित नय‒देखें उपचार ।
- उपनय‒देखें नय - V.4.8।
- काल अकाल नय का समन्वय‒देखें नियति - 2।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय‒देखें चेतना - 3.8।
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।
- नय सामान्य निर्देश
- सम्यक् व मिथ्यानय
- नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।
- सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण।
- अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होती।
- अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या है।
- अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वह नय सम्यक् है।
- सर्व एकांत मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं। और सर्व नय अनेकांत के गर्भ में समाविष्ट है।‒देखें अनेकांत /2।
- जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है।
- सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या है।
- नयों के विरोध में अविरोध।‒देखें अनेकांत /5।
- नयों में परस्पर विधि निषेध।‒देखें सप्तभंगी - 5।
- सापेक्षता व मुख्यगौण व्यवस्था।‒देखें स्याद्वाद /3।
- नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।
- नैगम आदि सात नय निर्देश
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒देखें नय - I.1.3।
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग।
- इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विभाग का कारण।
- सातों में अर्थ, शब्द व ज्ञान नय विभाग।
- इनमें अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण।
- नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं है।
- पूर्व पूर्व का नय अगले अगले नय का कारण है।
- सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता।
- सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण।
- शब्दादि तीन नयों में परस्पर अंतर।
- नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒देखें नय - I.1.3।
- नैगमनय के भेद व लक्षण
- नैगम सामान्य का लक्षण‒(1. संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)
- संकल्पग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।
- द्वैतग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।
- नैगमनय के भेद।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण।
- भूत भावी वर्तमान नैगमनय के उदाहरण।
- पर्याय द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य का लक्षण।
- द्रव्य पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण‒
- नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण।
- न्याय वैशेषिक नैगमाभासी हैं।‒देखें अनेकांत /2/9।]]
- नैगम सामान्य का लक्षण‒(1. संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)
- नैगमनय निर्देश
- नैगमनय अर्थनय व ज्ञाननय है।‒देखें नय - III.1।
- नैगमनय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
- शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगमनय के पेट में समा जाती है।
- नैगम तथा संग्रह व व्यवहारनय में अंतर।
- नैगमनय व प्रमाण में अंतर।
- इसमें यथा संभव निक्षेपों का अंतर्भाव‒देखें निक्षेप - 3।
- संग्रहनय निर्देश
- संग्रहनय अर्थनय है।‒दे./III/1।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- इस नय के विषय की अद्वैतता।‒देखें नय - IV.2.3।
- दर्शनोपयोग व संग्रहनय में अंतर।‒देखें दर्शन - 2.10।
- वेदांती व सांख्यमती संग्रहनयाभासी हैं।‒देखें अनेकांत /2/9।
- संग्रहनय अर्थनय है।‒दे./III/1।
- व्यवहारनय निर्देश‒देखें नय - V.4।
- ऋजुसूत्रनय निर्देश
- इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक है।
- इसे कथंचित् द्रव्यार्थिक कहने का विधि निषेध।
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमानकाल का प्रमाण।
- व्यवहारनय व ऋजुसूत्र में अंतर।‒देखें नय - V.4/3।
- इसमें यथासंभव निक्षपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- शब्दनय निर्देश
- शब्दनय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- शब्द प्रयोग की भेद व अभेदरूप दो अपेक्षाएँ।‒देखें नय - III/1/9।
- अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।
- पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में अभेद मानता है।
- पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंगादि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता।
- ऋजुसूत्र व शब्दनय में अंतर।
- यह पर्यायार्थिक तथा व्यंजननय है।‒देखें नय - III/1।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- वैयाकरणी शब्द नयाभासी है।‒देखें अनेकांत /2/9।
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒देखें आगम - 4.1।
- शब्दनय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- समभिरूढनय निर्देश
- समभिरूढनय के लक्षण‒
- इस नय के विषय की एकत्वता।‒देखें नय - IV.3।
- शब्दप्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ।‒दे./III/1/9।2
- यद्यपि रूढ़िगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं।
- परंतु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं होते।
- शब्द वस्तु का धर्म नहीं है, तब उसके भेद से अर्थभेद कैसे हो सकता है? ‒देखें आगम - 4.4।
- यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें नय - III/1।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- समभिरूढनय के लक्षण‒
- वैयाकरणी समभिरूढ़ नयाभासी हैं।‒देखें अनेकांत /2/9।
- एवंभूत नय निर्देश
- तज्ज्ञान परिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है।
- अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद।
- इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं।
- इस नय में पदसमास संभव नहीं।
- इस नय में वर्णसमास तक भी संभव नहीं।
- वाच्यवाचक भाव का समन्वय।‒देखें आगम - 4.4।
- यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒देखें नय - III/1।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 3।
- वैयाकरणी एवंभूत नयाभासी हैं।‒देखें अनेकांत /2/9।
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय
- द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण।
- यह वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है।
- 3-6 द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता।
- द्रव्यार्थिक व प्रमाण में अंतर।‒देखें नय - III/3/4।
- द्रव्यार्थिक के तीन भेद नैगमादि।‒देखें नय - III।
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक में अंतर।‒देखें नय - V.4/3।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2।
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय के दो भेद‒शुद्ध व अशुद्ध।
- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का लक्षण।
- द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा इस नय के विषय की अद्वैतता।
- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता।‒देखें नय - V.3.4।
- पर्यायार्थिकनय सामान्य निर्देश
- पर्यायार्थिकनय का लक्षण।
- यह वस्तु के विशेषांश को एकत्वरूप से ग्रहण करता है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒देखें नय - III/5/7।
- वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒देखें नय - III/5/7।
- काल की अपेक्षा एकत्व विषयक उदाहरण
- भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता।
- किसी भी प्रकार का संबंध संभव नहीं।
- कारण कार्य भाव संभव नहीं‒
- यह नय सकल व्यवहार का उच्छेद करता है।
- पर्यायार्थिक का कथंचित् द्रव्यार्थिकपना।‒देखें नय - III/5।
- पर्यायार्थिक के चार भेद ऋजुसूत्रादि।‒देखें नय - III।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2।
- पर्यायार्थिकनय का लक्षण।
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक निर्देश
- अशुद्ध पर्यायार्थिकनय व्यवहारनय है।‒देखें नय - V.4।
- अशुद्ध पर्यायार्थिकनय व्यवहारनय है।‒देखें नय - V.4।
- द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश
- निश्चय व्यवहारनय
- निश्चयनय निर्देश
- निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।
- निश्चयनय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण।
- निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन
- निश्चयनय के भेद‒शुद्ध व अशुद्ध
- शुद्ध निश्चय के लक्षण व उदाहरण‒
- एकदेश शुद्ध निश्चयनय का लक्षण।
- शुद्ध, एकदेश शुद्ध व निश्चयसामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि।
- अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण।
- निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।
- निश्चयनय की निर्विकल्पता
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक के भेद हैं।
- निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है।
- निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते।
- शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है; अशुद्ध निश्चयनय तो व्यवहार है।
- उदाहरण सहित तथा सविकल्प सभी नये व्यवहार हैं।
- व्यवहार का निषेध ही निश्चय का वाच्य है।‒देखें नय - V.9.2।
- निश्चयनय की प्रधानता
- व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- व्यवहारनय सामान्य के कारण प्रयोजन।‒देखें नय - V.7।
- इसमें यथासंभव निक्षेपों का अंतर्भाव।‒देखें निक्षेप - 2।
- सद्भूत असद्भूत व्यवहार निर्देश
- सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- अनुपचरित या अशुद्ध सद्भूत व्यवहार निर्देश
- उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश
- असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश‒
- अनुपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश‒
- उपचरित असद्भूत व्यवहारनय निर्देश‒
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।
- विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।
- इस नय के कारण व प्रयोजन।
- उपचार नय संबंधी।‒देखें उपचार ।
- व्यवहारनय की कथंचित् गौणता
- व्यवहारनय असत्यार्थ है, तथा उसका हेतु।
- व्यवहारनय उपचारमात्र है।
- व्यवहारनय व्यभिचारी है।
- व्यवहारनय लौकिक रूढि है।
- व्यवहारनय अध्यवसान है।
- व्यवहारनय कथनमात्र है।
- व्यवहारनय साधकतम नहीं है।
- व्यवहारनय निश्चय द्वारा निषिद्ध है।‒देखें नय - V.9.2।
- व्यवहारनय सिद्धांतविरुद्ध तथा नयाभास है।
- व्यवहारनय का विषय सदा गौण होता है।
- शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं।
- व्यवहारनय का विषय निष्फल है।
- व्यवहारनय का आश्रय मिथ्यात्व है।
- तत्त्व निर्णय करने में लोकव्यवहार को विच्छेद होने का भय नहीं किया जाता।‒देखें निक्षेप - 3/3 तथा ‒देखें नय - III/6/10;IV/3/10।
- व्यवहारनय की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है (व्यवहार दृष्टि से यह सत्यार्थ है)।
- निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है।
- मंदबुद्धियों के लिए व्यवहार उपकारी है।
- व्यवहारनय निश्चयनय का साधक है।‒देखें नय - V.9.2।
- व्यवहारपूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान होना संभव है।
- व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं।
- तीर्थप्रवृत्ति की रक्षार्थ व्यवहारनय प्रयोजनीय है।‒देखें नय - V.8/4।
- व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय
- परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों हेय हैं।‒देखें नय - I.3।
- निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय
- निश्चय व्यवहार निषेध्यनिषेधक भाव का समन्वय।‒देखें नय - V.9.2।
- नयों में परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था।‒देखें स्याद्वाद /3।
- दोनों में साध्य साधनभाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता।
- दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन।
- दोनों की सापेक्षता के उदाहरण।
- इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय।‒देखें चेतना - 3.8।
- निश्चयनय निर्देश
- नय सामान्य
- नय सामान्य निर्देश
- नय सामान्य का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ‒
ध.१/१,१,१/ ३,४/१० उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दट्ठूण। अत्थं णयंति पच्चंतमिदि तदो ते णया भणिया।३। णयदि त्ति णयो भणिओ बहूहि गुण-पज्जएहि जं दव्वं। परिणामखेत्तकालं-तरेसु अविणट्ठसब्भावं।४।=उच्चारण किये अर्थ, पद और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है, इसलिए वे नय कहलाते हैं।३। (क.पा. १/१३-१४/२१०/गा.११८/२५९)। अनेक गुण और अनेक पर्यायोंसहित, अथवा उनके द्वारा, एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभावरूप से रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे नय कहते हैं।३।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति, कारयन्ति, साधयन्ति, निर्वर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपलम्भयन्ति, व्यञ्जयन्ति इति नय:।=जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं।
आ.प./९ नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नय:।=नाना स्वभावों से हटाकर वस्तु को एक स्वभाव में जो प्राप्त कराये उसे नय कहते हैं। (न.च.श्रुत./पृ.१) (न.च.वृत्ति/पृ.५२६) (नयचक्रवृत्ति/सूत्र ६) (न्यायावतार टीका/पृ.८२), (स्या.म./२८/३१०/१०)।
स्या.म./२७/३०५/२८ नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थ: प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नया:।=जिस नीति के द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते हैं। (स्या.म./२८/३०७/१५)।
- वक्ता का अभिप्राय
ति.प./१/८३ णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुसस हिदियभावत्थो।८३।=सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। (सि.वि./मू./१०/२/६६३)।
ध.१/१,१,१/ ११/१७ ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रह:।११। सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। लघीयस्त्रय/का ५२); (लघीयस्त्रय स्व वृत्ति/का.३०); (प्रमाण संग्रह/श्लो.८६); (क.पा.१/१३-१४/१६८/श्लोक ७५/२००) (ध.३/१,२,२/ १५/१८) (ध.९/४,१,४५/१६२/७) (पं.का./ता.वृ./४३/८६/१२)।
आ.प./९ ज्ञातुभिप्रायो वा नय:।=ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं।( न.च.वृ./१७४) (न्या.दी./३/८२/१२५)।
प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ.६७६ अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नय:।=प्रतिपक्षी अर्थात् विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है।
प्रमाणनय तत्त्वालंकार/७/१ (स्या.म./२८/३१६/२९ पर उद्धृत) प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय इति।=वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। (स्या.म./२८/३१०/१२)।
- एकदेश वस्तुग्राही
स.सि./१/३३/१४०/७ वस्तन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण: प्रयोगो नय:।=अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं। (ह.पु./५८/३९)।
सारसंग्रह से उद्धृत (क.पा.१/१३-१४/२१०/१)‒अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्युक्त्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय:।=अनन्तपर्यायात्मक वस्तु की किसी एक पर्याय का ज्ञान करते समय निर्दोष युक्ति की अपेक्षा से जो दोषरहित प्रयोग किया जाता है वह नय है। (ध.९/४,१,४५/१६७/२)।
श्लो.वा.२/१/६/४/३२१ स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नय: स्मृत:।४।=अपने को और अर्थ को एकदेशरूप से जानना नय का लक्षण माना गया है। (श्लो.वा.२/१/६/१७/३६०/११)।
न.च.वृ./१७४ वत्थुअंससंगहणं। तं इह णयं...।-)।=वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है। (न.च.वृ./१७२) (का.अ./मू./२६३)।
प्र.सा./ता.वृ./१८१/२४५/१२ क्स्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं।=वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है। (पं.का./ता.वृ./४६/८६/१२)।
का.अ./मू./२६४ णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं। तस्सेय विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं।२६४।=नाना धर्मों से युक्त भी पदार्थ के एक धर्म को ही नय कहता है, क्योंकि उस समय उस ही धर्म की विवक्षा है, शेष धर्म की विवक्षा नहीं है।
पं.का./पू./५०४ इत्युक्तलक्षणेऽस्मिन् विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे। तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नय:।=दो विरुद्धधर्मवाले तत्त्व में किसी एक धर्म का वाचक नय होता है।
और भी देखो‒पीछे निरुक्त्यर्थ में‒’आ-प’ तथा ‘स्या.म.’। तथा वक्तु: अभिप्राय में ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड’।
- प्रमाणगृहीत वस्तु का एकअंश ग्राही
आप्त.मी./१०६ सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधत:। स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नय:।१०६।=साधर्मी का विरोध न करते हुए, साधर्म्य से ही साध्य को सिद्ध करने वाला तथा स्याद्वाद से प्रकाशित पदार्थों की पर्यायों को प्रगट करने वाला नय है। (ध.९/४,१,४५/गा.५९/१६७) (क.पा.१/१३-१४/१७४/८३/२१०‒तत्त्वार्थभाष्य से उद्धृत)।
स.सि./१/६/२०/७ एवं ह्युक्तं प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय:।=आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है।
रा.वा./१/३३/१/९४/२१ प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नय:।=प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थ का विशेष प्ररूपण करने वाला नय है। (श्लो०वा.४/१/३३/श्लो.६/२१८)।
आ.प./९ प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थैकांशो नय:।=प्रमाण के द्वारा संगृहीत वस्तु के अर्थ के एक अंश को नय कहते हैं। (नयचक्र/श्रुत/पृ.२)। (न्या.दी./३/८२/१२५/७)।
प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१ से स्या.म./२८/३१६/२७ पर उद्धृत‒नीयते येन श्रुताख्यानप्रमाणविषयीकृतस्य अर्थस्य अंशस्तदितरांशौदासीन्यत: स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय: इति।=श्रुतज्ञान प्रमाण से जाने हुए पदार्थों का एक अंश जानकर अन्य अंशों के प्रति उदासीन रहते हुए वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं। (नय रहस्य/पृ.७१); (जैन तर्क/भाषा/पृ.२१) (नय प्रदीप/यशोविजय/पृ.९७)।
ध.१/१,१,१/८३/९ प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नय:।=प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गयी वस्तु के एक अंश में वस्तु का निश्चय करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। (ध.९/४,१,४५/१६३/१) (क.पा.१/१३-१४/१६८/१९९/४)।
ध.९/४,१,४५/६ तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकैरप्यभाणि‒प्रमाणव्यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवण: प्रणिधिर्य: स नय इति। प्रमाणव्यपाश्रयस्तत्परिणामविकल्पवशीकृतानां अर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवण: प्रणिधानं प्रणिधि: प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नय:।=प्रभाचन्द्र भट्टारक ने भी कहा है‒प्रमाण के आश्रित परिणामभेदों से वशीकृत पदार्थ विशेषों के प्ररूपण में समर्थ जो प्रयोग हो है वह नय है। उसी को स्पष्ट करते हैं‒जो प्रमाण के आश्रित है तथा उसके आश्रय से होने वाले ज्ञाता के भिन्न-भिन्न अभिप्रायों के आधीन हुए पदार्थविशेषों के प्ररूपण में समर्थ है, ऐसे प्रणिधान अर्थात् प्रयोग अथवा व्यवहार स्वरूप प्रयोक्ता का नाम नय है। (क.पा.१/१३-१४/१७५/२१०)।
स्या.म./२८/३१०/९ प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरमर्शो नय:।...प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थ:। =प्रमाण से निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश ज्ञान करने को नय कहते हैं। अर्थात् प्रमाण द्वारा निश्चय होने जाने पर उसके उत्तरकालभावी परामर्श को नय कहते हैं। - श्रुतज्ञान का विकल्प—
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.२७/३६७ श्रुतमूला नया: सिद्धा...।=श्रुतज्ञान को मूलकारण मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है। आ.प./९ श्रुतविकल्पो वा (नय:) =श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। (न.च.वृ./१७४) (का.अ./मू./२६३)।
- निरुक्त्यर्थ‒
- उपरोक्त लक्षणों का समीकरण
ध.९/४,१,४५/१६२/७ को नयो नाम। ज्ञातुरभिप्रायो नय:। अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थ:। प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशवस्त्वध्यवसाय: अभिप्राय:। युक्तित: प्रमाणात् अर्थपरिग्रह: द्रव्यपर्याययोरन्यतस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नय:। प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुन: द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् ।=प्रश्न‒नय किसे कहते हैं? उत्तर‒ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। प्रश्न‒अभिप्राय इसका क्या अर्थ है ? उत्तर‒प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है। (स्पष्ट ज्ञान होने से पूर्व तो) युक्ति अर्थात् प्रमाण से अर्थ के ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्यायों में से किसी एक को ग्रहण करने का नाम नय है। (और स्पष्ट ज्ञान होने के पश्चात्) प्रमाण से जानी हुई वस्तु के द्रव्य अथवा पर्याय में अर्थात् सामान्य या विशेष में वस्तु के निश्चय को नय कहते हैं, ऐसा अभिप्राय है। और भी देखें - नय III/२/२। (प्रमाण गृहीत वस्तु में नय प्रवृत्ति सम्भव है)
- नय के मूल भेदों के नाम निर्देश
त.सू./१/३३ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।=नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। (ह.पु./५८/४१), (ध.१/१,१,१/८०/५), (न.च.वृ./१८५), (आ.प./५); (स्या.म./२८/३१०/१५); (इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो नय/III )।
स.सि./१/३३/१४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।=उस (नय) के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। (स.सि./१/६/२०/९), (रा.वा./१/१/२/४/४), (रा.वा./१/३३/१/९४/२५), (ध.१/१,१,१/८३/१०); (ध.९/४,१,४५/१६७/१०), (क.पा.१/१३-१४/१७७/२११/४), (आ.प./५/गा.४), (न.च.वृ./१४८), (स.सा./आ./१३/क.८की टीका), (पं.का./त.प्र./४), (स्या.म./२८/३१७/१), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - नय / IV )।
आ.प./५/गा.४ णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं।=सब नयों के मूल दो भेद हैं‒निश्चय और व्यवहार (न.च.वृ./१८३), (इनके विशेष उत्तर भेद देखें - नय / V )।
का.अ./मू./२६५ सो च्चिय एक्को धम्मो वाचयसद्दो वि तस्स धम्मस्स। जं जाणदि तं णाणं ते तिण्णि वि णय विसेसा य।=वस्तु का एक धर्म अर्थात् ‘अर्थ’ इस धर्म का वाचक शब्द और उस धर्म को जानने वाला ज्ञान ये तीनों ही नय के भेद हैं। (इन नयों सम्बन्धी चर्चा देखें - नय / I / ४ )।
पं.ध./पू./५०५ द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्द्विधा च सोऽपि यथा।=द्रव्यनय और भावनय के भेद से नय दो प्रकार का है। (इन सम्बन्धी लक्षण देखें - नय / I / ४ )।
देखें - नय / I / ५ (वस्तु के एक-एक धर्म को आश्रय करके नय के संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेद हैं)।
- नयों के भेद प्रभेदों का चार्ट—
- द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तथा निश्चय व्यवहार ही मूल भेद हैं
ध.१/१,१,१/गा.५/१२ तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवायरणी। दव्वट्ठियो य पज्जयणयो य सेसा वियप्पा सि।५।=तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं। (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.१२/२२३), (ह.पु./५८/४०)।
ध.५/१,६,१/३/१० दुविहो णिद्देसो दव्वट्ठिय पजजववट्ठिय णयावलंबणेण। तिविहो णिद्देसो किण्ण होज्ज। ण तइजस्स णयस्स अभावा।=दो प्रकार का निर्देश है; क्योंकि वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने वाला है। प्रश्न‒तीन प्रकार का निर्देश क्यों नहीं होता है ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि तीसरे प्रकार का कोई नय ही नहीं है।
आ.प./५/गा.४ णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं। णिच्छयसाहणहेओ दव्वयपज्जत्थिया मुणह।४। =सर्व नयों के मूल निश्चय व व्यवहार ये दो नय हैं। द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक ये दोनों निश्चयनय के साधन या हेतु हैं। (न.च.वृ./१८३)।
- गुणार्थिक नय का निर्देश क्यों नहीं
रा.वा./५/३८/३/५०१/९ यदि गुणोऽपि विद्यते, ननु चोक्तम् तद्विषयस्तृतीयो मूलनय: प्राप्तनोतीति; नैष दोष:; द्रव्यस्य द्वावात्मानौ सामान्यं विशेषश्चेति। तन्न सामान्यमुत्सर्गोऽन्वय: गुण इत्यनर्थान्तरम् । विशेषो भेद: पर्याय इति पर्यायशब्द:। तत्र सामान्यविषयो नय: द्रव्यार्थिक:। विशेषविषय: पर्यायार्थिक:। तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते, न तद्विषयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति, विकलादेशत्वान्नयानाम् । तत्समुदयोऽपि प्रमाणगोचर: सकलादेशत्वात्प्रमाणस्य। =प्रश्न‒(द्रव्य व पर्याय से अतिरिक्त) यदि गुण नाम का पदार्थ विद्यमान है तो उसको विषय करने वाली एक तीसरी (गुणार्थिक नाम की) मूलनय भी होनी चाहिए ? उत्तर‒यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि द्रव्य के सामान्य और विशेष ये दो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थ शब्द हैं। विशेष, भेद और पर्याय ये पर्यायवाची (एकार्थ) शब्द हैं। सामान्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय है, और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्थिक। दोनों से समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य है। अत: गुण जब द्रव्य का ही सामान्यरूप है तब उसके ग्रहण के लिए द्रव्यार्थिक से पृथक् गुणार्थिक नय की कोई आवश्यकता नहीं है;क्योंकि, नय विकलादेशी है और समुदायरूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाण का विषय होता है। (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.८/२२०); (प्र.सा./त.प्र./११४)।
ध.५/१,६,१/३/११ तं पि कधं णव्वदे। संगहासंगहवदिरित्ततव्विसयाणुवलंभादो।=प्रश्न‒यह कैसे जाना कि तीसरे प्रकार का कोई नय नहीं है? उत्तर‒क्योंकि संग्रह और असंग्रह अथवा सामान्य और विशेष को छोड़कर किसी अन्य नय का विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता।
- नय सामान्य का लक्षण
- नय-प्रमाण सम्बन्ध
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद
ध.१/१,१,१/८०/९ कथं नयानां प्रामाण्यं। न प्रमाणकार्याणां नयानामुपचारत: प्रामाण्याविरोधात् ।=प्रश्न‒नयों में प्रमाणता कैसे सम्भव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि नय प्रमाण के कार्य हैं ( देखें - नय / II / २ ), इसलिए उपचार से नयों में प्रमाणता के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता।
स्या.म./२८/३०९/२१ मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्च अत्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षताख्यापनं तत् तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् ।=मुख्यता से तो प्रमाण को ही प्रमाणता (सत्यपना) है, परन्तु अनुयोगद्वार से प्रज्ञापना तक पहुँचने के लिए नयों को प्रमाण के समान कहा गया है। (अर्थात् सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत होने से नय भी उपचार से प्रमाण है।)
प.ध./पू./६७९ ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेष: प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो।=जिस प्रकार नय ज्ञानविशेष है उसी प्रकार प्रमाण भी ज्ञान विशेष है, अत: दोनों में वस्तुत: कोई भेद नहीं है।
- नय व प्रमाण में कथंचित् भेद
ध.९/४,१,४५/१६३/४ प्रमाणमेव नय: इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसङ्गात् ।=प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर नयों के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कहा जाये कि नयों का अभाव हो जाने दो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे देखे जाने वाले (जगत्प्रसिद्ध) एकान्त व्यवहार के (एक धर्म द्वारा वस्तु का निरूपण करने रूप व्यवहार के) लोप का प्रसंग आता है।
देखें - सप्तभंगी / २ (स्यात्कारयुक्त प्रमाणवाक्य होता है और उससे रहित नय-वाक्य)।
पं.ध./पू./५०७,६७९ ज्ञानविकल्पो नय इति तत्रेयं प्रक्रियापि संयोज्या। ज्ञानं ज्ञानं न नयो नयोऽपि न ज्ञानमिह विकल्पत्वात् ।५०७। उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुत:।६७९।=ज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं, इसलिए ज्ञान ज्ञान है और नय नय है। ज्ञान नय नहीं और नय ज्ञान नहीं। (इन दोनों में विषय की विशेषता से ही भेद हैं, वस्तुत: नहीं)।
- श्रुत प्रमाण में ही नय होती है अन्य ज्ञानों में नहीं
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.२४-२७/३६६ मतेरवधितो वापि मन:पर्ययतोपि वा। ज्ञातस्यार्थस्य नांशोऽस्ति नयानां वर्तंनं ननु।२४। नि:शेषदेशकालार्थागोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितम् ।२५। त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वृत्तित:। केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते।२६। परोक्षाकारतावृत्ते: स्पष्टत्वात् केवलस्य तु। श्रुतमूला नया: सिद्धा वक्ष्यमाणा: प्रमाणवत् ।२७।=प्रश्न‒(नयI/१/१/४ में ऐसा कहा गया है कि प्रमाण से जान ली गयी वस्तु के अंशों में नय ज्ञान प्रवर्तता है) किन्तु मति, अवधि व मन:पर्यय इन तीन ज्ञानों से जान लिये गये अर्थ के अंशों में तो नयों की प्रवृत्ति नहीं हो रही है, क्योंकि वे तीनों सम्पूर्ण देश व काल के अर्थों को विषय करने को समर्थ नहीं हैं, ऐसा विशेषरूप से निर्णीत हो चुका है। (और नयज्ञान की प्रवृत्ति सम्पूर्ण देशकालवर्ती वस्तु का समीचीन ज्ञान होने पर ही मानी गयी है‒ देखें - नय / II / २ )। उत्तर‒आपकी बात युक्त है और वह हमें इष्ट है। प्रश्न‒त्रिकालगोचर अशेष पदार्थों के अंशों में वृत्ति होने के कारण केवलज्ञान को नय का मूल मान लें तो? उत्तर‒यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अपने विषयों की परोक्षरूप से विकल्पना करते हुए ही नय की प्रवृत्ति होती है, प्रत्यक्ष करते हुए नहीं। किन्तु केवलज्ञान का प्रतिभास तो स्पष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष होता है। अत: परिशेष न्याय से श्रुतज्ञान को मूल मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध है।
- प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना
स.सि./१/६/२०/६ अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य पूर्वनिपात:।...कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् ।=सूत्र में ‘प्रमाण’ शब्द पूज्य होने के कारण पहले रखा गया है। नय प्ररूपणा का योनिभूत होने के कारण प्रमाण श्रेष्ठ है। (रा.वा./१/६/१/३३/४)
न.च./श्रुत/३२ न ह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् । ननु प्रमाणलक्षणो योऽसौ व्यवहार: स व्यवहारनिश्चयमनुभयं च गृह्णन्नप्यधिकविषयत्वात्कथं न पूज्यतमो। नैवं नयपक्षातीतमानं कर्तुमशक्यत्वात् । तद्यथा। निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवच्छेदनं न करोतीत्यन्ययोगव्यवच्छेदाभावे व्यवहारलक्षणभावक्रियां निरोद्धुमशक्त:। अत एव ज्ञानचैतन्ये स्थापयितुमशक्य एवात्मानमिति।=व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम है। (दोनों नयों की अपेक्षा प्रमाण पूज्य नहीं है)। प्रश्न‒प्रमाण ज्ञान व्यवहार को, निश्चय को, उभय को तथा अनुभय को विषय करने के कारण अधिक विषय वाला है। फिर भी उसको पूज्यतम क्यों नहीं कहते ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि इसके द्वारा आत्मा को नयपक्ष से अतीत नहीं किया जा सकता वह ऐसे कि‒निश्चय को ग्रहण करते हुए भी वह अन्य के मत का निषेध नहीं करता है, और अन्यमत निराकरण न करने पर वह व्यवहारलक्षण भाव व क्रिया को रोकने में असमर्थ होता है, इसीलिए यह आत्मा को चैतन्य में स्थापित करने के लिए असमर्थ रहता है।
- प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है—
प.मु./४/१,२ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय:।१। अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च।२। =सामान्य विशेषस्वरूप अर्थात् द्रव्य और पर्यायस्वरूप पदार्थ प्रमाण का विषय है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनुवृत्तप्रत्यय (सामान्य) और व्यावृत्तप्रत्यय (विशेष) होते हैं। तथा पूर्व आकार का त्याग, उत्तर आकार की प्राप्ति और स्वरूप की स्थितिरूप परिणामों से अर्थक्रिया होती है।
- प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही
स्व.स्तो./१०३ अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधन:। अनेकान्त: प्रमाणान्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नायात् ।१८।=आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्तरूप सिद्ध होता है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकान्तरूप सिद्ध होता है।
रा.वा./१६/७/३५/२८ सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यग्नेकान्त: प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात् ।=सम्यगेकान्त नय कहलाता है और सम्यगनेकान्त प्रमाण। नय विवक्षा वस्तु के एक धर्म का निश्चय कराने वाली होने से एकान्त है और प्रमाणविवक्षा वस्तु के अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होने के कारण अनेकान्त है। (न.दी./३/२५/१२९/१)। (स.भ.त./७४/४) (पं.ध./उ./३३४)।
ध.९/४,१,४५/१६३/५ किं च न प्रमाणं नय: तस्यानेकान्तविषयत्वात् । न नय: प्रमाणम्, तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्य नीरूपत्वतोऽवस्तुन: कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् । प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु हैं। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि, उसका एकान्त विषय है। और ज्ञान एकान्त को विषय करने वाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होने से अवस्तुस्वरूप है, अत: वह कर्म (ज्ञान का विषय) नहीं हो सकता। तथा नय अनेकान्त को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि, अवस्तु में वस्तु का आरोप नहीं हो सकता।
प्र.सा./त.प्र./परि.का अन्त‒प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयैर्निरूप्यमाणं...अनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मित्वाद्यथोदितैकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याख्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु...अनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्यविवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यं। =एक एक धर्म में एक एक नय, इस प्रकार अनन्त धर्मों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आत्मद्रव्य अमेचकस्वभाव वाला, एकधर्म में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक है। परन्तु युगपत् अनन्त धर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्य होने वाला एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मों को वस्तुरूप से पृथक् करना अशक्य होने से आत्मद्रव्य मेचकस्वभाववाला, अनन्त धर्मों में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक है।
- प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी
स.सि./१/६/२०/८ में उद्धृत‒सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति।=सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है। (रा.वा./१/६/३/३३/९), (पं.का./ता.वृ./१४/३२/१९) (और भी देखें - सप्तभंगी / २ ) (विशेष देखें - सकलादेश व विकलादेश )।
- प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक
न.च.वृ./२४७ इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खु जं हवे दव्वं। णयविसयं तस्संसं सियभणितं तं पि पुव्वुत्तं।२४७।=केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों की निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाण का विषय है और जो उसके अंश अर्थात् अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नय के विषय हैं। (विशेष दे. नय/I/१/१/३ )।
आ.प./९ सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं।=सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु ग्राहक प्रमाण है।
ध.९/४,१,४५/१६६/१ प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थ:। तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थ:। तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यत्वानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषा: पर्याया: तेषां प्रकर्षेण रूपक: प्ररूपक: निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थ:।=प्रकर्ष से अर्थात् संशयादि से रहित वस्तु का ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धर्मों को विषय करने वाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात् पर्यायें हैं, उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषों से रहित होकर निरूपण करने वाला नय है। (क.पा.१/१३-१४/१७४/२१०/३)।
पं.ध./पू./६६६ अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य। एकविकल्पो नयस्यादुभयविकल्प: प्रमाणमिति बोध:।६६६। तत्रोक्तं लक्षणमिह सर्वस्वग्राहकं प्रमाणमिति। विषयो वस्तुसमस्तं निरंशदेशादिभूरुदाहरणम् ।६७६।=ज्ञान अर्थाकार होता है। वही प्रमाण है। उसमें केवल सामान्यात्मक या केवल विशेषात्मक विकल्प नय कहलाता है और उभयविकल्पात्मक प्रमाण है।६६६। वस्तु का सर्वस्व ग्रहण करना प्रमाण का लक्षण है। समस्त वस्तु उसका विषय है और निरंशदेश आदि ‘भू’ उसके उदाहरण हैं।६७६।
- प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को
ध.९/४,१,४५/१६३ किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा। न प्रतिषेधमात्रम्, विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेत, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषयं विज्ञानम् ।...प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप: नयनिबन्धन:। तत: सकलो व्यवहारो नयाधीन:।=प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेध को नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थों की व्यावृत्ति किये बिना ज्ञान में संकरता का या अज्ञानरूपता का प्रसंग आता है, और विधि को जाने बिना ‘यह इससे भिन्न है’ ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाण में विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा होने पर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाण का विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करने वाला नहीं है।‒प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है। ( नय/V/९/४ ) (पं.ध./पू./६६५)।
न.च.वृ./७१ इत्थित्ताइसहावा सव्वा सब्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णओ गउणमुक्खभावेण।७१।=अस्तित्वादि जितने भी वस्तु के निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला प्रमाण है, और उन्हें गौण मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है।
न्या.दी./३/८५/१२९/१ अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतैकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य।=अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय है। (पं.ध./पू./६८०)। (और भी दे०‒ अनेकांत.३/१)।
- प्रमाण स्यात्पद युक्त होने से सर्व नयात्मक होता है
स्व.स्तो./६५ नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातव:। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या: प्रणता हितैषिण:।=जिस प्रकार रसों के संयोग से लोहा अभीष्ट फल का देने वाला बन जाता है, इसी तरह नयों में ‘स्यात्’ शब्द लगाने से भगवान् के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फल को देते हैं। (स्या.म./२८/३२१/३ पर उद्धृत)।
रा.वा./१/७/५/३८/१५ तदुभयसंग्रह: प्रमाणम् ।=द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दोनों नयों का संग्रह प्रमाण है। (पं.सं./पू./६६५)।
स्या.म./२८/३२१/१ प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकम् । स्याच्छब्दलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा च श्रीविमलनाथस्तवे श्रीसमन्तभद्र:।=सम्यक् प्रकार से अर्थ के निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण सर्वनय रूप होता है। क्योंकि नयवाक्यों में ‘स्यात्’ शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं। श्रीसमन्त स्वामी ने भी यही बात स्वयंभू स्तोत्र में विमलनाथ स्वामी की स्तुति करते हुए कही है। (देखें - ऊपर प्रमाण नं .१)।
- प्रमाण व नय के उदाहरण
पं.ध./पू./७४७-७६७ तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतम् । गुणपर्ययवद्द्रव्यं पर्यायार्थिकनयस्य पक्षोऽयम् ।७४७। यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्ययवत्तदेव नास्त्यन्यत् । गुणपर्ययवद्यदिदं तदेव तत्त्वं तथा प्रमाणमिति।७४८।=’तत्त्व अनिर्वचनीय है’ यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का पक्ष है और ‘द्रव्य गुणपर्यायवान है’ यह पर्यायार्थिक नय का पक्ष है।७४७। जो यह अनिर्वचनीय है वही गुणपर्यायवान है, कोई अन्य नहीं, और जो यह गुणपर्यायवान् है वही तत्त्व है, ऐसा प्रमाण का पक्ष है।७४८।
- नय के एकान्तग्राही होने में शंका
ध.९/४,१,४७/२३९/५ एयंतो अवत्थू कधं ववहारकारणं। एयंतो अवत्थूण संववहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविसईकओ, वत्थुत्तादो। कधं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि। वुच्चदे‒को एवं भणदि णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि। पमाणं पमाणविसईकयट्ठा च सयलसंववहाराणंकारणं। किंतु सव्वो संववहारो पमाणणिबंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्वसंववहारेसु गुण-पहाणभावोवलंभादो।=प्रश्न‒जब कि एकान्त अवस्तुस्वरूप है, तब वह व्यवहार का कारण कैसे हो सकता है ? उत्तर‒अवस्तुस्वरूप एकान्त संव्यवहार का कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाण से विषय किया गया अनेकान्त है, क्योंकि वह वस्तुस्वरूप है। प्रश्न‒यदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारों का कारण नय कैसे हो सकता है ? उत्तर‒इसका उत्तर कहते हैं‒कौन ऐसा कहता है कि नय सब संव्यवहारों का कारण है; या प्रमाण तथा प्रमाण से विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारों के कारण हैं? किन्तु प्रमाणनिमित्तक सब संव्यवहार नय स्वरूप हैं, ऐसा हम कहते हैं, क्योंकि सब संव्यवहार में गौणता प्रधानता पायी जाती है। विशेष‒ देखें - नय / II / २ ।
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद
- नय की कथंचित् हेयोपादेयता
- तत्त्व नय पक्षों से अतीत है
स.सा./मू./१४२ कम्मं बद्धमबद्धे जीवे एव तु जाण णयपक्खं। पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।१४२।=जीव में कर्म बद्ध है अथवा अबद्ध है इस प्रकार तो नयपक्ष जानो, किन्तु जो पक्षातिक्रान्त कहलाता है वह समयसार है। (न.च./श्रुत/२९/१)।
न.च./श्रुत/३२‒प्रत्यक्षानुभूतिर्नयपक्षातीत:।=प्रत्यक्षानुभूति ही नय पक्षातीत है।
- नय पक्ष कथंचित् हेय है
स.सा./आ./परि/क.२७० चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्य: प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमान:। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि।२७०।=आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्ति का ग्राहक एक-एक नय है इसलिए यदि नयों की एकान्त दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा का खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होने से स्याद्वादी, नयों का विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तु को अनेकशक्तिसमूहरूप सामान्यविशेषरूप सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है, इसमें कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें - अनेकान्त / ५ ), (पं.ध./पू./५१०)। - नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं
स.सा./मू./१४३ दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।=नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्ष को किंचित्मात्र भी ग्रहण नहीं करता। - नय पक्ष को हेय कहने का कारण व प्रयोजन
स.सा./आ./१४४/क.९३-९५ आक्रामन्नविकल्पभावनचलं पक्षैर्नयानां विना, सारो य: समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान: स्वयम् । विज्ञानैकरस: स एष भगवान्पुण्य: पुराण: पुमान्, ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।९३। दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो, दूरादेव विवकेनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् । विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्, आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।९४। विकल्पक: परं कर्ता विकल्प: कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।९५।=नयों के पक्षों से रहित अचल निर्विकल्प भाव को प्राप्त होता हुआ, जो समय का सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार, जो कि आत्मलीन पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, वह विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, पवित्र पुराण पुरुष है। उसे चाहे ज्ञान कहो या दर्शन वह तो यही (प्रत्यक्ष) ही है, अधिक क्या कहें ? जो कुछ है, सो यह एक ही है।९३। जैसे पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढाल वाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बल पूर्वक मोड़ दिया जाये, तो फिर वह पानी, पानी को पाने के लिए समूह की ओर खेंचता हुआ प्रवाह-रूप होकर अपने समूह में आ मिलता है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था। उसे दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया। इसलिए केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभव में आता है ऐसा वह आत्मा, आत्मा को आत्मा में खींचता हुआ, सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है।९४। (स.सा./आ./१४४)। विकल्प करने वाला ही केवल कर्ता है, और विकल्प ही केवल कर्म हैं, जो जीव विकल्प सहित है, उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता।९५।
नि.सा./ता.वृ./४८/क.७२ शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं, शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं। इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।७२।=शुद्ध अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध हैं। इस प्रकार परमागम के अतुल अर्थ को, सारासार के विचार वाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं। स.सा./ता.वृ./१४४/२०२/१३ समस्तमतिज्ञानविकल्परहित: सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित: समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थै: पुरुषैर्दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत: कारणात् नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञां लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति।=समस्त मतिज्ञान के विकल्पों से रहित होकर बद्धाबद्ध आदि नयपक्षपात से रहित समयसार का अनुभव करके ही, क्योंकि, निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इसलिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञा को प्राप्त होता है, बद्ध या अबद्ध आदि व्यपदेश को प्राप्त नहीं होता। (स.सा./ता.वृ./१३/३२/७)।
पं.ध./पू./५०६ यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थ:। नयतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ।५०६।=अथवा ज्ञान के विकल्प का नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान के विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय ही, परन्तु ज्ञेय के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान का विकल्प मात्र है। स.सा./पं.जयचन्द/१२/क.६ भाषार्थ‒यदि सर्वथा नयों का पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है। - परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों ही का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है
स.सा./आ./१४२ यस्तावज्जीवे बद्धं कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्धं कर्मेति एकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति। यस्तु जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति। य: पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिक्रामति। ततो य एव समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति। य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति।८।=’जीव में कर्म बन्धा है’ जो ऐसा एक विकल्प करता है, वह यद्यपि ‘जीव में कर्म नहीं बन्धा है’ ऐसे एक पक्ष को छोड़ देता है, परन्तु विकल्प को नहीं छोड़ता। जो ‘जीव में कर्म नहीं बन्धा है’ ऐसा विकल्प करता है, वह पहले ‘जीव में कर्म बन्धा है’ इस पक्ष को यद्यपि छोड़ देता है, परन्तु विकल्प को नहीं छोड़ता। जो ‘जीव में कर्म कथंचित् बन्धा है और कथंचित् नहीं भी बन्धा है’ ऐसा उभयरूप विकल्प करता है, वह तो दोनों ही पक्षों को नहीं छोड़ने के कारण विकल्प को नहीं छोड़ता है। (अर्थात् व्यवहार या निश्चय इन दोनों में से किसी एक नय का अथवा उभय नय का विकल्प करने वाला यद्यपि उस समय अन्य नय का पक्ष नहीं करता पर विकल्प तो करता ही है), समस्त नयपक्ष का छोड़ने वाला ही विकल्पों को छोड़ता है और वही समयसार का अनुभव करता है।
पं.ध./पू./६४५-६४८ ननु चैवं परसमय: कथं स निश्चयनयावलम्बी स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य:।६४५।=प्रश्न‒व्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्यरूप से भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है।६४५। उत्तर‒(उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनों नयों को विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है)।६४६-६४८। - प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चयव्यवहार के विकल्प नहीं रहते
न.च.वृ./२६६ तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण। णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहओ जम्हा।=तत्त्वान्वेषण काल में ही युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा आत्मा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय वे विकल्प नहीं होते, क्योंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है। न.च./श्रुत/३२ एवमात्मा यावद्व्यवहारनिश्चयाभ्यां तत्त्वानुभूति: तावत्परोक्षानुभूति:। प्रत्यक्षानुभूति: नयपक्षातीत:।=आत्मा जब तक व्यवहार व निश्चय के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है तब तक उसे परोक्ष अनुभूति होती है, प्रत्यक्षानुभूति तो नय पक्षों से अतीत है।
स.सा./आ./१४३ तथा किल य: व्यवहारनिश्चयनयपक्षयो:... परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुकतया स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु...चिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् ...समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कथंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्य: परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र: समयसार:।=जो श्रुतज्ञानी, पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, व्यवहार व निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा, अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होने से, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुआ होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तव में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है। पु.सि.उ./८ व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ:। प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्य:।=जो जीव व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् उभय नय के पक्ष से अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेश के सकल फल को प्राप्त होता है।
स.सा./ता.वृ./१४२ का अन्तिम वाक्य/१९९/११ समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नयद्वयात्मिका वर्तते, बुद्धतत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हेयोपादेयतत्त्वे तु विनिश्चित्य नयद्वयात्, त्यक्त्वा हेयमुपादेयेऽवस्थानं साधुसम्मतं।=तत्त्व के व्याख्यानकाल में जो बुद्धि निश्चय व व्यवहार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्व में स्थित उस पुरुष की नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनों नयों से हेय व उपादेय तत्त्व का निर्णय करके हेय को छोड़ उपादेय में अवस्थान पाना ही साधुसम्मत है। - परन्तु तत्त्व निर्णयार्थ नय कार्यकारी है
त.सू./१/६ प्रमाणनयैरधिगम:।=प्रमाण और नय से पदार्थ का ज्ञान होता है। ध.१/१,१,१/गा.१०/१६ प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते। युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ।१०।=जिस पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा नयों के द्वारा या निक्षेपों के द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त होते हुए भी अयुक्त और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त की तरह प्रतीत होता है।१०। (ध.३/१,२,१५/गा.६१/१२६), (ति.प./१/८२)
ध.१/१,१,१/गा.६८-६९/९१ णत्थि णएहिं विहूणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्हि। तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धंतिया होंति।६८। तम्हा अहिगय सुत्तेण अत्थसंपायणम्हि जइयव्वं। अत्थ गई वि य णयवादगहणलीणा दुरहियम्मा।६९।=जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है। इसलिए जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं वे सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समझने चाहिए।६८। अत: जिसने सूत्र अर्थात् परमागम को भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थ संपादन में अर्थात् नय और प्रमाण के द्वारा पदार्थ का परिज्ञान करने में, प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि पदार्थों का परिज्ञान भी नयवादरूपी जंगल में अन्तर्निहित है अतएव दुरधिगम्य है।६९। क.पा.१/१३-१४/१७६/गा.८५/२११ स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद्भावनां श्रेयोऽपदेश:।८५।=यह नय, पदार्थों का जैसा का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है। (ध.९/४,१,४५/१६६/९)।
ध.१/१,१,१/८३/९ नयैर्विना लोकव्यवहारानुपपत्तेर्नया उच्यन्ते।=नयों के बिना लोक व्यवहार नहीं चल सकता है। इसलिए यहाँ पर नयों का वर्णन करते हैं। क.पा.१/१३-१४/१७४/२०९/७ प्रमाणादिव नयवाक्याद्वस्त्ववगममवलोक्य प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगम: इति प्रतिपादितत्वात् ।=जिस प्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है, उसी प्रकार नय से भी वस्तु का बोध होता है, यह देखकर तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नयों से वस्तु का बोध होता है, इस प्रकार प्रतिपादन किया है।
न.च.वृ./गा.नं. जम्हा णयेण ण विणा होइ णरस्स सियवायपडिवत्ती। तम्हा सो णायव्वो एयन्तं हंतुकामेण।१७५। झाणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे णियमा। जो ण विजाणइ वत्थुं पमाणणयणिच्छयं किच्चा।१७९। णिक्खेव णयपमाणं णादूणं भावयंति ते तच्चं। ते तत्थतच्चमग्गेलहंति लग्गा हु तत्थयं तच्चं।२८१।=क्योंकि नय ज्ञान के बिना स्याद्वाद की प्रतिपत्ति नहीं होती, इसलिए एकान्त बुद्धि का विनाश करने की इच्छा रखने वालों को नय सिद्धान्त अवश्य जानना चाहिए।१७५। जो प्रमाण व नय द्वारा निश्चय करके वस्तु को नहीं जानता, वह ध्यान की भावना से भी आराधक कदापि नहीं हो सकता।१७९। जो निक्षेप नय और प्रमाण को जानकर तत्त्व को भाते हैं, वे तथ्य तत्त्वमार्ग में तत्थतत्त्व अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं।१८१। न.च./श्रुत./३६/१० परस्परविरुद्धधर्माणामेकवस्तुन्यविरोधसिद्धयर्थं नय:।=एक वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक धर्मों में अविरोध सिद्ध करने के लिए नय होता है। - सम्यक् नय ही कार्यकारी है, मिथ्या नहीं
न.च./श्रुत./पृ.६३/११ दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वार्थिकाहिता:। स्वार्थिकास्तद्विपर्यस्ता नि:कलङ्कस्तथा यत:।१।=दुर्नयरूप एकान्त में आरूढ भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं है। उससे विपरीत अर्थात् सुनय के आश्रित निष्कलंक तथा शुद्धभाव ही कार्यकारी है।
का.अ./मू./२६६ सयलववहारसिद्धि सुणयादो होदि।=सुनय से ही समस्त संव्यवहारों की सिद्धि होती है। (विशेष के लिए देखें - ध .९/४,१,४७/२३९/४)। - निरपेक्ष नय भी कथंचित् कार्यकारी है
स.सि./१/३३/१४६/६ अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य।=(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक् है, निरपेक्ष नहीं, जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्य का उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जाने पर शंकाकार कहता है।) प्रश्न‒निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिक में तो शक्ति की अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नय में ऐसा नहीं है; अत: दृष्टान्त विषम है)। उत्तर‒यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयों के विषय में भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शन के हेतु रूप से परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्त का दार्ष्टान्त के साथ साम्य ही है। (रा.वा./१/३३/१२/९९/२६) - नय पक्ष की हेयोपादेयता का समन्वय
पं.ध./पू./५०८ उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प: स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:।=जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदय को प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष) स्वयं अस्त को प्राप्त हो जाता है। और भी दे. नय/I/३/६ प्रत्यक्षानुभूति के समय नय विकल्प नहीं होते।
- तत्त्व नय पक्षों से अतीत है
- शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश
- शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं
श्लो.वा./२/१/५/६८/२७८/३३ में उद्धृत समन्तभद्र स्वामी का वाक्य‒बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचका:।=जगत् के व्यवहार में कोई भी पदार्थ बुद्धि (ज्ञान) शब्द और अर्थ इन तीन भागों में विभक्त हो सकता है। रा.वा./४/४२/१५/२५६/२५ जीवार्थो जीवशब्दो जीवप्रत्यय: इत्येतत्त्रितयं लोके अविचारसिद्धम् ।=जीव नामक पदार्थ, ‘जीव’ यह शब्द और जीव विषयक ज्ञान ये तीन इस लोक में अविचार सिद्ध हैं अर्थात इन्हें सिद्ध करने के लिए कोई विचार विशेष करने की आवश्यकता नहीं। (श्लो.वा.२/१/५/६८/२७८/१६)।
पं.का./ता.वृ./३/९/२४ शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिधाभिधेयतां समयशब्दस्य...।=शब्द, ज्ञान व अर्थ ऐसे तीन प्रकार से भेद को प्राप्त समय अर्थात् आत्मा नाम का अभिधेय या वाच्य है। - शब्दादि नय निर्देश व लक्षण
रा.वा./१/६/४/३३/११ अधिगमहेतुर्द्विविध: स्वाधिगमहेतु: पराधिगमहेतुश्च। स्वाधिगमहेतुर्ज्ञानात्मक: प्रमाणनयविकल्प:, पराधिगमहेतु: वचनात्मक:।=पदार्थों का ग्रहण दो प्रकार से होता है‒स्वाधिगम द्वारा और पराधिगम द्वारा। तहाँ स्वाधिगम हेतुरूप प्रमाण व नय तो ज्ञानात्मक है और पराधिगम हेतुरूप वचनात्मक है। रा.वा./१/३३/८/६८/१० शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्द:।८। उच्चरित: शब्द: कृतसंगीते: पुरुषस्य स्वाभिधेये प्रत्ययमादधाति इति शब्द इत्युच्यते।=जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है, उसे शब्दनय कहते हैं। जिस व्यक्ति ने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध कराने वाला शब्द होता है। (स्या.म./२८/३१३/२९)।
ध.१/१,१,१/८६/६ शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवण: शब्दनय:।=शब्द को ग्रहण करने के बाद अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ शब्दनय है। ध.१/१,१,१/८६/१ तत्रार्थव्यञ्जनपर्यायैर्विभिन्नलिङ्गसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहभेदैरभिन्नं वर्तमानमात्रं वस्त्वध्यवस्यन्तोऽर्थनया:, न शब्दभेदनार्थभेद इत्यर्थ:। व्यञ्जनभेदेन वस्तुभेदाध्यवसायिनो व्यञ्जननया:। =अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय से भेदरूप और लिंग, संख्या, काल, कारक और उपग्रह के भेद से अभेदरूप केवल वर्तमान समयवर्ती वस्तु के निश्चय करने वाले नयों को अर्थ नय कहते हैं, यहाँ पर शब्दों के भेद से अर्थ में भेद की विवक्षा नहीं होती। व्यंजन के भेद से वस्तु में भेद का निश्चय करने वाले नय को व्यंजन नय कहते हैं।
नोट‒(शब्दनय सम्बन्धी विशेष‒ देखें - नय / III / ६ -८)। क.प्रा.१/१३-१४/१८४/२२२/३ वस्तुन: स्वरूपं स्वधर्मभेदेन भिन्दानो अर्थनय:, अभेदको वा। अभेदरूपेण सर्वं वस्तु इयर्ति एति गच्छति इत्यर्थनय:।=वाचकभेदेन भेदको व्यञ्जननय:।=वस्तु के स्वरूप में वस्तुगत धर्मों के भेद से भेद करने वाला अथवा अभेद रूप से (उस अनन्त धर्मात्मक) वस्तु को ग्रहण करने वाला अर्थनय है तथा वाचक शब्द के भेद से भेद करने वाला व्यंजननय है।
न.च.वृ./२१४ अहवा सिद्धे सद्दे कीरइ जं किंपि अत्थववहरणं। सो खलु सद्दे विसओ देवो सद्देण जह देवो।२१४।=व्याकरण आदि द्वारा सिद्ध किये गये शब्द से जो अर्थ का ग्रहण करता है सो शब्दनय है, जैसे‒‘देव’ शब्द कहने पर देव का ग्रहण करना। - वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है, शब्दादि को नय कहना उपचार है।
ध.९/४,१,४५/१६४/५ प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारत: प्रमाणनयौ, ताभ्यामुत्पन्नबोधौ विधिप्रतिषेधात्मकवस्तुविषयत्वात् प्रमाणतामदधानावपि कार्ये कारणोपचारत: प्रमाणनयावित्यस्मिन् सूत्रे परिगृहीतौ।=प्रमाण और नय से उत्पन्न वाक्य भी उपचार से प्रमाण और नय हैं, उन दोनों (ज्ञान व वाक्य) से उत्पन्न अभय बोध विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणता को धारण करते हुए भी कार्य में कारण का उपचार करने से नय है। (पं.ध./पू./५१३)।
का.अ./टी./२६५ ते त्रयो नयविशेषा: ज्ञातव्या:। ते के। स एव एको धर्म: नित्योऽनित्यो वा... इत्याद्येकस्वभाव: नय:। नयग्राह्यत्वात् इत्येकनय:।...तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नय: कथ्यते। ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात् इति द्वितीयो वाचकनय: तं नित्याद्येकधर्मं जानाति तत् ज्ञानं तृतीयो नय:। सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्, तदेकदेशग्राहको नय:, इतिवचनात् ।=नय के तीन रूप हैं‒अर्थरूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप। वस्तु का नित्य अनित्य आदि एकधर्म अर्थरूपनय है। उसका प्रतिपादक शब्द शब्दरूपनय है। यहाँ ज्ञानरूप कारण में शब्दरूप कार्य का तथा ज्ञानरूप कार्य में शब्दरूप कारण का उपचार किया गया है। उसी नित्यादि धर्म को जानता होने से तीसरा वह ज्ञान भी ज्ञाननय है। क्योंकि ‘सकल वस्तु ग्राहक ज्ञान प्रमाण है और एकदेश ग्राहक ज्ञान नय है, ऐसा आगम का वचन है।
- तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.९६-९७/२८८ सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने। स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननया: स्थिता:।९६। वैधीयमानवस्त्वंशा: कथ्यन्तेऽर्थ नयाश्च ते। त्रैविध्यं व्यवतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावत:।९७।=श्रोताओं के प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करने पर तो सभी नय शब्दनय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करने पर सभी नय स्वार्थप्रकाशी होने से ज्ञाननय हैं।९६। ‘नीयतेऽनेन इति नय:’ ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय ज्ञाननय हो जाते हैं। और ‘नीयते ये इति नय:’ ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय अर्थनय हो जाते हैं, क्योंकि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूप से ये नय तीन प्रकार से व्यवस्थित होते हैं। (और भी दे. नय/III/१/४)।
नोट‒अर्थनयों व शब्दनयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता (दे. नय/III/१/७ )।
- शब्दनय का विषय
ध.९/४,१,४५/१८६/७ पज्जवट्ठिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेतकरणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो। कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दवववहारो। अणप्पिदअत्थगयभेयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो।=पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणक्षयी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषता से संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्यवाचक भेद का अभाव है। (विशेष दे. नय/IV/३/८/५) प्रश्न–तो फिर तीनों ही शब्दनयों में शब्द का व्यवहार कैसे होता है? उत्तर–अर्थगत भेद की अप्रधानता और शब्द निमित्तक भेद की प्रधानता रखने वाले उक्त नयों के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे.निक्षेप/३/६)।
दे. नय/III/१/९ (शब्दनयों में दो अपेक्षा से शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है‒शब्दभेद से अर्थ में भेद करने की अपेक्षा और अर्थ भेद होने पर शब्दभेद की अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहार; तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थों का वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार)।
दे. नय/III/६ , ७ , ८ (तहां शब्दनय केवल लिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादि वाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्था में पदार्थ को एक ही नाम से पुकारकर अभेद करता है। और एवंभूतनय क्रियापरिणति के अनुसार अर्थ भेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है। यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तक को स्वीकार नहीं करता)।
दे.आगम/४/४ (यद्यपि यहाँ पदसमास आदि की सम्भावना न होने से शब्द व वाक्यों का होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होने वाले वर्णों व पदों से उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रम से रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है)।
- शब्दादि नयों के उदाहरण
ध.१/१,१,१११/३४८/१० शब्दनयाश्रयणे क्रोधकषाय इति भवति तस्य शब्दपृष्ठतोऽर्थप्रतिपत्तिप्रवणत्वात् । अर्थनयाश्रयणे क्रोधकषायीति स्याच्छब्दोऽर्थस्य भेदाभावात् ।=शब्दनय का आश्रय करने पर ‘क्रोध कषाय’ इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं, क्योंकि शब्दनय शब्दानुसार अर्थज्ञान कराने में समर्थ है। अर्थनय का आश्रय करने पर ‘क्रोध कषायी’ इत्यादि प्रयोग होते हैं, क्योंकि इस नय की दृष्टि में शब्द से अर्थ का कोई भेद नहीं है।
पं.ध./पू./५१४ अथ तद्यथा यथाऽग्नेरौष्ण्यं धर्मं समक्षतोऽपेक्ष्य। उष्णोऽग्निरिति वागिह तज्ज्ञानं वा नयोपचार: स्यात् ।५१४।=जैसे अग्नि के उष्णता धर्मरूप ‘अर्थ’ को देखकर ‘अग्नि उष्ण है’ इत्याकारक ज्ञान और उस ज्ञान का वाचक ‘उष्णोऽग्नि:’ यह वचन दोनों ही उपचार से नय कहलाते हैं।
- द्रव्यनय व भावनय निर्देश
पं.ध./पू./५०५ द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्द्विधा च सोऽपि यथा। पौद्गलिक: किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुण:।५०५।=द्रव्यनय और भावनय के भेद से नय दो प्रकार है, जैसे कि निश्चय से पौद्गलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है, तथा जीव का ज्ञान गुण भावनय कहलाता है। अर्थात् उपरोक्त तीन भेदों में से शब्दनय तो द्रव्यनय है और ज्ञाननय भावनय है।
- शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं
- अन्य अनेकों नयों का निर्देश
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नयों का निर्देश
स.सि./५/३९/३१२/१० अणोरप्येकप्रदेशस्य पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयापेक्षयोपचरकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्त:।
स.सि./२/६/१६०/२ पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया योऽसौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते।
स.सि./१०/९/पृष्ठ/पंक्ति भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि:। (४७१/१२)। प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति। भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्यीर्जात: सिध्यति विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमादुषमायां अन्त्यभागे संहरणत: सर्वस्मिन्काले। (४७२/१)। भूतपूर्वनयापेक्षया तु...क्षेत्रसिद्धा द्विविधा‒जन्मत: संहरणतश्च। (४७३/६)।=पूर्व और उत्तरभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से उपचार कल्पना द्वारा एकप्रदेशी भी अणु को प्रदेश प्रचय (बहुप्रदेशी) कहा है। पूर्वभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा से उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी शुक्ललेश्या को औदयिकी कहा है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित थी वही यह है। भूतग्राहिनय की अपेक्षा जन्म से १५ कर्मभूमियों में और संहरण की अपेक्षा सर्व मनुष्यक्षेत्र से सिद्धि होती है। वर्तमानग्राही नय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता है। भूत प्रज्ञापन नय की अपेक्षा जन्म से सामान्यत: उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में सिद्ध होता है, विशेष की अपेक्षा सुषमादुषमा के अन्तिम भाग में और संहरण की अपेक्षा सब कालों में सिद्ध होता है। भूतपूर्व नय की अपेक्षा से क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार है‒जन्म से व संहरण से। (रा.वा./१०/९); (त.सा./८/४२)।
रा.वा./१०/९/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति (उपरोक्त नयों का ही कुछ अन्य प्रकार निर्देश किया है)‒वर्तमान विषय नय (५/६४६/३२); अतीतगोचरनय (५/६४६/३३); भूत विषय नय (५/६४७/१) प्रत्युत्पन्न भावप्रज्ञापन नय (१४/६४८/२३)...
क.पा.१/१३-१४/२१७/२७०/१ भूदपुव्वगईए आगमववएसुववत्तीदो।=जिसका आगमजनित संस्कार नष्ट हो गया है ऐसे जीव में भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा आगम संज्ञा बन जाती है। गो.जी./मू./५३३/९२९ अट्ठकसाये लेस्या उच्चदि सा भूदपुव्वगदिणाया।=उपशान्त कषाय आदिक गुणस्थानों में भूतपूर्वन्याय से लेश्या कही गयी है।
द्र.सं./टी./१४/४८/१० अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् । परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण, भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।=अन्तरात्मा की अवस्था में अन्तरात्मा भूतपूर्व न्याय से घृत के घट के समान और परमात्मा का स्वरूप शक्तिरूप से तथा भावीनैगम नय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी जानना चाहिए। नोट‒काल की अपेक्षा करने पर नय तीन प्रकार की है‒भूतग्राही, वर्तमानग्राही और भावीकालग्राही। उपरोक्त निर्देशों में इनका विभिन्न नामों में प्रयोग किया गया है। यथा‒- पूर्वभाव प्रज्ञापन नय, भूतग्राही नय, भूत प्रज्ञापन नय, भूतपूर्व नय, अतीतगोचर नय, भूतविषय नय, भूतपूर्व प्रज्ञापननय, भूतपूर्व न्याय आदि।
- उत्तरभावप्रज्ञापननय, भाविनैगमनय
- प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय, वर्तमानविषयनय, प्रत्युत्पन्न भाव प्रज्ञापन नय, इत्यादि। तहाँ ये तीनों काल विषयक नयें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावि नयें तो द्रव्यार्थिकनय में तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक में। अथवा नैगमादि सात नयों में गर्भित हो जाती हैं–भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुसूत्रादि चार नयों में। अथवा नैगम व ऋजुसूत्र इन दो में गर्भित हो जाती हैं‒भूत व भावि नयें तो नैगमनय में और वर्तमाननय ऋजुसूत्र में। श्लोक वार्तिक में कहा भी है‒
श्लो.वा.४/१/३३/३ ऋजुसूत्रनय: शब्दभेदाश्च त्रय, प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिण:। शेषा नया उभयभावविषया:। =ऋजुसूत्र नय को तथा तीन शब्दनयों को प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष तीन नयों को प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी। (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानग्राही दो प्रकार की हैं‒एक अर्ध निष्पन्न में निष्पन्न का उपचार करने वाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमान के एक समयमात्र को सत्रूप से अंगीकार करने वाली। तहाँ पहली तो वर्तमान नैगम नय है और दूसरी सूक्ष्म ऋजुसूत्र। विशेष के लिए देखो आगे नय/III में नैगमादि नयों के लक्षण भेद व उदाहरण)।
- अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश
प्र.सा./त.प्र./परि.नय नं.३-९ अस्तित्वनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्ववत् ।३। नास्तित्वनयेनानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवर्त्यसंहितावस्थालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्नास्तित्ववत् ।४। अस्तित्वनास्तित्वनयेन...प्राक्तनविशिखवत् क्रमत: स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्वनास्तित्ववत् ।५। अवक्तव्यनयेन ...प्राक्तनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्तव्यम् ।६। अस्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् अस्तित्ववदवक्तव्यम् ।७। नास्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् ...नास्तित्ववदवक्तव्यम् ।८। अस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यनयेन...प्राक्तनविशिखवत् ...अस्तित्वनास्तित्ववदवक्तव्यम् ।९।=- आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्यक्षेत्र काल व भाव से अस्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा लोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा त्यंचा और धनुष के मध्य में निहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में रहे हुए और भाव की अपेक्षा लक्ष्योन्मुख बाण का अस्तित्व है।३। (पं.ध./पू./७५६)
- आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से परद्रव्य क्षेत्र काल व भाव से नास्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा अलोहमयी, क्षेत्र की अपेक्षा प्रत्यंचा और धनुष के बीच में अनिहित, काल की अपेक्षा सन्धान दशा में न रहे हुए और भाव की अपेक्षा अलक्ष्योन्मुख पहले वाले बाण का नास्तित्व है, अर्थात् ऐसे किसी बाण का अस्तित्व नहीं है।४। (प.ध./पू./७५७)
- आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्व नय से पूर्व के बाण की भाँति ही क्रमश: स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव से अस्तित्व नास्तित्ववाला है।५।
- आत्मद्रव्य अवक्तव्य नय से पूर्व के वाण की भाँति ही युगपत् स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से अवक्तव्य है।६।
- आत्म द्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति (पहले अस्तित्व रूप और पीछे अवक्तव्य रूप देखने पर) अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।७।
- आत्मद्रव्य नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भाँति ही (पहले नास्तित्वरूप और पीछे अवक्तव्यरूप देखने पर) नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है।८।
- आत्मद्रव्य अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य नय से पूर्व के बाण की भांति ही (क्रम से तथा युगपत् देखने पर) अस्तित्व व नास्तित्व वाला अवक्तव्य है।९। (विशेष दे.सप्तभंगी)।
- नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश
प्र.सा./त.प्र./परि./नय नं.१२-१५ नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्शि।१२। स्थापनानयेन मूर्तित्ववत्सकलपुद्गलावलम्बि।१३। द्रव्यनयेन माणवकश्रेष्ठिश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्भासि।१४। भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदात्वपर्यायोल्लासि।१५।=आत्मद्रव्य नाम नय से, नाम वाले (किसी देवदत्त नामक व्यक्ति) की भांति शब्दब्रह्म को स्पर्श करने वाला है; अर्थात् पदार्थ को शब्द द्वारा कहा जाता है।१२। आत्मद्रव्य स्थापनानय मूर्तित्व की भांति सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करने वाला है, (अर्थात् आत्मा की मूर्ति या प्रतिमा काष्ठ पाषाण आदि में बनायी जाती है)।१३। आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक सेठ की भांति और श्रमण राजा की भांति अनागत व अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है। (अर्थात् वर्तमान में भूत या भावि पर्याय का उपचार किया जा सकता है।१४। आत्मद्रव्य भावनय से पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की भांति तत्काल की (वर्तमान की) पर्याय रूपसे प्रकाशित होता है।१५। (विशेष दे.निक्षेप)। - सामान्य विशेष आदि धर्मोरूप ४७ नयों का निर्देश
प्र.सा./त.प्र./परि./नय नं. तत्तु द्रव्यनयेन पटमात्रवच्चिन्मात्रम् ।१। पर्यायनयेन तन्तुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।२। विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरैकपुरुषवत्सविकल्पम् ।१०। अविकल्पनयेनैकपुरुषमात्रवदविकल्पम् ।११। सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रवद्व्यापि।१६। विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवदव्यापि।१७। नित्यनयेन नटवदवस्थायि।१८। अनित्यनयेन रामरावणवदनवस्थायिं।१९। सर्वगतनयेन विस्फुरिताक्षचक्षुर्वत्सर्ववर्ति।२०। असर्वगतनयेन मीलिताक्षचक्षुर्वंदात्मवर्ति।२१। शून्यनयेन शून्यागारवत्केवलोद्भासि।२२। अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनौवन्मिलितोद्भासि।२३। ज्ञानज्ञेयाद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुवदेकम् ।२४। ज्ञानज्ञेतद्वैतनयेन परप्रतिबिम्बसंपृक्तदर्पणवदनेकम् ।२५। नियतिनयेन नियमितौष्ण्य वह्नि वन्नियत स्वभावभासि।२६। अनियतिनयेन नित्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि।२७। स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारसार्थक्यकारि।२८। अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्ससंस्कारसार्थक्यकारि।२९। कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकारफलवत्समयायत्तसिद्धि:।३० अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमानसहकारफलवत्समयानायत्तसिद्धि:।३१। पुरुषाकारनयेन पुरुषाकारोपलब्धमधुकुक्कुटोकपुरुषकारवादीवद्यत्नसाध्यसिद्धि:।३२। दैवेनयेन पुरुषाकारवादिदत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदैववादिवदयत्नसाध्यसिद्धि:।३३। ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ।३४। अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्ठीरववतन्त्र्यभोक्तृ।३५। गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि।३६। अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि।३७। कर्तृनयेन रञ्जकवद्रागादिपरिणामकर्तृ।३८। अकर्तृनयेन स्वकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि।३९। भोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधितवत्सुखदु:खादिभोक्तृ।४०। अभोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृब्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षी।४१। क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्धनिधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धि:।४२। ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृहकाणवाणिजवद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धि:।४३। व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ति।४४। निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति।४५। अशुद्धनयेन घटशरावविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधिस्वभावम् ।४६। शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरुपाधिस्वभावम् ।४७।=१. आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भांति चिन्मात्र है। २. पर्यायनय से वह तन्तुमात्र की भांति दर्शनज्ञानादि मात्र है। १०. विकल्पनय से बालक, कुमार, और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भांति सविकल्प है। ११. अविकल्पनय से एक पुरुषमात्र की भांति अविकल्प है। १६. सामान्यनय से हार माला कण्ठी के डोरे की भांति व्यापक है। १७. विशेष नय से उसके एक मोती की भांति, अव्यापक है। १८. नित्यनय से, नट की भांति अवस्थायी है। १९. अनित्यनय से राम-रावण की भांति अनवस्थायी है। (पं.ध./पू./७६०-७६१)। २०. सर्वगतनय से खुली हुई आँख की भांति सर्ववर्ती है। २१. असर्वगतनय से मिची हुई आँख की भांति आत्मवर्ती है। २२. शून्यनय से शून्यघर की भांति एकाकी भासित होता है। २३. अशून्यनय से लोगों से भरे हुए जहाज की भांति मिलित भासित होता है। २४. ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय से महान् ईन्धनसमूहरूप परिणत अग्नि की भांति एक है। २५. ज्ञानज्ञेय द्वैतनय से, पर के प्रतिबिम्बों से संपृक्त दर्पण की भांति अनेक है। २६. आत्मद्रव्य नियतिनय से नियतस्वभाव रूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित होती है ऐसी अग्नि की भांति। २७. अनियतनय से अनियतस्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित नहीं है ऐसे पानी की भांति। २८. स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करने वाला है, जिसकी किसी से नोक नहीं निकाली जाती है, ऐसे पैने कांटे की भांति। २९. अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करने वाला है, जिसकी लुहार के द्वारा नोक निकाली गयी है, ऐसे पैने बाण की भांति। ३०. कालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार रखती है ऐसा है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकने वाले आम्र फल की भांति। ३१. अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिम गर्मी से पकाये गये आम्रफल की भांति। ३२. पुरुषाकारनय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषाकार से नींबू का वृक्ष प्राप्त होता है, ऐसे पुरुषाकारवादी की भांति। ३३. दैवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है ऐसा है, पुरुषाकारवादी द्वारा प्रदत्त नींबू के वृक्ष के भीतर से जिसे माणिक प्राप्त हो जाता है, ऐसे दैववादी की भांति। ३४. ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले राहगीर के बालक की भांति। ३५. अनीश्वरनय से स्वतन्त्रता भोगनेवाला है, हिरन को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जाने वाले सिंह की भांति। ३६. आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भांति। ३७. अगुणीनय से केवल साक्षी ही है। ३८. कर्तृनय से रंगरेज की भांति रागादि परिणामों का कर्ता है। ३९. अकर्तृनय से केवल साक्षी ही है, अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखने वाले पुरुष की भांति। ४०. भोक्तृनय से सुख-दुखादि का भोक्ता है, हितकारी-अहितकारी अन्न को खाने वाले रोगी की भांति। ४१. अभोक्तृनय से केवल साक्षी ही है, हितकारी-अहिकारी अन्न को खाने वाले रोगी को देखने वाले वैद्य की भांति। ४२. क्रियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है, खम्भे से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय, ऐसे अन्धे की भांति। ४३. ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है; मुट्ठीभर चेन देकर चिन्तामणि रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठै हुए व्यापारी की भांति। ४४. आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है; बन्धक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति। ४५. निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है; अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बन्ध मोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणु की भांति ४६. अशुद्धनय से घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भांति सोपाधि स्वभाव वाला है। ४७. शुद्धनय से, केवलमिट्टी मात्र की भांति, निरुपाधि स्वभाववाला है।
पं.ध./पू./श्लोक‒अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्तत्त्रयं मिथोऽनेकम् । व्यवहारैकविशिष्टो नय: स वानेकसंज्ञको न्यायात् ।७५२। एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथवा नाम्ना। इतरद्वयमन्यतरं लब्धमनुक्तं स एकनयपक्ष:।७५३। परिणममानेऽपि तथाभूतैर्भावैर्विनश्यमानेऽपि। नायमपूर्वों भाव: पर्यायार्थिकविशिष्टभावनय:।७६५। अभिनवभावपरिणतेर्योऽयं वस्तुन्यपूर्वसमयो य:। इति यो वदति स कश्चित्पर्यायार्थिकनयेष्वभावनय:।७६४। अस्तित्वं नामगुण: स्यादिति साधारण: स तस्य। तत्पर्ययश्च नय: समासतोऽस्तित्वनय इति वा।५९३। कर्तृत्वं जीवगुणोऽस्त्वथ वैभाविकोऽथवा भाव:। तत्पर्यायविशिष्ट: कर्तृत्वनयो यथा नाम।५९४।=३७. व्यवहार नय से द्रव्य, गुण, पर्याय अपने अपने स्वरूप से परस्पर में पृथक्-पृथक् हैं, ऐसी अनेकनय है।७५२। ३८. नाम की अपेक्षा पृथक्-पृथक् हुए भी द्रव्य गुण पर्याय तीनों सामान्यरूप से एक सत् हैं, इसलिए किसी एक के कहने पर शेष अनुक्त का ग्रहण हो जाता है। यह एकनय है।७५३। ३९. परिणमन होते हुए पूर्व पूर्व परिणमन का विनाश होने पर भी यह कोई अपूर्व भाव नहीं है, इस प्रकार का जो कथन है वह पर्यायार्थिक विशेषण विशिष्ट भावनय है।७६५। ४०. तथा नवीन पर्याय उत्पन्न होने पर जो उसे अपूर्वभाव कहता ऐसा पर्यायार्थिक नय रूप अभाव नय है।७६४। ४१. अस्तित्वगुण के कारण द्रव्य सत् है, ऐसा कहने वाला अस्तित्व नय है।५९३। ४२. जीव का वैभाविक गुण ही उसका कर्तृत्वगुण है। इसलिए जीव को कर्तृत्व गुणवाला कहना सो कर्तृत्व नय है।५९४। - अनन्तों नय होनी सम्भव हैं
ध.१/१,१,१/गा.६७/८० जावदिया वयण-वहा तावदिया चेव होंति णयवादा।=जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद हैं। (ध.१/४,१,४५/गा.६२/१८१), (क.पा.१/१३-१४/२०२/गा.९३/२४५), (ध.१/१,१,९/गा.१०५/१६२), (ह.पु./५८/५२), (गो.क./मू./८९४/१०७३), (प्र.सा./त.प्र./परि.में उद्धृत); (स्या.म./२८/३१०/१३ में उद्धृत)। स.सि./१/३३/१४५/७ द्रव्यस्यानन्तशक्ते: प्रतिशक्ति विभिद्यमाना: बहुविकल्पा जायन्ते।=द्रव्य की अनन्त शक्ति है। इसलिए प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर ये नय अनेक (अनन्त) विकल्प रूप हो जाते हैं। (रा.वा./१/३३/१२/९९/१८), (प्र.सा./त.प्र./परि.का अन्त), (स्या.म./२८/३१०/११); (पं.ध./पू./५८९,५९५)।
श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.३-४/२१५ संक्षेपाद्द्वौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ।३। विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादय:। तथातिविस्तरेणोक्ततद्भेदा: संख्यातविग्रहा:।४।=संक्षेप से नय दो प्रकार हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक।३। विस्तार से नैगमादि सात प्रकार हैं और अति विस्तार से संख्यात शरीरवाले इन नयों के भेद हो जाते हैं। (स.म./२८/३१७/१)। ध.१/१,१,१/९१/१ एवमेते संक्षेपेण नया: सप्तविधा:। अवान्तरभेदेन पुनरसंख्येया:।=इस तरह संक्षेप से नय सात प्रकार के हैं और अवान्तर भेदों से असंख्यात प्रकार के समझना चाहिए।
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नयों का निर्देश
- नय सामान्य निर्देश
पुराणकोष से
(1) वस्तु के अनेक धर्मों में विवक्षानुसार किसी एक धर्म का बोधक ज्ञान । इसके दो भेद है― द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । इनमें द्रव्यार्थिक यथार्थ और पर्यायार्थिक अयथार्थ है । ये ही दो मूल नय है और परस्पर सापेक्ष हैं । वैसे नय सात होते हैं― नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयों में आरंभ के तीन द्रव्यार्थिक और शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो भेदों से भी नय का कथन होता है । महापुराण 2. 101 पद्मपुराण 105.143, हरिवंशपुराण 58.39-42
(2) यादवों का पक्षधर एक राजा । हरिवंशपुराण 50.121