पूजा: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 171: | Line 171: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">पूजा के पर्यायवाची नाम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">पूजा के पर्यायवाची नाम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/67/193 </span><span class="SanskritGatha">यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। 193।</span> = <span class="HindiText">याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। 193। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">पूजा के भेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">पूजा के भेद</strong> <br /> | ||
Line 177: | Line 177: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">इज्या आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">इज्या आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/26 </span><span class="SanskritGatha">प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। 26।</span> = <span class="HindiText">पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। (<span class="GRef"> धवला 8/3,42/92/4 </span>) (इसके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इंद्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। (<span class="GRef"> महापुराण/38/32-33 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/43/1 </span>); (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/18; 2/25-29 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">निक्षेपों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">निक्षेपों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/381 </span><span class="PrakritGatha">णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। 381।</span> = <span class="HindiText">नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेंद्रदेव ने कही है। 381। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/212 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.2.3" id="1.2.3"><strong>द्रव्य व भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2.3" id="1.2.3"><strong>द्रव्य व भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/20 </span><span class="SanskritText">पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। </span>=<span class="HindiText"> पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/27-33 </span><span class="SanskritGatha"> तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गंधपुष्पाक्षतादिका। 27। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। 28। या च पूजाः मुनींद्राणां नित्यदानानुषंगिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। 29। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। 30। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। 31। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैंद्रध्वजोऽंयस्तु सुरराजैः कृतो महः। 32। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसंध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। 33।</span> = <span class="HindiText">प्रतिदिन अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेंद्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। 27। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हंत देव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। 28। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। 29। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। 30। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। 31। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इंद्र किया करता है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/43/2 </span>); (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/25-29 </span>)। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन संध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। 32-33। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण</strong> <br /> | ||
Line 194: | Line 194: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.1" id="1.4.1"><strong>नामपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.1" id="1.4.1"><strong>नामपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/382 </span><span class="PrakritGatha">उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। 382।</span> = <span class="HindiText">अरहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। 382। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/213 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.2" id="1.4.2"><strong>स्थापना पूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.2" id="1.4.2"><strong>स्थापना पूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/383-384 </span><span class="PrakritGatha">सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। 383। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। 384।</span> = <span class="HindiText">जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहंतादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। 383-384। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/214-215 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.3" id="1.4.3"><strong>द्रव्यपूजा </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.3" id="1.4.3"><strong>द्रव्यपूजा </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/21 </span><span class="SanskritText">गंधपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च।</span> = <span class="HindiText">अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। (<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/12/12 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/448-451 </span><span class="PrakritGatha">दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। 448। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। 449। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। 450। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। 451।</span> =<span class="HindiText"> जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गंधादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। 448। (<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/1213 </span>) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेंद्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। 449-450। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। 451। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/219-221 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.4" id="1.4.4"><strong>क्षेत्रपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.4" id="1.4.4"><strong>क्षेत्रपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/452 </span><span class="PrakritText">जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा।</span> = <span class="HindiText">जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। 452। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/222 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.5" id="1.4.5"><strong>कालपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.5" id="1.4.5"><strong>कालपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/453-455 </span><span class="PrakritGatha">गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। 453। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। 455।</span> = <span class="HindiText">जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। 455। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/223-224 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.6" id="1.4.6"><strong>भावपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.6" id="1.4.6"><strong>भावपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/22 </span><span class="SanskritText">भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। </span>= <span class="HindiText">मन से उनके (अर्हंतादि के) गुणों का चिंतन करना भावपूजा है। (<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/12/14 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/456-458 </span><span class="PrakritText">काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। 456। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। 457। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। 458। </span>= <span class="HindiText">परम भक्ति के साथ जिनेंद्र भगवान के अनंत चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। 456। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेंद्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। 457। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। 458। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong>निश्चय पूजा का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong>निश्चय पूजा का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समाधिशतक/ </span>मू./31 <span class="SanskritGatha">यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। 31।</span> =<span class="HindiText"> जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./1/123 <span class="PrakritGatha">मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स।</span> = <span class="HindiText">विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। 123। <br /> | |||
<strong>देखें [[ परमेष्ठी ]]</strong>- पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है। </span></li> | <strong>देखें [[ परमेष्ठी ]]</strong>- पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है। </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 393: | Line 393: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">पूजा के पर्यायवाची नाम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">पूजा के पर्यायवाची नाम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/67/193 </span><span class="SanskritGatha">यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। 193।</span> = <span class="HindiText">याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। 193। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">पूजा के भेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">पूजा के भेद</strong> <br /> | ||
Line 399: | Line 399: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">इज्या आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">इज्या आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/26 </span><span class="SanskritGatha">प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। 26।</span> = <span class="HindiText">पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। (<span class="GRef"> धवला 8/3,42/92/4 </span>) (इसके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इंद्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। (<span class="GRef"> महापुराण/38/32-33 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/43/1 </span>); (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/18; 2/25-29 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">निक्षेपों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">निक्षेपों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/381 </span><span class="PrakritGatha">णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। 381।</span> = <span class="HindiText">नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेंद्रदेव ने कही है। 381। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/212 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.2.3" id="1.2.3"><strong>द्रव्य व भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2.3" id="1.2.3"><strong>द्रव्य व भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/20 </span><span class="SanskritText">पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। </span>=<span class="HindiText"> पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/27-33 </span><span class="SanskritGatha"> तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गंधपुष्पाक्षतादिका। 27। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। 28। या च पूजाः मुनींद्राणां नित्यदानानुषंगिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। 29। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। 30। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। 31। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैंद्रध्वजोऽंयस्तु सुरराजैः कृतो महः। 32। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसंध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। 33।</span> = <span class="HindiText">प्रतिदिन अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेंद्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। 27। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हंत देव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। 28। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। 29। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। 30। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। 31। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इंद्र किया करता है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/43/2 </span>); (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/25-29 </span>)। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन संध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। 32-33। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण</strong> <br /> | ||
Line 416: | Line 416: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.1" id="1.4.1"><strong>नामपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.1" id="1.4.1"><strong>नामपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/382 </span><span class="PrakritGatha">उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। 382।</span> = <span class="HindiText">अरहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। 382। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/213 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.2" id="1.4.2"><strong>स्थापना पूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.2" id="1.4.2"><strong>स्थापना पूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/383-384 </span><span class="PrakritGatha">सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। 383। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। 384।</span> = <span class="HindiText">जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहंतादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। 383-384। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/214-215 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.3" id="1.4.3"><strong>द्रव्यपूजा </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.3" id="1.4.3"><strong>द्रव्यपूजा </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/21 </span><span class="SanskritText">गंधपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च।</span> = <span class="HindiText">अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। (<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/12/12 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/448-451 </span><span class="PrakritGatha">दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। 448। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। 449। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। 450। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। 451।</span> =<span class="HindiText"> जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गंधादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। 448। (<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/1213 </span>) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेंद्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। 449-450। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। 451। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/219-221 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.4" id="1.4.4"><strong>क्षेत्रपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.4" id="1.4.4"><strong>क्षेत्रपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/452 </span><span class="PrakritText">जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा।</span> = <span class="HindiText">जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। 452। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/222 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.5" id="1.4.5"><strong>कालपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.5" id="1.4.5"><strong>कालपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/453-455 </span><span class="PrakritGatha">गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। 453। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। 455।</span> = <span class="HindiText">जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। 455। (<span class="GRef"> गुणभद्र श्रावकाचार/223-224 </span>)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4.6" id="1.4.6"><strong>भावपूजा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.6" id="1.4.6"><strong>भावपूजा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/22 </span><span class="SanskritText">भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। </span>= <span class="HindiText">मन से उनके (अर्हंतादि के) गुणों का चिंतन करना भावपूजा है। (<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/12/14 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/456-458 </span><span class="PrakritText">काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। 456। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। 457। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। 458। </span>= <span class="HindiText">परम भक्ति के साथ जिनेंद्र भगवान के अनंत चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। 456। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेंद्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। 457। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। 458। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong>निश्चय पूजा का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong>निश्चय पूजा का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समाधिशतक/ </span>मू./31 <span class="SanskritGatha">यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। 31।</span> =<span class="HindiText"> जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./1/123 <span class="PrakritGatha">मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स।</span> = <span class="HindiText">विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। 123। <br /> | |||
<strong>देखें [[ परमेष्ठी ]]</strong>- पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है। </span></li> | <strong>देखें [[ परमेष्ठी ]]</strong>- पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है। </span></li> | ||
</ol> | </ol> |
Revision as of 13:01, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान धर्म है, यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर तहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चंदनादि अष्ट द्रव्यों से की जाती है। अभिषेक व गान नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलप्रदायी होती है। सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि संबंधी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा के भेद -
- इज्यादि 5 भेद;
- नाम स्थापनादि 6।
- इज्यादि पाँच भेदों के लक्षण।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण।
- निश्चय पूजा के लक्षण।
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * सावद्य होते हुए भी पूजा करनी चाहिए।- देखें धर्म - 5.2।
- * सम्यग्दृष्टि पूजा क्यों करें?-देखें विनय - 3।
- * प्रोषधोपवास के दिन पूजा करे या न करे- देखें प्रोषध - 4।
- * पूजा की कथंचित् इष्टता-अनिष्टता।- देखें धर्म - 4-6।
- नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश।
- पूजा में अंतरंग भावों की प्रधानता।
- जिन पूजा का फल निर्जरा व मोक्ष।
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * जिन पूजा सम्यग्दर्शन का कारण है- देखें सम्यग्दर्शन - III.5।
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।
- एक की वंदना से सबकी वंदना कैसे हो जाती है?
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य हैं।
- साधु की पूजा से पाप कैसे नाश होता है।
- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पूज्य नहीं- देखें विनय - 4।
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।
- देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं।
- फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं।
- पूजा योग्य प्रतिमा- देखें चैत्य चैत्यालय - 1।
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि-निषेध।
- बाहुबलि की प्रतिमा संबंधी शंका समाधान।
- क्षेत्रपाल आदि की पूजा का निषेध- देखें मूढता ।
- पूजा योग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश।
- चैत्यालय में पुष्प वाटिका लगाने का विधान- देखें चैत्य चैत्यालय - 2।
- सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजा का समन्वय।
- निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध।
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- पूजा विधि
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए।
- एक दिन में अधिक बार भी वंदना करे तो निषेध नहीं- देखें वंदना ।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध।
- स्थापना के विधि निषेध का समन्वय।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गानादि का विधान।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य है।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकांड।
- पूजा विधान में प्रयोग किये जानेवाले कुछ मंत्र- देखें मंत्र ।
- पूजा में भगवान को कर्ता-हर्ता बनाना- देखें भक्ति - 1।
- पंच कल्याणक- देखें कल्याणक ।
- देव वंदना आदि विधि- देखें वंदना ।
- स्तव विधि- देखें भक्ति - 3।
- पूजा में कायोत्सर्ग आदि की विधि- देखें वंदना ।
- पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए।
- पूजा के प्रकरण में स्नान विधि- देखें स्नान ।
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम
महापुराण/67/193 यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। 193। = याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। 193।
- पूजा के भेद
- इज्या आदि की अपेक्षा
महापुराण/38/26 प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। 26। = पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। ( धवला 8/3,42/92/4 ) (इसके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इंद्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। ( महापुराण/38/32-33 ); ( चारित्रसार/43/1 ); ( सागार धर्मामृत/1/18; 2/25-29 )।
- निक्षेपों की अपेक्षा
वसुनंदी श्रावकाचार/381 णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। 381। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेंद्रदेव ने कही है। 381। ( गुणभद्र श्रावकाचार/212 )।
- द्रव्य व भाव की अपेक्षा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/20 पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। = पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं।
- इज्या आदि की अपेक्षा
- इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण
महापुराण/38/27-33 तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गंधपुष्पाक्षतादिका। 27। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। 28। या च पूजाः मुनींद्राणां नित्यदानानुषंगिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। 29। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। 30। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। 31। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैंद्रध्वजोऽंयस्तु सुरराजैः कृतो महः। 32। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसंध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। 33। = प्रतिदिन अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेंद्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। 27। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हंत देव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। 28। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। 29। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। 30। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। 31। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इंद्र किया करता है। ( चारित्रसार/43/2 ); ( सागार धर्मामृत/2/25-29 )। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन संध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। 32-33।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण
- नामपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/382 उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। 382। = अरहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। 382। ( गुणभद्र श्रावकाचार/213 )।
- स्थापना पूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/383-384 सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। 383। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। 384। = जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहंतादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। 383-384। ( गुणभद्र श्रावकाचार/214-215 )।
- द्रव्यपूजा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/21 गंधपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च। = अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। ( अमितगति श्रावकाचार/12/12 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/448-451 दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। 448। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। 449। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। 450। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। 451। = जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गंधादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। 448। ( अमितगति श्रावकाचार/1213 ) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेंद्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। 449-450। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। 451। ( गुणभद्र श्रावकाचार/219-221 )।
- क्षेत्रपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/452 जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा। = जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। 452। ( गुणभद्र श्रावकाचार/222 )।
- कालपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/453-455 गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। 453। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। 455। = जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। 455। ( गुणभद्र श्रावकाचार/223-224 )।
- भावपूजा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/22 भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। = मन से उनके (अर्हंतादि के) गुणों का चिंतन करना भावपूजा है। ( अमितगति श्रावकाचार/12/14 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/456-458 काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। 456। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। 457। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। 458। = परम भक्ति के साथ जिनेंद्र भगवान के अनंत चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। 456। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेंद्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। 457। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। 458।
- नामपूजा
- निश्चय पूजा का लक्षण
समाधिशतक/ मू./31 यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। 31। = जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/123 मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स। = विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। 123।
देखें परमेष्ठी - पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है।
- पूजा के पर्यायवाची नाम
राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान धर्म है, यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर तहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चंदनादि अष्ट द्रव्यों से की जाती है। अभिषेक व गान नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलप्रदायी होती है। सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि संबंधी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा के भेद -
- इज्यादि 5 भेद;
- नाम स्थापनादि 6।
- इज्यादि पाँच भेदों के लक्षण।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण।
- निश्चय पूजा के लक्षण।
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * सावद्य होते हुए भी पूजा करनी चाहिए।- देखें धर्म - 5.2।
- * सम्यग्दृष्टि पूजा क्यों करें?-देखें विनय - 3।
- * प्रोषधोपवास के दिन पूजा करे या न करे- देखें प्रोषध - 4।
- * पूजा की कथंचित् इष्टता-अनिष्टता।- देखें धर्म - 4-6।
- नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश।
- पूजा में अंतरंग भावों की प्रधानता।
- जिन पूजा का फल निर्जरा व मोक्ष।
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * जिन पूजा सम्यग्दर्शन का कारण है- देखें सम्यग्दर्शन - III.5।
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।
- एक की वंदना से सबकी वंदना कैसे हो जाती है?
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य हैं।
- साधु की पूजा से पाप कैसे नाश होता है।
- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पूज्य नहीं- देखें विनय - 4।
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।
- देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं।
- फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं।
- पूजा योग्य प्रतिमा- देखें चैत्य चैत्यालय - 1।
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि-निषेध।
- बाहुबलि की प्रतिमा संबंधी शंका समाधान।
- क्षेत्रपाल आदि की पूजा का निषेध- देखें मूढता ।
- पूजा योग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश।
- चैत्यालय में पुष्प वाटिका लगाने का विधान- देखें चैत्य चैत्यालय - 2।
- सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजा का समन्वय।
- निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध।
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- पूजा विधि
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए।
- एक दिन में अधिक बार भी वंदना करे तो निषेध नहीं- देखें वंदना ।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध।
- स्थापना के विधि निषेध का समन्वय।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गानादि का विधान।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य है।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकांड।
- पूजा विधान में प्रयोग किये जानेवाले कुछ मंत्र- देखें मंत्र ।
- पूजा में भगवान को कर्ता-हर्ता बनाना- देखें भक्ति - 1।
- पंच कल्याणक- देखें कल्याणक ।
- देव वंदना आदि विधि- देखें वंदना ।
- स्तव विधि- देखें भक्ति - 3।
- पूजा में कायोत्सर्ग आदि की विधि- देखें वंदना ।
- पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए।
- पूजा के प्रकरण में स्नान विधि- देखें स्नान ।
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम
महापुराण/67/193 यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। 193। = याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। 193।
- पूजा के भेद
- इज्या आदि की अपेक्षा
महापुराण/38/26 प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। 26। = पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। ( धवला 8/3,42/92/4 ) (इसके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इंद्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। ( महापुराण/38/32-33 ); ( चारित्रसार/43/1 ); ( सागार धर्मामृत/1/18; 2/25-29 )।
- निक्षेपों की अपेक्षा
वसुनंदी श्रावकाचार/381 णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। 381। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेंद्रदेव ने कही है। 381। ( गुणभद्र श्रावकाचार/212 )।
- द्रव्य व भाव की अपेक्षा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/20 पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। = पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं।
- इज्या आदि की अपेक्षा
- इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण
महापुराण/38/27-33 तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गंधपुष्पाक्षतादिका। 27। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। 28। या च पूजाः मुनींद्राणां नित्यदानानुषंगिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। 29। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। 30। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। 31। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैंद्रध्वजोऽंयस्तु सुरराजैः कृतो महः। 32। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसंध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। 33। = प्रतिदिन अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेंद्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। 27। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हंत देव की प्रतिमा और मंदिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। 28। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। 29। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। 30। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। 31। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐंद्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इंद्र किया करता है। ( चारित्रसार/43/2 ); ( सागार धर्मामृत/2/25-29 )। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन संध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अंतर्भूत हैं। 32-33।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण
- नामपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/382 उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। 382। = अरहंतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। 382। ( गुणभद्र श्रावकाचार/213 )।
- स्थापना पूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/383-384 सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। 383। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। 384। = जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहंतादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। 383-384। ( गुणभद्र श्रावकाचार/214-215 )।
- द्रव्यपूजा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/21 गंधपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च। = अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। ( अमितगति श्रावकाचार/12/12 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/448-451 दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। 448। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। 449। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। 450। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। 451। = जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गंधादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। 448। ( अमितगति श्रावकाचार/1213 ) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेंद्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। 449-450। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। 451। ( गुणभद्र श्रावकाचार/219-221 )।
- क्षेत्रपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/452 जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा। = जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। 452। ( गुणभद्र श्रावकाचार/222 )।
- कालपूजा
वसुनंदी श्रावकाचार/453-455 गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। 453। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। 455। = जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। 455। ( गुणभद्र श्रावकाचार/223-224 )।
- भावपूजा
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/47/159/22 भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। = मन से उनके (अर्हंतादि के) गुणों का चिंतन करना भावपूजा है। ( अमितगति श्रावकाचार/12/14 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/456-458 काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। 456। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। 457। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। 458। = परम भक्ति के साथ जिनेंद्र भगवान के अनंत चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। 456। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेंद्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। 457। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। 458।
- नामपूजा
- निश्चय पूजा का लक्षण
समाधिशतक/ मू./31 यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। 31। = जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/123 मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स। = विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। 123।
देखें परमेष्ठी - पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है।
- पूजा के पर्यायवाची नाम
पुराणकोष से
गृहस्थ के चार प्रकार के धर्मों में एक धर्म । यह अभिषेक के पश्चात् जल, गंध, अक्षत, पुष्प, अमृतपिंड (नैवेद्य), दीप, धूप और फल द्रव्यों से की जाती है । याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह इसके अपरनाम है । महापुराण 67.193 यह चार प्रकार की होती है । सदार्चन, चतुर्मुख, कल्पद्रुम और आष्टाह्निक । इनके अतिरिक्त एक ऐंद्रध्वज पूजा भी होती है जिसे इंद्र किया करता है । पूजा के और भी भेद हैं जो इन्हीं चार पूजा-भेदों में अंतर्भूत हो जाते हैं । महापुराण 8.173-178, 13.201, 23.106, 38.26-33, 41. 104, 67.193