योग के भेद व लक्षण संबंधी तर्क-वितर्क: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 4/139/8 </span><span class="SanskritText">युज्यत इति योगः । न युज्यमानपटादिना व्यभिचारस्तस्यानात्मधर्मत्वात् । न कषायेण व्यभिचारस्तस्य कर्मादानहेतुत्वाभावात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>यहाँ पर जो संयोग को प्राप्त हो उसे योग कहते हैं, ऐसी व्याप्ति करने पर संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक से व्यभिचार हो जायेगा । <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक आत्मा के धर्म नहीं हैं । <strong>प्रश्न−</strong>कषाय के साथ व्यभिचार दोष आ जाता है । (क्योंकि कषाय तो आत्मा का धर्म है और संयोग को भी प्राप्त होता है ।) <strong>उत्तर−</strong>इस तरह कषाय के साथ भी व्यभिचार दोष नहीं आता, क्योंकि कषाय कर्मों के ग्रहण करने में कारण नहीं पड़ती हैं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मेघादि के परिस्पंद में व्यभिचार निवृत्ति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मेघादि के परिस्पंद में व्यभिचार निवृत्ति</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 76/316/7 </span><span class="SanskritText">अथ स्यात्परिस्पंदस्य बंधहेतुत्वे संचरदभ्राणामपि कर्मबंधः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतंयपरिस्पंदस्यास्रवहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् । न चाभ्रपरिस्पंदः कर्मजनितो येन तद्धेतुतामास्कंदेत् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>परिस्पंद को बंध का कारण मानने पर संचार करते हुए मेघों के भी कर्मबंध प्राप्त हो जायेगा, क्योंकि उनमें भी परिस्पंद पाया जाता है । <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि कर्मजनित चैतन्य परिस्पंद ही आस्रव का कारण है, यह अर्थ यहाँ विवक्षित है । मेघों का परिस्पंद कर्मजनित तो है नहीं, जिससे वह कर्म बंध के आस्रव का हेतु हो सके अर्थात् नहीं हो सकता । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">परिस्पंद व गति में अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">परिस्पंद व गति में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 33/77/2 </span><span class="PrakritText"> इंदियविसयमइक्कंतजीवपदेसपरिप्फंदस्स इंदिएहि उवलंभविरोहादो । ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोच - विकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा । </span>=<span class="HindiText"> इंद्रियों के विषय से परे जो जीव प्रदेशों का परिस्पंद होता है, उसका इंद्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में विरोध आता है । जीवों के चलते समय जीव प्रदेशों के संकोच - विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने के प्रथम समय में जब यह जीव यहाँ से अर्थात् मध्य लोक से लोक के अग्रभाग को जाता है तब इसके जीव प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता । (और भी देखें [[ जीव#4.6 | जीव - 4.6]]) । <br /> | |||
देखें [[ योग#2.5 | योग - 2.5 ]](क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वही वास्तव में योग है ।) </span><br /> | देखें [[ योग#2.5 | योग - 2.5 ]](क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वही वास्तव में योग है ।) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 15/17/10 </span><span class="PrakritText"> मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो । जदि एवं तो णत्थि अजोगिणो सरीरियस्स जीवदव्वस्स अकिरियत्तविरोहादो । ण एस दोसो, अट्ठकम्मेसु खीणेसु जा उड्ढगमणुवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्ततादो । सट्टिददेसमछंडिय छद्दित्तो वा जीवदव्वस्स सावयवेहि परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो । तेण सक्किरिया विसिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तण-परिपत्तणकिरिया भावादो । तदो ते अबंधा त्ति भणिदा । </span>= <span class="HindiText">मन, वचन और काय संबंधी पुद्गलों के आलंबन से जो जीव प्रदेशों का परिस्पंदन होता है वही योग है । <strong>प्रश्न−</strong>यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो ही नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीवद्रव्य को अक्रिय मानने में विरोध आता है । <strong>उत्तर−</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलंबी क्रिया होती है वह जीव का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पंद होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं । क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तायमान जल प्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> परिस्पंद लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> परिस्पंद लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 10/4, 2, 4, 175/348/1 </span><span class="PrakritText">जदि एवं तो तिण्णं पि जोगाण-मक्कमेण वुत्ती पावदित्ति भणिदे-ण एस दोसो, जदट्ठं जीवपदेसाणं पढमं परिप्फंदो जादो अण्णम्मि जीवपदेसपरिप्फंदसहकारिकारणे जादे वि तस्सेव पहाणत्तदंसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>यदि ऐसा है(तीनों योगों का ही लक्षण आत्म-प्रदेश परिस्पंद है) तो तीनों ही योगों का एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है । <strong>उत्तर−</strong>नहीं, यह कोई दोष नहीं है । (सामान्यतः तो योग एक ही प्रकार का है) परंतु जीव - प्रदेश परिस्पंद के अन्य सहकारी कारण के होते हुए भी जिस (मन, वचन व काय) के लिए जीव - प्रदेशों का प्रथम परिस्पंद हुआ है उसकी ही प्रधानता देखी जाने से उसकी उक्त (मन, वचन वा काययोग) संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> परिस्पंद रहित होने से आठ मध्यप्रदेशों में बंध न हो सकेगा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> परिस्पंद रहित होने से आठ मध्यप्रदेशों में बंध न हो सकेगा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4, 2, 11, 3/366/10 </span><span class="PrakritText">जीवपदेसाणं परिप्फंदाभावादो । ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु जोगो अत्थि, सिद्धाणंपि सजोगत्तवत्तीदो त्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे-मण-वयण-कायकिरियासमुप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम । सो च कम्मबंधस्स कारणं । ण च सो थोवेसु जीवपदेसेसु होदि, एगजीवपयत्तस्स थोवावयवेसु चेव वुत्तिविरोहादो एक्कम्हि जीवे खंडखंडेणपयत्तविरोहादो वा । तम्हा ट्ठिदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अत्थि त्ति णव्वदे । ण जोगादो णियमेण जीवपदेसपरिप्फंदो होदि, तस्स तत्तो अणियमेण समुप्पत्तीदो । ण च एकांतेण णियमो णत्थि चेव, जदि उप्पज्जदि तो तत्तो चेव उप्पज्जदि त्ति णियमुवलंभादो । तदो ट्ठिदाणं पि जोगो अत्थि त्ति कम्मबंधभूयमिच्छियव्वं ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>जीव - प्रदेशों का परिस्पंद न होने से ही जाना जाता है कि वे योग से रहित हैं और परिस्पंद से रहित जीवप्रदेशों में योग की संभावना नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर सिद्ध जीवों के भी सयोग होने की आपत्ति आती है ? <strong>उत्तर−</strong>उपर्युक्त शंका का परिहार करते हैं - </span> | |||
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<li><span class="HindiText"> मन, वचन एवं काय संबंधी क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वह योग है और वह कर्मबंध का कारण है । परंतु वह थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त योग की थोड़े से ही अवयवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है । अथवा एक जीव में उसके खंड-खंड रूप से प्रवृत्त होने में विरोध आता है । इसलिए स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबंध होता है, यह जाना जाता है । </span></li> | <li><span class="HindiText"> मन, वचन एवं काय संबंधी क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वह योग है और वह कर्मबंध का कारण है । परंतु वह थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त योग की थोड़े से ही अवयवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है । अथवा एक जीव में उसके खंड-खंड रूप से प्रवृत्त होने में विरोध आता है । इसलिए स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबंध होता है, यह जाना जाता है । </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> योग में शुभ - अशुभपना क्या </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> योग में शुभ - अशुभपना क्या </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/3/2-3/507/6 </span><span class="SanskritText">कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ?....शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः, अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभ इति कथ्यते, न शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्येत; शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबंधहेतुत्वाभ्युपगमात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>योग में शुभ व अशुभपना क्या ? <strong>उत्तर−</strong>शुभ परिणामपूर्वक होने वाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणाम से होने वाला अशुभयोग है । शुभ - अशुभ कर्म का कारण होने से योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योंकि शुभयोग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के बंध में भी कारण होता है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> शुभ-अशुभ योग को अनंतपना कैसे है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> शुभ-अशुभ योग को अनंतपना कैसे है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/3/2/507/4 </span><span class="SanskritText"> असंख्येयलोकत्वादध्यवसायावस्थानानां कथमनंतविकल्पत्वमिति । उच्यते-अनंतानंतपुद्गलप्रदेशप्रचित-ज्ञानावरणवीर्यांतरायदेशसर्वघातिद्विविधस्पर्धकक्षयोपशमादेशात् योगत्रयस्यानंत्यम् । अनंतानंतप्रदेशकर्मादानकारणत्वाद्वा अनंतः, अनंतानंतनानाजीवविषयभेदाद्वानंतः ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>अध्यवसाय स्थान असंख्यात-लोक-प्रमाण हैं फिर योग अनंत प्रकार के कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर−</strong>अनंतानंत पुद्गल प्रदेश रूप से बँधे हुए ज्ञानावरण वीर्यांतराय के देशघाती और सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम भेद से, अनंतानंत प्रदेश वाले कर्मों के ग्रहण का कारण होने से तथा अनंतानंत नाना जीवों की दृष्टि से तीनों योग अनंत प्रकार के हो जाते हैं । </span></li> | |||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
- योग के भेद व लक्षण संबंधी तर्क-वितर्क
- वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति
धवला 1/1, 1, 4/139/8 युज्यत इति योगः । न युज्यमानपटादिना व्यभिचारस्तस्यानात्मधर्मत्वात् । न कषायेण व्यभिचारस्तस्य कर्मादानहेतुत्वाभावात् । = प्रश्न−यहाँ पर जो संयोग को प्राप्त हो उसे योग कहते हैं, ऐसी व्याप्ति करने पर संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक से व्यभिचार हो जायेगा । उत्तर−नहीं, क्योंकि संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक आत्मा के धर्म नहीं हैं । प्रश्न−कषाय के साथ व्यभिचार दोष आ जाता है । (क्योंकि कषाय तो आत्मा का धर्म है और संयोग को भी प्राप्त होता है ।) उत्तर−इस तरह कषाय के साथ भी व्यभिचार दोष नहीं आता, क्योंकि कषाय कर्मों के ग्रहण करने में कारण नहीं पड़ती हैं ।
- मेघादि के परिस्पंद में व्यभिचार निवृत्ति
धवला 1/1, 1, 76/316/7 अथ स्यात्परिस्पंदस्य बंधहेतुत्वे संचरदभ्राणामपि कर्मबंधः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतंयपरिस्पंदस्यास्रवहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् । न चाभ्रपरिस्पंदः कर्मजनितो येन तद्धेतुतामास्कंदेत् । = प्रश्न−परिस्पंद को बंध का कारण मानने पर संचार करते हुए मेघों के भी कर्मबंध प्राप्त हो जायेगा, क्योंकि उनमें भी परिस्पंद पाया जाता है । उत्तर−नहीं, क्योंकि कर्मजनित चैतन्य परिस्पंद ही आस्रव का कारण है, यह अर्थ यहाँ विवक्षित है । मेघों का परिस्पंद कर्मजनित तो है नहीं, जिससे वह कर्म बंध के आस्रव का हेतु हो सके अर्थात् नहीं हो सकता ।
- परिस्पंद व गति में अंतर
धवला 7/2, 1, 33/77/2 इंदियविसयमइक्कंतजीवपदेसपरिप्फंदस्स इंदिएहि उवलंभविरोहादो । ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोच - विकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा । = इंद्रियों के विषय से परे जो जीव प्रदेशों का परिस्पंद होता है, उसका इंद्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में विरोध आता है । जीवों के चलते समय जीव प्रदेशों के संकोच - विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने के प्रथम समय में जब यह जीव यहाँ से अर्थात् मध्य लोक से लोक के अग्रभाग को जाता है तब इसके जीव प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता । (और भी देखें जीव - 4.6) ।
देखें योग - 2.5 (क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वही वास्तव में योग है ।)
धवला 7/2, 1, 15/17/10 मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो । जदि एवं तो णत्थि अजोगिणो सरीरियस्स जीवदव्वस्स अकिरियत्तविरोहादो । ण एस दोसो, अट्ठकम्मेसु खीणेसु जा उड्ढगमणुवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्ततादो । सट्टिददेसमछंडिय छद्दित्तो वा जीवदव्वस्स सावयवेहि परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो । तेण सक्किरिया विसिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तण-परिपत्तणकिरिया भावादो । तदो ते अबंधा त्ति भणिदा । = मन, वचन और काय संबंधी पुद्गलों के आलंबन से जो जीव प्रदेशों का परिस्पंदन होता है वही योग है । प्रश्न−यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो ही नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीवद्रव्य को अक्रिय मानने में विरोध आता है । उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलंबी क्रिया होती है वह जीव का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पंद होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं । क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तायमान जल प्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है ।
- परिस्पंद लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे
धवला 10/4, 2, 4, 175/348/1 जदि एवं तो तिण्णं पि जोगाण-मक्कमेण वुत्ती पावदित्ति भणिदे-ण एस दोसो, जदट्ठं जीवपदेसाणं पढमं परिप्फंदो जादो अण्णम्मि जीवपदेसपरिप्फंदसहकारिकारणे जादे वि तस्सेव पहाणत्तदंसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो । = प्रश्न−यदि ऐसा है(तीनों योगों का ही लक्षण आत्म-प्रदेश परिस्पंद है) तो तीनों ही योगों का एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है । उत्तर−नहीं, यह कोई दोष नहीं है । (सामान्यतः तो योग एक ही प्रकार का है) परंतु जीव - प्रदेश परिस्पंद के अन्य सहकारी कारण के होते हुए भी जिस (मन, वचन व काय) के लिए जीव - प्रदेशों का प्रथम परिस्पंद हुआ है उसकी ही प्रधानता देखी जाने से उसकी उक्त (मन, वचन वा काययोग) संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं है ।
- परिस्पंद रहित होने से आठ मध्यप्रदेशों में बंध न हो सकेगा
धवला 12/4, 2, 11, 3/366/10 जीवपदेसाणं परिप्फंदाभावादो । ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु जोगो अत्थि, सिद्धाणंपि सजोगत्तवत्तीदो त्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे-मण-वयण-कायकिरियासमुप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम । सो च कम्मबंधस्स कारणं । ण च सो थोवेसु जीवपदेसेसु होदि, एगजीवपयत्तस्स थोवावयवेसु चेव वुत्तिविरोहादो एक्कम्हि जीवे खंडखंडेणपयत्तविरोहादो वा । तम्हा ट्ठिदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अत्थि त्ति णव्वदे । ण जोगादो णियमेण जीवपदेसपरिप्फंदो होदि, तस्स तत्तो अणियमेण समुप्पत्तीदो । ण च एकांतेण णियमो णत्थि चेव, जदि उप्पज्जदि तो तत्तो चेव उप्पज्जदि त्ति णियमुवलंभादो । तदो ट्ठिदाणं पि जोगो अत्थि त्ति कम्मबंधभूयमिच्छियव्वं । = प्रश्न−जीव - प्रदेशों का परिस्पंद न होने से ही जाना जाता है कि वे योग से रहित हैं और परिस्पंद से रहित जीवप्रदेशों में योग की संभावना नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर सिद्ध जीवों के भी सयोग होने की आपत्ति आती है ? उत्तर−उपर्युक्त शंका का परिहार करते हैं -- मन, वचन एवं काय संबंधी क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वह योग है और वह कर्मबंध का कारण है । परंतु वह थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त योग की थोड़े से ही अवयवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है । अथवा एक जीव में उसके खंड-खंड रूप से प्रवृत्त होने में विरोध आता है । इसलिए स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबंध होता है, यह जाना जाता है ।
- दूसरे योग से जीवप्रदेशों में नियम से परिस्पंद होता है, ऐसा नहीं है; क्योंकि योग से अनियम से उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकांततः नियम नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है; क्योंकि यदि जीवप्रदेशों में परिस्पंद उत्पन्न होता है, तो योग से ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित जीव प्रदेशों में भी योग के होने से कर्मबंध को स्वीकार करना चाहिए ।
- योग में शुभ - अशुभपना क्या
राजवार्तिक/6/3/2-3/507/6 कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ?....शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः, अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभ इति कथ्यते, न शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्येत; शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबंधहेतुत्वाभ्युपगमात् । = प्रश्न−योग में शुभ व अशुभपना क्या ? उत्तर−शुभ परिणामपूर्वक होने वाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणाम से होने वाला अशुभयोग है । शुभ - अशुभ कर्म का कारण होने से योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योंकि शुभयोग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के बंध में भी कारण होता है ।
- शुभ-अशुभ योग को अनंतपना कैसे है
राजवार्तिक/6/3/2/507/4 असंख्येयलोकत्वादध्यवसायावस्थानानां कथमनंतविकल्पत्वमिति । उच्यते-अनंतानंतपुद्गलप्रदेशप्रचित-ज्ञानावरणवीर्यांतरायदेशसर्वघातिद्विविधस्पर्धकक्षयोपशमादेशात् योगत्रयस्यानंत्यम् । अनंतानंतप्रदेशकर्मादानकारणत्वाद्वा अनंतः, अनंतानंतनानाजीवविषयभेदाद्वानंतः । = प्रश्न−अध्यवसाय स्थान असंख्यात-लोक-प्रमाण हैं फिर योग अनंत प्रकार के कैसे हो सकते हैं ? उत्तर−अनंतानंत पुद्गल प्रदेश रूप से बँधे हुए ज्ञानावरण वीर्यांतराय के देशघाती और सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम भेद से, अनंतानंत प्रदेश वाले कर्मों के ग्रहण का कारण होने से तथा अनंतानंत नाना जीवों की दृष्टि से तीनों योग अनंत प्रकार के हो जाते हैं ।
- वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति