अस्तिकाय: Difference between revisions
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<p>जैनागममें पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छः द्रव्य स्वीकार किये गये हैं। इनमें काल द्रव्य तो परमाणु मात्र प्रमाणवाला होनेसे कायवान् नहीं है। शेष पाँच द्रव्य अधिक प्रमाणवाले होनेके कारण कायवान् हैं। वे पाँच ही अस्तिकाय कहे जाते हैं।</p> | <p>जैनागममें पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छः द्रव्य स्वीकार किये गये हैं। इनमें काल द्रव्य तो परमाणु मात्र प्रमाणवाला होनेसे कायवान् नहीं है। शेष पाँच द्रव्य अधिक प्रमाणवाले होनेके कारण कायवान् हैं। वे पाँच ही अस्तिकाय कहे जाते हैं।</p> | ||
<p>1. अस्तिकायका लक्षण</p> | <p>1. अस्तिकायका लक्षण</p> | ||
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<p> जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच द्रव्य बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय कहलाते हैं । काल द्रव्य को इस नाम से संबोधित नहीं किया गया है, क्योंकि यह एक प्रदेशी होता है । <span class="GRef"> महापुराण 3 8-9, 24.90, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.5 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच द्रव्य बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय कहलाते हैं । काल द्रव्य को इस नाम से संबोधित नहीं किया गया है, क्योंकि यह एक प्रदेशी होता है । <span class="GRef"> महापुराण 3 8-9, 24.90, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.5 </span></p> | ||
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Revision as of 16:51, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
जैनागममें पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छः द्रव्य स्वीकार किये गये हैं। इनमें काल द्रव्य तो परमाणु मात्र प्रमाणवाला होनेसे कायवान् नहीं है। शेष पाँच द्रव्य अधिक प्रमाणवाले होनेके कारण कायवान् हैं। वे पाँच ही अस्तिकाय कहे जाते हैं।
1. अस्तिकायका लक्षण
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 5 जेसिं अत्थि सहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं। ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं ॥5॥ ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसजुत्ता ॥6॥
= जिन्हें विविध गुणों और पर्यायोंके साथ अपनत्व है, वे अस्तित्वकाय हैं, कि जिनसे तीन लोक निष्पन्न हैं ॥5॥ जो तीनों कालके भावोंरूप परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं ऐसे वे ही अस्तिकाय परिवर्तन लिंग सहित द्रव्यत्वको प्राप्त होते हैं ॥6॥
नियमसार / मूल या टीका गाथा .34 एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकायत्ति। णिद्दिठ्ठा जिणसमये काय हु बहुपदेसत्तं ॥34॥
= काल छोड़कर इन छह द्रव्योंको जिनसमयमें `अस्तिकाय' कहा गया है। क्योंकि उनमें जो बहुप्रदेशीपना है वही कायत्व है।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 23)
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 5 ततः कालाणुभ्योऽन्यसर्वेषां कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम्।
= कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्व द्रव्योंमें कायत्वनामा सावयवपना निश्चित करना चाहिए।
नि.सा/ता.वृ.34 बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः। काया इव कायाः। पंचास्तिकायाः। अस्तित्वं नाम सत्ता। ...अस्तित्वेन सनाथाः पंचास्तिकायाः।
= बहुप्रदेशोंके समूह वाला हो वह काय है। `काय' काय (शरीर) जैसे होते हैं। अस्तित्व सत्ताको कहते हैं। अस्तिकाय पाँच हैं। अस्तित्व और कायत्वसे सहित पाँच अस्तिकाय हैं।
2. पंचास्तिकायोंके नाम निर्देश
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 4,102 जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आगासं। अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अमुमहंता ॥4॥ एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा। लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं ॥102॥
= जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म तथा आकाश अस्तित्वमें नियत, अनन्यमय और बहुप्रदेशी हैं ॥4॥ ये काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव द्रव्य संज्ञाको प्राप्त करते है; परंतु कालको कायपना नहीं है ॥102॥
( पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 22) ( नियमसार / मूल या टीका गाथा .22) ( नियमसार / मूल या टीका गाथा .34) ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 135 में प्रक्षेपक गाथा 1), ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 23), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 620/1074), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34), (पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 22/47/19)
3. पाँचोंकी अस्तिकाय संज्ञाकी अन्वर्थकता
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 25 होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अणंतआयासे। मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥25॥
= जीव धर्म तथा अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं और आकाशमें अनंत प्रदेश हैं। पुद्गलमें संख्यात असंख्यात व अनंत प्रदेश हैं और कालके एक ही प्रदेश है, इसलिए काल काय नहीं है।
( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/24); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 620/1074)
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 4/12/15 जीवपुद्गलधर्मधर्माकाशानीति पंचास्तिकायानां विशेषसंज्ञा अन्वर्था ज्ञातव्या। अस्तित्वे सामान्यविशेषसत्तायां नियताः स्थिताः। ...अणुभिः प्रदेशेर्महांतः द्व्यणुकस्कंधापेक्षया द्वाभ्यामणुभ्यां महांतोऽणुमहांतः इति कायत्वमुक्तं। ...इति पंचास्तिकायानां विशेषसंज्ञा अस्तित्वं कायत्वं चोक्तम्।
= जीव पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश इन पंचास्तिकायोंकी विशेष संज्ञा अन्वर्थक जाननी चाहिए। सामान्य विशेष सत्तामें नियत या स्थित होनेके कारण तो ये अस्तित्वमें स्थित हैं। अणु या प्रदेशोंसे महान् है अर्थात् द्वि अणुक स्कंधकी अपेक्षा दो अणुओंसे बड़े हैं इसलिए अणु महान् हैं। इस प्रकार इनका कायत्व कहा गया। इस प्रकार इन पंचास्तिकायोंको अस्तित्व व कायत्व संज्ञा प्राप्त है।
(और भी देखें काय - 1.1)
4. पुद्गलको अस्तिकाय कहनेका कारण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/39/312/10 अणोरप्येकप्रदेशस्य पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयाप्रेक्षायोपचारकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्तः।
= एक प्रदेशवाले अणुका भी पूर्वोत्तरभाव-प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपचार कल्पनासे प्रदेश प्रचय कहा है।
( पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 4/13)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 137 पुद्गलस्य तु द्रव्येणैकप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि द्विप्रदेशाद्युद्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोद्भवत्वमस्ति। ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापिसंभवात् द्व्यादिसंख्येयासंख्येयानंतप्रदेशत्वमपि न्याय्यं पुद्गलस्य ॥137॥
= पुद्गल तो द्रव्यतः एकप्रदेशमात्र होनेसे यथोक्त प्रकारसे अप्रदेशी है, तथापि दो प्रदेशादिके उद्भवके हेतुभूत तथाविध स्निग्धरूक्ष-गुणरूप परिणमित होनेकी शक्तिरूप स्वभावके कारण उसके प्रदेशोंका उद्भव है। इसलिए पर्यायः अनेकप्रदेशित्व भी संभव होनेसे पुद्गलको द्विप्रदेशित्वसे लेकर संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेशित्व भी न्याय युक्त है।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 4/12/13)
5. कालद्रव्य अस्ति है पर अस्तिकाय नहीं
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 102 एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा। लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं ॥102॥
= काल और आकाशद्रव्य और धर्म व अधर्मद्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य व जीवद्रव्य ये छहों `द्रव्य' नामको पाते हैं। परंतु कालद्रव्यमें कायत्व नहीं है।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 25)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/36/312/6 ननु किमर्थमयं कालः पृथगुच्यते। यत्रैव धर्मोदय उक्तास्तत्रैवायमपि वक्तव्यः `अजीवकाया धर्माधर्माकालकालपुद्गलाः' इति। नैवं शंक्यम्; तत्रोद्देशे सति कायत्वमस्य स्यात्। नेष्यते च मुख्योपचारप्रदेशप्रचयकल्पनाभावात्।
= प्रश्न - काल द्रव्यको अलग से क्यों कहा? जहाँ धर्मादि द्रव्योंका कथन किया है, वहींपर इसका कथन करना था, जिससे कि प्रथम सूत्रका रूप ऐसा हो जाता `अजीवकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलाः।' उत्तर - इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर यदि इसका कथन करते तो इसे काय पना प्राप्त होता। परंतु कालद्रव्यको कायवान नहीं कहा है, क्योंकि इसमें मुख्य और उपचार दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/22/24/482/4) ( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/24) ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 620) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34) (पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 102/163/10)
धवला पुस्तक 90/4,1,45/168/4 कोऽनस्तिकायः। कालः, तस्य, प्रदेशप्रचयाभावात्। कुतस्तस्यास्तित्वम्। प्रचयस्य सप्रतिपक्षत्वान्यथानुपपत्तेः।
प्रश्न - अनस्तिकाय कौन है? उत्तर - काल अनिस्तिकाय है, क्योंकि उसके प्रदेशप्रचय नहीं है। प्रश्न - तो फिर कालका अस्तित्व कैसे है? उत्तर - चूँकि अस्तित्वके बिना प्रचयके सप्रतिपक्षता बन नहीं सकती अतः उसका अस्तित्व सिद्ध है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 26/73/7 अथ मतं - यथा पुद्गलपरमाणोर्द्रव्यरूपेणैकस्यापि द्व्यणुकादिस्कंधपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूपं कायत्वं जातं तथा-कालाणोरपि द्रव्येणैकस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवतीति। तत्र परिहारः-स्निग्धरुक्षहेतुकस्य बंधस्याभावांन भवति कायः। तदपि कस्मात्। स्निग्धरूक्षत्वं पुद्गलस्यैव धर्मो यतः कारणादिति।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 4/13/12 स्निग्धरूक्षत्वशक्तेरभावादुपचारेणापि कायत्वं नास्ति कालाणूनां।
= प्रश्न - जैसे द्रव्यरूपसे एक भी पुद्गल परमाणुद्विअणुक आदि स्कंध पर्याय द्वारा बहुप्रदेशरूप कायत्व (उपचारसे) सिद्ध हुआ है, ऐसे ही द्रव्यरूपसे एक होनेपर भी कालाणुके समय घडी आदि पर्यायों द्वारा कायत्व सिद्ध होता है? उत्तर - इसका परिहार करते हैं-कि स्निग्धरुक्ष गुणके कारण होनेवाले बंधका काल द्रव्यमें अभाव है, इसलिए वह काय नहीं हो सकता। प्रश्न - ऐसा भी क्यों है? उत्तर - क्योंकि स्निग्ध तथा रूक्षपना पुद्गलका ही धर्म है, कालमें स्निग्ध रूक्ष नहीं है। स्निग्धरुक्षत्व शक्तिका अभाव होनेके कारण उपचारसे भी कालणुओंके कायत्व नहीं हैं।
6. काल द्रव्यको एकप्रदेशी या अकाय माननेकी क्या आवश्यकता
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 144 सप्रदेशत्वे हि कालस्य कुत एकद्रव्यनिबंधनं लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वं नाभ्युपगम्यते। पर्यायसमयाप्रसिद्धेः। प्रदेशमात्रं हि द्रव्यसमयमतिक्रामतः परमाणो पर्यायसमयः प्रसिद्धध्यति।...लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशैकद्रव्यत्वऽपि तस्यैक प्रदेशमतिक्रामतः परमाणोस्तस्तिद्धिरिति चेन्नैवं। एकदेशवृत्तेः सर्ववृत्तित्वविरोधात्। सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यः सूक्ष्मो वृत्त्यंशः स समयो न तु तदेकशस्य। तिर्यक्प्रचयस्योर्घ्वप्रच्यत्वप्रसंगाच्च। तथाहि-प्रथममेकेन प्रदेशेन वर्तते ततोऽन्येन ततोऽप्यंतरेणेति तिर्यक्पचयोऽप्यूर्ध्वप्रचयीभूय प्रदेशामात्रं द्रव्यमवस्थापयति। ततस्तिर्यक्प्रचस्योर्ध्वप्रचयत्वमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमात्रं कालद्रव्यं व्यवस्थापयितव्यम्।
= प्रश्न - जब कि इस प्रकार काल (कथंचित्) सप्रदेश है तो उसके एकद्रव्यके कारणभूत लोकाकाशतुल्य असंख्येयप्रदेश क्यों न मानने चाहिए? उत्तर - ऐसा हो तो पर्याय समय सिद्ध नहीं होता। इसलिए असंख्यप्रदेश मानना योग्य नहीं है। परमाणु के द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमयका उल्लंघन करनेपर पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है। यदि द्रव्य समय लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशी हो तो पर्याय समयकी सिद्धि कहांसे होगी? प्रश्न - यदि कालद्रव्य लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवाला हो तो भी परमाणुके द्वारा उसका एकप्रदेश उल्लंघित होनेपर पर्यायसमयकी सिद्धि हो जायेगी? उत्तर - यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 1. एकप्रदेशकी वृत्तिको संपूर्ण द्रव्यकी वृत्ति माननेमें विरोध है। संपूर्ण काल पदार्थका जो सूक्ष्म वृत्त्यंश है वह समय है, परंतु उसके एकदेशका वृत्त्यंश समय नहीं। 2. (दूसरे) तिर्यक्प्रचयको ऊर्ध्व प्रचयत्वका प्रसंग आता है। वह इस प्रकार है-प्रथम, कालद्रव्य एक प्रदेशसे वर्ते, फिर दूसरे प्रदेशसे वर्त्ते, और फिर अन्य प्रदेशसे वर्ते। इस प्रकार तिर्यक्प्रचय ऊर्ध्व प्रचय बनकर द्रव्यको एक प्रदेशमात्र स्थापित करता है (अर्थात् तिर्यक्प्रचय ही ऊर्ध्व प्रचय है, ऐसा माननेका प्रसंग आता है, इस लिए द्रव्य प्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है।) इसलिए तिर्यक्प्रचयको ऊर्ध्वप्रचय न माननेवालेको प्रथम ही कालद्रव्यको प्रदेशमात्र निश्चय करना चाहिए।
7. पंचास्तिकायको जानने का प्रयोजन
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 56/220/9 पच्चास्तिकाय... मध्ये..स्वशुद्धजीवास्तिकायं... एवोपादेयं शेंषं न हेयं।
= पाँचों अस्तिकायोंमें स्वशुद्धजीवास्तिकाय ही उपादये है, अन्य सब हेय हैं।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 4/13/14)
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 5/16/15 तत्र शुद्धजीवास्तिकायस्य यानंतज्ञानादिगुणसत्ता सिद्धपर्यायसत्ता च शुद्धासंख्यात्प्रदेशरूपं कायत्वमुपादेयमिति भावार्थः।
= तहाँ शुद्ध जीवास्तिकायकी जो अनंतज्ञानादिरूप गुणसत्ता, सिद्धपर्यायरूप द्रव्यसत्ता और शुद्ध असंख्यातप्रदेशरूप कायत्व उपादये है, ऐसा भावार्थ है।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 136/192/10)
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 103/163-165/15 अथ पंचास्तिकायध्ययनस्य मुख्यवृत्त्या तदंतर्गतशुद्वजीवास्तिकायपरिज्ञानस्य वा फलं दर्शयति। ...द्वादशांगरूपेण विस्तीर्णस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं एवं विज्ञाय ...यः कर्ता मुंजति...राग्द्वेषौ द्वौ..सः...प्रोप्नोति..परिमोक्षम्।
= इस पंचास्तिकाय नाम ग्रंथके अध्ययनका तथा मुख्यवृत्तिसे उसके अंतर्गत बताये गये शुद्वजीवास्तिकायके परिज्ञानका फल दर्शाता हूँ। द्वादशांगरूपसे अति विस्तीर्ण भी इस प्रवचनके सारभूतको जानकर जो राग व द्वेष दोनोंको छोड़ता है वह मोक्ष प्राप्त करता है।
पुराणकोष से
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच द्रव्य बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय कहलाते हैं । काल द्रव्य को इस नाम से संबोधित नहीं किया गया है, क्योंकि यह एक प्रदेशी होता है । महापुराण 3 8-9, 24.90, हरिवंशपुराण 4.5