वेदनीय: Difference between revisions
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<p class="HindiText">बाह्य सामग्री के संयोग व वियोग द्वारा जीव के बाह्य सुख-दुःख को कारण वेदनीयकर्म दो प्रकार का होता है–सुख को कारणभूत सातावेदनीय और दुःख को कारणभूत असाता वेदनीय, क्योंकि बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना मोह के आधीन है, इसलिए इस कर्म का व्यापार भी मोहनीय के सहवर्ती है । <br /> | <p class="HindiText">बाह्य सामग्री के संयोग व वियोग द्वारा जीव के बाह्य सुख-दुःख को कारण वेदनीयकर्म दो प्रकार का होता है–सुख को कारणभूत सातावेदनीय और दुःख को कारणभूत असाता वेदनीय, क्योंकि बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना मोह के आधीन है, इसलिए इस कर्म का व्यापार भी मोहनीय के सहवर्ती है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> वेदनीय कर्म का सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> वेदनीय कर्म का सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/6/11 </span><span class="SanskritText">दुःखशोकतापाक्रंदनवधपरिदेवनांयात्मपरोभयस्थांयसद्वेद्यस्य ।11। </span>= <span class="HindiText">अपने में अथवा पर में अथवा दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं । (<span class="GRef"> तत्त्वसार/4 /20 </span>) । </span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/6/11 </span><span class="SanskritText">दुःखशोकतापाक्रंदनवधपरिदेवनांयात्मपरोभयस्थांयसद्वेद्यस्य ।11। </span>= <span class="HindiText">अपने में अथवा पर में अथवा दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं । (<span class="GRef"> तत्त्वसार/4 /20 </span>) । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/11/15/521/12 </span><span class="SanskritText">इमे शोकादयः दुःखविकल्पा दुःखविकल्पानामुपलक्षणार्थमुपादीयंते, ततोऽन्येषामपि संग्रहो भवति । के पुनस्ते । अशुभप्रयोगपरपरिवाद-पैशुन्य-अनुकंपाभाव-परपरितापनांगोपांगच्छेदन-भेदन-ताडन-त्रासन-तर्जन-भर्त्सन-तक्षण-विशंसन-बंधन-रोधन-मर्दन-दमन-वाहन-विहेडन-ह्नेपण-कायरौक्ष्य-परनिंदात्मप्रशंसा-संक्लेशप्रादुर्भावनायुर्वहमानता-निर्दयत्व-सत्त्वव्यपरोपण-महारंभपरिग्रह-विश्रंभोपघात-वक्रशीलतापापकर्म-जीवित्वानर्थदंडविषमिश्रण-शरजालपाशवागुरापंजरयंत्रापायसर्जन-बलाभियोगशस्रप्रदान-पापमिश्रभावाः । एंते दुःखादयः परिणामा आत्मपरोभयस्था असद्वेद्यस्यास्रवा वेदितव्याः ।</span> =<span class="HindiText"> उपरोक्त सूत्र में शोकादि का ग्रहण दुःख के विकल्पों के उपलक्षण रूप है । अतः अन्य विकल्पों का भी संग्रह हो जाता है । वे विकल्प निम्न प्रकार हैं-अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्य पूर्वक अनुकंपाभाव, परपरिताप, अगोपांगच्छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन, तक्षण, विशंसन, बंधन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, ह्नेपन, शरीर को रूखा कर देना, परनिंदा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भाव, जीवन को यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरंभ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थदंड, विषमिश्रण बाण-जल पाश रस्सी पिंजरा, यंत्र, आदि हिंसा के साधनों का उत्पादन, जबरदस्ती शस्त्र देना और दुःखादि पापमिश्रित भाव । ये सब दुःख आदिक परिणाम अपने में, परमें और दोनों में रहने वाले होकर असातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं ।(<span class="GRef"> तत्त्वसार/4/21-24 </span>) </span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/6/11/15/521/12 </span><span class="SanskritText">इमे शोकादयः दुःखविकल्पा दुःखविकल्पानामुपलक्षणार्थमुपादीयंते, ततोऽन्येषामपि संग्रहो भवति । के पुनस्ते । अशुभप्रयोगपरपरिवाद-पैशुन्य-अनुकंपाभाव-परपरितापनांगोपांगच्छेदन-भेदन-ताडन-त्रासन-तर्जन-भर्त्सन-तक्षण-विशंसन-बंधन-रोधन-मर्दन-दमन-वाहन-विहेडन-ह्नेपण-कायरौक्ष्य-परनिंदात्मप्रशंसा-संक्लेशप्रादुर्भावनायुर्वहमानता-निर्दयत्व-सत्त्वव्यपरोपण-महारंभपरिग्रह-विश्रंभोपघात-वक्रशीलतापापकर्म-जीवित्वानर्थदंडविषमिश्रण-शरजालपाशवागुरापंजरयंत्रापायसर्जन-बलाभियोगशस्रप्रदान-पापमिश्रभावाः । एंते दुःखादयः परिणामा आत्मपरोभयस्था असद्वेद्यस्यास्रवा वेदितव्याः ।</span> =<span class="HindiText"> उपरोक्त सूत्र में शोकादि का ग्रहण दुःख के विकल्पों के उपलक्षण रूप है । अतः अन्य विकल्पों का भी संग्रह हो जाता है । वे विकल्प निम्न प्रकार हैं-अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्य पूर्वक अनुकंपाभाव, परपरिताप, अगोपांगच्छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन, तक्षण, विशंसन, बंधन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, ह्नेपन, शरीर को रूखा कर देना, परनिंदा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भाव, जीवन को यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरंभ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थदंड, विषमिश्रण बाण-जल पाश रस्सी पिंजरा, यंत्र, आदि हिंसा के साधनों का उत्पादन, जबरदस्ती शस्त्र देना और दुःखादि पापमिश्रित भाव । ये सब दुःख आदिक परिणाम अपने में, परमें और दोनों में रहने वाले होकर असातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं ।(<span class="GRef"> तत्त्वसार/4/21-24 </span>) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/446/653/18 </span>पर उद्धृत-<span class="SanskritText">अन्येषां यो दुःखमज्ञोऽनुकंपां त्यक्त्वा तीव्रं तीव्रसंक्लेशयुक्तः । बंधच्छेदैस्ताडनैर्मारणैश्च दाहै रोधैश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं कांक्षन्नात्मनो दृष्टचित्तो नीचो नाचं कर्म कुर्वन्सदैव । पश्चात्तपं तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसा तवेद्यं सदैवम् ।-रागाभिभवान्नष्टबुद्धिचेष्टः कथमेव हितोद्योगं कुर्यात् ।</span> =<span class="HindiText"> जो मूर्ख मनुष्य दया का त्याग कर तीव्र संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणी को बाँधना, | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/446/653/18 </span>पर उद्धृत-<span class="SanskritText">अन्येषां यो दुःखमज्ञोऽनुकंपां त्यक्त्वा तीव्रं तीव्रसंक्लेशयुक्तः । बंधच्छेदैस्ताडनैर्मारणैश्च दाहै रोधैश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं कांक्षन्नात्मनो दृष्टचित्तो नीचो नाचं कर्म कुर्वन्सदैव । पश्चात्तपं तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसा तवेद्यं सदैवम् ।-रागाभिभवान्नष्टबुद्धिचेष्टः कथमेव हितोद्योगं कुर्यात् ।</span> =<span class="HindiText"> जो मूर्ख मनुष्य दया का त्याग कर तीव्र संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणी को बाँधना, तोड़ना, पीटना, प्राण लेना, खाने के और पाने के पदार्थों से बंचित रखना ऐसे ही कार्य हमेशा करता है । ऐसे कार्य में ही अपने को सुखी मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है, ऐसे कार्य करते समय जिनके मन में पश्चात्तप होता नहीं, उसी को निरंतर असातावेदनीय कर्म का बंध होता है, जिससे उसका देह हमेशा रोग पीड़ित रहता है, तब उसकी बुद्धि व क्रियाएँ नष्ट होती हैं । वह पुरुष अपने हित का उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> साता-असाता के उदय का ज. उ. काल व अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> साता-असाता के उदय का ज. उ. काल व अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 4, 24/53/11 </span><span class="PrakritText">सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तभेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियेमब्भुवगमादो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-इस तरह तो सातावेदनीय का उदय काल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि सयोगिकेवली गुणस्थान को | <span class="GRef"> धवला 13/5, 4, 24/53/11 </span><span class="PrakritText">सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तभेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियेमब्भुवगमादो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-इस तरह तो सातावेदनीय का उदय काल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि सयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अंतर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 15/ </span>पृष्ठ/पंक्ति-<span class="PrakritText">सादस्स जहण्णएण एयसमओ, उक्कस्सेण छम्मश्सा । असादस्स जहण्णएण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तव्भहियाणि । कुदो । सत्तमपुढविपवेसादो पुव्वं पच्छा च असादस्स अंतोमुहुत्तमेतकालमुदीरणुवलंभादो । (62/2) । सादस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सादस्स गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुहुत्तं, उक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं चेव । असादस्स जहण्णमंतरमेगसमओ उक्कस्सं छम्मासा । मणुसगदीए असादस्स उदीरणंतरं जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । (68/6) ।</span> =<span class="HindiText"> सातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास है । असातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्षतः अंतर्मुहूर्त से अधिक तेंत्तीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि सातवीं पृथिवी में प्रवेश करने से पूर्व और पश्चात् अंतर्मुहूर्त मात्र काल तक असातावेदनीय की उदीरणा पायी जाती है । सातावेदनीय की उदीरणा में अंतरकाल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक तेंत्तीस सागरोपम प्रमाण है । गति के अनुवाद से सातावेदनीय की उदीरणा का अंतरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त ही है । असातावेदनीय का जघन्य अंतर एक समय और उत्कृष्ट छह मास प्रमाण है । मनुष्य गति में असाता की उदीरणा का अंतर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त प्रमाण है । <br /> | <span class="GRef"> धवला 15/ </span>पृष्ठ/पंक्ति-<span class="PrakritText">सादस्स जहण्णएण एयसमओ, उक्कस्सेण छम्मश्सा । असादस्स जहण्णएण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तव्भहियाणि । कुदो । सत्तमपुढविपवेसादो पुव्वं पच्छा च असादस्स अंतोमुहुत्तमेतकालमुदीरणुवलंभादो । (62/2) । सादस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सादस्स गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुहुत्तं, उक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं चेव । असादस्स जहण्णमंतरमेगसमओ उक्कस्सं छम्मासा । मणुसगदीए असादस्स उदीरणंतरं जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । (68/6) ।</span> =<span class="HindiText"> सातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास है । असातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्षतः अंतर्मुहूर्त से अधिक तेंत्तीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि सातवीं पृथिवी में प्रवेश करने से पूर्व और पश्चात् अंतर्मुहूर्त मात्र काल तक असातावेदनीय की उदीरणा पायी जाती है । सातावेदनीय की उदीरणा में अंतरकाल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक तेंत्तीस सागरोपम प्रमाण है । गति के अनुवाद से सातावेदनीय की उदीरणा का अंतरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त ही है । असातावेदनीय का जघन्य अंतर एक समय और उत्कृष्ट छह मास प्रमाण है । मनुष्य गति में असाता की उदीरणा का अंतर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त प्रमाण है । <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 12/4, 2, 13, 55/400/2 </span>वेयणीयउक्कस्साणुभागबंधस्स ट्ठिदी बारसमुहुत्तमत्तां । = वेदनीय के उत्कृष्ट अनुभाग की स्थिति बारह मुहूर्त मात्र है । <br /> | <span class="GRef"> धवला 12/4, 2, 13, 55/400/2 </span>वेयणीयउक्कस्साणुभागबंधस्स ट्ठिदी बारसमुहुत्तमत्तां । = वेदनीय के उत्कृष्ट अनुभाग की स्थिति बारह मुहूर्त मात्र है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> अन्य कर्मों को वेदनीय नहीं कहा जा सकता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> अन्य कर्मों को वेदनीय नहीं कहा जा सकता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 7/10/7 </span><span class="PrakritText"> वेद्यत इति वेदनीयम् । एदीए उप्पत्तीए सव्वकम्माणं वेदणीयत्तं पसज्जदे । ण एस दोसो, रूढिवसेण कुसलसद्दो व्व अप्पिदपोग्गलपुजे चेव वेदणीयसद्दप्पउत्तीदो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>‘जो वेदन किया जाय वह वेदनीय कर्म है’ इस प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा तो सभी कर्मों के वेदनीयपने का प्रसंग प्राप्त होता है? <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि रूढि के वश से कुशल शब्द के समान विवक्षित पुद्गल पुंज में ही वेदनीय, इस शब्द की प्रवृत्ति पायी जाती है । जैसे ‘कुशल’ शब्द का अर्थ ‘कुश को लाने वाला’ ऐसा होने पर भी वह ‘चतुर’ अर्थ में प्रयोग होता है, इसी प्रकार सभी कर्मों में वेदनीयता होते हुए भी वेदनीय संज्ञा एक कर्म विशेष के लिए ही | <span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 7/10/7 </span><span class="PrakritText"> वेद्यत इति वेदनीयम् । एदीए उप्पत्तीए सव्वकम्माणं वेदणीयत्तं पसज्जदे । ण एस दोसो, रूढिवसेण कुसलसद्दो व्व अप्पिदपोग्गलपुजे चेव वेदणीयसद्दप्पउत्तीदो । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>‘जो वेदन किया जाय वह वेदनीय कर्म है’ इस प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा तो सभी कर्मों के वेदनीयपने का प्रसंग प्राप्त होता है? <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि रूढि के वश से कुशल शब्द के समान विवक्षित पुद्गल पुंज में ही वेदनीय, इस शब्द की प्रवृत्ति पायी जाती है । जैसे ‘कुशल’ शब्द का अर्थ ‘कुश को लाने वाला’ ऐसा होने पर भी वह ‘चतुर’ अर्थ में प्रयोग होता है, इसी प्रकार सभी कर्मों में वेदनीयता होते हुए भी वेदनीय संज्ञा एक कर्म विशेष के लिए ही रूढ़ है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 10/4, 2, 3, 3/16/6 </span><span class="PrakritText">वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संववहारदंसणादो । ण च ताणि सुहदुक्खाणि वेय-णीयपोग्गलक्खंधं मोत्तूण अण्णकम्मदव्वे हिंतो उप्पज्जंति, फलाभावेण वेयणीयकम्माभावप्पसंगादो । तम्हा सव्वकम्माणं पडिसेहं काऊण पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव वेयणा त्ति उत्तं । अट्ठण्णं कम्माणमुदयगदपोग्गलक्खंधो वेदणा त्ति किमट्ठं एत्थ ण घेप्पदे । ण, एदम्हि अहिप्पाए तदसंभवादो । ण च अण्णम्हि उजुसुदे अण्णस्स उजुसुदस्स संभवो, भिण्णविसयाणं णयाणमेयविसयत्तविरोहादो । </span>= <span class="HindiText">वेदना का अर्थ सुख दुख है, क्योंकि लोक में वैसा व्यवहार देखा जाता है । और वे सुख-दुख वेदनीय रूप पुद्गलस्कंध के सिवा अन्य कर्म द्रव्यों से नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इस प्रकार फल का अभाव होने से वेदनीय कर्म के अभाव का प्रसंग आता है । इसलिए प्रकृत में सब कर्मों का प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्य को ही वेदना ऐसा कहा है । <strong>प्रश्न–</strong>आठ कर्मों का उदयगत पुद्गलस्कंध वेदना है, ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते–देखें [[ वेदना ]]। <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि वेदना को स्वीकार करने वाले ॠजुसूत्र नय के अभिप्राय में वैसा मानना संभव नहीं है । और अन्य ॠजुसूत्र में अन्य ॠजुसूत्र संभव नहीं है, क्योंकि भिन्न-भिन्न विषयों वाले, नयों का एक विषय मानने में विरोध आता है ।–देखें [[ नय#IV.3.3 | नय - IV.3.3 ]]। </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 10/4, 2, 3, 3/16/6 </span><span class="PrakritText">वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संववहारदंसणादो । ण च ताणि सुहदुक्खाणि वेय-णीयपोग्गलक्खंधं मोत्तूण अण्णकम्मदव्वे हिंतो उप्पज्जंति, फलाभावेण वेयणीयकम्माभावप्पसंगादो । तम्हा सव्वकम्माणं पडिसेहं काऊण पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव वेयणा त्ति उत्तं । अट्ठण्णं कम्माणमुदयगदपोग्गलक्खंधो वेदणा त्ति किमट्ठं एत्थ ण घेप्पदे । ण, एदम्हि अहिप्पाए तदसंभवादो । ण च अण्णम्हि उजुसुदे अण्णस्स उजुसुदस्स संभवो, भिण्णविसयाणं णयाणमेयविसयत्तविरोहादो । </span>= <span class="HindiText">वेदना का अर्थ सुख दुख है, क्योंकि लोक में वैसा व्यवहार देखा जाता है । और वे सुख-दुख वेदनीय रूप पुद्गलस्कंध के सिवा अन्य कर्म द्रव्यों से नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इस प्रकार फल का अभाव होने से वेदनीय कर्म के अभाव का प्रसंग आता है । इसलिए प्रकृत में सब कर्मों का प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्य को ही वेदना ऐसा कहा है । <strong>प्रश्न–</strong>आठ कर्मों का उदयगत पुद्गलस्कंध वेदना है, ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते–देखें [[ वेदना ]]। <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि वेदना को स्वीकार करने वाले ॠजुसूत्र नय के अभिप्राय में वैसा मानना संभव नहीं है । और अन्य ॠजुसूत्र में अन्य ॠजुसूत्र संभव नहीं है, क्योंकि भिन्न-भिन्न विषयों वाले, नयों का एक विषय मानने में विरोध आता है ।–देखें [[ नय#IV.3.3 | नय - IV.3.3 ]]। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 88/357/4 </span><span class="PrakritText">अण्णाणं पि दुक्खप्पाययं दिस्सदि त्ति तस्स वि असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे । ण, अणियमेण दुक्खुप्पायस्स असादत्ते संते खग्गमोग्गरादीणं पि असादावेदणीयत्तप्पसंगादो । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न–</strong>अज्ञान भी तो दुःख का उत्पादक देखा जाता है, इसलिए उसे भी असाता वेदनीय क्यों न माना जाये? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि अनियम से दुःख के उत्पादक को असाता वेदनीय मान लेने पर तलवार और मुद्गर आदि को भी असाता वेदनीय मानना | <span class="GRef"> धवला 13/5, 5, 88/357/4 </span><span class="PrakritText">अण्णाणं पि दुक्खप्पाययं दिस्सदि त्ति तस्स वि असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे । ण, अणियमेण दुक्खुप्पायस्स असादत्ते संते खग्गमोग्गरादीणं पि असादावेदणीयत्तप्पसंगादो । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न–</strong>अज्ञान भी तो दुःख का उत्पादक देखा जाता है, इसलिए उसे भी असाता वेदनीय क्यों न माना जाये? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि अनियम से दुःख के उत्पादक को असाता वेदनीय मान लेने पर तलवार और मुद्गर आदि को भी असाता वेदनीय मानना पड़ेगा । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> वेदनीय का कार्य बाह्य सामग्री संपादन है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> वेदनीय का कार्य बाह्य सामग्री संपादन है</strong> </span><br /> | ||
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प. <span class="GRef"> धवला/ </span>पू./581 <span class="SanskritGatha">सद्वेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वयमिह करोति जीवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।581। </span>= <span class="HindiText">सातावेदनीय के उदय से प्राप्त होने वाले घर धनधान्य और स्त्री पुत्र वगैरह को जीव स्वयं ही करता है तथा स्वयं ही भोगता है । <br /> | प. <span class="GRef"> धवला/ </span>पू./581 <span class="SanskritGatha">सद्वेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वयमिह करोति जीवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।581। </span>= <span class="HindiText">सातावेदनीय के उदय से प्राप्त होने वाले घर धनधान्य और स्त्री पुत्र वगैरह को जीव स्वयं ही करता है तथा स्वयं ही भोगता है । <br /> | ||
देखें [[ प्रकृतिबंध#3.3 | प्रकृतिबंध - 3.3 ]](अघाती कर्मों का कार्य संसार की निमित्तभूत सामग्री का प्रस्तुत करना है ।) <br>वर्णव्यवस्था/1/4 (राज्यादि संपदा की प्राप्ति में साता वेदनीय का व्यापार है ।) </span></li> | देखें [[ प्रकृतिबंध#3.3 | प्रकृतिबंध - 3.3 ]](अघाती कर्मों का कार्य संसार की निमित्तभूत सामग्री का प्रस्तुत करना है ।) <br>वर्णव्यवस्था/1/4 (राज्यादि संपदा की प्राप्ति में साता वेदनीय का व्यापार है ।) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="9" id="9"><strong> उपघात नाम कर्म उपरोक्त कार्य में सहायक है</strong> </span><br><span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 28/59/5 </span><span class="PrakritText">जीवस्स दुक्खुप्पायणे असादावेदणीयस्स वावारो चे, होदु तत्थ तस्स वावारो, किंतु उवघादकम्मं पि तस्स सहकारिकारणं होदि, तदुदयणिमित्तपोग्गलदव्वसंपादणादो ।</span> = <span class="HindiText">जीव के दुःख उत्पन्न करने में तो असातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है । [फिर यहाँ उपघात कर्म को जीव | <li><span class="HindiText" name="9" id="9"><strong> उपघात नाम कर्म उपरोक्त कार्य में सहायक है</strong> </span><br><span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 28/59/5 </span><span class="PrakritText">जीवस्स दुक्खुप्पायणे असादावेदणीयस्स वावारो चे, होदु तत्थ तस्स वावारो, किंतु उवघादकम्मं पि तस्स सहकारिकारणं होदि, तदुदयणिमित्तपोग्गलदव्वसंपादणादो ।</span> = <span class="HindiText">जीव के दुःख उत्पन्न करने में तो असातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है । [फिर यहाँ उपघात कर्म को जीव पीड़ा का कारण कैसे बताया जा रहा है? <strong>उत्तर–</strong>तहाँ असाता वेदनीय का व्यापार रहा आवे, किंतु उपघातकर्म भी उस असातावेदनीय का सहकारी कारण होता है, क्योंकि उसके उदय के निमित्त से दुःखकर पुद्गल द्रव्य का संपादन होता है । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="10" id="10"> सातावेदनीय कथंचित् जीवपुद्गल विपाकी है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="10" id="10"> सातावेदनीय कथंचित् जीवपुद्गल विपाकी है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 18/36/2 </span><span class="PrakritText"> एवं संते सादावेयणीयस्स पोग्गलविवाइत्तं होइ त्ति णासंकणिज्जं, दुक्खवसमेणुप्पण्ण-सुवत्थियकणस्स दुक्खाविणाभाविस्स उवयारेणेव लद्धसुहसण्णस्स जीवादो पुधभूदस्स हेदुत्तणेण सुत्ते तस्स जीवविवाइत्तसुहहेदुत्ताणमुवदेसादो । तो वि जीवपोग्गलविवाइत्तं सादावेदणीयस्स पावेदि त्ति चे ण, इट्ठत्तादो । तहोवएसो णत्थि त्ति चेण, जीवस्स अत्थित्तण्णहाणुववत्तीदो तहोवदेसत्थित्तसिद्धीए । ण च सुह-दुक्खहेउदव्वसंपादयमण्णं कम्ममत्थि त्ति अणुवलंभादो । </span>=<span class="HindiText"> [सुख के हेतुभूत बाह्य सामग्री संपादत् में सातावेदनीय का व्यापार होता है] इस व्यवस्था के मानने पर सातावेदनीय प्रकृति के पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होगा, ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि दुःख के उपशम से उत्पन्न हुए दुःख के अविनाभावी उपचार से ही सुख संज्ञा को प्राप्त और जीव से अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्य के कण का हेतु होने से सूत्र में सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकित्व का और सुख हेतुत्व का उपदेश दिया गया है । यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकीपना और पुद्गलविपाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात हमें इष्ट है । यदि कहा जाये कि उक्त प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि जीव का अस्तित्व अन्यथा बन नहीं सकता है, इसलिए उस प्रकार के उपदेश की सिद्धि हो जाती है । सुख और दुःख के कारणभूत द्रव्यों का संपादन करने वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता । <br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1, 9-1, 18/36/2 </span><span class="PrakritText"> एवं संते सादावेयणीयस्स पोग्गलविवाइत्तं होइ त्ति णासंकणिज्जं, दुक्खवसमेणुप्पण्ण-सुवत्थियकणस्स दुक्खाविणाभाविस्स उवयारेणेव लद्धसुहसण्णस्स जीवादो पुधभूदस्स हेदुत्तणेण सुत्ते तस्स जीवविवाइत्तसुहहेदुत्ताणमुवदेसादो । तो वि जीवपोग्गलविवाइत्तं सादावेदणीयस्स पावेदि त्ति चे ण, इट्ठत्तादो । तहोवएसो णत्थि त्ति चेण, जीवस्स अत्थित्तण्णहाणुववत्तीदो तहोवदेसत्थित्तसिद्धीए । ण च सुह-दुक्खहेउदव्वसंपादयमण्णं कम्ममत्थि त्ति अणुवलंभादो । </span>=<span class="HindiText"> [सुख के हेतुभूत बाह्य सामग्री संपादत् में सातावेदनीय का व्यापार होता है] इस व्यवस्था के मानने पर सातावेदनीय प्रकृति के पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होगा, ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि दुःख के उपशम से उत्पन्न हुए दुःख के अविनाभावी उपचार से ही सुख संज्ञा को प्राप्त और जीव से अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्य के कण का हेतु होने से सूत्र में सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकित्व का और सुख हेतुत्व का उपदेश दिया गया है । यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकीपना और पुद्गलविपाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात हमें इष्ट है । यदि कहा जाये कि उक्त प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि जीव का अस्तित्व अन्यथा बन नहीं सकता है, इसलिए उस प्रकार के उपदेश की सिद्धि हो जाती है । सुख और दुःख के कारणभूत द्रव्यों का संपादन करने वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता । <br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> सुख और दु:ख देने वाला एक कर्म । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस | <div class="HindiText"> <p> सुख और दु:ख देने वाला एक कर्म । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त तथा मध्यम स्थिति विविध प्रमाण की होती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.96, 58.216, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.149, 156, 159-160 </span></p> | ||
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Revision as of 12:33, 1 January 2021
सिद्धांतकोष से
बाह्य सामग्री के संयोग व वियोग द्वारा जीव के बाह्य सुख-दुःख को कारण वेदनीयकर्म दो प्रकार का होता है–सुख को कारणभूत सातावेदनीय और दुःख को कारणभूत असाता वेदनीय, क्योंकि बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना मोह के आधीन है, इसलिए इस कर्म का व्यापार भी मोहनीय के सहवर्ती है ।
- वेदनीय कर्म का सामान्य लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/4/380/4 वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम् ।
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/1 वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःखसंवेदनम् । = जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है । सत्-असत् लक्षण वाले वेदनीयकर्म की प्रकृति सुख व दुःख का संवेदन कराना है । ( राजवार्तिक/8/3/2/568/1 +4/567/3); ( धवला 6/1, 9-1, 7/10/7, 9 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/14/10 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/20/13/14 ) ।
धवला 6/1, 9-1, 7/10/9 जीवस्स सुह-दुक्खाणुहवणणिबंधणो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तदिपच्चयवसेण कम्मपज्जयपरिणदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि भण्णदे । = जीव के सुख और दुःख के अनुभवन का कारण, मिथ्यात्व आदि के प्रत्ययों के वश से कर्मरूप पर्याय से परिणत और जीव के साथ समवाय संबंध को प्राप्त पुद्गलस्कंध ‘वेदनीय’ इस नाम से कहा जाता है ।
धवला 13/5, 5, 19/208/7 जीवस्स सुह-दुक्खप्पापयं कम्मं वेयणीयं णाम । = जीव के सुख और दुःख का उत्पादक कर्म वेदनीय है । ( धवला 15/3/6/6 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/92/10 ) ।
- वेदनीय कर्म के भेद-प्रभेद
षट्खंडागम/6/1, 9-1/ सूत्र- 17-18/34 वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ ।17। सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेव ।18। = वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं ।17। सातावेदनीय और असातावेदनीय, ये दो ही वेदनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं ।18। ( षट्खंडागम/12/4, 2, 14/ सूत्र 6-7/481); ( षट्खंडागम/13/505/ सूत्र 87-88/356); ( महाबंध/1/ #5/ 28); (मू.आ./1226); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/8 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/2/4 ); ( तत्त्वसार/5/27 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/17/7 ) ।
धवला 12/4, 2, 14, 7/481/4 सादावेदणीयमसादावेदणीयमिदि दो चेव सहावा, सुहदुक्खवेयणाहिंतो पुधभूदाए अण्णिस्से वेयणाए अणुवलंभादो । सुहभेदेण दुहभेदेण च अणंतवियप्पेण वेयणीयकम्मस्स अणंताओ सत्तीओ किण्ण पढिदाओ । सच्चमेदं जदि पज्जवट्ठियणओ अवलंबिदो किंतु एत्थ दव्वट्ठियणओ अवलंबिदो त्ति वेयणीयस्स ण तत्तियमेत्तसत्तीओ, दुवे चेव । = सातावेदनीय और असातावेदनीय इस प्रकार वेदनीय के दो ही स्वभाव हैं, क्योंकि सुख व दुखरूप वेदनाओं से भिन्न अन्य कोई वेदना पायी नहीं जाती । प्रश्न–अनंत विकल्प रूप सुख के भेद से और दुख के भेद से वेदनीय कर्म की अनंत शक्तियाँ क्यों नहीं कही गयी हैं? उत्तर–यदि पर्यायार्थिक नय का अवलंबन किया गया होता तो यह कहना सत्य था, परंतु चूँकि यहाँ द्रव्यार्थिक नय का अवलंबन किया गया है, अतएव वेदनीय की उतनी मात्र शक्तियाँ संभव नहीं है, किंतु दो ही शक्तियाँ संभव हैं ।
- साता-असाता वेदनीय के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/8/384/4 यदुदयाद्देवादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । प्रशस्तं वेद्यं सद्वेद्यमिति । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति । = जिसके उदय से देवादि गतियों में शरीर और मन संबंधी सुख की प्राप्ति होती है वह सद्वेद्य है । प्रशस्त वेद्य का नाम सद्वेद्य है । जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकार के दुःख मिलते हैं वह असद्वेद्य है । अप्रशस्त वेद्य का नाम असद्वेद्य है । ( गोम्मटसार कर्मकांड/14/10 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/ जो.प्र./33/27/16) ।
राजवार्तिक/8/8/1-2/573/20 देवादिषु गतिषु बहुप्रकारजातिविशिष्टासु यस्यादयात् अनगृहीत (तृ द्रव्यसंबंधापेक्षात् प्राणिनां शरीरमानसानेकविधसुखपरिणामस्तत्सद्वेद्यम् । प्रशस्तं वेद्यं सद्वेद्यं ।1। नारकादिषु गतिषु नानाप्रकारजातिविशेषावकीर्णासु कायिकं बहुविधं मानसं वाति दुःसहं जंमजरामरणप्रियविप्रयोगाप्रियसंयोगव्याधिवधबंधादिजनितं दुःखं यस्य फलं प्राणिनां तदसद्वद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यम् असद्वेद्यम् । = बहुत प्रकार की जाति-विशिष्ट देव आदि गतियों में इष्ट सामग्री के सन्निधान की अपेक्षा प्राणियों के अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक सुखों का, जिसके उदय से अनुभव होता है वह सातावेदनीय है और जिसके उदय से नाना प्रकार जातिरूप विशेषों से अवकीर्ण नरक आदि गतियों में बहुत प्रकार के कायिक मानस अतिदुःसह जन्म जरा-मरण प्रियवियाग अप्रियसंयोग व्याधि वध और बंध आदि से जन्म दुःख का अनुभव होता है वह असातावेदनीय है ।
धवला 6/1, 9-1, 18/35/3 सादं सुहं, तं वेदावेदि भुंजावेदि त्ति सादावेदणीयं । असादं दुक्खं, तं वेदावेदि भुंजावेदि त्ति असादावेदणीयं । = साता यह नाम सुख का है, उस सुख को जो वेदन कराता है अर्थात् भोग कराता है, वह सातावेदनीय कर्म है । असाता नाम दुख का है, उसे जो वेदन या अनुभवन कराता है उसे असाता वेदनीय कर्म कहते हैं । ( धवला 13/5, 5, 88/357/2 ) ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/17/8 रतिमोहनीयोदयबलेन जीवस्य सुखकारणेंद्रियविषयानुभवनं कारयति तत्सातावेदनीयं । दुःखकारणेंद्रियविषयानुभवन कारयति अरतिमोहनीयोदयबलेन तदसातवेदनीयं । = रतिमोहनीय कर्म के उदय से सुख के कारणभूत इंद्रियों के विषयों का जो अनुभव कराता है वह सातवेदनीय कर्म है । दुःख के कारणभूत इंद्रियों के विषयों का अनुभव, अरति मोहनीयकर्म के उदय से जो कराता है वह असातवेदनीय कर्म है ।
- सातावेदनीय के बंध योग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र/6/12 भूतव्रत्यनुकंपादानसरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ।12।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/ पंक्ति ‘आदिशब्देन संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपोऽनुरोधः ।2।...इति शब्दः प्रकारार्थः । के पुनस्ते प्रकाराः । अर्हत्पूजाकरणतत्परताबालवृद्धतपस्विवैयावृत्त्यादयः । = भूत-अनुकंपा, व्रती अनुकंपा, दान और सराग संयम आदि का योग तथा क्षांति और शौच ये साता वेदनीयकर्म के आस्रव हैं । सूत्र में सरागसंयम के आगे दिये गये आदि पद से संयमासंयम अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण होता है । सूत्र में आया हुआ ‘इति’ शब्द प्रकारवाची है । वे प्रकार ये हैं,–अर्हंत की पूजा करने में तत्परता तथा बाल और वृद्ध तपस्वियों की वैयावृत्त्य आदि का करना । ( राजवार्तिक/8/12/7/522/26; 13/523/13 ); ( तत्त्वसार/4/25-26 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/801/980 ) ।
- असातावेदनीय के बंधयोग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र/6/11 दुःखशोकतापाक्रंदनवधपरिदेवनांयात्मपरोभयस्थांयसद्वेद्यस्य ।11। = अपने में अथवा पर में अथवा दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं । ( तत्त्वसार/4 /20 ) ।
राजवार्तिक/6/11/15/521/12 इमे शोकादयः दुःखविकल्पा दुःखविकल्पानामुपलक्षणार्थमुपादीयंते, ततोऽन्येषामपि संग्रहो भवति । के पुनस्ते । अशुभप्रयोगपरपरिवाद-पैशुन्य-अनुकंपाभाव-परपरितापनांगोपांगच्छेदन-भेदन-ताडन-त्रासन-तर्जन-भर्त्सन-तक्षण-विशंसन-बंधन-रोधन-मर्दन-दमन-वाहन-विहेडन-ह्नेपण-कायरौक्ष्य-परनिंदात्मप्रशंसा-संक्लेशप्रादुर्भावनायुर्वहमानता-निर्दयत्व-सत्त्वव्यपरोपण-महारंभपरिग्रह-विश्रंभोपघात-वक्रशीलतापापकर्म-जीवित्वानर्थदंडविषमिश्रण-शरजालपाशवागुरापंजरयंत्रापायसर्जन-बलाभियोगशस्रप्रदान-पापमिश्रभावाः । एंते दुःखादयः परिणामा आत्मपरोभयस्था असद्वेद्यस्यास्रवा वेदितव्याः । = उपरोक्त सूत्र में शोकादि का ग्रहण दुःख के विकल्पों के उपलक्षण रूप है । अतः अन्य विकल्पों का भी संग्रह हो जाता है । वे विकल्प निम्न प्रकार हैं-अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्य पूर्वक अनुकंपाभाव, परपरिताप, अगोपांगच्छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन, तक्षण, विशंसन, बंधन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, ह्नेपन, शरीर को रूखा कर देना, परनिंदा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भाव, जीवन को यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरंभ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थदंड, विषमिश्रण बाण-जल पाश रस्सी पिंजरा, यंत्र, आदि हिंसा के साधनों का उत्पादन, जबरदस्ती शस्त्र देना और दुःखादि पापमिश्रित भाव । ये सब दुःख आदिक परिणाम अपने में, परमें और दोनों में रहने वाले होकर असातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं ।( तत्त्वसार/4/21-24 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/446/653/18 पर उद्धृत-अन्येषां यो दुःखमज्ञोऽनुकंपां त्यक्त्वा तीव्रं तीव्रसंक्लेशयुक्तः । बंधच्छेदैस्ताडनैर्मारणैश्च दाहै रोधैश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं कांक्षन्नात्मनो दृष्टचित्तो नीचो नाचं कर्म कुर्वन्सदैव । पश्चात्तपं तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसा तवेद्यं सदैवम् ।-रागाभिभवान्नष्टबुद्धिचेष्टः कथमेव हितोद्योगं कुर्यात् । = जो मूर्ख मनुष्य दया का त्याग कर तीव्र संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणी को बाँधना, तोड़ना, पीटना, प्राण लेना, खाने के और पाने के पदार्थों से बंचित रखना ऐसे ही कार्य हमेशा करता है । ऐसे कार्य में ही अपने को सुखी मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है, ऐसे कार्य करते समय जिनके मन में पश्चात्तप होता नहीं, उसी को निरंतर असातावेदनीय कर्म का बंध होता है, जिससे उसका देह हमेशा रोग पीड़ित रहता है, तब उसकी बुद्धि व क्रियाएँ नष्ट होती हैं । वह पुरुष अपने हित का उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता ।
- साता-असाता के उदय का ज. उ. काल व अंतर
धवला 13/5, 4, 24/53/11 सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तभेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियेमब्भुवगमादो । = प्रश्न-इस तरह तो सातावेदनीय का उदय काल अंतर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि सयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अंतर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है ।
धवला 15/ पृष्ठ/पंक्ति-सादस्स जहण्णएण एयसमओ, उक्कस्सेण छम्मश्सा । असादस्स जहण्णएण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तव्भहियाणि । कुदो । सत्तमपुढविपवेसादो पुव्वं पच्छा च असादस्स अंतोमुहुत्तमेतकालमुदीरणुवलंभादो । (62/2) । सादस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सादस्स गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुहुत्तं, उक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं चेव । असादस्स जहण्णमंतरमेगसमओ उक्कस्सं छम्मासा । मणुसगदीए असादस्स उदीरणंतरं जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । (68/6) । = सातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास है । असातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्षतः अंतर्मुहूर्त से अधिक तेंत्तीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि सातवीं पृथिवी में प्रवेश करने से पूर्व और पश्चात् अंतर्मुहूर्त मात्र काल तक असातावेदनीय की उदीरणा पायी जाती है । सातावेदनीय की उदीरणा में अंतरकाल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक तेंत्तीस सागरोपम प्रमाण है । गति के अनुवाद से सातावेदनीय की उदीरणा का अंतरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त ही है । असातावेदनीय का जघन्य अंतर एक समय और उत्कृष्ट छह मास प्रमाण है । मनुष्य गति में असाता की उदीरणा का अंतर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त प्रमाण है ।
धवला 12/4, 2, 13, 55/400/2 वेयणीयउक्कस्साणुभागबंधस्स ट्ठिदी बारसमुहुत्तमत्तां । = वेदनीय के उत्कृष्ट अनुभाग की स्थिति बारह मुहूर्त मात्र है ।
- अन्य कर्मों को वेदनीय नहीं कहा जा सकता
धवला 6/1, 9-1, 7/10/7 वेद्यत इति वेदनीयम् । एदीए उप्पत्तीए सव्वकम्माणं वेदणीयत्तं पसज्जदे । ण एस दोसो, रूढिवसेण कुसलसद्दो व्व अप्पिदपोग्गलपुजे चेव वेदणीयसद्दप्पउत्तीदो । = प्रश्न–‘जो वेदन किया जाय वह वेदनीय कर्म है’ इस प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा तो सभी कर्मों के वेदनीयपने का प्रसंग प्राप्त होता है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि रूढि के वश से कुशल शब्द के समान विवक्षित पुद्गल पुंज में ही वेदनीय, इस शब्द की प्रवृत्ति पायी जाती है । जैसे ‘कुशल’ शब्द का अर्थ ‘कुश को लाने वाला’ ऐसा होने पर भी वह ‘चतुर’ अर्थ में प्रयोग होता है, इसी प्रकार सभी कर्मों में वेदनीयता होते हुए भी वेदनीय संज्ञा एक कर्म विशेष के लिए ही रूढ़ है ।
धवला 10/4, 2, 3, 3/16/6 वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संववहारदंसणादो । ण च ताणि सुहदुक्खाणि वेय-णीयपोग्गलक्खंधं मोत्तूण अण्णकम्मदव्वे हिंतो उप्पज्जंति, फलाभावेण वेयणीयकम्माभावप्पसंगादो । तम्हा सव्वकम्माणं पडिसेहं काऊण पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव वेयणा त्ति उत्तं । अट्ठण्णं कम्माणमुदयगदपोग्गलक्खंधो वेदणा त्ति किमट्ठं एत्थ ण घेप्पदे । ण, एदम्हि अहिप्पाए तदसंभवादो । ण च अण्णम्हि उजुसुदे अण्णस्स उजुसुदस्स संभवो, भिण्णविसयाणं णयाणमेयविसयत्तविरोहादो । = वेदना का अर्थ सुख दुख है, क्योंकि लोक में वैसा व्यवहार देखा जाता है । और वे सुख-दुख वेदनीय रूप पुद्गलस्कंध के सिवा अन्य कर्म द्रव्यों से नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इस प्रकार फल का अभाव होने से वेदनीय कर्म के अभाव का प्रसंग आता है । इसलिए प्रकृत में सब कर्मों का प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्य को ही वेदना ऐसा कहा है । प्रश्न–आठ कर्मों का उदयगत पुद्गलस्कंध वेदना है, ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते–देखें वेदना । उत्तर–नहीं, क्योंकि वेदना को स्वीकार करने वाले ॠजुसूत्र नय के अभिप्राय में वैसा मानना संभव नहीं है । और अन्य ॠजुसूत्र में अन्य ॠजुसूत्र संभव नहीं है, क्योंकि भिन्न-भिन्न विषयों वाले, नयों का एक विषय मानने में विरोध आता है ।–देखें नय - IV.3.3 ।
धवला 13/5, 5, 88/357/4 अण्णाणं पि दुक्खप्पाययं दिस्सदि त्ति तस्स वि असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे । ण, अणियमेण दुक्खुप्पायस्स असादत्ते संते खग्गमोग्गरादीणं पि असादावेदणीयत्तप्पसंगादो । = प्रश्न–अज्ञान भी तो दुःख का उत्पादक देखा जाता है, इसलिए उसे भी असाता वेदनीय क्यों न माना जाये? उत्तर–नहीं, क्योंकि अनियम से दुःख के उत्पादक को असाता वेदनीय मान लेने पर तलवार और मुद्गर आदि को भी असाता वेदनीय मानना पड़ेगा ।
- वेदनीय का कार्य बाह्य सामग्री संपादन है
धवला 6/1, 9-1, 18/36/ पंक्ति-दुक्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स वावारादो ।1।......ण च सुहदुक्खहेउदव्वसंपादयमण्णं कम्ममत्थि त्ति अणुवलंभादो ।7 । = दुःख उपशमने के कारणभूत सुद्रव्यों के संपादन में सातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है । सुख और दुःख के कारणभूत द्रव्यों का संपादन करने वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है ।
धवला 13/5, 5, 88/357/2 दुक्खपडिकारहेदुदव्वसंपादयं... कम्मं सादावेदणीयं णाम ।.... दुक्खसमणहेदुदव्वाणमव-सारयं च कम्ममसादावेदणीयं णाम । = दुःख के प्रतीकार करने में कारणभूत सामग्री का मिलने वाला कर्म सातावेदनीय है और दुःख प्रशमन करने में कारणभूत द्रव्यों का अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है ।
धवला 15/3/6/6 दुक्खुवसमहेउदव्वादिसंपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं णिबद्धं, तदुप्पत्तिकारणत्तादो । = दुःखोपशांति के कारणभूत द्रव्यादि की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है । उनमें वेदनीय कर्म निबद्ध है, क्योंकि वह उनकी उत्पत्ति का कारण है ।
प. धवला/ पू./581 सद्वेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वयमिह करोति जीवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।581। = सातावेदनीय के उदय से प्राप्त होने वाले घर धनधान्य और स्त्री पुत्र वगैरह को जीव स्वयं ही करता है तथा स्वयं ही भोगता है ।
देखें प्रकृतिबंध - 3.3 (अघाती कर्मों का कार्य संसार की निमित्तभूत सामग्री का प्रस्तुत करना है ।)
वर्णव्यवस्था/1/4 (राज्यादि संपदा की प्राप्ति में साता वेदनीय का व्यापार है ।) - उपघात नाम कर्म उपरोक्त कार्य में सहायक है
धवला 6/1, 9-1, 28/59/5 जीवस्स दुक्खुप्पायणे असादावेदणीयस्स वावारो चे, होदु तत्थ तस्स वावारो, किंतु उवघादकम्मं पि तस्स सहकारिकारणं होदि, तदुदयणिमित्तपोग्गलदव्वसंपादणादो । = जीव के दुःख उत्पन्न करने में तो असातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है । [फिर यहाँ उपघात कर्म को जीव पीड़ा का कारण कैसे बताया जा रहा है? उत्तर–तहाँ असाता वेदनीय का व्यापार रहा आवे, किंतु उपघातकर्म भी उस असातावेदनीय का सहकारी कारण होता है, क्योंकि उसके उदय के निमित्त से दुःखकर पुद्गल द्रव्य का संपादन होता है । - सातावेदनीय कथंचित् जीवपुद्गल विपाकी है
धवला 6/1, 9-1, 18/36/2 एवं संते सादावेयणीयस्स पोग्गलविवाइत्तं होइ त्ति णासंकणिज्जं, दुक्खवसमेणुप्पण्ण-सुवत्थियकणस्स दुक्खाविणाभाविस्स उवयारेणेव लद्धसुहसण्णस्स जीवादो पुधभूदस्स हेदुत्तणेण सुत्ते तस्स जीवविवाइत्तसुहहेदुत्ताणमुवदेसादो । तो वि जीवपोग्गलविवाइत्तं सादावेदणीयस्स पावेदि त्ति चे ण, इट्ठत्तादो । तहोवएसो णत्थि त्ति चेण, जीवस्स अत्थित्तण्णहाणुववत्तीदो तहोवदेसत्थित्तसिद्धीए । ण च सुह-दुक्खहेउदव्वसंपादयमण्णं कम्ममत्थि त्ति अणुवलंभादो । = [सुख के हेतुभूत बाह्य सामग्री संपादत् में सातावेदनीय का व्यापार होता है] इस व्यवस्था के मानने पर सातावेदनीय प्रकृति के पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होगा, ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि दुःख के उपशम से उत्पन्न हुए दुःख के अविनाभावी उपचार से ही सुख संज्ञा को प्राप्त और जीव से अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्य के कण का हेतु होने से सूत्र में सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकित्व का और सुख हेतुत्व का उपदेश दिया गया है । यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकीपना और पुद्गलविपाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात हमें इष्ट है । यदि कहा जाये कि उक्त प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि जीव का अस्तित्व अन्यथा बन नहीं सकता है, इसलिए उस प्रकार के उपदेश की सिद्धि हो जाती है । सुख और दुःख के कारणभूत द्रव्यों का संपादन करने वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता ।
- वेदनीय कर्म जीव विपाकी है–देखें प्रकृति बंध - 2 ।
- अघाती होने से केवल वेदनीय वास्तव में सुख का विपक्षी नहीं है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1114-1115 कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुखस्यैकगुणस्य च । अस्ति किंचिन्न कर्मैकं तद्विपक्षं ततः पृथक् ।1114। वेदनीयं हि कर्मैकमस्ति चेत्तद्विपक्षि च । न यतोऽस्यास्त्यघातित्वं प्रसिद्धं परमागमात् ।1115। = आत्मा के सुख नामक गुण के विपक्षी वास्तव में आठों ही कर्म हैं, पृथक् से कोई एक कर्म नहीं ।1114। यदि ऐसा कहो कि उसका विपक्षी एक वेदनीय कर्म ही है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि परमागम में इस वेदनीय कर्म को अघातियापना प्रसिद्ध है ।1115।–(और भी देखें मोक्ष - 3.3)
- वेदनीयका व्यापार कथंचित् सुख-दुःख में होता है
षट्खंडागम/15/ सू.3, 15/पृष्ठ 6, 11 वेयणीयं सुहदुक्खम्हि णिबद्धं ।3। सादासादाणमप्पाणम्हि णिबंधो ।15। = वेदनीय सुख व दुःख में निबद्ध है ।3 । सातावेदनीय और असाता वेदनीय आत्मा में निबद्ध हैं ।15।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/76 विच्छिन्नं हि सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वेद्योदयप्रवृत्ततयानुभवत्वादुद्भूतविपक्षतया । = विच्छिन्न होता हुआ असाता वेदनीय का उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीय के उदय से प्रवर्तमान होता हुआ अनुभव में आता है, इसलिए इंद्रिय सुख विपक्ष की उत्पत्तिवाला है ।
देखें अनुभाग - 3.4 (वेदनीय कर्म कथंचित् घातिया प्रकृति है ।)
देखें वेदनीय - 1.3 (साता सुख का अनुभव कराता है और असातावेदनीय दुःख का ।)
- मोहनीय के सहवर्ती ही वेदनीय कार्यकारी है अन्यथा नहीं
धवला 13/5, 4, 24/53/2 वेदिदं पि असादवेदणीयं ण वेदिदं; सगसहकारिकारणघादिकम्माभावेण दुक्खजणणसत्ति-रोहादो । = असाता वेदनीय से वेदित होकर भी (केवली भगवान्) वेदित नहीं हैं, क्योंकि अपने सहकारिकारणभूत घाति कर्मों का अभाव हो जाने से उसमें दुख को उत्पन्न करने की शक्ति मानने में विरोध है ।–और भी देखें केवली - 4.11.1 ।
देखें अनुभाग - 3.3 (घातिया कर्मों के बिना वेदनीय अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है, इसलिए उसे घातिया नहीं कहा गया है ।)
- वेदनीय के बाह्य व अंतरंग व्यापार का समन्वय
धवला 13/5, 5, 63/334/4 इट्ठत्थसमागमो अणिट्ठत्थविओगी च सुहं णाम । अणिट्ठत्थ समागमो इट्ठत्थ वियोगो च दुखं णाम । = इष्ट अर्थ के समागम और अनिष्ट अर्थ के वियोग का नाम सुख है । तथा अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोग का नाम दुःख है । और मोह के कारण बिना पदार्थ इष्टानिष्ट होता नहीं है ।–देखें राग - 2.5 ।
धवला 15/3/6/6 सिरोवेयणादी दुक्खं णाम । तस्स उवसमो तदणुप्पत्ती वा दुक्खुवसमहेउदव्वादि संपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं णिवबद्धं, तदुप्पत्तिकारणत्तादो । = सिर की वेदना आदि का नाम दुःख है । उक्त वेदना का उपशांत हो जाना अथवा उसका उत्पन्न ही न होना, अथवा दुखोपशांति के कारण भूत द्रव्यादिक की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है । उसमें वेदनीय कर्म निबद्ध है ।
देखें वेदनीय - 10 (दुःख के उपशम से प्राप्त और उपचार से सुख संज्ञा को प्राप्त जीव के स्वास्थ्य का कारण होने से ही साता वेदनीय को जीव विपाकी कहा है अन्यथा वह पुद्गल विपाकी है ।)
देखें अनुभाग - 3.3, 4 (मोहनीय कर्म के साथ रहते हुए वेदनीय घातियावत् है, अन्यथा वह अघातिया है) ।
देखें सुख - 2.10 (दुःख अवश्य असाता के उदय से होता है, पर स्वाभाविक सुख असाता के उदय से नहीं होता । साता जनित सुख भी वास्तव में दुःख ही है ।)
देखें वेदनीय - 3 (बाह्य सामग्री के सन्निधान में ही सुख-दुख उत्पन्न होता है ।)
- अन्य संबंधित विषय
- वेदनीय कर्म के उदाहरण ।–देखें प्रकृतिबंध - 3 ।
- साता असाता का उदय युगपत् भी संभव है ।–देखें केवली - 4, 11, 12 ।
- वेदनीय प्रकृति में दसों करण संभव है ।–देखें करण - 2 ।
- वेदनीय के बंध उदय सत्त्व ।–देखें वह वह नाम ।
- वेदनीय का कथंचित् घाती-अघातीपना ।–देखें अनुभाग - 3 ।
- तीर्थंकर व केवली में साता असाता के उदय आदि संबंधी ।–देखें केवली - 4 ।
- वेदनीय के अभाव में सांसारिक सुख नष्ट होता है, स्वाभाविक सुख नहीं–देखें सुख - 2.11 ।
- असाता के उदय में औषधियाँ आदि भी सामर्थ्यहीन हो जाती हैं ।–देखें कारण - III.5.4 ।
- वेदनीय कर्म के उदाहरण ।–देखें प्रकृतिबंध - 3 ।
पुराणकोष से
सुख और दु:ख देने वाला एक कर्म । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त तथा मध्यम स्थिति विविध प्रमाण की होती है । हरिवंशपुराण 3.96, 58.216, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.149, 156, 159-160