संख्या: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 16: | Line 16: | ||
<li>[[#1.4 | कोड़ाकोड़ी रूप संख्याओं का समन्वय।]]</li> | <li>[[#1.4 | कोड़ाकोड़ी रूप संख्याओं का समन्वय।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>संख्यात, असंख्यात व | <ul><li>[[संख्यात]], [[असंख्यात]] व [[अनंत]]।</li></ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li><strong>[[#2 | संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम]]</strong><br/> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li >[[#2.1 | काल की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.2 | क्षेत्र की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.3 | संयम मार्गणा में संख्या संबंधी नियम।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.4 | उपशम व क्षपक श्रेणी का संख्या संबंधी नियम।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.5 | सिद्धों का संख्या संबंधी नियम।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.6 | संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.7 | सम्यग्दृष्टि दो तीन ही हैं ऐसे कहने का तात्पय।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.8 | लोभ कषाय क्षपकों से सूक्ष्म सांपराय की संख्या अधिक क्यों।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.9 | वर्गणाओं का संख्या संबंधी दृष्टि भेद।]]</li> | ||
<li | <li >[[#2.10 | जीवों के प्रमाण संबंधी दृष्टिभेद।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>सभी मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li></ul> | <ul><li>सभी मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li></ul> | ||
Line 82: | Line 82: | ||
<li><span class="HindiText" id="1.4"><strong> कोडाकोडी रूप संख्याओं का समन्वय</strong></p> | <li><span class="HindiText" id="1.4"><strong> कोडाकोडी रूप संख्याओं का समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 7/2,5,29/258/3 </span>एसो उवदेसो कोडाकोडाकोडाकोडिए हेट्ठदो त्ति सुत्तेण कधं विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूवूणदसकोडाकोडाकोडाकोडि त्ति एदं सव्वं पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यह उपदेश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस सूत्र में कैसे विरोध को प्राप्त न होगा। <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी को आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी रूप से ग्रहण किया गया है।</span></p></li></ol></li> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 7/2,5,29/258/3 </span>एसो उवदेसो कोडाकोडाकोडाकोडिए हेट्ठदो त्ति सुत्तेण कधं विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूवूणदसकोडाकोडाकोडाकोडि त्ति एदं सव्वं पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यह उपदेश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस सूत्र में कैसे विरोध को प्राप्त न होगा। <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी को आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी रूप से ग्रहण किया गया है।</span></p></li></ol></li> | ||
<li><span class="HindiText" id="2"><strong>संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम</strong> <br /></span> | |||
<ol> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.1"><strong> काल की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य</strong></p> | |||
<p class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 3/1,2/ </span>सू.3/27 अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण।3।</p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 3/1,2,3/28/6 </span>कधं, कालेण मिणिज्जंते मिच्छाइट्ठी जीवा। अणंताणंताणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणं समए ठवेदूण मिच्छाइट्ठिरासिं च ठवेऊण कालम्हि एगो समयो मिच्छाइट्ठिरासिम्हि एगो जीवो अवहिरिज्जदि। एवमवहिरिज्जमाणे अवहिरिज्जमाणे सव्वे समया अवहिरिज्जंति, मिच्छाट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि। | |||
</span> = <span class="HindiText">1. काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं।3। 2. <strong>प्रश्न</strong> - काल प्रमाण की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों का प्रमाण कैसे निकाला जाता है ? <strong>उत्तर</strong> - एक और अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों की स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि को स्थापित करके काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीव राशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाने चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीव राशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परंतु मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.2"><strong>क्षेत्र की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य</strong></p> | |||
<p class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम 3/1,2/ </span>सू.4/32 खेत्तेण अणंताणंता लोगा।4।</p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 3/1,2,4/32-33/6 </span>खेत्तेण कधं मिच्छाइट्ठिरासी मिणिज्जदे। वुच्चदे - जधा पत्थेण जव-गोधूमादिरासी मिणिज्जदि तधा लोएण मिच्छाइट्ठिरासी मिणिज्जदि (32/6) एक्केक्कम्मि लोगागासपदेसे एक्केक्कं मिच्छाइट्ठिजीवं णिक्खेविऊण एक्को लोगो इदि मणेण संकप्पेयव्वो। एवं पुणो पुणो मिणिज्जमाणे मिच्छाइट्ठिरासी अणंतलोगमेत्तो होदि।</span> = <span class="HindiText">1. क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अनंतानंत लोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण है।4। 2. <strong>प्रश्न</strong> - क्षेत्र प्रमाण के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसी मापी अर्थात् जानी जाती है। <strong>उत्तर</strong> - जिस प्रकार प्रस्थ से गेहूँ, जौ आदि की राशि का माप किया जाता है, उसी प्रकार लोकप्रमाण के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी अर्थात् जानी जाती है (32/6) लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करके एक लोक हो गया इस प्रकार मन से संकल्प करना चाहिए इस प्रकार पुन:-पुन: माप करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनंतानंत लोकप्रमाण होती है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.3"><strong>संयम मार्गणा में संख्या संबंधी नियम</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 7/2,11,174/568/1 </span>जस्स संजमस्स तद्धिट्ठाणाणि बहुआणि तत्थ जीवा वि बहुआ चेव, जत्थ थोवाणि तत्थ थोवा चेव होंति त्ति।</span> = <span class="HindiText">जिस संयम के लब्धिस्थान बहुत हैं उसमें जीव भी बहुत ही हैं, तथा जिस संयम में लब्धिस्थान थोड़े हैं उसमें जीव भी थोड़े ही हैं।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.4"><strong>उपशम व क्षपक श्रेणी का संख्या संबंधी नियम</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,8,246/323/1 </span>णाण वेदादिसव्ववियप्पेसु उवसमसेडिं चडंतजीवेहिंतो खवगसेडिं चढंतजीवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो।</span> = <span class="HindiText">ज्ञान वेदादि सर्व विकल्पों में उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले जीव दुगुणे होते हैं, इस प्रकार आचार्यों का उपदेश पाया जाता है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.5"><strong>सिद्धों की संख्या संबंधी नियम</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 14/5,6,116/143/10 </span>सव्वकालमदीदकालस्स सिद्धा असंखेज्जदि भागो चेव: छम्मासमंतरिय णिव्वुगमनणियमादो।</span> = <span class="HindiText">सिद्ध जीव सर्वदा अतीतकाल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि छह महीने के अंतर से मोक्ष जाने का नियम है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.6"><strong>संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 5/1,8,10/248/4 </span>माणुसखेत्तब्भंतरे चेय संजदासंजदा होंति, णो बहिद्धा; भोगभूमिम्हि संजमासंजमभावविरोहा। ण च माणुसखेत्तब्भंतरे असंखेज्जाणं संजदासंजदाणमत्थि संभवो, तेत्तियमेत्ताणमेत्थावट्ठाणविरोहा। तदो संखेज्जगुणेहि संजदासंजदेहि होदव्वमिदि। ण, संयपहपव्वदपरभागे असंखेज्ज जोयणवित्थडे कम्मभूमिपडिभाए तिरिक्खाणमसंखेज्जाणं संजमासंजमगुणसहिदाणमुवलंभा।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - संयतासंयत मनुष्यक्षेत्र के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि, भोगभूमि में संयमासंयम के उत्पन्न होने का विरोध है। तथा मनुष्य क्षेत्र के भीतर असंख्यात संयतासंयतों का पाया जाना संभव नहीं है, क्योंकि, उतने संयतासंयतों का यहाँ मनुष्य क्षेत्र के भीतर अवस्थान मानने में विरोध आता है। इसलिए प्रमत्त संयतों से संयतासंयत संख्यात गुणित होना चाहिए। <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, असंख्यात योजन विस्तृत एवं कर्म भूमि के प्रतिभागरूप स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में संयमासंयम गुणसहित असंख्यात तिर्यंच पाये जाते हैं।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.7"><strong>सम्यग्दृष्टि 2, 3 ही हैं ऐसा कहने का प्रयोजन</strong></p> | |||
<p><span class="SanskritText">का.आ./मू. व टीका/279 विरला णिसुणहिं तच्चं विरला जाणंति तच्चदो दच्चं। विरला भावहिं तच्चं विरलाणं धारणा होदि।279।...विद्यंते कति नात्मबोधविमुखा: संदेहिनो देहिन:, प्राप्यंते कतिचित् ...। आत्मज्ञा: परमप्रबोधसुखिन: प्रोंमीलदंतर्दृशो, द्वित्रा: स्युर्बहवी यदि त्रिचतुरास्ते पंचधा दुर्लभा:। | |||
</span> = <span class="HindiText">जगत् में विरले ही मनुष्य तत्त्व को सुनते हैं, विरले ही जानते हैं, उनमें से विरले ही तत्त्व की भावना करते हैं, और उनमें से तत्त्व की धारणा विरले ही मनुष्यों को होती है।279। - कहा भी है-आत्म ज्ञान से विमुख और संदेह में पड़े हुए प्राणी बहुत हैं, जिनको आत्मा के विषय में जिज्ञासा है ऐसे प्राणी क्वचित् कदाचित् ही मिलते हैं, किंतु जो आत्मप्रदेशों से सुखी हैं तथा जिनकी अंतर्दृष्टि खुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किंतु पाँच का होना दुर्लभ है। (अर्थात् अत्यल्प होते हैं)।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.8"><strong> लोभ कषाय क्षपकों से सूक्ष्मसांपराय की संख्या अधिक क्यों - </strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> षट्खंडागम व धवला टी./1,8/सू.199/312 </span> णेवरि विसेसा, लोभकसाईसु सुहुमसांपराइय-उवसमा विसेसाहिया।199। - दोउवसामयपवेसएहिंतो संखेज्जगुणे दोगुणट्ठाणपवेसयक्खए पक्खिदूण कधं सुहमसांपराइयउवसामया विसेसाहिया। ण एस दोसो, लोभकसाएण खवएसु पविसंतजीवे पेक्खिदूण तेसिं सुहुमसांपराइयउवसामएसु पविसंताणं चउवण्णपरिमाणाणं विसेसाहियत्ताविरोहा। कुदो। लोभकसाईसु त्ति विसेसणादो। | |||
</span> = <span class="HindiText">केवल विशेषता यह है कि लोभकषायी जीवों में क्षपकों से सूक्ष्मसांपरायिक उपशामक विशेष अधिक हैं।199। <strong>प्रश्न</strong> - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामक गुणस्थानों में प्रवेश करने वाले जीवों से संख्यातगुणित प्रमाण वाले इन्हीं दो गुणस्थानों में प्रवेश करने वाले क्षपकों को देखकर अर्थात् उनकी अपेक्षा से सूक्ष्मसांपरायिक उपशामक विशेष अधिक कैसे हो सकते हैं। <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि लोभकषाय के उदय से क्षपकों में प्रवेश करने वाले जीवों को देखते हुए लोभकषाय के उदय से सूक्ष्म सांपरायिक उपशामकों में प्रवेश करने वाले और चौपन संख्या रूप परिमाण वाले उन लोभकषायी जीवों के विशेष अधिक होने में कोई विरोध नहीं है, कारण कि ‘लोभकषायी जीवों में’ ऐसा विशेषण पद दिया गया है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.9"><strong>वर्गणाओं का संख्या संबंधी दृष्टिभेद</strong></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 14/5,6,113/168/5 </span>बादरणिगोदवग्गणाए सव्वेगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ।...सेडीए असंखेज्जदिभागो।...के वि आइरिया असंखेज्जपदरावलियाओ गुणगारो त्ति भणंति तण्ण घडदे; चुलियासुत्तेण सह विरोहादो। | |||
</span> = <span class="HindiText">बादरनिगोद वर्गणा की सब एकश्रेणी वर्गणाएँ असंख्यात गुणी हैं।..जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणकार है।...कितने ही आचार्य असंख्यात प्रतरावलि प्रमाण गुणकार हैं ऐसा कहते हैं, परंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि चूलिका सूत्र के साथ विरोध आता है।</span></p></li> | |||
<li><span class="HindiText" id="2.10"><strong>जीवों के प्रमाण संबंधी दृष्टिभेद</strong></p> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ स्वर्ग#3.2 | स्वर्ग - 3.2 ]][एक दृष्टि से स्वर्गवासी इंद्र व प्रतींद्र 14 और दूसरी दृष्टि से 16 हैं]।</p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 3/1,2,12/ </span>गा.45-46/94 तिसदि यदंति केई चउरुत्तरमत्थषंचमं केई। उवसामगेसु एदं खवगाणं जाण तद्‌दुगणं।45। चउरुत्तरतिण्णिसयं पमाणमुवसामगाण केई तु। तं चेव य पंचूणं भणंति केई तु परिमाणं।46।</span> = <span class="HindiText">कितने ही आचार्य उपशामक जीवों का प्रमाण 300 कहते हैं। कितने ही आचार्य 304 कहते हैं, और कितने ही आचार्य 299 कहते हैं। इस प्रकार यह उपशामक जीवों का प्रमाण है, क्षपकों का इससे दूना जानो।45। कितने ही आचार्य उपशामक जीवों का प्रमाण 304 कहते हैं और कितने 299 कहते हैं।46।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 3/1,3,87/337/2 </span>के वि आइरिया सलागरासिस्स अद्धे गदे तेउक्काइयरासी उप्पज्जदि त्ति भणंति। के वि तं णेच्छंति। कुदो। अद्धुट्ठरासिसमुदयस्स वग्गसमुट्‌ठिदत्ताभावादो।</span> = <span class="HindiText">कितने ही आचार्य चौथी बार स्थापित शलाका राशि के आधे प्रमाण के व्यतीत होने पर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है, ऐसा कहते हैं। परंतु कितने ही आचार्य इस कथन को नहीं मानते हैं, क्योंकि साढ़े तीन बार राशि को समुदाय वर्गधारा में उत्पन्न नहीं है।</span></p> | |||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/163 </span>तिगुणा सत्तगुणा वा सव्वट्ठा माणुसीयमाणदो।</span> = <span class="HindiText">मनुष्य स्त्रियों का जितना प्रमाण है उससे तिगुना अथवा सतगुणा सर्वार्थसिद्धि के देवों का प्रमाण है।</span></p></li></ol></li> | |||
<noinclude> | <noinclude> |
Revision as of 07:56, 18 May 2021
सिद्धांतकोष से
लोक में जीव किस-किस गुणस्थान व मार्गणा स्थान आदि में कितने-कितने हैं इस बात का निरूपण इस अधिकार में किया गया है। तहाँ अल्प संख्याओं का प्रतिपादन तो सरल है पर असंख्यात व अनंत का प्रतिपादन क्षेत्र के प्रदेशों व काल के समयों के आश्रय पर किया जाता है।
- संख्या सामान्य निर्देश
- अक्षसंचार के निमित्त शब्दों का परिचय - देखें गणित - II.3।
- संख्यात असंख्यात व अनंत में अंतर। - देखें अनंत - 2।
- संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- काल की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य।
- क्षेत्र की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य।
- संयम मार्गणा में संख्या संबंधी नियम।
- उपशम व क्षपक श्रेणी का संख्या संबंधी नियम।
- सिद्धों का संख्या संबंधी नियम।
- संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं।
- सम्यग्दृष्टि दो तीन ही हैं ऐसे कहने का तात्पय।
- लोभ कषाय क्षपकों से सूक्ष्म सांपराय की संख्या अधिक क्यों।
- वर्गणाओं का संख्या संबंधी दृष्टि भेद।
- जीवों के प्रमाण संबंधी दृष्टिभेद।
- सभी मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें मार्गणा ।
- संख्या विषयक प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची।
- जीवों की संख्या विषयक ओघ प्ररूपणा
- जीवों की संख्या विषयक सामान्य विशेष प्ररूपणा।
- जीवों की स्वस्थान भागाभाग रूप आदेश प्ररूपणा।
- चारों गतियों की अपेक्षा स्व पर स्थान भागाभाग।
- एक समय में विवक्षित स्थान में प्रवेश व निर्गमन करने वाले जीवों का प्रमाण।
- इंद्रों की संख्या। - देखें इंद्र ।
- द्वीप समुद्रों की संख्या। - देखें लोक - 2.11।
- ज्योतिष मंडल की संख्या। - देखें ज्योतिष - 2।
- तीर्थंकरों के तीर्थ में केवलियों आदि की संख्या। - देखें तीर्थंकर - 5।
- द्रव्यों की संख्या। - देखें द्रव्य - 2।
- द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या। - देखें वह वह द्रव्य ।
- जीवों आदि की संख्या में परस्पर अल्पबहुत्व। - देखें अल्पबहुत्व ।
- संख्या सामान्य निर्देश
- संख्या व संख्या प्रमाण सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/6 संख्या भेदगणना। = संख्या से भेदों की गणना ली जाती है। ( राजवार्तिक/1/8/3/41,26 )।
धवला 1/1,1,7/ गा.102/158 अत्थित्तस्स य तहेव परिमाणं।102। (टीका) संताणियोगम्हि जमत्थित्तं उत्तं तस्स पमाणं परूवेदि दव्वाणियोयो। = सत् प्ररूपणा में जो पदार्थों का अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाण का वर्णन करने वाली संख्या (द्रव्यानुयोग) प्ररूपणा करती है।
- संख्या प्रमाण के भेद
तिलोयपण्णत्ति/4/309/179/1 एत्थ उक्कस्ससंखेज्जयजाणणिमित्त जंबूदीववित्थारं सहस्सजोयण उव्बेधपमाणचत्तारिसरावया कादव्वा। सलागा पडिसलागा महासलागा ऐदे तिण्णि वि अवट्ठिदा चउत्थो अणवट्ठिदो। एदे सव्वे पण्णाए ठविदा। एत्थ चउत्थसरावयअब्भंतरे दुवे सरिसवेत्थुदे तं जहण्णं संखेज्जयं जादं। एदं पढमवियप्पं तिण्णि सरिसवेच्छुद्धे अजहण्णमणुक्कस्ससंखेज्जयं। एवं सरावए पुण्णे एदमुव्वरिमज्झिमवियप्पं। ...तदो एगरूवमवणीदे जादमुक्कस्संखज्जाओ। जम्हि-जम्हि संखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि-तम्हि य जहण्ण मणुक्कस्ससंखेज्जयं गंतूण घेत्तव्वं। तं कस्स विसओ। चोद्दसपुव्विस्स। = यहाँ उत्कृष्ट संख्यात के जानने के निमित्त जंबूद्वीप के समान विस्तार वाले (एक लाख योजन) और हजार योजन प्रमाण गहरे चार गड्ढे करना चाहिए। इनमें शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ये तीन गड्ढे अवस्थित और चौथा अनवस्थित है। ये सब गड्ढे बुद्धि से स्थापित किये गये हैं। इनमें से चौथे कुंड के भीतर दो सरसों के डालने पर वह जघन्य संख्यात होता है। यह संख्यात का प्रथम विकल्प है। तीन सरसों के डालने पर अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) संख्यात होता है। इसी प्रकार एक-एक सरसों के डालने पर उस कुंड के पूर्ण होने तक यह तीन से ऊपर सब मध्यम संख्यात के विकल्प होते हैं। ( राजवार्तिक/3/38/5/206/18 )। देखें गणित - I.1.6।
- संख्या व विधान में अंतर
राजवार्तिक/18/15/43/4 विधानग्रहणादेव संख्यासिद्धिरिति; तन्न; किं कारणम् । भेदगणनार्थत्वात् । प्रकारगणनं हि तत्, भेदगणनार्थमिदमुच्यते-उपशमसम्यग्दृष्टय इयंत:, क्षायिकसम्यग्दृष्टय पतावंत: इति। = प्रश्न - विधान के ग्रहण से ही संख्या की सिद्धि हो जाती है। उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि विधान के द्वारा सम्यग्दर्शनादिक के प्रकारों की गिनती की जाती है - इतने उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, इतने क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आदि।
- कोडाकोडी रूप संख्याओं का समन्वय
धवला 7/2,5,29/258/3 एसो उवदेसो कोडाकोडाकोडाकोडिए हेट्ठदो त्ति सुत्तेण कधं विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूवूणदसकोडाकोडाकोडाकोडि त्ति एदं सव्वं पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो। = प्रश्न - यह उपदेश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस सूत्र में कैसे विरोध को प्राप्त न होगा। उत्तर - नहीं, क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी को आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी रूप से ग्रहण किया गया है।
- संख्या व संख्या प्रमाण सामान्य का लक्षण
- संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- काल की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य
षट्खंडागम 3/1,2/ सू.3/27 अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण।3।
धवला 3/1,2,3/28/6 कधं, कालेण मिणिज्जंते मिच्छाइट्ठी जीवा। अणंताणंताणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणं समए ठवेदूण मिच्छाइट्ठिरासिं च ठवेऊण कालम्हि एगो समयो मिच्छाइट्ठिरासिम्हि एगो जीवो अवहिरिज्जदि। एवमवहिरिज्जमाणे अवहिरिज्जमाणे सव्वे समया अवहिरिज्जंति, मिच्छाट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि। = 1. काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं।3। 2. प्रश्न - काल प्रमाण की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों का प्रमाण कैसे निकाला जाता है ? उत्तर - एक और अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों की स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि को स्थापित करके काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीव राशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाने चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीव राशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परंतु मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता।
- क्षेत्र की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य
षट्खंडागम 3/1,2/ सू.4/32 खेत्तेण अणंताणंता लोगा।4।
धवला 3/1,2,4/32-33/6 खेत्तेण कधं मिच्छाइट्ठिरासी मिणिज्जदे। वुच्चदे - जधा पत्थेण जव-गोधूमादिरासी मिणिज्जदि तधा लोएण मिच्छाइट्ठिरासी मिणिज्जदि (32/6) एक्केक्कम्मि लोगागासपदेसे एक्केक्कं मिच्छाइट्ठिजीवं णिक्खेविऊण एक्को लोगो इदि मणेण संकप्पेयव्वो। एवं पुणो पुणो मिणिज्जमाणे मिच्छाइट्ठिरासी अणंतलोगमेत्तो होदि। = 1. क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अनंतानंत लोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण है।4। 2. प्रश्न - क्षेत्र प्रमाण के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसी मापी अर्थात् जानी जाती है। उत्तर - जिस प्रकार प्रस्थ से गेहूँ, जौ आदि की राशि का माप किया जाता है, उसी प्रकार लोकप्रमाण के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी अर्थात् जानी जाती है (32/6) लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करके एक लोक हो गया इस प्रकार मन से संकल्प करना चाहिए इस प्रकार पुन:-पुन: माप करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनंतानंत लोकप्रमाण होती है।
- संयम मार्गणा में संख्या संबंधी नियम
धवला 7/2,11,174/568/1 जस्स संजमस्स तद्धिट्ठाणाणि बहुआणि तत्थ जीवा वि बहुआ चेव, जत्थ थोवाणि तत्थ थोवा चेव होंति त्ति। = जिस संयम के लब्धिस्थान बहुत हैं उसमें जीव भी बहुत ही हैं, तथा जिस संयम में लब्धिस्थान थोड़े हैं उसमें जीव भी थोड़े ही हैं।
- उपशम व क्षपक श्रेणी का संख्या संबंधी नियम
धवला 5/1,8,246/323/1 णाण वेदादिसव्ववियप्पेसु उवसमसेडिं चडंतजीवेहिंतो खवगसेडिं चढंतजीवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो। = ज्ञान वेदादि सर्व विकल्पों में उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले जीव दुगुणे होते हैं, इस प्रकार आचार्यों का उपदेश पाया जाता है।
- सिद्धों की संख्या संबंधी नियम
धवला 14/5,6,116/143/10 सव्वकालमदीदकालस्स सिद्धा असंखेज्जदि भागो चेव: छम्मासमंतरिय णिव्वुगमनणियमादो। = सिद्ध जीव सर्वदा अतीतकाल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि छह महीने के अंतर से मोक्ष जाने का नियम है।
- संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं
धवला 5/1,8,10/248/4 माणुसखेत्तब्भंतरे चेय संजदासंजदा होंति, णो बहिद्धा; भोगभूमिम्हि संजमासंजमभावविरोहा। ण च माणुसखेत्तब्भंतरे असंखेज्जाणं संजदासंजदाणमत्थि संभवो, तेत्तियमेत्ताणमेत्थावट्ठाणविरोहा। तदो संखेज्जगुणेहि संजदासंजदेहि होदव्वमिदि। ण, संयपहपव्वदपरभागे असंखेज्ज जोयणवित्थडे कम्मभूमिपडिभाए तिरिक्खाणमसंखेज्जाणं संजमासंजमगुणसहिदाणमुवलंभा। = प्रश्न - संयतासंयत मनुष्यक्षेत्र के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि, भोगभूमि में संयमासंयम के उत्पन्न होने का विरोध है। तथा मनुष्य क्षेत्र के भीतर असंख्यात संयतासंयतों का पाया जाना संभव नहीं है, क्योंकि, उतने संयतासंयतों का यहाँ मनुष्य क्षेत्र के भीतर अवस्थान मानने में विरोध आता है। इसलिए प्रमत्त संयतों से संयतासंयत संख्यात गुणित होना चाहिए। उत्तर - नहीं, क्योंकि, असंख्यात योजन विस्तृत एवं कर्म भूमि के प्रतिभागरूप स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में संयमासंयम गुणसहित असंख्यात तिर्यंच पाये जाते हैं।
- सम्यग्दृष्टि 2, 3 ही हैं ऐसा कहने का प्रयोजन
का.आ./मू. व टीका/279 विरला णिसुणहिं तच्चं विरला जाणंति तच्चदो दच्चं। विरला भावहिं तच्चं विरलाणं धारणा होदि।279।...विद्यंते कति नात्मबोधविमुखा: संदेहिनो देहिन:, प्राप्यंते कतिचित् ...। आत्मज्ञा: परमप्रबोधसुखिन: प्रोंमीलदंतर्दृशो, द्वित्रा: स्युर्बहवी यदि त्रिचतुरास्ते पंचधा दुर्लभा:। = जगत् में विरले ही मनुष्य तत्त्व को सुनते हैं, विरले ही जानते हैं, उनमें से विरले ही तत्त्व की भावना करते हैं, और उनमें से तत्त्व की धारणा विरले ही मनुष्यों को होती है।279। - कहा भी है-आत्म ज्ञान से विमुख और संदेह में पड़े हुए प्राणी बहुत हैं, जिनको आत्मा के विषय में जिज्ञासा है ऐसे प्राणी क्वचित् कदाचित् ही मिलते हैं, किंतु जो आत्मप्रदेशों से सुखी हैं तथा जिनकी अंतर्दृष्टि खुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किंतु पाँच का होना दुर्लभ है। (अर्थात् अत्यल्प होते हैं)।
- लोभ कषाय क्षपकों से सूक्ष्मसांपराय की संख्या अधिक क्यों -
षट्खंडागम व धवला टी./1,8/सू.199/312 णेवरि विसेसा, लोभकसाईसु सुहुमसांपराइय-उवसमा विसेसाहिया।199। - दोउवसामयपवेसएहिंतो संखेज्जगुणे दोगुणट्ठाणपवेसयक्खए पक्खिदूण कधं सुहमसांपराइयउवसामया विसेसाहिया। ण एस दोसो, लोभकसाएण खवएसु पविसंतजीवे पेक्खिदूण तेसिं सुहुमसांपराइयउवसामएसु पविसंताणं चउवण्णपरिमाणाणं विसेसाहियत्ताविरोहा। कुदो। लोभकसाईसु त्ति विसेसणादो। = केवल विशेषता यह है कि लोभकषायी जीवों में क्षपकों से सूक्ष्मसांपरायिक उपशामक विशेष अधिक हैं।199। प्रश्न - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामक गुणस्थानों में प्रवेश करने वाले जीवों से संख्यातगुणित प्रमाण वाले इन्हीं दो गुणस्थानों में प्रवेश करने वाले क्षपकों को देखकर अर्थात् उनकी अपेक्षा से सूक्ष्मसांपरायिक उपशामक विशेष अधिक कैसे हो सकते हैं। उत्तर - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि लोभकषाय के उदय से क्षपकों में प्रवेश करने वाले जीवों को देखते हुए लोभकषाय के उदय से सूक्ष्म सांपरायिक उपशामकों में प्रवेश करने वाले और चौपन संख्या रूप परिमाण वाले उन लोभकषायी जीवों के विशेष अधिक होने में कोई विरोध नहीं है, कारण कि ‘लोभकषायी जीवों में’ ऐसा विशेषण पद दिया गया है।
- वर्गणाओं का संख्या संबंधी दृष्टिभेद
धवला 14/5,6,113/168/5 बादरणिगोदवग्गणाए सव्वेगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ।...सेडीए असंखेज्जदिभागो।...के वि आइरिया असंखेज्जपदरावलियाओ गुणगारो त्ति भणंति तण्ण घडदे; चुलियासुत्तेण सह विरोहादो। = बादरनिगोद वर्गणा की सब एकश्रेणी वर्गणाएँ असंख्यात गुणी हैं।..जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणकार है।...कितने ही आचार्य असंख्यात प्रतरावलि प्रमाण गुणकार हैं ऐसा कहते हैं, परंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि चूलिका सूत्र के साथ विरोध आता है।
- जीवों के प्रमाण संबंधी दृष्टिभेद
देखें स्वर्ग - 3.2 [एक दृष्टि से स्वर्गवासी इंद्र व प्रतींद्र 14 और दूसरी दृष्टि से 16 हैं]।
धवला 3/1,2,12/ गा.45-46/94 तिसदि यदंति केई चउरुत्तरमत्थषंचमं केई। उवसामगेसु एदं खवगाणं जाण तद्दुगणं।45। चउरुत्तरतिण्णिसयं पमाणमुवसामगाण केई तु। तं चेव य पंचूणं भणंति केई तु परिमाणं।46। = कितने ही आचार्य उपशामक जीवों का प्रमाण 300 कहते हैं। कितने ही आचार्य 304 कहते हैं, और कितने ही आचार्य 299 कहते हैं। इस प्रकार यह उपशामक जीवों का प्रमाण है, क्षपकों का इससे दूना जानो।45। कितने ही आचार्य उपशामक जीवों का प्रमाण 304 कहते हैं और कितने 299 कहते हैं।46।
धवला 3/1,3,87/337/2 के वि आइरिया सलागरासिस्स अद्धे गदे तेउक्काइयरासी उप्पज्जदि त्ति भणंति। के वि तं णेच्छंति। कुदो। अद्धुट्ठरासिसमुदयस्स वग्गसमुट्ठिदत्ताभावादो। = कितने ही आचार्य चौथी बार स्थापित शलाका राशि के आधे प्रमाण के व्यतीत होने पर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है, ऐसा कहते हैं। परंतु कितने ही आचार्य इस कथन को नहीं मानते हैं, क्योंकि साढ़े तीन बार राशि को समुदाय वर्गधारा में उत्पन्न नहीं है।
गोम्मटसार जीवकांड/163 तिगुणा सत्तगुणा वा सव्वट्ठा माणुसीयमाणदो। = मनुष्य स्त्रियों का जितना प्रमाण है उससे तिगुना अथवा सतगुणा सर्वार्थसिद्धि के देवों का प्रमाण है।
- काल की अपेक्षा गणना करने का तात्पर्य
पुराणकोष से
जीवादि पदार्थों के भेदों की गणना । यह आठ अनुयोग द्वारों में दूसरा अनुयोग द्वार है । हरिवंशपुराण 2.108