नियमसार - गाथा 42: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोग सोगा य।
कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति।।42।।
क्या हूं और क्या हो गया―इस जीव के चार गतियों का भ्रमण नहीं है। न जन्म है, न बुढ़ापा है, न मरण है, न रोग है, न शोक है, न कुल है, न योनि है, न इसके योनि स्थान है, न मार्गणा स्थान है। यहाँ इस बात पर ध्यान दिलाया जा रहा है कि अपने आपमें यह सोचें कि ओह मैं क्या तो था और क्या हो गया? मैं अपने स्वरूप से अपने आप की शक्ति के कारण एक शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूं, किंतु अनादिकाल से पर-उपाधि के संबंध में क्या हो गया हूं, इसकी विडंबना हो रही है। मनुष्य बनना, तिर्यंच बनना और नाना प्रकार के शरीर पाना यह क्या मेरी वृत्ति है, क्या मेरा स्वभाव है? मैं तो जाननहार एक अमूर्त आत्मतत्त्व हूं। क्या तो हूं और क्या हो गया हूं―इस बात पर दृष्टि देना है। भगवान् की भक्ति भी हम इसलिए करते हैं कि हमको यह साक्षात् स्मृत हो जाय कि हे प्रभु !मैं क्या तो था और क्या हो गया? जिस शरीर को देखकर हम अहंकार किया करते हैं। जिस शरीर में आत्मबुद्धि करके हम बाहर ही बाहर उपयोग को घुमाते रहते हैं क्या ऐसी दौड़ धूप करना, ऐसी आकुलताएँ और क्षोभ मचाना मेरा स्वरूप है। अपने स्वरूप की स्मृति के लिए भगवंत का स्मरण किया जा रहा है।
जीव में सर्वविकारों का अभाव―इस गाथा में कुछ परतत्त्वों का निषेध किया गया है। उपलक्षण से यह अर्थ लेना कि इस जीव में किसी भी प्रकार का विकार नहीं है। देखिए विकार भी है और जीव का यह विकार परिणमन है, पर जैसे गर्मी के दिनों में तालाब ऊपर से गरम हो जाता है। उसमें तैरने वाला तैराक पुरुष ऊपर की तह पर यदि तैरता है तो उसे गरम जल लगता है और डुबकी लगाकर नीचे की तह में पहुंचता है तो उसको जल ठंडा मालूम होता है। इसी प्रकार इस जीव के ऊपरी तह पर अर्थात् औपाधिक रूप पर, विभाव परिणमन पर जब हम दृष्टि रखते हैं तो ये सारी विडंबनाएं हैं और भोगनी पड़ती है। जब इस तह के और भीतर चलकर अपने शुद्ध सत्त्वमात्र स्वरूप को निरखते हैं तो वहाँ केवल वह ज्ञानप्रकाश मात्र ही अनुभव में होता है। कहां देह है, कहां भ्रमण है, कहां बुढ़ापा है, कुछ भी दृष्ट नहीं होता। उस शुद्ध जीवास्तिकाय पर दृष्टि रखकर इस ग्रंथ में यह वर्णन चल रहा है और उसी दृष्टि से इस ग्रंथ में प्रारंभ से लेकर अंत तक होता रहेगा।
चर्च्चपरिचय की आवश्यकता―भैया ! जिसकी चर्चा की जा रही है उसका नाम न मालूम हो तो उस चर्चा का अर्थ क्या? जैसे कोई आपस में गप्पें की जा रही हों और वहाँ उसकी सारी बातें बखानी जा रही हों, किंतु व्यक्ति का नाम न लिया जा रहा हो तो उसकी चर्चा का अर्थ क्या? इसी प्रकार ग्रंथ में सारी चर्चा की जाय, पर किसकी चर्चा है? लक्ष्यभूत सहजस्वभाव कारणसमयसार उसका परिचय न हो तो यह चर्चा कुछ माने नहीं रखती। बल्कि संदेह हो जाता है कि क्या सबका जा रहा है? कहते हैं कि इस जीव का चारों गतियों में भ्रमण नहीं होता। और हो किसका रहा है? अभी मनुष्य हैं, मरकर पशु हुए, मरकर और कुछ हुए तो क्या यह पुद्गल का भ्रमण है? इसमें शंकाएँ हो जाती हैं। हां जिस दृष्टि में रहकर शंका की जा रही है उस दृष्टि में तो सच है कि जीव का चर्तुगति भ्रमण है। किंतु चतुर्गति के भ्रमण करने का स्वभाव रखने वाला यह जीव ऐसा नहीं है। यह तो शुद्ध ज्ञानानंद स्वभावी है।
एकत्वस्वरूप में अन्य का अप्रवेश―चीजें सब इकहरी होती हैं, मिला कुछ नहीं होता है। मिलमां में अनेक चीजें हैं। एक चीज मिली हुई नहीं होती है। यह वस्तु का स्वरूप है। तो जीव भी अकेला है, वह किस स्वरूप है? स्वरूप को परखे तो यही विदित होगा कि वह प्रतिभासमात्र आकाश की तरह अमूर्त कोई एक आत्मा है। क्या वह आत्मा ऐसा अमूर्त निराला अकेला है? हाँ है। यदि वह निराला नहीं है, अकेला नहीं है, किसी दूसरे वस्तु के मेल जैसा स्वभाव है तो उसका सत्त्व नहीं रह सकता है तो ऐसा निराला अकेला चिदानंदस्वरूप आत्मा में और कुछ नहीं है। उसमें तो वह ही है। तब ज्ञानावरणादिक 8 कर्म इस जीव में कहां रहें? वे तो अचेतन अपने सत्त्व को लिए हुए हैं, रहो। जीव में अब कर्म नहीं रहे। कर्म अलग सत्ता वाले पदार्थ हैं तो जीव में द्रव्य कर्म नहीं स्वीकार किया गया और भावकर्म स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानी पुरुष ही इस मर्म के वेत्ता होते हैं।
स्वरूप में औपाधिकभाव का अस्वीकार―जैसे सिनेमा के पर्दे पर फिल्म के अक्स आते हैं किंतु जिसे विदित है कि यह तो स्वच्छ सफेद कपड़ा है तो वह उस पर्दे के स्वरूप में चित्रों को स्वीकार नहीं करता। जैसे यथार्थ जानने वाला पुरुष पर्दे पर चित्रमयता नहीं स्वीकार करता है इसी प्रकार जिसको अपने सत्त्व का परिचय है, स्वरूप का भान है वह अपने में भावकर्म का प्रतिबिंब होकर भी उन्हें स्वीकार नहीं करता कि मैं रागद्वेष रूप हूं। तो जहां द्रव्यकर्म का और भावकर्म का स्वीकार नहीं हुआ, वहाँ फिर नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव इन चार गतियों का परिभ्रमण कहां है? यह योगीजनों के मर्म की बात है और यह न जानो कि यह साधुजनों के ही परखने की चीज है; यह तो आत्मा के द्वारा परखी जाने वाली बात है। वह चाहे पशु हो, चाहे पक्षी हो, चाहे गृहस्थ हो, चाहे साधु हो उसको सबको देखने का अधिकार है और वह आत्मस्वरूप उन भव्य जीवों को दृष्ट हो जाता है। जो बात पशु और पक्षी को भी दृष्ट हो सकती है वह बात हमें न दृष्ट होगी, यह कहना युक्त न होगा। हम ही नहीं देखना चाहते हैं सो दृष्ट नहीं है।
अशरण से शरण चाहने का व्यामोह―घर के लोग धन परिवार ये इस जीव को क्या तो शरण हैं और क्या शरण होंगे। यह जीव तो सबसे न्यारा केवल अकेला ही है। इसका कौन तो कुटुंबी है और इसका क्या वैभव है? आज यहाँ है कहो जीवन में ही संग बिछुड़ जाय चेतन और अचेतन इन सबका। अथवा स्वयं को भी तो मरण करके जाना होगा। फिर इसका कौन साथ निभायेगा? यह जीव सर्वत्र अकेला है, अपने स्वरूप मात्र है; ऐसी बुद्धि आए तो इस जीव का कल्याण है अन्यथा मोह ममता में तो इस जीव को कभी शांति का मार्ग नहीं मिल सकता है। दिखा रहे है यहाँ शुद्ध जीव स्वरूप को। उससे कुछ तो यह ध्यान दो कि ओह क्या तो मैं था और क्या बन गया हूं।
स्वदया की ओर ध्यान―भैया ! अपने पर कुछ दया विचार करके जो वर्तमान में बना फिर रहा है उसकी दृष्टि तो गौण करें और मुझमें जो स्वरूप है उसका ही जो स्वकीय भाव है उस पर दृष्टिपात करें। ऐसा करने पर ज्यादा से ज्यादा बुरा क्या होगा कि लोगों में परिचय कम हो जायेगा, लोगों में उठा बैठी कम हो जायेगी, अथवा कदाचित् मान लो धन की आय भी कम हो जाये, प्रथम तो ऐसा होता नहीं, जो शुद्धभाव से धर्म की ओर दृष्टि रखते है उनका पुण्य प्रबल होता है और वैभव प्रकट होता है। कदाचित् मान लो उदय ही ऐसा हो कि व्यापार में ज्यादा मन न लगे, धन में कमी हो गयी, पाप की उदीरणा हो गई, तो यह तो विवेक होगा कि ये मायामय इंद्रिजालिया पुरुष यही तो कहेंगे कि मुझे पूछता नहीं अथवा अपमान करेंगे, सो इससे क्या यह सब भी स्वप्न की चीज है? इससे कुछ मेरे स्वरूप में बिगाड़ नहीं होता। यदि अपने स्वरूप की दृष्टि प्रबल हुई तो बाहर में कहीं कुछ हो, उससे नुकसान नहीं है, किंतु लाभ ही है। मोक्ष मार्ग चलता है।
आत्महित की रुचि में बाह्यस्थिति की लापरवाही―एक कथानक है कि गुरु और शिष्य थे। साधु अध्यात्मिक संत था। एक समय किसी छोटी पहाड़ी पर उन्होंने अपना निवास किया। कुछ दिन बाद में देखा कि राजा बड़े ठाठबाट से सेना सजाए हुए आ रहा है। तो संन्यासी ने सोचा कि राजा को यदि हम अच्छे जंचे, राजा के चित्त पर मेरा प्रभाव पड़ा तो फिर मेरे लिए सदा को आफत हो जायेगी। यहाँ सारी प्रजा दुनिया, राजा सभी लोग पड़े रहा करेंगे अथवा बहुत आवागमन बना रहेगा। उससे मेरे को तकलीफ होगी। इस कारण ऐसा कार्य करें कि राजा का चित्त हट जाय और इसे मेरे प्रति घृणा हो जाय। सो गुरु ने अपने शिष्य से कहा बेटा देखो वह राजा आ रहा है। हाँ आ रहा है। राजा पास आयेगा तो तुम उसी समय हमसे रोटियों की चर्चा करने लगना, हम बोलेंगे कि तुमने कितनी रोटी खाई तो तुम बोलना कि हमने इतनी खाई। हम कहेंगे कि इतनी क्यों खाई तो तुम कहना कि कल तुमने भी तो ज्यादा खाई थी, सो आज हमने ज्यादा खाई, ऐसी चर्चा करने से राजा सोचेगा कि साधु महाराज रोटियों के विषय में लड़ते हैं तो ऐसा देखकर राजा चला जायेगा। राजा के आने पर गुरु और शिष्य दोनों में वैसी ही चर्चा हुई, तुमने कितनी रोटी आज खाई? हमने 10 खाई। 10 क्यों खाई? कल तुमने भी तो 10 खाई थी। हमने कल कम खाई थी, सो आज हमने ज्यादा खाई। ऐसी चर्चा सुनकर राजा उसके पास से चला गया। राजा के चले जाने पर उस संन्यासी ने शांति की सांस ली। कभी-कभी ऐसी बात बन जाती है कि संतजनों को अपमान या अन्य कुछ भी हो तो भी वे उसकी परवाह नहीं करते हैं।
आत्मा की अजररूपता―यह संसार स्वप्नवत् है। यहाँ जिसे अपने सहजस्वभाव की दृष्टि है, उसे दृष्टि में चारों गतियों का भ्रमण नहीं है। मैं तो नित्य शुद्ध चिदानंदस्वरूप हूं, कारणपरमात्मतत्त्व हूं। मुझमें द्रव्यकर्म का ग्रहण नहीं है, न द्रव्यकर्म ग्रहण के योग्य विभावों का परिणमन है, इस ही कारण मेरा जन्म भी नहीं है, मरण भी नहीं है, रोग भी नहीं है। अपने आपके अंतर में शुद्ध ज्ञानप्रकाश का अनुभव करे। किसी अन्यरूप अपने को न देखे तो उसे इस देह का भी मान न रहेगा। फिर बुढ़ापे का अनुभव कौन करेगा? जैसे आंखों से इस देह पर दृष्टि पहुंचती है, वैसे ही आत्मा में कमजोरी भी बढ़ती है। मैं बूढ़ा हो गया हूं―ऐसी शरीर पर दृष्टि हो तो अपने आत्मा में भी निर्बलता प्रकट होती है। एक इस शरीर की दृष्टि छोड़ देवे तो फिर बूढ़ा कहां रहा? बूढ़ा तो तब तक है, जब तक देह पर दृष्टि है।
नरजीवन में अंतिम एक विकट समस्या और उसका हल―भैया ! एक बड़ी विडंबना है जीवन में कि पहिले बच्चा हुए, फिर जवान हुए, पुरुषार्थ किया, तप किया, धर्मसाधना की या धन कमाया और अंत में बूढ़े होना पड़ता है और बुढ़ापे में सारी शिथिलता आ जाती है तो बुढ़ापे के बाद मरणकाल आता है। कितनी एक आपत्ति की बात है कि मरते समय बहुत निर्बल अपनी दृष्टि को बनाकर मरना पड़ता है। लेकिन विवेक और सावधानी इस बात की है कि वह अपने को बूढ़ा समझे ही नहीं। हो गया देह। यह देह सदा साथ न रहेगा। यह तो अब भी भिन्न है। इंद्रिय को संयत किया, नेत्रों को बंद किया, बाहर कुछ नहीं देखा, स्वयं जिस स्वरूप वाला है, उस स्वरूप पर दृष्टि की। अब वह बूढ़ा नहीं रहा, वह तो चिदानंदस्वरूप मात्र है, ऐसा अपने आपको आत्मारूप अनुभव करने वाले उस पुरुष के न तो जन्म है, न ही बुढ़ापा है और न ही मरण है, न कुछ रोग है।
आत्मा की निरोगस्वरूपता―ज्ञानी पुरुष की ऐसी अनुपम लीला है कि कैसा ही शरीर में रोग हो, रोग होते हुए भी जहां उसने अंतर्दृष्टि की और अपने को ज्ञानप्रकाशरूप अनुभव किया, उसके उपयोग में रोग तो हैं ही नहीं। शरीर पर रोग हो तो हो और उपयोग की विशुद्धि के प्रताप से शरीर का भी रोग दूर हो जाता है। शरीर का रोग दूर हो अथवा न हो इसकी ज्ञानी को परवाह नहीं होती। उसे तो केवल एक चाह है कि मैं जैसा स्वच्छस्वभावी हूं अपनी निगाह में बना रहूं। मुझसे कोई खोटा कर्म और अपराध कर्म न हो और ज्ञाताद्रष्टा रहकर इस जीवन के ये थोड़े क्षण व्यतीत कर डालूं―ऐसा ज्ञानी गृहस्थ हो अथवा साधु हो उसकी भावना रहती है।
गृहस्थ की धर्मरूपता―आज के जमाने में भैया ! गृहस्थ और साधु में अधिक अंतर नहीं रहा। पहिले समय में तो अधिक अंतर यों था कि शुद्ध भाव बढ़ाकर श्रेणी चढ़कर मोक्ष जा सकते थे। आज के समय में कोई भावलिंगी साधु अधिक से अधिक सप्तम गुणस्थान तक चढ़ सकता है। यह है उस जीव की वर्तमान परिस्थिति और मरण के बाद जो फल होगा उसकी परिस्थिति यह है कि वह ज्यादा से ज्यादा 6, 7, 8वें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है। इससे ज्यादा नहीं जा सकता है। क्योंकि उसके अंतिम संहनन हैं और उनमें ही प्राय: छठा ही संहनन है। सो गृहस्थ यदि वास्तविक मायने में धर्म का पालन करता है तो वह गृहस्थ क्या है? वह तो मनुष्य होकर देवता है। गृहस्थ का धन जोड़ने का ही लक्ष्य हो तो वहाँ गृहस्थ धर्म भी नहीं चलता है। गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य यह है कि चूंकि वह अपनी निबलाई से महाव्रती नहीं बन सकता था, अत: गृहस्थधर्म इसी से स्वीकार किया कि कहीं मैं अधिक विषयकषायों में प्रपंचों में न फंस जाऊं। न विवाह करूं, न घर में रहूं और साधु भी न होऊं तो विषयों में नौबत आ जाती है इसलिए विषय कषाय तीव्र नहीं हो सके, इसके अर्थ उसने गृहस्थी को स्वीकार किया, धन जोड़ने के लिए गृहस्थ धर्म स्वीकार नहीं किया। दुनिया में विषयकषायों के कीचड़ में अधिक न फंस जाऊं, उससे बचा रहूं, इसके अर्थ गृहस्थ धर्म स्वीकार किया।
सद्गृहस्थ का विवेक―ऐसे ज्ञानी गृहस्थ की वृत्ति यह होती है कि वह न्याय नीति से अपनी आजीविका करता है। उस आजीविका में जो आय हो जाय उसके विभाग बनाता है। जैसे 6 विभाग बने, एक विभाग परोपकार के लिए हो, एक विभाग अपने स्वकीय धर्मसाधना की व्यवस्थावों के लिए हो, एक विभाग वक्त पड़े पर काम के लिए हो, एक दो विभाग गृहस्थी के पालन पोषण के लिए हो, ऐसा भाव करके उनमें हो उसी प्रकार से अपना गुजारा करता है। वह जरूरतें मानकर हिसाब नहीं बनाता है, किंतु हिसाब देखकर जरूरतें बनाता है। यह फर्क है सद्गृहस्थ में और भोगी गृहस्थ में।
गृहस्थ के आय व्यय का विवेक―भैया ! भोगी गृहस्थ तो जरूरतें मानकर हिसाब बनाता है अजी हमारा इतना स्टेन्डर्ड है, हम ऐसी पोजीशन के हैं, यों खाते-पीते चले आये हैं, इस ढंग का हमारा रहन-सहन है, आय तो हमारी इतनी होनी चाहिए। चाहे कैसा भी हो, इतनी आय के बिना तो हमारा गुजारा चल ही नहीं सकता। अच्छा और जो गरीब पुरुष हैं, जो बेचारे 40ृ 50 रुपये की ही आय रख पाते हैं और 5, 7 घर में सदस्य हैं ऐसे भी होंगे और उनका भी काम चलता है। और कहो उनमें धर्म की लगन हो तो धार्मिक कार्यों में अंतर भी नहीं डालते हैं, गुजारा तो हर तरह हो सकता है। गृहस्थ धर्म यही है कि अपना हिसाब देखकर जरूरतें बनाएं, उसमें चिंता न हो सके। इसमें लक्ष्य मुख्य यह मिलेगा कि हम धर्मसाधना के लिए जीते हैं और हमने नरजन्म धर्मसाधना के लिए पाया, आराम के लिए नहीं, भोगों के लिए नहीं, दुनिया में अपनी पोजीशन फैलाने के लिए नहीं, किंतु किस ही प्रकार उस अपने आपके सहज शुद्ध स्वभाव को निरखकर और उस स्वरूप की ही भावना करके अपने में ऐसा विश्वास बना लें व उपयोग बना लें कि मैं चिदानंद स्वरूप हूं।
ज्ञाता व अज्ञाता के साथ व्यवहार का अनवकाश―मेरा किसी दूसरे से परिचय नहीं है, मुझे कोई दूसरा जानता नहीं है, कोई दूसरा मुझे जान जाय तो वह स्वयं ज्ञाता हो गया, स्वयं ब्रह्मस्वरूप में लीन हो सकने वाला हो गया, अब उसके लिए मैं जुदा व्यक्ति नहीं रहा, तब फिर ज्ञाता से व्यवहार क्या और अज्ञानियों से व्यवहार क्या? कोई मुझे नहीं जानता है तो उनसे मेरा व्यवहार क्या? वह जानता ही नहीं है। कोई मुझे जानता है तो वह स्वयं ज्ञाता हो गया। वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप सामान्यभाव का रसिक हो गया, अब उनके लिए मैं जुदा व्यक्ति नहीं रहा, फिर ज्ञाता का व्यवहार क्या? ऐसी अपने स्वरूप की भावना भा-भा कर अपने को दृढ़ बना लेता है। परपदार्थों में परजीवों में कैसी ही कुछ परिस्थिति हो, उन परपदार्थों के कारण अपने में किसी भी प्रकार की उल्झन न डालो। ऐसा धर्म का पालन करते हुए कुटुंबीजन मित्रजन इन लोगों की सेवा शुश्रूषा करते हुए घर में रहते हुए भी कुटुंबीजनों से अलिप्त रहो।
दृढात्मभावना में दर्शन―ज्ञानी सद्गृहस्थ इस संसार से विरक्त हो जाता है, मोक्षमार्ग में लग जाता है, किंतु जो इस संसार में अपने को पर्यायरूप मानकर वहाँ ही अटक जाता है वह उठ नहीं सकता। संन्यास अवस्था में तो दृढात्मभावना होती ही है, किंतु गृहस्थावस्था में भी चतुर्थगुणस्थान और पंचमगुणस्थान में स्वच्छता के अनेक गुण प्रकट होते हैं। तब हमें अपने धर्म का पालन करते हुए विशेषरूप से अपने स्वभाव की दृष्टि करनी है तथा शक्ति व व्यक्ति के मुकाबले में यह ध्यान में रखना है कि मैं क्या तो था और क्या बनता फिर रहा हूं? प्रभुभक्ति करके हमें अपनी भावना दृढ़ बनानी है। हे प्रभो ! तुम जैसा ही तो मेरा स्वरूप है। इस विविक्त आत्मस्वरूप की भावना दृढ़ जिसके होती है उसे तो प्रकट दिखता है कि मेरे न चतुर्गति का भ्रमण है, न जन्म है, न बुढ़ापा है, न मरण है, न रोग है, न शोक है। मैं तो शुद्ध ज्ञायकस्वभाव मात्र हूं।
जीव स्वरूप में देहकुल का अभाव―शुद्ध जीवद्रव्य, जो अपने ही सत्त्व के कारण जैसा है उस ही रूप में अपने को निरखने से ज्ञात होता है। सहजस्वभावमय आत्मद्रव्य देह से देहकुलों से परे है। ये देह कितने प्रकार के हैं इनका सिद्धांत में वर्णन आया है कि समस्त देहों की जातियां एक सौ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ हैं। जैसे एक करोड़, दो करोड़, सौ करोड़, हजार करोड़, लाख करोड़, करोड़ करोड़ चलते हैं ना, तो ऐसे ही एक सौ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ हैं। उनका भिन्न-भिन्न वर्णन इस प्रकार है।
पृथ्वीकायिक जीवों के देहकुल―पृथ्वीकायिक जीव जो कि स्थावरों में एक भेद है, पत्थर, मिट्टी, जमीन के अंदर की कंकरी, सोना, चाँदी, लोहा, तांबा ये सब पृथ्वीकायिक जीव हैं। खान से बाहर निकलने पर ये जीव नहीं रहते। जब तक खान में है तब तक ये जीव हैं। इनकी देह जातियां 22 लाख करोड़ प्रकार की हैं। जैसे कहने में तो 10, 20 ही आते हैं―तांबा, सोना, लोहा या और धातुवें, पत्थर, मिट्टी, मुरमुरा पर तांबा भी कितनी तरह का होता है, चाँदी भी कितनी तरह की होती है? फिर उनके प्रकारों को ले लो। फिर उन प्रकारों के भीतर भी थोड़ा-थोड़ा फर्क जंचे और भी भेद हो जाते हैं। इस तरह पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर के कुल 22 लाख करोड़ हैं।
जलकायिक व अग्निकायिक जीवों के देहकुल―जलकायिक जीव जो सामान्यतया देखने में 5, 7 प्रकार के जँचते हैं, जैसे चंबल नदी का पानी सफेद बताते हैं और यमुना नदी का पानी नीला बताते हैं, तो ऐसे ही थोड़े-थोड़े भेद से 5,7 तरह के पानी मालूम पड़ते हैं, पर उस पानी में रंग का फर्क, रस का फर्क और स्पर्श का फर्क, इन सभी फरकों के हिसाब से 7 लाख करोड़ तरह के शरीर हैं। अग्निकायिक जीव जिसके भेद का पता लगाना कठिन है। सब आग है, सब गर्म है, सब भस्म करने वाली है, पर अग्निकायिक जीव के देह भी तीन लाख करोड़ प्रकार के हैं। उनमें रूप का फर्क, तेजी का फर्क―ऐसे ही विविध अंतर को डालते हुए तीन लाख करोड़ प्रकार के हैं।
वायुकायिक जीवों के देहकृत―वायुकायिक जीव जिनका हमें कुछ स्पष्ट पता भी नहीं पड़ता, हवा लग रही है इतना ही भर जानते हैं, पर उन वायुकायिक जीवों में भी शरीर होता है और उनके देह सात लाख करोड़ प्रकार के हैं। कुछ लोग ऐसा सोचते होंगे कि वृक्ष हिलते हैं तो हवा निकलती है। क्यों जी ! वृक्ष हिलते कैसे हैं? जब हवा चलती है, तभी तो ये वृक्ष हिलते हैं। मूल बात क्या है कि हवा स्वयं गति का स्वभाव रखती है, हवा स्वयमेव चलती है। वृक्षों के हिलने के कारण हवा नहीं चलती है, पर हां, इतनी बात और भी है कि हवा में स्वयं गति का स्वभाव है और गति स्वभाव वाली यह हवा कृत्रिमता से भी कभी कुछ चलती है। जैसे बिजली के पंखे से कृत्रिमता से हवा चलती है। तो ऐसे वायुकायिक जीवों के शरीर 7 लाख करोड़ प्रकार के होते हैं।
वनस्पतिकायिक जीवों के देहकुल―वनस्पतिकायिक जीव दो ही प्रकार के होते हैं―एक निगोदिया जीव और दूसरी हरी वनस्पति। हरी वनस्पति तो आंखों से दिखने में भी आते हैं, प्रयोग में भी आते हैं, पर ये निगोद जीव न आंखों से दिखने में आते हैं, न प्रयोग में आते हैं। ये सभी के सभी वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। इनमें 28 लाख करोड़ प्रकार के देह हैं। अब इस हरी वनस्पति को देखो तो ये भी स्पष्ट समझ में आते हैं कि कितनी तरह के वनस्पति हैं। बरसात में देखा होगा कि कितने प्रकार के पेड़ दिखा करते हैं? कहीं इधर-उधर बगीचों में जाकर देखो कि कितनी तरह की वनस्पति है? ये व अन्य सूक्ष्म वादर सब वनस्पतियां 28 लाख करोड़ प्रकार की होती हैं।
स्वभावदृष्टि का प्रयत्न―भैया ! यह सब इसलिए बताया जा रहा है कि इस भगवान् आत्मा का कैसा तो ज्ञानानंदस्वभाव है और अपनी ही भूल से इसे कैसी-कैसी देहों को धारण करना पड़ता है? कितनी इसकी विडंबना हो गयी है? बात रोज कहते हैं, रोज सुनते है, एक बार भी कड़ी हिम्मत करके बाह्यपदार्थों का, परिग्रहों का जो कुछ होना हो, वह हो जावे। क्या होगा? आखिर जो मरने पर होगा, सो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? वियोग हो जायेगा, कुछ भी न रहेगा, पर एक बार कड़ी हिम्मत करके सर्वपरिग्रहों का विकल्प तोड़कर परमविश्राम में स्थित होकर अपने आपके स्वभावरस का स्वाद तो आने दो। तब ही ये विडंबनाएं सब दूर हो सकेंगी अन्यथा उसी ढर्रा में, ढला में जब से पैदा हुए हैं। जब तक मरणकाल नहीं आता है, तब तक केवल ऐसा ही मोह और राग बसा रहा, एक मिनट को भी, एक सेकंड को भी संस्कार मिट न पाये, घर, स्त्री और कुटुंब को दिल से न निकाला तो बताओ ऐसी जिंदगी से जीने के फल में भी आखिर होगा क्या?
अद्भुत धर्मशाला―एक साधु सड़क से जा रहा था। मार्ग में एक सेठ की हवेली मिली। साधु हवेली के दरवाजे पर खड़े हुए चपरासी से पूछता है कि यह धर्मशाला किसकी है? चपरासी बोलता है कि महाराज ! यह धर्मशाला नहीं है, आगे जाइए। साधु ने कहा कि मैं तो यह पूछता हूं कि यह धर्मशाला किसकी है? अजी, यहाँ ठहरने को न मिलेगा। साधु ने कहा कि हमें ठहरना नहीं है, हम तो पूछते है कि यह धर्मशाला किसकी है? चपरासी ने कहा कि यह धर्मशाला नहीं है। यह तो अमुक सेठ की हवेली है। इतने में सेठ जी ने बुला लिया। सेठ ने कहा कि महाराज ! बैठो ना। आपको ठहरना है तो यहाँ भी आप ठहर सकते हो, आपकी ही तो हवेली है और धर्मशाला तो आगे है। यदि आप धर्मशाला में ठहरना चाहते हैं तो आगे चले जाइये। साधु ने कहा कि हमें ठहरने की जरूरत नहीं है, हम तो सिर्फ पूछ रहे हैं कि यह धर्मशाला किसकी है? सेठ ने कहा कि महाराज ! यह धर्मशाला नहीं है, यह तो मकान है। सेठ ने साधु से पूछा कि यह किसने बनवाया था? सेठ बोला कि हमारे बाबा ने बनवाया था। वे बनवाकर कितने दिन इसमें रहे थे? अजी, वे तो बनवा भी न पाये थे कि अधबने में ही मर गये थे। फिर इसके बाद किसने बनवाया? पिताजी ने। वे कितने दिन इसमें रहे थे? वे इसमें पाँच वर्ष रह पाए, फिर गुजर गए। तुम कब तक रहोगे? इतनी बात सुनकर सेठ समझ गया कि संन्यासी जी बड़े मर्म की चर्चा कर रहे हैं। वह सेठ साधु के चरणों में गिर गया। साधु ने समझाया कि धर्मशाला में, जिसमें मुसाफिर रहते हैं, वहाँ नियम तीन दिन का या 7 दिन का रहता है। मुसाफिर को 3 दिन से अधिक ठहरने की आवश्यकता हो तो प्रेजीडेंट या सेक्रेटरी को दरख्वास्त देकर 15-20 दिन, महीनाभर और ठहर सकता है। मगर यह धर्मशाला ऐसी है कि जितने दिन का इसमें नियम है, उसके बाद एक सेकंड भी नहीं ठहर सकता, मरकर जाना ही पड़ता है।
मोही की अरक्षा―भैया ! हम मस्त हों भले ही कि हमारा घर तो बहुत अच्छा है हमारा आवास अच्छा है, हमारे सारे समागम अच्छे हैं, मगर इनका विश्वास क्या? रोज-रोज तो देखते हैं दूसरों का जो कुछ भी हाल है। जैसे कोई मनुष्य जलते हुए जंगल के बीच किसी रूख पर बैठ ही जाये। बैठा हो और चारों तरफ आग लग गयी हो और रूख पर बैठा हुआ वह आदमी खेल देखा करे देखो चारों और जंगल जल रहा है, वह सांप जला वह हिरण कैसा भागा जा रहा है? वह खरगोश मरा, वह फलां जानवर मरा, यह सब देखकर वह मस्त हो रहा है, उस बेचारे को कुछ खबर नहीं है कि वह आग नियम से यहाँ भी आयेगी और यह पेड़ भी जल जायेगा, मैं भी जल जाऊंगा, यह ध्यान नहीं है। इसी तरह इस दुनिया में चारों ओर दिखता है कि वे दु:खी हैं, वे निर्धन हैं, वे रोगी हैं, वे यों मर गये, नाना विपत्तियों से ग्रस्त हम दूसरे जीवों को देखते हैं और अपनी सुध नहीं रखते कि हम कहां के सुरक्षित बैठे है?
परभाव की अविश्वास्यता―भैया ! भले ही उद्यम आज अच्छा हो पर क्या ऐसा उदय जीव का स्वभाव है। क्या यह जीव के साथ सदा रहेगा? अरे इस जीवन का तो पता ही नहीं है कि ऐसा उदय जीवन तक भी निभायेगा या नहीं, आगे की तो कहानी ही क्या कहें? कर्मों से घिरे हैं, विभावों से घिरे हैं, शरीर से बंधे हैं। जरा-जरासी बातों में चित्त चलित हो जाय, विषय-कषाय जग जायें, खुद के स्वरूप को भूलकर विभावों की अग्नि में झुलस रहे हैं और भूल से अपने को मानते हैं कि हम बड़े सुरक्षित हैं। यहाँ यह बताया जा रहा है कि चिदानंदस्वरूप भगवान् आत्मा के विस्मरण के कारण कैसे-कैसे देहों की विडंबनाएं इस जीव को सहनी पड़ती हैं?
विकलत्रिक जीवों के देहकुल―स्थावर जीवों के अतिरिक्त अब त्रस जीवों पर दृष्टि डालिए। त्रस जीव दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय व पंचेंद्रिय जीव को कहते हैं। जिसके केवल एक स्पर्शन इंद्रिय है, जीभ, आँख, कान कुछ नहीं है, केवल देह ही देह हैं, अन्य इंद्रियां नहीं हैं तो उन्हें एकेंद्रिय जीव अथवा स्थावर जीव कहते हैं। जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियां हैं उन्हें दो इंद्रिय कहते हैं। दो इंद्रिय जीव के कितनी जाति के देह हैं? तो सिद्धांत में बताया है कि दो इंद्रिय जीवों के 7 लाख करोड़ प्रकार के जीव हैं। सैकड़ों प्रकार के देह तो हम आपको दिखते भी है केंचुवा है, लट है, जोक हैं, सीप है, कौड़ी का कीड़ा, शंख का कीड़ा, चावल का कीड़ा, तो कुछ तो नजर आते ही हैं, और भी अनेकों प्रकार के हैं। उनमें आकार भेद से, रंग भेद से, स्पर्श भेद से इनके शरीर कितनी जाति के हैं? तो वे सब 7 लाख करोड़ जाति के दो इंद्रिय जीवों के देह हैं। तीन इंद्रिय जीवों के 8 लाख करोड़ प्रकार के शरीर हैं। चार इंद्रिय जीवों के 9 लाख करोड़ प्रकार के शरीर हैं।
तिर्यंच पंचेंद्रिय जीवों के देहकुल―अब पंचेंद्रिय जीवों के कुल देखो तो पंचेंद्रिय जीवों के इस प्रकरण में इतने विभाग बना लें―देव, नारकी, मनुष्य ये तीन तो तीन गति के हैं ही, और तिर्यंच गति में जलचर, नभचर और पशु और रेंगने वाले जीव जैसे सांप आदिक यों 7 विभाग बना लो। और इसके क्रम से देह की जातियां कितनी हैं सो समझ लो। जलचर जीव जो पानी में ही रह सकते हैं और पानी में ही रहने में उनको मौज है। ऐसे जीवों की साढ़े बारह लाख करोड़ प्रकार की देह हैं। मछलियाँ ही कितनी तरह की हैं, उनका रंग देखो आकार प्रकार देखो। कछुवा, केकड़ा आदि। जो नभचर जीव हैं वे आकाश में चल सकते है, चील, कबूतर सुवा आदि ये सब नभचर जीव हैं। इन देहों के प्रकार हैं 12 लाख करोड़ और आदि जो चतुष्पद हैं―पशु, हिरण, गाय, बैल, घोड़ा, गधा, खरगोश आदिक इन जीवों के जो देह हैं वे 10 लाख करोड़ तरह के हैं और सर्प आदिक ये 9 लाख करोड़ प्रकार के कुल देह हैं।
नारकी, मनुष्य व देवों के देहकुल―नारकियों के 25 लाख करोड़ प्रकार के देह हैं, मनुष्यों के 12 लाख करोड़ प्रकार के देह हैं। कुछ तो ध्यान में आता ही है। अभी इसी देश में गुजराती, पंजाबी, बंगाली, मध्यवासी इन भूमियों में जो उस कुल परंपरा से उत्पन्न होते आये हैं, आपस में देह नहीं मिलता। उनका आकार रंग ये सब भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। फिर मनुष्यों में लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भी आ गये। ये लब्धपर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक, पर्याप्त समस्त मनुष्य 12 लाख करोड़ प्रकार के हैं। देवों में 26 लाख करोड़ प्रकार के कुल हैं।
जीव में सकलदेहकुलों का अभाव―इस प्रकार ये समस्त देह जो भगवान् आत्मा के स्वरूप की उपासना बिना भुगतने पड़ रहे हैं वे सब एक सौ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ हैं। ये देहकुल इस शुद्ध अंतस्तत्त्व के नहीं हैं, मैं वह हूं जो इन सर्व प्रकार की देहों से जुदा हूं, मात्र चैतन्यस्वभावी हूं।
कारणसमयसार की निरंतर भावना की आवश्यकता―भैया ! आत्महित में इस निज सहजस्वभाव की दृष्टि हमारी बार-बार पहुंचनी चाहिए और जैसे मनुष्य रोज-रोज खाते हैं, अघाते नहीं है, फिर दूसरा दिन आया, फिर खाते हैं, फिर भूख लगती है, फिर तीसरा दिन लगता है, फिर खाते हैं। क्या अपने जीवन में कोई मनुष्य यह सोचता है कि मेरा खाना छूट जाय। यदि किसी बीमारी से यदि खाना बंद हो जाय तो वह दवा करवाता है कि खाना खाने लगें। तो जैसे रोज-रोज खाते हैं और खाते-खाते अघाते नहीं हैं जीवन भर यह क्रम चलता है क्योंकि यह शरीर के लिए आवश्यक है, इसी तरह परमात्मतत्त्व, कारणसमयसार, चित्स्वरूप भगवान् आत्मा की दृष्टि हमें रोज-रोज क्या, घड़ी-घड़ी करना चाहिए।
योगियों का परमयोग―योगीजन इस आत्मस्वभाव की दृष्टि करते-करते कभी नहीं अघाते हैं कि अब हमने बहुत धर्म पालन कर लिया, चलो अब और कुछ मौज से भी रहें। उन्हें तो मौज धर्म में ही मालूम होती है। इसी प्रकार अपने को भी यही जानना हैं कि हमें भी रोज-रोज आत्मा की बात मिलनी चाहिए। पढ़ने से, सुनने से, दृष्टि करने से, चर्चा से, सत्संग से, हर कोशिशों से आत्मदृष्टि का यत्न करें। सर्व संकटों को दूर कर देने वाला वातावरण है तो आत्म उपासना का वातावरण है। इस आत्मउपासना के महल से चिगे, बाहर गए तो सब ओर रागद्वेष के अंगारे ही रहेंगे, वहाँ शांति न मिलेगी।
शांति के वातावरण की महनीयता―यह भगवान् आत्मा स्वयं शांतिस्वरूप है। शांति कहां से लानी नहीं है। बना-बनाकर जो अशांति प्रकट की है उस अशांति को दूर करना है। शांति प्रकट करने के लिए श्रम करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि वह स्वयं स्वभाव ही है। अब वह अशांति हमारी कैसे दूर हो? उसके उद्यम में इस परमार्थ आत्मतत्त्व के सुवास में पहुंचने का ही काम एक युक्त है। धन्य है उस घर का वातावरण जिस घर के पुरुष, स्त्री, बच्चे सभी धर्मप्रेमी हों और एक दूसरे को धर्म में उत्साहित करते हों, मोह ममता के त्याग की शिक्षा देते हों। वह मित्रजनों की गोष्ठी धन्य है जिसमें ज्ञान और वैराग्य मार्ग का ही एक उद्देश्य बनाया गया हो। अन्यथा ऐसे मित्रों की गोष्ठी जो विषयों में लगाने और रागद्वेष की आग भड़काने में लगे रहते हों, ऐसे मित्रों की मित्रता तो बेकार है। बेकार ही नहीं है किंतु अनर्थ करने वाली है।
गृहस्थ की मुख्य दो कलायें―भैया ! गृहस्थावस्था में सब कुछ कर्तव्य करने पड़ते हैं लेकिन यह ध्यान रखना है कि ‘‘कला बहत्तर पुरुष की तामें दो सरदार। एक जीव की जीवका दूजी जीव उद्धार।।’’ अपने को केवल दो बातें करनी है एक उद्धार का मार्ग चले और एक आजीविका बने। इन दो कामों के अलावा जितने भी गप्प-सप्प हैं, उद्दंडता, स्वच्छंदता, व्यर्थ का समय खोना, इन्हीं मजाकों से सभी लड़ाइयां और विवाद हो जाया करते हैं। सो इन सबसे दूर रहना चाहिए। इनमें कोई धर्म प्रसार का उद्देश्य है क्या? है तो करो। इसमें कोई आजीविका संबंध है क्या? तो करो। गृहस्थजनों के लिए ये दो ही तो मुख्य कार्य हैं। पर जहां न तो आजीविका से संबंध है और न धर्म के लगाव का संबंध है, केवल गल्पवाद हो, हंसी मजाक हो वह गोष्ठी हितकर नहीं है।
गृहस्थों की सद्गोष्ठियां ऐसी हुआ करती थी कि भाई, आजीविका का कार्य किया। दूकान, सर्विस कुछ भी हो, उससे अवकाश मिला तो आ गए मंदिर में और बैठ गए। कोई सुहावना सुगम शास्त्र रख लिया। धर्म की चर्चा कर रहे हैं, अब तो प्राय: ऐसी गोष्ठियां नहीं रही। जो एक मंदिर जाने का नियम है, उस कार्य को छोड़कर और समय में मंदिर में बैठने में भी आलस्य सा लगता है, मन नहीं चाहता है। फिर भी ऐसे विषमकाल में भी यत्र-तत्र आपको गृहस्थजनों की ऐसी गोष्ठियां मिलेंगी कि जो आदर्श हैं, अनुकरणीय हैं। दो-दो अथवा चार-चार पुरुषों की ऐसी बहुत सी गोष्ठियां कुछ शहरों और नगरों में स्थित हैं, जिन्होंने कुछ ज्ञान सीखने का लाभ लिया है।
ज्ञानपुरुषार्थ―धन और ज्ञान, इनमें से धन जोड़-जोड़कर अंत में कौनसा आनंद पावोगे? यह भी विचार कर लो। ज्ञान बढ़ा-बढ़ाकर कैसा आनंद पावोगे? इसका भी विचार कर लो। इस झूठी इंद्रजाल, मायामय पर्याय के बाद चूंकि हम सत् है ना, विनाश तो होगा नहीं। तो कहीं न कहीं जायेंगे ही। इस धन के कारण जो लाभ माना है, वह संग नहीं जाएगा और इस ज्ञान के कारण जो लाभ मिलेगा, वह संग जायेगा। विवेकी व्यापारी तो वह है जो बड़ी दूर की बात सोचे। फिर दूसरी बात यह है कि धन की कमाई आपके हाथ पैर के आश्रित नहीं है, आपके परिणामों की निर्मलता की करनी से जो पुण्यबंध हुआ है, उसके आधीन है। निर्मल परिणाम है तो लौकिक दृष्टि से और परमार्थ दृष्टि से लाभ ही लाभ है। परिणामों की निर्मलता नहीं है तो वर्तमान में भी सुख नहीं है और आगामी काल में भी सुख नहीं है। निर्मलता उसे ही कहते हैं जहां ज्ञान और वैराग्य बसा रहता है। सो इस निर्मल आत्मा की सुधि लो और इसकी ही तो उपासना में प्रयत्नशील हो तो ये नाना प्रकार के देहों की विडंबनाएं सब समाप्त हो जायेंगी।
जीव में योनिस्थानों का अभाव―अभेद भाव से देखे गए इस शुद्ध जीवतत्त्व न तो देह के स्थान हैं और न देह की उत्पत्ति के भेदरूप स्थान हैं। जिन्हें कहते हैं योनि। सर्वत्र यह प्रसिद्ध है कि जीव 84 लाख योनियों में भ्रमण कर रहा है। वे 84 लाख योनियां क्या हैं? जीव के उत्पन्न होने के जो स्थान है, वे स्थान सचित्त, शीत, संवृत और इनके विपरीत अचित्त, उष्ण, विवृत और इनके मिलमां, ऐसी 9 प्रकार की मूल में योनि है और उनके भेद प्रभेद होकर 84 लाख योनियां हो जाती हैं। योनिस्थान व्यवहार में सब जीवों के मनुष्य, पशु पक्षी सबके उत्पन्न होने के स्थान हैं, द्वार हैं और देव और नारकियों के भी उत्पत्ति के स्थान हैं तथा एकेंद्रिय, दोइंद्रिय आदिक जीवों के भी उत्पत्ति के स्थान हैं, योनि हैं, किसी के तो स्थान प्रकट हैं और किसी के अप्रकट हैं। वे उत्पत्ति भी इस शुद्ध अंतस्तत्त्व के नहीं हैं।
एकेंद्रिय जीव के देहयोनिभेद―सब कितने योनि स्थान होते हैं? सिद्धांत में बताया है पृथ्वीकायिक जीवों के 7 लाख जातियां हैं। जाति का अर्थ जन्म से है, योनि से है, जन्मस्थान के भेद स्थान से है। जलकायिक जीवों के 7 लाख योनियां हैं, अग्निकायिक जीवों के 7 लाख योनियां हैं, वायुकायिक जीवों के 7 लाख प्रकार के जन्मस्थान हैं और नित्यनिगोदी जीव तो आज तक निगोद में से नहीं निकले हैं, अनादि से निगोदभव में ही हैं। वे भी तो प्रतिक्षण जब उनके आयुक्षय का समय होता है, उत्पन्न होते रहते हैं, मरते रहते हैं। उनकी योनियां हैं सात लाख। जो निगोद से कभी निकल आये थे, पर अब निगोद में पहुंच गये हैं, उन जीवों के 7 लाख योनियां हैं। हरी जो वनस्पतिकाय है, चाहे वह सप्रतिष्ठित हो, चाहे वह अप्रतिष्ठित हो, उन वनस्पतियों के 10 लाख योनि भेद हैं। यह जीव अनादिकाल से ऐसे निष्कृष्टभव में रहा, जहा इसका शरीर दिख ही नहीं सकता। एक श्वास में 18 बार जन्म और मरण करता रहा―ऐसा है इस जीव का आदि निवास जहां अनंतकाल व्यतीत हो जाता है और जीव का अंतिम निवास है मोक्ष निवास, जहां अनंतकाल व्यतीत हो जाते हैं।
वर्तमान पहुंच की महनीयता―निगोद से निकलकर अन्य स्थावरोंरूप हुआ, फिर दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेंद्रिय जीवों में पहुंचा। जब मनुष्य हो जाये तो यह कितनी उन्नति का स्थान है? इतने ऊंचे आकर भी यदि हम नहीं चेतते तो उसका परिणाम यही तो प्रकट है कि जहां से निकलकर विकास किया है। विकास कम होकर वहीं का वहीं यह जीव पहुंच सकता है। अब जाएगा कहां? जो उत्कृष्ट भव में आ गया, मनुष्य हो गया और फिर भी अपनी अंत:क्रिया न सुधरे तो इससे आगे और क्या बढ़ेगा? इससे नीचे ही आएगा।
आत्मदेव का आशीर्वाद व एक दृष्टांत―एक साधु महाराज थे। उनके पास एक चूहा फिरा करता था। वह चूहा साधु के प्रति इतना विश्वास रखता था कि वह चूहा उनके चरणों के निकट ही पड़ा रहता था। एक बार एक बिलाव ने उसे धमकाया तो बेचारा बहुत डरा। साधु ने उसे यह आशीर्वाद दिया कि बिडालो भव। तू भी बिलाव हो जा। अब वह बिलाव हो गया। अब वह बिलाव को डर न रहा। अब झपटा उस पर कुत्ता, तो साधु ने आशीष दिया कि श्वान भव। तू भी कुत्ता बन जा। लो वह कुत्ता बन गया। अब उस कुत्ते को डराया व्याघ्र, तेंदुवा, चीता ने, तो आशीष दिया व्याघ्रो भव। व्याघ्र को फिर सिंह ने डराया तो साधु ने आशीष दिया कि सिंहों भव। तू भी सिंह बन जा। वह सिंह बन गया। अब उसे डर किस बात का? उस सिंह को लगी बहुत कड़ाके की भूख, उसे कहीं शिकार न मिला तो सोचा कि इन साधु महाराज से अच्छा शिकार और कहां मिलेगा? तो उस साधु महाराज पर झपटने की सोचने लगा। साधु ने फिर आशीष दिया कि पुन: मूषको भव। फिर से तू चूहा बन जा। वह फिर चूहा बन गया। अरे जिसका आशीष पाकर इतनी बलवान् पर्याय तक पहुंच गया, उस पर आक्रमण करने का फल यही हुआ कि वह चूहा का चूहा ही रह गया। ऐसे ही हम आप जीव जिस आत्मदेव का आशीष पाकर विकास करते-करते आज मनुष्य हुए हैं और मनुष्य बनकर नाना कलावों से, चतुराई से विषय और कषायों के पोषण करने में लग गये और विषय कषायों के आक्रमण इस आत्मदेव पर ढा दिए तो इसको अंतर से पुन: यह आशीष मिलेगा कि पुन: निगोदों भव। फिर से तू निगोद बन जा और जायेगा कहां?
प्रभुदर्शन का मूल ज्ञानभावना―भैया !हम विशेष ध्यान नहीं देते कि आखिर होगा क्या संपदा का, वैभव का, समागम का? जिसमें इतनी आसक्ति है कि प्रभुता के दर्शन करने का भी अवकाश नहीं है, मंदिर में आने मात्र से प्रभु के दर्शन नहीं हो जाते, किंतु जब अहंकार और ममकार नहीं होता और उसके फल में आत्मविश्राम आने लगता है तो वहाँ प्रभु के दर्शन होते हैं। हमारा वातावरण ऐसा विशुद्ध हो, किसी ये द्वेष भरा न हो सबसे एक समान प्रेमपूर्वक बर्ताव हो, अंतर में यह श्रद्धा न हो कि इतने लोग तो मेरे हैं और ये पराये हैं। वैभव से हमारा ममत्व का लगाव न हो। भले ही परिवार की रक्षा करनी पड़ती है फिर भी ज्ञान यह बना रहे कि मेरे आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य सब न कुछ हैं। हैं वे। उनका स्वरूप उनमें है। मुझसे पृथक् हैं। ऐसी ज्ञानभावना से अपने आपके अंतर की स्वच्छता बर्ते तो वहाँ प्रभुता के दर्शन होते हैं।
व्यामोही को प्रभुदर्शन का अलाभ―जो रागद्वेष भरी बात बोलकर इसको पारिवारिक ममता में फंसाए रहते हैं वे इस मोही को हितकर लगते हैं अथवा कोई रागभरी बात भी नहीं बोलते और न कोई सेवा सुश्रुषा की ही बात कहते, उल्टा उपेक्षा कर दो चार गाली ही सुनने को मिलती हैं, फिर भी मोहवश यह व्यामोही पुरुष उनमें ही रमा करता है। मान न मान मैं तेरा मेहमान। दूसरे प्राणी इसे कुछ नहीं मानते हैं फिर भी मानो या न मानो, तुम तो मेरे सब कुछ हो। ऐसा व्यामोह जिस अंतर में पड़ा हो उसे प्रभुता के कहां दर्शन हो सकते हैं?
मान न मान मैं तेरा मेहमान―एक बाबा को घर में नाती-पोते पीट देते थे, झकझोर देते थे, सिर पर बैठ जाते थे तो वह बाबा दरवाजे पर बैठकर रोने लगा। इतने में आए एक संन्यासी महाराज। पूछा कि बाबा क्यों रोते हो? कहा कि घर के नाते पोते बड़े कुपूत हैं, हमें बहुत हैरान करते हैं, हमें पीटते हैं। तो संन्यासी बोला कि अच्छा हम तुम्हारा सब दु:ख मिटा दें तो। तो बाबाजी हाथ जोड़कर कहते हैं कि महाराज तुम धन्य हो। हमारे इस दु:ख को मिटा दो। बाबा ने यह समझा कि संन्यासी जी ऐसा मंत्र फूंकेंगे कि सभी नाती पाते हाथ जोड़े 24 घंटे हमारे सामने खड़े रहेंगे। परंतु संन्यासी क्या बोला कि तुम घर छोड़ दो, हमारे साथ चलो, तुम्हें हमारे संग कोई तकलीफ न होगी, तुम्हारे सारे क्लेश छूट जायेंगे। तो बाबा कहता है कि हमारे नाती पोते हमें कुछ भी करें, मारें पीटें, आखिर हमारे नाती पाते तो नहीं मिटते। वे तो हमारे हैं ही। मान न मान मैं तेरा महिमान। जबरदस्ती मानते रहते हैं कि तुम हमारे अमुक हो, व्यामोह की स्थिति ऐसी होती है।
मनुष्यत्व का सदुपयोग―भैया ! कुयोनियों से निकलकर आज मनुष्यत्व पाया तो इसका सदुपयोग तो करना चाहिए। इसका सदुपयोग यही है कि ऐसे पाये हुए उत्कृष्ट मन के द्वारा अपने आपके सहजस्वभाव चैतन्यभाव ज्ञानानंदस्वरूप अपनी भावना बनाए, एक बार सब विकल्पों का परित्यागकर अपने शुद्ध ज्ञानानुभव का दर्शन करें, यही है इस पर्याय का उच्च सदुपयोग। इस अंतस्तत्त्व के दर्शन बिना यह जीव कैसी-कैसी कुयोनियों में पैदा होता आया है? उसके वर्णन में सुनियेगा।
सर्वयोनिभेद―उन एक इंद्रिय जीवों से यह जीव निकल सका तो दो इंद्रिय में उत्पन्न हुआ। दो इंद्रिय जीवों के 2 लाख योनियां होती हैं। यह 84 लाख योनियों का वर्णन बताया जा रहा है। कैसे हो गयी 84 लाख योनि―एकेंद्रिय जीवों के 52 लाख योनियां है याने उत्पत्ति स्थान प्रकार है। तीनइंद्रिय जीवों के 2 लाख योनियां, चार इंद्रिय जीवों के 2 लाख योनियां, दो इंद्रियों के 2 लाख योनियां, देवों के चार लाख योनियां, नारकियों के 4 लाख, मनुष्यों के 14 लाख, शेष तिर्यंचों के 4 लाख योनियां हैं।
देवों की उपपादशय्या―देवों की उत्पत्ति के स्थान शय्या की तरह हैं। किसी देव देवी के भोग से देवों के गर्भ रहता हो और उससे देव और हों, ऐसा नहीं है। देवों के वैक्रियक शरीर हैं, दान और तप में जिनकी बुद्धि लगी रहती है वे मरकर देवों में जन्म लेते हैं। मंदकषायी पंचेंद्रिय तिर्यंच भी देव बन सकते हैं सो वहाँ उत्पाद शय्याएं बनी हैं। वहाँ 2-4 सेकंड में एक जैसे अत्यंत छोटा बच्चा लेटा हुआ खेलता है ऐसे ही वहाँ देव शरीर की रचना बन जाती है। नामकर्म का उदय निमित्त है और जीव की इस प्रकार की करनी है। देव अंतर्मुहूर्त में ही युवावस्था संपन्न हो जाते हैं, वे उत्पाद शय्याएं अचित्त हैं, किंतु उनमें शीत उष्ण का भेद अधिक है और इन भेद प्रभेदों से वे उत्पाद शय्या स्थान, देवों की योनियां 4 लाख प्रकार की हैं।
नारकी जीवों के उपपादस्थान―नारकी जीवों के चार लाख प्रकार के उत्पत्ति के स्थान हैं। नारकियों में भी मां-बाप नहीं होते हैं। सब नारकी नपुंसक होते हैं, वैक्रियक शरीरी हैं। अपने शरीर में ही वे औजार बना लेते हैं। उनको यह रोष आया कि मैं अमुक को तलवार से मारूं तो उन्हें अलग से तलवार नहीं उठानी पड़ती है, इच्छा करते ही हाथ तलवार का आकार धारण कर लेता है। इस ही तरह का उनका शरीर है। नर्कस्थान को पूर्ण दु:खों का स्थान सभी ने बताया है। उन नारकों में जन्म किस प्रकार होता है? जैसे मान लो ऊपर छत हो, उस छत के निचले पर्त पर जैसे बिजली का पंखा लगाने के लिए हुक्क लगा देते हैं इस ही प्रकार से इस पृथ्वी के बिलों में बिलों के ऊपरी भाग से तिखूटे, चौखूटे, टेढ़ा, गोल ऐसे स्थान बने हुए हैं। वहाँ थोड़े ही समय में यह नारकी का शरीर बन जाता है और वह नारकी औंधे ही जमीन पर गिरता है। जमीन पर गिरते ही सैकड़ों बार गेंद की तरह उछलता है फिर सारे नारकी उस पर आ धमकते हैं और वह नारकी बलिष्ट बनकर सबसे भिड़ने लगता है। नारकियों के उत्पत्ति स्थान 4 लाख प्रकार के हैं।
पंचेंद्रिय तिर्यंच व मनुष्यों के योनिस्थान―पंचेंद्रिय तिर्यंच जीवों के चार लाख योनियां हैं। देव, मनुष्य, नारकी को छोड़कर जितने भी संसारी जीव हैं वे सब तिर्यंच हैं, उनमें जो पंचेंद्रिय तिर्यंच हैं उनकी चार लाख योनियां हैं और मनुष्यों की 14 लाख योनियां हैं।
शुद्ध अंतस्तत्त्व में योनियों का अभाव―ये सब योनियां इन सभी जीवस्वरूपों में नहीं हैं। यह तो अपने सत्त्व से ज्ञानरूप रचा हुआ है। इस शुद्ध अंतस्तत्त्व के ये योनियां नहीं हैं, और शुद्ध अंतस्तत्त्व के ज्ञान के बिना यह जीव व्यवहारी बनकर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। अब भी हम आप सब उन्हीं परिस्थितियों में हैं, लेकिन इस योनि कुल देह वैभव इन सबसे रहित शुद्ध ज्ञायकस्वभाव की प्रतीति रखे तो ये सब विडंबनाएं टल सकती हैं।
कर्तव्यकार्य―भैया ! जो काम करने को पड़ा है, वह तो कुछ भी काम नहीं किया जा रहा है और जो काम बिल्कुल व्यर्थ का है, उसमें ही रात-दिन जुटे रहते हैं। करने का काम यह है कि अपने को इस रूप अवलोकते रहें कि मैं ज्ञानभाव, आनंदभाव मात्र हूं। कौन कहता है कि मैं मनुष्य हूं? मेरे लिए मैं मनुष्य नहीं दिख रहा हूं। मैं तो ज्ञानानंदस्वरूप मात्र चेतन हूं―ऐसी प्रतीति रखने का काम पड़ा हुआ है। जैसा कल्याण चाहिए, जैसा धर्महित चाहिये―ऐसे इस काम को तो किया नहीं जा रहा है और व्यर्थ के ऊधम मचाएँ जा रहे हैं। मैं मनुष्य हूं, ऐसी पोजीशन का हूं, अमुक गांव का हूं, अमुक मजहब व गोष्ठी का हूं। और कहां तक कहा जाये? उन विकल्पों के असंख्यात तो भेद हैं। कुछ तो इसके कहने में आ पाते हैं, कुछ नहीं आ पाते हैं। कुछ विकल्प तो अनुभव में आ पाते हैं और कुछ अनुभव में नहीं आ पाते है―ऐसे अनगिनते विकल्पोंरूप अपने को मान लेने में यह जीव लगा है और एक विशुद्ध ज्ञानभाव, आनंदभावरूप अपने आपकी श्रद्धा नहीं कर पाता है। यही कारण है कि जीव आज इतनी विडंबना और क्षोभ में पड़ा हुआ है।
धर्म बिना मनुष्यभव की तुच्छता―भैया ! वैभव पाया तो क्या विडंबना, झंझट, चिंताएं आदि सभी आपदाएं तो गरीबों की भांति ही बनी हैं? मनुष्य हुए तो क्या हुआ? विषयभोगों की वांछाएं, इंद्रियों के विषयों की पूर्तियां तो उन पशु और पक्षियों की भांति ही तो बनी हैं। मनुष्य में व पशुओं में कोई अंतर है तो धर्मधारण का अंतर है। एक धर्म नामक तत्त्व अपने में न रहे तो पशुओं में और मनुष्य में फिर कुछ अंतर नहीं रहता, बल्कि मनुष्य से पशु अच्छे हैं। पशुओं की चाम हड्डी काम में आती हैं। ये दूसरों के किसी प्रकार आराम देने के काम में आते हैं और वर्तमान में भी तो अनेक खूबियाँ हैं। जैसे कोयल का सुरीला राग है। मनुष्य अच्छे राग से गाये तो लोग उपमा देते हैं कि इसका कंठ तो कोयल जैसा है। उपमा में जिसको उदाहरण में लिया, वह बड़ा हुआ या मनुष्य का कंठ बड़ा हुआ? कोई बड़ा शूर हो, उसके वक्षस्थल आदि सब पुष्ट हों, कमर अत्यंत पतली हो तो उसे यह कहते हैं कि यह सिंह के समान शूरवीर है। इसमें सिंह शूरवीर हुआ या मनुष्य? सिंह ही शूरवीर हुआ। इस मनुष्य की और पशु पक्षी की तुलना में पशु पक्षी बड़े हैं। मनुष्य में एक धर्म तत्त्व न हो तो कवियों ने चूंकि वे मनुष्य थे, इसलिये कह दिया कि मनुष्य पशु के बराबर है, नहीं तो यह कहना था कि यह पशु से हीन है।
धर्मपालन―धर्म क्या है, कहां पालना है? यह धर्म अपना है व अपने में पालना है। अपना ही स्वरूपमात्र एक अपनी नजर में रहे―ऐसी स्थिति बनाये तो वहां धर्म का अभ्युदय है। यह आत्मा के नाते से बात की जा रही है। जब इस परमार्थ हित कार्य में नहीं लग सकता है, पर ख्याल है इसका तो, अब जो मन, वचन, काय की चेष्टाएं बनेंगी, वे व्यवहारिकता बनेंगी, वे चरणानुयोग पद्धति की बनेंगी, उसे ही लोग पहिचानते हैं। सो लोक में उस व्यवहारिकता को धर्म कहा है, पर वे व्यवहारिकताएं भी इस परमार्थिक हित के अविरोध को लिये हुए हो तो वह व्यवहार धर्म है। ऐसा देव का स्वरूप हमारी दृष्टि में रहे कि जिस स्वरूप का स्मरण करके हम उस सहजस्वरूप में उस स्वरूप को मग्न करके एकरस हो सकें, लो वह हो गया देव। इस स्वरूप को पाने के लिए जो उद्यम करता है, वह ही तो गुरु कहलाता है। उन गुरुवों का रंग, ढंग, स्वरूप, चाल ढंग, चर्या ऐसी विविक्तता को दिखाने वाली होनी चाहिए या ऐसी निरपेक्षता को लिए हुए हो कि जो उन्हें इस परमार्थ ज्ञानस्वरूप में मग्न करने का बार-बार मौका दे। निरारंभ अवस्था और निष्परिग्रह अवस्था ही ऐसी अवस्था है कि यह जीव आत्मस्वभाव की चिंतना में बार-बार लग सकता है।
शुद्ध अंतस्तत्त्व के जीवस्थानों का अभाव―देखो इस शुद्ध अंतस्तत्त्व को जो अपने लिए परमशरण है, एकस्वरूप है, निष्पक्ष है, केवल यह आत्महित की समस्या को ही हल करने वाला है―ऐसा एक इस निज अद्वैत, निज एकत्व के स्वरूप का भान किसी क्षण तो हो, फिर ये सब देह, भोग के साधन, सब विडंबनाएं इसकी दूर हो सकती हैं। इस शुद्ध अंतस्तत्त्व के कोई जीवस्थान नहीं है। जैसे वादरएकेंद्रिय, सूक्ष्मएकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, असंज्ञीपंचेंद्रिय, संज्ञीपंचेंद्रिय और ये होते हैं पर्याप्त अवस्था में तथा अपर्याप्त अवस्था में अर्थात् जन्मकाल में, शिथिल अवस्था में होते हैं और पश्चात् पर्याप्त अवस्था में होते हैं। जिस प्रकार से कोई जीव अपर्याप्तावस्था में ही मर जाते हैं, पर्याप्त नहीं हो पाते हैं, वे लब्धपर्याप्त हैं।
स्वभाव की सहजता व शाश्वतता―कोई जीव अपर्याप्तावस्था में ही मर जाते हैं, पर्याप्त नहीं हो पाते, वे लब्ध्यपर्याप्त हैं। जैसे पानी की कुछ भी स्थिति हो, गंदा हो, गरम हो, रंग मिश्रित हो, सब परिस्थितियों में जल के स्वभाव की जब चर्चा करेंगे, दृष्टि करेंगे तो वहाँ यों दृष्टि होगी कि जल निर्मल है, शीतल है। स्थितियां कुछ भी हों, जब स्वभाव को बतावेंगे। तो स्वभाव तो सहजभावरूप होता है। न रहे उस जल के साथ, पर उपाधि का संग, न रहे उस जल में उपाधि का निमित्त पाकर पर भाव का प्रसंग, तो जल किस रूप में रह सकेगा―ऐसी संभावना से समझ में आ सकता है, जल का स्वभाव भाव। न रहे मुझसे देह का संग, न रहे कर्मों का संग और न रहे इन उपाधियों का निमित्त पाकर उठने वाले रागद्वेषादिक का प्रसंग, तो यह मैं किस स्वरूप में रहा करूंगा, ऐसी संभावना के द्वार से यह सहजस्वभाव परखा जाता है।
जीव में देहसंबंधी सर्वस्थानों का अभाव―उस सहज स्वभावरूप मुक्त आत्मतत्त्व के ये कोई जीवस्थान नहीं हैं। कौन कहता है कि मेरे देह लगा है। अरे मैं ही अपने घर से निकलकर दरवाजे से बाहर में झांकने लगूं तो मालूम पड़ता है कि मेरे देह लगा है और फिर दरवाजे से मुड़ कर भीतर की ओर उन्मुख होकर अंतर में विहार करूं तो वहाँ यह विदित नहीं होता कि मेरे देह है, इसलिए अन्य संबंध, अन्य रिश्ते, अन्य विडंबनावों की वहाँ कहानी ही क्या है? इस जीव के देहसंबंधी न कुल है, न जातियां हैं और न देहों के प्रकार हैं। इन समस्त विडंबनावों से परे शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप यह मैं आत्मतत्त्व हूं, इस प्रतीति द्वारा सब विडंबनाएं दूर हो जाया करती हैं।
जीव में परतत्त्वों का अभाव―जीव के अपने आपके सत्त्व के कारण जो इसमें सहजस्वरूप पाया जाता है उसको दृष्टि में रखकर यह सब वर्णन सुनाना है कि ऐसे शुद्ध जीवास्तिकाय में किसी भी प्रकार के परभावों का प्रवेश नहीं है। इस जीव ने बाह्यपदार्थों में आत्मीयता करके जो विकार की रचनाएं की हैं इन रचनावों से यह जीव चतुर्गति में भ्रमण करता है। अन्य समागम इसके है कुछ नहीं, न कुछ था, न कुछ होगा। किंतु मोह का ऐसा प्रताप है कि जिस काल में बाह्यपदार्थों का समागम है उस काल में यह उस समागम से न्यारा अपने सहजस्वरूप को नहीं पहिचान सकता है? मिलेगा कुछ नहीं। कैसी व्यवस्था है? जैसे स्वप्न होते हुए की स्थिति में जो कुछ देखा जा रहा है यह सब यहाँ कुछ नहीं है, ऐसा ज्ञान नहीं कर सकते हैं। ऐसे ही मोह की अवस्था में जो कुछ समागम प्राप्त हुए हैं ये मेरे कुछ नहीं हैं, ऐसा वहाँ श्रद्धान नहीं कर सकते हैं।
स्वप्न की परिस्थिति―भैया ! जैसे स्वप्न की बात सदा नहीं रहती, जगने पर आखिर मिटना ही पड़ता है और मिटने के बाद फिर इसे यह निर्णय होता है कि ओह यह सब दृश्य झूठा था । इस ही प्रकार समागम की बात सदा नहीं रहता, मिटना पड़ता है। मिटने के बाद फिर कुछ पता पड़ता है कि ओह यह मायाजाल था, मेरा कहीं कुछ न था। तो थोड़ा ख्याल तो आता है परंतु मोह की नींद अभी नहीं हुई है, इस कारण इन समागमों को यह अपनाने लगता है।
यथार्थ ज्ञान बिना कल्पित विवेक की अविवेकसमता―जैसे कोई ऐसा ही स्वप्न आ जाय कि उस स्वप्न में तो बहुत बुरी अहितकर बातें देखी और स्वप्न में ही कुछ हल्के ढंग से ऐसा समझ जाय कि यह स्वप्न है तो क्या ऐसी समझ स्वप्न में हो सकती है? कभी हो भी सकती है, लेकिन अपना संस्कार होने से फिर दूसरे स्वप्न की बातें देखने लगे तो उस पिछले स्वप्न को स्वप्न में स्वप्न मानना क्या यथार्थ है? ऐसे ही मोह में समागम के बिछुड़ने पर जो कुछ विवेक यह करता है कि ऐसा ही उदय था और अन्य विकल्प करता है तो उस समागम का उसके क्या त्याग है? अरे जब तक समागम के बीच रहकर सच्चा विवेक नहीं जगता, जब तक अपने सहज स्वरूप का परिचय नहीं होता तब तक वास्तविक जगना नहीं कहलाता। इस मोह की नींद से हटा हुआ पुरुष अपने अंतस्तत्त्व में देख रहा है कि इसके ये जीवस्थान नहीं हैं।
शुद्ध जीवास्तिकाय में गति मार्गणा स्थानों का अभाव―इस शुद्ध जीवास्तिकाय में मार्गणा के भी स्थान नहीं हैं। जीव की पहिचान के उपाय 14 प्रकार से जैन सिद्धांत में बताये हैं। कोई नरक गति के जीव हैं, कोई तिर्यंच गति के हैं, कोई मनुष्यगति के हैं और कोइ्र देवगति के है। इन चार गतियों से रहित एक सिद्ध अवस्था है। ज्ञानी जीव जानता है कि इस शुद्ध जीवास्तिकाय में अर्थात् ज्ञायकभाव का लक्षण लेकर देखे गए निज जीवास्तिकाय में न ये चारों गतियां हैं और न गतिरहित अवस्था है। इसके स्वरूप में तो एक ज्ञानभाव है। वह न गति सहितपना देख रहा है और न गति रहितपना देख रहा है। वह तो लक्षण देख रहा है।
शुद्ध जीवास्तिकाय में इंद्रियमार्गणास्थानों का अभाव―दूसरी खोज है इंद्रियमार्गणा। इंद्रियां 5 होती हैं―स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। किसी जीव में एक ही इंद्रिय है―स्पर्शन मात्र। जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति। कोई जीव दो इंद्रिय वाले हैं―स्पर्शन, रसना वाले हैं, जैसे लट, केचुवा, जोंक, शंख, कौड़ी, सीप आदिक। कोई जीव स्पर्शन, रसना, घ्राण इन इंद्रियों से सहित हैं―जैसे कानखजूरा, बिच्छू, चींटी, चींटा, खटमल आदिक अनेक जीव हैं। कोई स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु इन चार इंद्रियों करि सहित हैं―जैसे मक्खी, भुनगा, बर्र, भौंरा, मच्छर, टिड्डी, पतंगा। कोई जीव पांचों इंद्रियों करि सहित है―जैसे मनुष्य, देव, नारकी और पशु, पक्षी, जलचर आदिक। कोई जीव ऐसे भी है कि पांचों ही इंद्रियां नहीं है जैसे सिद्ध भगवान्, किंतु एक जीव के लक्षण को ही निहारने वाले और जीव के लक्षणरूप ही इस जीव का परिचय करने वाले ज्ञानी संत कह रहे हैं कि इस शुद्ध जीवास्तिकाय में न तो एकेंद्रियपना है, न दो इंद्रियपना है, न तीन इंद्रियपना है, न चार इंद्रियपना है और न पाँच इंद्रियपना है और इंद्रिय से रहित जो एक शुद्ध अवस्था है, परिणमन है वह भी नहीं देखा जा रहा है। असाधारण लक्षण के रूप से जीव को देखा जा रहा है तो ज्ञानानंद स्वभाव रूप ही जीव दिखने में आ रहा है, उसमें क्या तो है और क्या नहीं है? यह कुछ नहीं दिखता है।
शुद्ध जीवास्तिकाय में कायमार्गणस्थानों का अभाव―जीव की तीसरी खोज है कायमार्गणा―काय 6 होते हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस। ये शरीर के आधार पर भेद किए जा रहे हैं। और कोई जीव ऐसे होते हैं कि छहों काय से परे हो गए, पर जीव को जहां देखा जा रहा है वहां जीव की बात देखी जायेगी, जीव में क्या है और क्या नहीं है यह देखा जायेगा। परमार्थदृष्टि में जीव के कायमार्गणा स्थान नहीं हैं। वस्तु में क्या है, क्या नहीं है इसका वर्णन व्यवहारनय में चलता है, पर निश्चयनय से जब जीव का स्वरूप निहारा जा रहा है तो वहाँ जीव का लक्षण जो ज्ञानादिक स्वभाव है उस पर दृष्टि है। ऐसे ज्ञानानंद स्वभावरूप शुद्ध जीवास्तिकाय के ये कायमार्गणा भी नहीं है।
वस्तु की निश्चयव्यवहाररूपता―देखिये स्याद्वाद के उपाय से वस्तु के स्वरूप को किस ठौर पहुंचाया जा रहा है? माया का क्या स्वरूप है, परमार्थ का क्या स्वरूप है―यह निश्चय और व्यवहार दोनों नयों से परखा जा रहा है। परमार्थ और व्यवहार की चर्चा अन्यत्र भी है, किंतु एक ही पदार्थ में परमार्थता निहारना और व्यवहार निहारना यह खूबी जैनसिद्धांत में बतायी है। व्यवहार दृष्टि से परखें हम बाहर की बातें तो वहाँ सत्त्व की परमार्थता नहीं रही, व्यवहारात्मकता ही रही।
ज्ञानानुभूति की निर्विकल्पता―इस आत्मतत्त्व को जब परमार्थ की दृष्टि से देख रहे हैं तो क्या देखा जाता है? अनेकांत अथवा वेदांत। कैसा अनेकांत? जहां एक भी धर्म नहीं है ऐसा अनेकांत। जीव के शुद्धस्वभाव की दृष्टि में न तो वहाँ कुछ है―ऐसा तका जा रहा है और न वहाँ कुछ नहीं है―ऐसा भी तका जा रहा है अथवा वहाँ विकल्पों का अंत हो गया है। परमार्थस्वरूप आत्मतत्त्व के परिज्ञान के, अनुभव के काल में अब ज्ञानविकल्प नहीं चलता है। यों समझिये कि जैसे भोजन बनाते हुए काल तक तो अनेक बातें और विकल्प चला करते थे। अब अमुक चीज लाओ, यह लो और डालो, आंच तेज करो, यह मसाला लाओ, ठीक न सिका, अभी और सिकना चाहिये। सर्वविकल्प किए जा रहे थे भोजननिर्माणकाल तक। उस भोजन का जब अनुभवन करते हैं, तब एक चित्त होकर एक स्वाद में ही दिल पूरा बसाकर उसका ही आनंद व्यामोही लोग लूटते हैं। वहाँ यह ख्याल नहीं करते कि इसमें यह चीज ठीक पड़ी है। यदि यह विकल्प करें तो ऊँचा एकरस का स्वाद नहीं आ सकता है। यों ही वस्तुस्वरूप के परिज्ञान के निर्माणकाल तक तो निश्चयव्यवहार का सर्वविकल्प किया और उसकी सिद्धि की, किंतु जब अनुभवन काल आया। उस परमार्थस्वरूप का तो उस काल में इस जीव के जीव का विकल्प न रहा अर्थात् कल्पना न रही―ऐसे अनुभवन में आए हुए शुद्ध जीवास्तिकाय में मना कर रहे हैं कि इसमें कार्माणवर्गणा नहीं है।
यथार्थज्ञान की अनुपेक्षा―यह ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व न नारक है, न तिर्यंच है, न मनुष्य है, न देव है और न ये सिद्ध है। यह तो ज्ञानानंद स्वरूप है। ज्ञानानंदस्वभाव की लगन लग जाए, रुचि जग जाए, प्रतीति हो जाए तो ये संसार के संकट न रहेंगे। इतना दुर्लभ अवसर पाकर लाभ तो इस बात में है कि मोह नाम पर रंच भी मलिनता न रखी जाए। कुछ-कुछ में काम नहीं बनता है। कुछ मोह बना रहे, कुछ धर्म भी करते रहें, उसमें कार्य नहीं बनता है, उससे भला तो शायद इस बात में होगा कि मोह हां खूब कर डाले 24 घंटे। पेट अफर जाए मोह करते-करते तो फिर धर्म की ओर आने लगें। पर सारा जीवन ऐसा ही बिताया तो क्या हाथ पाया? यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि घर द्वार सब त्याग करके धर्मपालन करिये। यदि कोई सच्चाई और ईमानदारी से धर्मपालन कर सके तो भला है, पर ऐसे भी रहा तो क्या ज्ञान रखने में भी कोई कष्ट होता है? घर में रहो तो ठीक है। व्यापार करना है, परिवार से बोलना है और इस तरह से करना चाहिए, कर्तव्य है ठीक है, पर मैं अपने चतुष्टय से सत् हूं, ये जीव अपने चतुष्टय से सत् हैं, मेरा इनमें अत्यंताभाव हैं, अंतर की परिणति से इसमें कुछ नहीं बनता। ऐसा वस्तु का स्वरूप है ना, तो ऐसी जानकारी रखने में भी क्या कष्ट होता है?
निर्मोहिता की अनुपेक्षा―भैया ! वस्तु की स्वतंत्रता का भान रखना ही तो निर्मोहता है। मोह तो कतई छोड़ना चाहिए, चाहे गृहस्थ हो, चाहे कोई हो। रही राग की बात। तो राग जब जैसे छूटेगा, छूटने दो। राग के छोड़ में इतनी स्वाधीनता नहीं है या यह कहो कि वश नहीं चलता है। मोह का त्याग जहां यथार्थ ज्ञान हुआ, हो जाता है। मोह नाम है दूसरों को अपना स्वरूप मानना। दूसरों से अपना सुख दु:ख मानना, यह है मोह का स्वरूप। गृहस्थावस्था में भी कितनी बड़ी सुगमता की बात है? राग नहीं छूटता है तो न छूटे, कर्तव्य किया जाता है तो करो और करना चाहिए, जब तक गृहस्थावस्था में हैं, किंतु यथार्थ बात से मुंह न फेरिये। सर्वजीव स्वत: सिद्ध परिपूर्ण सत् स्वरूप हैं और मेरे से सब जीव अत्यंत जुदे हैं। जितने जुदे बाहर के लोग हैं, गैर माने हुए लोग हैं, उतने ही पूरे जुदे घर में बसे हुए लोग हैं। अपनी सीमा, अपना स्वरूप अपनी दृष्टि में रखो और सम्यक्त्व की भावना से अपना पोषण करो। इस शुद्ध जीवास्तिकाय में कार्यमार्गणास्थान नहीं है।
शुद्ध जीवास्तिकाय में योगमार्गणास्थानों का अभाव―चौथी पहिचान है जीवों की योगमार्गणा। जीव के प्रदेश में जो परिस्पंद होता है, क्रिया होती है, वह योग है। यह योग तो जीवात्मक हैं, किंतु उस आत्मप्रदेश परिस्पंदरूप योग के प्रवर्तन में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति कारण होती हैं। योग जीव का स्वभाव नहीं है, हलन चलन क्रिया करते रहना जीव का स्वभाव नहीं है। यह मन जब अनेक प्रकार विकल्प करता है, वचन अपनी चेष्टा करते है, काय अपनी प्रवृत्ति में है तो उसका निमित्त पाकर जीवप्रदेश में परिस्पंद होता है तो ऐसे कारण 15 प्रकार के हैं। मूल में तीन हैं―मनोयोग, वचनयोग और काययोग।
मनोयोग व वचनयोग के भेद―जीव का मन 4 प्रकार का होता है―कोई सांचा मन है, कोई झूठा मन है, कोई मिलमां मन है, कोई अनुभय पाने तटस्थ मन है। तो ये चार प्रकार के मन हैं, जिनसे चार मनोयोग हो जाते है। ऐसे ही चार प्रकार के वचन होते हैं―कोई सत्य वचन है और कोई झूठ वचन है, कोई मिलमां वचन है। यहाँ न कोई सांचा है और न यहाँ कोई झूठा है याने अनुभय है। ऐसे चारों प्रकार के वचनों का वचनयोग हो जाता है।
सत्य, असत्य, उभय, अनुभय का विवरण―सच बात तो सब ही जानते हैं कि इसे सच कहते हैं। झूठ भी सब जानते हैं कि इसे झूठ कहते हैं, पर सच और झूठ दोनों मिले हुए हों―ऐसे भी वचन हुआ करते हैं। इसे लोग पहिचानते हैं। छल-कपट करना, दूसरों को धोखे में डालना―ये सब तो मिलमां वचन से ही होते हैं। केवल सच बोलने से कोई धोखे में नहीं आएगा और निरा झूठ बोलने से भी कोई धोखे में न आएगा, सावधान हो जाएगा, पर सांचा और झूठ का जो मिलमां वचन है, उससे लोग धोखे में आ जाते हैं। सो इसका भी परिचय है, पर जो न सत्य है, न झूठ है, अनुभय है―ऐसा भी कोई वचन है क्या? इसका भी हम आप रात दिन प्रयोग करते हैं। जैसे आप किसी से बोल रहे हैं कि हे भाई ! आओ। तो इतने जो शब्द हैं, वे झूठ हैं या सच हैं? न सच हैं और न झूठ। यह तो एक बुलाने का वचन है। कोई कहे कि सच है तो थोड़ी देर में यह देखेगा कि बुलाने से यदि न आया तो झूठ हुआ। कोई कहे कि झूठ है व बुलाने से आ गया तो वह सच है। झूठ सच की परख पा सकना अन्य क्रिया पर नहीं होती, वह तो उन्हीं वचनों से होती है। जिस प्रकार से यदि किसी का बुलावा कर दिया कि तुम्हारा हमारे घर पर कल नेवता है तो इतने ये जो भी शब्द हैं, वे न सच हैं और न झूठ हैं। यह तो एक आमंत्रण वचन है।
त्याग का मनबहलावा―किसी शहर में शाम को आरती हुआ करती थी। उसमें ऐसा रिवाज था कि लोग घी की बोली बोला करते थे कि लिखो हमारे नाम 20 सेर घी, हमारे लिखो1 मन घी, हमारे लिखो दो मन घी। अर्थ यहाँ यह है कि 20 सेर घी के मायने सवा रुपया। एक देहाती भी तिली की गाड़ी भरकर तिली बेचने के लिये जा रहा था। मार्ग में मंदिर आने पर मंदिर में वह दर्शन करने चला गया। वहाँ आरती हो रही थी। उसने देखा कि यहाँ के लोग बड़े उदारचित्त हैं, कोई एक मन घी बोली में बोलता है, कोई दो मन घी बोली में बोलता है। उसने सोचा कि हम क्या बोलें? विचार कर वह बोली में बोला कि लिखो हमारी एक गाड़ी तिली। जब बोली समाप्त हुई तो कहा कि लो रख लो हमारी एक गाड़ी तिली। लोगों ने कहा कि यहाँ तो घी की बोली होती है। 20 सेर घी के मायने है 20 आने पैसे अर्थात् मैने 20 आने चढ़ाये, 1 मन घी के मायने हैं कि ढाई रु. चढ़ाये गए। अब 20 सेर घी होता है 200 रुपये का। उस देहाती ने कहा कि अच्छा पंचों ! तुम हमारी गाड़ी भर तिली ले लो, हमने तो चढ़ा दी। पंचों ने गाड़ी भर तिली ले ली।
त्याग के मनबहलावे वाले को उत्तर―अब उस देहाती को घर में रात भर नींद न आयी उसने सोचा कि अच्छा पंचों को भी अब मजा चखाना चाहिए, जो कि ऐसी झूठ बोली करके मंदिर में आरती करते हैं। लिखो 20 सेर घी, लिखो 1 मन घी, ऐसा कहते है और सवा रुपये, 2।। रुपये चढ़ाते हैं। सो सोचा कि इन्हें भी मजा चखाना चाहिए। वह पहुंचा उसी शहर के मंदिर में बोली बोलने वाले सब लोगों से कहा कि कल हमारे यहाँ सारी समाज की चूल्हे का न्योता है, कोई अपने-अपने घर चूल्हा न जलाना, सबका निमंत्रण है। सबने निमंत्रण मान लिया। दूसरे दिन सब लोग उसके यहाँ पहुंचे। उसने वहाँ क्या करवाया कि घर में इधर-उधर लकड़ी जलवाकर धुवाँ करवा दिया। लोगों ने जाना कि खूब पुड़िया पक रही हैं। उसने पातल मंगा ली थी। सो सबको पातल परोसवा दीया, और पातल परोस जाने के बाद वह कहता है कि पंचों अब सब लोग जीमों। सब लोग मुंह ताकें। सबने कहा कि पातल में कुछ धरो तब तो जीमें। उसने कहा कि महाराज जैसे आपके मंदिर में आरती की बोली बोली जाती है वैसी ही हमारी पंगत है, सब लोग इसे स्वीकार करो। तो यह एक बात छल की कही गई है इस कथानक में, ऐसा ही कुछ एक उभय वचन होता है, वही भ्रम, छल इसका कारण बनता है। तो चार प्रकार के वचन होने से चार वचन योग हुए।
काययोग का भेद―काय योग होते हैं 7 प्रकार के। काय कहते हैं शरीर को, शरीर होते हैं चार तरह के―औदारिक, वैक्रियक, आहारक और कार्माण। मनुष्य, तिर्यंच के शरीर का नाम औदारिक शरीर है और वही शरीर जन्मकाल में कुछ सेकेंडों तक जब तक उसमें बढ़ने की ताकत नहीं आती है तब तक कहलाता है औदारिकमिश्र। इसी तरह देव और नारकियों के भी शरीर का नाम है वैक्रियक शरीर और उनके जन्मकाल में जब तक उनका शरीर पर्याप्त नहीं होता कुछ सेकेंड, तब तक कहलाता है वैक्रियकमिश्र। आहारक शरीर होता है बड़े ऊंचे ऋद्धिधारी साधु पुरुषों के। जब उन्हें कोई तत्त्व में शंका होती है तो उसके समाधान में अपने उपयोग को डुबाते हैं तब एक हाथ के विस्तार वाला स्वच्छ धवल पवित्र एक आहारक शरीर निकलता है, वह मनुष्य की तरह अंगोपांग वाला होता है और वहाँ जाता है जहा प्रभु विराजमान् हों। दर्शन करते ही उसकी शंका का समाधान हो जाता है। यह आहारक शरीर जन्मकाल में जब तक बढ़ता नहीं है तब तक उसे आहारक मिश्र कहते हैं। इस तरह ये 6 होते हैं, और एक हुआ कार्माण शरीर, जो मरने के बाद जन्म स्थान पर पहुंचने से पहिले विग्रह गति में अपना प्रताप दिखाता है। ऐसे इन 7 शरीरों के निमित्त से जो भोग होते हैं उन सबको काययोग कहते हैं।
अयोग सहित सर्व योगमार्गणास्थानों का आत्मतत्त्व में अभाव―इस तरह 15 योग हुए और ऐसे भी जीव हैं जो इन योगों से रहित हैं। चौदहवें गुणस्थान वाले और सिद्ध भगवान् ये समस्त 16 प्रकार के योग मार्गणा के स्थान इस शुद्ध जीवास्तिकाय में नहीं हैं। ऐसा यहाँ जीव के शुद्ध स्वरूप के निहारने के संबंध में आचार्यदेव बता रहे हैं, कि वह तो शुद्ध एक ज्ञानानंद स्वभाव मात्र है उसे कहीं बाहर न देखो, किंतु अपने आपके ही अंतर में परखो। इस चेतनतत्त्व में चेतने के ही सत्त्व के कारण जो सहजस्वभाव होता है उस सहजस्वरूप की दृष्टि में लखे हुए आत्मतत्त्व में मात्र ज्ञानानंद स्वभाव ही विदित होता है, पर उपाधि के संबंध से जो विचित्र स्थितियां हो जाती हैं वे स्थितियां वस्तु के स्वभाव में नहीं हैं। इस कारण निश्चय नय से जीव के ये कोई मार्गणा स्थान नहीं हैं।
आत्मतत्त्व में वेदमार्गणा का अभाव―अब जीव की 5 वीं खोज होती है वेदमार्गणा। समस्त जीव वेद की दृष्टि से चार भागों में विभक्त हैं, कोई पुरुषवेदी है, और कोई स्त्रीवेदी है, कोई नपुंसकवेदी है और कोई वेदभाव से रहित है। वेद कहते हैं कामवासना को। पुरुष के साथ रमणभाव हो उसको स्त्रीवेद कहते हैं और स्त्री के साथ रमण का परिणाम हो सो पुरुषवेद है, और जहां दोनों बातें हों वह नपुंसक वेद है, और जहां किसी प्रकार का कामसंस्कार भी नहीं रहता उसे अपगतवेद कहते हैं। अब इन सब जीवों में खोजो, नारकी जीव तो नपुंसकवेदी ही होते हैं। वे भावों में भी नपुंसक और शरीर से भी नपुंसक होते हैं। देवी देवतावों में कोई नपुंसकवेदी देव न होगा, पुरुषवेदी होगा अथवा स्त्रीवेदी होगा। वहाँ भाव वेद भी वहीं है और द्रव्य वेद भी वही है। मनुष्य और तिर्यंच में विषमता है कि शरीर से तो कोई स्त्रीवेदी हुआ, उसमें स्त्री चिन्ह हुआ और परिणाम में पुरुषवेद जागृत हुआ।
द्रव्यवेद व भाववेद की विषमता―भैया ! कुछ-कुछ तो ऐसी घटनाएं भी सुनने को मिलती हैं कि कोई जन्म से लड़की था और पश्चात् डाक्टर ने उसकी खोज करके पुरुषवेदी बना दिया। हो सकता है उसका भाववेद पहिले से पुरुष ही था और गुप्तरूप में कुछ रचना भी द्रव्यवेद की इस तरह हो। तिर्यंच में और पुरुष में इस बात की विषमता पायी जाती है कि शरीर का वेद और कुछ है और भाव का वेद और कुछ है। यह वेदमार्गणा की स्थिति जीव में स्वभाव से नहीं है। पर यह उपाधि का सन्निधान पाकर हुई है।
आत्मतत्त्व में कषायमार्गणा स्थानों का अभाव―अब छठवीं खोज है कषायमार्गणा की। समस्त आत्मा 26 प्रकार में कषायमार्गणा की दृष्टि से बंटे हुए हैं। अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ; 16 प्रकार के ये कषाय है; हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये 9 नोकषाय हैं और कुछ जीव ऐसे हैं कि कषायों से परे हैं, अकषाय हैं।
अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण कषाय―अनंतानुबंधी कषाय वह कहलाता है कि जिस क्रोध, मान, माया, लोभ के होते संते इस जीव को सम्यक्त्व नहीं जग सकता, आत्मस्वरूप की प्रतीति नहीं बन सकती, ज्ञान का अनुभवन नहीं हो सकता। ऐसे तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ जहां होते है उसे अनंतानुबंधी कषाय कहते हैं। अप्रत्याख्यानावरण कषाय अनंतानुबंधी से बहुत हल्की होती है। इस कषाय के रहते हुए सम्यक्त्व रह सकता है, आत्मज्ञान की बात चल सकती है और कदाचित् क्षणों को आत्मरमण की उसकी योग्यता चलती है, किंतु ये कषाय देशव्रत नहीं होने देते, व्रत में नहीं बढ़ने देते, सम्यक्त्व तो हो सके, पर संयम किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता। ऐसे ये क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।
प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन कषाय―प्रत्याख्यानावरण कषाय में देशव्रत जग सकता है, पर सकलसंन्यास नहीं हो सकता है। बाह्यपरिग्रह सब छोड़ दिया और आभ्यंतर परिग्रह का भी त्याग करके जैसा नग्नरूप शरीर से है ऐसा ही नग्नरूप भीतर में बन सके, किसी भी परपदार्थ की लपेट जिस ज्ञान में नहीं हो सो ऐसा महाव्रत नहीं हो पाता है। प्रत्याख्यानावरण के होते हुए देशव्रत हो जायेगा, सम्यक्त्व जग जायेगा, पर महाव्रत नहीं हो सकता। संज्वलन कषाय ऐसा होता है। जैसे पानी में लाठी से लकीर खींच दी जाय तो वह लकीर उस ही काल तो दिखती है बाद में नहीं बाद में वह जल एकरस हो जाता है। ऐसा ही जहां अत्यंत मंद कषाय रह गया, ऐसे साधु संतों के जहां सकलसंन्यास हो गया और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग है किंतु कषाय अब भी विद्यमान है, वह है अत्यंत हल्की संज्वलन कषाय।
नव नोकषायें―जगत के जीवों में यह एक कषाय का संकट लग गया इस संकट का बड़ा विस्तार है, पर थोड़ासा जान लीजिए कि 16 प्रकार के कषायों में यह जीव पड़ा हुआ है और 9 कषाय होती हैं। हंसने की अंतर में गुदगुदी बनी रहे, इष्ट विषय से प्रीति रहे, अनिष्ट विषय से अप्रीति रहे, शोक, भय, पर से घृणा करने का भाव रहे और तीन वेदों का वर्णन तो पहिले आ ही चुका हैं। ये सब कषायें संसार के जीवों को परेशान कर रही हैं।
अकषाय अवस्था―कषायरहित जीव 10 वें गुणस्थान के बाद में होता है और प्रभु परमात्मा चाहे शरीरसहित परमात्मा हो, चाहे अशरीर परमात्मा हो, किसी के कषाय नहीं रहती। भगवान् में किसी तरह की इच्छा नहीं जागती। इच्छा जगह तो मलिनता का दोष है। इच्छा अच्छी चीज तो नहीं है। वह तो समस्त जीव का ज्ञाताद्रष्टा रहता हुआ अनंत आनंदरस में लीन रहा करता है। बड़े पुरुष, बड़े आदमी स्वयं कुछ लोगों का काम करके उपकार करें तो उनसे उपकार न होगा, किंतु आदर्शरूप बन रहें तो उनके दर्शन और उनकी निकटता से अनेक लोग उपकार प्राप्त कर लेते हैं। प्रभु परमात्मा विश्व के ज्ञातादृष्टा अनंत आनंदरस में मग्न, अत्यंत शुद्ध, राग, द्वेष, इच्छा, जन्ममरण किसी भी प्रकार का जहां दोष नहीं हैं―ऐसे शुद्ध चिदानंद की जहां पूर्ण व्यक्ति है―ऐसा प्रभु अकषाय होता है। यह ध्यान भी इस शुद्ध आत्मतत्त्व में नहीं है।
ज्ञानस्वरूप में सर्वकषायमार्गस्थानों का अभाव―भैया ! शुद्ध जीवास्तिकाय में कषाय के स्थान तो हैं ही नहीं, मगर कषायरहितपना इस तरह की बात भी इस ब्रह्मस्वरूप में विदित नहीं होती है, वह आपेक्षिक कथन है। किसी पुरुष से कहा जाए कि तुम्हारा बाप तो कैद से मुक्त है तो वह भला नहीं मानेगा, बुरा मानेगा। अरे बुरा क्यों मानते हो। मुक्त की ही तो बात कही है। तुम्हारे पिता जेलखाने से मुक्त हो गये हैं, इसमें यह बात छिपी हुई है कि यह पहिले कैद में पड़ा था। इसी तरह इस ब्रह्मस्वरूप में यह बात लेना कि यह कषायमुक्त है, कषायरहित है। यहाँ क्या स्वरूप का अप नहीं हैं। हम तो शुद्ध ज्ञानानंदमात्र हैं। यद्यपि कषायरहित है भगवान् पर भगवान् को यों कहा जाए कि ये कषायरहित हैं तो उसमें यह बात पड़ी हुई है कि इनके कषाय थी, वह अपराध था, वे संसार में रुलते थे, तब तो स्वरूप नहीं जाना गया। यह तो एक विशेषता बताई गयी है। यह जो भी शुद्ध स्वरूप है, उस रूप में तके गये इस ब्रह्म में कषाय और यह अकषाय सकल कषाय मार्गणा स्थान नहीं है। वह तो एक प्रकार से केवल ज्ञानस्वरूप है।
अंतस्तत्त्व के ज्ञानमार्गणास्थानों का अभाव―इसी प्रकार से इस आत्मतत्त्व में ज्ञानमार्गणा के भी स्थान नहीं है। अब देखिये कैसी सहजस्वभाव में दृष्टि मग्न की जा रही है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान और तीन कुज्ञान―ये 8 प्रकार के ज्ञान के स्थान इस शुद्ध जीवास्तिकाय में नहीं हैं। केवल ज्ञानस्वभावमात्र से लक्षण किया जा रहा है इस जीव का। उस ज्ञानस्वभावरूप के देखने पर कोई परिणमन की दृष्टि नहीं रहती। केवलज्ञान यद्यपि समस्त विश्व को जानने वाले ज्ञान का परिपूर्ण परिणमन है सर्वज्ञता, किंतु जब जीव का लक्षण तका जा रहा है, सहजस्वभाव निरखा जा रहा है और सहजस्वभावमय ही यह मैं आत्मतत्त्व हूं―ऐसा जहां निर्णय हुआ है, वहाँ अशुद्ध परिणमन तो प्रतिष्ठा पाते ही नहीं हैं, पर शुद्ध परिणमन भी उसमें जमे हुए नहीं हैं। यदि शुद्ध परिणमन जीव का स्वभाव होता तो अनादिकाल से यह शुद्ध परिणमन होना ही चाहिए था। किसी भी प्रकार के ज्ञान के तरंगों रूप व व्यक्तियों रूप स्थान इस आत्मतत्त्व के नहीं हैं।
अंतस्तत्त्व में संयममार्गणास्थानों का अभाव―भैया ! इसे आत्मतत्त्व कहो, अंतस्तत्त्व कहो, शुद्ध जीवास्तिकाय कहो अथवा ब्रह्म कहो, सभी तो एकार्थक शब्द हैं। इस जीव में, इस अंतस्तत्त्व में संयममार्गणा के भी स्थान नहीं हैं। संयम 5 प्रकार के होते हैं―सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय व यथाख्यात चारित्र।
सामायिक, छेदोपस्थापना संयम―समतापरिणाम में रहना, रागद्वेष की तरंगों में न आना सामायिक नाम का संयम है। यह संयम उत्कृष्ट योगीसंतों के प्रकट होता है। वे साधु पुरुष उत्कृष्ट इस सामायिक संयम में लगकर भी कदाचित इसी मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में आते हैं उपदेश देते हैं या जीव के प्रति सद्भावना बनाते हैं अथवा शरीर से जीव रक्षा करते हैं या अनेक चर्चायें करते हैं―ऐसी स्थिति में वे सामायिक से डिग गए, रागद्वेष से रहित समतापरिणाम से गिर गए, दोष हो गया, ऐसी प्रमाद अवस्था में अथवा उपकार अवस्था में, विकल्प अवस्था में आने के बाद फिर उन विकल्पों को तोड़कर उस सामायिक में ही लगने का यत्न करना आदि जो अंत: पुरुषार्थ है, उसका नाम है छेदोपस्थापना। यह भी सब कुछ साधुसंतों के होता है।
परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसांपराय व यथाख्यातचारित्र―परिहारविशुद्धसंयम के प्रताप से शरीर में हल्कापन आ जाता है अथवा ऐसा अतिशय प्रकट हो जाता है कि देखभाल से यद्यपि वे संत चलते हैं, फिर भी किसी जीव पर पैर पड़ जाए तो उस जीव को रंच भी बाधा नहीं होती है। सामायिक व छेदोपस्थापना संयमों में रहकर जब यक जीव कषायों को दूर कर देता है, मात्र एक सूक्ष्मलोभ की अव्यक्त तरंग रहती है, उस सूक्ष्म तृष्णा की तरंग को दूर करने के लिए जो अंत:पुरुषार्थ चलता है, उसे सूक्ष्मसांपराय संयम कहते हैं। ये कषायें भी जब समाप्त होती हैं तो यथाख्यात चारित्र हो जाता है। जैसा इस आत्मा का सहजस्वभाव है, वैसा ही प्रकट हो जाता है।
राग की प्रबलता―इन कषायभावों में सबसे प्रबल कषाय है राग। द्वेष तो किसी वस्तु के राग के कारण आया करता है। जिस पदार्थ में राग है उस पदार्थ में विघ्न हो जाय मिलने का तो जिसका निमित्त पाकर विघ्न हुआ है उस पर द्वेष जग जाता है। उस द्वेष की जड़ राग है। द्वेष मिटाना सरल है पर राग मिटाना सरल नहीं है। सब लोग अंदाज किए जा रहे हैं। किसी से झगड़ा न करें, पड़ौसियों से द्वेष न करें, यह बात तो बन जायेगी और कुटुंब से राग न करें, यह बात तो न बनेगी कठिनाई पड़ती हैं। अच्छा कुटुंब का भी राग छोड़ दिया, घर छोड़ दिया, जंगल में रहने लगे या साधु सत्संग में रहने लगे, पर वहाँ भी सम्मान अपमान का ख्याल रह सकता है। यह मैं हूं, यह मेरी पोजीशन है, यह राग चल सकता है और राग भी यह मिटे तो मिटते-मिटते अंत में भी कोई अपने परिणमन से संबंधित कुछ राग रह जाता है।
राग आग के बुझाने का उपाय―यह राग आग है, इस राग आग ने इन समस्त संसारी जीवों को झुलसा रखा है। इस रागरूपी आग की ज्वाला से बचाने में समर्थ हैं तो सम्यग्ज्ञान के मेघ समर्थ हैं। सम्यग्ज्ञान के मेघ की वर्षा हो तो यह राग आग शांत हो सकती है। उनमें लगी हुई आग को घड़ों से पानी भर-भर कर बुझायें तो आग नहीं बुझ सकती है और घड़ों की तो बात क्या कहें, ये म्यूनिस्पिल्टी के फायर विभाग की मोटरें भी चली जायें तो भी नहीं बुझ सकती। वन में लगी हुई आग को बुझाने में मेघ समर्थ हैं। पानी बरस जाय तो वह आग बुझ जायेगी। इसी तरह इस राग की आग को बुझाने के लिए अथवा राग आग की जो जलन उठी है इस जलन को कम करने के लिए न तो मित्र लोग समर्थ है न अन्य कोई उपाय समर्थ है। एक सम्यग्ज्ञान की झलक हो, यहाँ तो मैं पूरा का पूरा ज्ञानस्वरूप मात्र सुरक्षित हूं, उसकी झलक आए तो यह राग आग बुझ सकती है। ज्ञानमेघ ही राग आग को बुझाने में समर्थ हैं।
ज्ञानस्वरूप में सर्वसंयममार्गण स्थानों का अभाव―ज्ञान में भला ज्ञान वही है जो ज्ञान-ज्ञान के स्वभाव का ज्ञान करता हो, उससे उत्कृष्ट ज्ञान अय कुछ नहीं है। उस ज्ञानस्वरूप की दृष्टि से परखे हुए इस जीव को बताया जा रहा है कि इसमें ये कोई मार्गणा स्थान भी नहीं है। हाँ तो ये हुए संयममार्गणा में संयम के भेद। यथाख्यात चारित्र आत्मा का शुद्ध व्यंजन परिणमन है। ऐसा भी शुद्ध परिणमन उस जीवस्वरूप में नहीं है। वह तो ज्ञानानंद स्वभावमात्र है। जिसे अपरिणामी हो, ध्रुव कहो और व्यापक कहो। व्यापक कहना भी उस स्वरूप की महिमा घटाना है। व्यापक कहने से तो यह बात बनी कि यह फैला, बहुत दूर तक फैला। व्यापकपने की भी सीमा बनी। जहां तक सज् है वहाँ तक यह फला, पर वहाँ इस सीमा को भी नहीं देखा जा सकता। व्यापक और अव्यापक के विकल्प से परे है यह शुद्ध आत्मस्वरूप। इसे कहा जाय कि यह एक है। यह भी आत्मस्वरूप की महिमा घटाने वाला वचन है। एक है, इस प्रकार का विकल्प तरंग भी तब रहता है जब आत्मा ज्ञानानुभूति में नहीं है और शुद्ध आत्मस्वरूप का परिचय उसको नहीं है।
ज्ञानानुभूति में आत्मदर्शन―आत्मा का दर्शन वहाँ ही है भैया ! जहां ज्ञानानुभूति चल रही हो। किसी ने कहा देखिए जरा यह दशहरी आम कैसा है? तो वह क्या करेगा? हाथ में लेगा और खा लेगा। अरे यह क्या कर रहे हो? अरे तुम्हीं तो कहते हो कि देखो। तो देखने को ही तो कहा, खाने को तो नहीं कहा। अरे तो आत का देखना मुंह से ही हुआ करता है, आंखों से नहीं होता है। किसी चीज के परिचय का क्या तरीके हैं वे सब तरीके न्यारे-न्यारे हैं। जो चीज केवल देखने के लिए है उसका भोग नेत्र से है। कोई कहे कि देखो जी यह कितना बढ़िया सेन्ट है, तो क्या वह बाहर खड़े-खड़े तकता रहे कि वह है सेन्ट? अरे सेन्ट का देखना नाक से हुआ करता है अन्यथा परिचय ही नहीं हो सकता। किसी से कहा देखो जी यह रिकार्ड कितना सुंदर है? तो बस देखता ही रहे अगल-बगल तो क्या उसे उस रिकार्ड का पता पड़ेगा कि कैसा है? नहीं पड़ सकता। उसके शब्द जब कान में पड़ेंगे तब पता पड़ेगा। देखो जी यह आत्मस्वरूप कैसा है? अरे अभी नहीं देख पाया। एक है यह―ऐसी विकल्प तरंग भी जब तक उठ रही है तब तक नहीं देखा जा रहा है। यह आत्मस्वरूप मन के विकल्प से नहीं निरखा जाता है। यह तो मन का विकल्प है कि वह एक है, व्यापक है, अपरिणामी है, ध्रुव है। इन सब विकल्पों से परे है।
आत्मतत्त्व की खंडज्ञानागोचरता―यह आत्मतत्त्व इन सब विकल्पों से परे है तब फिर और है क्या यह? उसके बताने को शब्द नहीं है। जैसे मिठाई मीठी है उसको स्पष्ट बताने के शब्द नहीं हुआ करते हैं। उसे तो मुख में डालो और समझ जावो कि कैसी है मिठाई? इस ही प्रकार आत्मा को समझाने वाले, दिखाने वाले कोई शब्द नहीं होते हैं, उसे तो ज्ञानद्वार से जानते हुए समझ जावो कि मैं कैसा हूं? मिठाई खाये हुए पुरुष की मिठाई के खाने का वर्णन सुनाया जा यतो उसकी समझ में आता है, अपरिचित को सुनावो तो उसकी समझ में नहीं आता है। ऐसे ही जो शास्त्रों में आत्मा के शब्द हैं वे हम आपकी समझ में आ रहे हैं। ऐसे उस शुद्ध अंतस्तत्त्व संयममार्गणा के स्थान भी नहीं हैं।
अंतस्तत्त्व की संयममार्गणा स्थानों से विविक्तता―संयममार्गणा में संयम के अलावा, असंयम, संयमासंयम व तीनों से रहित भी लेना। क्योंकि खोज है ना तो खोज में विपरीत बात भी कही जाती है, तो संयममार्गणा में संयम लेना और संयमासंयम लेना तथा जहां व्रत नहीं है, व्रत का परिणाम ही नहीं है वह है असंयम। यह भी संयममार्गणा के भेदस्थान में है। जैसे मनमाना खाना, फिरना, उद्योग करना, यहाँ कुछ भी संयम नहीं है। मध्य की अवस्था संयमासंयम है सो ये 7 हुए, किंतु प्रभु को क्या बताएं? क्या प्रभु संयम पालता है? नहीं। तो क्या असंयम में रहता है? नहीं। तो क्या संयमासंयम में है। नहीं। वह स्वच्छ ज्ञानानंद स्वभाव का अनुभवन करने वाला सर्वपदार्थों से बाहर है। ऐसी बाहर वाली स्थिति भी इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप में नहीं है, फिर अन्य संयम और असंयम की तो चर्चा ही क्या करें? ऐसे निर्लेप आकाशवत् अमूर्त इस अंतस्तत्त्व में संयममार्गणा का स्थान नहीं है।
आत्मतत्त्व में दर्शनमार्गणास्थानों का अभाव―इसी प्रकार इस शुद्ध जीवास्तिकाय में दर्शनमार्गणा का स्थान नहीं है। दर्शन कहते हैं जानने की शक्ति को प्रबल बनाने को। आंखों से देखने का नाम दर्शन नहीं है। आंखों से जो समझ में आता है वह सब ज्ञान है। जैसे कान द्वारा ज्ञान, नाक द्वारा भी ज्ञान, रसना द्वारा भी ज्ञान, छूकर भी ज्ञान, इसी तरह आंखों द्वारा भी ज्ञान हुआ करता है। इसका नाम दर्शन नहीं है। इंद्रिय द्वारा जो ज्ञान होता है, नया ज्ञान होता है, उस नये ज्ञान के होने से पहिले जो एक आत्मस्वरूप होता है जिससे नये ज्ञान के उत्पन्न करने की शक्ति प्रबल है, उस आत्मस्पर्श को कहते है दर्शन।
अंतस्तत्त्व की दर्शनभेद से विविक्तता―प्रभु में दर्शन और ज्ञान एक होती साथ है, क्योंकि वहाँ अनंत शक्तियां मौजूद है। जहां अनंत शक्ति प्रकट नहीं है ऐसे जीव में पहिले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है, फिर उस ज्ञान के बाद जब नया ज्ञान होगा, तब फिर दर्शन होगा, फिर नया ज्ञान होगा। तो ऐसा आत्मप्रकाशक, आत्मप्रतिभासमात्र दर्शन है, दर्शन के उपचार के अनेक स्थान है, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, केवलदर्शन। केवलदर्शन प्रभु के होता है। संसारी जीवों के यथा योग्य दर्शन होता है। इस शुद्ध सहज स्वभावमय आत्मब्रह्म में दर्शनमार्गणा के भी कोई स्थान नहीं है।
ज्ञानस्वरूपभावना―इस प्रकार इस मार्गणास्थान के निषेध के प्रकरण में निषेध के उपाय द्वारा जीवतत्त्व का वर्णन किया जा रहा है और शुद्धभाव को बताया जा रहा है कि यह मैं शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हूं। किसी का ताऊ, किसी का बाबा, किसी का बहनोई, किसी का साला ये तो बहुत दूर की बातें हैं। जब मैं मनुष्य भी नहीं हूं तो उनकी तो कहानी ही क्या है? मैं तो शुद्ध ज्ञानस्वरूप हूं।
लेश्यामार्गणा―अब जीव के अंतरंग परिणामों की पहिचान लेश्यामार्गणा द्वारा करायी जाती है। कषाय से अनुरंजित प्रदेश परिस्पंदवृत्ति को लेश्या कहते हैं। ये लेश्याएं 6 प्रकार की हैं―कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्या। इनके नाम ऐसे रंगों पर रखे गए हैं जिन रंगों से यह शीघ्र विदित हो जाता है, कि इनका परिणाम अधिक खोटा है, इनका परिणाम खोटा कम है, इनका और कम है, इनका भला है। काला, नीला, चितकबरा, पीला, पद्म और सफेद इन रंगों के नाम से ही यह जाहिर हो जाता है कि सबसे खोटा परिणाम कृष्ण लेश्या में है और उत्तरोत्तर खोटा कम रह जाता है। पीत लेश्या एक विशुद्ध परिणाम है और उसके बाद उत्तरोत्तर विशुद्धि बढ़ती जाती है। इसी कारण पहिली तीन लेश्यावों को अशुभ लेश्या कहते हैं और अंत की तीन लेश्यावों को शुभ लेश्या कहते हैं।
दृष्टांतपूर्वक लेश्यापरिणामों की तीव्रता व मंदता का निरूपण―जिस जीव के कृष्णलेश्या होती है उसका अत्यंत दुष्ट परिणाम होता है आगे-आगे कम क्रूर हो जाता है। शुभ में उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम होता है। इन 6 लेश्यावों के परिणाम बनाने के लिए एक वृक्ष चित्र बताया है। 6 आदमी किसी गांव को जा रहे थे। रास्ते में एक फला हुआ आम का पेड़ मिला, जैसे आजकल फले हुए पके हुए होते हैं। भूख सबको लगी थी। सोचा कि 10-15 मिनट जरा यहाँ आमों से जरा पेट भर लें फिर चलेंगे। उनमें से एक पुरुष के मन में यह आया कि इस पेड़ को जड़ से काट कर उखाड़ लें, सारा पेड़ गिर जायेगा, फिर मनमाना खूब आम खायेंगे। एक के मन में आया की जड़ से काटकर क्यों फैंको, जहां से शाखाएं हैं उसके ऊपर से काट लें तो शाखायें गिर जायेंगी। फिर खूब मनमाना फल खायेंगे। दूसरे के मन में आया कि सारी शाखायें गिराने से क्या फायदा है। कोई एक शाखा गिरा लें उससे ही पेट भर जायेगा। चौथे के मन में आया कि बड़ी शाखायें क्यों गिरायें? छोटी टहनी ही तोड़ ले फिर खूब खाएं। पांचवें के मन में आया कि टहनियां ही क्यों तोड़े ऊपर चढ़कर जो पके-पके आम होंगे उन्हें तोड़कर खा लेंगे। छठे के मन में आया कि नीचे ही तो इतने बढ़िया सरस आम पड़े हुए हैं, क्यों पेड़ पर चढ़े? इन्हें ही खाकर पेट भरें। तो जैसे उन 6 आदमियों के आशय में क्रूरता और विशुद्धता थी, इसी प्रकार चढ़ाव और उतार के साथ इन 6 प्रकार की लेश्यावों के परिणाम होते हैं।
कृष्णलेश्या के चिह्न―जिस जीव के कृष्ण लेश्या होती है वह अत्यंत प्रचंड क्रोधी होता है, यह उसकी पहिचान है। मनुष्य हो अथवा अन्य कोई हो। जिसके ऐसा परिणाम हो उसके कृष्णलेश्या है। यह कृष्णलेश्या वाला जीव बैर जीवन में नहीं छोड़ता है, और कितने ही तो मरकर भी दूसरे भव में बदला लेते है। तो बैर न छोड़ने का परिणाम कृष्णलेश्या में होता है। यह जीव इतना मनचला उद्दंड होता है कि इसके वचन कभी प्रिय निकलते ही नहीं हैं। मंडनशील वचन निकलते हैं, खोटी गाली गलौज देकर निकलते हैं। इसके हृदय में न धर्म का परिणाम है, न दया का परिणाम है। जितने हिंसा कर्म करने वाले हैं और जीवों को व्यर्थ ही सताने वाले हैं उनके मन में दया भाव कहां है? कृष्णलेश्या का ऐसा ही तो परिणमन होता है। वह अत्यंत दुष्ट होता है, उससे किसी की भलाई नहीं होती है। किसी कारण वह कुछ रूपक भी नेतागिरी का, धर्मात्मा बनने का, बड़ा परोपकार जाहिर करने का नाटक रचे तब भी उसका जीवन कभी न कभी अतिनिकट में दूसरों का अनर्थकारी ही होगा। यह मौका पाकर धोखा देने से नहीं चूकता। ऐसा अत्यंत क्रूर परिणाम कृष्णलेश्या का होता है।
नीललेश्या के चिह्न―नील लेश्या में कुछ तो कृष्णलेश्या से कम हुआ। पर यह भी अशुभ लेश्या है। यह नीललेश्या वाला जीव ज्ञानहीन होता है, बुद्धि प्रतिभा नहीं होती है। प्रत्येक कार्य में, उपकार में मंद रहता है, विषयों का लोलुपी होता है। उसे खाने से मतलब है दूसरों की परवाह नहीं। अपने आराम से मतलब दूसरे का कुछ हो अपना ही अपना तकता है, ऐसा खुदगर्ज हैं नीललेश्या के परिणाम वाला जीव। अहंकार और मायाचार भी इसमें तीव्र बसा रहता है। आलसी होता है, दूसरों को ठगने में चतुर दूसरों की निंदा करने की प्रकृति रहती है। धन धान्य वैभव संपदा के जोड़ने में उसको रुचि लगी रहती है, ऐसा परिणाम नीललेश्या में होता है।
कापोतलेश्या के चिह्न―तीसरी है कापोतलेश्या। यह भी अशुभ है किंतु नीललेश्या से कुछ कम क्रूरता है, पर है क्रूर ही आशय। कापोत पीला( नीला नहीं है, कुछ काला, नीला, चितकबरा रंग रहता है। ऐसे कापोत की तरह चितकबरा क्रूर नाना प्रकार के परिणामों वाला कापोत लेश्या का जीव होता है। यह रूठ जाता है, दूसरों की निंदा करता है, दूसरों के दूषण गिनता है। शोक और भय आदि करने की उसकी प्रकृति रहती है। दूसरों की ईर्ष्या करता है। कोई मुझसे बढ़ा चढ़ा न हो जाय, ऐसा उनका परिणाम रहता है। धन में, प्रतिष्ठा में, अधिकार में, विद्या में कोई मुझसे बड़ा न हो, जो बढ़ता हो उससे ईर्ष्याभाव रखे और इतना ही नहीं, दूसरों के अपमान का यत्न करता है, अपनी प्रशंसा करता रहता है। कोई सुने या न सुने पर मैं ऐसा हूं, मैं ऐसा हूं, मेरे बाप ऐसे थे, मेरे पर बाबा ने यह किया। मैं-मैं, मेरा-मेरा ही सदा जाहिर किया करता है, दूसरों की ईर्ष्या करे इतना ही नहीं है किंतु अपनी प्रशंसा भी अपने ही मुख से किया करता है। ऐसी ही कापोतलेश्या के परिणाम वाले जीव की दशाएं हैं। किसी दूसरे का विश्वास नहीं करता। किसी के मामले में, व्यवहार में, धरोहर में, किसी भी वायदे में अथवा यह मेरा भला ही भला सोचेगा, ऐसा किसी के प्रति कापोतलेश्या वाले जीव को विश्वास नहीं रहता है।
कापोतलेश्या वाला जीव खुद दूसरों के लिए अविश्वसनीय हैं। किसी को भी मौका पड़ने पर वह दगा देता है, तो ऐसा ही वह दुनिया को देखता है। इस कारण किसी दूसरे पर उसका विश्वास नहीं जमता। यह कापोतलेश्या परिणाम वाला जीव अपनी प्रशंसा स्तुति का अधिक रुचिया होता है तब तो वह अशुभ लेश्या है। यह रण में अपना तक भी चाहता है। मेरा देश में नाम हो जायेगा, मैं शहीद कहलाऊँगा। इस परिणाम से रण में मरण तक की भी चाह करता है। उसकी अगर स्तुति करो तो वह मनमाना धन भी दे देता है। होते हैं कितने ही लोग ऐसे। और बड़ी सभाएं लगायें, जुलूस निकलवायें तो वह लाख दो लाख रुपये दान में दे देता है। तो कापोत लेश्या का ऐसा परिणाम होता है कि गुण दृष्टि बिना मात्र प्रशंसा से खुश होकर मनमाना धन भी दे दिया करते है। क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है ऐसा विवेक अंतर में नहीं रहता, ऐसा ही अशुभ परिणाम कापोतलेश्या वाले जीव के होता है। ये तीन अशुभ लेश्याएं हैं।
पीतलेश्या के चिह्न―अब पीतलेश्या का परिणाम निरखो। यह शुभ लेश्या है। पीतलेश्या वाला जीव यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है इसको भली प्रकार जानता है। जब इस कापोतलेश्या वाले जीव को अपनी कषायों के कारण यह विवेक नहीं रहा कि क्या करना योग्य है क्या न करना योग्य है? जो करने आया सो कर डाला, किंतु यह पीत लेश्या वाला जीव विशुद्ध परिणामों की ओर है। क्या अपने को सेवन करना चाहिए, इसकी पहिचान रखता है, सब जीवों को समानता से निरखता चलता है। कोई ऐसा कार्य नहीं करता, जिसमें व्यक्त पक्ष जाहिर हो, सबको समान भावों से देखता है, दया और दान में इसकी प्रीति होती है। पीतलेश्या वाले का परिणाम बताया जा रहा है। जीवों के प्रति उसे दयाभाव होता है। किसी को भूखा प्यासा या किसी विपत्ति से सताया देखे तो जहां तक शक्ति चलती है, उसका उद्यम रहता है कि इसका क्लेश दूर हो। धन जोड़ने, संचय करने की वृत्ति नहीं होती है। यह दूसरों से इज्जत नहीं चाहता है, वह स्वयं सुखी रहता है, दूसरों को भी सुखी रखने की सोचता है। यह ज्ञानी पुरुष समझता है कि जैसे कुवे से यह पानी आता है और कितना ही पानी निकलता है, फिर भी कम नहीं होता है, इसी प्रकार इस चंचला लक्ष्मी की बात है। काम में लिया जाए, दूसरों के उपकार में लगाया जाए तो उससे वैभव की कमी नहीं आती। भले परिणाम से बांधे हुए पुण्य के उदय में यह वैभव मिला है तो इस वैभव को उपकार में भले कार्यों में लगाओ तो वैभव घटेगा नहीं। भले ही किसी के पूर्वकृत तीव्र पापों का उदय आया हो कि घट भी जाए यह सब वैभव, मगर ये सब शुभ परिणाम और दया तथा दान समस्त वैभव को घटाने के कारणभूत नहीं हैं, ऐसा दया और दान का जिसका स्वभाव पड़ा हुआ हो, वह पीतलेश्या वाला ज्ञानी होता है।
पद्मलेश्या के चिह्न―5 वीं लेश्या हैं पद्मलेश्या। पद्म कहते हैं कमल को। जैसे कमल में सैकड़ों पत्ते होते हैं―ऐसा कोई विशिष्ट जाति का कमल देखा होगा, उसका रंग पूर्ण सफेद तो नहीं होता, पूरा पीला भी तो नहीं होता, किंतु ऐसा होता है कि मानों अब जरासी देर में यह पूरा ही सफेद हो जाने वाला है। इस तरह की विचित्र सफेदी को लिए हुए पद्म होता है। ऐसे ही रंग से उपमा दी गई है पद्मलेश्या वाले जीव की। पद्मलेश्या वाला जीव त्यागवृत्ति वाला होता है कल्याणस्वरूप भद्र। किसी को छल व धोखा उससे पहुंच ही नहीं सकता। वह अपने कर्मों में सावधान रहता है। साधु और गुरुजनों के बीच में सत्संग में लवलीन बहुत विशुद्धि की ओर बढ़ने वाला यह पद्मलेश्या वाला जीव होता है।
शुक्ललेश्या के चिह्न―अंतिम लेश्या है अत्यंत विशुद्ध परिणाम वाली शुक्ललेश्या। इसके चित्त में कोई पक्ष नहीं होता है, यह भोग की भी आकांक्षाएँ नहीं करता, निदान बंध इसके नहीं है। सब जीवों में इसका समान परिणाम है। रागद्वेष, स्नेह सब शुक्ललेश्या वाले जीव के नहीं होते हैं। इन 6 लेश्याओं से संसार के जीव दबे हुए हैं।
लेश्यामार्गणास्थानों के अधिकारी―नारकी जीवों में पहिली 3 खोटी लेश्याएं होती हैं। देवों में अंत की तीन शुभ लेश्याएं होती हैं। कदाचित् जो खोटे देव हैं―यक्ष राक्षस आदिक, भवन व्यंतर, ज्योतिषी आदि के अपर्याप्त अवस्था में अशुभ लेश्या भी हो सकती है। तिर्यंचों में 6 प्रकार की लेश्या होती है, किंतु एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय तथा असंज्ञीपंचेंद्रिय के जीवों के तीन अशुभ लेश्याएं ही हो सकती हैं। मनुष्य के छहों लेश्याएं हैं। इसके अतिरिक्त कोई जीव ऐसे भी हैं, जिनके छहों लेश्याएं नहीं हैं, वे हैं भगवान्।
शुद्ध जीवास्तिकाय में लेश्यामार्गणास्थानों का अभाव―भैया ! लेश्या परिणाम का होना अथवा लेश्या परिणाम का न होना आदि प्रकार के भेदरूप जो लेश्यामार्गणा के स्थान हैं―ये स्थान इस ब्रह्मस्वरूप में नहीं होते। अपने आपके सहजसत्त्व के कारण जो स्वभाव बना हुआ है, वह स्वभावलेश्याओं के विकल्प से परे है। वह तो शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावमात्र है। लेश्यामार्गणा स्थान इस शुद्ध जीवास्तिकाय में नहीं होते।
भव्यत्वमार्गणा के भेद―अब अगली खोज चल रही है भव्यत्वमार्गणा द्वार से। कोई जीव भव्य होता है, कोई अभव्य होता है और कोई न भव्य होता है, न अभव्य होता है, दोनों विकल्पों से परे है। भव्य उन्हें कहते हैं, जिनका भविष्य बहुत उत्कृष्ट होने को है अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्ररूप परिणाम जिसका हो सकता है―ऐसी शक्ति है। हो न हो, पर यह नियम है कि व्यक्त होने की जिनमें योग्यता है, उन्हें तो कहते हैं भव्य जीव। जिनमें रत्नत्रय का परिणमन व्यक्त होने की योग्यता ही नहीं है, उन्हें कहते हैं अभव्य जीव। पर सिद्धभगवान् न भव्य हैं और न अभव्य हैं। जैसे 10 क्लास पास हुए बच्चे को कोई यह कहे कि इसमें 8 वीं, 9 वीं, 10 वीं कक्षा की योग्यता है तो वह कहना व्यर्थ है, क्योंकि वह तो उत्तीर्ण हो चुका है। जिसका मोक्ष हो गया है, रत्नत्रय का चरमविकास हो गया है, उसके संबंध में यह ऐसा हो सकता है, यह कहना ठीक नहीं बैठता।
भव्यत्वमार्गणास्थानों का विवरण व उनका जीवस्वरूप में अभाव:―भव्य जीव भी दो प्रकार के होते हैं―एक ऐसे जो कभी भी मोक्ष में नहीं जा सकेंगे, फिर भी भव्य कहलाते हैं। उनमें रत्नत्रय के व्यक्त होने की योग्यता ही नहीं हैं और जो निकट में जायेंगे, वे तो हैं ही भव्य। अभव्य वे कहलाते हैं, जिनमें रत्नत्रय प्रकअ होने की योग्यता ही नहीं है। इस प्रकार से इस संसारी जीव को तीन शक्लों में देखो―दूरातिदूरभव्य, निकटभव्य और अभव्य। जैसे बंध्या स्त्री होती है तो उसके पुत्र होने की योग्यता ही नहीं है। यों समझ लीजिए कि अभव्य को, जिसमें रत्नत्रय की योग्यता ही नहीं है। हालांकि बंध्या स्त्री में ऐसी बात नहीं है कि पुत्र होने की योग्यता नहीं है अन्यथा वह स्त्री स्त्री ही न कहलायेगी, पर उसमें पुत्र प्रकट होने की योग्यता नहीं है और एक सुशील, विधवा महिला में पुत्रत्व की योग्यता है, किंतु वह सुशील है, ब्रह्मचारिणी है, उसके पुत्र होगा ही नहीं। योग्यता तो अवश्य है; और एक साधारण महिला जिसके पुत्र होंगे। जैसे एक मूंग होती है कि उसे पानी में घंटों भिगोय रहो, पर वह पत्थर जैसी ही रहती है। यह भी आंखों देखी बात है। इसी प्रकार अभव्य जीव हैं कि कितना ही समागम मिले, कितने ही उसके साधन जुटें, फिर भी वह सीझता नहीं है। सीझने का ही नाम सिद्ध है। यह खिचड़ी सिद्ध हो गई, चावल सिद्ध हो गए अर्थात् पक गए, यों ही आत्मा सिद्ध हो गया अर्थात् पक गया, चरमविकास को प्राप्त हो गया। ऐसे ये भव्यमार्गणा के स्थान हैं। इस तरह जीवों की मार्गणाएं पहिचानी जाती हैं, किंतु ये स्वयं आत्मस्वरूप नहीं है। आत्मा तो ज्ञानानंदघन सहज चैतन्य ज्योतिस्वरूप है।
सम्यक्त्वमार्गणा के भेदस्थानों का जीवस्वभाव में अभाव―इसके बाद सम्यक्त्वमार्गणा द्वारा जीवों की खोज चल रही है। सम्यक्त्व कहते हैं सम्यग्दर्शन होने को। आत्मा का जैसा सहजस्वभाव है, ज्ञानानंदमात्र अक्षुब्ध निराकुल अनंतआनंदरसकरि परिपूर्ण जो आत्मस्वभाव है, उस आत्मस्वभाव का परिचय होना, अनुभवन होना, रस आ जाना आदि सब कहलाता है सम्यग्दर्शन। यह सम्यग्दर्शन उत्पत्ति के निमित्त के भेद से तीन प्रकार का है―क्षायकसम्यक्त्व, औपशमिकसम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। जहां सम्यक्त्व रंच नहीं है, उसे कहते हैं मिथ्यात्व। जहां सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की मिश्रित दशा है उसे कहते हैं सम्यक्मिथ्यात्व। मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व मिट जाने पर भी थोड़ी जो भी कसर रह जाती है, जिससे सम्यक्त्व नहीं बिगड़ता है, नष्ट नहीं होता है, मगर उसमें कुछ सूक्ष्म दोष रहते हैं। ऐसी दशा को कहते हैं सम्यक्प्रकृति के विपाक वाली दशा। यों वह सम्यक् प्रकृति वाली दशा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में शामिल हो जाती है। छठवीं दशा एक ऐसी है कि सम्यक्त्व तो छूट गया और मिथ्यात्व में न आ पाया इसका नाम है सासादनसम्यक्त्व। सम्यक्त्वमार्गणा से ये 6 भावस्थान जुड़े रहते हैं―क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सासादन। ये 6 प्रकार के स्थान हैं। इनमें कुछ भले हैं, कुछ बुरे हैं फिर भी हैं जीव की दशाएं। ये छहों प्रकार के सम्यक्त्व मार्गणास्थान इस शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में नहीं हैं। ये तो चैतन्यस्वभाव रूप हैं।
शुद्ध जीवास्तिकाय में संज्ञित्वमार्गणास्थानों का अभाव―एक खोज है संज्ञित्वमार्गणा की। कोई जीव संज्ञी है, कोई असंज्ञी है और कोई ऐसे है कि न संज्ञी कहलाते हैं और न असंज्ञी कहलाते हैं। संज्ञी जीव उन्हें कहते हैं जिनके मन हो। संज्ञी जीव नियम से पंचेंद्रिय ही होते हैं। चार इंद्रिय या और कम इंद्रिय वाले जीवों में मन नहीं पाया जाता है। जिसके मन हो उसे संज्ञी कहते हैं। मन का अर्थ है जिस शक्ति के द्वारा यह हित और अहित का निर्णय कर सके, हित की शिक्षा ग्रहण कर सके, अहित की बात छोड़ सके―ऐसा जहां विवेक पाया जाय उसे कहते हैं मन। पंचेंद्रिय लेकर चारइंद्रिय तक के जीव सभी असंज्ञी होते हैं और पंचेंद्रिय में से कोई तिर्यंच पंचेंद्रिय बिरले ही असंज्ञी हो सकते हैं। शेष सब तिर्यंच, समस्त मनुष्य और सभी देव ये संज्ञी जीव होते हैं, किंतु भगवान् चाहे वह सशरीर परमात्मा हो अथवा अशरीर परमात्मा हो उन्हें न संज्ञी कहा, न असंज्ञी कहा। वे संज्ञी तो यों नहीं है कि उनके केवलज्ञान है, अब मन से कार्य नहीं होता। असंज्ञी यों नहीं कि वे अविवेकी नहीं। ये तीनों प्रकार के मार्गणास्थान इस शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में नहीं हैं। ऐसे इस शुद्ध भाव के अधिकार में जीव के शुद्ध स्वरूप की पहिचान करायी जा रही है।
आहारकमार्गणा―मार्गणावों में अंतिम मार्गणा है आहारकमार्गणा आहारक का अर्थ है आहार करने वाला, पर भोजन का आहर करने वाला नहीं, किंतु शरीरवर्गणा का आहार करने वाला। कोई उपवास करे तो लोग समझते हैं कि यह इस समय अनाहारक है, आहार नहीं करता है। पर अनाहारक, तो मरने के बाद जन्म स्थान पर नहीं पहुंचता उस बीच रास्ते में होता है। इस समय चारों ओर से आहार ही आहार किए जा रहे हैं। पैर से आहार कर रहे हैं, पेट, पीठ, हाथ सब ओर से शरीरवर्गणा, आती है। यह शरीरवर्गणा का आहारक है। आहार के आहारवर्गणा को ग्रहण करने वाले का नाम है और जो आहारवर्गणा का ग्रहण नहीं कर रहा है उसका नाम अनाहारक है। मरण के पश्चात् जो जीव सीधी दिशा में सीधी पंक्ति में जन्मस्थान पर पहुंचता है, तो वह अनाहारक नहीं होता है। किंतु मोड़ लेकर जाना पड़े, इस तरह विग्रहगति होती है तो वहाँ अनाहारक होता है। प्रतरलोकपूरणसमुद्घात में भी जीव अनाहारक होता है।
गगनश्रेणियां और विग्रहगति के मोड़―इस आकार में ऊपर से नीचे, पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण प्रदेशप्रमाण मोटी पंक्तियां हैं, श्रेणियाँ हैं। जैसे जिस पर नक्शा बनाया जाता है ऐसा कोई मोटा कार्ड आता है तो उसमें बारीक-बारीक ऊपर से नीचे, अगल से बगल ठीक सीध में लकीरें रहा करती हैं। इस आकाश में स्वभावत: ऐसी श्रेणियाँ हैं। कोई जीव पूरब से मरकर उत्तर में उत्पन्न होता है तो सीधा विदिशा में न जायेगा। पहिले वह उत्तर की सीध तक पश्चिम की ओर जायेगा, फिर मुड़कर उत्तर में जायेगा। तो वहाँ उसे एक मोड़ लग जाता है ऐसे-ऐसे इस जगत् में तीन मोड़ ही हो सकते हैं।
शुद्धजीवास्तिकाय के आहारकत्व व अनाहाराकत्व के स्थानों का अभाव―मो सहित गमन करने वाले जीव की अनाहारक अवस्था होती है। वहाँ उन वर्गणावों का ग्रहण नहीं है। पूर्व शरीर का त्याग कर दिया अन्य शरीर के स्थान पर अभी पहुंचा नहीं है ऐसे बीच के पंथ में अनाहारक अवस्था होती है। दूसरी अनाहारक अवस्था होती है केवल समुद्घात में। जब लोकपूरण समुद्घात आता है उस समय उससे पहिले की प्रतर अवस्था में व बाद की प्रतर अवस्था में और बीच के लोकपूरण की स्थिति में अनाहारक होता है। वहाँ भी तीन समय अनाहारक रहता है। बाकी तो सभी संसारी जीव आहारक रहा करते हैं। चौदहवां गुणस्थान ही एक ऐसा गुणस्थान है जिसमें पुरे काल अनाहारक रहता है और सिद्ध भगवान् तो अनंतकाल तक अनाहारक होते हैं। आहारक मार्गणा के ये स्थान भी इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व में नहीं हैं।
इस ग्रंथ का लक्ष्य―इस ग्रंथ में प्रारंभ से लेकर अंत तक केवल एक दृष्टि रखी गयी है जीव के शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की। उसका ही आलंबन मोक्षमार्ग है, उसके ही आलंबन में रत्नत्रय है। उसका ही आलंबन वास्तविक धर्म है। ऐसे उस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को आत्मा माना है। उस आत्मा में ये कोई विकार भाव नहीं हैं, यह सब देखा जा सकेगा शुद्धनिश्चय नय के बल से। केवल आत्मा को आत्मा के सत्त्व के कारण आत्मा का जो शाश्वत स्वभाव है उस स्वभावमात्र आत्मा को आत्मा मानकर फिर समझना कि इस मुझ आत्मा में जीवस्थान, मार्गणास्थान, क्षायिकभावस्थान, अन्यभावस्थान आदिक कुछ नहीं हैं। ऐसे समस्त परभावों से परे औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक भाव से परे इस परमार्थभूत ज्ञायकस्वभावी जीव में ये कोई अनात्मतत्त्व नहीं हैं।
अमोघ शरण―हे भव्य जीव ! एक इस चैतन्यशक्ति के अतिरिक्त समस्त परभावों को छोड़कर चैतन्य शक्तिमात्र प्रतिभासस्वरूप इस आत्मतत्त्व को ही स्पष्ट रूपे से ग्रहण करो। यह उपयोग कहां रमाया जाय कि इसे शरण प्राप्त हों, इस खोज में छान तो डालिए दुनियाँ, क्या उत्तर मिलता है? परिजन के संग से क्या इसे शांति मिलती है? यदि कोई परिवार का सदस्य मन के बहुत अनुकूल चलता है तो उसमें यह गर्व हो जाता है कि मैं मालिक हूं और यह मेरे आधीन है। इस भाव के कारण फिर रंच भी मन के प्रतिकूल कुछ चेष्टा पायी गयी तो वहाँ इतनी बड़ी अशांति मान लेता है यह व्यामोही जीव कि जितनी अशांति गैर परिवार के लोगों के द्वारा अनेक अपमान या अनेक प्रतिकुलता की जाने पर भी नहीं मानता। जब तक उपादान में निर्मलता नहीं जगायी जाती है तब तक इस जीव को कहीं शांति नहीं है।
उपादान के अनुकूल चमत्कार―जैसे मल को सोने के घड़े में भर देने से क्या उसकी बदबू दूर हो जायेगी? उसमें तो गंदगी और बदबू की एक प्रकृति ही पड़ी हुई है। ऐसे ही अज्ञान ग्रस्त पर्यायमुग्ध इस आत्मा के देह को या बाह्य वातावरण को कितने ही अच्छे शृंगारों से सजाया जा यतो क्या यह दु:ख मिटकर सुख शांति हो सकती है? स्वयं में ही ज्ञान जगाना होगा, दूसरे जीवों की स्वतंत्रता का आदर करना होगा। तब परस्पर का ऐसा सुंदर व्यवहार बन सकता है कि अधिक विह्वलता न होगी। जहां अपने को खुद ही अहंकारी बनाया जा रहा है, कुछ सत्त्व ही नहीं सोचा जाता है वहाँ इसको चैन नहीं होती है। बड़े योगी पुरुष क्यों सदा निराकुल रहते हैं और अपने आपमें प्रसन्न रहा करते हैं, वे अपने ही स्वरूप के समान सर्व जीवों का स्वरूप जानकर सबमें एक रस बन गए हैं, उन्होंने व्यक्तित्व के दरवाजे तोड़ दिये हैं। हालांकि आवांतर सत्त्व कभी मिटता नहीं है। सत्त्व तो वही वास्तविक है पर स्वरूपदृष्टि से समझे गये सामान्य जातिरूप चैतन्यस्वभाव की ऐसी दृढ़तर दृष्टि बनी है कि इस दृष्टि में व्यक्तित्व की दीवालें ढा दी जाती हैं, तब यह योगी सबमें समान बन करके स्वयं में ही एकरस हो जाता है। यही तो कारण है कि उसके प्रसन्नता बनी रहती है।
स्वतंत्रता का आदर―भैया ! परिवार के लोगों पर अथवा समाज के लोगों पर अपना शासन रखते हुए में इस कारण बेचैनी हो जाती है कि इसने यह नीति अपनायी हैं कि मान न मान, मैं तेरा महिमान। यदि सब विवेक से काम लें, अपनी स्वतंत्रता का मान करें, दूसरे की स्वतंत्रता का आदर करें तो यह जीव व्याकुल नहीं हो सकता। एक चैतन्यशक्तिमात्र आत्मतत्त्व को जानकर इस ही निज स्वरूप में मग्न होकर ऊपर चलने वाले, सारे विश्व के ऊपर चलने वाले इस अंतर परमात्मतत्त्व का चयन करो। जैसे चरने वाले पशु घास चर तो लेते हैं, पर उनकी जड़ नहीं उखाड़ा करते हैं। ऐसे ही यह प्रभुवर इस सारे विश्व के ऊपर चलता तो रहता है, परंतु किसी वस्तु का स्वरूप नहीं मिटा देता। उनके और अपने सत्त्व में संकरता नहीं ला देता। प्रभु की ही क्या जगत् के सभी जीवों की ऐसी प्रकृति है। त्याग पर का कोई नहीं कर सकता, किसी को कोई ग्रहण नहीं कर सकता। किसी का स्वरूप अपने स्वस्वरूप कोई न कर सकेगा। ऐसे स्वतंत्र चैतन्य सत्तामात्र निजआत्मतत्त्व में विश्राम करो।
आत्मप्रस्तर―देखो यह मेरा जीव उतना ही है, जितना कि चैतन्य शक्तिकर व्याप रहा है। मैं कहीं बाहर नहीं हूं, मैं अपने स्वरूप और अपने प्रदेश में ही हूं। इस चैतन्य शक्तिभाव के अतिरिक्त जिने भी भाव हैं, वे सर्वभाव पौद्गलिक हैं। उपाधि की अपेक्षा करके प्रकट हुए है। मैं औपाधिक भावरूप नहीं हूं, मायामय इंद्रजाल नहीं हूं―ऐसी सर्व ओर से दृष्टि हटाकर अपने आपके ज्ञायकस्वरूप में अपने को लीन करो। जो पुरुष ‘निरंतर इस अखंड ज्ञानस्वभावरूप मैं हूं’ ऐसी भावना किया करता है, वह पुरुष इस समस्त संसार के मायामय विकल्पों और विपदाओं को प्राप्त नहीं होता।
निरापदस्वरूप―भैया ! जरा दु:खों को बटोरकर सामने तो रखो, कितने दु:ख हुआ करते हैं? धन न रहा, परिवार के इष्टजन न रहे अथवा जो-जो कुछ भी बाधाएं जगत् में मानी जाती हों, शत्रु लोग मेरी ओर कड़ी निगाह किए हुए हैं, सोच लो कितनी विपदाएं हो सकती है? उन सबका ढेर अपने सामने लगा लो और जरा अपने भीतर आकर यह देखो कि यह तो मैं आकाशवत्, अमूर्त, निर्लेप, ज्ञानमात्र, सबसे निराला, किसी से भी न रुकने वाला, न छिदने वाला, न जलने वाला, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व हूं, ऐसी दृष्टि बनी कि सर्वविपदावों के ढेर खत्म हो जाते हैं। विपदाएं कुछ है ही नहीं और जहां अपने स्वरूपगृह से निकले, बाहर की ओर गए, पर की ओर झांका कि नहीं भी विपदा है तो भी इसे विपदाओं का पहाड़ नजर आता है।
आपत्ति की कल्पनाएं―बताओ किसे कहते हैं आपत्ति? कोई भी मामूली बात को भी बड़ा बनाकर व्यग्र हो जाता है। अब क्या करूं? कुछ रास्ता ही नहीं मिलता। कोई पुरुष बड़ी-बड़ी बाधाओं को भी कुछ न जानकर कहे कि है क्या यह? बाहरी पदार्थों की परिणतियां हैं। क्या संबंध है मेरा? जो जहां है वही रहो और रहते ही हैं। सोचने से किसी पदार्थ का गुणपर्याय उससे हटकर अंतर में नहीं पहुंच जाता। सब अपने-अपने स्वरूप में रहो―ऐसी शुद्ध दृष्टि बनाकर अपने आपको जिसने समझा है, उसके विह्वलता नहीं है। इस कारण अपने सुख दु:ख का निर्णय अपनी समझ पर चलने दो, बाहरी पदार्थों की परिस्थितियों पर सुख दु:ख का फैसला मत करो। ऐसा घर बन जाए, इतना धन हो जाए, मेरी इज्जत बन जाए तो मुझे सुख हो, यों बाहरी स्थितियों पर अपने सुख दु:ख का निर्णय मत करो। बाहर में जहां जो कुछ है, वह उनकी स्थिति है। उन पदार्थों का मुझ में प्रवेश है ही नहीं। मैं तो ज्ञानमात्र यह आत्मतत्त्व शाश्वत विराजमान् हूं। यही ब्रह्मस्वरूप है।
यह मैं जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्म, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि, हर, सर्वरूप हूं। इन शब्दों का जो अर्थ है, वह सब इसमें घटित होता है। लोक में इन नामों वाले किसी व्यक्ति में जो चारित्र बनाया है, उसकी बात नहीं कह रहे है, किंतु इन शब्दों का जो अर्थ है, वह सब इस आत्मतत्त्व में चरित होता है। यह मैं आत्मा परमशरण हूं, अन्यत्र कहां शरण खोजने जाते हो? मैं अखंड ज्ञानस्वभावमात्र हूं―ऐसी भावना जिसके निरंतर वर्तती रहती है, वह संसार के विकल्पों को नहीं पकड़ता, किंतु निर्विकल्पसमाधि को प्राप्त करते हुए चैतन्यमात्र आत्मा की उपलब्धि करता है।
परपरिणति की भिन्नता―यह आत्मा समस्त परपदार्थों की परिणति से अत्यंत भिन्न है। दो लड़के 20 हाथ की दूरी पर खड़े हैं। एक लड़के ने जीभ निकालकर चिढ़ाया या अटपट शब्द बोल दिया तो दूसरे लड़के में उसकी क्या बात चली गयी? किंतु वह दु:खी होता है। उस लड़के की इसमें कोई बात नहीं गई, किंतु इसने ही ऐसा आशय बना लिया कि यह लड़का मुझे चिढ़ाता है? वह अपने मुंह की तो कसरत करता है। ऐसा ही समझ लो कि संसार के जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने स्वरूप की परिणति कर रहे हैं, प्रतिकूल कोई नहीं चल रहा है। जिसमें जैसी योग्यता है, जिसमें जैसा कषाय है, उस कषाय और योग्यता के अनुकूल अपने में अपना परिणमन बनाए है, मेरा उससे कोइ्र संबंध नहीं है, ऐसा जानने वाले ज्ञानी संत ने परपरिणति से पृथक् अनुपम निष्णात शुद्ध ज्ञायकस्वरूप निजतत्त्व को जान लिया है।
आचार्य देव की अपार करुणा―देखो यह वस्तु का निर्वाध स्वरूप तो कुंदकुंदाचार्यदेव ने कृपा करके भव्यजीवों को दिखाया है और उनको भी अपने गुरु से प्राप्त किया था और ऐसी गुरु परंपरा से यह उपदेश चला आया है। जिसमें मूल गुरु तीर्थंकर भगवान् हैं। आज जो तीर्थ चल रहा है, जहां हम धर्मपालन करके अपने जीवन को सफल कर रहे हैं। यह तीर्थ अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का है, जिनकी भक्ति से देव देवेंद्रों ने मुकुट बनाकर जमीन में पड़कर नमस्कार कर गद्गद् भावना से अपने ही आपके पापों को धोया था―ऐसे महावीर तीर्थंकर देव द्वारा यह उपदेश प्रवाहित चला आया है। जो इस उपदेश को अपने हृदय में धारण करता है, वह इस स्वरूपदृष्टि रूप नौका द्वारा इस भयानक संसार समुद्र से पार हो जाता है।
आत्मावगाहन―भैया ! यहाँ क्या सार है जिस पर पागल हुआ जाए? यहाँ चिंताएं, शल्य, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, मनचाही बात न होना अथवा भ्रम में आना इत्यादि बातों के बड़े-बड़े कष्ट हैं―ऐसे कष्ट पूर्ण संसार में किसी भी परवस्तु की आकांक्षा चलना इस जीव का महान् संकट है―ऐसे संकट से बचाने में समर्थ यदि कोई ज्ञान है तो यह आत्मज्ञान ही है। इस आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सब कुछ परित्याग करना होगा। यही परित्याग करके देख लो। ज्ञानद्वारा परवस्तुओं से भिन्न अपने को जान लो। मेरा कहीं कुछ नहीं हैं, जरा ऐसा उपयोग तो बनाओ कि सचमुच में तुम्हारा तुम्हारे से बाहर कहीं कुछ नहीं है, यदि ऐसा उपयोग बना सकते हो और इसके फलस्वरूप अपने आपके ज्ञायकस्वभाव में प्रवेश कर सकते हो तो लो सारे संकट मिटकर जो आनंदामृत का अनुभव होगा, वह आप स्वयं ही जान जायेंगे। फिर न पूछना पड़ेगा किसी से कि मेरा धर्म क्या है, मेरा शरण क्या है, मुझे आनंद किससे होगा? सारी समस्याओं को अपने इस स्वानुभव से हल करना पड़ेगा।
आत्मार्थ सत्याग्रह और असहयोग―देखिए पराधीनता दूर करने के दो ही तरीके हैं―सत्याग्रह और असहयोग। इस आत्मा में कर्मों की, देह की, अन्य साधनों की परतंत्रता लगी है। इसको दूर करने के लिए अपने सत्व स्वरूप का तो आग्रह करो। मैं तो एक अखंड ज्ञायकस्वभावी हूं। इसके विपरीत कोई कुछ बहकाए, किसी के बहकाने में मत आओ। ऐसा करो तो सत्याग्रह और मेरे इस अखंड ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त अन्य जितने भाव हैं, अनात्मतत्त्व हैं, उनसे मेरा हित नहीं है, कुछ संबंध नहीं है―ऐसा जानकर उनका असहयोग कर दो, उनसे प्रीति न रक्खो, उन्हें अपने पास बुलाओ ही नहीं, उनको अपने पास से दूर कर दो। यों इस अनात्मतत्त्व का असहयोग करो तो सत्याग्रह पूर्ण यह असहयोग अवश्य ही सर्वकर्मों की गुलामी से दूर कर देगा।
परमपदार्थ―जिस परमपदार्थ की रुचि से संसार के समस्त संकट टलते हैं, जिस परमतत्त्व के आलंबन से सर्व औपाधिक भावों को प्रलय होकर विशुद्ध दर्शन मिलता है, जिस सत्यस्वभाव को परिचय बिना नाना परिणतियों को अपनाकर अज्ञानी पुरुष अनादि से अब तक भटकता चला आया है, जिस निज अंतस्तत्त्व के स्पर्श से मोक्षमार्ग चलता है और मोक्ष होता है, परमकल्याण मिलता है, वह परमपदार्थ, वह शुद्ध अंतस्तत्त्व और वह निज भाव किस प्रकार है? इस विषय में आचार्यदेव यहाँ बतला रहे हैं―