वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 41
From जैनकोष
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा।
ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा।।41।।
इस निज परमात्मतत्त्व में न क्षायिक भाव के स्थान हैं, न क्षायोपशमिक भाव के स्थान हैं, न औदयिक भाव के स्थान हैं और न औपशमिक भाव के स्थान हैं। जीव के निजतत्त्व 5 बताये गए हैं अर्थात् जो जीव में हों वे जीव के स्वतत्त्व हैं। इसमें यह कैद नहीं हैं कि कोई शाश्वत हो तब तत्त्व हो। चाहे वह शाश्वत हो चाहे वह कदाचित् हो, जो जीव में परिणाम होते हैं वे जीव के स्वतत्त्व कहे जाते हैं। उन पांचों में से पारिणामिक भाव तो आत्मा का सहज शाश्वत तत्त्व है और शेष के चार भाव आपेक्षिक तत्त्व हैं। जीव का स्वभाव किसी परवस्तु के सद्भाव या भाव के कारण नहीं होता। जीव में जो स्वरूप है वह जीव में है, जीव के कारण है वह किसी पदार्थ के सद्भाव के निमित्त से अथवा अभाव के निमित्त से नहीं होता। वह तो सत्त्व के साथ सहज शाश्वत है। इस कारण अंतस्तत्त्व में चारों भावों के स्थान नहीं हैं। अब उनका विवरण सुनिये।
जीव के क्षायिकभावस्थानों का अभाव―इस निज परमात्मतत्त्व में क्षायिक भव के स्थान नहीं हैं। कर्मों का क्षय होने पर जो बात बनती है वह क्षायिक भाव है। यद्यपि उपाधिभूत कर्मों के अभाव में आत्मा के स्वभाव वाली बात ही बनती है तथापि यह कर्मों के भाव से हुआ है ऐसी दृष्टि में उस भाव के प्रति आपेक्षिकता और किसी भी परिणमन का कोई भी भाव स्वभाव, स्वरूप अपेक्षित नहीं होता है। इस कारण जीव में क्षायिक भाव के स्थान भी नहीं हैं। इस संबंध में एक बात और जानना है कि क्षायिक भाव कर्मों के क्षय के समय में ही कहा जाता है। इसके बाद क्षायिक भाव कहना यह नैगमनय की अपेक्षा कथन है। पूर्व समय की अवस्था का स्मरण करके कहा जाता है कि केवलज्ञान क्षायिक भाव है। क्षय के काल के बाद तो उन्हें इस तरह देखना चाहिए कि जैसे धर्मादिक द्रव्यों में द्रव्यत्व के ही कारण केवल कालद्रव्य का निमित्त पाकर अपने स्वभाव से परिणमन हो रहा है। जैसे धर्म अधर्म द्रव्य के आकाशकाल द्रव्य के परिणमन को क्षायिक परिणमन नहीं कहा, इस ही प्रकार शुद्ध आत्मा का परिणमन है।
क्षायिकभाव के व्यपदेश की अनौपचारिकता व औपचारिकता―आत्मा के शुद्ध परिणमन का जब आदि हुआ था उस काल में क्षायिकभाव पना था। कर्मों के अभाव के निमित्त से जो भाव होता है वह क्षायिकभाव है यद्यपि वस्तुत: ऐसी बात है तथापि जैसे जीव व पुद्गल के परिणमन का राज जानने के लिए जीव और पुद्गल की उस विलक्षण परिणमन शक्ति का नाम विभाव शक्ति रख दिया गया है―ऐसे ही शुद्धात्मपरिणमन का पूर्वीय राज जानने के लिए क्षायिक नाम रखा है। जीव व पुद्गल में भाव की शक्ति वह एक ही है। विभावशक्ति नाम उसका वस्तुत: नहीं है अन्यथा स्वभावशक्ति भी माननी चाहिये, तब इस जीव में या पुद्गल में दो शक्तियां मान ली जायेंगी―एक स्वभावशक्ति और एक विभावशक्ति। जब जीव में ये दो शक्तियां मान ली जायें तो सदा काल इन दोनों शक्तियों का परिणमन भी युगपत् होते रहना चाहिए, किंतु ऐसा कहा हुआ कि एक ही काल में स्वभावपरिणमन भी हो और विभावपरिणमन भी हो। कोई शक्ति बिना परिणमन के नहीं रहती, तब वहाँ वास्तविक बात क्या है? जैसे सभी द्रव्यों में परिणमनशक्ति पायी जाती है, इस ही प्रकार जीव और पुद्गल में भी भावशक्ति मानी गई है, किंतु यह जानने के लिए केवल 6 जाति के द्रव्यों में से केवल जीव और पुद्गल ही ऐसे द्रव्य हैं कि जो उपाधि का सन्निधान पाकर स्वभाव के विरुद्ध भी परिणम सकते हैं। इस विशेषता को साफ झलकाने के लिए उस शक्ति का नाम विभावशक्ति रखा गया है। यों ही यह भावकर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ था, यह बताने को अब भी क्षायिकभाव उसे कहते हैं।
क्षायिक व्यपदेश की आपेक्षिता―अब यों समझ लीजिए कि विभावशक्ति के दो परिणमन माने गये हैं―एक विभावशक्ति का विभावपरिणमन और एक विभावशक्ति का स्वभावपरिणमन। छ: प्रकार के द्रव्यों में से सिर्फ जीव व पुद्गल में स्वभाव परिणमन हो सकता है। केवल इस विशेषता का द्योतन करने के लिए ही विभावशक्ति शब्द डाला है। अर्थ वहाँ भी यह निकलता है कि भावशक्ति के दो परिणमन हैं―विभावपरिणमन और स्वभावपरिणमन। जैसे उस भावशक्ति को कुछ और विशेषता से समझाने के लिए विभावशक्ति का नामकरण किया वैसे ही व्यवहार में यों समझिये कि सिद्ध प्रभु के अनंतकाल तक प्रवर्तने वाले उस शुद्ध परिणमन को क्षायिकभाव यों बोलते हैं कि उसका सारा राज भी एक शब्द से मालूम हो जाये, परंतु परमार्थ से जैसे उदय के काल में औदयिकभाव है, क्षयोपशम के काल में क्षायोपशमिकभाव है, उपशम के काल में औपशमिकभाव है―ऐसे ही क्षय हो रहे के काल में क्षायिकभाव है। ये क्षायिकभाव के स्थान इस आत्मतत्त्व में नहीं है। होते हैं―स्वभावरूप हैं, फिर भी ऐसे आपेक्षिकता जीव के स्वभाव में नहीं है।
जीव में क्षायोपशमिकभावस्थानों का अभाव―इसी प्रकार कर्मों का क्षयोपशम होने पर जो परिणाम होता है, वह इस कारणपरमात्मतत्त्व में नहीं होता है। यह उपयोग चैतन्य में कैसा प्रतपन कर रहा है, जिसके आश्रय के प्रताप से भव-भव के संचित कर्म लीलामात्र में क्षय को प्राप्त होते हैं। जो जहां की कुंजी होती है, जो जहां का पेच होता है उसको छोड़कर यहाँ वहाँ कुछ भी यत्न किया जाय तो वह यंत्र नहीं चलता है। इस ही प्रकार मोक्ष की तो कुंजी है स्वभावदृष्टि और स्वभावदृष्टि की निरंतरता को छोड़ करके अन्य-अन्य मन वचन, काय की क्रियायें की जायें तो उससे यह मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती है। ये बाह्य क्रियाएं भीतर के ज्ञानप्रकाश के साथ कीमत वाली हैं। जैसे बड़े आदमी के साथ छोटे आदमी की कीमत पाते हैं, यों ही इस ज्ञानविकास के रहते संते इस ज्ञानी पुरुष के जो शरीरादिक की प्रवृत्तियां होती हैं―व्रत, तप, संयम आदिक वे सब भी मूल्य रखने लगते हैं।
अंतस्तत्त्व के परिचय बिना मोक्षमार्ग का अभाव―जैसे एक का एक अंक हो तो उसके ऊपर जितने भी शून्य रखे जायेंगे; वे दस-दस गुणा मूल्य बढ़ा देंगे। एक पर एक बिंदी रखें तो 10 गुणा हो गया याने 10। 10 पर एक बिंदी रखें तो उसका 10 गुणा हो गया याने 100। 100 पर एक बिंदी रखें तो उसका 10 गुणा हो गया याने 1000। एक के होते संते बिंदी को रखते ही 10 गुणा मूल्य बढ़ता है और एक का अंक न रहे तो इन बिंदियों का रखना एक अपना समय खोना है और व्यर्थ का श्रम करना है। बिना एक के अंक के उन बिंदियों का मूल्य कुछ नहीं निकलता है। इस ही प्रकार निजआत्मतत्त्व के संबंध में श्रद्धान् हो, ज्ञान हो और अंतर में ऐसा ही स्वरूपाचरण चलता हो, उस ज्ञानी जीव के जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति होती है, वह सब भी व्यवहार में मूल्य रखती है और उसी के सहारे एक धर्मतीर्थ चलता है और धर्म का मूर्तरूप संसार में चला करता है। एक यह ज्ञानभाव ही न हो गांठ में तो ये सब क्रियाएं भी शून्य की तरह कीमत नहीं रखती हैं।
मुक्ति की प्रयोजनकता―भैया ! कोई कहे कि न हो ज्ञान तो उन व्रत, तप आदिक से कोई स्वर्ग तो न छुड़ा लेगा, स्वर्ग तो मिल ही जायेगा, यह बात ठीक है। यदि मंदकषाय हो तो व्रत, तप आदिक क्रियाओं से स्वर्ग मिल जाएगा अज्ञान के भाव वाले को भी, किंतु कषाय से ही व्रत, तप किया जा रहा हो तो वहाँ तो स्वर्ग भी नसीब नहीं है। और फिर हो जाए स्वर्ग, लेकिन वह प्रयोजन तो है ही नहीं, जिस प्रयोजन में धर्म होता है। जहां प्रयोजन नहीं है, वहाँ मूल्य भी कुछ नहीं हैं। अत: सर्वप्रयत्न करके चुपचाप ही अपने आपमें अपने आपकी साधना कर लें। यह बात ऐसी गुप्त है कि जैसे वोट देने वाले गुप्त हुआ करते हैं। अब वहाँ नाराजी किस पर की जाए? इसी तरह यह अंतर की साधना ऐसी गुप्त है कि इसको सुनकर किसी को नाराज न होना चाहिए कि हमको कुछ झूठा कहा जा रहा हो या विपरीत कहा जा रहा हो। यह तो अपने आपके अंतर में गुप्तरूप से ही अपने आपसे करने की बात है। कर लिया जाए तो सिद्धि मिल ही जाएगी। न कर सके तो यह दृष्टि बनाओ कि हमको यह करना है, इसको किए बिना अन्य कुछ करना कुछ भी मूल्य नहीं रखता है। यह उस परमात्मतत्त्व की बात कही जा रही है कि जिसमें दृष्टि आने पर सर्ववैभव स्वयमेव मिल जाता है।
मूलतत्त्व की दृष्टि―एक राजा गया परदेश।, बहुत दिन हो गए, पर न आ सका घर। राजा ने सब रानियों को सूचना भेजी कि अब हम हफ्ते भर बाद में आयेंगे। जिस रानी को जो चीज चाहिए पत्र में लिख दे। किसी रानी ने लिखा कि बंगलौर की साड़ी, किसी रानी ने लिखा कि कोई चमकदार गहना, किसी रानी ने कुछ आभूषण मांगे। छोटी रानी ने केवल एक 1 का अंक ही लिखकर अपने हस्ताक्षर कर दिये। जब राजा ने सभी पत्र खोले तो सभी पत्रों को तो पढ़ लिया, पर छोटी रानी का पत्र कुछ समझमें नहीं आया। तो राजा ने मंत्री से इसका अर्थ पूछा। मंत्री ने बताया कि महाराज ! और रानियां तो साड़ियां और गहनें इत्यादि चाहती हैं, पर छोटी रानी केवल एक आपको ही चाहती है। एक हफ्ते बाद जब राजा महल में गए तो जिस रानी ने जो कुछ मांगा था, उसके महल में वह चीज पहुंचा दी और स्वयं छोटी रानी के महल में पहुंच गए। अब यह बताओ कि सारा वैभव किसको मिला? अरे !सारा वैभव, सारी सेना और सारा का सारा राज्य उस छोटी रानी को ही तो मिला। तो जिसकी एक पर ही दृष्टि है, उसको तो ये सभी वैभव मिल जाते हैं। वह एक वैभव है कि अपने सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि होना।
जीव में औदयिक भावस्थानों का अभाव―सहजस्वभावमय परमात्मतत्त्व इस क्षायिक आदिक चारों भावों की साधना से परे है। इस आत्मा में जैसे क्षायोपशमिक भावों के स्थान नहीं हैं, इसी प्रकार औदयिक भाव के स्थान भी इस आत्मतत्त्व में नहीं हैं। कर्मों का उदय होने पर जो परिणाम होते हैं, उन्हें औदयिकभाव कहते हैं। अब समझ जाइए जहाँ यह बात कही जा रही है कि इस आत्मा के क्षायिकभाव के स्थान नहीं है, क्षायोपशमिक भाव के स्थान नहीं है और विचार, विकल्प आदिक औदयिकभावों के भी स्थान नहीं हैं, वहाँ कुटुंब और धनवैभव की चर्चा करना तो बड़े ही अप्रसंग की बात है।
अत्यंत भिन्न पदार्थों की चर्चा एक अनमेल प्रसंग―जैसे कोई मंदिर में पूजा करता ही करता कहने लगे कि भूख लगी है रोटी लावो तो यह कैसी बेमेल बात लगेगी? ऐसे ही जहां यह कथनी हो रही हो, इस आत्मा के ये क्षायिक आदिक स्थान भी नहीं है तब फिर कुटुंब, परिवार, धन, वैभव, देह इन सबके विकल्पों में लगना कि यह तो मेरा है, ये बेमेल अप्रासंगिक बात के अटपट विकल्प समझिये। मगर मोह की लीला भी इतनी गजब की है कि इस चर्चा के प्रसंग में भी किसी-किसी का ख्याल आ ही जाता होगा। अपनी दुकान घर आदि का ख्याल आ ही जाता होगा किसी का ख्याल न आता हो और हमने चर्चा छेड़ दी तो शायद आ गया होगा और इतने पर भी न आए तो आपका काम अच्छा है और हमने खोटी बात छेड़ दी यों समझ लीजिए।
जीव में औपशमिकभाव स्थानों का अभाव―इस जीव के जैसे औदयिक भाव के स्थान भी नहीं हैं, इस ही प्रकार कर्मों के उपशम होने पर जो औपशमिक भाव होता हैं आत्मा के अल्पकाल की स्वच्छता में होता है उस स्वच्छता के स्थान भी इस आत्मा में नहीं हैं। वह तो एक सहज सत् है। यदि आत्मा कभी केवल होता और बाद में यह भाव लग जाता औदयिक आदिक तो यह बात जरा शीघ्र समझ में आ जाती कि इस आत्मा के ये औदयिक औपशमिक आदिक स्थान नहीं हैं, लेकिन अब प्रज्ञा का बल विशेष लेना पड़ रहा है क्योंकि इस आत्मा में अनादि से ही ये भावस्थान उतरते चले आ रहे हैं और हम इन्हें मना करें इसमें प्रज्ञाबल की विशेष आवश्यकता है। जैसे बाजार में ऐसे वृक्षों के चित्र के कार्ड मिलते हैं―दो तीन पेड़ों की चित्रावली उसमें बनी होती है। उसमें इस तरह से शाखापत्ती आदि बने होते हैं कि जहां कुछ नहीं लिखा गया वहाँ कभी गधे के आकार, कभी बैल के आकार, कभी पक्षी के आकार बन जाते हैं। देखने में शीघ्र नहीं जान सकते कि इसमें सिंह का चित्र है पर एक बार परिचय हो जाय तो देखते ही तुरंत सिंह चित्र दिख जायेगा। ऐसे ही इस आत्मा में नाना चित्रावली पड़ी है। उस चित्रावली के होते हुए भी अंतर में स्वभाव अंत:प्रकाशमान् जो शाश्वत तत्त्व है, उसकी जिन्हें दृष्टि नहीं हुई उन्हें तो इस चित्ररूप ही अपना सर्वस्व नजर में आ रहा है और जिसे उस स्वभाव का परिचय हुआ है उसने तो जब चाहे, दृष्टि की और दर्शन किये, जो कि स्वाभाविक पारिणामिक भावस्वरूप आत्मतत्त्व की चर्चा है। तो आत्मा में ये चारों प्रकार के स्थान नहीं हैं।
क्षायिकभाव के भेद―भैया ! उन्हें और विशेषता से जानना हो तो इसके भेद प्रभेद के द्वारा इसका स्वरूप विस्तार जान लो। जैसे क्षायिक भाव 9 प्रकार के बताये गए हैं―क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र। अब दन सबके निमित्तों को भी जानो।
केवलज्ञान भाव―केवलज्ञान ज्ञानावरण के क्षय से होता है, हुआ है, पर अनंत काल तक अब जो बर्तेगा वहाँ आत्मा का वह स्वभावपरिणमन चल रहा है यों देखो। यदि यों ही देखते रहोगे कि किसी समय इस आत्मा में कर्म लगे थे, उन कर्मों का क्षय हुआ है तब यह केवलज्ञान हुआ है, फिर यहाँ तो ऐसा हाल हुआ कि गये तो हम भगवान् की स्तुति करने और भगवान् के पूर्व के अपराध गाने लगे। इन भगवान् के पहिले कर्म लगे थे। जब उन कर्मों से छुटकारा हुआ तब यह स्वभाव पाया। स्वभाव के अनुरागी पुरुषों को स्वभावपरिणमन ही दिखेगा। भैया ! कहां तो ज्ञानी की ऐसी वृत्ति कि वर्तमान भी अपराध हो तो वे उन्हें भी नहीं देखना चाहते। फिर पूर्व काल के अपराध ख्याल करके भगवान् के गुण गाये इसमें अनुराग की क्या प्रबलता मानी जाय? भगवान के अब क्षायिक भाव है यह ऐसे ही कहा जा सकता है जैसे कि पूर्वकृत अपराधों का ख्याल करते हुए कहा जाय। अरे जैसे अब धर्म अधर्म आकाश काल द्रव्य हैं वैसे ही तो समस्या उनकी है कि कुछ अंतर है। जैसे ये शुद्ध पदार्थ शाश्वत शुद्ध अपने स्वभावपरिणमन रूप परिणमते हैं ये सिद्ध प्रभु अब उन्हीं द्रव्यों की भांति ही तो अपने स्वभाव के परिणमन से परिणमते चले जाते हैं। अब वहाँ क्षायिकभाव स्थान तकना यह स्वरूप के अनुरागी के योग्य काम नहीं।
स्वरूप का अनुराग―जैसे लोग कहा करते हैं जब दूल्हा सजकर गांव से जाता है बारात के साथ तो अंत में दूल्हा की मां दरवाजे पर खड़े होकर कुछ गीत भी गाया करती है―जुवा आदि में कहीं भी न अटक जाना, इस बारात में सफल होकर आना, असफल होकर न आना। जब तक वह दूल्हा अपने घर न पहुंचता तब तक उसकी मां उसके आने की बाट जौहती है। जब वह दूल्हा अपने घर पहुंच जाता है तो उसकी मां बड़ी हर्षित हो जाती है। फिर वह मां अपने मन में कोई विचित्र कल्पना नहीं उठाती अथवा जैसे आपत्तियों में फंसा हुआ कोई बालक संकटों से छूटकर जब मां के पास आता है तो उस समय वह मां उस बालक के गुणों का अवलोकन करती हुई पूर्व की सब बातों को भूलकर निर्दोष निगाह में उस बालक को देखती है। यों ही स्वरूप का अनुरागी पुरुष प्रभु के वर्तमान स्वभाव परिणमन की एक विचित्र छटा को ही निरखता है, उनका स्तवन करता हैं। ये चारों प्रकार के भावस्थान इस आत्मतत्त्व के नहीं हैं।
कैवल्य अपरनाम पवित्रता―इस शुद्ध भावाधिकार में इस चित्स्वभाव की शुद्धता तो प्रकट किया जा रहा है कि उसके संग में कोई परपदार्थ नहीं रहना चाहिए। जैसे चौकी पर कबूतर की बीट पड़ी हो तो उसे अशुद्ध कहते हैं, तब किसी भाई से यह कहा करते हैं कि इस चौकी को शुद्ध कर दो, तो वह क्या करता है कि बीट का नाम मात्र भी न रहे ऐसी स्थिति बनाता है, पानी से धो देता है। अब चौकी केवल चौकी रह गयी, उस बीट का अंश नहीं है इसी के मायने हैं चौकी शुद्ध हो गयी। कपड़ा पहिन लिया तो पहिनने से वह अशुद्ध हो गया। शरीर के अणु, जीवाणु, गंदगी, पसीना उस कपड़े से लग गया, कपड़ा अशुद्ध हो गया तो कहते हैं कि यह तो कपड़ा अशुद्ध है इसे शुद्ध करो। तो क्या करना कि शरीर से संबंध होने के कारण जो उसमें अशुद्धि की बात आयी है उसे दूर कर दो। उसका उपाय क्या है कि पानी से खूब धो लो। अब यह कपड़ा कपड़ा मात्र रह गया, उसके साथ गंदगी, पसीना ये सब कुछ नहीं रहे। यही तो कपड़े का शुद्ध होना है। आत्मा का शुद्ध होना क्या कहलाता है? आत्मा के साथ जो मल लगा है, संबंध जुटा है, शरीर का संबंध है, द्रव्यकर्म का संबंध है, भावकर्म का समवाय है, इतने परभाव इसके लगे हैं उन्हें हटा दीजिए इसी के मायने आत्मा शुद्ध हो गया है। और शुद्ध आत्मा का नाम भगवान हैं।
स्वभाव की व्यक्ति अपरनाम शुद्धता―भैया ! भगवान् होने पर कुछ उनमें बढ़ोतरी नहीं हो जाती है। भगवान से अधिक बढ़ोतरी तो संसारी जीव में है (हंसी)। देखो इस संसारी जीव के साथ तो शरीर है। भगवान शरीर से हाथ धो चुके हैं, अब उन्हें शरीर मिलता कहां है? इस संसारी जीव ने तो एक शरीर छोड़ा और नया शरीर पाया तो भगवान से अधिक बढ़ोतरी इस संसारी जीव में है ना। भगवान में तो वे ही अकेले हैं, उनके साथ कोई दूसरी चीज नहीं है और यहाँ संसारी जीव के साथ शरीर भी लगा है, द्रव्यकर्म भी साथ है, भावकर्म भी विविध है। भगवान तो शुद्ध हो गए, अब वे एकरूप ही परिणम रहे हैं वे ऐसी हजारों कलाएं नहीं खेल सकते हैं। ये संसारी जीव पेड़ बन सकते, कुत्ता, गधा आदि बन सकते तो शुद्धता में बाहरी चीजों का संग हटता है लगता कुछ नहीं है। प्रभु शुद्ध हैं तो बाहरी संग प्रसंग हट गए।
सहजविकास―अब यह देखते है कि उनमें अनंतज्ञान हो गया, अनंतदर्शन हो गया। अरे ! हो गया तो उसमें उनका क्या है? जब बाह्य चीजें न रही तो यह अपने आप हो जाता है। कला तो इस संसारी जीव के है कि जो इसमें नहीं बसा, वह भी करके दिखाए, पर भगवान प्रभु में यह कला नहीं है। आखिर सब भगवान ही तो हैं। बिगड़ जायें तो भी चमत्कार दिखा दें और शुद्ध हो जाएं तो वहाँ स्वभाव का चमत्कार दिखा दें। परद्रव्य का और परभाव का संबंध न रहे तो ऐसा शुद्ध अंतस्तत्त्व जब बतायेंगे, तब उन सब बातों का निषेध करना होगा, जो परद्रव्य है या परभाव है, आपेक्षिकभाव है। उसी प्रसंग में यहाँ यह चल रहा है कि इस शुद्ध अंतस्तत्त्वरूप आत्मा के न क्षायिकभाव के स्थान हैं, न क्षायोपशमिक स्थान हैं, न औदयिक भाव के स्थान हैं।
क्षायिक भावों में प्रथम प्रगट होने वाला भाव―क्षायिक भाव के भेद 9 हैं, उनमें से प्रथम तो क्षायिकसम्यक्त्व है अर्थात् क्षायिकसम्यग्दर्शन पहिले प्रकट होता है। क्षायिकभाव में सर्वप्रथम प्रकट होने वाला भाव है तो क्षायिकसम्यक्त्व है। अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति―इन सात प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिकसम्यक्त्व प्रकट होता है।
सम्यक्त्वघातक क्रोध―अनंतानुबंधी क्रोध वह है जहां अपने ही स्वभाव की रंच भी स्मृति नहीं है और पर्याय को ही आत्मस्वरूप माना जा रहा है। इस स्थिति में जो-जो भी क्रोध हो, वह सब अनंतानुबंधी क्रोध है। इस क्रोध से यह जीव अपने स्वरूप की बरबादी करता है और खुद का बिगाड़ करता है। कषायों से दूसरों का बिगाड़ नहीं होता है। खुद ही अपनी बरबादी किया करता है।
सम्यक्त्वघातक मान―इसी प्रकार मान कषाय स्वरूपविस्मरण सहित जो घमंड की परिणति है, वह सब अनंतानुबंधी मान है। मान में यह अपने को भूल जाता है। जो कुछ है, सो मैं ही हूं। चाहे वह मानी पुरुष भगवान् की भी पूजा करे, फिर भी महत्ता अपनी ही अपने को जंचेगी वहाँ तो यह जंचेगा कि होता है कोई भगवान्, पर चतुराई महत्ता कोई सब मेरी है। जो अपने आगे भगवान् को भी विशेष नहीं समझता, वह दूसरों को तो जानेगा ही क्या?
सम्यक्त्वघातक माया―मायाकषाय में भी स्वरूपविस्मरण है। यह अंतर में बड़ा जाल पुर रहा है, क्योंकि किसी अभीष्ट विषय की सिद्धि करना उसके माया का प्रयोजन है। वह माया को ढीला नहीं कर सकता। ज्ञानी जीव तो सोच सकता है कि अजी हो वह काम तो, न हो तो। माया प्रपंच में क्यों पड़े? किंतु अज्ञानी पुरुष में अनंतानुबंधी मायावान् पुरुषों में संकल्पित इष्ट कार्य की सिद्धि में वह अधीर होकर हठ करता है, इसे अपनी सिद्धि करना ही है, चाहे कुछ भी उपाय करना पड़े, मायाचार करता है।
सम्यक्त्वघातक लोभ―लोभकषाय अनंतानुबंधी लोभ, स्वरूपविस्मरण सहित लोभ का परिणाम हो, वह अनंतानुबंधी लोभ है। कोई पुरुष अपने परिवार के लिए बड़ा आराम दे, खूब खर्च करे, उनके लिए ही सर्वस्व सौंप दे और वह डींग मारे कि मुझे लोभ बिल्कुल नहीं है। घर में देखो तो उच्च कोटि का रहन-सहन है, भोजन उत्तम है, उत्तम मकान है, देखो लोभ हमारे बिल्कुल नहीं है। अरे लोभ के लिए ही तो खर्च किया। आराम, रहन-सहन, कुटुंब का लोभ और मोह जिसमें बसा है, उन कुटुंबी जनों के अतिरिक्त अन्य कार्यों में अन्य पुरुषों के लिए उदारता न बने तो कैसे कहा जा सकता है कि इसके लोभ नहीं है। ये सब कषायें इन प्रकृतियों के उदय होने पर होती हैं।
सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों का क्षयक्रम―सबसे पहिले क्षायिक सम्यग्दर्शन के लिए उद्यमी जीव इन चार कषायों का तिरस्कार करता है। ये चारों कषायें बड़ी बलवान् हैं। ये सीधे-सीधे नष्ट भी नहीं होती हैं, सो अप्रत्याख्यानावरणरूप, प्रत्याख्यानावरणरूप होकर इनकी छुट्टी हो पाती है, फिर अंतर्मुहूर्त में विश्राम करता है। फिर तो तीनों करण किए जाते हैं जैसे कि विसंयोजन के लिए किए थे, तब मिथ्यात्व प्रकृति सम्यक्मिथ्यात्वरूप होती है। सम्यक्मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृतिरूप और अंत में उसका भी सर्वगुण संक्रमण हो करके क्षय हो जाता है और तब इसके क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होता हैं।
क्षायिकभावों में द्वितीय प्रकट होने वाला भाव―दूसरा क्षायिक भाव है क्षायिकचारित्र। शेष बची हुई 21 कषायों के क्षय होने से जो चारित्र प्रकट होता है, उसे क्षायिक चारित्र कहते हैं। उन 21 प्रकृतियों में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ―इन 8 प्रकृतियों का 9 वें गुणस्थान में एक साथ पहिले क्षय होता है, पश्चात् नपुंसक वेद का क्षय होता है, पश्चात स्त्रीवेद का क्षय होता है, पश्चात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा―इन 6 प्रकृतियों का क्षय होता है, पश्चात् पुरुषवेद का क्षय होता है, पश्चात् संज्वलन क्रोध का क्षय होता है, पश्चात् संज्वलन मान का क्षय होता है, पश्चात् संज्वलन माया का क्षय होता है। इस प्रकार 9 वें गुणस्थान में 20 प्रकृतियों का क्षय होता है तथा शेष बची हुई संज्वलन लोभ प्रकृति का क्षय 10वें गुणस्थान में होता है। इसके अनंतर ही 12वें गुणस्थान में पहुंचना होता है, वहाँ क्षायिकचारित्र होता है।
अंतिम 7 क्षायिकभाव―इसके पश्चात् अब शेष सातों भाव केवलज्ञान, केवलदर्शन और 5 लब्धियां आदि एक साथ प्रकट होती हैं। केवलज्ञान ज्ञानावरण के क्षय होने पर प्रकट होता है। केवल दर्शन दर्शनावरण के क्षय होने पर प्रकट होता है और अंतराय कर्म के क्षय से क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य प्रकट होता है। ये पृथक्-पृथक् अरहंत अवस्था तक तो कुछ ज्ञान में आते हैं, पर सिद्ध अवस्था होने पर वहाँ केवल एक क्षायिक वीर्य विदित होता है और बाकी सब वीर्य में गर्भित हो जाता है। जैसे ज्ञानावरण के क्षय होने पर, पांचों ज्ञानावरण की प्रकृतियों के क्षय होने पर ज्ञान प्रकट होता है, किंतु एक केवलज्ञान प्रकट होता है इसी प्रकार अंतराय कर्म के क्षय से एक क्षायिक वीर्य प्रकट होता है और वह सिद्ध भगवान में भी रहता है।
अरहंत देव में दान लाभ भोग उपभोग की विशेषता का कारण―भैया ! अरहंत अवस्था में चूंकि उनके समारोह बहुत है और सर्वथा पूर्ण विविक्त भी जीव नहीं होता है सो किन्हीं अपेक्षावों से इस कारण उनका विहार, दिव्यध्वनि होती हैं। वे यहाँ रहते हैं वे सबको पूजने के लिए मिलते हैं इसलिए उनके दान, लाभ भोग, उपभोग की बातें पायी जाती हैं क्षायिक रूप से। सिद्ध भगवान् में ये नहीं मिल पाते हैं। उन्हें न मनुष्य पा सकते हैं, न तिर्यंच पा सकते हैं और न देव पा सकते हैं। उन सिद्ध भगवान् ने का कहीं विहार होता नहीं, कहीं उनका उपदेश सुनने को मिलता नहीं। कुछ भी तो बात उनसे यहाँ नहीं होती। वहाँ दान, लाभ आदिक की कल्पनाएं नहीं हैं। वे पूर्ण शुद्ध धर्म आदिक द्रव्यों की तरह अगुरुलघुत्वगुण द्वार से षट्स्थानवर्ती गुण हानि से वे अपने गुण में निरंतर परिणमते रहते हैं, ये क्षायिक भाव के स्थान इस जीव के शुद्धस्वरूप में नहीं हैं।
स्वभावदृष्टि में क्षायिक भावों की विविक्तता―भैया ! स्वभाव की दृष्टि रखना है, परिणमन भी नहीं देखा जाना है ! यहाँ केवल स्वभावमात्र शुद्ध अंतस्तत्त्व को देखा जा रहा है और परिणमन की भी उपेक्षा है। सिद्धों में हैं इन गुणों के पूर्ण शुद्धपरिणमन, परंतु वे क्षायिक हैं कर्मों के क्षय होने से हुए हैं, ऐसी कहने में उपेक्षा आ गयी। ये कर्मों के क्षय से प्रकट होते हैं ऐसी अपेक्षा निश्चय से वस्तुगत स्वरूप में नहीं है और यहाँ तो पारिणामिक भावमय शुद्धजीव की चर्चा है। इस कारण कहा गया है कि इस शुद्ध जीवास्तिकाय के क्षायिक भाव के स्थान भी नहीं हैं।
अपने क्षायोपशमिकभाव की चर्चा―इसके बाद बताया गया है कि क्षायोपशमिक भाव के स्थान भी नहीं हैं। कर्म प्रकृति के क्षयोपशम होने पर जो भाव प्रकट होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। ये तो हम आपमें पाये जा रहे हैं। कोई कभी है कोई कभी है। यह अपनी ही चर्चा है। जैसे आपसे कहा जाय कि आपकी जेब में जो कागज रखे हैं वे आपके पास हैं ना, तो ये जल्दी समझ में आ जायेगा और अगर कोई नोट वगैरह होगा तो उसे देख भी लेंगे एक तरफ से कि रखा है या नहीं। आपकी यह चीज आपको खूब विदित है ना, उससे भी ज्यादा निकट संबंध वाली बात है क्षायोपशमिक भाव। यह आपके पास है, इसे कोई चुरा भी नहीं सकता। उन कागजों को कोई हड़प भी सकता है।
क्षायोपशमिक ज्ञान और अज्ञान―क्षायोपशमिक भाव 18 प्रकार के होते हैं, चार प्रकार के ज्ञान―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान। ये अपने-अपने आवरक कर्म के क्षयोपशम होने पर प्रकट होते हैं, और इसी तरह इनमें से तीन ज्ञान सम्यक्त्व के अभाव के कारण कुज्ञान भी कहलाते हैं, उनके नाम है कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान। उन कुज्ञानों में उल्टी समझ होती हैं। जैसे नरकों में माता और पुत्र भी एक जगह नारकी बन जायें तो पुत्र मां के जीव को देखकर प्यार न करेगा। वह पुत्र खुद ही सोच लेगा कि इसने मेरी आँख में सलाई डाल कर आंखें फोड़ने की चेष्टा की। चाहे वहाँ मां ने अपने पुत्र के अंजन ही लगाया हो। यह सब खोटा ज्ञान है।
कुश्रुतज्ञान में अहितकर सूझ―आविष्कारक लोग क्या करते हैं कि अणुशक्ति को और और प्रकार के अस्त्र शस्त्रों को प्रयोग करके देखते हैं व उनकी उन्नति करने में दत्तचित्त रहते हैं। आविष्कार करने का मुख्य लक्ष्य यह रहता हैं कि किसी युद्ध में हमारी विजय हो, लाभ हो। एक अणु बम चलाया जाय तो उससे हम हजारों लाखों की सेना को मार सकें व विजय पा सकें, यह दृष्टि उनकी रहती है। उन अणुशक्तियों से चाहें तो कपड़े की मील चला दें, और-और यंत्र चला दें, देश का बड़ा लाभ हो, पर यह ध्यान नहीं रहता। ध्यान तो खोंटी बातों का है। जो भी आविष्कार किया जाता है दूसरों के संहार के लिये या अपने विषयों को बड़ी कला से भोग सकें, इसके लिए आविष्कार होते हैं, क्योंकि कुश्रुत ज्ञान है ना। इस तरह 4 ज्ञान और 3 अज्ञान ये 7 भेद क्षायोपशमिक भाव के हुए।
अन्य 11 क्षायोपशमिक भाव―तीन दर्शन क्षायोपशमिक हैं चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन। दर्शन में कल्पना नहीं होती है विकल्प नहीं होता है इसलिए यह सम्यग्दृष्टि के हो तो, मिथ्यादृष्टि के हो तो इसमें भेद नहीं पड़ा कि यह तो है भला दर्शन और यह है खोटा दर्शन। अंतराय कर्म का क्षयोपशम होने पर 5 लब्धियां प्रकट होती हैं―दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य। जैसे क्षायिक सम्यक्त्व 7 प्रकृतियों के क्षय से बताए गए हैं यों ही उन 7 प्रकृतियों का क्षयोपशम होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह भी क्षायोपशमिक भाव है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से जो चारित्र होता है वह क्षायोपशमिक चारित्र है। उसी में एक संयमासंयम भी है। वह भी क्षायोपशमिक भाव है। ये 18 प्रकार के क्षायोपशमिक भाव और सूक्ष्मता से असंख्यात प्रकार के क्षायोपशमिक भाव के स्थान इस शुद्ध जीवास्तिकाय में नहीं होते हैं।
अफसोस और साहस―भैया ! अपनी चर्चा यहाँ चल रही है कि मैं हूं कैसा? इसकी समझ के बाद इसको अफसोस होगा कि हूं तो ऐसा और बन बैठा कैसा? जैसा मैं हूं उसका लक्ष्य करके उस पर दृष्टि दे, उसमें ही स्थिर हो जाय तो कल्याण कहां कठिन है? एक साहस की ही तो आवश्यकता है और इसके साथ सत्संग और स्वाध्याय की बहुत अधिक आवश्यकता है। कारण यह है कि हमारे संस्कार वासनाएँ विषय, कषाय में पड़े हुए हैं। सम्यक्त्व हो जाने पर भी ये वासनाएँ संस्कार फिर भी इसे विचलित करने को तत्पर रहते हैं। उनसे अवकाश पाने के लिए सत्संग और स्वाध्याय इनकी बहुत आवश्यकता है। कोई कहता हो कि धर्ममार्ग बड़ा कठिन है। कषायों का जीतना, अच्छे विचारों पर दृढ़ रहना, अन्याय न करना और अपना सत्य आत्मासुख पाने का यत्न रखना यह तो कहने की बात होगी, कोई की जाने वाली बात न होगी। अपने में तो यह बात प्रकट नहीं हुई है। अरे उपाय तो किया नहीं सुगमता से कैसे विदित हो?
सत्संग―अपने आपमें यह देखा जाय कि हम सत्संग में कितने समय रहते हैं और रागद्वेषी मोही अज्ञानी पुरुषों के संग में कितने समय तक रहते हैं? हिम्मत हो और असत्संग से छुटकारा पायें तो ही भला है। करना भी पड़े प्रयोजनवश, गृहस्थी है, आजीविका करनी है, दुकान पर बैठना है, पर कभी ऐसा ख्याल तो बने कि अहो मैं तो सर्व से विविक्त ज्ञान मात्र हूं, मेरा ज्ञान के सिवाय अन्य कोई काम ही नहीं है―ऐसा ख्याल बनने पर वहाँ मनमाना प्रवर्तन न होगा। कहीं हंसी मजाक की बातें होती हैं तो वहाँ बोलना पड़ता है, बोल देता है, पर अंतर में यह भाव बना ही रहेगा कि कब इस झंझट से अवकाश पायें? असत्संग व्यर्थ है, इसे न करना चाहिए। लालसा रखनी चाहिए सत्संग की। ज्ञान और वैराग्य में जिनका चित्त सुवासित है―ऐसे पुरुषों का संग करना, उनके निकट अधिक बैठना आदि सब सत्संग कहलाते हैं। सत्संग की महिमा अन्य संप्रदायों में यहाँ से भी अधिक पायी जाती है। वहाँ तो संतों के पाय बैठना, उनके प्रवचन सुनना आदिक सभी बातों का सत्संग नाम रखा है। कहां जा रहे हो भाई? सत्संग करने जा रहे हैं, सत्संग की बहुत महिमा है।
हित की सात बातें―पूजा करते हुए आप रोज बोल जाते हैं 7 बातें मांगते हुए―शास्त्र का अभ्यास, जिनेंद्र स्तवन, श्रेष्ठ पुरुषों की संगति और गुणियों के गुण बोलना, दोषों के कहने में मौन रखना, सबसे प्यारे हित के वचन बोलना और आत्मतत्त्व की भावना करना―ये सात बातें हित की हैं। कहने में, सुनने में ये बड़ी मीठी लग रही हैं और करने में यदि आ जाए तो उनका स्वाद वहीं पाएगा। इसमें श्रेष्ठ पुरुषों की संगति भी आई। सत्संग और स्वाध्याय में हम अधिक समय व्यतीत करें। अन्य उपायों से भी ज्ञानभावना बनाएं तो वे सब बातें जो सुनते हैं, ज्ञानी पुरुषों के कथन में सब अपने को विदित होने लगेंगी।
औदयिकभाव के स्थान और उनका जीव में अभाव―जीव के शुद्ध भाव का वर्णन करने वाले इस प्रकरण में यह बताया गया है कि जीव के क्षायिक भावस्थान नहीं है और क्षायोपशमिक भावस्थान भी नहीं है। अब औदयिकभाव के स्थान भी नहीं है, यह बात प्रकट कर रहे हैं। कर्मों के उदय के निमित्त से उत्पन्न होने वाले भावों को औदयिक भाव कहते हैं। ये औदयिक भाव 21 तरह के होते हैं―चार गति, चार कषायें, तीन लिंग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्ध और 6 लेश्या। इनके अनुभागों की दृष्टि से असंख्यात भेद व स्थान हैं। ये सभी औदयिक भाव के स्थान इस जीव में नहीं हैं। जीव का स्वभाव ज्ञानानंद है। कर्म उपाधि के निमित्त से जो मलिनता प्रकट होती है, वह मलिनता जीव का स्वरूप नहीं है।
जीव में नारकभाव का अभाव―नरक गति नामक नामकर्म के उदय से जीव नरकगति में जन्म लेता है। नरकगति में जन्म लेना और नरक जैसे भाव रहना इस जीव का स्वभाव नहीं है। जीव का स्वभाव वह है जो भगवान् का है। द्रव्यदृष्टि से भगवान् में और अपने में अंतर नहीं है, क्योंकि स्वरूप हैं, किंतु अंतर जो पड़ा है, वह पर्यायदृष्टि का अंतर है। प्रभु अपने आपको वैसा ही अनुभव करते हैं, जैसा कि जीव का सहजस्वरूप है। और हम अपने आपका विरुद्ध अनुभव करते हैं। जो मेरा स्वरूप नहीं है उस रूप अपने को मानते हैं। इसी कारण भगवान् में और अपने में इतना महान् अंतर पड़ गया है, और इस अंतर के फल में अपन सब दुर्दशाएं भोग रहे हैं।
जीव में मनुष्यभाव का अभाव―मनुष्य हो गए तो क्या हुआ? मनुष्य अवस्था में भी तो अनेक चिंताएं, अनेक दुर्दशाएं, अनेक विडंबनाएं पशु पक्षियों की भांति विषयों के भोगने में प्रवृत्ति सभी कुछ इल्लतें तो चल रही हैं। मनुष्य हो गए तो कौनसा बड़ा लाभ पा लिया और मान लो कुछ अच्छे ढंग से भी रहे तो मृत्यु तो सामने आयेगी ही। मृत्यु सदा अपने केशों को पकड़े ही खड़ी है। किसी भी समय झकझोर दे उसी समय विदा होना पड़ेगा। किसी का दिन नीयत नहीं है कि इतने दिन अवश्य रहेगा। यद्यपि कुछ व्यवस्थावों से कुछ ऐसा जानते हैं कि अभी और जीवित रहेंगे पर जानते हुए जैसे विवाह शादियों में निमंत्रण भेजा करते हैं इसी तरह मृत्यु का निमंत्रण नहीं होता। मृत्यु में ऐसा नहीं होता कि अमुक की मृत्यु अमुक दिन इतने समय पर होगी सो जब लोग आना। हाँ जन्म का तो करीब-करीब के दिनों का विश्वास रहता है कि 8 महीने का गर्भ है, एक महीने में होगा, पर मृत्यु के विषय में ऐसा नहीं है। तो मनुष्यगति नामक कर्म के उदय से जो मनुष्यपर्याय मिली है और मनुष्यों के लायक भाव हुआ करते हैं वह भव भी जीव का स्वरूप नहीं है।
सहजमुक्तस्वभाव के परिचय बिना मुक्ति का अनुद्यम―भैया ! अपने आपका सहज यथार्थस्वरूप जाने बिना छुटकारा नहीं हो सकता है। छूटना किसे है उसको ही न जाने तो छुटकारा किसे हो? छूटना किसे है? वह स्वरूप छूटा हुआ ही है ऐसा ज्ञान में न आए तो छूट नहीं सकता। जैसे गाय गिरमा से बंधी है, पर छोड़ने वाले को यह विश्वास है अंतर में कि यह गाय तो पहिले से ही छूटी हुई हैं। अपने स्वरूप में केवल गिरमा के एक छोर का दूसरे छोर से संबंध है, इसका तो मुक्त स्वभाव है। अब वह बाहरी बंध टूट गया कि गाय जैसी छूटी थी वैसी छूटी हुई अब और प्रकट हो गई। इसी प्रकार जीव के स्वरूप को जब हम निहारते हैं तो यह जीव तो स्वयं मुक्त ही है, अपने स्वरूप मात्र है, किसी दूसरे के स्वरूप को ग्रहण किए हुए नहीं है। ऐसा सहज एक अनादि मुक्त आत्मा के स्वभाव को जाने बिना मुक्त होने का कोई उद्यम नहीं कर सकता।
जीव में तिर्यग्भाव का अभाव―जैसे इस जीव में मनुष्यगति का स्वभाव नहीं है, वैसे ही तिर्यंच गति नामक नामकर्म के उदय से जीव तिर्यंच होता है अर्थात् तिर्यंच शरीर में जन्म लेता है और तिर्यंच भव के योग्य भावों को करता है। आज यह जीव मनुष्य है तो मनुष्य के योग्य परिणाम करता है। मनुष्यों में बैठना, मनुष्यों की जैसी बात करना और जैसे शृंगार परिग्रह संचय या अन्य प्रकार के संबंध व्यवहार जैसे मनुष्यभव में होते हैं वैसे परिणाम बनाता है और मरकर तिर्यंच बन गया तो कोई तिर्यंच शृंगार तो नहीं करता। कोई तिर्यंच परिग्रह का संचय नहीं करता। जैसे मनुष्य परस्पर में रिश्तेदारी का व्यवहार रखते हैं क्या वैसा संबंध तिर्यंचों में नहीं होता? होता है। जैसे ये मनुष्य संबंध मानते हैं वैसे ही तिर्यंचों में भी होता है, किंतु वहाँ रिश्तेदारी का व्यवहार नहीं है। तिर्यंचों में तिर्यंच जैसा भाव है। गाय, बैल हो गए तो गाय, बैल में ही ममत्व का भाव होगा। गाय, बैल जैसा भी भोजन का परिणाम होगा। तिर्यंच के भाव होना, तिर्यंचगति में जन्म होना यह सब भी जीव का स्वरूप नहीं है।
जीव में देवगति का अभाव―देवगति नामक नामकर्म के उदय से जीव देव देह को धारण करता है। वहाँ सर्वसिद्धि ऋद्धि रहती हैं, भूख प्यास की वेदनाएं नहीं होती, देवांगनावों में उनका रमण होता और उनके योग्य वहाँ भाव चलता है किंतु वह कुछ भी इस जीव का स्वरूप नहीं है। जीव तो सहज पने सत्त्व के कारण जैसा स्वरूप रखता है वह जीव है। इतनी झलक किसी क्षण हो जाय तो बेड़ा पार है। इतनी झलक हुए बिना जीव को सारी विडंबनाएं हैं और व्यर्थ ही परिग्रह संचय करके चेतन अचेतन का ममत्व करके अपना यह समय गुजार रहा है। तो चारों प्रकार की गतियों के भावों के स्थान भी जीव के नहीं हैं। यह औदयिक भाव है।
जीव की कषायभावों से विविक्तता―यह प्रकरण चल रहा है जीव के शुद्ध भाव का। जीव का वास्तविक स्वरूप क्या है, उसका उसके ही कारण से कैसा स्वरूप है उसे बताते हुए आचार्यदेव कह रहे हैं कि जीव के न क्षायिक भाव के स्थान हैं, न क्षायोपशमिक भाव के स्थान हैं, न औदयिक भाव के स्थान हैं और न औपशमिक भाव के स्थान हैं। चारों कषायें औदयिक भाव हैं। जीव के स्वरूप हों तो जीव को शांति के ही कारण बनें। जीव का स्वरूप जीव को अशांति का कारण नहीं होता। किसी भी पदार्थ का स्वरूप उस पदार्थ को बरबाद करने के लिए नहीं होता। स्वरूप तो पदार्थ का अस्तित्व बनाए रखने के लिए है अथवा हैं, दूसरी बात यह है कि कषाय भाव अस्थिर भाव हैं।
जीव में कषायभावों की अप्रतिष्ठा―कोई क्रोध बहुत समय तक नहीं कर सकता। कोई घंटाभर क्रोध करे―ऐसा तो नहीं देखा जाता है। कभी कोई क्रोध में बना भी रहे तो भी सूक्ष्म वृत्ति से उसके अंदर नंबर बदलता रहता है। क्रोध, मान, माया व लोभ―इन चार कषायों में से कोई एक कषाय भी अंतर्मुहूर्त से ज्यादा नहीं टिक सकती। कोई क्रोध कर रहा होगा तो अंतर्मुहूर्त में ही क्रोध परिणाम बदल जायेगा, मान आदिक हो जायेंगे। किसी भी कषाय में हो, वह कषाय अंतर्मुहूर्त से ज्यादा नहीं चलती है, किंतु ज्ञानभाव यह सदा चलता रहता है। कोईसी भी कषाय हो, ज्ञान सदा रहता है। इससे यह सिद्ध है कि कषाय जीव का स्वरूप नहीं है, किंतु ज्ञान जीव का स्वरूप है। क्रोध गुस्से का नाम है, मान अहंकार का नाम है, माया छल-कपट को कहते हैं और लोभ पर को अपनाने को कहते हैं। यह मेरा है अथवा उसकी तृष्णा लगी हो, यह सब लोभ है। ये चार कषायें क्रोध, मान, माया, लोभ नामक मोहनीय कर्म की प्रकृति के उदय से होती है। इस कारण कषायभावों के स्थान भी जीव के स्थान नहीं हैं।
जीव में वेदभाव का अभाव―लिंग भाव अर्थात् पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुसंकवेद। परिणाम भी वेदनामक मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं, ये परिणाम दु:ख के लिए होते हैं, स्वरूपविस्मरण के कारण हैं, जीव को अपने शील से चिगाकर कुशील की स्थिति में बनाए रखता है। ये जीव के स्थान नहीं हैं।
मिथ्यात्व की विभावमूलता―मिथ्यादर्शन तो सर्व बरबादियों का मूल है। इन सब विभावों की उच्च सत्ता मिथ्यात्व है। जीव अपने स्वरूप को भूले और किसी परपदार्थ में अपना स्वरूप माना करे बस, इस भ्रम पर वे सर्व क्रोधादिक कषाय और सर्व विभाव इस मिथ्यात्व की भित्ति पर खड़े हुए हैं। जहां मिथ्यात्व हटा कि केवल कषाय भाव की फिर स्थिति नहीं रहती है, वह मिटने के ही सम्मुख रहता है। भले ही संस्कारवश कमाए जाने के कारण कुछ काल मिथ्यात्व के अभाव में भी रहे, किंतु वे कषायें अब आत्मा में प्रतिष्ठा नहीं पाती। कषाय भी है, किंतु वह ज्ञानी उन कषायों से विविक्त सहज चिदानंदस्वरूप अपने आत्मा में आत्मत्व की प्रतीति रखता है। जैसे कोई दूसरा विपत्ति का कारण तब बनता है, जब उसे अपनाए। इसी तरह ये कषाय भाव विपत्ति के कारण तब बनेंगे, जबकि कषाय भाव को अपनाए। ज्ञानी पुरुष उदय में आई हुई कषायों को अपनाता नहीं है, किंतु वियोग बुद्धि से उन्हें भोगता है। ये आए हैं कषाय भाव निकलने के लिए, सो निकल जाओ।
जीव में मिथ्याभाव का अभाव―भैया ! सब ज्ञान की महिमा है। गुप्त सरल सहज अपने स्वरूपरूप जो ज्ञानवृत्ति है, उसकी ही सारी मंगलमय महिमा है, किंतु वे ही किए जा रहे है पर माना अपने आपको कुछ और है। बैंकों में करोड़ों रुपयों का हिसाब रखने वालों के द्वारा उनकी रक्षा की सब बातें की जा रही हैं, किंतु वहाँ बैंकर को यह भ्रम नहीं होता कि यह सब मेरा स्वरूप है, मेरी चीज है, मेरा वैभव है। वह अपने को तो जानता है लोकपद्धति में, उतना ही विश्वास बनाए हुए है। पर रक्षा उसी प्रकार से है, जैसे धनी मालिक के द्वारा होती है। इसी प्रकार ज्ञानी जीव कहीं गृहस्थ में अव्यवस्था नहीं मचा डालता है। जब तक घर में रहता है, तब तक सब व्यवस्था बनाए रहता है, किंतु अपने शुद्धस्वभाव की ओर ही है कि मैं तो इन सबसे न्यारा केवल ज्ञानमात्र हूं―ऐसे ज्ञानीसंत के उपयोग में आए हुए निजअंतस्तत्त्व के यह औदयिक भाव स्थान नहीं है―ऐसी प्रतीति में पड़ा हुआ है।
जीव में औदयिक अज्ञानभाव और असिद्धित्वभाव का अभाव―ज्ञान के कम होने का नाम अज्ञान है। यह औदयिक अज्ञान है। क्षायोपशमिक अज्ञान के खोटे ज्ञान का नाम कुज्ञान है और ज्ञान की कमी रूप औदयिक अज्ञान का नाम औदयिक अज्ञान है। यह ज्ञानभाव 12वें गुणस्थान तक होता है। यह ज्ञान की कमी रूप, अभावरूप अज्ञान भी जीव का स्वरूप नहीं है। असंयम―संयमरूप प्रवृत्ति न होना, विषयों में निरर्गल बने रहना―ऐसी जो विषयकषायों की वृत्तियां हैं, वे असंयम कहलाती हैं। असंयम भाव जीव का स्वभाव नहीं है, स्वरूप नहीं है। असिद्धभाव―सिद्ध न होना, संसार में बने रहना अथवा कर्मसहित रहना आदि भी जीव का स्वभाव नहीं है। यह असिद्धपना 14वें गुणस्थान तक माना गया है। जब तक कर्म कुछ भी शेष हैं, तब तक उसे असिद्ध माना है।
उपाधिवश लेश्यावों का लेप―6 लेश्याएं कृष्ण नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या, ये परिणाम भी जीव के स्थान नहीं है, जीव के स्वभाव नहीं है। ऐसा सोचते हुए यह भाव करना चाहिए कि यह लेश्या मेरा भाव नहीं है। होती हैं। जैसे सिनेमा का पर्दा स्वच्छ है, सफेद है पर उपाधि जब सामने आती है, फिल्म जब सामने चल रही है तो उस पर्दे पर वे चित्र विचित्र सब रंग आते हैं। आए, मगर पर्दे का स्वभाव नहीं है कि वह चित्रित हो जाय। उस पर्दे पर विचित्र होने का स्वभाव नहीं है। इसी तरह यह आत्मस्वरूप का ज्ञान स्वच्छ है, पर उपाधि का जब सन्निधान है तब इस जीव में नाना विषय कषायों के परिणाम होते हैं। वे विषयकषायों के परिणाम जीव के स्वभाव नहीं हैं। जो पुरुष अपने आपको स्वरूपदृष्टि करके अभी भी मुक्त निरख सकते हैं। वे ही जीव पर्याय अपेक्षा भी मुक्त हो सकेंगे। जो यह जानते हों कि मैं तो ऐसा ही मलिन कुछ हूं, वह मलिन ही रहा करता है। जिसे अपने स्वभाव की उत्कृष्टता का पता नहीं है, वह स्वभाव विकास नहीं कर सकता।
पराश्रयता में क्लेश की अनिवार्यता―स्वभावाश्रय का काम करना हम आप लोगों को पड़ा है और सच पूछो तो इसीलिए हम आप मनुष्य हैं―ऐसा भाओ। काम के लिए मनुष्य नहीं है और काम तो चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात है। मिल रहे हैं ये और मानों इस ही भव में बड़े धनी थे, अब धनी नहीं रहे―ऐसी भी स्थिति आ जाए तो भी उससे क्या बिगड़ा? पहिले साधारण थे, अब धनिक हो गए तो इससे अपनी महिमा नहीं जाननी चाहिए, अपने में हर्षमग्न न होना चाहिए। ये सुख दु:ख और संपत्ति विपत्ति तो एक समान बेड़ी हैं। चाहे लोहे की बेड़ी पड़ी हो, परतंत्रता दोनों में समान है। आप यहाँ देख लो कि चाहे लाखों का वैभव हो और चाहे 100 रु. वाला खोमचा लगाकर गुजर बसर करता हो, परतंत्रता दोनों पुरुषों में एक समान है। ये लखपति पुरुष क्या स्वतंत्र नहीं हैं? नहीं। क्या वे स्त्री-पुत्र, धन-वैभव आदिक से कल्पनाओं द्वारा बंधे हुए नहीं हैं। क्या ये दूसरों के प्रसन्न रखने की चेष्टा नहीं करते हैं? करते हैं। गरीबों से भी अधिक करते हैं। परतंत्रता सर्वत्र ही समानरूप से विद्यमान है। चाहे कुछ भी सुख दु:ख हो, संपदा हो या वैभव हो।
आत्माश्रयता के अर्थ मानवजन्म―भैया ! अब तो समझों कि हम इस गुंतारे के लिए मनुष्य नहीं हुए हैं, किंतु अपने आत्मा की स्वभाव दृष्टि को दृढ़ करके उसमें स्थिरता बनाकर अपना कर्मभार दूर कर लें। जो काम अन्य भावों में नहीं किया जा सकता वह काम मनुष्यभव में कर लें। अन्य सब काम तो अन्य भवों में भी किए जा सकते हैं। बच्चों का प्यार क्या गाय बनकर नहीं किया जा सकता, क्या पक्षी बनकर नहीं किये जा सकता? रही यह बात कि ये दो पैर के पक्षी हैं। अरे ! तो जैसे बच्चे होंगे, उन्हीं में ही प्रेम करने लगेगा। क्या उदरपूर्ति, खाना-पीना, मौज करना, डकार लेना और पैर पसारकर सोना आदि क्या पशु बनकर नहीं किया जा सकते? पशुओं से बढ़कर हममें कौनसी बात हो गई है? इस पर जरा ध्यान तो दें, वह हो सकती है रत्नत्रय की होने वाली बात। समागम में आए हुए सब जीवों को उनके ही भाग्य पर छोड़ दें, अंतरंग के विश्वास के साथ अर्थात् उनसे अपना भार न मानें। आप उनके पालने के कारण भी हो रहे हों। यदि वे जानें कि भार इनका मुझ पर कुछ नहीं है। इनका उदय ही है, इसलिए यह सब हो रहा है। यों अपने को निर्भार मानकर जो निजस्वरूप की सेवा में रहेगा, उसे उजाला मिलेगा, प्रभुस्वरूप का दर्शन होगा, वे अपने आपकी प्रगति कर सकेंगे। जो अपने स्वरूप को भूले हुए हैं और जो बाह्य को ही सब कुछ मान रहे हैं, उन सबका कुछ सुधार नहीं हो सकता है।
जीव में लेश्यांत सर्वऔदयिकभावों का अभाव―ये छहों प्रकार की लेश्याएं क्या हैं? ये बाह्यपदार्थविषयक कुछ कल्पना ही तो हैं। कृष्णलेश्या में पुरुष क्रोधी, बकवाद करने वाला, गालीगलौज देने वाला सबका अप्रिय बनता है। नीललेश्या में यह-यह जीव अपने विषयों का तीव्र अनुरागी रहता है। कपोतलेश्या में यह जीव मान, प्रतिष्ठा, यश की धुनि बनाए रहता है। पीत शुक्ललेश्या में शुभ भाव होते हैं, किंतु ये सभी के सभी भाव उदयस्थान हैं। कर्मों के उदय का निमित्त पाकर हुए हैं। ये जीव के स्वभाव भाव नहीं हैं।
जीव में औपशमिकभावस्थानों का अभाव―इसी प्रकार औपशमिक भाव दो प्रकार के होते हैं―औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र। यद्यपि ये जीव की निर्मलता के भाव हैं, फिर भी ये कर्म के उपशम का निमित्त पाकर होते हैं और रह भी नहीं सकते। इसलिए औदयिक के समान औपशमिक भाव के स्थान भी जीव के नहीं हैं। जीव तो इन चारों भावों से परे शुद्धपारिणामिक भावरूप है, अपने ज्ञानानंदस्वरूप है। सो अपने आपकी जिसे पहिचान है, वह अपने को आनंद से भोगता है और कर्मों के भार से दूर होता है।
जीव की शुद्धपारिणामिकभावस्वरूपता―जीव के निज तत्त्वों में से चार तत्त्वों का वर्णन हुआ है―औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और औपशमिक। अब पंचम भाव जो पारिणामिक है, उसका वर्णन करते है। जीव के भाव कहने से भाव के दो अर्थ लेना―गुण और पर्याय। चार भाव तो सब पर्यायरूप ही थे, वे गुणरूप नहीं हैं। पारिणामिक भाव तो गुणरूप हैं और उनमें से भी शुद्ध जीवत्व शुद्धगुणरूप है और अशुद्ध जीवत्व, भव्यत्व और पारिणामिक आदि पर्यायों की योग्यता रूप हैं। जीवत्व भाव उसे कहते हैं कि जिसके कारण यह जीव चैतन्यस्वरूप करके जीवित रहे अथवा व्यवहार जीवत्व उसे कहते है कि जिस भाव के कारण यह जीव 10 द्रव्य प्राणोंकर जीवित था, जीवित है अथवा जीवित रहेगा। भव्यत्व भाव रत्नत्रय के पाने की योग्यता को व अभव्यत्वभाव रत्नत्रय के प्राप्त करने की योग्यता न होने को कहते हैं। इनमें से जीवत्व नाम का पारिणामिक भाव भव्य और अभव्य दोनों में एक समान रूप से रहता है। भव्यत्व नामक पारिणामिकभाव भव्य जीवों के ही होता है और अभव्यत्व नामक पारिणामिक भाव अभव्यजीवों के ही होता है। इस प्रकार पारिणामिक भाव का भी संक्षेप में वर्णन हुआ।
क्षायिकभाव की कार्यसमयसाररूपता―अब इन 5 भावों में से यह विचार करें कि मोक्ष का कारण कौनसा भाव है? क्षायिकभाव तो मोक्ष स्वरूप है, कार्यसमयसाररूप है वह तो मोक्ष का कारण नहीं है किंतु मोक्ष रूप है। उसमें जो पहिली अवस्था के भाव है जबकि सभी क्षायिक भाव नहीं उत्पन्न हुए किंतु जैसे क्षायिक सम्यक्त्व हुआ है तो वह मुक्ति का कारणरूप भाव है। यह कार्यसमयसाररूप क्षायिक भाव केवलज्ञानी पुरुषों के होता है, तीर्थकर प्रभु के होता है, जो तीन लोक के जीवों में आनंद की खलबली मचा देने वाला तीर्थंकर नामक प्रकृति से उत्पन्न हुआ है ऐसे केवलज्ञानसहित तीर्थनाथ के भी क्षायिकभाव है और सामान्य केवली के भी क्षायिकभाव है और भगवान् सिद्ध के भी क्षायिक भाव है।
क्षायिकभाव की सावरणयुक्तता―यह क्षायिक भाव सावरण जीवों में होता है अर्थात् आवरण सहित जीवों में क्षायिक भाव होता है। पूर्ण निरावरण सिद्ध भगवान् है। सिद्ध भगवान् में क्षायिकभाव कहना नैगमनय की अपेक्षा है साक्षात् में क्षायक को नहीं कह सकते क्योंकि क्षायिक का वास्तविक अर्थ यह है कि कर्मों के क्षय का निमित्त पाकर जो भाव उत्पन्न होता है उसे क्षायिकभाव कहते हैं। तो कर्मों के क्षय का तो एक ही समय है नहीं, सिद्ध भगवान् में क्या कर्मों का क्षय हो रहा है? वहाँ कर्म है ही नहीं और अरहंत भगवान् में भी एक बार घातियाकर्मों का क्षय होने के बाद क्या उनके घातियाकर्मों का निरंतर क्षय होता रहता है? नहीं होता है। तो क्षय का निमित्तमात्र पाकर होने वाले भाव का नाम क्षायिक भाव है। सो क्षायिक भाव का नाम वास्तव में क्षय के निमित्त होने के समय है। पश्चात् भी क्षायिकभाव कहना यह नैगमनय से कहा जाता है। चूंकि पहिले क्षायक हुआ था और उस क्षय के कारण यह भाव प्रकट हुआ, वह सदृश परिणमता हुआ चला आ रहा है अत: क्षायिक है, ऐसा उपचार से कहा जाता है और जिस काल में क्षायक भाव उत्पन्न हो रहा है उस काल में यह जीव आवरण सहित है। चार अघातिया कर्मों का आवरण लगा है, देह का आवरण लगा है, तो ऐसे आवरण सहित जीवों में क्षायिक भाव होने के कारण यह भी मुक्ति का कारण नहीं है। यहाँ मुक्ति का कारणरूप भाव मुक्त होने से एक समय पहिले का ले लो।
मुक्तिकारणता―औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव तो संसारी जीवों के ही होते हैं। मुक्त जीवों के तो होते नहीं है। मुक्त जीवों के उपचार से भी औपशमिक भाव नहीं कहा गया है। एक दृष्टि से ये चारों भाव मुक्ति के कारण नहीं हैं किंतु एक पारिणामिक भाव जो उपाधि रहित है, निरावरण है, आत्मस्वभावरूप है, निरंजन है, उत्कृष्ट है, ऐसा जो चित्स्वभावरूप, जीवत्वरूप जो पारिणामिक भाव है, उसकी भावना करने से यह जीव मुक्ति को प्राप्त होता है। तब एक दृष्टि से मुक्ति का कारण कोई भी भाव नहीं रहा। पारिणामिक भाव तो अपरिणामी है, कार्यकारण से भेद से रहित है, उसे मुक्ति का कारण नहीं कहा जा सकता है। शेष जो चार भाव हैं, वे सावरण जीवों के होते हैं। तब फिर निर्णय क्या करना कि पारिणामिक भाव की भावना मोक्ष का कारण है और यह भावना औपशमिक, क्षायिक और क्षयोपशमिक भावरूप होते हैं, सो इस दृष्टि से ये तीन भाव मोक्ष के कारण हैं।
स्वभावाश्रय की मुक्तिकारणता―औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव की मुक्तिकारणता का स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि अपने आपका जो सनातन अहेतुक चैतन्यस्वभाव है, इस चैतन्यस्वभाव की आराधना मुक्ति का कारण है। अपना उपयोग बाह्यपदार्थों में न चले और रागद्वेष का कारण न बने तो यह उपयोग अपने स्वभाव में लग सकता है। जहां उपयोग अपने स्वभाव को छोड़कर खुद को भी सामान्यरूप कर डाले। बस ! ऐसे उपयोग की सामान्य बर्तना मुक्ति का कारण है। इन संकटों से छूटना है व ये संकट बाह्यपदार्थों में दृष्टि गड़ाने से आते हैं। संकट वास्तव में कुछ है ही नहीं। संकट मात्र इतना ही है कि हम बाह्यपदार्थों की परिणति को देख करके अपने आपमें गुंतारा लगाया करते हैं। ये इष्ट अनिष्ट की भावना से दु:खी हो रहे हैं।
अज्ञानहठ के परिहार में हित―जैसे कभी कोई बालक ऐसी हठ कर बैठता है कि यह अमुक यहाँ नहीं बैठे। अरे ! उस बालक का क्या बिगड़ गया? किंतु तब तक वह चैन नहीं लेता, जब तक वह उठकर उस स्थान से चला न जाए। जैसे जिससे कोई संबंध नहीं है, उस वस्तु के प्रति वह अज्ञानी बालक हठ करता है। इसी तरह यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि भी परपदार्थों की परिणतियां निरखकर अपनी हठ बनाए रहता है और उसमें दु:खी होता रहता है। केवल अपने स्वरूप को निरखें और धारण में यह रखें कि मैं सबसे न्यारा स्वतंत्र स्वरूप सत्तामात्र परिपूर्ण तत्त्व हूं। इसको फिर करने का क्या काम है?
ज्ञानानंदात्मक आत्मस्वरूप के आश्रय का प्रताप―भैया ! अपना परिपूर्ण भाव जो अपने में सनातन सत् अहेतुक स्वभाव विराजमान है, उसके आलंबन से मुमुक्षु जीव पंचमगति को प्राप्त होते हैं, प्राप्त होंगे और प्राप्त हुए थे। इस कारण परमआनंद के निधान उस पंचमगति की प्राप्ति की जिन्हें वांछा है, उनका एक ही मात्र स्वभावाश्रय का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। मैं मात्र ज्ञानस्वरूप हूं, ज्ञानानंदमात्र हूं। ज्ञान और आनंद दोनों परस्पर में अविनाभावी हैं। यदि यह कह दिया जाए कि मैं ज्ञानस्वरूप हूं तो भी उसका अर्थ यह है कि मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूं, और कभी यह कह दिया जाए कि मैं आनंदस्वरूप हूं तो भी उसका अर्थ यह है कि मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूं। इसकी साधना करने वाले पंच आचारों के पालनहार आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी होते हैं। ये तो परिपूर्ण अधिकारी होते हैं, किंतु जो गृहस्थजन हैं, वे भी इस पारिणामिक भाव की दृष्टि के अधिकारी होते हैं।
सहजसत्यन्याय―अहो ! कैसा यह न्याय है अपने आपके अंतर का कि जहां दृष्टि मुड़ी और सबसे भिन्न ज्ञानमात्र अपने आपको तका कि वहाँ इसके संकट दूर हो जाते हैं और बाह्यपदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि हुई कि यह संकटों से घिर जाता है? सर्वसंकटों से मुक्त होने के लिए एकमात्र यह उपाय है कि अपने आपके स्वभाव की दृष्टि रक्खें। अभी कोई दुष्ट पुरुष किसी बड़े घराने के आदमी को गाली देता हो और वह भी कुछ गाली देने को तैयार हो तो लोग समझाते है कि तुम बड़े कुल के हो, तुम्हारे कुल का ऐसा स्वभाव नहीं है कि दुष्ट के साथ दुष्ट बन जाओ। इसी प्रकार से ज्ञानीजन अपने आपको समझाते है कि तुम्हारा तो भगवान् की तरह चैतन्यस्वभाव है, तुम ज्ञायकमात्र हो, तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा है। बाह्यपदार्थों में इष्ट और अनिष्ट बुद्धि बनाते फिरना तुम्हारा स्वभाव नहीं है। संसार में रुलने वाले जीव इष्ट अनिष्ट भावों में बहे जा रहे हैं।
परमार्थशरण का शरण स्मरण―भैया !हम सब जीवों को शरण है तो अपना स्वभावपरिज्ञान शरण है। जैसे जिस सिंह को स्वभावविस्मरण हो गया। बचपन से ही गडरियों की भेड़ों के बीच में पलता रहा हैं। इस कारण जब तक उसे अपने स्वभाव का विस्मरण है, तब तक गडरिये के वश में है। वह गडरिया जहां चाहे कान पकड़कर उसे बाँध देता है, किंतु ज्यों ही उसे किसी कारण से स्वभाव का स्मरण हो आया, दूसरे सिंह को दहाड़ते हुए देख लिया, छलांग मारते हुए देख लिया किसी भी प्रकार से उस सिंह को स्वरूप स्मरण हो जाए तो फिर वह परतंत्रता में नहीं रह सकता। वह छलांग मारकर स्वतंत्र हो जाता है। इसी प्रकार संसारी जीव को अपने स्वभाव का विस्मरण है, इस कारण वह परतंत्र है। इसे बैठे ही बैठे कुछ भीतर आता जाता कुछ नहीं है बाहर से, किंतु अपने आप ही कल्पनाएं मचाकर दु:खी हुआ करता है। सो आकिंचन्य भाव बनाकर अपने आपमें विराजमान् अपनी प्रभुता के दर्शन करके उसकी ही दृष्टि रखकर मुक्ति का मार्ग अपना बनाना चाहिए।
विधिनिषेध से अनवस्थित और अवस्थित वस्तुनिर्णय―वस्तु का निर्णय सप्रतिपक्ष भाव में होता है। किसी भी वस्तु को जब हम आँख से देखते हैं तो भीतर में यह श्रद्धा रहती है कि यह पदार्थ यह है, यह पदार्थ अन्यरूप नहीं है। बोलने चालने का भी मौका नहीं पड़ता है। अगर कोई विवाद करे तो बोला जाता है, पर प्रत्येक पदार्थ को देखते ही उसके संबंध में अस्ति और नास्ति की पद्धति से परिज्ञान होता है। जब मैं अपने बारे में अस्ति से सोचता हूं तो मैं ज्ञानमात्र ही ध्यान में रहता हूं। जब नास्ति से सोचता हूं तो मैं देह से न्यारा, रागद्वेष से न्यारा और मन, वचन से न्यारा सर्व से विविक्त हूं―ऐसा अपने आपके ध्यान करने के लिए और अधिक शब्द न सोचें जायें तो इतना ही सोचा जाए कि मैं देह से भी न्यारा ज्ञानमात्र हूं इसे बड़ा अध्यात्म मंत्र समझिये।
मुमुक्षु का अंतर्भावना विहार―अपने आपके मर्म तक पहुंचने के लिए सुगम भावना है तो यही है कि मैं देह से भी न्यारा ज्ञानमात्र हूं। कोई विरुद्ध भावना न भायी जाये और ऐसा ही अपने आपको निरखा जाय तो देह से न्यारा हूं―ऐसी देह की भी चर्चा छूटकर केवल ज्ञानमात्र हूं, केवल ज्ञानमात्र हूं―ऐसी भावना रहेगी। वह नास्ति वाला पक्ष दूर हो गया, अब केवल अस्ति वाला पक्ष रहा। मैं ज्ञानमात्र हूं, पर जैसे-जैसे इस ज्ञान की अनुभूति में प्रवेश होता है तो मैं ज्ञानमात्र हूं―ऐसी भी धारणा उसकी छूट जाती है और वहाँ फिर ज्ञानानुभव का ही आनंद अनुभवा जाता है। यों अपने में आकिंचन्य भाव बढ़ाकर और ज्ञानमात्र हूं, इस प्रकार की भावना करके पारिणामिक भाव की उपासना करे तो इस पारिणामिक भाव की उपासना के प्रसाद से इन समस्त मुमुक्षु जीवों को मुक्ति की प्राप्ति होती है।
शुभ भावों की शिव व विषम परिस्थितियां―दान, पूजा, उपवास, शील, व्रत, तप ये मन की प्रवृत्तियां हैं। ये शुभ प्रवृत्तियां हैं ये अशुभ भावों को पछारने वाली प्रवृत्तियां है। इन शुभ भावों में लगने वाले पुरुष को विषयों की इच्छा और अन्य पदार्थ विषयक कषाय नहीं उत्पन्न होता है। तो तीव्र कषायों से और विषय वांछावों से बचाने वाली, इस आत्मा की रक्षा करने वाली परिणति है शुभ भावों की परिणति। सो शुभ भाव तो हमें पापों से बचा देते हैं, किंतु वे शुभ भाव भोगियों के भोग के कारण हैं। उन भावों से पुण्य बंध होता हैं जब पुण्य का उदय आया तो इसे भोग के साधन प्राप्त होते हैं। उस काल में यदि विवेक है, सावधानी है, ज्ञान सजग है तब तो इसकी कुशलता है और विवेक न रहा तो भोगों को पाकर अधोगति होती है। भोगों में आसक्त रहने वाला पुरुष सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता बल्कि 7 वें नरक का नारकी सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। धर्म की दृष्टि में भोगों में आसक्ति हुआ मनुष्य सप्तम नरक के नारकों से भी पतित है।
शुद्धभाव में सर्वत्र निरापदता―भैया ! पुण्य का उदय आने पर यदि ज्ञान नहीं रह सका तो इसकी दुर्गति होती है। तो शुभ भावों की तो ऐसी कहानी है। अशुभ भावों की कहानी स्पष्ट ही है। पाप के परिणाम हों, विषय भोगों के भाव हों, दूसरों को नष्ट करने का परिणाम होता हो तो यह साक्षात् पापरूप भाव है। वर्तमान में भी तीव्र क्षोभ है और इसके उदयकाल में भी तीव्र क्षोभ है और इसके उदयकाल में भी उसे तीव्र क्षोभ होगा। पर एक धर्मभाव की परिणति अर्थात् पारिणामिक भावरूप परमतत्त्व के अभ्यास की परिणति ऐसी शुद्धपरिणति है कि इस भाव की भावना में निष्णात हो जाय कोई योगी तो वह संसार से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस कारण शुभकर्म भी छोड़ने योग्य है और अशुभकर्म भी छोड़ने योग्य हैं। एक शुद्ध सहज क्रिया सहज स्वभाव की दृष्टि और उसही के रमणरूप क्रिया ही एक उपादेय हैं।
भावों का दान उपादान―शुभ अशुभ परिणति छूटने का यह क्रम है कि पहिले अशुभ भाव छूटता है फिर शुभ भाव छूटता है और शुद्ध तत्त्व का आश्रय होता है। पश्चात् उस शुद्ध तत्त्व का आश्रय करने रूप भी अंत: श्रम नहीं रहता है। फिर धर्म आदिक द्रव्यों की तरह स्वयमेव ही शुद्ध आत्मावों में स्वभावपरिणमन चलता है। यहाँ प्रकरण चल रहा है कार्यसमयसार और कारणसमयसार का। कार्यसमयसार तो है अरहंत और सिद्धदेव का परिणमनरूप शुद्ध विकास और कारणसमयसार है वह चैतन्यस्वरूप, जो चैतन्यस्वरूप ही तो अरहंत और सिद्ध के शुद्ध विकास को प्राप्त हुआ है। वह कारणसमयसार सब जीवों में निरंतर अंत: प्रकाशमान् है। कोई इसको देख सके तो देख ले, कोई नहीं देख सकता तो न देखे, मगर कारणसमयसार अर्थात् आत्मा का स्वरूप चित्स्वभाव निश्चल है।
कार्यसमयसार व कारणसमयसार की उपासना―भैया ! अपने में दोनों समयसारों का आराधन करना है। कार्यसमयसार अर्थात् अरहंत सिद्धदेव के अंतरंग परिणति, उसकी भी सेवा करना, उसकी भी पूजा प्रतीति करना और कारणसमयसार की भी पूजा करना―इन दोनों में भी कारणसमयसार की उपासना तो इस जीव का स्वयं का सब कुछ स्वरूप है। कारणसमयसार भी यह स्वयं है और कारणसमयसार की उपासना भी यह स्वयं है, किंतु कार्यसमयसार तो प्रभु है, पर विषय है और उनकी उपासना करना, यह एक अपना परिणमन है और यह भेदरहित है। पूजने वाला यह मैं और पूजने में आया हुआ है अरहंत सिद्धरूप परद्रव्य। सो अरहंत सिद्ध की जो पूजा है वह वास्तविक मायने में अपनी पूजा है। उस पूजा के द्वारा अपने आपके स्वरूप को पहिचान कर कारणसमयसार का साधक बन जाय और वैसा कारणसमयसार कार्यसमयसार की कल्पना से रहित केवल एक ज्ञान सामान्य रूप अपना परिणमन करें।
गृहस्थों का धार्मिक कर्तव्य―अपना कल्याणमय परिणमन बनाने के लिए कर्तव्य यह है कि दोनों समयसारों की हम पूजा करें और उसमें भी गृहस्थावस्था में जो 6 आवश्यक कर्तव्य बताए गए हैं उन 6 आवश्यक कर्तव्यों में बराबर सावधान रहें।
देवपूजा―देवपूजा प्रात: उठकर स्नान कर शुद्ध होकर जिसको जितनी फुरसत जैसी सुविधा मिले उसके अनुसार दर्शन करे, पूजन करे। दर्शन तो एक स्वाधीन पूजन है अथवा निरालंब पूजन है। द्रव्य सालंबन पूजन है और भावमात्र से पूजन करें तो वह निरालंब पूजन है। द्रव्य का आश्रय इस कारण लिया जाता है कि उसमें समय अधिक व्यतीत हो और उस प्रकार की पूजा में अधिक समय तक हम प्रभु की याद रख सकें और इतने अधिक समय तक धर्ममय जीवन चले। तो जिसको जैसी सुविधा हो वह वैसी और उतनी पूजा करे।
गुरूपास्ति, स्वाध्याय व संयम―दूसरा कर्तव्य है गुरुवों की उपासना करना। जैसे उनके चित्त का प्रासाद बन सके उस प्रकार वैयावृत्ति करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना यह सब है गुरूपासना। स्वाध्याय―ग्रंथ पढ़कर, ग्रंथ सुनकर अथवा उपदेश देकर अथवा पाठ याद करके किन्हीं भी विधियों से ज्ञान की वृद्धि करना सो स्वाध्याय है। संयम अपने भोजनपान आदिक कार्यों में कुछ न कुछ संयम बनाए रहना जिससे स्वच्छंद होकर न भूलें। प्राणियों की रक्षा करना, देखकर चलना, किसी जीव का घात न हो जाय, न्याय से रहना, किसी मनुष्य पर अन्याय न करना, अपने इंद्रिय विषयों में स्वच्छंद न प्रवर्तना यह सब संयम है।
तप और दान―समय-समय पर जितना जब ख्याल रहे, जितना बन सके अपनी इच्छा तोड़ना। जैसे कोई इच्छा हुई कि आज हमें खीर खाना है तो उसके बाद ही यह नियम करें कि आज हमारा खीर का त्याग है, क्यों ऐसी विरुद्ध इच्छा हुई? अरे जो भोजन मिल गया ठीक है उसके लिए उद्यम करना, परिश्रम करना और फिर फल इतना है कि स्वाद लिया, थोड़ा पेट भरा। एक उदाहरण की बात कही है। विषयों के संबंध में कोई इच्छा जगे तो उसका नियम कर लेना, क्यों ऐसी इच्छा जगी? अथवा गृहस्थ के दो तप हैं। जो आय हो उसके भीतर ही व्यवस्था बनाकर गुजारा करके धर्मबुद्धि में प्रवर्तना और अधिक संचय की इच्छा न करना। दूसरे जिस समय संयोग है उस संयोग के काल में भी ऐसी भावना रखना कि उनका कभी न कभी वियोग होगा। ये दो तप गृहस्थों के लिए बताए हैं और अंतिम कर्तव्य है दान। योग्य कार्य में, उपकार में अपना धन व्यय करना। ये 6 कर्तव्य गृहस्थों के हैं। इनसे पाप कटते हैं, शुभ भाव बनते हैं और शुद्ध दृष्टि करने की पात्रता बनती है।