जाति (न्याय): Difference between revisions
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<span class="SanskritText"> <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/मू./1/2/18 </span> साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जाति:।18। </span>=<span class="HindiText">साधर्म्य और वैधर्म्य से जो प्रत्यवस्थान (दूषण) दिया जाता है उसको जाति कहते हैं (<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/ न्या./309/456</span>)</span><br /> | <span class="SanskritText"> <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/मू./1/2/18 </span> साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जाति:।18। </span>=<span class="HindiText">साधर्म्य और वैधर्म्य से जो प्रत्यवस्थान (दूषण) दिया जाता है उसको जाति कहते हैं (<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/ न्या./309/456</span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/मू./2/203/233 </span><span class="SanskritText"> तत्र मिथ्योत्तरं जाति: [यथानेकांतविद्विषाम्]203।</span><br /> | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/मू./2/203/233 </span><span class="SanskritText"> तत्र मिथ्योत्तरं जाति: [यथानेकांतविद्विषाम्] |203।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/वृ./2/203/233/3 </span> <span class="SanskritText">प्रमाणोपपन्ने साध्ये धर्मे यस्मिन् मिथ्योत्तरं भूतदोषस्योद्भावयितुमशक्यत्वेनासद्दूषणोद्भावनं सा जाति:।</span> =<span class="HindiText">एकांतवादियों की भाँति मिथ्या उत्तर देना जाति है। अर्थात् प्रमाण से उपपन्न साध्यरूप धर्म में सद्भूत दोष का उठाना तो संभव नहीं है, ऐसा समझकर असद्भूत ही दोष उठाते हुए मिथ्या उत्तर देना जाति है। (<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/ </span>न्या.456/550/6)</span><br /> | <span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/वृ./2/203/233/3 </span> <span class="SanskritText">प्रमाणोपपन्ने साध्ये धर्मे यस्मिन् मिथ्योत्तरं भूतदोषस्योद्भावयितुमशक्यत्वेनासद्दूषणोद्भावनं सा जाति:।</span> =<span class="HindiText">एकांतवादियों की भाँति मिथ्या उत्तर देना जाति है। अर्थात् प्रमाण से उपपन्न साध्यरूप धर्म में सद्भूत दोष का उठाना तो संभव नहीं है, ऐसा समझकर असद्भूत ही दोष उठाते हुए मिथ्या उत्तर देना जाति है। (<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/ </span>न्या.456/550/6)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/10/112/18 </span><span class="SanskritText"> सम्यग्हेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते, झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिंबनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जाति: दूषणाभास इत्यर्थ:।</span> =<span class="HindiText">वादी के द्वारा सम्यग् हेतु अथवा हेत्वाभास के प्रयोग करने पर, वादी के हेतु की सदोषता की बिना परीक्षा किये हुए हेतु के समान मालूम होने वाला शीघ्रता से कुछ भी कह देना जाति है।<br /> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/10/112/18 </span><span class="SanskritText"> सम्यग्हेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते, झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिंबनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जाति: दूषणाभास इत्यर्थ:।</span> =<span class="HindiText">वादी के द्वारा सम्यग् हेतु अथवा हेत्वाभास के प्रयोग करने पर, वादी के हेतु की सदोषता की बिना परीक्षा किये हुए हेतु के समान मालूम होने वाला शीघ्रता से कुछ भी कह देना जाति है।<br /> |
Revision as of 08:37, 16 July 2021
- लक्षण
न्यायदर्शन सूत्र/मू./1/2/18 साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जाति:।18। =साधर्म्य और वैधर्म्य से जो प्रत्यवस्थान (दूषण) दिया जाता है उसको जाति कहते हैं ( श्लोकवार्तिक/4/ न्या./309/456)
न्यायविनिश्चय/मू./2/203/233 तत्र मिथ्योत्तरं जाति: [यथानेकांतविद्विषाम्] |203।
न्यायविनिश्चय/वृ./2/203/233/3 प्रमाणोपपन्ने साध्ये धर्मे यस्मिन् मिथ्योत्तरं भूतदोषस्योद्भावयितुमशक्यत्वेनासद्दूषणोद्भावनं सा जाति:। =एकांतवादियों की भाँति मिथ्या उत्तर देना जाति है। अर्थात् प्रमाण से उपपन्न साध्यरूप धर्म में सद्भूत दोष का उठाना तो संभव नहीं है, ऐसा समझकर असद्भूत ही दोष उठाते हुए मिथ्या उत्तर देना जाति है। ( श्लोकवार्तिक/4/ न्या.456/550/6)
स्याद्वादमंजरी/10/112/18 सम्यग्हेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते, झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिंबनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जाति: दूषणाभास इत्यर्थ:। =वादी के द्वारा सम्यग् हेतु अथवा हेत्वाभास के प्रयोग करने पर, वादी के हेतु की सदोषता की बिना परीक्षा किये हुए हेतु के समान मालूम होने वाला शीघ्रता से कुछ भी कह देना जाति है।
- जाति के भेद
न्यायदर्शन सूत्र/ मू./5/1/1/पृ.586 साधर्म्यवैधर्म्योत्कषायकर्षवर्ण्यावर्ण्यविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसंगप्रतिदृष्टांतानुत्पत्तिसंशयप्रकरणहेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमा:।1।= जाति 24 प्रकार की हैं–- साधर्म्यसम ;
- वैधर्म्यसम ;
- उत्कर्षसम ;
- अपकर्षसम ;
- वर्ण्यसम ;
- अवर्ण्यसम;
- विकल्पसम ;
- साध्यसम;
- प्राप्तिसम ;
- अप्राप्तिसम;
- प्रसंगसम;
- प्रतिदृष्टांतसम;
- अनुत्पत्तिसम;
- संशयसम;
- प्रकरणसम;
- हेतुसम;
- अर्थापत्तिसम;
- अविशेषसम;
- उपपत्तिसम;
- उपलब्धिसम;
- अनुपलब्धिसम;
- नित्यसम ;
- अनित्यसम और
- कार्यसम। ( श्लोकवार्तिक 4/न्या.319/461/3 )।
न्यायविनिश्चय/मू./2/207/234 मिथ्योत्तराणामानंत्याच्छास्त्रे वा विस्तरोक्तित:। साधर्म्यादिसमत्वेन जातिर्नेह प्रतन्यते।207। =(जैन नैयायिक जाति के 24 भेद ही नहीं मानते) क्योंकि मिथ्या उत्तर अनंत हो सकते हैं, जिनका विस्तार श्री पात्रकेसरी रचित त्रिलक्षण कदर्थशास्त्र में दिया गया है। अत: यहाँ उसका विस्तार नहीं किया गया है।