आदिपुराण - पर्व 18: Difference between revisions
From जैनकोष
(Created page with "<p>अथानन्तर समस्त लोक के अधिपति भगवान वृषभदेव शरीर से ममत्व छोड़कर...") |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="G_HindiText"> <h1>अष्टादशं | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ ग्रन्थ: आदिपुराण - पर्व 17 | पूर्व पृष्ठ ]] | [[ ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 17 | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ ग्रन्थ: आदिपुराण - पर्व 19 | अगला पृष्ठ ]] | |||
[[ ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 19 | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | </noinclude> | ||
Latest revision as of 14:37, 2 November 2021
अष्टादशं पर्व
अथानंतर समस्त लोक के अधिपति भगवान वृषभदेव शरीर से ममत्व छोड़कर तथा तपोयोग में सावधान हो मौन धारणकर मोक्षप्राप्ति के लिए स्थित हुए ।।1।। योगों की एकाग्रता से जिन्होंने मन तथा बाह्य इंद्रियों के समस्त विकार रोक दिये हैं और धीर-वीर महासंतोषी भगवान छह महीने के उपवास की प्रतिज्ञा कर स्थित हुए थे ।।2।। वे भगवान् सम, सीधी और लंबी जगह में कायोत्सर्ग धारण कर खड़े हुए थे । उस समय उनके दोनों पैरों के अग्र भाग में एक वितस्ति अर्थात् बारह अंगुल का और एड़ियों में चार अंगुल का अंतर था ।।3।। वे भगवान् कठिन शिला पर भी अपने चरणकमल रखकर इस प्रकार खड़े हुए थे मानो लक्ष्मी के द्वारा लाकर रखे हुए गुप्त पद्मासन पर ही खड़े हों ।।4।। वे अक्षर अर्थात् अविनाशी भगवान भीतर-ही-भीतर अस्पष्ट अक्षरों से कुछ पाठ पढ़ रहे थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो जिसकी गुफाएं भीतर छिपे हुए निर्झरनों के शब्द से गुंज रही हैं ऐसा कोई पर्वत ही हो ।।5।। जिसमें दोनों भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही हैं ऐसी अत्यंत प्रसन्न और उज्ज्वल मूर्ति को धारण करते हुए वे भगवान् मालूम होते थे मानो ध्यान की सिद्धि के लिए प्रशमगुण की उत्कृष्ट मूर्ति ही धारण कर रहे हों ।।6।। केशों का लोंच हो जाने से जिसका गोल परिमंडल अत्यंत स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था, जिसका ब्रह्मद्वार अतिशय दैदीप्यमान था और जो सूर्य के मंडल के साथ स्पर्द्धा कर रहा था, ऐसे शिर को वे भगवान् धारण किये हुए थे ।।7।। जो भौंहों के भंग और कटाक्ष अवलोकन से रहित था, जिसके नेत्र अत्यंत निश्चल और ओठ खेदरहित तथा मिले हुए थे ऐसे सुंदर मुख को भगवान् धारण किये हुए थे ।।8।। उनके मुख पर सुगंधित नि:श्वास की सुगंध से जो भ्रमरों के समूह उड़ रहे थे वे ऐसे मालूम होते थे मानो अशुद्ध (कृष्ण नील आदि) लेश्याओं के अंश ही बाहर को निकल रहे हों ।।9।। उनकी दोनों बड़ी-बड़ी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं और उनका शरीर अत्यंत दैदीप्यमान तथा ऊँचा था इसलिए वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अग्रभाग में स्थित दो ऊँची शाखाओं से सुशोभित एक कल्पवृक्ष ही हो ।।10।। तपश्चरण के माहात्म्य से उत्पन्न हुए अलक्षित (किसी को नहीं दिखने वाले) छत्र ने यद्यपि उन पर छाया कर रखी थी तो भी उसकी अभिलाषा न होने से वे उससे निष्ठित ही थे―अपरिग्रही ही थे ।।11।। मंद-मंद वायु से जो समीपवर्ती वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग हिल रहे थे उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो बिना यत्न के बुलाये हुए चमरों से उनका क्लेश ही दूर हो रहा हो ।।12।। दीक्षा के अनंतर ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था इसलिए मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञानों को धारण करने वाले श्रीमान् भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो जिसके भीतर दीपक जल रहे हैं ऐसा कोई महल ही हो ।।13।। जिस प्रकार कोई राजा मंत्रियों के द्वारा चर्चा किये जाने पर परलोक अर्थात् साधुओं के सब प्रकार के आना-जाना आदि को देख लेता हैं―जान लेता है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव भी अपने सुदृढ़ चार ज्ञानों के द्वारा सब जीवों के परलोक अर्थात् पूर्वपरपर्यायसंबंधी आना-जाना आदि को देख रहे थे―जान रहे थे ।।14।। इस प्रकार भगवान् वृषभदेव जब परम निःस्पृह होकर विराजमान थे तव कच्छ महाकच्छ आदि राजाओं के धैर्य में बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न होने लगा―उनका धैर्य छूटने लगा ।।15।। दीक्षा धारण किये हुए दो तीन माह भी नहीं हुए थे कि इतने में ही अपने को मुनि मानने वाले उन राजाओं ने परीषहरूपी वायु से भग्न होकर शीघ्र ही धैर्य छोड़ दिया था ।।16।। गुरुदेव―भगवान वृषभदेव के अत्यंत कठिन मार्ग पर चलने में असमर्थ हुए वे कल्पित मुनि अपना-अपना अभिमान छोड़कर परस्पर में जोर-जोर से इस प्रकार कहने लगे ।।17।। कि, अहा आश्चर्य है भगवान का कितना धैर्य है, कितनी स्थिरता है और इनकी जंघाओं में कितना बल है इन्हें छोड़कर और दूसरा कौन है जो ऐसा साहस कर सके ।।18।। अब यह भगवान् इस तरह आलस्यरहित होकर क्षुधा आदि से उत्पन्न हुई बाधाओं को सहते हुए निश्चल पर्वत की तरह और कितने समय तक खड़े रहेंगे ।।19।। हम समझते थे कि भगवान् एक दिन, दो दिन अथवा ज्यादा-से-ज्यादा तीन चार दिन तक खड़े रहेंगे परंतु यह भगवान् तो महीनों पर्यंत खड़े रहकर हम लोगों को क्लेशित (दुःखी) कर रहे हैं ।।20।। अथवा यदि स्वयं भोजन पान कर और हम लोगों को भी भोजन पान आदि से संतुष्ट कर फिर खड़े रहते तो अच्छी तरह खड़े रहते, कोई हानि नहीं थी परंतु यह तो बिल्कुल ही उपवास धारण कर भूख-प्यास आदि का कुछ भी प्रतीकार नहीं करते और इस प्रकार खड़े रहकर हम लोगों का नाश कर रहे हो ।।21।। अथवा न जाने किस कार्य के उद्देश्य से भगवान इस प्रकार खड़े हुए हैं । राजाओं के जो संधि, विग्रह आदि छह गुण होते हैं उनमें इस प्रकार खड़े रहना ऐसा कोई भी गुण नहीं पढ़ा है ।।22।। अनेक उपद्रवों से भरे हुए इस वन में अपनी रक्षा के बिना ही जो भगवान् खड़े हुए हैं उससे ऐसा मालूम होता है कि यह नीति के जानकार नहीं हैं क्योंकि अपनी रक्षा प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए ।।23।। भगवान् प्राय: प्राणों से विरक्त होकर शरीर छोड़ने की चेष्टा करते हैं परंतु हम लोग प्राणहरण करने वाले इस तप से ही खिन्न हो गये हैं ।।24।। इसलिए जब तक भगवान् के योग की अवधि है अर्थात् जब तक इनका ध्यान समाप्त नहीं होता तब तक हम लोग वन में उत्पन्न हुए कंद, मूल, फल आदि के द्वारा ही अपनी प्राणयात्रा (जीवन निर्वाह) करेंगे ।।25।। इस प्रकार कितने ही कातर पुरुष तपस्या से उदासीन होकर अत्यंत दीन वचन कहते हुए दीनवृत्ति धारण करने के लिए तैयार हो गये ।।26।। हमें क्या करना चाहिए इस विषय में मूर्ख रहने वाले कितने ही मुनि पूर्वापर (आगा-पीछा) जानने वाले भगवान् के चारों ओर समीप ही खड़े हो गये और अपने अंतःकरण को कभी निश्चल तथा कभी चंचल करने लगे । भावार्थ―कितने ही मुनि समझते थे कि भगवान् पूर्वापर के जानने वाले हैं इसलिए हम लोगों के पूर्वापर का भी विचार कर हम लोगों से कुछ-न-कुछ अवश्य कहेंगे ऐसा विचारकर उनके समीप ही उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये । उस समय जब वे भगवान् के गुणों की ओर दृष्टि डालते थे तब उन्हें कुछ धैर्य प्राप्त होता था और जब अपनी दीन अवस्था पर दृष्टि डालते थे तब उनकी बुद्धि चंचल हो जाती थी―उनका धैर्य छूट जाता था ।।27।। वे मुनि परस्पर में कह रहे थे कि जब भगवान् राज्य में स्थित थे अर्थात् राज्य करते थे तब हम उनके सो जाने पर सोते थे, भोजन कर चुकने पर भोजन करते थे, खड़े होने पर खड़े रहते थे और गमन करने पर गमन करते थे तथा अब जब भगवान् तप में स्थित हुए अर्थात् जब इन्होंने तपश्चरण करना प्रारंभ किया तब हम लोगों ने तप भी धारण किया । इस प्रकार सेवक का जो कुछ कार्य है वह सब हम पहले कर चुके हैं परंतु हमारे कुलाभिमान का वह समय आज हमारे प्राणों को संकट देने वाला बन गया है अथवा इस प्राण संकट के समय हमारे कुलाभिमान का वह काल नष्ट हो गया है ।।28-29।। जब से भगवान ने वन में प्रवेश किया है तब से हमने जल भी ग्रहण नहीं किया है । भोजन पान के बिना ही जब तक हम लोग समर्थ रहे तब तक खड़े रहे परंतु अब सामर्थ्यहीन हो गये हैं इसलिए क्या करें ।।30।। मालूम होता है कि भगवान् हम पर निर्दय हैं―कुछ भी दया नहीं करते, वे हम से झूठमूठ ही तपस्या कराते हैं, इनके साथ बराबरी की स्पर्धा कर क्या हम असमर्थ लोग को मर जाना चाहिए? ।।31।। ये भगवान् अब घर को नहीं लौटेंगे, इनके पक्ष का अनुसरण करने के लिए कौन समर्थ है ये स्वच्छंदचारी है इसलिए इनका किया हुआ काम किसी को नहीं करना चाहिए ।।32।। क्या मेरी माता जीवित है, क्या मेरे पिता जीवित हैं, क्या मेरी स्त्री मेरा स्मरण करती है और क्या मेरी प्रजा अच्छी तरह स्थित है ? ।।33।। इस प्रकार वहाँ ठहरने के लिए असमर्थ हुए कितने ही लोग अपने मन की बात स्पष्ट रूप से कहकर घर जाने की इच्छा से बार-बार भगवान् के सम्मुख जाकर उनके चरणों को नमस्कार करते थे ।।34।। कोई कहते थे कि अहा, ये भगवान बड़े ही धीर-वीर हैं इन्होंने अपनी आत्मा को भी वश कर लिया है और इन्होंने किसी-न-किसी कारण को उद्देश्य कर राज्यलक्ष्मी का परित्याग किया है इसलिए फिर भी उससे युक्त होंगे अर्थात् राज्यलक्ष्मी स्वीकृत करेंगे ।।35।। स्थिर बुद्धि को धारण करने वाले और बोलने वालों में श्रेष्ठ भगवान् वृषभदेव जब आज या कल अपना योग समाप्त कर अपनी राज्यलक्ष्मी से पुन: युक्त होंगे तब भगवान् के इस कार्य में जिन्होंने अपना उत्साह भग्न कर दिया है अथवा छल किया है ऐसे हम लोगों को अपमानित कर अवश्य ही निकाल देंगे और संपत्तिरहित कर देंगे अर्थात् हम लोगों की संपत्तियाँ हरण कर लेंगे ।।36-37।। अथवा यदि हम लोग भगवान् को छोड़कर जाते हैं तो भरत महाराज हम लोगों को कष्ट देंगे इसलिए जब तक भगवान् का योग समाप्त होता है तब तक हम लोग यहां सब कुछ सहन करें ।।38।। यह भगवान अवश्य ही आज या कल में सिद्धयोग हो जायेंगे अर्थात् इनका योग सिद्ध हो जायेगा और योग के सिद्ध हो चुकने पर अनेक क्लेश सहन करने वाले हम लोगों को अवश्य ही अंगीकृत करेंगे―किसी न किसी तरह हमारी रक्षा करेंगे ।।39।। ऐसा करने से हम लोगों को न तो कभी भगवान से कोई पीड़ा होगी और न उनके पुत्र भरत से ही । किंतु प्रसन्न होकर वे दोनों ही पूजा-सत्कार और धनादि के लाभ से हम लोगों को संतुष्ट करेंगे ।।40।। इस प्रकार कितने ही मुनि अंतरंग में क्षोभ रहते हुए भी धीरता के कारण दु:खी नहीं हुए थे और कितने ही पुरुष आत्मा को धैर्य देते हुए भी उसे उचित स्थिति में रखने के समर्थ नहीं हो सके थे ।।41।। अभिमान ही है धन जिनका ऐसे कितने ही पुरुष फिर भी वहाँ रहने के लिए तैयार हुए थे और निर्बल होने के कारण परवश जमीन पर पड़कर भी भगवान् के चरणों का स्मरण कर रहे थे ।।42।। इस प्रकार राजा अनेक प्रकार के ऊंचे-नीचे भाषण और संकल्प-विकल्प कर तपश्चरण संबंधी क्लेश से विरक्त हो गये और जीविका में बुद्धि लगाने लगे अर्थात् उपाय सोचने लगे ।।43।। कितने ही लोग अशक्त होकर भगवान् के मुख के सम्मुख देखने लगे और कितने ही लोगों ने लज्जा के कारण अपना मुख पीछे की ओर फेर लिया । इस प्रकार धीरे-धीरे स्खलित गति को प्राप्त हुए अर्थात्, क्रम- क्रम से जाने के लिए तत्पर हुए ।।44।। कितने ही लोग योगिराज भगवान् वृषभदेव से पूछकर और कितने ही बिना पूछे ही उनकी प्रदक्षिणा देकर और उन्हें नमस्कार कर प्राणयात्रा (आजीविका) के उपाय सोचने लगे ।।45।। हे देव, आप ही हमें शरणरूप हैं इस संसार में हम लोगों की और कोई गति नहीं है, ऐसा कहकर भागते हुए कितने ही पुरुष अपने प्राणों की रक्षा में बुद्धि लगा रहे थे―प्राणरक्षा के उपाय विचार रहे थे ।।46।। जिनके प्रत्येक अंग थरथर काँप रहे हैं ऐसे कितने ही लज्जावान पुरुष भगवान से पराङ्मुख होकर व्रतों से पराङ्मुख हो गये थे अर्थात् लज्जा के कारण भगवान के पास से दूसरी जगह जाकर उन्होंने व्रत छोड़ दिये थे ।।47।। कितने ही लोग भगवान के चरणों पर पढ़कर कह रहे थे कि हे प्रभो हमारी रक्षा कीजिए, हम लोगों का शरीर भूख से बहुत ही कृश हो गया है अत: अब हमें क्षमा कीजिए इस प्रकार कहते हुए वहाँ से अंतर्हित हो गये थे―अन्यत्र चले गये थे ।।48।। खेद है कि जिसे अन्य साधारण मनुष्य स्पर्श भी नहीं कर सकते ऐसे भगवान् के उस मार्ग पर चलने के लिए असमर्थ होकर वे सब खोटे ऋषि तपस्या से भ्रष्ट हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बड़े हाथी के बोझ को क्या उसके बच्चे भी धारण कर सकते हैं अथवा बड़े बैलों द्वारा खींचे जाने योग्य बोझ को क्या छोटे बछड़े भी खींच सकते हैं ? ।।49-50।। तदनंतर परीषहों से पीड़ित हुए वे लोग फल खाने की इच्छा से वनखंडों में फैलने लगे और प्यास से पीड़ित होकर तालाबों पर जाने लगे ।।51।। उन लोगों को अपने ही हाथ से फल ग्रहण करते और पानी पीते हुए देखकर वन-देवताओं ने उन्हें मना किया और कहा कि ऐसा मत करो । हे मूर्खों, यह दिगंबर रूप सर्वश्रेष्ठ अरहंत तथा चक्रवर्ती आदि के द्वारा भी धारण करने योग्य है इसे तुम लोग कातरता का स्थान मत बनाओ । अर्थात् इस उत्कृष्ट वेष को धारण कर दीनों की तरह अपने हाथ से फल मत तोड़ो और न तालाब आदि का अप्रासुक पानी पीओ ।।52-53।। वन देवताओं के ऐसे वचन सुनकर वे लोग दिगंबर वेष में वैसा करने से डर गये इसलिए उन दीन चेष्टा वाले भ्रष्ट तपस्वियों ने नीचे लिखे हुए अनेक वेष धारण कर लिये ।।54।। उनमें से कितने ही लोग वृक्षों के वल्कल धारण कर फल खाने लगे और पानी पीने लगे और कितने ही लोग जीर्ण-शीर्ण लंगोटी पहनकर अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगे ।।55।। कितने ही लोग शरीर को भस्म से लपेटकर जटाधारी हो गये, कितने ही एक दंड को धारण करने वाले और कितने ही तीन दंड को धारण करने वाले साधु बन गये थे ।।56।। इस प्रकार प्राणों से पीड़ित हुए वे लोग उस समय ऊपर लिखे अनुसार अनेक वेश धारणकर वन में होने वाले वृक्षों की छालरूप वृक्ष, स्वच्छ जल और कंद मूल आदि के द्वारा बहुत समय तक अपनी वृत्ति (जीवन निर्वाह) करते रहे ।।57।। वे लोग भरत महाराज से डरते थे इसलिए उनका देशत्याग अपने आप ही हो गया था अर्थात् वे भरत के डर से अपने-अपने नगरों में नहीं गये थे किंतु झोंपड़े बनाकर उसी वन में रहने लगे थे ।।58।। वे लोग पाखंडी तपस्वी तो पहले से ही थे परंतु उस समय कितने ही परिव्राजक हो गये थे और मोहोदय से दूषित होकर पाखंडियों में मुख्य हो गये थे ।।59।। वे लोग जल और फूलों के उपहार से भगवान् के चरणों की पूजा करते थे । स्वयंभू भगवान् वृषभदेव को छोड़कर उनके अन्य कोई देवता नहीं था ।।60।। भगवान् वृषभदेव का नाती मरीचिकुमार भी परिव्राजक हो गया था और उसने मिथ्या शास्त्रों के उपदेश से मिथ्यात्व की वृद्धि की थी ।।61।। योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र प्रारंभ में उसी के द्वारा कहे गये थे, जिनसे मोहित हुआ यह जीव सम्यग्ज्ञान से पराङ्मुख हो जाता है ।।62।। इस प्रकार जब कि वे द्रव्यलिंगी मुनि ऊपर कही हुई अनेक प्रकार की प्रवृत्ति को प्राप्त हो गये तब बुद्धि बल से सहित महामुनि भगवान वृषभदेव उसी प्रकार तपस्या करते हुए विद्यमान रहे थे ।।63।। वे प्रभु मेरुपर्वत के समान निष्कंप थे, समुद्र के समान क्षोभरहित थे, वायु के समान परिग्रहरहित थे और आकाश के समान निर्लेप थे ।।64।। तपश्चरण के तीन ताप से भगवान का शरीर बहुत ही दैदीप्यमान हो गया था सो ठीक ही है, तपाये हुए सुवर्ण की कांति निश्चय से अन्य हो ही जाती है ।।65।। कर्मरूपी शत्रु को जलाने की इच्छा करने वाले भगवान् की मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियां ही किले आदि के समान रक्षा करने वाली थी, संयम ही शरीर की रक्षा करने वाला कवच था और सम्यग्दर्शन आदि गुण ही उनके सैनिक थे ।।66।।
पहला उपवास, दूसरा अवमौदर्य, तीसरा वृत्तिपरिसंख्यान, चौथा रसपरित्याग, पांचवां कायक्लेश और छठवाँ विविक्तशय्यासन यह छह प्रकार के बाह्य तप महा धीर-वीर भगवान वृषभदेव के थे ।।67-68।। अंतरंग तप भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान के भेद से छह प्रकार का ही है । उनमें से भगवान् वृषभदेव के ध्यान में ही अधिक तत्परता रहती थी अर्थात् वे अधिकतर ध्यान ही करते रहते थे ।।69।। पाँच महाव्रत, समिति नामक पाँच सुप्रयत्न, पाँच इंद्रियनिरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, पृथ्वी पर सोना, दातौन नहीं करना, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और दिन में एक बार ही भोजन करना इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुण भगवान वृषभदेव के विद्यमान थे जो कि उनके पदातियों अर्थात् पैदल चलने वाले सैनिकों के समान थे । ध्यान की विशुद्धता के कारण भगवान् के इन गुणों में बहुत ही विशुद्धता रहती थी ।।70-72।। यद्यपि भगवान् ने छह महीने का महोपवास तप किया था तथापि उनके शरीर का उपचय पहले की तरह ही दैदीप्यमान बना रहा था । इससे कहना पड़ता है कि उनकी धीरता बड़ी ही आश्चर्यजनक थी ।।73।। यद्यपि भगवान् बिल्कुल ही आहार नहीं लेते थे तथापि उनके शरीर में रंचमात्र भी परिश्रम नहीं होता था । वास्तव में भगवान वृषभदेव की शरीररचना अथवा उनके निर्माण नामकर्म का ही यह कोई दिव्य अतिशय था ।।74।। उस समय भगवान के केश संस्काररहित होने के कारण जटाओं के समान हो गये थे और वे मालूम होते ने मानो तपस्या का क्लेश सहन करने के लिए ही वैसे कठोर हो गये हों ।।75।। वे जटाएं वायु से उड़कर महामुनि भगवान वृषभदेव के मस्तक पर दूर तक फैल गयी थीं, सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो ध्यानरूपी अग्नि से तपाये हुए जीवरूपी स्वर्ण से निकली हुई कालिमा ही हो ।।76।। भगवान के तपश्चरण के अतिशय से उस विस्तृत वन में रात-दिन ऐसी उत्तम कांति रहती थी जैसी कि प्रातःकाल के सूर्य के तेज से होती है ।।77।। उस वन में पुष्प और फल के भार से नम्र हुई वृक्ष की शाखाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो भक्ति से भगवान् के चरणों को नमस्कार ही कर रही हों ।।78।। उस वन में लताओं पर बैठे हुए भ्रमर संगीत के समान मधुर शब्द कर रहे थे जिससे वे वनलताएं ऐसी मालूम होती थी मानो भक्तिपूर्वक वीणा बजाकर जगद्गुरु भगवान वृषभदेव का यशोगान ही कर रही हों ।।79।। भगवान के समीपवर्ती वृक्षों से जो अपने आप ही फूल गिर रहे थे उनसे वे वृक्ष ऐसे जान पड़ते थे मानो भक्तिपूर्वक भगवान् के चरणों में फूलों का उपहार ही विस्तृत कर रहे हों अर्थात् फूलों की भेंट ही चढ़ा रहे हों ।।80।। भगवान के चरणों के समीप ही अपनी इच्छानुसार कुछ-कुछ निद्रा लेते हुए जो हरिणों के बच्चे बैठे हुए थे वे उनके आश्रम की शांतता बतला रहे थे ।।81।। सिंह हरिण आदि जंतुओं के साथ बैरभाव छोड़कर हाथियों के झुंड के साथ मिलकर रहने लगे थे सो यह सब भगवान के ध्यान से उत्पन्न हुई महिमा ही थी ।।82।। अहा, कैसा आश्चर्य था कि जिनके बालों के अग्रभाग काँटों में उलझ गये थे और जो उन्हें बार-बार सुलझाने का प्रयत्न करती थीं ऐसी चमरी गायों को बाघ बड़ी दया के साथ अपने नखों से छुड़ा रहे थे अर्थात् उनके बाल सुलझा कर उन्हें जहाँ-तहाँ जाने के लिए स्वतंत्र कर रहे थे ।।83।। हरिण के बच्चे दूध देती हुई बाघनियों के पास जाकर और उन्हें अपनी माता समझ इच्छानुसार दूध पीकर सुखी होते थे ।।84।। अहा, भगवान के तपश्चरण की शक्ति बड़ी ही आश्चर्यकारक थी वन के हाथी भी फूले हुए कमल लाकर उनके चरणों में चढ़ाते थे ।।85।। जिस समय वे हाथी फूले हुए कमलों-द्वारा भगवान् की उपासना करते थे उस समय उनके सूंड के अग्रभाग में स्थित लाल कमल ऐसे सुशोभित होते थे मानो उनके पुष्कर अर्थात सूंड के अग्रभाग की शोभा को दूनी कर रहे हों ।।86।। भगवान् के शरीर से फैलती हुई शांति की किरणों ने कभी किसी के वश न होने वाले सिंह आदि पशुओं को भी हठात् वश में कर लिया था ।।87।। यद्यपि त्रिलोकीनाथ भगवान् उपवास कर रहे थे―कुछ भी आहार नहीं लेते थे तथापि उन्हें भूख की बाधा नहीं होती थी, सो ठीक ही है, क्योंकि संतोषरूप भावना के उत्कर्ष से जो अनिच्छा उत्पन्न होती है वह हरएक प्रकार की इच्छाओं (लंपटता) को जीत लेती है ।।88।। उस समय भगवान् के ध्यान के प्रताप से इंद्रों के आसन भी कंपायमान हो गये थे । वास्तव में यह भी एक बड़ा आश्चर्य है कि महापुरुषों का धैर्य भी जगत् के कंपन का कारण हो जाता है ।।89।। इस तरह छह महीने में समाप्त होने वाले प्रतिमा योग को प्राप्त हुए और धैर्य से शोभायमान रहने वाले भगवान् का वह लंबा समय भी क्षणभर के समान व्यतीत हो गया ।।90।। इसी के बीच में महाराज कच्छ, महाकच्छ के लड़के भगवान के समीप आये थे । वे दोनों लड़के बहुत ही सुकुमार थे, दोनों ही तरुण थे, नमि तथा विनमि उनका नाम था और दोनों ही भक्ति से निर्भर होकर भगवान् के चरणों की सेवा करना चाहते थे ।।91-92।। वे दोनों ही भोगोपभोग विषयक तृष्णा से सहित थे इसलिए हे भगवन, ‘प्रसन्न होइए’ इस प्रकार कहते हुए वे भगवान् को नमस्कार कर उनके चरणों में लिपट गये और उनके ध्यान में विघ्न करने लगे ।।93।। हे स्वामिन् आपने अपना यह साम्राज्य पुत्र तथा पौत्रों के लिए बाँट दिया है । बाँटते समय हम दोनों को भुला ही दिया―इसलिए अब हमें भी कुछ भोग सामग्री दीजिए ।।94।। इस प्रकार वे भगवान् से बार-बार आग्रह कर रहे थे उन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान नहीं था और वे दोनों उस समय जल, पुष्प तथा अर्घ्य से भगवान् की उपासना कर रहे थे ।।95।। तदनंतर धरणेंद्र नाम को धारण करने वाले, भवनवासियों के अंतर्गत नागकुमार देवों के इंद्र ने अपना आसन कंपायमान होने से नमि, विनमि के इस समस्त वृत्तांत को जान लिया ।।96।। अवधिज्ञान के द्वारा इन समस्त समाचारों को जानकर यह धरणेंद्र बड़े ही संभ्रम के साथ उठा और शीघ्र ही भगवान् के समीप आया ।।97।। वह उसी समय पूजा की सामग्री लिये हुए पृथ्वी को भेदन कर भगवान् के समीप पहुँचा । वहाँ उसने दूर से ही मेरु पर्वत के समान ऊँचे मुनिराज वृषभदेव को देखा ।।98।। उस समय भगवान ध्यान में लवलीन थे और उनका दैदीप्यमान शरीर अतिशय बड़ी हुई तप की दीप्ति से प्रकाशमान हो रहा था इसलिए वे ऐसे मालूम होते थे मानो वायु रहित प्रदेश में रखे हुए दीपक ही हों ।।99।। अथवा वे भगवान किसी उत्तम यज्वा अर्थात् यज्ञ करने वाले के समान शोभायमान हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार यज्ञ करने वाला अग्नि में आहुतियाँ जलाने के लिए तत्पर रहता है उसी प्रकार भगवान भी महाध्यानरूपी अग्नि में कर्मरूपी आहुतियाँ जलाने के लिए उद्यत थे । और जिस प्रकार यज्ञ करने वाला अपनी पत्नी से सहित होता है उसी प्रकार भगवान् भी कभी नहीं छोड़ने योग्य दयारूपी पत्नी से सहित थे ।।100।। अथवा वे मुनिराज एक कुंजर अर्थात् हाथी के समान मालूम होते थे क्योंकि जिस प्रकार हाथी महोदय अर्थात् भाग्यशाली होता हे उसी प्रकार भगवान भी महोदय अर्थात् बड़े भारी ऐश्वर्य से सहित थे । हाथी का शरीर जिस प्रकार ऊँचा होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी ऊँचा था, हाथी जिस प्रकार सुवंश अर्थात् पीठ की उत्तम रीढ़ से सहित होता है उसी प्रकार भगवान भी सुवंश अर्थात् उत्तम कुल से सहित थे और हाथी जिस प्रकार रस्सियों-द्वारा खंभे में बंधा रहता है उसी प्रकार भगवान् भी उत्तम व्रतरूपी रस्सियों-द्वारा तपरूपी बड़े भारी खंभे में बँधे हुए थे ।।101।। वे भगवान सुमेरु पर्वत के समान उत्तम शरीर धारण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार सुमेरु पर्वत अकंपायमान रूप से खड़ा है उसी प्रकार उनका शरीर भी अकंपायमान रूप से (निश्चल) खड़ा था, मेरु पर्वत जिस प्रकार ऊँचा होता है उसी प्रकार उनका शरीर भी ऊंचा था, सिंह, व्याघ्र आदि बड़े-बड़े क्रूर जीव जिस प्रकार सुमेरु पर्वत की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ रहते हैं उसी प्रकार बड़े-बड़े क्रूर जीव शांत होकर भगवान् के शरीर की भी उपासना करते थे अर्थात् उनके समीप में रहते थे, अथवा सुमेरु पर्वत जिस प्रकार इंद्र आदि महासत्त्व अर्थात् महाप्राणियों से उपासित होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी इंद्र आदि महासत्त्वों से उपासित था अथवा सुमेरु पर्वत जिस प्रकार महासत्त्व अर्थात् बड़ी भारी दृढ़ता से उपासित होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी महासत्त्व अर्थात् बड़ी भारी दृढ़ता (धीर-वीरता) से उपासित था, और सुमेरु पर्वत जिस प्रकार क्षमा अर्थात् पृथ्वी के भार को धारण करने में समर्थ होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी क्षमा अर्थात् शांति के भार को धारण करने में समर्थ था ।।102।। उस समय भगवान ने अपने अंत:करण को ध्यान के भीतर निश्चल कर लिया था तथा उनकी चेष्टाएँ अत्यंत गंभीर थीं । इसलिए वे वायु के न चलने से निश्चल हुए समुद्र की गंभीरता को भी तिरस्कृत कर रहे थे ।।103।। अथवा भगवान् किसी अनोखे समुद्र के समान जान पड़ते थे क्योंकि उपलब्ध समुद्र तो वायु से क्षुभित हो जाता है परंतु वे परीषहरूपी महावायु से कभी भी क्षुभित नहीं होते थे, उपलब्ध समुद्र तो जलाशय अर्थात् जल है आशय में (मध्य में) जिसके ऐसा होता है परंतु भगवान् जडाशय अर्थात् जड (अविवेक युक्त) है आशय (अभिप्राय) जिनका ऐसे नहीं थे, उपलब्ध समुद्र तो अनेक मगर-मच्छ आदि जल-जंतुओं से भरा रहता है परंतु भगवान् दोषरूपी जल-जंतुओं से छुए भी नहीं गये थे ।।104।। इस प्रकार भगवान् वृषभदेव के समीप वह धरणेंद्र बड़े ही आदर के साथ पहुँचा और अतिशय बड़ी हुई तपरूपी लक्ष्मी से आलिंगित हुए भगवान् के शरीर को देखता हुआ आश्चर्य करने लगा ।।105।। प्रथम ही उस धरणेंद्र ने जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव की प्रदक्षिणा दी, उन्हें प्रणाम किया, उनकी स्तुति की और फिर अपना वेश छिपाकर वह उन दोनों कुमारों से इस प्रकार सयुक्तिक वचन कहने लगा ।।106।। हे तरुण पुरुषों, ये हथियार धारण किये हुए तुम दोनों मुझे विकृत आकार वाले दिखलाई दे रहे हो और इस उत्कृष्ट तपोवन को अत्यंत शांत देख रहा हूँ ।।107।। कहाँ तो यह शांत तपोवन, और कहाँ भयंकर आकार वाले तुम दोनों ? प्रकाश और अंधकार के समान तुम्हारा समागम क्या अनुचित नहीं है ? ।।108।। अहो, यह भोग बड़े ही निंदनीय हैं जो कि अयोग्य स्थान में भी प्रार्थना कराते हैं अर्थात् जहाँ याचना नहीं करनी चाहिए वहाँं भी याचना कराते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि याचना करने वालों को योग्य अयोग्य का विचार ही कहाँ रहता है ।।109।। यह भगवान् तो भोगों से निःस्पृह हैं और तुम दोनों उनसे भोगों की इच्छा कर रहे हो सो तुम्हारी यह शिलातल से कमल की इच्छा आज हम लोगों को आश्चर्ययुक्त कर रही है । भावार्थ―जिस प्रकार पत्थर की शिला से कमलों की इच्छा करना व्यर्थ है उसी प्रकार भोग की इच्छा से रहित भगवान् से भोगों की इच्छा करना व्यर्थ है ।।110।। जो मनुष्य स्वयं भोगों की इच्छा से युक्त होता है वह दूसरों को भी वैसा ही मानता है, अरे, ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो अंत में संताप देने वाले इन भोगों की इच्छा करता हो ।।111।। प्रारंभ मात्र में ही मनोहर दिखाई देनेवाले भोगों के वश हुआ पुरुष चाहे जितना बड़ा होने पर भी याचनारूपी दोष से शीघ्र ही तृण के समान लघु हो जाता है ।।112।। यदि तुम दोनों भोगों को चाहते हो तो भरत के समीप जाओ क्योंकि इस समय वही साम्राज्य का भार धारण करने वाला है और वही श्रेष्ठ राजा है ।।113।। भगवान तो राग, द्वेष आदि अंतरंग परिग्रह का त्याग कर चुके हैं और अपने शरीर से भी नि:स्पृह हो रहे हैं, अब यह भोगों की इच्छा करने वाले तुम दोनों को भोग कैसे दे सकते हैं ? ।।114।। इसलिए, जो केवल मोक्ष जाने के लिए उद्योग कर रहे हैं ऐसे इन भगवान् के पास धरना देना व्यर्थ है । तुम दोनों भोगों के इच्छुक हो अत: भरत की उपासना करने के लिए उसके पास जाओ ।।115।। इस प्रकार जब वह धरणेंद्र कह चुका तब वे दोनों नमि, विनमि कुमार उसे इस प्रकार उत्तर देने लगे कि दूसरे के कार्यों में आपकी यह क्या आस्था (आदर, बुद्धि) है ? आप महा बुद्धिमान् हैं, अत: यहाँ से चुपचाप चले जाइए ।।116।। क्योंकि इस विषय में जो योग्य अथवा अयोग्य है उन दोनों को हम लोग जानते हैं परंतु आप इस विषय में अनभिज्ञ हैं इसलिए जहाँ आप को जाना है जाइए ।।117।। ये वृद्ध हैं और ये तरुण है यह भेद तो मात्र अवस्था का किया हुआ है । वृद्धावस्था में न तो कुछ ज्ञान की दृष्टि होती है और न तरुण अवस्था में बुद्धि का कुछ ह्रास ही होता है, बल्कि देखा ऐसा जाता है कि अवस्था के पकने से वृद्धावस्था में प्राय: बुद्धि की मंदता हो जाती है और प्रथम अवस्था प्राय: पुण्यवान् पुरुषों की बुद्धि बढ़ती रहती है ।।118-119।। न तो नवीन-तरुण अवस्था दोष उत्पन्न करने वाली है और न वृद्ध अवस्था गुण उत्पन्न करने वाली है क्योंकि चंद्रमा नवीन होने पर भी मनुष्यों को आह्लादित करता है और अग्नि जीर्ण (बुझने के सम्मुख) होने पर भी जलाती ही है ।।120।। जो मनुष्य बिना पूछे ही किसी कार्य को करता है वह बहुत ढीठ समझा जाता है । हम दोनों ही इस प्रकार का कार्य आपसे पूछना नहीं चाहते फिर आप व्यर्थ ही बीच में क्यों बोलते हैं ।।121।। आप-जैसे निंद्य आचरण वाले दुष्ट पुरुष बिना पूछे कार्यों का निर्देश कर तथा अत्यंत असत्य और अनिष्ट चापलूसी के वचन कहकर लोगों को ठगा करते हैं ।।122।। बुद्धिमान् पुरुषों की जिह्वा कभी स्वप्न में भी अशुद्ध भाषण नहीं करती हैं, उनकी चेष्टा कभी दूसरों का अनिष्ट नहीं करती और न उनकी स्मृति ही दूसरों का विनाश करने के लिए कभी कठोर होती है ।।123।। जिन्होंने जानने योग्य संपूर्ण तत्त्वों को जान लिया है ऐसे आप सरीखे बुद्धिमान् पुरुषों के लिए हम बालकों द्वारा न्यायमार्ग का उपदेश दिया जाना योग्य नहीं है क्योंकि जो सज्जन पुरुष होते हैं वे एक न्यायरूपी जीविका से ही युक्त होते हैं अर्थात् वे न्यायरूप प्रवृत्ति से ही जीवित रहते हैं ।।124।। आयु के अनुकूल धारण किया हुआ आपका यह वेष बहुत ही शांत है, आपकी यह आकृति भी सौम्य है और आपके वचन भी प्रसादगुण से सहित तथा तेजस्वी हैं और आपकी बुद्धिमत्ता को स्पष्ट कह रहे हैं ।।125।। जो अन्य साधारण पुरुषों में नहीं पाया जाता और जो बाहर भी प्रकाशमान हो रहा है ऐसा आपका यह भीतर छिपा हुआ अनिर्वचनीय तेज तथा बहुत शरीर आपकी महानुभावता को कह रहा है । भावार्थ―आपके प्रकाशमान लोकोत्तर तेज तथा असाधारण दीप्तिमान शरीर के देखने से मालूम होता है कि आप कोई महापुरुष हैं ।।126।। इस प्रकार जिनकी अनेक विशेषताएँ प्रकट हो रही है ऐसे आप कोई भद्रपरिणामी पुरुष हैं परंतु फिर भी आप जो हमारे कार्य में मोह को प्राप्त हो रहे हैं सो उसका क्या कारण है यह हम नहीं जानते ।।127।। गुरु-भगवान वृषभदेव को प्रसन्न करना सब जगह प्रशंसा करने योग्य है और यही हम दोनों का इच्छित फल है अर्थात् हम लोग भगवान को ही प्रसन्न करना चाहते हैं परंतु आप उसमें प्रतिबंध कर रहे हैं―विघ्न डाल रहे हैं इसलिए जान पड़ता है कि आप दूसरों का कार्य करने में शीतल अर्थात् उद्योगरहित हैं―आप दूसरों का भला नहीं होने देना चाहते ।।128।। दूसरों की वृद्धि देखकर दुर्जन मनुष्य ही ईर्ष्या करते हैं । आप जैसे सज्जन और महापुरुषों को तो बल्कि दूसरों की वृद्धि से आनंद होना चाहिए ।।129।। भगवान् वन में निवास कर रहे हैं इससे क्या उनका प्रभुत्व नष्ट हो गया है देखो, भगवान् के चरणकमलों के मूल में आज भी यह चराचर विश्व विद्यमान है ।।130।। आप जो हम लोगों को भरत के पास जाने की सलाह दे रहे हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो बड़े-बड़े बहुत से फलों की इच्छा करता हुआ भी कल्पवृक्ष को छोड़कर अन्य सामान्य वृक्ष की सेवा करेगा ।।131।। अथवा रत्नों की चाह करने वाला पुरुष महासमुद्र को छोड़कर, जिसमें शैवाल भी सूख गयी है ऐसे किसी अल्प सरोवर (तलैया) की सेवा करेगा अथवा धान की इच्छा करने वाला पियाल का आश्रय करेगा ? ।।132।। भरत और भगवान वृषभदेव में क्या बड़ा भारी अंतर नहीं है ? क्या गोष्पद की समुद्र के साथ बराबरी हो सकती है ? ।।133।। क्या लोक में स्वच्छ जल से भरे हुए अन्य जलाशय नहीं हैं जो चातक पक्षी हमेशा मेघ से ही जल की याचना करता है । यह क्या उसका कोई अनिर्वचनीय हठ नहीं है ।।134।। इसलिए अभिमानी मनुष्य जो अत्यंत उदार स्थान का आश्रय कर किसी बड़े भारी फल की वांछा करते हैं सो इसे आप उनकी उन्नति का ही आचरण समझें ।।135।। इस प्रकार वह धरणेंद्र नमि, विनमि दोनों कुमारों के अदीनंतर अर्थात् अभिमान से भरे हुए वचन सुनकर मन में बहुत ही संतुष्ट हुआ सो ठीक ही है क्योंकि अभिमानी पुरुषों का धैर्य प्रशंसा करने योग्य होता है ।।136।। वह धरणेंद्र मन-ही-मन विचार करने लगा कि अहा, इन दोनों तरुण कुमारों की महेच्छता (महाशयता) कितनी बड़ी है, इनकी गंभीरता भी आश्चर्य करने वाली है, भगवान् वृषभदेव में इनकी श्रेष्ठ भक्ति भी आश्चर्यजनक है और इनकी स्पृहा भी प्रशंसा करने योग्य है । इस प्रकार प्रसन्न हुआ धरणेंद्र अपना दिव्य रूप प्रकट करता हुआ उनसे प्रीतिरूपी लता के फूलों के समान इस प्रकार वचन कहने लगा ।।137-138।। तुम दोनों तरुण होकर भी वृद्ध के समान हो, मैं तुम लोगों की धीर-वीर चेष्टाओं से बहुत ही संतुष्ट हुआ हूँ, मेरा नाम धरण है और मैं नागकुमार जाति के देवों का मुख्य इंद्र हूँ ।।139।। मुझे आप पाताल स्वर्ग में रहनेवाला भगवान् का किंकर समझें तथा मैं यहाँ आप दोनों को भोगोपभोग की सामग्री से युक्त करने के लिए ही आया हूँ ।।140।। ये दोनों कुमार बड़े ही भक्त हैं इसलिए इन्हें इनकी इच्छानुसार भोगों से युक्त करो । इस प्रकार भगवान् ने मुझे आज्ञा दी है और इसलिए मैं यहाँ शीघ्र आया हूँ ।।141।। इसलिए जगत् की व्यवस्था करने वाले भगवान से पूछकर उठो । आज मैं तुम दोनो के लिए भगवान् के द्वारा बतलायी हुई भोगसामग्री दूँगा ।।142।। इस प्रकार धरणेंद्र के वचनों से वे कुमार बहुत ही प्रसन्न हुए और उससे कहने लगे कि सचमुच ही गुरुदेव हम पर प्रसन्न हुए हैं और हम लोगों को मनवांछित भोग देना चाहते हैं ।।143।। हे धरणेंद्र, इस विषय में भगवान् का जो सत्य मत हो वह हम लोगों से कहिए क्योंकि भगवान के मत अर्थात् सम्मति के बिना हमें भोगोपभोग की सामग्री इष्ट नहीं है ।।144।। इस प्रकार कहते हुए कुमारों को युक्तिपूर्वक विश्वास दिलाकर धरणेंद्र भगवान् को नमस्कार कर उन्हें ही अपने साथ ले गया ।।145।। महान् ऐश्वर्य को धारण करने वाला वह धरणेंद्र उन दोनों कुमारों के साथ आकाश में जाता हुआ ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो ताप और प्रकाश के साथ उदित होता हुआ सूर्य ही हो ।।146।। अथवा जिस प्रकार विनय और प्रशम गुण से युक्त हुआ कोई योगिराज सुशोभित होता है उसी प्रकार नागकुमारों के समान उन दोनों कुमारों से युक्त हुआ वह धरणेंद्र भी अतिशय सुशोभित हो रहा था ।।147।। वह दोनों राजकुमारों को विमान में बैठाकर तथा आकाशमार्ग का उल्लंघन कर शीघ्र ही विजयार्ध पर्वत पर जा पहुंचा, उस समय वह पर्वत पृथ्वीरूपी देवी के हास्य की उपमा धारण कर रहा था ।।148।।
वह विजयार्ध पर्वत अपने पूर्व और पश्चिम की कोटियों से लवण समुद्र में अवगाहन (प्रवेश) कर रहा था और भरतक्षेत्र के बीच में इस प्रकार स्थित था मानो उसके नापने का एक दंड ही हो ।।149।। वह पर्वत ऊँचे, अनेक प्रकार के रत्नों की किरणों से चित्र-विचित्र और अपनी इच्छानुसार आकाशांगण को घेरने वाले अपने अनेक शिखरों से ऐसा जान पड़ता था मानो मुकुटों से ही सुशोभित हो रहा हो ।।150।। पड़ते हुए निर्झरनों के शब्दों से उसकी गुफाओं के मुख आपुरित हो रहे थे और उनमें ऐसा मालूम होता था मानो अतिशय विश्राम करने के लिए देव-देवियों को बुला ही रहा हो ।।151।। उसकी मेखला अर्थात् बीच का किनारा पर्वत के समान ऊँचे, यहाँ-वहाँ चलते हुए और गंभीर गर्जना करते हुए बड़े-बड़े मेघों द्वारा चारों ओर से ढका हुआ था ।।152।। दैदीप्यमान सुवर्ण के बने हुए और पूर्व की किरणों से सुशोभित अपने किनारों के द्वारा वह पर्वत देव और विद्याधरों को जलते हुए दावानल की शंका कर रहा था ।।153।। उस पर्वत के शिखरों के समीप भाग से जो लंबी धार वाले बड़े-बड़े झरने पड़ते थे उनसे मेघ जर्जरित हो जाते थे और उनसे उस पर्वत के समीप ही बहुत से निर्झरने बनकर निकल रहे थे ।।154।। उस पर्वत पर के वनों में अनेक लताएँ फूली हुई थी और उनपर भ्रमर बैठे हुए थे, उनसे वह पर्वत ऐसा मालूम होता था मानो सुगंधि के लोभ से वह उन वनलताओं को चारों ओर से काले वस्त्रों के द्वारा ढक ही रहा हो ।।155।। वह पर्वत अपनी मेखला पर ऐसे प्रदेशों को धारण कर रहा था जो कि लता भवनों में विश्राम करने वाले किन्नर देवों के मधुर गीतों के शब्दों से सदा सुंदर रहते थे ।।156।। उस पर्वत पर वन की गलियों में लतागृहों के भीतर पड़े हुए झूलों पर झूलती हुई विद्याधरियाँ वनदेवताओं के समान मालूम होती थीं ।।157।। उस पर्वत पर जो इधर-उधर घूमती हुई विद्याधरियों के मुखरूपी कमलों के प्रतिबिंब पड़ रहे थे उनसे वह ऐसा मालूम होता था मानो नीलमणि की जमीन में जमी हुई कमलिनियों की शोभा ही धारण कर रहा हो ।।158।। वह पर्वत स्फटिकमणि की बनी हुई उन प्राकृतिक भूमियों को धारण कर रहा था जो कि इधर-उधर टहलती हुई विद्याधरियों के सुंदर चरणों में लगे हुए महावर से लाल वर्ण होने के कारण ऐसी जान पड़ती थीं मानो लाल कमल से उनकी पूजा ही की गयी हो ।।159।। वह पर्वत अपनी गुफाओं में निर्झरनों के समान सिंहों को धारण कर रहा था क्योंकि वे सिंह निर्झरनों के समान ही विदूरलंघी अर्थात् दूर तक लाँघने वाले, गंभीर शब्दों से युक्त और निर्मल कांति के धारक थे ।।160।। वह पर्वत अपनी उपत्यका अर्थात् समीप की भूमि पर सदा ऐसे देव-देवियों को धारण करता था जो परस्पर प्रेम से युक्त थे और संभोग करने के अनंतर वीणा आदि बाजे बजाकर विनोद किया करते थे ।।161।। उस पर्वत की उत्तर और दक्षिण ऐसी दो श्रेणियाँ थीं जो कि दो पंखों के समान बहुत ही लंबी थीं और उन श्रेणियों में विद्याधरों के निवास करने के योग्य अनेक उत्तम-उत्तम नगरियाँ थी ।।162।। उस पर्वत के शिखरों पर जो अनेक निर्झरने बह रहे थे उनसे वे शिखर ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके ऊपरी भाग पर पताकाएँ ही फहरा रही हों और ऐसे-ऐसे ऊँचे शिखरों से वह पर्वत ऐसा मालूम होता था मानो आकाश के अग्रभाग का उल्लंघन ही कर रहा हो ।।163।। शिखर से लेकर जमीन तक जिनकी अखंड धारा पड़ रही है ऐसे निर्झनों से वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो लोकनाड़ी को नापने के लिए उसने एक लंबा दंड ही धारण किया हो ।।164।। चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से जिनसे प्रत्येक रात्रि को पानी की धारा बहने लगती है ऐसे चंद्रकांतमणियों के द्वारा वह पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो दावानल के डर से अपने किनारे के वृक्षों को ही सींच रहा हो ।।165।। वह पर्वत चंद्रकांतमणियों से चंद्रमा को, कुमुदों के समूह से ताराओं को और निर्झरनों के छींटों से नक्षत्रों को नीचा दिखाकर ही मानो बहुत ऊंचा स्थित था ।।166।। शरद् ऋतु में जब कभी वायु से टकराये हुए सफेद बादल वन-प्रदेशों को व्याप्त कर उसके सफेद किनारों पर आश्रय लेते थे तब उन बादलों से वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो कुछ बढ़ गया हो ।।167।। उस पर्वत पर जो निर्झरनों के शब्द हो रहे थे उनसे वह ऐसा मालूम होता था मानो सुमेरु पर्वत केवल ऊँचा ही है हमारे समान लंबा नहीं है इसी संतोष से मानो जोर का शब्द करता हुआ हँस रहा हो ।।168।। मैं बहुत ही शुद्ध हूँ और जड़ से लेकर शिखर तक चाँदी-चाँदी का बना हुआ हूँ, अन्य कुलाचल मेरे समान शुद्ध नहीं हैं, यह समझकर ही मानो उसने अपनी ऊँचाई प्रकट की थी ।।169।। उस पर्वत का विद्याधरों के साथ सदा संसर्ग रहता था और गंगा तथा सिंधु नाम की दोनों नदियां उसके नीचे होकर बहती थीं । इन्हीं कारणों से उसने अन्य कुलाचलो को जीत लिया था तथा इसी कारण से वह विजयार्ध इस सार्थक नाम को धारण कर रहा था । भावार्थ―अन्य कुलाचलों पर विद्याधर नहीं रहते हैं और न उनके नीचे गंगा सिंधु ही बहती हैं बल्कि हिमवत् नामक कुलाचल के ऊपर बहती हैं । इन्हीं विशेषताओं से मानो उसने अन्य कुलाचलों पर विजय प्राप्त कर ली थी और इस विजय के कारण ही उसका विजयार्ध (विजय+आ+ऋद्धः) ऐसा सार्थक नाम पड़ा था ।।170।। इंद्र लोग निरंतर उस पर्वत की जिनेंद्रदेव के समान आराधना करते थे क्योंकि जिस प्रकार जिनेंद्रदेव अचल स्थित हैं अर्थात् निश्चल मर्यादा को धारण करने वाले हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी अचल स्थित था अर्थात् सदा निश्चल रहने वाला था, जिस प्रकार जिनेंद्रदेव उत्तंग अर्थात् उत्तम हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी उत्तुंग अर्थात् ऊँचा था, जिनेंद्रदेव जिस प्रकार शुद्धिभाक् हैं अर्थात राग, द्वेष आदि कर्म विकार-रहित होने के कारण निर्मल हैं उसीप्रकार वह पर्वत भी शुद्धिभाक् था अर्थात् भूमि, कंटक आदि से रहित होने के कारण स्वच्छ था और जिस प्रकार जिनेंद्रदेव जगत् के गुरु हैं इसी प्रकार वह पर्वत भी जगत् में श्रेष्ठ अथवा उसका गौरव स्वरूप था ।।171।। अथवा वह पर्वत जगत् के विधातात्मा जिनेंद्रदेव का अनुकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार जिनेंद्रदेव अक्षर अर्थात् विनाशरहित हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रलय आदि के न पड़ने से विनाशरहित था, जिस प्रकार जिनेंद्रदेव अभेद्य हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी अभेद्य था अर्थात् वज्र आदि से उसका भेदन नहीं हो सकता था, जिनेंद्रदेव जिस प्रकार अलंघ्य हैं अर्थात् उनके सिद्धांतों का कोई खंडन नहीं कर सकता उसी प्रकार वह पर्वत भी अलंघ्य अर्थात् लाँघने के अयोग्य था, जिनेंद्रदेव जिस प्रकार महोन्नत अर्थात् अत्यंत श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी महोन्नत अर्थात् अत्यंत ऊंचा था ओर जिनेंद्रदेव जिस प्रकार जगत् के गुरु है उसी प्रकार वह पर्वत भी गुरु अर्थात् श्रेष्ठ अथवा भारी था ।।172।। वह विजयार्ध, चक्रवर्त्ती के दिग्विजय करने के लिए प्रसूतिगृह के समान दो गुफाएँ धारण करता था क्योंकि जिस प्रकार प्रसूतिगृह ढका हुआ और सुरक्षित होता है उसी प्रकार वे गुफाएँ भी ढकी हुई और देवों द्वारा सुरक्षित थीं तथा जिस प्रकार प्रसूतिगृह के भीतर का मार्ग छिपा हुआ होता है उसी प्रकार उन गुफाओं के भीतर जाने का मार्ग भी छिपा हुआ था ।।173।। वह पर्वत ऊँचे-ऊंचे नौ कूटों से शोभायमान था जो कि पृथिवी देवी के मुकुट के समान जान पड़ते थे और उसके चारों ओर जो हरे-हरे वनों की पंक्तियाँ शोभायमान थीं वे उस पर्वत के नील वस्त्रों के समान मालूम होती थीं ।।174।। वह बड़े योजन के प्रमाण से मूल भाग में पचास योजन चौड़ा था, पचीस योजन ऊँचा था और उससे चौथाई अर्थात् छह सौ पचीस सही एक बटा चार योजन पृथ्वी के नीचे गड़ा हुआ था ।।175।। पृथ्वीतल से दस योजन ऊपर जाकर वह तीस योजन चौड़ा था और उससे भी दस योजन ऊपर जाकर अग्रभाग में सिर्फ दस योजन चौड़ा रह गया था ।।176।। इसका किनारा कहीं ऊँचा था, कहीं नीचा था, कहीं सम था और कहीं ऊँचे-नीचे पत्थरों से विषम था ।।177।। कहीं-कहीं उस पर्वत पर लगे हुए रत्नमयी पाषाण सूर्य की किरणों से बहुत ही गरम हो गये थे इसलिए उसके आगे के प्रदेश से वानरों के समूह हट रहे थे जिससे वह पर्वत उन वानरों द्वारा किये हुए कोलाहल से आकुल हो रहा था ।।178।। उस पर्वत पर कहीं तो सिंहों के शब्दों से अनेक हाथियों के झुंड भयभीत हो रहे थे और कहीं कोयलों के मधुर शब्दों से वन वाचालित हो रहे थे ।।179।। कहीं मयूरों के मुख से निकली हुई केका वाणी से भयभीत हुए सर्प बड़े दुःख के साथ वनों के भीतर अपने-अपने बिलों में घुस रहे थे ।।180।। कहीं उस पर्वत पर सुवर्णमय तटों की छाया में हरिणियाँ बैठी हुई थी उन पर उन सुवर्णमय तटों की कांति पड़ती थी जिससे वे हरिणियाँ सुवर्ण की बनी हुई-सी जान पड़ती थीं ।।181।। कहीं चित्र-विचित्र रत्नों की किरणों से इंद्रधनुष की लता बन रही थी और वह ऐसी मालूम होती थी मानो वायु से उड़कर चारों ओर फैली हुई कल्पलता ही हो ।।182।। कहीं देवांगनाएँ विहार कर रही थीं, उनके नुपूरों के शब्द हंसिनियों के शब्दों से मिलकर बुलंद हो रहे थे और उनसे तालाबों के किनारे बड़े ही रमणीय जान पड़ते थे ।।183।। कहीं लीला मात्र में अपने खूंटों को उखाड़ देने वाले बड़े-बड़े हाथी चतुराई के साथ एक विशेष प्रकार की क्रीड़ा कर रहे थे और उससे उस पर्वत पर के वनों के वृक्ष खूब ही हिल रहे थे ।।184।। कहीं किनारे पर सोती हुई सारसियों के शब्दों में कलहंसिनियों (बतख) के मनोहर शब्द मिल रहे थे और उनसे तालाब का जल शब्दायमान हो रहा था ।।185।। कहीं कुपित हुए सर्प श-श शब्द कर रहे थे जिनसे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो क्रीड़ा करता हुआ श्वास ही ले रहा हो, और कहीं निर्मल सुरागायों के झुंड फिर रहे थे जिनसे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो ।।186।। कहीं गुफा से निकलती हुई वायु के द्वारा वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो प्रकट रूप से लंबी साँस ही ले रहा हो और कहीं पवन से हिलते हुए वृक्षों से ऐसा मालूम होता था मानो वह झूम ही रहा हो ।।187।। कहीं उस पर्वत पर एकांत स्थान में बैठी हुई विद्याधरों की स्त्रियाँ अपने इष्टकामी लोगों के समागम का खूब विचार कर रही थीं जिससे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो चुप ही हो रहा हो ।।188।। और कहीं चंचलतापूर्वक उड़ते हुए भौंरों के मनोहर शब्द हो रहे थे और उनसे वह पर्वत ऐसा मालूम होता था मानो उसने जिसकी आवाज बहुत दूर तक फैल गयी है ऐसे किसी अलौकिक संगीत का ही प्रारंभ किया हो ।।189।।
उस पर्वत पर के वनों में अनेक तरुण विद्याधरियाँ अपने-अपने तरुण विद्याधरों के साथ विहार कर रही थीं । उन विद्याधरियों के मुख कदंब पुष्प की सुगंधि के समान के सुगंधित श्वास से सहित थे और जिस प्रकार तरुण अर्थात् मध्याह्न के सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल खिल जाते हैं उसी प्रकार अपने तरुण पुरुषरूपी सूर्य के हाथों के स्पर्श से खिले हुए थे―प्रफुल्लित थे । उनके नेत्र मद्य के नशा से कुछ-कुछ लाल हो रहे थे, वे नील कमल के फूल के समान लंबे थे, आलस्य के साथ कटाक्षावलोकन करते थे और ऐसे मालूम होते थे मानो कामदेव के विजयशील अस्त्र ही हों ।।190-191।। उनके केश भी कुटिल थे, भ्रमरों के समान काले थे, चलने-फिरने के कारण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और उनकी चोटी का बंधन भी ढीला हो गया था जिससे उस पर लगी हुई फूलों की मालाएं गिरती चली जाती थीं । उनके कपोल भी बहुत सुंदर थे, चंद्रमा की कांति को जीतने वाले थे और अलक अर्थात् आगे के सुंदर काले केशों से चिह्नित थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो अच्छी तरह साफ किये हुए कामदेव के लिखने के तख्ते ही हो । उनके अधरोष्ठ पके हुए बिंबफल के समान थे और उन पर मंद हास्य की किरणें पड़ रही थीं जिससे वे ऐसे सुशोभित होते थे मानो जल की दो-तीन बूँदें से सींचे गये मूँगा के टुकड़े ही हों । उनके स्तनमंडल विशाल ऊँचे और बहुत ही गोल थे, उनका वस्त्र नीचे की ओर खिसक गया था इसलिए उन पर सुशोभित होने वाले नखों के चिह्न साफ-साफ दिखाई दे रहे थे । उनके वक्ष:स्थलरूपी घर भी देखने योग्य―अतिशय सुंदर थे क्योंकि वे सफेद चंदन के लेप से साफ किये गये थे, हाररूपी चाँदनी के उपहार से सुशोभित हो रहे थे और स्तनों के नाचने की रंगभूमि के समान जान पड़ते थे । जिनके नख उज्ज्वल थे, हथेलियाँ लाल थीं, और जो लीलासहित इधर-उधर हिलाई जा रही थीं । उनकी भुजाएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो फूल ओर नवीन कोपलों से शोभायमान किसी लता की कोमल शाखाएँ ही हो । उनका उदर बहुत कृश था मध्य भाग पतला था और वह त्रिवलिरूपी तरंगों से सुशोभित हो रहा था । उनकी नाभि में से जो रोमावली निकल रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो नाभिरूपी बामी से रोमावलीरूपी काला सर्प ही निकल रहा हो । उनका जघन स्थल भी बहुत बड़ा था, वह रेशमी वस्त्र से सुशोभित था और करधनी से सहित था इसलिए ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवरूपी राजा का कारागार ही हो । उन विद्याधरियों के चरण लाल कमल के समान थे, वे डगमगाती हुई चलती थीं इसलिए उनके मणिमय नुपूरों से रुनझुन शब्द हो रहा था और जिससे ऐसा मालूम होता था मानो उनके चरणरूपी लाल कमल भ्रमरों की झंकार से झंकृत ही हो रहे हों । वे विद्याधरियाँ लीलासहित धीरे-धीरे जा रही थी, उनकी चाल ने हंसिनियों की चाल को भी जीत लिया था, चलते समय उनका श्वास भी चल रहा था जिससे उनके स्तन कंपायमान हो रहे थे और उनके अंतःकरण का खेद प्रकट हो रहा था । इस प्रकार प्राप्त हुए नव यौवन से सुदृढ़ विद्याधरियाँ अपने तरुण प्रेमियों के साथ उस पर्वत के वनों में कहीं-कहीं पर विहार कर रही थीं ।।192-202।। वह पर्वत अपने प्रत्येक वन में कहीं-कहीं अकेली ही फिरती हुई विद्याधरियों को धारण कर रहा था, वे विद्याधरियाँ ठीक लता के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार लता पर भ्रमर सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उनके मस्तक पर भी केशरूपी भ्रमर शोभायमान थे, लताएं जिस प्रकार पतली होती है उसी प्रकार वे भी पतली थीं, लताएँ जिस प्रकार कोमल होती है उसी प्रकार उनका शरीर भी कोमल था और लताएं जिस प्रकार पुष्पों की उत्पत्ति से सुशोभित होती हैं उसी प्रकार वे भी मंद हास्यरूपी पुष्पोत्पत्ति की शोभा से सुशोभित हो रही थीं । उन्होंने फूलों के आभूषण और पत्तों के कर्णफूल बनाये थे तथा वे इधर-उधर घूमती हुई फल तोड़ने में आसक्त हो रही थीं । उनके नेत्र कमलों के समान थे तथा और भी प्रकट हुए अनेक लक्षणों से वे वनलक्ष्मी के समान मालूम होती थी ।।203-205।। इस प्रकार जिसका माहात्म्य प्रकट हो रहा है और जो तीनों लोको का अतिक्रमण करने वाला है जिनेंद्रदेव के समान उस गिरिराज को पाकर वे नमि, विनमि राजकुमार अतिशय संतोष को प्राप्त हुए ।।206।। जिसने तटवर्ती वनों के विस्तार को कंपित किया है, जिसने गंगा नदी के तटसंबंधी वेदी के समीपवर्ती तालाब की लहरों को भेदन कर अनेक जल की बूंदें धारण कर ली हैं और जिसने अपनी सुगंधि के कारण वन के हाथियों के गंडस्थल से भ्रमरों के समूह अपनी ओर खींच लिये हैं ऐसे उस पर्वत के उपवनों में उत्पन्न हुए वायु ने उन दोनों तरुण कुमारों के मार्ग का सब परिश्रम दूर कर दिया था ।।207।। उस पर्वत के वन प्रदेशों से प्रचलित हुआ पवन दूर-दूर से ही धरणेंद्र के समीप आ रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उस पर्वत के वनप्रदेश ही धरणेंद्र के सम्मुख आ रहे हों क्योंकि वे वनप्रदेश मदोन्मत्त सुंदर कोयलों के शब्दरूपी वादित्रों की ध्वनि से शब्दायमान हो रहे थे, भ्रमरियों के मधुर गुंजाररूपी मंगलगानों से मनोहर थे और पुष्परूपी अर्घ धारण कर रहे थे ।।208।। इस प्रकार जो बहुत ही उदार अर्थात् ऊँचा है, जो समस्त विद्यारूपी खजानों की उत्पत्ति का मुख्य स्थान है और जिसकी कीर्ति समस्त लोक के भीतर व्याप्त हो रही है, ऐसे जिनेंद्रदेव के समान सुशोभित उस विजयार्ध पर्वत को समीप से देखता हुआ वह धरणेंद्र उन दोनों राजकुमारों के साथ-साथ अपने मन में बहुत ही प्रसन्न हुआ ।।209।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में
धरणेंद्र का विजयार्ध पर्वत पर जाना आदि का वर्णन करने वाला
अठारहवां पर्व समाप्त हुआ ।।18।।