ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 19
From जैनकोष
एकोनविंशं पर्व
अथानंतर वह धरणेंद्र उस विजयार्ध पर्वत की पहली मेखला पर उतरा और वहाँ उसने दोनों राजकुमारों के लिए विद्याधरों का वह लोक इस प्रकार कहते हुए दिखलाया ।।1।। कि ऐसा मालूम होता है मानो यह पर्वत बहुत भारी होने के कारण इससे अधिक ऊपर जाने के लिए समर्थ नहीं था इसीलिए इसने अपने-आपको इधर-उधर दोनों ओर फैलाकर समुद्र में जाकर मिला दिया है ।।2।। यह पर्वत एक राजा के समान सुशोभित है और कभी नष्ट न होने वाली इसकी ये दोनों श्रेणियाँ महादेवियों के समान सुशोभित हो रही हैं क्योंकि जिस प्रकार महादेवियाँ महाभोग अर्थात् भोगोपभोग की विपुल सामग्री से सहित होती हैं उसी प्रकार ये श्रेणियाँ भी महाभोग (महा आभोग) अर्थात् बड़े भारी विस्तार से सहित हैं और जिस प्रकार महादेवियाँ आयति अर्थात् सुंदर भविष्य को धारण करने वाली होती हैं उसी प्रकार ये श्रेणियाँ भी आयति अर्थात् लंबाई को धारण करने वाली हैं ।।3।। पृथ्वी से दस योजन ऊँचा चढ़कर इस पर्वत की प्रथम मेखला पर यह विद्याधरों का निवासस्थान है जो कि स्वर्ग के एक खंड के समान शोभायमान हो रहा है ।।4।। इस पर्वत की दोनों श्रेणियों में रहने वाले विद्याधर ऐसे मालूम होते हैं मानो स्वर्ग से आकर देव लोग ही यहाँ निवास करने लगे हों ।।5।। यह विद्याधरों का स्थान हम लोगों के निवासस्थान का संदेह कर रहा है क्योंकि जिस प्रकार हम लोगों (धरणेंद्रों) का स्थान महाभोग अर्थात् बड़े-बड़े फणों को धारण करने वाले नागेंद्रों के द्वारा सेवित होता है उसी प्रकार यह विद्याधरों का स्थान भी महाभोग अर्थात् बड़े-बड़े भोगोपभोगों को धारण करने वाले विद्याधरों के द्वारा सेवित है ।।6।। नागकन्याओं के समान सुंदर इन विद्याधर कन्याओं को देखता हुआ सचमुच ही आज मैं पाताल के स्वर्गलोक का अर्थात् भवनवासियों के निवासस्थान का स्मरण कर रहा हूँ ।।7।। यहाँ न तो अपने राजाओं से उत्पन्न हुआ तीव्र भय है और न शत्रु राजाओं से उत्पन्न होने वाला तीव्र भय है, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियाँ भी यहाँ नहीं होती हैं और न यहाँ रोग आदि से उत्पन्न होने वाली कभी कोई बाधा ही होती है ।।8।। इस महाभरत क्षेत्र में अवसर्पिणी कालसंबंधी चतुर्थ काल के प्रारंभ में मनुष्यों की जो स्थिति होती है यही यहाँ के मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति होती है और उस चतुर्थ काल के अंत में जो स्थिति होती हे वही यहाँ की जघन्य स्थिति होती है । इसी प्रकार चतुर्थ काल के प्रारंभ में जितनी शरीर की ऊंचाई होती है उतनी ही यहाँ की उत्कृष्ट ऊँचाई होती है और चतुर्थ काल के अंत में जितनी ऊँचाई होती है उतनी ही यहाँ जघन्य ऊँचाई होती है । इसी नियम से यहाँ की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व की और जघन्य सौ वर्ष की होती है तथा शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ की होती है, भावार्थ―यहाँ पर आर्यखंड की तरह छह कालों का परिवर्तन नहीं होता किंतु चतुर्थ काल के आदि अंत के समान परिवर्तन होता है ।।9-10।। कर्मभूमि में वर्षा, सरदी, गरमी आदि ऋतुओं का परिवर्तन तथा असि, मषि आदि छह कर्म रूप जितने नियोग होते हैं वे सब यहाँ पूर्ण रूप से होते हैं किंतु यहाँ विशेषता इतनी है कि महाविद्याएँ यहाँ के लोगों को इनकी इच्छानुसार फल दिया करती हैं ।।11।। यहाँ विद्याधरों को जो महाप्रज्ञप्ति आदि विद्याएं सिद्ध होती हैं वे इन्हें कामधेनु के समान यथेष्ट फल देती रहती है ।।12।। वे विद्याएं दो प्रकार की हैं―एक तो ऐसी हैं जो कुछ पितृपक्ष अथवा जाति (मातृपक्ष) के आश्रित हैं और दूसरी ऐसी हैं जो तपस्या से सिद्ध की जाती हैं । इनमें से पहले प्रकार की विद्याएं कुल-परंपरा से ही प्राप्त हो जाती हैं और दूसरे प्रकार की विद्याएं यत्नपूर्वक आराधना करने से प्राप्त होती हैं ।।13।। जो विद्याएँ आराधना से प्राप्त होती है उनकी आराधना करने का उपाय यह है कि सिद्धायतन के समीपवर्ती अथवा द्वीप, पर्वत या नदी के किनारे आदि किसी अन्य पवित्र स्थान में पवित्र वेष धारण कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए विद्या की अधिष्ठातृ देवता की पूजा करे तथा नित्य पूजापुर्वक महोपवास धारण कर उन विद्याओं की आराधना करे । इस विधि से तथा तपश्चरण नित्यपूजा जप और होम आदि अनुक्रम के करने से विद्याधरों को वे महाविद्याएँ सिद्ध हो जाती हैं ।।14-16।। तदनंतर जिन्हें विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं ऐसे आकाशगामी विद्याधर लोग पहले सिद्ध भगवान् की प्रतिमा की पूजा करते हैं और फिर विद्याओं के फल का उपभोग करते हैं ।।17।। इस विजयार्ध गिरि पर ये विद्याधर लोग जिस प्रकार इन विद्याओं के फलों का उपभोग करते हैं उसी प्रकार वे धान्य आदि फल संपदाओं का भी अपनी इच्छानुसार उपभोग करते हैं ।।18।। यहाँ पर धान्य बिना बोये ही उत्पन्न होते हैं, यहाँ की बावड़ियाँ फूले हुए कमलों से सहित हैं, यहाँ के गाँवों का सीमाएँ एक दूसरे से मिली हुई रहती हैं, उनमें बगीचे रहते हैं और वे सब फले हुए वृक्षों से सहित होते हैं ।।19।। यहाँ की नदियाँ रत्नमयी बालू से सहित हैं, बावड़ियों तथा पोखरियों के किनारे सदा हंस बैठे रहते हैं, और जलाशय स्वच्छ जल से भरे रहते हैं ।।20।। यहाँ के वनप्रदेश कोकिलों की मधुर कूजन से मनोहर रहते हैं और फूली हुई लताएँ गुँजार करती हुई भ्रमरियों के संगीत से संगत होती हैं ।।21।। यहाँ पर ऐसे अनेक कृत्रिम पर्वत बने हुए हैं जो चंद्रकांतमणि की बनी हुई सीढ़ियों से युक्त हैं, लतागृह से सहित हैं, विद्याधरियों के संभोग करने योग्य हैं और सबके सेवन करने योग्य हैं ।।22।। यहाँ के पुर, खानें और गाँवों की रचना बहुत ही सुंदर है, वे बहुत ही बड़े हैं और नदी, तालाब, बगीचे, धान के खेत तथा ईखों के वनों से सुशोभित रहते हैं ।।23।। यहाँ के स्त्री और पुरुषों की सृष्टि रति और कामदेव का अनुकरण करने वाली है तथा वह हर एक प्रकार के भोगोपभोग की संपदा से भरपूर होने के कारण स्वर्ग के भोगों में भी अनुत्सुक रहती है ।।24।। इस प्रकार मनुष्यों की प्रसन्नता के कारणस्वरूप जो-जो विशेष पदार्थ हैं वे सब भले ही स्वर्ग में दुर्लभ हो परंतु यहाँ पद-पद पर विद्यमान रहते हैं ।।25।। इस प्रकार यह पर्वत विद्याधरों के योग्य अतिशय मनोहर समस्त विशेष पदार्थों को मानो कौतूहल से ही अपनी गोद में लेकर धारण कर रहा है ।।26।।
जो ऊपर कही हुई शोभा और संपत्ति के निधान (खजाना) स्वरूप हैं ऐसी इन दोनों श्रेणियों पर यह नगरों की बहुत ही सुंदर रचना दिखाई देती है ।।27।। ये दोनों श्रेणियां पृथक्-पृथक् दस योजन चौड़ी हैं और पर्वत की लंबाई के समान समुद्र पर्यंत लंबी हैं ।।28।। इन दोनों श्रेणियों में चौड़ाई आदि का किया हुआ तो कुछ भी अंतर नहीं है परंतु उत्तर श्रेणी की लंबाई दक्षिण श्रेणी की लंबाई से कुछ अधिकता रखती है ।।29।। इन्हीं दक्षिण और उत्तर श्रेणियों में क्रम से पचास और साठ नगर सुशोभित हैं । वे नगर अपनी शोभा से स्वर्ग के विमानों की भी हंसी उड़ाते हैं ।।30।। बड़ी विभूति को धारण करने वाले इन नगरों में विद्याधर लोग निवास करते हैं और देवों की तरह अपने पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों का उपभोग करते हैं ।।31।। इधर यह पूर्व दिशा में 1 किन्नामित नाम का नगर है जो कि मानो स्वर्ग को छूने के लिए ही ऊँचे बढ़े हुए गगनचुंबी राजमहलों से सुशोभित हो रहा है ।।32।। वह बड़ी विभूति को धारण करने वाला 2 किन्नरगीत नाम का नगर दिखाई दे रहा है जिसके कि उद्यान किन्नर जाति की देवियों के गीतों से सदा सेवन करने योग्य रहते हैं ।।33।। इधर यह बड़ी विभूति को धारण करने वाला 3 नरगीत नाम का नगर शोभायमान है, जहाँ के कि स्त्री-पुरुष सदा उत्सव करते हुए प्रसन्न रहते हैं ।।34।। इधर यह अनेक पताकाओं से सुशोभित 4 बहुकेतुक नाम का नगर है जो कि ऐसा मालूम होता है मानो पताकारूपी भुजाओं से हम लोगों को बुलाने के लिए ही तैयार हुआ हो ।।35।। जहाँ सफेद कमलों के वनों में ये हंस, कानों को अच्छे लगने वाले मनोहर शब्दों-द्वारा सदा गंभीर रूप से गाते रहते हैं ऐसा यह 5 पुंडरीक नाम का नगर है ।।36।। इधर यह 6 सिंह ध्वज नाम का नगर है जो कि महलों के अग्रभाग पर लगी हुई सिंह के चिह्न से चिह्नित ध्वजाओं के द्वारा सिंह की शंका करने वाले देवों का मार्ग रोक रहा है ।।37।। इधर यह 7 श्वेतकेतु नाम का नगर सुशोभित हो रहा है जो कि महलों के अग्रभाग पर फहराती हुई बड़ी-बड़ी सफेद ध्वजाओं से ऐसा मालूम होता है मानो दूर से कामदेव को ही बुला रहा हो ।।38।। इधर यह समीप में ही, गरुडमणि से बने हुए महलों के अग्रभाग से आकाशरूपी आंगन को व्याप्त करता हुआ 8 गरुडध्वज नाम का नगर शोभायमान हो रहा है ।।39। इधर ये लक्ष्मी की शोभा से सुशोभित 9 श्रीप्रभ और 10 श्रीधर नाम के उत्तम नगर हैं, ये दोनों नगर ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो इन्होंने परस्पर की स्पर्धा से ही इतनी अधिक शोभा धारण की हो ।।40।। जो लोहे के अर्गलों से अत्यंत दुर्गम है ऐसा यह 11 लोहार्गल नाम का नगर है और यह 12 अरिंजय नगर है जो कि अपने गोपुरों के द्वारा ऐसा मालूम होता है मानो शत्रुओं को जीतकर हँस ही रहा हो ।।41।। इस ओर ये 13 वज्रार्गल और 14 वज्राढ नाम के दो नगर सुशोभित हो रहे हैं जो कि अपने समीपवर्ती हीरे की खानों से ऐसे मालूम होते हैं मानो प्रतिदिन बढ़ ही रहे हों ।।42।। इधर यह 15 विमोच नाम का नगर है और इधर यह 16 पुरंजय नाम का नगर है । ये दोनों ही नगर ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो भवनवासी देवों का लोक इनसे पराजित होकर ही नीचे चला गया हो ।।43।। इधर यह 17 शकटमुखी नगरी है और इधर यह 18 चतुर्मुखी नगरी सुशोभित हो रही है । यह चतुर्मुखी नगरी अपने ऊंचे-ऊंचे चारों गोपुरों से ऐसी मालूम होती है मानो आकाशरूपी आंगन का उल्लंघन ही कर रही हो ।।44। यह 19 बहुमुखी, यह 20 अरजस्का और यह 21 विरजस्का नाम की नगरी है । ये तीनों ही नगरियाँ ऐसी मालूम होती है मानो तीनों लोकों की लक्ष्मी ही एक जगह आ मिली हों ।।45।। जो ऊपर कहे हुए और आगे कहे जाने वाले नगरों में तिलक के समान आचरण करता है ऐसा यह 22 रथनूपुरचक्रवाल नाम का नगर है ।।46।। यह नगर इस श्रेणी की राजधानी है, विद्याधरों के चक्रवर्ती (राजा) अपने पुण्योदय से प्राप्त हुई उत्कृष्ट लक्ष्मी का उपभोग करते हुए इसमें निवास करते हैं ।।47।। इधर यह मनोहर 23 मेखलाग्र नगर है, यह 24 क्षेमपुरी नगरी है, यह 25 अपराजित नगर है और इधर यह 26 कामपुष्प नाम का नगर है ।।48।। यह 27 गगनचरी नगरी है, यह 28 विनयचरी नगरी है और यह 29 चक्रपुर नाम का नगर है । यह 30 संख्या को पूर्ण करने वाली 30 संजयंती नगरी है, यह 31 जयंती, यह 32 विजया और यह 33 वैजयंतीपुरी है । यह 34 क्षेमंकर, यह 35 चंद्राभ और यह अतिशय दैदीप्यमान 36 सूर्याभ नाम का नगर है ।।49-50।। यह 37 रतिकूट, यह 38 चित्रकूट, यह 39 महाकूट, यह 40 हेमकूट, यह 41 मेघकूट, यह 42 विचित्रकूट और यह 43 वैश्रवणकूट नाम का नगर है ।।51।। ये अनुक्रम से 44 सूर्यपुर, 45 चंद्रपुर और 46 नित्योद्योतिनी नाम के नगर है । यह 47 विमुखी, यह 48 नित्यवाहिनी, यह 49 सुमुखी और यह 50 पश्चिमा नाम की नगरी है ।।52।। इस प्रकार दक्षिण-श्रेणी में 50 नगरियाँ हैं, इन नगरियों के कोट और गोपुर (मुख्य दरवाजे) बहुत ऊँचे है तथा प्रत्येक नगरी तीन-तीन परिखाओं से घिरी हुई है ।।53।। इन तीनों परिखा का अंतर एक-एक दंड अर्थात् धनुष प्रमाण हैं तथा पहली परिखा चौदह दंड चौड़ी है, दूसरी बारह और तीसरी दस दंड चौड़ी है ।।54।। ये परिखाएँ अपनी-अपनी चौड़ाई से क्रमपूर्वक पौनी, आधी और एकतिहाई गहरी है अर्थात् पहली परिखा साढ़े दस धनुष, दूसरी छह धनुष और तीसरी सवा तीन धनुष से कुछ अधिक गहरी है । ये सभी परिखाएँ नीचे से लेकर ऊपर तक एक-सी चौड़ी हैं ।।55।। वे परिखाऐं सुवर्णमयी ईंटों से बनी हुई हैं, रत्नमय पाषाणों से जड़ी हुई हैं, उनमें ऊपर तक पानी भरा रहता है और वह पानी भी बहुत स्वच्छ रहता है । वे परिखाएँ जल के आने-जाने के परीवाहों से भी युक्त हैं ।।56।। उन परिखाओं में जो लाल और नीले कमल हैं वे उनके कर्णाभरण से जान पड़ते हैं, वे जलचर जीवों की भुजाओं के आघात सहने में समर्थ हैं और अपनी ऊँची लहरों से ऐसी मालूम होती है मानो बड़े-बड़े समुद्रों के साथ स्पर्द्धा ही कर रही हो ।।57।। इन परिखाओं से चार दंड के अंतर फासला पर एक कोट है जो कि सुवर्ण की धूलि के बने हुए पत्थरों से व्याप्त है, छह धनुष ऊँचा है और बारह धनुष चौड़ा है ।।58।। इस कोट का ऊपरी भाग अनेक कंगूरों से युक्त है । चेहरे गाय के खुर के समान गोल है और घड़े के उदर के समान बाहर की ओर उठे हुए आकार वाले हैं ।।59।। इस धूलि कोटि के आगे एक परकोटा है जो कि चौड़ाई से दूना ऊँचा है । इसकी ऊँचाई मूल भाग से ऊपर तक चौबीस धनुष है अर्थात् यह बारह धनुष चौड़ा और चौबीस धनुष ऊँचा है ।।60।। इस परकोटे का अग्रभाग मृदंग तथा बंदर के शिर के आकार के कंगूरों से बना हुआ है, यह परकोटा चारों ओर से अनेक प्रकार की सुवर्णमयी ईंटों से व्याप्त है और कहीं-कहीं पर रत्नमयी शिलाओं से भी युक्त है ।।61।। उस परकोटा पर अट्टालिकाओं की पंक्तियाँ बनी हुई हैं जो कि परकोटा की चौड़ाई के समान चौड़ी है, पंद्रह धनुष लंबी हैं और उससे दूनी अर्थात् तीस धनुष ऊँची है ।।62।। ये अट्टालिकाएं तीस-तीस धनुष के अंतर से बनी हुई हैं, सुवर्ण और मणियों से चित्र-विचित्र हो रही हैं, इनकी ऊँचाई के अनुसार चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और ये सभी अपनी ऊंचाई से आकाश को छू रही हैं ।।63।। दो-दो अट्टालिकाओं के बीच में एक-एक गोपुर बना हुआ है उस पर रत्नों के तोरण लगे हुए हैं । ये गोपुर पचास धनुष ऊँचे और पच्चीस धनुष चौड़े हैं ।।64।। गोपुर और अट्टालिकाओं के बीच में तीन-तीन धनुष विस्तार वाले इंद्र-कोश अर्थात् बुरज बने हुए हैं । बुरज किवाड़सहित झरोखों से युक्त हैं ।।65।। उन बुरजों के बीच में अतिशय स्वच्छ देवपथ बने हुए हैं जो कि तीन हाथ चौड़े और बारह हाथ लंबे हैं ।।66।। इस प्रकार ऊपर कही हुई परिखा, कोट और परकोटा इनसे घिरी हुई वे नगरियाँ ऐसी सुशोभित होती हैं मानो वस्त्र पहने हुई स्त्रियाँ ही हों ।।67।। इन नगरियों में से प्रत्येक नगरी में एक हजार चौक हैं, बारह हजार गलियाँ हैं और छोटे-बड़े सब मिलाकर एक हजार दरवाजे हैं ।।68।। इनमें से आधे अर्थात् पाँच सौ दरवाजे किवाड़सहित हैं और वे नगरी की शोभा के नेत्रों के समान सुशोभित होते हैं । इन पाँच सौ दरवाजों में भी दो सौ दरवाजे अत्यंत श्रेष्ठ हैं ।।69।। ये नगरियाँ पूर्व से पश्चिम तक नौ योजन चौड़ी हैं और दक्षिण से उत्तर तक बारह योजन लंबी है । इन सभी नगरियों का मुख पूर्व दिशा की ओर है ।।70।। इन नगरियों के राजभवन आदि के विस्तार वगैरह का वर्णन कौन कर सकता है क्योंकि जिस विषय में मुझ धरणेंद्र की बुद्धि भी अतिशय मोह को प्राप्त होती है तब और की बात ही क्या है ? ।।71।। इन नगरियों में से प्रत्येक नगरी के प्रति एक-एक करोड़ गाँवों का परिवार है तथा खेट मडंब आदि की रचना जुदी-जुदी है ।।72।। वे गाँव बिना बोये पैदा होने वाले शाली चावलों से तथा और भी, अनेक प्रकार के धानों से सदा हरे-भरे रहते हैं तथा उनकी सीमाएँ पौंडा और ईखों के वनों से सदा ढकी रहती हैं ।।73।। इस विजयार्ध पर्वत पर बसे हुए नगरों का अंतर भी सर्वज्ञ देव ने प्रमाण योजन के नाप से 195 योजन बतलाया है ।।74।। जिस प्रकार दक्षिण श्रेणी पर इन नगरों की रचना बतलायी है ठीक उसी प्रकार उत्तर श्रेणी पर भी अनेक विभूतियों से युक्त नगरों की रचना है ।।75।। किंतु वहाँ पर नगरों का अंतर प्रमाण योजन से कुछ अधिक एक सौ अठहत्तर योजन है ।।76।। पश्चिम दिशा से लेकर साठवें नगर तक उन नगरों के नाम अनुक्रम से इस प्रकार हैं;।।77।। 1 अर्जुनी, 2 वारुणी, 3 कैलासवारुणी, 4 विद्युत्प्रभ, 5 किलिकिल, 6 चूड़ामणि, 7 शशिप्रभा, 8 वंशाल, 9 पुष्पचूड़, 10 हंसगर्भ, 11 बलाहक, 12 शिवंकर, 13 श्रीहर्म्य, 14 चमर, 15 शिवमंदिर, 16 वसुमत्क, 17 वसुमती, 18 सिद्धार्थक, 19 शत्रुंजय, 20 केतुमाला, 21 सुरेंद्रकांत, 22 गगननंदन, 23 अशोका, 24 विशोका, 25 वीतशोका, 26 अलका, 27 तिलका, 28 अंबरतिलक, 29 मंदिर, 30 कुमुद, 31 कुंद, 32 गगनवल्लभ, 33 द्युतिलक, 34 भूमितिलक, 35 गंधर्वपुर, 36 मुक्ताहार, 37 निमिष, 38 अग्निज्वाल, 39 महाज्वाल, 40 श्रीनिकेत, 41 जय, 42 श्रीनिवास, 43 मणिवज्र, 44 भद्राश्व, 45 भवनंजय, 46 गोक्षीर, 47 फेन, 48 अक्षोभ्य, 49 गिरिशिखर, 50 धरणी, 51 धारण, 52 दुर्ग, 53 दुर्धर, 54 सुदर्शन, 55 महेंद्रपुर, 56 विजयपुर, 57 सुगंधिनी, 58 वज्रपुर, 59 रत्नाकर और 60 चंद्रपुर । इस प्रकार उत्तर श्रेणी में ये बड़े-बड़े साठ नगर सुशोभित हैं इनकी शोभा स्वर्ग के नगरों के समान है ।।78-87।। ये नगर इंद्रपुरी के समान हैं और बड़े-बड़े भवन स्वर्ग के विमानों के समान हैं । यहाँ का प्रत्येक नगर शोभा की अपेक्षा दूसरे नगर से पृथक् ही मालूम होता है तथा हर एक नगर का वैभव भी दूसरे नगर के वैभव की अपेक्षा पृथक मालूम होता है अर्थात् यहाँ के नगर एक-से-एक बढ़कर हैं ।।88।। यहाँ के मनुष्य देवकुमारों के समान हैं और स्त्रियाँ अप्सराओं के तुल्य हैं । ये सभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने योग्य छहों ऋतुओं के भोग भोगते हैं ।।89।। इस प्रकार यह विजयार्ध पर्वत ऐसे-ऐसे श्रेष्ठ नगरों को धारण कर रहा है कि बड़े-बड़े प्राचीन कवि भी अपने वचनों-द्वारा जिनकी स्तुति नहीं कर सकते । इसके सिवाय यह पर्वत अपने ऊपर की उत्कृष्ट भूमि से ऐसा मालूम होता है मानो स्वर्ग की लक्ष्मी को ही बुला रहा हो ।।90।।
यह पर्वत अपने बड़े-बड़े शिखरों से स्वर्ग को धारण कर रहा है, अपने विस्तृत तलभाग से अधोलोक को धारण कर रहा है और समीप में ही घूमने वाले विद्याधर तथा धरणेंद्रों से मध्यलोक की शोभा धारण कर रहा है । इस प्रकार यह एक ही जगह तीनों लोको की शोभा प्रकट कर रहा है ।।91।। जिन में कोमल पल्लवों के बिछौने बिछे हुए है और जो उपभोग के योग्य चंदन, कपूर आदि से सुगंधित है । वन के मध्य में बने हुए लता-गृहों से यह पर्वत विद्याधरियों की रतिक्रीड़ा को प्रकट कर रहा है ।।92।। इस पर्वत के किनारों पर देव, असुरकुमार, किन्नर और नागकुमार आदि देव अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ अपने को अच्छे लगने वाले तथा अपने-अपने योग्य संभोग आदि का उत्सव करते हुए नियम से निवास करते रहते हैं ।।93।। इस पर्वत पर देवों के सेवन करने योग्य नदियों के किनारे बने हुए लतागृह में बैठी हुईं तथा प्रणय कोप से जिनके मुख कुछ मलिन अथवा कुटिल हो रहे हैं ऐसी अपनी स्त्रियों को विद्याधर लोग सदा मनाते रहते हैं प्रसन्न करते रहते हैं ।।94।। इधर ये कुपित हुई स्त्रियाँ अपने पतियों को मृणाल के बंधनों से बांधकर रति-क्रीड़ा से विमुख कर रही हैं, इधर कानों के आभूषण स्वरूप कमलों से ताड़ना करके ही विमुख कर रही हैं और इधर मुख की मदिरा ही थूककर उन्हें रति-क्रीड़ा से पराङ्मुख कर रही हैं ।।95।। यह पर्वत कही पर देवांगनाओं के सुंदर नृत्य और गीतों से मनोहर हो रहा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो कामदेव का निवासस्थान ही हो और कही पर मदोन्मत्त कोयलों के मधुर शब्दरूपी नगाड़ों से युक्त हो रहा है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो कामदेव के विजयोत्सव का विलास ही हो ।।96।। कहीं तो यह पर्वत जल के कानों को धारण करने से शीतल और कमलवनों को कंपित करने वाली वायु से अतिशय सुखदायी मालूम होता है और कहीं मनोहर शब्द करते हुए भ्रमरों से व्याप्त वृक्षों वाले बगीचों से अतिशय सुंदर जान पड़ता है ।।97।। यह पर्वत कहीं तो हाथियों के झुंड से सेवित हो रहा है, कहीं उड़ते हुए अनेक पक्षियों से व्याप्त हो रहा है और कहीं अनेक प्रकार के श्रेष्ठ मणियों की कांति से व्याप्त चाँदी के शिखरों से सुशोभित हो रहा है ।।98।। यह पर्वत कही पर नीलमणियों के बने हुए किनारों से सहित है इसके वे किनारे मेघ के समान मालूम होते हैं जिससे उन्हें देखकर मयूर असमय में ही (वर्षा ऋतु के बिना ही) नृत्य करने लगते हैं । और कहीं लाल-लाल रत्नों की शिलाओं से युक्त हैं, इसकी वे रत्नशिलाएँ अकाल में ही प्रातःकाल की लालिमा फैला रही हैं ।।99।। कही पर सुवर्णमय दीवालों पर पड़कर लौटती हुई सूर्य की किरणों से इस पर्वत पर का वन अतिशय दैदीप्यमान हो रहा है जिससे यह पर्वत आकाश में चलने वाले विद्याधरों को दावानल लगाने का संदेह उत्पन्न कर रहा है ।।100।। इस प्रकार अनेक विशेषताओं से सहित यह पर्वत रात-दिन इंद्रों के मन को भी बढ़ते हुए कौतुक से युक्त करता रहता है अर्थात् क्रीड़ा करने के लिए इंद्रों का भी मन ललचाता रहता है तब विद्याधरों की तो बात ही क्या है ।।101।। जिसके किनारे पर उगे हुए वृक्ष गंगा नदी के जल से सींचे जा रहे हैं और जिसके शिखरों पर के वन मेघों से चुंबित हो रहे हैं ऐसा यह विजयार्ध पर्वत विद्याधरों से सेवित अपने मणिमय शिखरों-द्वारा मेरु पर्वतों को भी जीत रहा है ।।102।। जिनके वृक्ष गंगा नदी के जल से सींचे हुए हैं, जिनके अग्रभाग फूलों से सुशोभित हो रहे हैं और जिन में अनेक भ्रमर शब्द कर रहे हैं ऐसे किनारे के उपवनों से यह पर्वत ऐसा मालूम होता है मानो देवों के उपवनों की शोभा की हँसी ही कर रहा हो ।।103।। इधर यह पूर्व दिशा की ओर जल के छींटों की वर्षा करती हुई गंगा नदी सुशोभित हो रही है और इधर यह पश्चिम की ओर कलहंस पक्षियों के मधुर शब्दों से शब्दायमान सिंधु नदी बह रही है ।।104।। यद्यपि यह दोनों ही गंगा और सिंधु नदियाँ हिमवत् पर्वत के मस्तक पर के पद्मनामक सरोवर से निकली हैं तथापि शुचिता अर्थात् पवित्रता के कारण (पक्ष में शुक्लता के कारण) इस विजयार्ध के पाद अर्थात् चरणों (पक्ष में प्रत्यंतपर्वत) की सेवा करती हैं सो ठीक है क्योंकि जो पवित्र होता है उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता । पवित्रता के सामने ऊँचाई व्यर्थ है । भावार्थ―गंगा और सिंधु नदी हिमवत् पर्वत के पद्य नामक सरोवर से निकल कर गुहाद्वार से विजयार्ध पर्वत के नीचे होकर बहती हैं । इसी बात का कवि ने आलंकारिक ढंग से वर्णन किया है । यहाँ शुचि और शुक्ल शब्द श्लिष्ट हैं ।।105।। जिस प्रकार नीतिमान् और नीति पुत्र श्रेष्ठ पिता से मनवांछित फल प्राप्त करते हैं उसी प्रकार पुण्यात्मा, कार्यकुशल और नीतिमान् विद्याधर अपने भाग्य और पुरुषार्थ के द्वारा इस पर्वत से सदा मनोवांछित फल प्राप्त किया करते हैं ।।106।। यहाँ की पृथ्वी बिना बोये ही धान्य उत्पन्न करती रहती है, यहाँ की खानें बिना प्रयत्न किये ही उत्तम-उत्तम रत्न पैदा करती हैं और यहाँ के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष भी असमय में उत्पन्न हुए पुष्प और फलरूप संपत्ति को सदा धारण करते रहते हैं ।।107।। यहाँ के सरोवरों पर सारस और हंस पक्षी सदा शब्द करते रहते हैं, फूली हुई लताओं पर भ्रमर गुंजार करते रहते हैं और उपवनों में कोयलें शब्द करती रहती हैं जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो यहाँ कामदेव सदा ही जागृत रहा करता हो ।।108।। जो कमलवन के पराग को खींच रहा है, जो उपवनों के फूले हुए वृक्षों को हिला रहा है और जो संभोगजन्य परिश्रम को दूर कर देने वाला है ऐसे वायु से यहाँ की विद्याधरियां सदा संतोष को प्राप्त होती रहती हैं ।।109।। इधर इस वन में यह सिंह गरज रहा है उसके भय से यह हाथियों का समूह वन को छोड़ रहा है और जिनके मुख से ग्रास भी गिर रहा है ऐसा यह हरिणियों का समूह भी पर्वत के तलागृहों से निकलकर भागा जा रहा है ।।110।। इधर तालाब के किनारे यह उत्कंठित हुई हंसिनी, जो कमल के पराग से बहुत शीघ्र पीला पड़ गया है ऐसे अपने साथी―प्रिय हंस को चकवा समझकर उसके समीप नहीं जाती है और अश्रु डालती हुई रो रही है ।।111।। इधर यह चकवी कमलिनी के नवीन पत्रों से छिपे हुए अपने साथी―चकवा को न देखकर बार-बार दीन शब्द करती हुई तालाब के चारों ओर घूम रही है ।।112।। इधर इस पर्वत के मणिमय किनारे पर यह शरद्ऋतु का छोटा-सा बादल आ गया है, हलका होने के कारण इसे सब कोई सुखपूर्वक ले जा सकते हैं और इसीलिए ये देव तथा विद्याधरों की कन्याएँ इसे इधर-उधर चलाती हैं और खींचकर अपनी-अपनी और ले जाती हैं ।।113।। जो सब जीवों को अतिशय इष्ट है, जो बहुत बड़ी है, जो अपनी लहरों से ऐसी जान पड़ती है मानो उसने शरद्ऋतु के बादल ही धारण किये हों और जिसका जल वनों के अंतभाग तक फैल गया है ऐसी गंगा नदी को भी यह महापर्वत अपने निचले शिखरों पर धारण कर रहा है ।।114।। और, जो अतिशय विस्तृत है जो कठिनता से पार होने योग्य है, जो लगातार समुद्र तक चली गयी है जिसने लताओं के वन को जल से आर्द्र कर दिया है तथा जो अपने किनारे की उपमा को प्राप्त है ऐसी सिंधु नदी को भी यह पर्वत धारण कर रहा है ।।115।। इस प्रकार अनेक विशेष गुणों से सहित इस पर्वत पर जिसे देखो वही सुख देने वाला, हृदय को हरण करने वाला और आंखों को लुभाने वाला जान पड़ता है ।।116।।
इस पर्वत के नीचले शिखरों पर जो फूलों से व्याप्त हरी-हरी वन की पंक्ति दिखाई दे रही है वह इस पर्वत की धोती की शोभा धारण कर रही है और शिखर के अग्रभाग पर जो सफेद-सफेद बादलों की पंक्ति लग रही है वह इसकी पगड़ी की शोभा बढ़ा रही है ।।117।। जिनका अंतभाग परदा के समान सफेद बादलों की पंक्ति से ढका हुआ है और मणियों की प्रभा के प्रसार से जिनका सब अंधकार नष्ट हो गया है ऐसे इस पर्वत के लतागृहों में विद्याधरियाँ विद्याधरों के साथ क्रीड़ा कर रही हैं ।।118।। इस पर्वत के ऊपर शरद्ऋतु का मोटा बादल चंदोवा की शोभा बढ़ाता हुआ हमेशा स्थिर रहता है इसलिए विद्याधरियाँ चिरकाल तक रमण करने की इच्छा से वहीं पर अपना घर-सा बना लेती हैं और गरमी के दिनों से भी गरमी का दुःख नहीं जानती ।।119।। ये शरद्ऋतु के बादल भी चमकते हुए इंद्रनीलमणियों की प्रभा में डूबकर काले बादलों के समान हो रहे हैं, इन्हें देखकर ये मयूर हर्षित हो रहे हैं और उन्मत्त होकर शब्द करते हुए पूंछ फैलाकर सुंदर नृत्य कर रहे हैं ।।120।। इधर ये विद्याधरों की स्त्रियां पर्वत के किनारे में मिले हुए सफेद बादलों को स्थल समझकर उनके पास पहुंची हैं और उन पर इस प्रकार शय्या बना रही हैं मानो बिछे हुए किसी लंबे-चौड़े रेशम की जाजम पर ही बना रही हो ।।121।। इधर मनोहर शब्द करते हुए सारस पक्षियों से व्याप्त तालाबों के किनारों पर ये जंगली हाथी प्रवेश कर रहे हैं जिससे ये हंसों की पंक्तियाँ श्रावण मास के डर से आकाश में उड़ी जा रही है और ऐसी दिखाई देती हैं मानो आकाशरूपी लक्ष्मी के हार की लड़ियाँ ही हों ।।122।। इधर यह सूर्य का बिंब हरे-हरे मणियों के बने हुए किनारों की कांति के समूह से आच्छादित हो गया है इसलिए ये विद्याधर इसे कमलिनी का हरा पत्ता समझकर पर्वत के इसी किनारे की ओर बार-बार देखते हैं ।।123।। कहीं पर सरोवर के किनारे जंगली हाथियों के कपोलों की रगड़ से जिनकी छाल गिर गयी है ऐसे वन के वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो फूलरूपी आँसुओं की बूंदे डालते हुए और उनके भीतर बैठे हुए भ्रमरों की गुंजार के बहाने करुणाजनक शब्द करते हुए रो ही रहे हों ।।124।। इधर कमलवनों में मद के कारण जिनके शब्द उत्कट हो गये हैं ऐसे कलहंस और सारस पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं और इधर कोयलों के मनोहर शब्दों से बड़ा हुआ मयूरों का मनोहर शब्द विस्तृत हो रहा है ।।125।। इधर इस वन में शरदऋतु के से सफेद बादल और वर्षाऋतु के से काले बादल स्वेच्छा से मिल रहे हैं और ऐसे जान पड़ते हैं मानो सफेद और काले दो हाथी एक-दूसरे के मुंह के सामने सूंड चलाते हुए युद्ध ही कर रहे हों ।।126।। इधर वायु से जिसके वृक्ष हिल रहे हैं और जो फूलों की पराग से बिल्कुल ढकी हुई है ऐसी यह वन की भूमि यद्यपि दिखाई नहीं दे रही है तथापि सुगंधि का लोलुपी और चारों ओर से आता हुआ यह भ्रमरों का समूह इसे दिखला रहा है ।।127।। इधर, जो अनेक जंगली हाथियों के झुंडों से सेवित है जिसके वृक्ष उन हाथियों के मदरूपी जल से सींचे गये हैं और जिसके वृक्ष तथा लताएं बीच-बीच में पड़ते हुए और मद से मनोहर शब्द करते हुए भ्रमरों के समूह से व्याप्त हो रही हैं ऐसा यह वन कितना सुंदर सुशोभित हो रहा है ।।128।। इधर, जो सुगंधित कमलों के वनों से सहित है और जो अतिशय मनोहर जान पड़ती है ऐसी इन वन की गलियों में ये सुंदर दाँतों वाली विद्याधरों की स्त्रियाँ करधनी पहने हुए और नदियों के किनारों के बालू के टीलों को जीतने वाले अपने बड़े-बड़े जघनों (नितंबों) से धीरे-धीरे जा रही हैं ।।129।। इधर, इस पर्वत पर के वन सरस पल्लव और पुष्पों की रचना मानो बाँट देना चाहते हैं इसीलिए वे भ्रमरों के मनोहर शब्दों के बहाने ‘इधर इस वृक्ष पर आओ, इधर इस वृक्ष पर आओ’ इस प्रकार निरंतर इन विद्याधरियों को बुलाते रहते हैं ।।130।। इधर वृक्षों की सघनता से जिसमें खूब अंधकार हो रहा है, ऐसे फूले हुए वन के मध्यभाग में अपने शरीर की कांति से दृष्टि को रोकने वाले अंधकार को दूर करती हुई ये विद्याधरियाँ साथ में अनेक दीपक लेकर प्रवेश कर रही हैं ।।131।। इधर, इन तरुण स्त्रियों ने अपने नाखूनों से इन लताओं के नवीन-कोमल पत्ते छेद दिये हैं इसलिए फूलों का रस पीने की इच्छा से इन लताओं पर बैठे और निरंतर गुंजार करते हुए इन भ्रमरों के द्वारा ऐसा जान पड़ता है मानो इन लताओं के रोने का शब्द ही फैल रहा हो ।।132।। इधर, जिन्होंने फूलों के कर्णभूषण बनाकर पहिने हैं, फूलों की पराग से जिनके स्तनमंडल पीले पड़ गये हैं और जिनकी बड़ी-बड़ी आँखें कामदेव के बाण के समान जान पड़ती हैं ऐसी ये विद्याधरियाँ फूल तोड़ने के लिए इस पर्वत पर इधर-उधर जा रही हैं ।।133।। जिनकी भौंहें सुंदर हैं, नेत्र अतिशय चंचल है, नखों की किरणें निकली हुई मंजरियों के समान है और जो फूल तोड़ने के लिए वनों में तल्लीन हो रही हैं ऐसी ये तरुण स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ ऐसी घूम रही है मानो निकली हुई मंजरियों से सुशोभित और चंचल भ्रमरों के समूह से युक्त सोने की लताएँ ही हों ।।134।। जिसमें मंद-मंद वायु चल रहा है, फूल खिले हुए हैं और फूली हुई मालती से जिसके किनारे अतिशय सुंदर हो रहे हैं ऐसे इस वन में इस समय यह वायु काले-काले भ्रमरों से युक्त वृक्षों की पंक्ति को हिला रहा है ।।135।। इधर, जिसने कल्पवृक्षों की पंक्तियाँ हिलायी हैं, जिसने मंदार जाति के पुष्पों की सांद्र पराग से दिशाएँ सुगंधित कर दी है, जो मदोन्मत्त भ्रमरों और कोयलों के शब्द हरण कर रहा है और जो नवीन कोमल पत्तों को भेद रहा है ऐसा वायु धीरे-धीरे सब ओर बह रहा है ।।136।।
इधर, जो कमलवनों को धारण करने वाले जल में लहरें उत्पन्न कर रहा है, फूलों के रस की सुगंधि से सहित है और अतिशय शीतल है ऐसा यह वायु फूले हुए वृक्षों के शिखर का सब ओर से स्पर्श कर रहा है ।।137।। जिसने कोमल लताओं के ऊपर के नवीन पत्तों को मसल डाला है और जिसमें निर्झरनों के जल की बूँदों का समूह मंडलाकार होकर मिल रहा है ऐसा यह वायु अपने द्वारा उड़ाये हुए फूलों के पराग को चँदोवा की शोभा प्राप्त करा रहा है । भावार्थ―इस वन में वायु के द्वारा उड़ाया हुआ फूलों का पराग चँदोवा के समान जान पड़ता है ।।138।। इस वन में होने वाली विद्याधरियों की अतिशय रतिक्रीड़ा को किन्नर लोग चारों ओर फैले हुए चंचल कंकणों के शब्दों से और उनके साथ होने वाले नुपूरों की मनोहर झंकारों से सहज ही जान लेते हैं ।।139।। इधर यह पक्षियों का समूह इस वन के मध्य में हम लोगों के कानों को आनंद देने वाला तरह-तरह का शब्द कर रहा है और इधर यह उन्मत्त हुआ मयूर विस्तृत शब्द करता हुआ एक प्रकार का विशेष नृत्य कर रहा है ।।140।। इस महापर्वत के किनारे-किनारे नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित वन की पंक्ति सुशोभित हो रही है । देखो, वह वायु के द्वारा हिलते हुए अपने वृक्षों से ऐसी जान पड़ती है मानो नृत्य ही करना चाहती हो ।।141।। जिसमें अनेक भ्रमर गुंजार कर रहे हैं ऐसी यह वनों की पंक्ति ऐसी मालूम होती है मानो इस पर्वत का यश ही गाना चाहती हो और जो इसके चारों ओर फूलों के समूह बिखरे हुए हैं उनसे यह ऐसी जान पड़ती है मानो इस पर्वत को पुष्पांजलि ही दे रही हो ।।142।। इस वन के वृक्षों पर बैठे हुए भ्रमर पुष्परस का पान कर रहे हैं और कोयलें मनोहर शब्द कर रही हैं जिससे ऐसा मालूम होता है मानो भ्रमररूपी चोरों के समूह ने इन वन-वृक्षों का सब पुष्प-रसरूपी धन लूट लिया है और इसीलिए वे बोलती हुई कोयलों के शब्दों के द्वारा मानो हल्ला ही मचा रहे हों ।।143।। इस पर्वत के चाँदी के बने हुए प्रदेशों पर आकर जो मयूर खूब नृत्य कर रहे हैं उनके पड़ते हुए प्रतिबिंब इस पर्वत पर खिले हुए नीलकमलों के समूह की शोभा फैला रहे हैं । भावार्थ―चाँदी की सफेद जमीन पर पड़े हुए मयूरों के प्रतिबिंब ऐसे पड़ते हैं मानो पानी में नील कमलों का समूह ही फूल रहा हो ।।144।। इसका माहात्म्य अनुपम है, इसकी कांति बर्फ के समान अतिशय स्वच्छ है, इसकी पवित्र मूर्ति का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता अथवा यह किसी के भी द्वारा उल्लंघन न करने योग्य पुण्य की मूर्ति है और इसने स्वयं समुद्र तक पहुँचकर उसे तिरस्कृत कर दिया है इन सभी कारणों से यह चाँदी का विजयार्ध पर्वत पृथिवी पर गंगा नदी के प्रवाह के समान सुशोभित हो रहा है ।।145।। इस महापर्वत के प्रत्येक ऊँचे तट पर लगी हुई हरी-हरी वनपंक्ति को देखकर इन मयूरों को मेघों की शंका हो रही है जिससे वे हर्षित हो पूँछ फैलाकर नृत्य कर रहे हैं ।।146।। जिनमें देव, नागेंद्र और धरणेंद्र सदा क्रीड़ा किया करते हैं, जिनमें नाना प्रकार के लतागृह, तालाब और बालू के टीले (क्रीड़ाचल) बने हुए हैं और जिनके वृक्ष कोमल पत्ते तथा फूलों से निरंतर उज्ज्वल रहते हैं ऐसे ये उपवन इस पर्वत के प्रत्येक शिखर पर सुशोभित हो रहे हैं ।।147।। इधर, यह सूर्य चलता-चलता इस महापर्वत के किनारे आ गया है और वहाँ अनेक प्रकार के मणियों के किरणसमूह से चित्र-विचित्र होने के कारण आकाश में किसी अनेक रंग वाले पक्षी की शोभा धारण कर रहा है ।।148।। जिनके मध्यभाग रत्नों की कांति से व्याप्त हो रहे हैं, जिनमें नागकुमार और व्यंतर जाति के देव प्रसन्न होकर क्रीड़ा करते हैं, जिन्होंने सूर्यमंडल को भी रोक लिया है, जिन्होंने सब दिशाएँ आच्छादित कर ली हैं, जो वायु की गति को भी रोकने वाले हैं, देवांगनाओं के मन का हरण करते हैं और आकाश को उल्लंघन करने वाले हैं ऐसे बड़े-बड़े सघन शिखरों से यह पर्वत कैसा सुशोभित हो रहा है ।।149।। इधर देखो, जिस प्रकार कोई महामत्स्य समुद्र में से धीरे-धीरे निकलता है उसी प्रकार इस पर्वत की गुफा में से यह भयंकर अजगर धीरे-धीरे निकल रहा है । इसने अपने शरीर से समीपवर्ती लता, छोटे-छोटे पौधे और वृक्षों को पीस डाला है तथा यह क्रोधपूर्वक की गयी फूत्कार की गरमी से समीपवर्ती वन को जला रहा है ।।150।। इधर इस पर्वत के किनारे पर अनेक प्रकार के रत्नों के प्रकाश से मिली हुई संध्याकाल की गहरी ललाई फैल रही है जिससे यह रूपमय होने पर भी अपनी प्रकृति से विरुद्ध सुवर्णमय मेरु पर्वत की दर्शनीय शोभा धारण कर रहा है ।।151।। इधर देखो, इस पर्वत के किनारे के समीप लगे हुए असन जाति के वृक्षों का बहुत-सा पीले रंग का पराग तीव्र वेग वाले वायु के द्वारा ऊँचा उड़-उड़कर आकाश में छाया हुआ है और सुवर्ण के बने हुए छत्र की शोभा धारण कर रहा है ।।152।। इधर, झरते हुए मदजल से भरे हुए हाथियों के गंड-स्थल खुजलाने से जिनकी छोटी-छोटी चट्टानें अस्त-व्यस्त हो गयी हैं और वृक्ष टूट गये हैं ऐसी इस पर्वत के किनारे की भूमियाँ मदोन्मत्त हाथियों का मार्ग सूचित कर रही हैं । भावार्थ―चट्टानों और वृक्षों को टूटा-फूटा हुआ देखने से मालूम होता है कि यहाँ से अच्छे-अच्छे मदोन्मत्त हाथी अवश्य ही आते-जाते होंगे ।।153।। इधर देखो, इस पर्वत के लतागृहों में और वन के भीतरी प्रदेशों में ये हरिणों के समूह नाक फुला-फुलाकर बहुत से घास के समूह को सूँघते हैं और उसमें जो घास अच्छी जान पड़ती है उसे ही खाना चाहते हैं ।।154।। इधर देखो, इस पर्वत का जो-जो किनारा जिस-जिस प्रकार के रत्नों का बना हुआ है ये हरिण आदि पशु उन-उन किनारे पर जाकर उसी-उसी प्रकार की कांति को प्राप्त हो जाते हैं और ऐसे मालूम होने लगते हैं मानो इन्होंने किसी दूसरी ही जाति का रूप धारण कर लिया हो ।।155।। इधर, यह हरिणियों का समूह हरे रंग के मणियों की फैली हुई किरणों को घास समझकर खा रहा है परंतु उससे उसका मनोरथ पूर्ण नहीं होता इसलिए धोखा खाकर पास ही में लगी हुई सचमुच की घास को भी नहीं खा रहा है ।।156।। इधर वन के मध्य में गाती हुई किन्नर जाति की देवियों का सुंदर संगीत सुनकर यह हरिणों का समूह आधा चबाये हुए तृणों का ग्रास मुंह से बाहर निकालता हुआ और नेत्रों को कुछ-कुछ बंद करता हुआ चुपचाप खड़ा है ।।157।। इधर यह सूर्य का बिंब इस पर्वत के मध्य शिखर की ओट में छिप गया है इसलिए सूर्य क्या अस्त हो गया, ऐसी आशंका से व्याकुल हुई चकवी सायंकाल के पहले ही अपने पति के पास खड़ी-खड़ी भय को प्राप्त हो रही है ।।158।। इस पर्वत पर कमलिनियाँ खूब विस्तृत हैं और वे सदा ही फूली रहती है, इस पर्वत पर भ्रमरियाँ भी सदा गुंजार करती रहती है, हाथी सदा मद झराते रहते हैं और यहां के वनों के वृक्ष भी सदा फूले-फले हुए मनोहर रहते हैं ।।159।। यह पर्वत शरत् ऋतु के बादल के समान अतिशय स्वच्छ है । इसके शिखर पर लगी हुई यह हरी-भरी वन की पंक्ति ऐसी शोभा धारण कर रही है मानो बलभद्र के अतिशय सफेद कांति को धारण करने वाले नितंब भाग पर नीले रंग की धोती ही पहनायी हो ।।160।। यह सुंदर पर्वत चंद्रमा के समान स्वच्छ है और दोनों ही श्रेणियों के बीच में हरे-हरे वनों के समूह धारण कर रहा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो मनोहर और सफेद मेघ के समान उज्ज्वल मूर्ति से सहित तथा वायु के वेग से आकर दोनों ओर समीप में ठहरे हुए काले-काले मेघों को धारण करने वाला ऐरावत हाथी ही हो ।।161।। जो सुगंधित फूलों की पराग को सब दिशाओं में फैला रहा है, जो सुगंधि के कारण इकट्ठे हुए भ्रमरों की स्पष्ट झंकार से मनोहर जान पड़ता है और जो विद्याधरियों के संभोगजनित खेद को दूर कर देता है ऐसा वायु इस पर्वत के प्रत्येक वन में धीरे-धीरे बहता रहता है ।।162।। देवांगनाओं तथा इस पर्वत पर रहने वाली स्त्रियों के बीच प्रकृति के द्वारा किया हुआ स्पष्ट दिखने वाला केवल इतना ही अंतर है कि देवांगनाओं के नेत्र टिमकार से रहित होते हैं और यहाँ की स्त्रियों के नेत्र लीला से कुछ-कुछ टेढ़े सुंदर और चंचल कुटाक्षों के विलास से सहित होते हैं ।।163।। इधर देखो, जिसके गंडस्थल पर अनेक उन्मत्त भ्रमर मंडरा रहे हैं ऐसा यह वन में प्रवेश करता हुआ हाथी इस गिरिराज के सुवर्णमय तटों को देखकर दावानल के डर से वन को छोड़ रहा है ।।164।। इधर, नीलमणि के बने हुए ऊँचे किनारे को देखता हुआ यह मयूर मेघ की आशंका से हर्षित हो मधुर शब्द करता हुआ पूँछ उठाकर नृत्य कर रहा है सो ठीक ही है क्योंकि मूर्ख स्वार्थी जन सचाई का विचार नहीं करते हैं ।।165।। इधर तालाबों में ये हंस मधुर शब्द कर रहे हैं और वृक्षों पर कोयल तथा भ्रमर शब्द कर रहे हैं । इधर फलों के बोझ से जिनकी शाखाएँ नीचे की ओर झुक गयी हैं ऐसे ये वृक्ष अपनी हिलती हुई शाखाओं से ऐसे मालूम होते हैं मानो कामदेव को ही बुला रहे हों ।।166।। इधर अपनी स्त्री के स्तन-तट का स्पर्श करता हुआ और उस सुख के अनुभव से कुछ-कुछ नेत्रों को बंद करता हुआ यह किन्नर अपनी स्त्री के साथ-साथ वन के मध्यभाग से धीरे-धीरे जा रहा है ।।167।। यह विजयार्ध पर्वत अपने शिखरों पर निर्मल शरीर वाले करोड़ों सिंह, करोड़ों चमरी गायें और करोड़ों रंगों को धारण कर रहा है और उन सबसे ऐसा मालूम होता है मानो लोध्रवृक्ष के समान सफेद अपने यशसमूह
की संतति को ही धारण कर रहा हो ।।168।। अपनी-अपनी देवांगना के साथ विहार करते हुए देवों को इस पर्वत के रजतमयी शिखरों पर जो संतोष होता है वह उन्हें न तो स्वर्ग में मिलता है, न हिमवान् पर्वत पर मिलता है और न सुमेरु पर्वत के किसी तट पर ही मिलता है ।।169।।
इधर देखो, जो जंगली हाथियों के गंडस्थलों की रगड़ से लगे हुए मद-जल से तर-बतर हो रहा है, ऐसे इस पहाड़ पर की गोल चट्टान को यह सिंह हाथी समझ रहा है इसीलिए यह उसे देखकर बार-बार उस पर प्रहार करता है और नाखूनों से समीप की भूमि को खोदता है ।।170।। इधर इस वन में शरद्ऋतु के चंद्रमा के समान निर्मल शरीर की कांति को धारण करता हुआ तथा इस पर्वत के गुफारूपी मुख पर अट्टाहास की शोभा बढ़ाता हुआ यह सिंह धीरे-धीरे जागकर जमुहाई ले रहा है और पर्वत के शिखर पर छलांग मारने की इच्छा कर रहा है ।।171।। इधर यह लतागृह में अजगर पड़ा हुआ है, यह पर्वत के बिल में से अपना आधा शरीर बाहर निकाल रहा है और ऐसा जान पड़ता है मानो एक जगह इकट्ठा हुआ पहाड़ की अंतड़ियों का बड़ा भारी समूह ही हो । इसने श्वास रोककर अपना मुँहरूपी बिल खोल रखा है और उसे बिल समझ कर उसमें पड़ते हुए जंगली जीवों के द्वारा यह अपनी क्षुधा का प्रतिकार करना चाहता है ।।172।। यह पर्वत अपने लंबे फैले हुए शिखरों से समुद्र के जल का स्पर्श करता है और यह समुद्र वायु से कंपित होकर निरंतर उठती हुई लहरों की अनेक छोटी-छोटी बूँदों से प्रतिदिन इस गिरिराज के तटों को शीतल करता रहता है सो ठीक ही है क्योंकि जिनका अंतःकरण शीतल अर्थात् शांत होता है ऐसे महापुरुष समीप में आये हुए पुरुष को शीतल अर्थात् शांत करते ही हैं ।।173।। ये गंगा और सिंधु नदियां रसिक अर्थात् जलसहित और पक्ष में शृंगार रस से युक्त होने के कारण इस पर्वत के हृदय के समान तट को विदीर्ण कर तथा वायु के द्वारा हिलती हुई तरंगोंरूपी अपने हाथों से बार-बार स्पर्श कर चली जा रही हैं सो ठीक ही है क्योंकि बड़े पुरुषों का बड़ा भारी हृदय भी स्त्रियों के द्वारा भेदन किया जा सकता है ।।174।। जिसकी जल-वर्षा बहुत ही उत्कृष्ट है, जो मुक्ताफल अथवा नक्षत्रों के समान अतिशय निर्मल है और जिसकी गर्जना भी उत्कृष्ट है ऐसी यह मेघों की घटा, अधिक मजबूत तथा जिसके सब स्थिर अंश समान हैं ऐसे इस विजयार्ध पर्वत के शिखरों के समीप यद्यपि बार-बार और शीघ्र-शीघ्र आती है तथापि गर्जना के द्वारा ही प्रकट होती है । भावार्थ―इस विजयार्ध पर्वत के सफेद शिखरों के समीप छाये हुए सफेद-सफेद बादल जब तक गरजते नहीं हैं तब तक दृष्टिगोचर नहीं होते ।।175।। इधर देवों से मनोहर वन के मध्यभाग में तालाब के बीच इधर-उधर श्रेष्ठ गमन करने वाली यह सारस पक्षियों की पंक्ति उच्च स्वर से शब्द कर रही है और इधर आकाश में जोर से बरसती और शब्द करती हुई यह मेघों की माला उच्च और गंभीर स्वर से गरज रही है ।।176।। रमण करने के योग्य, श्रेष्ठ निर्मल और सुंदर शरीर वाले अपने पति को प्रसन्न करने वाली कोई स्त्री संभोग के बाद इस पर्वत के श्रेष्ठमणियों से दैदीप्यमान तटभाग पर बैठकर जिसके अवांतर अंग अतिशय सुंदर हैं, जो श्रेष्ठ है, ऊँचे स्वर से सहित है और बहुत मनोहर है ऐसा गाना गा रही है ।।177।। इधर इस पर्वत के मध्यभाग पर सुंदर लतागृह में बैठी हुई पतिसहित प्रेम के परवश और दैदीप्यमान कांति की धारक विद्याधरियों को देखकर जाति के देवों की स्त्रियां लज्जित हो रही हैं ।।178।। यह विजयार्ध पर्वत भी वृषभ जिनेंद्र के समान है क्योंकि जिस प्रकार वृषभजिनेंद्र श्रीमान् अर्थात् अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से सहित हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी श्रीमान् अर्थात् शोभा से सहित है । जिस प्रकार वृषभजिनेंद्र मनुष्य देव विद्याधर और चारण ऋद्धिधारी मुनियों के द्वारा सेवनीय हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी उनके द्वारा सेवनीय है अर्थात् वे सभी इस पर्वत पर विहार करते हैं । वृषभजिनेंद्र जिस प्रकार तीनों जगत् के गुरु हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी तीनों जगत् में गुरु अर्थात् श्रेष्ठ है । जिस प्रकार वृषभजिनेंद्र चंद्रमा के समान उज्ज्वल कीर्ति के धारक हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी चंद्र-तुल्य उज्ज्वल कीर्ति का धारक है, वृषभजिनेंद्र जिस प्रकार तुंग अर्थात् उदार हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी तुंग अर्थात् ऊँचा है, वृषभजिनेंद्र जिस प्रकार शुचि अर्थात् पवित्र हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी शुचि अर्थात् शुक्ल है तथा जिस प्रकार वृषभजिनेंद्र के पादमूल अर्थात् चरणकमल भरत चक्रवर्ती के द्वारा आश्रित हैं उसी प्रकार इस पर्वत के पादमूल अर्थात् नीचे के भाग भी दिग्विजय के समय गुफा में प्रवेश करने के लिए भरत चक्रवर्ती के द्वारा आश्रित हैं अथवा इसके पादमूल भरत क्षेत्र में स्थित हैं । इस प्रकार भगवान वृषभजिनेंद्र के समान अतिशय, उत्कृष्ट यह विजयार्ध पर्वत तुम दोनों की रक्षा करे ।।179।।
इस प्रकार युक्तिसहित धरणेंद्र के वचन कहने पर उन दोनों राजकुमारों ने भी उस गिरिराज की प्रशंसा की और फिर उस धरणेंद्र के साथ-साथ नीचे उतरकर अतिशय-श्रेष्ठ और ऊंची-ऊंची ध्वजाओं से सुशोभित रथनूपुरचक्रवाल नाम के नगर में प्रवेश किया ।।180।। धरणेंद्र ने वहां दोनों को सिंहासन पर बैठाकर सब विद्याधरों से कहा कि ये तुम्हारे स्वामी हैं और फिर उस धीर-वीर धरणेंद्र ने विद्याधरियों के हाथों से उठाये हुए सुवर्ण के बड़े-बड़े कलशों से इन दोनों का राज्याभिषेक किया ।।181।। राज्याभिषेक के बाद धरणेंद्र ने विद्याधरों से कहा कि जिस प्रकार इंद्र स्वर्ग का अधिपति है उसी प्रकार यह नमि अब दक्षिण श्रेणी का अधिपति हो और अनेक सावधान विद्याधरों के द्वारा नमस्कार किया गया यह विनमि चिरकाल तक उत्तर-श्रेणी का अधिपति रहे । कर्मभूमिरूपी जगत् को उत्पन्न करने वाले जगद्गुरु श्रीमान् भगवान वृषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहाँ भेजा है इसलिए सब विद्याधर राजा प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी आज्ञा धारण करें ।।182-183।। उन दोनों के पुण्य से तथा जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव की आज्ञा के निरूपण से और धरणेंद्र के योग्य उपदेश से उन विद्याधरों ने वह सब कार्य उसके कहे अनुसार ही स्वीकृत कर लिया था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों के द्वारा हाथ में लिया हुआ कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाता ।।184।। इस प्रकार नयों को जानने वाले धीर-वीर धरणेंद्र ने उन दोनों को गांधारपदा और पन्नगपदा नाम की दो विद्याएं दी और फिर अपना कार्य पूरा कर विनय से झुके हुए दोनों राजकुमारों को छोड़कर अपने निवासस्थान पर चला गया ।।185।। तदनंतर धरणेंद्र के चले जाने पर नाना प्रकार के संपूर्ण भोगोपभोगों को बार-बार भेंट करते हुए विद्याधर लोग हाथ जोड़कर मस्तक नवाकर स्पष्ट रूप से जिनकी सेवा करते हैं ऐसे वे दोनों कुमार उस पर्वत पर बहुत ही संतुष्ट हुए थे ।।186।। जो अपने-अपने भाग्य के समान अलंघनीय है, पुण्यात्मा जीवों का निवारन होने के कारण जो स्वर्ग का अनुकरण करती है तथा जो जिनेंद्र भगवान के समवसरण के समान सब लोगों के द्वारा वंदनीय है ऐसी उस विजयार्ध पर्वत की मेखला पर वे दोनों राजकुमार सुख से रहने लगे थे ।।187।। जिन्होंने स्वयं विधिपूर्वक अनेक विद्याएं सिद्ध की हैं और विद्या में बड़े-बड़े पुरुषों के साथ मिलकर अपने अभिलषित अर्थ को सिद्ध किया है ऐसे वे दोनों ही कुमार विद्याओं के अधीन प्राप्त होने वाले तथा छहों ऋतुओं के सुख देने वाले भोगों का उपभोग करते हुए उस पर्वत पर विद्याधरों के द्वारा विभक्त की हुई स्थिति को प्राप्त हुए थे । भावार्थ―यद्यपि वे जन्म से विद्याधर नहीं थे तथापि यहाँ जाकर उन्होंने स्वयं अनेक विद्याएं सिद्ध कर ली थीं और दूसरे विद्यावृद्ध मनुष्यों के साथ मिलकर वे अपना अभिलषित कार्य सिद्ध कर लेते थे इसलिए विद्याधरों के समान ही भोगोपभोग भोगते हुए रहते थे ।।188।। इन दोनों कुमारों को प्रसन्न करने वाली सेवा करते हुए विद्याधर लोग अपना-अपना मस्तक झुकाकर उन दोनों की आज्ञा धारण करते थे । गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ये नमि और विनमि कहाँ तो उत्पन्न हुए और कहाँ उन्हें समस्त शत्रुओं को तिरस्कृत करने वाला यह विद्याधरों के इंद्र का पद मिला । यथार्थ में मनुष्य का पुण्य ही सुखदायी सामग्री को मिलाता रहता है ।।189।। नमि कुमार ने बड़ी-बड़ी भोगोपभोग की संपदाओं को प्राप्त हुए दक्षिण श्रेणी पर रहने वाले समस्त विद्याधर नगरियों के राजाओं को वश में किया था और विनमि ने उत्तरश्रेणी पर रहने वाले समस्त विद्याधर नगरियों के राजाओं को नम्रीभूत किया था ।।190।।
इस प्रकार वे दोनों ही राजकुमार विद्याधरों की उस लक्ष्मी को विभक्त कर विजयार्ध पर्वत के तट पर निष्कंटक रूप से रहते थे । हे भव्य जीवो, देखो, भगवान् वृषभदेव के चरणों का आश्रय लेने वाले इन दोनों कुमारों को पुण्य से ही उस प्रकार की विभूति प्राप्त हुई थी इसलिए जो जीव स्वर्ग आदि लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते हैं वे एक पुण्य का ही संचय करें ।।191।। चर और अचर जगत् के गुरु तथा तीन लोक के अधिपतियों-द्वारा पूजित भगवान् वृषभदेव को नमस्कार कर ही दोनों भक्त विद्याधरों के अधीश्वर होकर उचित सुख को प्राप्त हुए थे इसलिए जो भव्य जीव मोक्षरूपी अविनाशी सुख और परम कल्याणरूप जिनेंद्र भगवान् के गुण प्राप्त करना चाहते हैं वे आदिगुरु भगवान् वृषभदेव को मस्तक झुकाकर प्रणाम करें और उन्हीं की भक्तिपूर्वक पूजा करें ।।192।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्री महापुराणसंग्रह में नमि-
विनमि की राज्यप्राप्ति का वर्णन करने वाला उन्नीसवां पर्व समाप्त हुआ ।।19।।