आदिपुराण - पर्व 21: Difference between revisions
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एकविंशं पर्व
अथानंतर―श्रेणिक राजा ने नम्र होकर महामुनि गौतम गणधर से पूछा कि हे भगवन् मैं आपसे ध्यान का विस्तार जानना चाहता हूँ ।।1।। हे योगिराज, इस ध्यान का लक्षण क्या है ? इसके कितने भेद हैं, इसकी निरुक्ति (शब्दार्थ) क्या है, इसके स्वामी कौन हैं, इसका समय कितना है, इसका हेतु क्या है और इसका फल क्या है ? ।।2।। हे स्वामिन् इसका भाव क्या है ? इसका आधार क्या है ? इसके भेदों के क्या-क्या नाम हैं ? और उन सबका क्या-क्या अभिप्राय है ? ।।3।। इसका आलंबन क्या है और इसमें बल पहुँचाने वाला क्या है ? हे वक्ताओं में श्रेष्ठ, यह सब मैं जानना चाहता हूँ ।।4।। मोक्ष के साधनों में ध्यान ही सबसे उत्तम साधन माना गया है इसलिए हे भगवन्, इसका यथार्थ स्वरूप कहिए जो कि बड़े-बड़े मुनियों के लिए भी गोप्य है ।।5।। इस प्रकार पूछने वाले राजा श्रेणिक से भगवान् गौतमगणधर अपने दाँतों की फैलती हुई किरणोंरूपी जल से उसके शरीर का अभिषेक करते हुए कहने लगे ।।6।। कि हे राजन् जो कर्मों के क्षय करनेरूप कार्य का मुख्य साधन है ऐसे ध्यान नाम के उत्कृष्ट तप का मैं तुम्हारे लिए आगम के अनुसार अच्छी तरह उपदेश देता हूँ ।।7।।
तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में जो चित्त का निरोध कर लिया जाता है उसे ध्यान कहते हैं । वह ध्यान वज्रवृषभनाराचसंहनन वालों के अधिक-से-अधिक अंतर्मुहूर्त तक ही रहता है ।।8।। जो चित्त का परिणाम स्थिर होता है उसे ध्यान कहते हैं और जो चंचल रहता है उसे अनुप्रेक्षा, चिंता, भावना अथवा चित्त कहते हैं ।।9।। यह ध्यान छद्मस्थ अर्थात् बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों तक के होता है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती सर्वज्ञ देव के भी योग के बल से होने वाले आस्रव का निरोध करने के लिए उपचार से माना जाता है ।।10।। ध्यान के स्वरूप को जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुष ध्यान उसी को कहते हैं जिसकी वृत्ति अपने बुद्धि-बल के अधीन होती है क्योंकि ऐसा ध्यान ही यथार्थ में ध्यान कहा जा सकता है इससे विपरीत ध्यान अपध्यान कहलाता है ।।11।। योग, ध्यान, समाधि, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चंचलता रोकना, स्वांत निग्रह अर्थात् मन को वश में करना, और अंतःसंलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के ही पर्यायवाचक शब्द हैं―ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं ।।12।। आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ का चिंतवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं यह करणसाधन की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है । आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिंतवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं यह कर्तृवाच्य की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है क्योंकि जो परिणाम पहले आत्मा रूप कर्ता के परतंत्र होने से करण कहलाता था वही अब स्वतंत्र होने से कर्ता कहा जा सकता है । और भाववाच्य की अपेक्षा करने पर चिंतवन करना ही ध्यान की निरुक्ति है । इस प्रकार शक्ति के भेद से ज्ञान-स्वरूप आत्मा के एक ही विषय में तीन भेद होना उचित ही है । भावार्थ―व्याकरण में कितने ही शब्दों की निरुक्ति करण-साधन, कर्तृसाधन और भावसाधन की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार से की जाती है । जहाँ करण की मुख्यता होती है उसे करण-साधन कहते हैं, जहाँ कर्ता की मुख्यता है उसे कर्तृ-साधन कहते हैं और जहाँ क्रिया की मुख्यता होती है उसे भाव-साधन कहते हैं । यहाँ आचार्य ने आत्मा, आत्मा के परिणाम और चिंतवन रूप क्रिया में नय विवक्षा से भेदाभेद रूप की विवक्षा कर एक ही ध्यान शब्द की तीनों साधनों-द्वारा निरुक्ति की है, जिस समय आत्मा और परिणाम में भेदविवक्षा की जाती है उस समय आत्मा जिस परिणाम से ध्यान करे वह परिणाम ध्यान कहलाता है ऐसी करणसाधन से निरुक्ति होती है । जिस समय आत्मा और परिणाम में अभेद विवक्षा की जाती है उस समय जो परिणाम ध्यान करे यही ध्यान कहलाता है, ऐसी कर्तृसाधन से निरुक्ति होती है और जहाँ आत्मा तथा उसके प्रदेशों में होने वाली ध्यान रूप क्रिया में अभेद माना जाता है उस समय ध्यान करना ही ध्यान कहलाता है ऐसी भावसाधन से निरुक्ति सिद्ध होती है ।।13-14।। यद्यपि ध्यान ज्ञान की ही पर्याय है और ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य पदार्थों को ही विषय करने वाला है तथापि एक जगह एकत्रित रूप से देखा जाने के कारण ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य रूप-व्यवहार को भी धारण कर लेता है । भावार्थ―स्थिर रूप से पदार्थ को जानना ध्यान कहलाता है इसलिए ध्यान ज्ञान की एक पर्याय विशेष है । आत्मा के जो प्रदेश ज्ञान रूप हैं वे ही प्रदेश दर्शन, सुख और वीर्य रूप भी हैं इसलिए एक ही जगह रहने के कारण ध्यान में दर्शन सुख आदि का भी व्यवहार किया जाता है ।।15।। जिस प्रकार सुख तथा कोष आदि भावतंत्र के ही परिणाम कहे जाते हैं परंतु वे उससे भिन्न रूप होकर प्रकाशमान होते हैं―अनुभव में आते हैं इसी प्रकार अंतःकरण का संकोच करने रूप ध्यान भी यद्यपि चैतन्य (ज्ञान) का परिणाम बतलाया गया है तथापि वह उससे भिन्न रूप होकर प्रकाशमान होता है । भावार्थ―पर्याय और पर्यायी में कथंचिद् भेद की विवक्षा कर यह कथन किया गया है ।।16।। जगत् के समस्त तत्त्व जो जिस रूप से अवस्थित हैं और जिनमें यह मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ ऐसा संकल्प न होने से जो उदासीन रूप से विद्यमान हैं वे सब ध्यान के आलंबन (विषय) हैं । भावार्थ―ध्यान में उदासीन रूप से समस्त पदार्थों का चिंतवन किया जा सकता है ।।17।। अथवा संसारी और मुक्त इस प्रकार दो भेद वाले आत्म तत्त्व का चिंतवन करना चाहिए क्योंकि आत्मतत्त्व का चिंतवन ध्यान करने वाले जीव के उपयोग की विशुद्धि के लिए होता है ।।18।। उपयोग की विशुद्धि होने से यह जीव बंध के कारणों को नष्ट कर देता है, बंध के कारण नष्ट होने से उसके संवर और निर्जरा होने लगती है तथा संवर और निर्जरा के होने से इस जीव को निःसंदेह मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है ।।19।। जो-जो पदार्थ जिस-जिस प्रकार से अवस्थित है उसको उसी-उसी प्रकार से निश्चय करने वाले तथा ध्यान की इच्छा रखने वाले मोक्षाभिलाषी पुरुष के यह समस्त संसार आलंबन है । भावार्थ―रागद्वेष से रहित होकर किसी भी वस्तु का ध्यान कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।।20।। अथवा इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है संक्षेप में इतना ही समझ लेना चाहिए कि इस संसार में अपनी-अपनी पर्यायों सहित जो-जो पदार्थ हैं वे सब आम्नाय के अनुसार ध्येय कोटि में प्रवेश करते हैं अर्थात् उन सभी का ध्यान किया जा सकता है ।।21।। इस प्रकार जो ऊपर ध्यान करने योग्य पदार्थों का वर्णन किया गया है वह सब शुभ पदार्थ का चिंतवन करने वाले ध्यान में ही समझना चाहिए । यदि इष्ट अनिष्ट वस्तुओं का चिंतवन किया जायेगा तो वह असद्ध्यान कहलायेगा और उसमें ध्येय की कोई कल्पना नहीं की जाती अर्थात् असद्ध्यान का कुछ भी विषय नहीं है―कभी असद्ध्यान नहीं करना चाहिए ।।22।। जो मनुष्य तत्त्वों का यथार्थस्वरूप नहीं समझता वह विपरीत भाव से अतद्रूप वस्तु को भी तद्रूप चिंतवन करने लगता है और पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि कर केवल संक्लेश सहित ध्यान धारण करता है ।।23।। संकल्प-विकल्प के वशीभूत हुआ मूर्ख प्राणी पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट समझने लगता है उससे उसके राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और रागद्वेष से जो कठिनता से छूट सके ऐसे कर्मबंध को प्राप्त होता है ।।24।। विषयों में तृष्णा बढ़ाने वाली जो मन की प्रवृत्ति है वह संकल्प कहलाती है उसी संकल्प को दुष्प्रणिधान कहते हैं और दुष्प्रणिधान से अपध्यान होता है ।।25।। इसलिए चित्त की शुद्धि के लिए तत्त्वार्थ की भावना करनी चाहिए क्योंकि तत्त्वार्थ की भावना करने से ज्ञान की शुद्धि होती है और ज्ञान की शुद्धि होने से ध्यान की शुद्धि होती है ।।26।। शुभ और अशुभ चिंतवन करने से वह ध्यान प्रशस्त तथा अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का स्मरण किया जाता है । उस प्रशस्त तथा अप्रशस्त ध्यान में से भी प्रत्येक के दो-दो भेद हैं । भावार्थ―जो ध्यान शुभ परिणामों से किया जाता है उसे प्रशस्त ध्यान कहते हैं और जो अशुभ परिणामों से किया जाता है उसे अप्रशस्त ध्यान कहते हैं । प्रशस्त ध्यान के धर्म्य और शुक्ल ऐसे दो भेद हैं तथा अप्रशस्त ध्यान के आर्त और रौद्र ऐसे दो भेद हैं ।।27।। इस प्रकार जिनेंद्र भगवान् ने वह ध्यान आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल के भेद से चार प्रकार का वर्णन किया है ।।28।। इन चारों ध्यानों में से पहले के दो अर्थात् आर्त और रौद्र ध्यान छोड़ने के योग्य हैं क्योंकि वे खोटे ध्यान हैं और संसार को बढ़ाने वाले हैं तथा आगे के दो अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ध्यान मुनियों को भी ग्रहण करने योग्य हैं ।।29।। अब इन ध्यानों के अंतर्भेद, उनके लक्षण, उनकी निरुक्ति, उनके बलाधान, आधार, काल, भाव और फल का निरूपण करेंगे ।।30।।
जो ऋत अर्थात् दुःख में हो वह पहला आर्त्तध्यान है । वह चार प्रकार का होता है―पहला इष्ट वस्तु के न मिलने से, दूसरा अनिष्ट वस्तु के मिलने से, तीसरा निदान से और चौथा रोग आदि के निमित्त से उत्पन्न हुआ ।।31।। किसी इष्ट वस्तु के वियोग होने पर उनके संयोग के लिए बार-बार चिंतवन करना सो पहला आर्तध्यान है । इसी प्रकार किसी अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए निरंतर चिंतवन करना सो दूसरा आर्तध्यान है ।।32।। भोगों की आकांक्षा से जो ध्यान होता है वह तीसरा निदान नाम का आर्तध्यान कहलाता है । यह ध्यान दूसरे पुरुषों की भोगोपभोग की सामग्री देखने से संक्लिष्ट चित्त वाले जीव के होता है और किसी वेदना से पीड़ित मनुष्य का उस वेदना को नष्ट करने के लिए जो बार-बार चिंतवन होता है वह चौथा आर्त्तध्यान कहलाता है ।।33।। इष्ट वस्तुओं के बिना होनेवाले दुःख के समय जो ध्यान होता है वह इष्टवियोगज नाम का पहला आर्तध्यान कहलाता है, इसी प्रकार प्राप्त नहीं हुए इष्ट पदार्थ के चिंतवन से जो आर्तध्यान होता है वह निदानप्रत्यय नाम का दूसरा आर्तध्यान कहलाता है ।।34।। अनिष्ट वस्तु के संयोग के होने पर जो ध्यान होता है वह अनिष्टसंयोगज नाम का तीसरा आर्तध्यान कहलाता है और वेदना उत्पन्न होने पर जो ध्यान होता है वह वेदनोपगमोद्भव नाम का चौथा आर्तध्यान कहलाता है ।।35।। इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए, अनिष्ट वस्तु का अप्राप्ति के लिए, भोगोपभोग की इच्छा के लिए और वेदना दूर करने के लिए जो बार-बार चिंतवन किया जाता है उसी समय ऊपर कहा हुआ चार प्रकार का आर्तध्यान होता है ।।36।। इस प्रकार आर्त अर्थात् पीड़ित आत्मा वाले जीवों के द्वारा चिंतवन करने योग्य चार प्रकार के आर्तध्यान का निरूपण किया । यह कषाय आदि प्रमाद से अधिष्ठित होता है और प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थान तक होता है ।।37।। यह चारों प्रकार का आर्तध्यान अत्यंत अशुभ कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अंतर्मुहूर्त है और आलंबन अशुभ है ।।38।। इस आर्तध्यान में क्षायोपशमिक भाव होता है और तिर्यंच गति इसका फल है इसलिए यह आर्त नाम का खोटा ध्यान कल्याण चाहने वाले पुरुषों द्वारा छोड़ने योग्य है ।।39।। परिग्रह में अत्यंत आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका करना, अत्यंत लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्तध्यान के चिह्न हैं ।।40।। इसी प्रकार शरीर का क्षीण हो जाना, शरीर की कांति नष्ट हो जाना, हाथों पर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आंसू डालना तथा इसी प्रकार और और भी अनेक कार्य आर्तध्यान के बाह्य चिह्न कहलाते हैं ।।41।। इस प्रकार आर्तध्यान का वर्णन पूर्ण हुआ, अब रौद्र ध्यान का निरूपण करते हैं―जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है वह रुद्र क्रूर अथवा सर्व जीवों में निर्दय कहलाता है ऐसे पुरुष में जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते हैं । यह रौद्रध्यान भी चार प्रकार का होता है ।।42।। हिंसानंद अर्थात् हिंसा में आनंद मानना, मृषानंद अर्थात् झूठ बोलने में आनंद मानना, स्तेयानंद अर्थात् चोरी करने में आनंद मानना और संरक्षणानंद अर्थात् परिग्रह की रक्षा में ही रात-दिन लगा रहकर आनंद मानना ये रौद्रध्यान के चार भेद हैं । यह ध्यान छठे गुणस्थान के पहले-पहले पाँच गुणस्थानों में होता है ।।43।। यह रौद्रध्यान अत्यंत अशुभ कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है, अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यान के समान इसका क्षायोपशमिक भाव होता है ।।44।। मारने और बाँधने आदि की इच्छा रखना, अंग-उपांगों को छेदना, संताप देना तथा कठोर दंड देना आदि को विद्वान् लोग हिंसानंद नाम का रौद्रध्यान कहते हैं ।।45।। जीवों पर दया न करने वाला हिंसक पुरुष हिंसानंद नाम के रौद्रध्यान को धारण कर पहले अपने-आपका घात करता है पीछे अन्य जीवों का घात करे अथवा न करे । भावार्थ―अन्य जीवों का मारा जाना उनके आयु कर्म के अधीन है परंतु मारने का संकल्प करने वाला हिंसक पुरुष तीव्र कषाय उत्पन्न होने से अपने आत्मा की हिंसा अवश्य कर लेता है अर्थात् अपने क्षमा आदि गुणों को नष्ट कर भाव हिंसा का अपराधी अवश्य हो जाता है ।।46।। स्वयंभूरमण समुद्र में जो तंदुल नाम का छोटा मत्स्य रहता है वह केवल स्मृतिदोष से ही महामत्स्य के समान दोषों को प्राप्त होता है । भावार्थ―राघव मत्स्य के कान में जो तंदुल मत्स्य रहता है वह यद्यपि जीवों की हिंसा नहीं कर पाता है केवल बड़े मत्स्य के मुखविवर में आये हुए जीवों को देखकर उसके मन में उन्हें मारने का भाव उत्पन्न होता है तथापि वह उस भाव-हिंसा के कारण मरकर राघव मत्स्य के समान ही सातवें नरक में जाता है ।।47।। इसी प्रकार पूर्वकाल में अरविंद नाम का प्रसिद्ध विद्याधर केवल रुधिर में स्नान करने रूप रौद्र ध्यान से ही नरक गया था ।।48।। क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवार आदि को धारण करना, हिंसा की ही कथा करना और स्वभाव से ही हिंसक होना ये रौद्रध्यान के चिह्न माने गये हैं ।।49।। झूठ बोलकर लोगों को धोखा देने का चिंतवन करना सो मृषानंद नाम का दूसरा रौद्रध्यान है तथा कठोर वचन बोलना आदि इसके बाह्य चिह्न हैं ।।50।। दूसरे के द्रव्य के हरण करने अर्थात् चोरी करने में अपना चित्त लगाना-उसी का चिंतवन करना सो स्तेयानंद नाम का तीसरा रौद्रध्यान है और धन के उपार्जन करने आदि का चिंतवन करना सो संरक्षणानंद नाम का चौथा रौद्रध्यान है । (संरक्षणानंद का दूसरा नाम परिग्रहानंद भी है) ।।51।। स्तेयानंद और संरक्षणानंद इन दोनों रौद्रध्यानों के बाह्य चिह्न संसार में प्रसिद्ध हैं । गणधरदेव ने इस रौद्रध्यान का फल अतिशय कठिन नरकगति के दुःख प्राप्त होना बतलाया है ।।52।। भौंह टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर कंपने लगना और नेत्रों का अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यान के बाह्य चिह्न कहलाते हैं ।।53।। अनादिकाल की वासना से उत्पन्न होने वाले ये दोनों (आर्त और रौद्र) ध्यान बिना प्रयत्न के ही हो जाते हैं इसलिए मुनियों को इन दोनों का ही त्याग करना चाहिए ।।54।। संसार के कारणस्वरूप पहले कहे हुए दोनों खोटे ध्यानों का परित्याग कर मुनि लोग अंत के जिन दो ध्यानों का अभ्यास करते हैं वे उत्तम है, देश तथा अवस्था आदि की अपेक्षा रखते हैं, बाह्य सामग्री के अधीन हैं और इन दोनों का फल भी गौण तथा मुख्य की अपेक्षा दो प्रकार का है ।।55-56।। अध्यात्म के स्वरूप को जानने वाला मुनि, सूने घर में, श्मशान में, जीर्ण वन में, नदी के किनारे, पर्वत के शिखर पर, गुफा में, वृक्ष की कोटर में अथवा और भी किसी ऐसे पवित्र तथा मनोहर प्रदेश में, जहाँ आतप न हो, अतिशय गरमी और सर्दी न हो, तेज वायु न चलता हो, वर्षा न हो रही हो, सूक्ष्म जीवों का उपद्रव न हो, जल का प्रपात न हो और मंद-मंद वायु बह रही हो, पर्यंक आसन बाँधकर पृथ्वीतल पर विराजमान हो, उस समय अपने शरीर को सम, सरल और निश्चल रखे, अपने पर्यंक में बाँया हाथ इस प्रकार रखे कि जिससे उसकी हथेली ऊपर की ओर हो, इसी प्रकार दाहिने हाथ को भी बाँया हाथ पर रखे, आंखों को न तो अधिक खोले ही और न अधिक बंद ही रखे, धीरे-धीरे उच्छ्वास ले, ऊपर और नीचे की दोनों दाँतों की पंक्तियों को मिलाकर रखे और धीर-वीर हो मन की स्वच्छंद गति को रोके । फिर अपने अभ्यास के अनुसार मन को हृदय में, मस्तक पर, ललाट में, नाभि के ऊपर अथवा और भी किसी जगह रखकर परीषहों से उत्पन्न हुई बाधाओं को सहता हुआ निराकुल हो आगम के अनुसार जीव-अजीव आदि द्रव्यों के यथार्थस्वरूप का चिंतवन करे ।।57-64।। अतिशय तीव्र प्राणायाम होने से अर्थात् बहुत देर तक श्वासोच्छ्वास के रोक रखने से इंद्रियों को पूर्ण रूप से वश में न करने वाले पुरुष का मन व्याकुल हो जाता है । जिसका मन व्याकुल हो गया है उसके चित्त की एकाग्रता नष्ट हो जाती है और ऐसा होने से उसका ध्यान भी टूट जाता है । इसलिए शरीर से ममत्व छोड़ने वाले मुनि के ध्यान की सिद्धि के लिए मंद-मंद उच्छवास लेना और पलकों के लगने, उघड़ने आदि का निषेध नहीं है ।।65-66।। ध्यान के समय जिसका शरीर समरूप से स्थित होता है अर्थात् ऊंचा-नीचा नहीं होता है उसके समाधान अर्थात् चित्त की स्थिरता रहती है और जिसका शरीर विषम रूप से स्थित है उसके समाधान का भंग हो जाता है और समाधान के भंग हो जाने से बुद्धि में आकुलता उत्पन्न हो जाती है इसलिए मुनियों को ऊपर कहे हुए पर्यंक आसन से बैठकर और चित्त की चंचलता छोड़कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।।67-68।। ध्यान करने की इच्छा करने वाले मुनि को पर्यंक आसन के समान कायोत्सर्ग आसन करने की भी आज्ञा है । कायोत्सर्ग के समय शरीर के समस्त अंगों को सम रखना चाहिए और आचार शास्त्र में कहे हुए बत्तीस दोषों का बचाव करना चाहिए ।।69।। जो मनुष्य ध्यान के समय विषम (ऊँचे-नीचे) आसन से बैठता है उसके शरीर में अवश्य ही पीड़ा होने लगती है, शरीर में पीड़ा होने से मन में पीड़ा होती है और मन में पीड़ा होने से आकुलता उत्पन्न हो जाती है । आकुलता उत्पन्न होने पर कुछ भी ध्यान नहीं किया जा सकता इसलिए ध्यान के समय सुखासन लगाना ही अच्छा है । कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो सुखासन हैं इनके सिवाय बाकी सब विषम अर्थात दुःख करने वाले आसन हैं ।।70-71।। ध्यान करने वाले मुनि के प्राय: इन्हीं दो आसनों की प्रधानता रहती है और उन दोनों में भी पर्यंक आसन अधिक सुखकर माना जाता है ।।72।। आगम में ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर वज्रमयी है और जो महाशक्तिशाली हैं ऐसे पुरुष सभी आसनों से विराजमान होकर ध्यान के बल से अविनाशी पद (मोक्ष) को प्राप्त हुए हैं ।।73।। इसलिए कायोत्सर्ग और पर्यंक ऐसे दो आसनों का निरूपण असमर्थ जीवों की अधिकता से किया गया है । जो उपसर्ग आदि के सहन करने में अतिशय समर्थ हैं ऐसे मुनियों के लिए अनेक प्रकार के आसनों के लगाने में दोष नहीं है । भावार्थ―वीरासन, वज्रासन, गोदोहासन, धनुरासन आदि अनेक आसन लगाने से कायक्लेश नामक तप की सिद्धि होती अवश्य है पर हमेशा तप शक्ति के अनुसार ही किया जाता है, । यदि शक्ति न रहते हुए भी ध्यान के समय दुःखकर आसन लगाया जाये तो उससे चित्त चंचल हो जाने से मूल तत्त्व-ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकेगी इसलिए आचार्य ने यहाँ पर अशक्त पुरुषों की बहुलता देख कायोत्सर्ग और पर्यंक इन्हीं दो सुखासनों का वर्णन किया है परंतु जिनके शरीर में शक्ति है, जो निषद्या आदि परीषहों के सहन करने में समर्थ हैं उन्हें विचित्र-विचित्र प्रकार के आसनों के लगाने का निषेध भी नहीं किया है । आसन लगाते समय इस बात का स्मरण रखना आवश्यक है कि वह केवल बाह्य प्रदर्शन के लिए न हो किंतु कायक्लेश तपश्चरण के साथ-साथ ध्यान की सिद्धि का प्रयोजन होना चाहिए । क्योंकि जैन शास्त्रों में मात्र बाह्य प्रदर्शन के लिए कुछ भी स्थान नहीं है और न उस आसन लगाने वाले के लिए कुछ आत्मलाभ ही होता है ।।74।।
अथवा शरीर की जो-जो अवस्था (आसन) ध्यान का विरोध करने वाली न हो उसी-उसी अवस्था में स्थित होकर मुनियों को ध्यान करना चाहिए । चाहें तो वे बैठकर ध्यान कर सकते हैं, खड़े होकर ध्यान कर सकते हैं और लेटकर भी ध्यान कर सकते हैं ।।75।। इसी प्रकार देश आदि का जो नियम कहा गया है वह भी प्रायोवृत्ति को लिये हुए है अर्थात् हीन शक्ति के धारक ध्यान करने वालों के लिए ही देश आदि का नियम है, पूर्ण शक्ति के धारण करने वालों के लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यान के साधन हैं ।।76।। जो स्थान स्त्री, पशु और नपुंसक जीवों के संसर्ग से रहित हो या एकांत हो वही स्थान मुनियों के सदा निवास करने के योग्य होता है और ध्यान के समय तो विशेष कर ऐसा ही स्थान योग्य समझा जाता है ।।77।। जो मुनि मनुष्यों से भरे हुए शहर आदि में निवास करते हैं और निरंतर विषयों को देखा करते हैं ऐसे मुनियों का चित्त इंद्रियों के विषयों की अधिकता होने से कदाचित् व्याकुल हो सकता है ।।78।।। इसलिए मुनियों को एकांत स्थान में ही शयन करना चाहिए और वन में ही रहना चाहिए । यह जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों प्रकार के मुनियों का साधारण मार्ग है ।।79।। यद्यपि मुनियों के निवास करने के लिए यह साधारण व्यवस्था कही गयी है तथापि कितने ही समदर्शी धीर-वीर मुनिराज मनुष्यों से भरे हुए शहर आदि तथा वन आदि शून्य (निर्जन) स्थानों में विहार करते हैं ।।80।। इसी प्रकार ध्यान करने के इच्छुक धीर-वीर मुनियों के लिए दिन-रात और संध्याकाल आदि काल भी निश्चित नहीं है अर्थात् उनके लिए समय का कुछ भी नियम नहीं है क्योंकि वह ध्यानरूपी धन सभी समय में उपयोग करने योग्य है अर्थात् ध्यान इच्छानुसार सभी समयों में किया जा सकता है ।।81।। क्योंकि सभी देश, सभी काल और सभी चेष्टाओं (आसनों) में ध्यान धारण करने वाले अनेक मुनिराज आज तक सिद्ध हो चुके हैं, अब हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे इसलिए ध्यान के लिए देश, काल और आसन वगैरह का कोई खास नियम नहीं है ।।82।। जो मुनि जिस समय, जिस देश में और जिस आसन से ध्यान को प्राप्त हो सकता है उस मुनि के ध्यान के लिए वही समय, वही देश और वही आसन उपयुक्त माना गया है ।।83।। इस प्रकार यह ध्यान करने वाले की अवस्था का निरूपण किया । अब ध्यान करने वाले का लक्षण, ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य पदार्थ, ध्यान और ध्यान का फल ये चारों ही पदार्थ निरूपण करने योग्य हैं ।।84।।
जो वज्रवृषभनाराचसंहनन नामक अतिशय बलवान् शरीर का धारक है, जो तपश्चरण करते में अत्यंत शूर-वीर है, जिसने अनेक शास्त्रों का अच्छी तरह से अभ्यास किया है, जिसने आर्त और रौद्र नाम के खोटे ध्यानों को दूर हटा दिया है, जो अशुभ लेश्याओं से बचता रहता है, जो लेश्याओं की विशुद्धता का अवलंबन कर प्रमादरहित अवस्था का चिंतवन करता है, जो बुद्धि के पार को प्राप्त हुआ है अर्थात् जो अतिशय बुद्धिमान् है, योगी है, जो बुद्धिबल से सहित है, शास्त्रों के अर्थ का आलंबन करने वाला है, जो धीर-वीर है और जिसने समस्त परीषहों को सह लिया है ऐसे उत्तम मुनि को ध्याता कहते हैं ।।85-87।। इसके सिवाय जिसके संसार से भय उत्पन्न हुआ है, जिसे वैराग्य की भावनाएँ प्राप्त हुई हैं, जो वैराग्य-भावनाओं के उल्का से भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्ति करने वाली देखता है, जिसने सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञानरूपी गाढ़ अंधकार को नष्ट कर दिया है, जिसने विशुद्ध सम्यग्दर्शन के द्वारा गढ़ मिथ्यात्वरूपी शल्य को निकाल दिया है, जिसने मोक्षरूपी फल देने वाली उत्तम क्रियाओं को प्राप्त कर समस्त अशुभ क्रियाएँ छोड़ दी हैं, जो करने योग्य उत्तम कार्यों में सदा तत्पर रहता है, जिसने नहीं करने योग्य कार्यों का परित्याग कर दिया है, हिंसा, झूठ आदि जो व्रतों के विरोधी दोष है उन सबको दूर कर जिसने व्रतों की परम शुद्धि को प्राप्त किया है, जो अत्यंत उत्कृष्ट अपने क्षमा, मार्दव, आर्जव और लाघव रूप धर्मों के द्वारा अतिशय प्रबल क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायरूपी शत्रुओं का परिहार करता रहता है । जो शरीर, आयु, बल, आरोग्य और यौवन आदि अनेक पदार्थों को अनित्य, अपवित्र, दुःखदायी तथा आत्मस्वभाव से अत्यंत भिन्न देखा करता है, जिनका चिरकाल से अभ्यास हो रहा है ऐसे राग, द्वेष आदि भावों को छोड़कर जो पहले कभी चिंतवन में न आयी हुई ज्ञान तथा वैराग्य रूप भावनाओं का चिंतवन करता रहता है और जो आगे कही जाने वाली भावनाओं के द्वारा कभी मोह को प्राप्त नहीं होता ऐसा मुनि ही ध्यान में स्थिर हो सकता है । जिन भावनाओं के द्वारा वह मुनि मोह को प्राप्त नहीं होता वे भावनाएँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य की भावनाएँ कहलाती हैं ।।88-95।।
जैन शास्त्रों का स्वयं पढ़ना, दूसरों से पूछना, पदार्थ के स्वरूप का चिंतवन करना, श्लोक आदि कंठस्थ करना तथा समीचीन धर्म का उपदेश देना ये पाँच ज्ञान की भावनाएं जाननी चाहिए ।।96।। संसार से भय होना, शांत परिणाम होना, धीरता रखना, मूढ़ताओं का त्याग करना, गर्व नहीं करना, श्रद्धा रखना और दया करना ये सात सम्यग्दर्शन की भावनाएं जानने के योग्य हैं ।।97।। चलने आदि के विषय में यत्न रखना अर्थात् ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन इन पाँच समितियों का पालन, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति का पालन करना तथा परीषहों को सहन करना ये चारित्र की भावनाएं जानना चाहिए ।।98।। विषयों में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूप का बार-बार चिंतवन करना, और जगत् के स्वभाव का विचार करना ये वैराग्य को स्थिर रखने वाली भावनाएँ हैं ।।99।। इस प्रकार ऊपर कही हुई भावनाओं का चिंतवन करने वाले, तत्त्वों को जानने वाले और राग-द्वेष से रहित मुनि की बुद्धि ज्ञान और चारित्र आदि संपदा में स्थिर हो जाती है ।।100।। यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का जानने वाला हो, दस पूर्व का जानने वाला हो अथवा नौ पूर्व का जानने वाला हो तो वह ध्याता संपूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है ।।101।। इसके सिवाय अल्पश्रुत ज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले-पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है ।।102।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए लक्षणों से सहित ध्यान करने वाला मुनि ध्यान की बहुत-सी सामग्री प्राप्त कर उपशम अथवा क्षेपक श्रेणी में उत्कृष्ट ध्यान को प्राप्त होता है । भावार्थ―उत्कृष्ट ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है और वह उपशम अथवा क्षपकश्रेणी में ही होता है ।।103।। श्रुतज्ञान के द्वारा तत्त्वों को जानने वाला मुनि पहले वज्रवृषभनाराचसंहनन से सहित होने पर ही क्षपकश्रेणी पर चढ़ सकता है तथा दूसरी उपशम श्रेणी को पहले के तीन संहननों (वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच) वाला मुनि भी प्राप्त कर सकता है ।।104।। अध्यात्म को जानने वाला मुनि बाह्य पदार्थों के समूह से अपनी दृष्टि को कुछ हटाकर और अपनी स्मृति को अपने-आपमें ही लगाकर ध्यान करे ।।105।। प्रथम तो स्पर्शन आदि इंद्रियों को उनके स्पर्श आदि विषयों से हटावे और फिर मन को मन के विषय से हटाकर स्थिर बुद्धि को ध्यान करने योग्य पदार्थ में धारण करे―लगावे ।।106।।
जो पुरुषार्थ का उपयोगी है ऐसा अध्यात्मतत्त्व ध्यान करने योग्य है । मोक्ष प्राप्त होना ही पुरुषार्थ कहलाता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र उसके साधन कहलाते हैं । ये सब भी ध्यान करने योग्य हैं ।।107।। मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा तथा कर्मों का क्षय होने रूप मोक्ष इस प्रकार ये सात तत्त्व ध्यान करने योग्य है अथवा इन्हीं सात तत्त्वों में पुण्य और पाप मिला देने पर नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य हैं ।।108।। क्योंकि छह नयों के द्वारा ग्रहण किये हुए जीव आदि छह द्रव्यों और उनकी पर्यायों के यथार्थ स्वरूप का बार-बार चिंतवन करना ही ध्यान कहलाता है, इसलिए छह द्रव्यों का समस्त विस्तार भी ध्यान करने योग्य है ।।109।। नय, प्रमाण, जीव, अजीव आदि पदार्थ और सप्तभंगी रूप न्याय से दैदीप्यमान होने वाली तथा जिनेंद्रदेव के मुख से प्रकट हुई सिद्धांत शास्त्रों की परिपाटी भी ध्यान करने योग्य है अर्थात् जैन शास्त्रों में कहे गये समस्त पदार्थ ध्यान करने के योग्य हैं ।।110।। शब्द, अर्थ और ज्ञान इस प्रकार तीन प्रकार का ध्येय कहलाता है । इस तीन प्रकार के ध्येय में ही जगत् के समस्त पदार्थ ध्येयकोटि को प्राप्त हो जाते हें । भावार्थ―जगत् के समस्त पदार्थ शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों भेदों में विभक्त हैं इसलिए शब्द, अर्थ और ज्ञान के ध्येय (ध्यान करने योग्य) होने पर जगत् के समस्त पदार्थ ध्येय हो जाते हैं ।111।। अथवा पुरुषार्थ की परम काष्ठा को प्राप्त हुए, कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले, कृतकृत्य और रागादि कर्ममल से रहित सिद्ध परमेष्ठी ध्यान करने योग्य हैं ।।112।। क्योंकि वे सिद्ध परमेष्ठी कर्मरूपी मल के दूर हो जाने से अविनाशी विशुद्धि को प्राप्त हुए हैं और रोगादि क्लेशों से रहित हैं इसलिए ध्यान करने वाले पुरुषों को अपने भावों की शुद्धि के लिए उनका अवश्य ही ध्यान करना चाहिए ।।113।। वे सिद्ध भगवान् कर्मों के क्षय से होने वाले अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य आदि गुणों से सहित हैं और उनके यथार्थस्वरूप को केवल योगी लोग ही जान सकते हैं । यद्यपि वे सूक्ष्म हैं तथापि उनके लक्षण प्रकट हैं ।।114।। यद्यपि वे भगवान अमूर्त और अशरीर हैं तथापि योगी लोगों के ध्यान के विषय हैं अर्थात् योगी लोग उनका ध्यान करते हैं । उनका आकार अंतिम शरीर से कुछ कम केवल जीव प्रदेशरूप है ।।115।। मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को उन्हीं से मोक्ष की प्राप्ति होती है । वे स्वयं कल्याण रूप हैं, कल्याण करने वाले हैं सबका हित करने वाले हैं, सर्वदर्शी हैं और सब पदार्थों को जानने वाले अर्थात् सर्वज्ञ हैं ।।116।। वे भगवान् साकार होकर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं । यद्यपि उन्होंने जगत् के समस्त पदार्थों को अपने अधीन कर लिया है अर्थात् वे जगत् के समस्त पदार्थों को जानते हैं परंतु उन्हें ज्ञानरूप नेत्रों के धारण करने वाले ही जान सकते हैं । भावार्थ―वे सिद्ध भगवान् कुछ कम अंतिम शरीर के आकार होते हैं इसलिए साकार कहलाते हैं परंतु उनका वह आकार इंद्रियज्ञानगम्य नहीं है इसलिए निराकार भी कहलाते हैं । शरीररहित होने के कारण स्थूलदृष्टि पुरुष उन्हें यद्यपि देख नहीं पाते हैं इसलिए वे निराकार हैं, परंतु प्रत्यक्ष ज्ञानी जीव कुछ कम अंतिम शरीर के आकार परिणत हुए उनके असंख्य जीव प्रदेशों को स्पष्ट जानते हैं इसलिए साकार भी कहलाते हैं । यद्यपि वे संसार के सब पदार्थों को जानते हैं परंतु उन्हें संसार के सभी लोग नहीं जान सकते, वे मात्र ज्ञानरूप नेत्र के द्वारा ही जाने जा सकते हैं ।।117।। रत्नमय दर्पण में पड़े हुए प्रतिबिंब के समान उनका आकार अतिशय स्पष्ट है । यद्यपि वे अमूर्तिक हैं तथापि चैतन्यरूप घनाकार को धारण करने वाले हैं और सदा स्थिर हैं ।।118।। यद्यपि वे भगवान् स्वयं वीतराग हैं तथापि ध्यान किये जाने पर भव्य जीवों के संसार को अवश्य नष्ट कर देते हैं । कर्मों के बंधन को छिन्न-भिन्न करने वाले उन सिद्ध भगवान् का वह उस प्रकार का एक स्वाभाविक गुण ही समझना चाहिए ।।119।। अथवा घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से जो स्नातक अवस्था को प्राप्त हुए हैं और जो तेजोमय परमौदारिक शरीर को धारण किये हुए हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हंत जिनेंद्र भी ध्यान करने योग्य हैं ।।120।। राग आदि अविद्याओं को जीत लेने से जो जिन कहलाते हैं, घातिया कर्मों के नष्ट होने से जो अर्हंत (अरिहंत) कहलाते हैं, शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति होने से जो सिद्ध कहलाते हैं और त्रैलोक्य के समस्त पदार्थों को जानने से जो बुद्ध कहलाते हैं, जो तीनों कालों में होने वाली अनंत पर्यायों से सहित समस्त पदार्थों को देखते हैं इसलिए विश्वदर्शी (सबको देखने वाले) कहलाते हैं और जो अपने ज्ञानरूप चैतन्य गुण से संसार के सब पदार्थों को जानते हैं इसलिए विश्वज्ञ (सर्वज्ञ) कहलाते हैं । जो केवलज्ञानी हैं, केवलज्ञान ही जिनका विशाल और निर्मल नेत्र है, तथा घातिया कर्मों के क्षय होने से जिनके अनंतचतुष्टय प्रकट हुआ है, जो बारह प्रकार के जीवों के समूह से भरी हुई सभाभूमि (समवसरण) में विराजमान हैं, अष्ट प्रातिहार्यों के द्वारा जिनकी तीनों जगत् की प्रभुता प्रकट हो रही है, जो सर्वसामर्थ्यवान् हैं, जो यद्यपि निश्चित आकार वाले हैं तथापि अपने चैतन्यरूप गुणों के द्वारा प्रतिबिंबित हुए समस्त पदार्थों के प्रतिबिंब रूप होने से विश्वरूप हैं अर्थात् संसार के सभी पदार्थों के आकार धारण करने वाले हैं, जो समस्त पदार्थों में व्याप्त होने वाले केवलज्ञान के संबंध से विश्वव्यापी कहलाते हैं, समवसरण भूमि में चारों ओर मुख दिखने के कारण जो विश्वास्य (विश्वतोमुख) कहलाते हैं, संसार के सब पदार्थों को देखने के कारण जो विश्वतश्चक्षु (सब ओर हैं नेत्र जिनके ऐसे) कहलाते हैं, तथा सर्वश्रेष्ठ होने के कारण जो समस्त लोक के शिखामणि कहलाते हैं, जो संसाररूपी समुद्र से शीघ्र ही पार होने वाले हैं, जो सुखमय हैं, जिनके समस्त क्लेश नष्ट हो गये हैं और जिनके संसाररूपी बंधन कट चुके हैं, जो निर्भय हैं, निःस्पृह हैं, बाधारहित हैं, आकुलतारहित हैं, अपेक्षारहित हैं, नीरोग हैं, नित्य हैं, और कर्मरूपी कालिमा से रहित हैं; क्षायिक, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र इन नौ केवललब्धि आदि अनेक गुणों से जिनका शरीर अतिशय उत्कृष्ट है, जिनका कोई भेदन नहीं कर सकता और जो वज्र की शिला में उकेरे हुए अथवा वज्र की शिलाओं से व्याप्त हुए पर्वत के समान निश्चल हैं―स्थिर हैं इस प्रकार जो ऊपर कहे हुए लक्षणों से सहित हैं, परमात्मा हैं, परम पुरुषरूप हैं, परमेष्ठी हैं, परम तत्त्वस्वरूप हैं, परमज्योति (केवलज्ञान) रूप हैं और अविनाशी हैं ऐसे अर्हंतदेव ध्यान करने योग्य हैं ।।121-130।। अभी तक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थों का वर्णन किया गया है वे सब धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही ध्यानों के साधारण ध्येय हैं अर्थात् ऊपर कहे हुए पदार्थों का दोनों ही ध्यानों में चिंतवन किया जा सकता है । इन दोनों ध्यानों में विशुद्धि और स्वामी के भेद से ही परस्पर में विशेषता समझनी चाहिए । भावार्थ―धर्मध्यान की अपेक्षा शुक्लध्यान में विशुद्धि के अंश बहुत अधिक होते हैं, धर्म्य ध्यान चौथे गुणस्थान से लेकर श्रेणी चढ़ने के पहले-पहले तक ही रहता है और शुक्लध्यान श्रेणियों में ही होता है । इन्हीं सब बातों से उक्त दोनों ध्यानों में विशेषता रहती है ।।131।। जो किसी एक ही वस्तु में परिणामों की स्थिर और प्रशंसनीय एकाग्रता होती है उसे ही ध्यान कहते हैं, ऐसा ध्यान ही मुक्ति का कारण होता है । वह ध्यान धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान के भेद से दो प्रकार का होता है ।।132।। उन दोनों में से जो ध्यान धर्म से सहित होता है वह धर्म्यध्यान कहलाता है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों सहित जो वस्तु का यथार्थ स्वरूप है वही धर्म कहलाता है । भावार्थ―वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं और जिस ध्यान में वस्तु के स्वभाव का चिंतवन किया जाता है उसे धर्म्यध्यान कहते हैं ।।133।। आगम की परंपरा को जानने वाले ऋषियों ने उस धर्म्यध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, संस्थानविचय और विपाकविचय इस प्रकार चार भेद माने हैं ।।134।। उनमें से अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ को विषय करने वाला जो आगम है उसे आज्ञा कहते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के विषय से रहित केवल श्रद्धान करने योग्य पदार्थ में एक आगम की ही गति होती है । भावार्थ―संसार में कितने ही पदार्थ ऐसे हैं जो न तो प्रत्यक्ष से जाने जा सकते हैं और न अनुमान से ही । ऐसे सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थों का ज्ञान सिर्फ आगम के द्वारा ही होता है अर्थात् आप्त प्रणीत आगम में ऐसा लिखा है इसलिए ही वे माने जाते हैं ।।135।। श्रुति, सूनृत, आज्ञा, आप्त वचन, वेदांग, आगम और आम्नाय इन पर्यायवाचक शब्दों से बुद्धिमान् पुरुष उस आगम को जानते हैं ।।136।। जो आदि और अंत से रहित है, सूक्ष्म है, यथार्थ अर्थ को प्रकाशित करने वाला है, जो मोक्षरूप पुरुषार्थ का उपदेशक होने के कारण संसार के समस्त जीवों का हित करने वाली युक्तियों से प्रबल है, जो किसी के द्वारा जीता नहीं जा सकता, जो अपरिमित है, परवादी लोग जिसके माहात्म्य को छू भी नहीं सकते हैं, जो अत्यंत प्रभावशाली है, जीव अजीव आदि पदार्थों से भरा हुआ है, जिसका शासन अतिशय गंभीर है, जो परम उत्कृष्ट है, सूक्ष्म है और आप्त के द्वारा कहा हुआ है ऐसे प्रवचन अर्थात् आगम को सत्यार्थ रूप मानता हुआ मुनि आगम में कहे हुए पदार्थों का ध्यान करे ।।137-139।। योग के जानने वालों में श्रेष्ठ योगी जिनेंद्र भगवान की आज्ञा को प्रमाण मानता हुआ धर्मास्तिकाय आदि सूक्ष्म पदार्थों का आगम में कहे अनुसार ध्यान करे ।।140।। इस प्रकार के ध्यान करने को आज्ञाविचय नाम का धर्म्यध्यान कहते हैं । अब आगे अपायविचय नाम के धर्म्यध्यान का वर्णन किया जाता है । तीन प्रकार के संताप आदि से भरे हुए संसाररूपी समुद्र में जो प्राणी पड़े हुए हैं उनके अपाय का चिंतवन करना सो अपायविचय नाम का धर्म्यध्यान है । भावार्थ―यह संसाररूपी समुद्र मानसिक, वाचनिक, कायिक अथवा जन्म जरा मरण से होने वाले, तीन प्रकार के संतापों से भरा हुआ है । इसमें पड़े हुए जीव निरंतर दुःख भोगते रहते हैं । उनके दुःख का बार-बार चिंतवन करना सो अपायविचय नाम का धर्म्यध्यान है ।।141।। अथवा उन अपायों (दुःखों) के दूर करने की चिंता से उन्हें दूर करने वाले अनेक उपायों का चिंतवन करना भी अपायविचय कहलाता है । बारह अनुप्रेक्षा तथा दश धर्म आदि का चिंतवन करना इसी अपायविचय नाम के धर्म्यध्यान में शामिल समझना चाहिए ।।142।। शुभ और अशुभ भेदों में विभक्त हुए कर्मों के उदय से संसाररूपी आवर्त की विचित्रता का चिंतवन करने वाले मुनि के जो ध्यान होता है उसे आगम के जानने वाले गणधरादि देव विपाकविचय नाम का धर्म्यध्यान मानते हैं । जैन शास्त्रों में कर्मों का उदय दो प्रकार का माना गया है । जिस प्रकार किसी वृक्ष के फल एक तो समय पाकर अपने आप पक जाते हैं और दूसरे किन्हीं कृत्रिम उपायों से पकाये जाते हैं उसी प्रकार कर्म भी अपने शुभ अथवा अशुभ फल देते हैं अर्थात् एक तो स्थिति पूर्ण होने पर स्वयं फल देते हैं और दूसरे तपश्चरण आदि के द्वारा स्थिति पूर्ण होने से पहले ही अपना फल देने लगते हैं ।।143-145।।मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंध तथा सत्ता आदि का आश्रय लेकर द्रव्य क्षेत्र काल भाव के निमित्त से कर्मों का उदय अनेक प्रकार का होता है ।।146।। क्योंकि कर्मों के विपाक (उदय) को जानने वाला मुनि उन्हें नष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है इसलिए मोक्षाभिलाषी मुनियों को मोक्ष के उपायभूत इस विपाकविचय नाम के धर्म्यध्यान का अवश्य ही चिंतवन करना चाहिए ।।147।। लोक के आकार का बार-बार चिंतवन करना तथा लोक के अंतर्गत रहने वाले जीव अजीव आदि तत्त्वों का विचार करना सो संस्थानविचय नाम का धर्म्यध्यान है ।।148।। संस्थानविचय धर्म्यध्यान को प्राप्त हुआ मुनि तीनों लोकों की रचना के साथ-साथ द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदी, सरोवर, विमानवासी, भवनवासी तथा व्यंतरों के रहने के स्थान और नरकों की भूमियाँ आदि पदार्थों का भी शास्त्रानुसार चिंतवन करे ।।149-150।। इसके सिवाय उस लोक में रहने वाले संसारी और मुक्त ऐसे दो प्रकार वाले जीवों के भेदों का जानना, कर्तापना, भोक्तापना और दर्शन आदि जीवों के गुणों का भी ध्यान करे ।।151।। अध्यात्म को जानने वाला मुनि इस संसाररूपी समुद्र का भी ध्यान करे जो कि जीवों के स्वयं किये हुए कर्मों के माहात्म्य से उत्पन्न हुआ है, अत्यंत दुस्तर है, व्यसनरूपी भँवरों से भरा हुआ है, दोषरूपी जल-जंतुओं से व्याप्त है, सम्यग्ज्ञानरूपी नाव से तैरने के योग्य है, परिग्रही साधु जिसे कभी नहीं तैर सकते, जिसका पार नहीं है और जो अतिशय गंभीर है ।।152-153।। अथवा इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है नयों के सैकड़ों भंगों से भरा हुआ जो कुछ आगम का विस्तार है वह सब अंतरात्मा की शुद्धि के लिए ध्यान करने योग्य है ।।154।। यह धर्मध्यान अप्रमत्त अवस्था का आलंबन कर अंतर्मुहूर्त तक स्थित रहता है और प्रमादरहित (सप्तमगुणस्थानवर्ती) जीवों में ही अतिशय उत्कृष्टता को प्राप्त होता है ।।155।। इसके सिवाय अतिशय शुद्धि को धारण करने वाला और पीत, पद्म तथा शुक्ल ऐसी तीन शुभ लेश्याओं के बल से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह धर्म्यध्यान शास्त्रानुसार सम्यग्दर्शन से सहित चौथे गुणस्थान में तथा शेष के पाँचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है । भावार्थ―इन गुणस्थानों में धर्म्यध्यान हीनाधिक भाव से रहता है । धर्म्यध्यान धारण करने के लिए कम-से-कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना पदार्थों के यथार्थस्वरूप का श्रद्धान और निर्णय नहीं होता । मंदकषायी मिथ्यादृष्टि जीवों के जो ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते हैं ।।156।। यह धर्म्यध्यान क्षायोपशमिक भावों को स्वाधीन कर बढ़ता है । इसका फल भी बहुत उत्तम होता है और अतिशय बुद्धिमान् महर्षि लोग भी इसे धारण करते हैं ।।157।। वस्तुओं के धर्म का अनुयायी होने के कारण जिसे धर्म्यध्यान ऐसा सार्थक नाम प्राप्त हुआ है और जिसमें ध्यान करने योग्य पदार्थों का ऊपर विस्तार से वर्णन किया जा चुका है ऐसे इस धर्म्यध्यान का बार-बार चिंतवन करना चाहिए ।।158।। प्रसन्नचित्त रहना, धर्म से प्रेम करना, शुभ योग रखना, उत्तम शास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और आज्ञा (शास्त्र का कथन) तथा स्वकीय ज्ञान से एक प्रकार की विशेष रुचि (प्रीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना ये धर्मध्यान के बाह्य चिह्न हैं और अनुप्रेक्षाएँ तथा पहले कही हुई अनेक प्रकार की शुभ भावनाएं उसके अंतरंग चिह्न हैं ।।159-160।। पहले कहा हुआ अंगों का सन्निवेश होना अर्थात् पहले जिन पर्यंक आदि आसनों का वर्णन कर चुके हैं उन आसनों को धारण करना, मुख की प्रसन्नता होना और दृष्टि का सौम्य होना आदि सब भी धर्म्यध्यान के बाह्यचिह्न समझना चाहिए ।।161।। अशुभ कर्मों की अधिक निर्जरा होना और शुभ कर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ इंद्र आदि का सुख प्राप्त होना यह सब इस उत्तम धर्म्यध्यान का फल है ।।162।। अथवा स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होना इस धर्म्यध्यान का फल कहा जाता है । इस धर्म्यध्यान से स्वर्ग की प्राप्ति तो साक्षात् होती है परंतु परम पद अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति परंपरा से होती है ।।163।। ध्यान छूट जाने पर भी बुद्धिमान् मुनि को चाहिए कि वह संसार का अभाव करने के लिए अनुप्रेक्षाओंसहित शुभ फल देने वाली उत्तम-उत्तम भावनाओं का चिंतवन करे ।।164।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगधाधीश, इस प्रकार जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसे इस धर्म्यध्यान का तू निश्चय कर―उस पर विश्वास ला । अब आगे शुक्लध्यान का निरूपण करूंगा जो कि जीवों के मोक्ष प्राप्त होने का साक्षात् कारण है ।।165।। कषायरूपी मल के नष्ट होने से जो शुक्ल ऐसे नाम को प्राप्त हुआ है ऐसे इस शुक्लध्यान का अवांतर भेदों से सहित वर्णन करता हूं सो तू उसे मुझसे अच्छी तरह समझ ले ।।166।। वह शुक्ल ध्यान शुक्ल और परम शुक्ल के भेद से आगम में दो प्रकार का कहा गया है, उनमें से पहला शुक्लध्यान तो छद्मस्थ मुनियों के होता है और दूसरा परम शुक्लध्यान केवली भगवान् (अरहंतदेव) के होता है ।।167।। पहले शुक्लध्यान के दो भेद हैं, एक पृथक्त्ववितर्कवीचार और दूसरा एकत्ववितर्कवीचार ।।168।। इस प्रकार पहले शुक्लध्यान के जो ये दो भेद हैं, वे सार्थक नाम वाले हैं । इनका अर्थ स्पष्ट करने के लिए दोनों नामों की निरुक्ति (व्युत्पत्ति-शब्दार्थ) इस प्रकार समझना चाहिए ।।169।। जिस ध्यान में वितर्क अर्थात शास्त्र के पदों का पृथक्-पृथक् रूप से वीचार अर्थात् संक्रमण होता रहे उसे पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम का शुक्लध्यान कहते हैं । भावार्थ―जिसमें अर्थ व्यंजन और योगों का पृथक्-पृथक्, संक्रमण होता रहे अर्थात् अर्थ को छोड़कर व्यंजन (शब्द) का और व्यंजन को छोड़कर अर्थ का चिंतवन होने लगे अथवा इसी प्रकार मन, वचन और काय इन तीनों योगों का परिवर्तन होता रहे उसे पृथक्त्ववितर्कवीचार कहते हैं ।।170।। जिस ध्यान में वितर्क के एकरूप होने के कारण वीचार नहीं होता अर्थात् जिसमें अर्थ व्यंजन और योगों का संक्रमण नहीं होता उसे एकत्ववितर्कवीचार नाम का शुक्लध्यान कहते हैं ।।171।। अनेक प्रकारता को पृथकत्व समझो, श्रुत अर्थात् शास्त्र को वितर्क कहते हैं और अर्थ व्यंजन तथा योगों का संक्रमण (परिवर्तन) वीचार माना गया है ।।172।। इंद्रियों को वश करने वाला मुनि, एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक शब्द से दूसरे शब्द को और एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होता हुआ इस पहले पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम के शुक्लध्यान का चिंतवन करता है ।।173।। क्योंकि मन, वचन, काय इन तीनों योगों को धारण करने वाले और चौदह पूर्वों के जानने वाले मुनिराज ही इस पहले शुक्लध्यान का चिंतवन करते हैं इसलिए ही यह पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार कहा जाता है ।।174।। श्रुतस्कंधरूपी समुद्र के शब्द और अर्थों का जितना विस्तार है वह सब इस प्रथम शुक्लध्यान का ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य विषय है और मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम होना इसका फल है । भावार्थ―यह शुक्लध्यान उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों प्रकार की श्रेणियों से होता है । उपशमश्रेणी वाला मुनि इस ध्यान के प्रभाव से मोहनीय कर्म का उपशम करता है और क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हुआ मुनि इस ध्यान के प्रताप से मोहनीय कर्म का क्षय करता है इसलिए सामान्य रूप से उपशम और क्षय दोनों ही इस ध्यान के फल कहे गये हैं ।।175।। यहाँ ऐसा तात्पर्य समझना चाहिए कि ध्यान करने वाला मुनि श्रुतस्कंधरूपी महासमुद्र से कोई एक पदार्थ लेकर उसका ध्यान करता हुआ किसी दूसरे पदार्थ को प्राप्त हो जाता है अर्थात् पहले ग्रहण किये हुए पदार्थ को छोड़कर दूसरे पदार्थ का ध्यान करने लगता है । एक शब्द से दूसरे शब्द को प्राप्त हो जाता है और इसी प्रकार एक योग से दूसरे योग को प्राप्त हो जाता है इसीलिए इस ध्यान को सवीचार और सवितर्क कहते हैं ।।176-177।। जो शब्द और अर्थरूपी रत्नों से भरा हुआ है, जिसमें अनेक नयभंगरूपी तरंगें उठ रही हैं, जो विस्तृत ध्यान से गंभीर है, जो पद और वाक्यरूपी अगाध जल से सहित है, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के द्वारा उद्वेल (ज्वार-भाटा से सहित) हो रहा है, स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति आदि सात भंग ही जिसके विशाल शब्द (गर्जना) हैं, जो पूर्वपक्ष करने के लिए आये हुए अनेक परमतरूपी जलजंतुओं से भरा हुआ है, बड़ी-बड़ी सिद्धियों के धारण करने वाले गणधरदेवरूपी मुख्य व्यापारियों ने चारित्ररूपी पताकाओं से सुशोभित सम्यग्ज्ञानरूपी जहाजों के द्वारा जिसमें अवतरण किया है, जो नय और उपनयों के वर्णनरूप महावायु से क्षोभित हो रहा है और जो रत्नत्रयरूपी अनेक प्रकार के द्वीपों से भरा हुआ है, ऐसे श्रुतस्कंधरूपी महासागर में अवगाहन कर महामुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम के पहले शुक्लध्यान का चिंतवन करें । भावार्थ―ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के जानने वाले मुनिराज ही प्रथम शुक्लध्यान को धारण कर सकते हैं ।।178-182।। यह ध्यान प्रशांतमोह अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान, क्षीणमोह अर्थात् बारहवें गुणस्थान और उपशमक तथा क्षपक इन दोनों प्रकार की श्रेणियों के शेष आठवें, नौवें तथा दसवें गुणस्थान में भी हीनाधिक रूप से होता है ऐसा बुद्धिमान् महर्षि लोग मानते हैं ।।183।।
दूसरा एकत्ववितर्क नाम का शुक्लध्यान भी पहले शुक्लध्यान के समान ही जानना चाहिए किंतु विशेषता इतनी है कि जिसका मोहनीय कर्म नष्ट हो गया हो, जो पूर्वों का जानने वाला हो, जिसका आत्मतेज अपरिमित हो और जो तीन योगों में से किसी एक योग का धारण करने वाला हो ऐसे महामुनि को ही यह दूसरा शुक्लध्यान होता है ।।184।। जिसकी कषाय नष्ट हो चुकी है और जो घातिया कर्मों को नष्ट कर रहा है ऐसा मुनि सवितर्क अर्थात् श्रुतज्ञानसहित और अवीचार अर्थात् अर्थ व्यंजन तथा योगों के संक्रमण से रहित दूसरे एकत्ववितर्क नाम के बलिष्ठ शुक्लध्यान का चिंतवन करता है ।।185।। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला अविनाशीक ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान का उत्पन्न होना ही इस शुक्लध्यान का फल है ।।186।। इस प्रकार ऊपर कहे अनुसार फल को देने वाले पहले के दोनों शुक्लध्यान ग्यारह अंग तथा चौदह पूर्व के जानने वाले और तीन तथा तीन में से किसी एक योग का अवलंबन करने वाले मुनियों के दोनों प्रकार की श्रेणियों में यथायोग्य रूप से होते हैं । भावार्थ―पहला शुक्लध्यान उपशम अथवा क्षपक दोनों ही श्रेणियों में होता है परंतु दूसरा शुक्लध्यान क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में ही होता है । पहला शुक्लध्यान तीनों योगों को धारण करने वाले के होता है परंतु दूसरा शुक्लध्यान एक योग को धारण करने वाले के ही होता है, भले ही वह एक योग तीन योगों में से कोई भी हो ।।187।। घातिया कर्मों के नष्ट होने से जो उत्कृष्ट केवलज्ञान को प्राप्त हुआ है ऐसा स्नातक मुनि ही दोनों प्रकार के परम शुक्लध्यानों का स्वामी होता है । भावार्थ―परम शुक्लध्यान केवली भगवान् के ही होता है ।।188।। वे केवलज्ञानी जिनेंद्रदेव जब योगों का निरोध करने के लिए तत्पर होते हैं तब वे उसके पहले स्वभाव से ही समुद्घात की विधि प्रकट करते हैं ।।189।। पहले समय में उनके आत्मा के प्रदेश चौदह राजू ऊँचे दंड के आकार होते हैं दूसरे समय में किवाड़ के आकार होते हैं, तीसरे समय में प्रतर रूप होते हैं और चौथे समय में समस्त लोक में भर जाते हैं । इस प्रकार वे चार समय में समस्त लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित होते हैं ।।190।। उस समय समस्त लोक में व्याप्त हुए, सबका हित करने वाले और सब पदार्थों को जानने वाले वे केवली जिनेंद्र पूरक कहलाते हैं । उसके बाद वे रेचक अवस्था को प्राप्त होते हैं अर्थात् आत्मा के प्रदेशों का संकोच करते हैं और यह सब करते हुए वे अतिशय पूज्य गिने जाते हैं ।।191।। वे सर्वज्ञ भगवान् समस्त लोक को पूर्ण कर उसके एक-एक समय बाद ही प्रतर अवस्था को और फिर क्रम से एक-एक समय बाद संकोच करते हुए कपाट तथा दंड अवस्था को प्राप्त होकर स्वशरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं ।।192।। उस समय वे केवली भगवान अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात भागों को नष्ट कर देते हैं और इसी प्रकार अशुभ कर्मो के अनुभाग अर्थात् फल देने की शक्ति के भी अनंत भाग नष्ट कर देते हैं ।।193।। तदनंतर अंतर्मुहूर्त में योगरूपी आस्रव का निरोध करते हुए काययोग के आश्रय से वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं और फिर काययोग को भी कम कर उसके आश्रय से होने वाले सूक्ष्म क्रियापाति नामक तीसरे शुक्लध्यान का चिंतवन करते हैं ।।194-195।। तदनंतर जिनके समस्त योगों का बिल्कुल ही निरोध हो गया है ऐसे वे योगिराज हर प्रकार के आस्रवों से रहित होकर समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति नाम के चौथे शुक्लध्यान को प्राप्त होते हैं ।।196।। जिनेंद्र भगवान् उस अतिशय निर्मल चौथे शुक्लध्यान को अंतर्मुहूर्त तक धारण करते हैं और फिर समस्त कर्मों के अंशों को नष्ट कर निर्वाण अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं ।।197।। इन अयोगी परमेष्ठी के चौदहवें गुणस्थान के उपांत्य समय में बहत्तर और अंतिम समय में तेरह कर्मप्रकृतियों का नाश होता है ।।198।। वे जिनेंद्रदेव चौदहवें गुणस्थान के अनंतर लेपरहित, शरीररहित, शुद्ध, अव्याबाध, रोगरहित, सूक्ष्म, अव्यक्त, व्यक्त और मुक्त होते हुए लोक के अंतभाग में निवास करते हैं ।।199।। कर्मरूपी रज से रहित होने के कारण जिनकी आत्मा अतिशय शुद्ध हो गयी है ऐसे वे सिद्ध भगवान् ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने के कारण एक समय में ही लोक के अंतभाग को प्राप्त हो जाते हैं और वहाँ पर चूड़ामणि रत्न के समान सुशोभित होने लगते हैं ।।200।। जो हर प्रकार के कर्मों से रहित हैं, जिन्होंने संसार संबंधी सुख और दुःख नष्ट कर दिये हैं, जिनके आत्मप्रदेशों का आकार अंतिम शरीर के तुल्य है और परिमाण अंतिम शरीर से कुछ कम है, जो अमूर्तिक होने पर भी अंतिम शरीर का आकार होने के कारण उपचार से साँचे के भीतर रुके हुए आकाश की उपमा को प्राप्त हो रहे हैं, जो शरीर और मनसंबंधी समस्त दुःखरूपी बंधनों से रहित हैं, द्वंद्वरहित हैं, क्रियारहित हैं, शुद्ध हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं, जिनके आत्मप्रदेशों का समुदाय भेदन करने योग्य नहीं है, जो लोक के शिखर पर मुख्य शिरोमणि के समान सुशोभित हैं, जो ज्योतिस्वरूप हैं, और जिन्होंने अपने शुद्ध आत्मतत्त्व को प्राप्त कर लिया है ऐसे वे सिद्ध भगवान् अनंत काल तक सुखी रहते हैं ।।201-205।। कृतार्थ, निष्ठित, सिद्ध, कृतकृत्य, निरामय, सूक्ष्म और निरंजन ये सब मुक्ति को प्राप्त होने वाले जीवों के पर्यायवाचक शब्द हैं ।।206।। उन सिद्धों के समस्त दुःखों के क्षय से होने वाला अतींद्रिय सुख होता है और यथार्थ में केवली भगवान् उस अतींद्रिय सुख को ही उत्कृष्ट सुख बतलाते हैं ।।207।। क्षुधा आदि वेदनाओं का अभाव होने से उनके विषयों की इच्छा नहीं होती सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष होगा जो स्वस्थ होने पर भी औषधियों का सेवन करता हो ।208।। जो सुख पर-पदार्थों के संबंध से होता है वह सुख नहीं है, किंतु जो शुद्ध आत्मा से उत्पन्न होता है, नित्य है, अविनाशी है और क्षयरहित है वही वास्तव में उत्तम सुख है ।।209।। यदि स्वास्थ्य (समस्त इच्छा का अपनी आत्मा में ही समावेश रहना―इच्छा जन्य आकुलता का अभाव होना) ही सुख कहलाता है तो वह अनंत सुख सिद्ध भगवान के रहता ही है और यदि स्वास्थ्य के सिवाय किसी अन्य वस्तु का नाम सुख है तो वह सुख लोक के भीतर कुछ भी नहीं है । भावार्थ―विषयों की इच्छा अर्थात् आकुलता का न होना ही सुख कहलाता है सो ऐसा सुख सिद्ध परमेष्ठी के सदा विद्यमान रहता है । इसके सिवाय यदि किसी अन्य वस्तु का नाम सुख माना जाये तो वह सुख नाम का पदार्थ लोक में किसी जगह भी नहीं है ऐसा समझना चाहिए ।।210।। वे सिद्ध भगवान् समस्त क्लेशों से रहित हैं, मोहरहित हैं, उपद्रवरहित हैं और सूक्ष्म हैं इसलिए वे किसके द्वारा बाधित हो सकते हैं―उन्हें कौन बाधा पहुंचा सकता है अर्थात् कोई नहीं । इसीलिए उनका सुख अंतरहित कहा जाता है ।।211।। ऋषियों में श्रेष्ठ गणधरादि देव इस अनंत सुख को ही ध्यान का फल कहते हैं और उसी सुख के लिए ही मुनि लोग दिगंबर होकर तपश्चरण करते हैं ।।212।। जिस प्रकार वायु से टकराये हुए मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से टकराये हुए कर्मरूपी मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं―नष्ट हो जाते हैं । भावार्थ―उत्तम ध्यान से ही कर्मों का क्षय होता है ।।213।। जिस प्रकार मंत्र की शक्ति से समस्त शरीर में व्याप्त हुआ विष खींच लिया जाता है उसी प्रकार ध्यान की शक्ति से समस्त कर्मरूपी विष दूर हटा दिया जाता है ।।214।। बाकी के ग्यारह तप एक ध्यान के ही परिकर―सहायक माने गये हैं इसलिए मोक्षाभिलाषी जीवों को निरंतर ध्यान का अभ्यास करने में ही प्रयत्न करना चाहिए ।।215।। इस प्रकार ध्यान की विधि सुनकर मगधेश्वर राजा श्रेणिक बहुत ही संतुष्ट हुए, और उस समय अज्ञानरूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से उनका मनरूपी कमल भी प्रफुल्लित हो उठा था ।।216।।
तदनंतर भक्तिपूर्वक वंदना करने वाले ऋषियों ने योगिराज गौतम गणधर से नीचे लिखे अनुसार और भी कुछ ध्यान के भेद पूछे ।।217।। कि हे भगवन् हम लोगों ने आपसे योगशास्त्र का रहस्य अनेक बार सुना है, अब इस समय आप से अन्य प्रकार के ध्यानों का निराकरण जानना चाहते हैं ।।218।। हे देव, जिस प्रकार सूर्य अंधकार के समूह को नष्ट कर देता है उसी प्रकार आप भी इस ध्यानशास्त्र के विषय में जो कुछ भी विप्रतिपत्तियाँ (बाधाएँ) हैं उन सबको नष्ट कर दीजिए ।।219।। हे स्वामिन् अनेक ऋद्धियों प्राप्त होने से आप ऋषि कहलाते हैं, आप अनेक पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाले मुनि हैं, परिग्रहरहित होने के कारण आप अनगार कहलाते हैं और दोनों श्रेणियों के सम्मुख हैं इसलिए यति कहलाते हैं ।।220।। इसलिए भागवत आदि में कहे हुए योगों का पराभव (निराकरण) करने के लिए युक्ति और शास्त्र के अनुसार आपने जैसा सुना है वैसा ही हम लोगों के लिए योग (ध्यान) के समस्त बीजों (कारणों अथवा बीजाक्षरों) का निरूपण कीजिए ।।221।। इस प्रकार उन ऋषियों के ये वाक्य सुनकर भगवान् गौतम स्वामी कहने लगे कि आप लोगों ने जो योगशास्त्र का तत्त्व अथवा रहस्य पूछा है उसे मैं स्पष्ट रूप से कहूँगा ।।222।।
जो छह प्रकार से योगों का निरूपण करता है ऐसे योगवादी से विद्वान् पुरुषों को पूछना चाहिए कि योग क्या है समाधान क्या है ? प्राणायाम कैसा है ? धारणा क्या है ? आध्यान (चिंतवन) क्या है ? ध्येय क्या है ? स्मृति कैसी है ? ध्यान का फल क्या है ? ध्यान के बीज क्या हैं ? और इसका प्रत्याहार कैसा है ? ।।223-224।। योग के जानने वाले विद्वान् काय, वचन और मन की क्रिया को योग मानते हैं, वह योग शुभ और अशुभ के भेद से दो भेदों को प्राप्त होता है ।।225।। उत्तम परिणामों में जो चित्त का स्थिर रखना है यही यथार्थ में समाधि या समाधान कहलाता है अथवा पंच परमेष्ठियों के स्मरण को भी समाधि कहते हैं ।।226।। मन, वचन और काय इन तीनों योगों का निग्रह करना तथा शुभभावना रखना प्राणायाम कहलाता है और शास्त्रों में बतलाये हुए बीजाक्षरों का अवधारणा करना धारणा कहलाती है ।।227।। अनित्यत्व आदि भावनाओं का बार-बार चिंतवन करना आध्यान कहलाता है तथा मन और वचन के अगोचर जो अतिशय बलद शुद्ध आत्मतत्त्व है वह ध्येय कहलाता है ।।228।। जीव आदि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का स्मरण करना स्मृति कहलाती है अथवा सिद्ध और अर्हंत परमेष्ठी के गुणों का स्मरण करना भी स्मृति कहलाती है ।।229।। ध्यान का फल ऊपर कहा जा चुका है, बीजाक्षर आगे कहे जायेंगे और मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर जो मानसिक संतोष प्राप्त होता है उसे प्रत्याहार कहते हैं ।।230।। जिसके आदि में अकार है अंत में हकार है मध्य में रेफ है और अंत में बिंदु है ऐसे अर्हं इस उत्कृष्ट बीजाक्षर का ध्यान करता हुआ मुमुक्षु पुरुष कभी भी दुःखी नहीं होता ।।231।। अथवा ‘अर्हद᳭भ्यो नमः’ अर्थात् ‘अर्हंतों के लिए नमस्कार हो’ इस प्रकार छह अक्षर वाला जो बीजाक्षर है उसका ध्यान कर मोक्षाभिलाषी मुनि अनंत गुणयुक्त अर्हंत अवस्था को प्राप्त होता है ।।232।। अथवा जप करने योग्य पदार्थों में से ‘नम: सिद्धेभ्यः’ अर्थात् ‘सिद्धों के लिए नमस्कार हो’ इस प्रकार सिद्धों के स्तवनस्वरूप पाँच अक्षरों का जो भव्य जीव जप करता है वह अपने इच्छित पदार्थों को प्राप्त होता है अर्थात् उसके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं ।।233।। अथवा ‘नमोऽर्हत्परमेष्ठिने’ अर्थात् ‘अरहंत परमेष्ठी के लिए नमस्कार हो’ यह जो आठ अक्षर वाला परम बीजाक्षर है उसका चिंतवन करके भी यह जीव फिर दुःखों को नहीं देखता है अर्थात् मुक्त हो जाता है ।।234।। तथा ‘अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः’ अर्थात् ‘अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु इन पाँचों परमेष्ठियों के लिए नमस्कार हो’ इस प्रकार सब बीज पदों से सहित जो सोलह अक्षर वाला बीजाक्षर है उसका ध्यान करने वाला तत्त्वज्ञानी मुनि अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होता है ।।235।। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इस प्रकार पंचब्रह्मस्वरूप मंत्रों के द्वारा जो योगिराज शरीररहित परमतत्त्व परमात्मा को शरीरसहित कल्पना कर उसका बार-बार ध्यान करता है वही ब्रह्मतत्त्व को जानने वाला कहलाता है ।।236।। ध्यान करने वाले योगी के चित्त के संतुष्ट होने से जो परम आनंद होता है वही सबसे अधिक ऐश्वर्य है फिर योग से होने वाली अनेक ऋद्धियों का तो कहना ही क्या है । भावार्थ―ध्यान के प्रभाव से हृदय में जो अलौकिक आनंद प्राप्त होता है वही ध्यान का सबसे उत्कृष्ट फल है और अनेक ऋद्धियों की प्राप्ति होना गौण फल है ।।237।। योग को जानने वाला मुनि अणिमा आदि गुणों से युक्त तथा उत्कृष्ट उदय से सुशोभित इंद्र आदि के ऐश्वर्य का इसी संसार में उपभोग करता है और बाद में कर्मबंधन से छूटकर निर्वाण स्थान को प्राप्त होता है ।।238।। इन ऊपर कहे हुए बीजों को न जानकर जो नाम मात्र से ही मंत्रवित् (मंत्रों को जानने वाला) कहलाता है और झूठे अभिमान से दग्ध होता है वह सदा कर्मरूपी बंधनों से बँधता रहता है ।।239।। अब यहाँ से अन्य मतावलंबी लोगों के द्वारा माने गये योग का निराकरण करते हैं―योग का अभिमान करने वाले अर्थात् मिथ्या योग को भी यथार्थ योग मानने वालों के मत में जीव पदार्थ नित्य है ? अथवा अनित्य ? यदि नित्य है तो वह अविकार्य अर्थात् विकार (परिणमन) से रहित होगा और ऐसी अवस्था में उसके ध्येय के ध्यानरूप से परिणमन नहीं हो सकेगा । इसके सिवाय नित्य जीव के सुख-दुःख का अनुभव स्मरण और इच्छा आदि परिणमनों का होना भी असंभव है इसलिए जब इस जीव के सर्वप्रथम ध्यान की इच्छा ही नहीं हो सकती तब तत्त्वों का चिंतन तो दूर ही रहा । और तत्त्वचिंतन के बिना ध्यान कैसे हो सकता है ? ध्यान के बिना फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? और उसके बिना बंध तथा मोक्ष के कारणभूत समस्त क्रियाकलाप भी निष्फल हो जाते हैं ।।240-242।। यदि जीव को अनित्य माना जाये तो क्षण-क्षण में नवीन उत्पन्न होने वाली चितों की संतति में ध्यान की भावना ही नहीं हो सकेगी क्योंकि इस क्षणिक वृत्ति में अपने-द्वारा अनुभव किये हुए पदार्थों का स्मरण होना अशक्य है । भावार्थ―यदि जीव को सर्वथा अनित्य माना जाये तो ध्यान की भावना ही नहीं हो सकती क्योंकि ध्यान करने वाला जीव क्षण-क्षण में नष्ट होता रहता है । यदि यह कहो कि जीव अनित्य है किंतु वह नष्ट होते समय अपनी संतान छोड़ जाता है इसलिए कोई बाधा नहीं आती परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब जीव का निरन्वय नाश हो जाता है तब यह उसकी संतान है, ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता और किसी तरह उसकी संतान है ऐसा व्यवहार मान भी लिया जाये तो ‘सब क्षणिक है’ इस नियम में जीव की संतानों का समुदाय भी क्षणिक ही होगा इसलिए उस दशा में भी ध्यान सिद्ध नहीं हो सकता । इसके सिवाय ध्यान उस पदार्थ का किया जाता है जिसका पहले कभी अनुभव प्राप्त किया हो, परंतु क्षणिक पक्ष में अनुभव करने वाला जीव और अनुभूत पदार्थ दोनों ही नष्ट हो जाते हैं अत: पुन: स्मरण कौन करेगा और किसका करेगा इन सब आपत्तियों को लक्ष्य कर ही आचार्य महाराज ने कहा है कि क्षणिकैकांत पक्ष में ध्यान की भावना ही नहीं हो सकती ।
जिस प्रकार एक पुरुष के द्वारा अनुभव किये हुए पदार्थ का स्मरण दूसरे पुरुष को नहीं हो सकता क्योंकि वह उससे सर्वथा भिन्न है इसी प्रकार अनुभव करने वाले मूलभूत जीव के नष्ट हो जाने पर उसके द्वारा अनुभव किये हुए पदार्थ का स्मरण उनकी संतान प्रतिसंतान को नहीं हो सकता क्योंकि मूल पदार्थ का निरन्वय नाश मानने पर संतान प्रतिसंतान के साथ उसका कुछ भी संबंध नहीं रह जाता । अनुभूत पदार्थ के स्मरण के बिना ध्यान करने की इच्छा का होना असंभव है, ध्यान की इच्छा के बिना ध्यान नहीं हो सकता, और ध्यान के बिना उसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । तथा सम्यक्दृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक्कर्मांत, सम्यक्आजीव, सम्यक्व्यायाम, सम्यक्स्मृति और सम्यक्समाधि इन आठ अंगों की भावना भी नहीं हो सकती । इसलिए जीव को अनित्य मानने से भी ध्यान (योग) की सिद्धि नहीं हो सकती ।।243-244।। इसी प्रकार पुद्गलवाद आत्मा को पुद्गलरूप मानने वाले वात्सीपुत्रियों के मत में देह और पुद्गलतत्त्व के भेद-अभेद और अवक्तव्य पक्षों में ध्याता की सिद्धि नहीं हो पाती । अत: ध्यान की इच्छापूर्वक ध्यानप्रवृत्ति नहीं बन सकती । सर्वथा असत् आकाशपुष्प में गंध आदि की कल्पना नहीं हो सकती । तात्पर्य यह कि पुद्गलरूप आत्मा यदि देह से भिन्न है तो पृथक आत्मतत्त्व सिद्ध हो जाता है । यदि अभिन्न है तो देहात्मवाद के दूषण आते हैं । यदि अवक्तव्य है तो उसके किसी रूप का निर्णय नहीं हो सकता और उसे अवक्तव्य इस शब्द से भी नहीं कह सकेंगे । ऐसी दशा में ध्यान की इच्छा प्रवृत्ति आदि नहीं बन सकते । इसी प्रकार विज्ञानाद्वैतवादियों के मत में भी ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि उनका सिद्धांत है कि संसार में विज्ञान को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं है । परंतु उनके इस सिद्धांत में विज्ञान का कुछ भी विषय शेष नहीं रहता । इसलिए विषय के अभाव में विज्ञान स्व-स्वरूप को कहाँ धारण कर सकेगा । भावार्थ―विज्ञान उसी को कहते हैं जो किसी ज्ञेय (पदार्थ) को जाने परंतु विज्ञानाद्वैतवादी विज्ञान को छोड़कर और किसी पदार्थ की सत्ता स्वीकृत नहीं करते इसलिए ज्ञेय (जानने योग्य) ―पदार्थों के बिना निर्विषय विज्ञान स्वरूप लाभ नहीं कर सकता । अर्थात् विज्ञान का अभाव हो जाता है ।।245-247।। और विज्ञान का अभाव होने पर न ध्यान, न ध्येय, और न मोक्ष कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि दीपक, सूर्य, अग्नि आदि प्रकाशक और घट, पट आदि प्रकाश्य (प्रकाशित होने योग्य) पदार्थों के रहते हुए ही पदार्थों का प्रकाशन हो सकता है अन्य प्रकार से नहीं । भावार्थ―जिस प्रकार प्रकाशक और प्रकाश्य दोनों प्रकार के पदार्थों का सद्भाव होने पर ही वस्तुतत्त्व का प्रकाश हो पाता है उसी प्रकार विज्ञान और विज्ञेय दोनों प्रकार के पदार्थों का सद्भाव होने पर ही ध्यान, ध्येय और मोक्ष आदि वस्तुओं की सत्ता सिद्ध हो सकती है परंतु विज्ञानाद्वैतवादी केवल प्रकाशक अर्थात् विज्ञान को ही मानते हैं प्रकाश्य अर्थात् विज्ञेय पदार्थों को नहीं मानते और युक्तिपूर्वक विचार करने पर उनके उस विज्ञान की भी सिद्धि नहीं हो पाती ऐसी दशा में ध्यान की सिद्धि तो दूर ही रही ।।248।। इसी प्रकार जो आत्मा को नहीं मानते ऐसे शून्यवादी बौद्धों के मत में भी ध्यान सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि जब सब कुछ शून्यरूप ही है तब कौन किसको जानेगा―कौन किसका ध्यान करेगा, उनके इस मत में ध्यान की कल्पना करना कछुए के बालों से आकाश के फूलों का सेहरा बाँधने के समान है । भावार्थ―शून्यवादी लोग न तो ध्यान करने वाले आत्मा को मानते हैं और न ध्यान करने योग्य पदार्थ को ही मानते हैं ऐसी दशा में उनके यहाँ ध्यान की कल्पना ठीक उसी प्रकार असंभव है जिस प्रकार कि कछुए के बालों के द्वारा आकाश के फूलों का सेहरा बाँधा जाना ।।249।। इसके सिवाय शून्यवादियों के मत में ध्येयतत्त्व की भी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि ध्येयतत्त्व में दो प्रकार के विकल्प होते हैं, एक ग्रहण करने योग्य और दूसरा त्याग करने योग्य । जब शून्यवादी मूलभूत किसी पदार्थ को ही नहीं मानते तब उसमें हेय और उपादेय का विकल्प किस प्रकार किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता ।।250।। सांख्य मुक्तात्मा का स्वरूप चैतन्यरहित मानते हैं परंतु उनकी इस मान्यता में चैतन्यरूप लक्षण का अभाव होने से आत्मरूप लक्ष्य की भी सिद्धि नहीं हो पाती । जिस प्रकार रूपत्व और सुगंधि आदि गुणों का अभाव होने से आकाशकमल की सिद्धि नहीं हो सकती ठीक उसी प्रकार चैतन्यरूप विशेष गुणों का अभाव होने से मुक्तात्मा की भी सिद्धि नहीं हो सकती, और ऐसी दशा में वह मुक्तात्मा ध्येय भी नहीं कहला सकता तथा ध्येय के बिना ध्यान भी सिद्ध नहीं हो सकता ।।251।। जो सांख्यमतावलंबी ऐसा कहते हैं कि मुक्त जीव गाड़ निद्रा में सोये हुए पुरुष के समान अचेत रहता है, मालूम होता है कि वे ध्येयतत्त्व का विचार करते समय स्वयं सोना चाहते हैं अर्थात् अज्ञानी बने रहना चाहते हैं इस तरह सांख्यमत में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती ।।252।। इसी प्रकार द्वैतवादी तथा अद्वैतवादी लोगों के जो मत शेष रह गये हैं वे सभी एकांतरूपी दोष से दूषित हैं इसलिए उन सभी में ध्यान और ध्येय का कुछ भी निर्णय नहीं हो सकता है ।।253।। इसलिए जीवतत्त्व को नित्य और अनित्य दोनों ही रूप से मानने वाले स्याद्वादी लोगों के मन में ही ध्यान की सिद्धि हो सकती है अन्य एकांतवादी लोगों के मन में नहीं हो सकती ।।254।। कदाचित् यहाँ कोई कहे कि एक ही वस्तु दो विरुद्ध धर्मों का आधार नहीं हो सकती अर्थात् एक ही जीव नित्य और अनित्य नहीं हो सकता तो उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि विवक्षा के भेद से वैसा कहने में कोई विरोध नहीं आता । यदि एक ही विवक्षा से दोनों विरुद्ध धर्म कहे जाते तो अवश्य ही विरोध आता परंतु यहाँ अनेक विवक्षाओं से अनेक धर्म कहे जाते हैं इसलिए कोई विरोध नहीं मालूम होता । जीवतत्त्व द्रव्य की विवक्षा से नित्य है न कि पर्याय के भेदों की विवक्षा से भी । इसी प्रकार वही जीवतत्त्व पर्यायों के उत्पाद और विनाश की अपेक्षा अनित्य है न कि द्रव्य की अपेक्षा से भी । जिस प्रकार एक ही देवदत्त विवक्षा के वश से पिता और पुत्र दोनों ही रूप होता है उसी प्रकार एक ही वस्तु विवक्षा के वश से नित्य तथा अनित्य दोनों रूप ही होती है । देवदत्त अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है इसी प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है । इससे सिद्ध होता है कि वस्तु में दोनों विरुद्ध धर्म पाये जाते हैं परंतु उनका समावेश विवक्षा और अविवक्षा के वश से ही होता है ।।255-257।। इसलिए जैन शास्त्रों के अभ्यास से जिनकी ज्ञानरूपी संपदा सभी ओर फैल रही है ऐसे स्याद्वादी लोगों के मत में ही ध्यान की सिद्धि हो सकती है अन्य मिथ्यादृष्टियों के मत में नहीं ।।258।। भगवान् अरहंत देव ने मोहरूपी शत्रु पर विजय प्राप्त कर ली है इसलिए वे जिन कहलाते हैं । उनकी दृष्टि का समस्त मल नष्ट हो गया है इसलिए वे आप्त कहलाते हैं और उन्होंने अपने वचनों-द्वारा सर्वश्रेष्ठ मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है इसलिए वे वाचस्पति कहलाते हैं ।।259।। अन्य किसी में नहीं पाये जाने वाले, राग-द्वेष आदि कर्मशत्रुओं को घात करना आदि गुणों के कारण वे अर्हत् अथवा अरिहंत कहलाते हैं । तीन लोक के समस्त पदार्थों को जानने के कारण वे बुद्ध कहलाते हैं और वे समस्त जीवों की रक्षा करने वाले हैं इसलिए विभु कहलाते हैं ।।260।। इसी प्रकार वे समस्त संसार में व्याप्त होने से ‘विष्णु’, कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने से ‘विजिष्णु’, शांति करने से ‘शंकर’, सब जीवों को अभय देने से ‘अभयंकर’, आनंदरूप होने से ‘शिव’, आदिअंतरहित होने के कारण ‘सनातन’ कृतकृत्य होने के कारण ‘सिद्ध’, केवलज्ञानरूप होने से ‘ज्योति’, अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मी से सहित होने के कारण ‘परम’ और अविनाशी होने से ‘अक्षर’ कहलाते हैं ।।261।। इस प्रकार जिस त्रैलोक्यनाथ प्रभु के अनेक सार्थक नाम हैं वही अरहंतदेव विद्वानों के हृदय में आप्तबुद्धि करने के लिए समर्थ हे अर्थात् विद्वान पुरुष उन्हें ही आप्त मान सकते हैं ।।262।। जिनका रूप वस्त्र और आभूषणों से रहित होने पर भी अतिशय प्रकाशमान है और जिनका कटाक्षरहित देखना कामरूपी ज्वर के अभाव को सूचित करता है ।।263।। शस्त्ररहित होने के कारण जो भय और क्रोध से रहित हैं तथा क्रोध का अभाव होने से जिसके नेत्र लाल नहीं हैं, जो सदा सौम्य और मंद मुसकान से पूर्ण रहता है, राग आदि समस्त दोषों के जीत लेने से जो समस्त अन्य पुरुषों के मुखों से बढ़कर है ऐसा जिनका मुखकमल ही विद्वानों के लिए उत्तम शासकपना का उपदेश देता है अर्थात् विद्वान् लोग जिनका मुख-कमल देखकर ही जिन्हें उत्तम शासक समझ लेते हैं ।।264-265।। इसके सिवाय जिनके ज्ञान और वैराग्य का वैभव समस्त जगत् में फैला हुआ है ऐसे अरहंतदेव ही आप्त हैं । यह ध्यान का स्वरूप उन्हीं के द्वारा कहा हुआ है इसलिए कल्याण चाहने वालों के लिए कल्याणस्वरूप है ।।266।।
इस प्रकार बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले गौतम गणधर ने जब मुनियों की सभा में ध्यानतत्त्व का निरूपण किया तब भक्ति को धारण करने वाले वे मुनिराज बहुत ही संतुष्ट हुए । उनके शरीर हर्ष से रोमांचित हो उठे और जिस प्रकार सूर्य की किरणों के संपर्क से कमलों का समूह प्रफुल्लित हो जाता है उसी प्रकार हर्ष से उनके मुखकमल भी प्रफुल्लित हो गये थे ।।267।। अथानंतर स्तुति करने से जिनके मुख वाचालित हो रहे हैं ऐसे उन सभी योगियों ने योगियों में मुख्य और जिनसेनाधीश्वर अर्थात् जिनेंद्र भगवान की चार संघरूपी सेना के अथवा आचार्य जिनसेन के स्वामी गौतमगणधर की थोड़ी देर तक स्तुति कर, जिन्हें समस्त ज्ञान का तेज प्राप्त हुआ है और जो अपने आत्मस्वरूप में ही स्थिर हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव की आर्हंत्य लक्ष्मी को सुनने के लिए चित्त स्थिर किया ।।268।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रह (के हिंदी भाषानुवाद) में
ध्यानतत्त्व का वर्णन करने वाला इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।21।।