ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 20
From जैनकोष
विंशं पर्व
अथानंतर―जिनका माहात्म्य अचिंत्य है और जो मेरु पर्वत के समान अचल स्थिति को धारण करने वाले हैं ऐसे जगद्गुरु भगवान वृषभदेव को योग धारण किये हुए जब छह माह पूर्ण हो गये ।।1।। तब यतियों की चर्या अर्थात् आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के अर्थ निर्दोष आहार ढूंढ़ने के लिए उनकी इस प्रकार बुद्धि उत्पन्न हुई―वे ऐसा विचार करने लगे ।।2।। कि बड़े दुःख की बात है कि बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए ये नवदीक्षित साधु समीचीन मार्ग का परिज्ञान न होने के कारण इन क्षुधा आदि परीषहों से शीघ्र ही भ्रष्ट हो गये ।।3।। इसलिए अब मोक्ष का मार्ग बतलाने के लिए और सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि के लिए शरीर की स्थिति अर्थ आहार लेने की विधि दिखलाता हूँ ।।4।। मोक्षाभिलाषी मुनियों को यह शरीर न तो केवल कृश ही करना चाहिए और न रसीले तथा मधुर मनचाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना चाहिए ।।5।। किंतु जिस प्रकार ये इंद्रियाँ अपने वश में रहें और कुमार्ग की ओर न दौड़ें, उस प्रकार मध्यम वृत्ति का आश्रय लेकर प्रयत्न करना चाहिए ।।6।। वात, पित्त और कफ आदि दोष दूर करने के लिए उपवास आदि करना चाहिए तथा प्राण धारण करने के लिए आहार ग्रहण करना भी जैन-शास्त्रों में दिखलाया गया है ।।7।। कायक्लेश उतना ही करना चाहिए जितने से संक्लेश न हो । क्योंकि संक्लेश हो जाने पर चित्त चंचल हो जाता है और मार्ग से भी च्युत होना पड़ता है ।।8।। इसलिए संयमरूपी यात्रा की सिद्धि के लिए शरीर की स्थिति चाहने वाले मुनियों को रसों में आसक्त न होकर निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए ।।9।। इस प्रकार निश्चय करने वाले धीर-वीर भगवान् वृषभदेव योग समाप्त कर अपने चरणनिक्षेपों (डगों) के द्वारा मानो समस्त पृथ्वी को कंपायमान करते हुए विहार करने लगे ।।10।।
जिस समय महामेरु के समान उन्नत भगवान् वृषभदेव विहार कर रहे थे उस समय कंपायमान हुई यह पृथ्वी उनके चरणकमलों के निक्षेप को स्वीकृत कर रही थी ।।11।। यदि उस समय भगवान् वृषभदेव ने ईर्यासमिति से युक्त तपश्चरण धारण करने में प्रयत्न न किया होता तो सचमुच ही यह पृथिवी उनके चरणों के भार से दबकर अधोलोक में डूब गयी होती । भावार्थ―भगवान ईर्यासमिति से गमन करने के कारण पोले-पोले पैर रखते थे इसलिए पृथ्वी पर उनका अधिक भार नहीं पड़ता था ।।12।। तदनंतर चलते हुए पर्वत के समान उन्नत और शोभायमान भगवान् वृषभदेव ने अनेक नगर, ग्राम, मडंब, खर्वट और खेटों में विहार किया था ।।13।। मुनियों की चर्या को धारण करने वाले भगवान् जिस-जिस ओर कदम रखते थे अर्थात् जहाँ-जहाँ जाते थे वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर और बड़े संभ्रम के साथ आकर उन्हें प्रणाम करते थे ।।14।। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते थे कि हे देव, प्रसन्न होइए और कहिए कि क्या काम है तथा कितने ही लोग चुपचाप जाते हुए भगवान् के पीछे-पीछे जाने लगते थे ।।15।। अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान् के सामने रखते थे और कहते थे कि देव, प्रसन्न होइए और हमारी इस पूजा को स्वीकृत कीजिए ।।16।। कितने ही लोग करोड़ों पदार्थ और करोड़ों प्रकार की सवारियां भगवान् के समीप लाते थे परंतु भगवान् को उन सबसे कुछ भी प्रयोजन नहीं था इसलिए वे चुपचाप आगे विहार कर जाते थे ।।17।। कितने ही लोग माला, वस्त्र, गंध और आभूषणों के समूह आदरपूर्वक भगवान् के समीप लाते थे और कहते थे कि हे भगवन् इन्हें धारण कीजिए ।।18।। कितने ही लोग रूप और यौवन से शोभायमान कन्याओं को लाकर भगवान् के साथ विवाह कराने के लिए तैयार हुए थे सो ऐसी मूर्खता को धिक्कार हो ।।19।। कितने ही लोग स्नान करने की सामग्री लाकर भगवान् को घेर लेते थे और कितने ही लोग भोजन की सामग्री सामने रखकर प्रार्थना करते थे कि विभो, मैं स्नान की सामग्री के साथ-साथ भोजन लाया हूँ, प्रसन्न होइए, इस आसन पर बैठिए और स्नान तथा भोजन कीजिए ।।20-21।। चर्या की विधि को नहीं जानने वाले कितने ही मूर्ख लोग भगवान् से ऐसी प्रार्थना करते थे कि हे भगवन् हम लोग दोनों हाथ जोड़ते हैं, प्रसन्न होइए और हमें अनुगृहीत कीजिए ।।22।। कितने ही लोग भगवान् के चरण-कमलों को पाकर और उनकी धूलि के स्पर्श से पवित्र हुए अपने मस्तक झुकाकर भोजन करने के लिए उनसे बार-बार प्रार्थना करते थे ।।23।। और कहते थे कि हे भगवन् यह खाद्य पदार्थ है, यह स्वाद्य पदार्थ है, यह जुदा रखा हुआ भोज्य पदार्थ है, और यह शरीर को संतुष्ट करने वाला, अतिशय मनोहर बार-बार पीने योग्य पेय पदार्थ है इस प्रकार संभ्रांत हुए कितने ही अज्ञानी लोग भगवान् से बार-बार प्रार्थना करते थे परंतु ‘ऐसा करना उचित नहीं है’ यही मानते हुए भगवान् चुपचाप वहाँ से आगे चले जाते थे ।।24-25।। जिनकी चर्या की विधि अतिशय गुप्त है ऐसे भगवान् के अभिप्राय को जानने के लिए असमर्थ हुए कितने ही लोग क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए इस विषय में मूढ़ होकर चित्रलिखित के समान निश्चल ही खड़े रह जाते थे ।।26।। अन्य कितने ही लोग आँखों से आँसू डालते हुए अपने पुत्र तथा स्त्रियोंसहित भगवान् के चरण में आ लगते थे जिससे क्षण-भर के लिए भगवान् की चर्या में विघ्न पड़ जाता था परंतु विघ्न दूर होते ही वे फिर भी आगे के लिए विहार कर जाते थे ।।27।। इस प्रकार जगत् को आश्चर्य करने वाली गूढ़ चर्या से उत्कृष्ट चर्या धारण करने वाले भगवान् के छह महीने और भी व्यतीत हो गये ।।28।। इस तरह एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान् वृषभदेव कुरुजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे ।।29।। उस समय उस नगर के रक्षक राजा सोमप्रभ थे । राजा सोमप्रभ कुरुवंश के शिखामणि के समान थे, उनका अंतःकरण अतिशय प्रसन्न था और मुख चंद्रमा के समान सौम्य था ।।30।। उनका एक छोटा भाई था जिसका नाम श्रेयान्सकुमार था । वह श्रेयान्सकुमार गुणों की वृद्धि से श्रेष्ठ था, रूप से कामदेव के समान था, कांति से चंद्रमा के समान था और दीप्ति से सूर्य के समान था ।।31।। जो पहले धनदेव था और फिर अहमिंद्र हुआ था वह स्वर्ग से चय कर प्रजा का कल्याण करने वाला और स्वयं कल्याणों का निधिस्वरूप श्रेयान्सकुमार हुआ था ।।32।। जब भगवान् इस हस्तिनापुर नगर के समीप आने को हुए तब श्रेयान्सकुमार ने रात्रि के पिछले प्रहर में नीचे लिखे स्वप्न देखे ।।33।। प्रथम ही सुवर्णमय महा शरीर को धारण करने वाला और अतिशय ऊँचा सुमेरु पर्वत देखा, दूसरे स्वप्न में शाखाओं के अग्रभाग पर लटकते हुए आभूषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष देखा, तीसरे स्वप्न में प्रलयकाल संबंधी संध्याकाल के मेघों के समान पीली-पीली अयाल से जिसकी ग्रीवा ऊँची हो रही है ऐसा सिंह देखा, चौथे स्वप्न में जिसके सींग के अग्रभाग पर मिट्टी लगी हुई है ऐसा किनारा उखाड़ता हुआ बैल देखा, पाँचवें स्वप्न में जिनकी कांति अतिशय दैदीप्यमान हो रही है, और जो जगत् के नेत्रों के समान हैं ऐसे सूर्य और चंद्रमा देखे, छठे स्वप्न में जिसका जल बहुत ऊँची उठती हुई लहरों और रत्नों से सुशोभित हो रहा है ऐसा समुद्र देखा तथा सातवें स्वप्न में अष्टमंगल द्रव्य धारण कर सामने खड़ी हुई भूत जाति के व्यंतर देवों की मूर्तियाँ देखी । इस प्रकार भगवान् के चरणकमलों का दर्शन ही जिनका मुख्य फल है ऐसे ये ऊपर लिखे हुए सात स्वप्न श्रेयान्सकुमार ने देखे ।।34-37।। तदनंतर जिसका चित्त अतिशय प्रसन्न हो रहा है ऐसे श्रेयान्सकुमार ने प्रातःकाल के समय विनयसहित राजा सोमप्रभ के पास जाकर उनसे रात्रि के समय देखे हुए वे सब स्वप्न ज्यों-के-त्यों कहे ।।38।। तदनंतर जिसकी फैलती हुई दाँतों की किरणों से सब दिशाएँ अतिशय स्वच्छ हो गयी हैं ऐसे पुरोहित ने उन स्वप्नों का कल्याण करने वाला फल कहा ।।39।। वह कहने लगा कि हे राजकुमार, स्वप्न में मेरुपर्वत के देखने से यह प्रकट होता है कि जो मेरुपर्वत के समान अतिशय उन्नत (ऊँचा अथवा उदार) है और मेरुपर्वत पर जिसका अभिषेक हुआ है ऐसा कोई देव आज अवश्य ही अपने घर आयेगा ।।40।। और ये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों की उन्नति को सूचित करते हैं । आज उन भगवान् के योग्य की हुई विनय के द्वारा हम लोगों के बड़े भारी पुण्य का उदय होगा ।।41।। आज हम लोग जगत् में बड़ी भारी प्रशंसा प्रसिद्धि और लाभसंपदा को प्राप्त होंगे―इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं है और कुमार श्रेयान्स भी स्वयं स्वप्नों के रहस्य को जानने वाले हैं ।।42।। इस प्रकार पुरोहित के वचनों से प्रसन्न हुए वे दोनों भाई स्वप्न अथवा भगवान् की कथा कहते हुए बैठे ही थे कि इतने में ही योगिराज भगवान् वृषभदेव ने हस्तिनापुर में प्रवेश किया ।।43।। उस समय भगवान के दर्शनों की इच्छा से जहाँ-तहाँ से आकर इकट्ठे हुए नगरनिवासी लोगों के मुख से निकला हुआ बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था ।।44।। कोई कह रहा था कि आदिकर्ता भगवान् वृषभदेव हम लोगों का पालन करने के लिए यहाँ आये हैं चलो जल्दी चलकर उनके दर्शन करें और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करें ।।45।। कितने ही लोग ऐसे उचित वचन कह रहे थे कि सनातन-भगवान केवल हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिए ही वनप्रदेश से वापिस लौटे हैं ।।46।। इस लोक और परलोक को जानने वाले भगवान् के दर्शन करने के लिए उत्कंठित हुए कितने ही नगरनिवासी जन अन्य सब काम छोड़कर इधर से उधर दौड़ रहे थे ।।47।। कोई कह रहा था कि जिनका शरीर सुमेरु पर्वत के समान अतिशय ऊँचा है और जिनकी कांति तपाये हुए उत्तम सुवर्ण के समान अतिशय दैदीप्यमान है ऐसे ये भगवान् दूर से ही दिखाई देते हैं ।।48।। संसार का कोई एक पितामह है ऐसा जो हम लोग केवल कानों से सुनते थे वे ही सनातन पितामह भाग्य से आज हम लोगों के प्रत्यक्ष हो रहे हैं―हम उन्हें अपनी आँखों से भी देख रहे हैं ।।49।। इन भगवान के दर्शन करने से नेत्र सफल हो जाते हैं, इनका नाम सुनने से कान सफल हो जाते हैं और इनका स्मरण करने से अज्ञानी जीव भी अंतःकरण की पवित्रता को प्राप्त हो जाते हैं ।।50।। जिन्होंने समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया है और जिनका अतिशय ऊँचा शरीर बहुत ही दैदीप्यमान हो रहा है ऐसे ये भगवान् मेघों के आवरण से छूटे हुए सूर्य के समान अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं ।।51।। यह बड़ा भारी आश्चर्य है कि ये भगवान् तीन लोक के स्वामी होकर भी सब परिग्रह छोड़कर इस तरह अकेले ही विहार करते हैं ।।52।। अथवा जो हम लोगों ने पहले सुना था कि भगवान् ने स्वाधीन सुख प्राप्त करने की इच्छा से झुंड की रक्षा करने वाले हाथी के समान वन के लिए प्रस्थान किया है सो वह इस समय सत्य मालूम होता है क्योंकि ये परमेश्वर भगवान् समस्त परिग्रह और वस्त्र छोड़कर बिना किसी कष्ट के इच्छानुसार अकेले ही विहार कर रहे हैं ।।53-54।। ये भगवान अपनी इच्छानुसार अनेक देशो में विहार करते हुए हम लोगों के भाग्य से ही यहाँ आये हैं इसलिए हमें इनकी वंदना करनी चाहिए, पूजा करनी चाहिए और इनके सम्मुख जाना चाहिए, इस प्रकार कितने ही लोग प्रशंसनीय वचन कह रहे थे ।।55।। उस समय कोई स्त्री अपनी दासी से कह रही थी कि हे दासी, तू बालक को लेकर दूध पिला, मैं भगवान् के चरणों का दर्शन करने के लिए जाती हूँ ।।।56।। अन्य कोई स्त्री कह रही थी कि यह स्नान की सामग्री और यह आभूषण पहनने की सामग्री दूर रहे, मैं तो भगवान् के दृष्टिरूपी पवित्र जल से स्नान करूंगी ।।57।। भगवान् के मुखरूपी बालसूर्य के दर्शन से हमारा यह मनरूपी कमल चिरकाल तक विकास को प्राप्त रहे, चलो, आज जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव के दर्शन करें ।।58।। अन्य कोई स्त्री कह रही थी कि हे सखि, भोजन करना बंद कर, जल्दी उठ और यह अर्घ हाथ में ले, चलकर जगत् पूज्य भगवान् की पूजा करें ।।59।। उस समय नगरनिवासी लोग सामने रखी हुई स्नान और भोजन की सामग्री को दूर कर आगे जाने वाले भगवान के दर्शन के लिए जा रहे थे ।।60।। कितने ही लोग अन्य लोगों को जाते हुए देखकर उनकी देखादेखी भगवान् के दर्शन करने के लिए उद्यत हुए थे । कितने ही भक्तिवश और कितने ही कौतुक के अधीन हो जिनेंद्रदेव को देखने के लिए तत्पर हुए थे ।।61।। इस प्रकार नगरनिवासी लोग परस्पर में अनेक प्रकार की बातचीत और आदरसहित अनेक संकल्प-विकल्प करते हुए जगत् की रक्षा करने वाले भगवान को दूर से ही नमस्कार कर उनके दर्शन करने लगे ।।62।। मैं पहले पहुँचूँ मैं पहले पहुँचूँ इस प्रकार विचार कर चारों ओर से आये हुए नगरनिवासी लोगों के द्वारा वह नगर उस समय राजमहल तक खूब भर गया था ।।63।। उस समय नगर में यह सब हो रहा था परंतु भगवान संवेग और वैराग्य की सिद्धि के लिए कमर बाँधकर संसार और शरीर के स्वभाव का चिंतवन करते हुए प्राणिमात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनयी जीवों पर क्रम से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना का विचार करते हुए चार हाथ प्रमाण मार्ग देखकर न बहुत धीरे और न बहुत शीघ्र मदोन्मत्त हाथी जैसी लीलापूर्वक पैर रखते हुए, और मनुष्यों से भरे हुए नगर को शून्य वन के समान जानते हुए निराकुल होकर चांद्रीचर्या का आश्रय लेकर विहार कर रहे थे अर्थात् जिस प्रकार चंद्रमा धनवान और निर्धन―सभी लोगों के घर पर अपनी चाँदनी फैलाता है उसी प्रकार भगवान् भी राग-द्वेष से रहित होकर निर्धन और धनवान् सभी लोगों के घर आहार लेने के लिए जाते थे । इस प्रकार प्रत्येक घर में यथायोग्य प्रवेश करते हुए भगवान् राजमंदिर में प्रवेश करने के लिए उसके सम्मुख गये सो आचार्य कहते हैं कि रागद्वेषरहित हो समतावृत्ति धारण करना ही सनातन―सर्वश्रेष्ठ प्राचीन धर्म है ।।64-68।।
तदनंतर सिद्धार्थ नाम के द्वारपाल ने शीघ्र ही जाकर अपने छोटे भाई श्रेयान्सकुमार के साथ बैठे हुए राजा सोमप्रभ के लिए भगवान के समीप आने के समाचार कहे ।।69।। सुनते ही राजा सोमप्रभ और तरुण राजकुमार श्रेयान्स, दोनों ही, अंतःपुर, सेनापति और मंत्रियों के साथ शीघ्र ही उठे ।।70।। उठकर वे दोनों भाई राजमहल के आंगन तक बाहर आये और दोनों ने ही दूर से नम्रीभूत होकर भक्तिपूर्वक भगवान् के चरणों को नमस्कार किया ।।71।। उन्होंने भगवान् के चरणकमलों में अर्घसहित जल समर्पित किया, अर्थात् जल से पैर धोकर अर्घ चढ़ाया, जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव की प्रदक्षिणा दी और यह सब कर वे दोनों ही इतने संतुष्ट हुए मानो उनके घर निधि ही आयी हो ।।72।। जिस प्रकार मलयानिल के स्पर्श से वृक्ष अपने शरीर पर अंकुर धारण करने लगते हैं उसी प्रकार भगवान् के दर्शन से हर्षित हुए वे दोनों भाई अपने शरीर पर रोमांच धारण कर रहे थे ।।73।। भगवान का मुख देखकर जिनके मुखकमल विकसित हो उठे हैं ऐसे वे दोनों भाई ऐसे जान पड़ते थे मानो जिन में कमल फूल रहे हों ऐसे प्रातःकाल के दो सरोवर ही हों ।।74।। उस समय वे दोनों हर्ष से भरे हुए थे और भक्ति के भार से दोनों के मस्तक नीचे की ओर झुक रहे थे इसलिए ऐसे सुशोभित होते थे मानो मूर्तिधारी विनय और शांति ही हों ।।75।। भगवान् के चरणों के समीप वे दोनों ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भगवान के दर्शन करने के लिए आये हुए सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के इंद्र ही हों ।।76।। दोनों ओर खड़े हुए सोमप्रभ और श्रेयान्सकुमार के बीच में स्थित भगवान् वृषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो निषध और नीलपर्वत के बीच में खड़ा हुआ सुमेरुपर्वत ही हो ।।77।।
भगवान् का रूप देखकर श्रेयान्सकुमार को जातिस्मरण हो गया जिससे उसने अपने पूर्व पर्यायसंबंधी संस्कारों से भगवान् के लिए आहार देने की बुद्धि की ।।78।। उसे श्रीमती और वज्रजंघ आदि का वह समस्त वृत्तांत याद हो गया तथा उसी भव में उन्होंने जो चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों के लिए आहार दिया था उसका भी उसे स्मरण हो गया ।।79।। यह मुनियों के लिए दान देने योग्य प्रातःकाल का उत्तम समय है ऐसा निश्चय कर पवित्र बुद्धि वाले श्रेयान्सकुमार ने भगवान् के लिए आहार दान दिया ।।80।। दान के आदि तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले श्रेयान्सकुमार ने श्रद्धा आदि सातों गुणसहित और पुण्यवर्धक नवधा भक्तियों से सहित होकर भगवान् के लिए दान दिया था ।।81।। श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने वाले के सात गुण कहलाते हैं ।।82।। श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धि को कहते हैं, आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धा के न होने पर दान देने में अनादर हो सकता है । दान देने में आलस्य नहीं करना सो शक्ति नाम का गुण है, पात्र के गुणों में आदर करना सो भक्ति नाम का गुण है ।।83।। दान देने आदि के क्रम का ज्ञान होना सो विज्ञान नाम का गुण है, दान देने की शक्ति को अलुब्धता कहते हैं, सहनशीलता होना क्षमा गुण है और उत्तम द्रव्य दान में देना सो त्याग है ।।84।। इस प्रकार जो दाता ऊपर कहे हुए सात गुणों से सहित और निदान आदि दोषों से रहित होकर पात्ररूपी संपदा में दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्पर होता है ।।85।। मुनिराज का पड़गाहन करना, उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार की विशुद्धि रखना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती है । अतिशय चतुर श्रेयान्सकुमार ने पूर्वपर्याय के संस्कारों से प्रेरित होकर वे सभी भक्तियाँ की थीं ।।86-87।। ये भगवान् अतिशय इष्ट तथा विशिष्ट पात्र हैं ऐसा विचार कर परम संतोष को प्राप्त हुए श्रेयान्सकुमार ने भगवान् के लिए प्रासुक आहार का दान दिया था ।।88।। जो भगवान् संतोष रखना, याचना का अभाव होना, परिग्रह का त्याग करना, और अपने आपकी प्रधानता रहना आदि अनेक गुणों का विचार कर पाणिपात्र से ही अर्थात् अपने हाथों से ही आहार ग्रहण करते थे । उत्तम आसन मिलने से संतोष होगा, यदि उत्तम आसन नहीं मिला तो द्वेष होगा और ऐसी अवस्थाओं में असंयम होगा ऐसा विचार कर जो भगवान् खड़े होकर ही भोजन करते थे । शरीरसंबंधी दुःख सहन करने के लिए, सुख की आसक्ति दूर करने के लिए और धर्म की प्रभावना के लिए जो भगवान कायक्लेश को प्राप्त होते थे । जिसमें अकिंचनता की ही प्रधानता है, जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, हिंसा, रक्षा और याचना आदि दोष जिसे छू भी नहीं सकते हैं, जो अत्यंत बलवान् हैं, साधारण मनुष्य जिसे धारण नहीं कर सकते, जिसे कोई प्राप्त नहीं करना चाहता, और जो तत्काल में उत्पन्न हुए बालक के समान निर्विकार तथा उपद्रवरहित है ऐसे नग्न-दिगंबर रूप को जो भगवान् धारण करते थे । तैल आदि की याचना करना, उसके लाभ और अलाभ में राग-द्वेष का उत्पन्न होना, और केशों में उत्पन्न होने वाले जूँ आदि जीवों की हिंसा होना इत्यादि अनेक दोषों का विचार कर जो भगवान् अस्नान व्रत को धारण करते थे अर्थात् कभी स्नान नहीं करते थे । एक वर्ष तक भोजन न करने पर भी जो शरीर में पुष्टि और दीप्ति को धारण कर रहे थे । यदि क्षुरा आदि से बाल बनवाये जायेंगे तो उसके साधन क्षुरा आदि लेने पड़ेंगे, उनकी रक्षा करनी पड़ेगी और उनके खो जाने पर चिंता होगी ऐसा विचार कर जो भगवान् हाथ से ही केशलोंच करते थे । जो भगवान् पाँचों इंद्रियों को वश कर लेने से शांत थे, तीनों गुप्तियों से सुरक्षित थे, सबकी रक्षा करने वाले थे, महाव्रती थे, महान थे, मोहरहित थे और इच्छारहित थे । जो संयम रूप क्रिया से सब प्राणियों के लिए अभय दान देने वाले थे, सबका हित करने वाले थे, सर्वहितकारी ज्ञान-दान देने में समर्थ थे । जो आहार-दान देने वाले को शीघ्र ही संसार-सागर से पार करने वाले थे, तीनों लोको के समस्त जीवों का हित करने के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले थे और जिन्होंने अपने दोनों हाथ उत्तान किये थे अर्थात् दोनों हाथों को सीधा मिलाकर अंजली (खोवा) बनायी थी ऐसे भगवान् वृषभदेव के लिए श्रेयान्सकुमार ने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती के साथ-साथ आदरपूर्वक ईख के प्रासुक रस का आहार दिया था ।।89-100।। वह राजकुमार श्रेयान्स भगवान के पाणिपात्र में पुण्यधारा के समान उज्ज्वल पौंडे और ईख के रस की धारा छोड़ता हुआ बहुत अच्छा सुशोभित हो रहा था ।।101।। तदनंतर आकाश से महादान के फल की परंपरा के समान देवों के हाथ से छोड़ी हुई रत्नों की वर्षा होने लगी ।।102।। उसी समय देवों के हाथों से छोड़ी हुई और भ्रमरों के समूह से व्याप्त फूलों की वर्षा आकाश से होने लगी । वह फूलों की वर्षा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो देवों के नेत्रों की माला ही हो ।।103।। उसी समय समस्त लोक को बधिर करने वाले देवों के नगाड़े गंभीर शब्द करने लगे और मंद-मंद गमन करने से सुंदर शीतल तथा सुगंधित वायु चलने लगा ।।104।। उसी समय प्रीति को प्राप्त हुए देवों का ‘धन्य यह दान, धन्य यह पात्र, और धन्य यह दाता’ इस प्रकार बड़ा भारी शब्द आकाशरूपी आंगन में हो रहा था ।।105।। उस समय उन दोनों भाइयों ने अपने-आपको बहुत ही कृतकृत्य माना था क्योंकि कृतकृत्य हुए भगवान् वृषभदेव ने स्वयं उनके घर के आंगन को पवित्र किया था ।।106।। उस दान की अनुमोदना करने से और भी बहुत से लोग परम पुण्य को प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि स्फटिक मणि किसी अन्य उत्कृष्ट रत्न को पाकर उसकी कांति को प्राप्त होता ही है ।।107।।। यदि यहाँ कोई आशंका करे कि अनुमोदना करने से पुण्य की प्राप्ति किस प्रकार होती है तो उसका समाधान यह है कि पुण्य और पाप के बंध होने में केवल जीव के परिणाम ही कारण हैं बाह्य कारणों को तो जिनेंद्र देव ने केवल कारण का कारण अर्थात शुभ अशुभ परिणामों का कारण कहा है । जब कि पुण्य के साधन करने में जीवों के शुभ परिणाम ही प्रधान कारण माने जाते हैं तब शुभ कार्य की अनुमोदना करने वाले जीवों को भी उस शुभ फल की प्राप्ति अवश्य होती है ।।108-109।। इस प्रकार महाबुद्धिमान् योगिराज भगवान वृषभदेव शरीर की स्थिति के अर्थ आहार-ग्रहण कर और जिन्हें एक प्रकार का कौतुक उत्पन्न हुआ है तथा जो अतिशय नम्रीभूत हैं ऐसे उन दोनों भाइयों को हर्षित कर पुन: वन की ओर प्रस्थान कर गये ।।110।। कुरुवंशियों में सिंह के समान पराक्रमी वह राजा सोमप्रभ और श्रेयान्स कुछ दूर तक वन को जाते हुए भगवान् के पीछे-पीछे गये और फिर रुक-रुककर वापिस लौट आये ।।111।। वे दोनों ही भाई अपना मुख फिराकर निरपेक्ष रूप से वन को जाते हुए भगवान को क्षण-क्षण में देखते जाते थे ।।112।। जब तक वे भगवान् आँखों से दिखाई देते रहे तब तक वे दोनों भाई भगवान की ओर लगी हुई अपनी दृष्टि को और उन्हीं के पीछे गयी हुई अपनी चित्तवृत्ति को लौटाने के लिए समर्थ नहीं हो सके थे ।।113।। जो बार-बार भगवान की ही कथा कह रहे थे, बार-बार उन्हीं के गुणों की स्तुति कर रहे थे, अपने आपको कृतकृत्य मान रहे थे, जो भगवान् के चरणों के स्पर्श से पवित्र हुई तथा अनेक लक्षणों से सुशोभित और उन्हीं के चरणों से चिह्नित भूमि को नमस्कार करते हुए बड़े प्रेम से देख रहे थे । जिसके यह ऐसा महान् पुण्य उपार्जन करने वाला भाई हुआ है ऐसा यह कुरुवंशियों का स्वामी राजा सोमप्रभ ही उत्तम भाई से सहित है, कृतकृत्य है, पुण्यात्मा है और कुशल है तथा जिसकी ऐसी उत्तम बुद्धि है ऐसा यह श्रेयान्सकुमार अनेक कल्याणों से सहित है इस प्रकार सामने जाकर पुरवासीजन जिनके गुणों के समूह का वर्णन कर रहे थे । बड़ी-बड़ी गलियों में जहाँ-तहाँ बिखरे हुए सूर्य के समान तेजस्वी रत्नों को इकट्ठे करने वाले साधारण जनसमूह को जो आनंदित कर रहे थे । देवों के द्वारा वर्षाये हुए रत्नरूपी पाषाणों से जिसका मध्यभाग ऊँचा-नीचा हो गया है ऐसे राजांगण को बड़ी कठिनाई से उल्लंघन कर भीतर पहुंचे हुए अनेक लोग बार-बार जिनकी प्रशंसा कर रहे हों और जिन्हें नगर-निवासी जन बड़े आनंद से देख रहे थे ऐसे उन दोनों कुरुवंशी भाइयों ने उत्कृष्ट सजावट से अन्य आकृति को प्राप्त हुए के समान सुशोभित होने वाले नगर में प्रवेश किया ।।114-120।।
अथानंतर―संसार के सभी लोग उत्तम प्रकार से जिनके बड़े भारी अभ्युदय की प्रशंसा करते हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव पारणा करके वन को चले गये ।।121।। उस समय ‘अहो कल्याण, ऐसा कल्याण, और उस प्रकार का कल्याण’ इस तरह समस्त संसार राजकुमार श्रेयान्स के यश से भर गया था सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम दान यश को देने वाला होता ही है ।।122।। संसार में दान देने की प्रथा उसी समय से प्रचलित हुई और दान देने की विधि भी सबसे पहले राजकुमार श्रेयान्स ने ही जान पायी थी । दान की इस विधि से भरत आदि राजाओं को बड़ा आश्चर्य हुआ था ।।123।। महाराज भरत अपने मन में यही सोचते हुए आश्चर्य कर रहे थे कि इसने मौन धारण करने वाले भगवान् का अभिप्राय कैसे जान लिया? ।।124।। देवों को भी उससे बड़ा आश्चर्य हुआ था, जिन्हें श्रेयान्स पर बड़ा भारी विश्वास उत्पन्न हुआ था ऐसे उन देवों ने एक साथ आकर बड़े आदर से उसकी पूजा की थी ।।125।। तदनंतर महाराज भरत ने आदरसहित राजकुमार श्रेयान्स से पूछा कि हे महादानपते, कहो तो सही तुमने भगवान् का यह अभिप्राय किस प्रकार जान लिया ।।126।। इस संसार में पहले कभी नहीं देखी हुई इस दान की विधि को कौन जान सकता है । हे कुरुराज, आज तुम हमारे लिए भगवान् के समान ही पूज्य हुए हो ।।127।। हे राजकुमार श्रेयान्स, तुम दानतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले हो, और महापुण्यवान् हो इसलिए तुम से यह सब पूछ रहा हूँ कि जो सत्य हो वह आज मुझसे कहो ।।128।। इस प्रकार महाराज भरत द्वारा पूछे गये श्रेयान्सकुमार अपने दाँतों की किरणों के समूह से बीच में चाँदनी को फैलाते हुए के समान नीचे लिखे अनुसार उत्तर देने लगे ।।129।। कि जिस प्रकार रोगी मनुष्य रोग को दूर करने वाली किसी उत्कृष्ट औषधि को पाकर प्रसन्न होता है अथवा प्यासा मनुष्य स्वच्छ जल से भरे हुए और कमलों से सुशोभित तालाब को देखकर प्रसन्न होता है उसी प्रकार भगवान् के उत्कृष्ट रूप को देखकर मैं अतिशय प्रसन्न हुआ था और इसी कारण मुझे जातिस्मरण हो गया था जिससे मैंने भगवान् का अभिप्राय जान लिया था ।।130-131।। पूर्वभव में जब भगवान् वज्रजंघ की पर्याय में थे तब विदेह-क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी में मैं इनकी श्रीमती नाम की प्रिय स्त्री हुआ था ।।132।। उस समय वज्रजंघ की पर्याय को धारण करने वाले इन भगवान् के साथ-साथ मैंने दो चारणमुनियों के लिए दान दिया था ।।133।। अतिशय विशुद्ध, दोषरहित और प्रसिद्धि का कारण ऐसा महादान देना और काव्य करना ये दोनों ही वस्तुएं बड़े पुण्य से प्राप्त होती हैं ।।134।। हे भरतक्षेत्र के स्वामी भरत महाराज, दान की विशुद्धि का कुछ थोड़ा-सा वर्णन आप भी सुनिए―स्व और पर के उपकार के लिए मन-वचन-काय की विशुद्धापूर्वक जो अपना धन दिया जाता है उसे दान कहते हैं ।।135।। दान देने वाले (दाता) की विशुद्धता दान में दी जाने वाली वस्तु तथा दान लेने वाले पात्र को पवित्र करती है । दी जाने वाली वस्तु की पवित्रता देने वाले और लेने वाले को पवित्र करती है और इसी प्रकार लेने वाले की विशुद्धि देने वाले पुरुष को तथा दी जाने वाली वस्तु को पवित्र करती है इसलिए जो दान नौ प्रकार की विशुद्धतापूर्वक दिया जाता है वही अनेक फल देने वाला होता है । भावार्थ―दान देने में दाता, देय और पात्र की शुद्धि का होना आवश्यक है ।।136-137।। पुण्य प्राप्ति के कारण स्वरूप, श्रद्धा आदि गुणों से सहित पुरुष दाता कहलाता है और आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभय से चार प्रकार की वस्तुएँ देय कहलाती हैं ।।138।। जो रागादि दोषों से छुआ भी नहीं गया हो और जो अनेक गुणों से सहित हो ऐसा पुरुष पात्र कहलाता है, वह पात्र जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से तीन प्रकार का होता है । हे राजन्, यह सब मैंने पूर्वभव के स्मरण से जाना है ।।139।। जो पुरुष मिथ्यादृष्टि है परंतु मंदकषाय होने से व्रत, शील आदि का पालन करता है वह जघन्य पात्र कहलाता है और जो व्रत शील आदि की भावना से रहित सम्यग्दृष्टि है वह मध्यम पात्र कहा जाता हें ।।140।। तो व्रत, शील आदि से सहित सम्यग्दृष्टि है वह उत्तम पात्र कहलाता है और जो व्रत, शील आदि से रहित मिथ्यादृष्टि है वह पात्र नहीं माना गया है अर्थात् अपात्र है ।।141।। जो मनुष्य अपात्र के लिए दान देता है वह कुमनुष्य योनि (कुभोगभूमि) में उत्पन्न होता है क्योंकि जिस प्रकार बिना शुद्धि की हुई तूंबी अपने में रखे हुए दूध आदि को दूषित कर देती है उसी प्रकार अपात्र अपने लिए दिये हुए दान को दूषित कर देता है ।।142।। जिस प्रकार कच्चे बरतन में रखा हुआ ईख का रस अथवा दूध स्वयं नष्ट हो जाता है और उस बरतन को भी नष्ट कर देता है उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ दान स्वयं नष्ट हो जाता है―व्यर्थ जाता है और लेने वाले पात्र को भी नष्ट कर देता है―अहंकारादि से युक्त बनाकर विषय-वासनाओं में फँसा देता है ।।143।। जो अनेक विशुद्ध गुणों को धारण करने से पात्र के समान हो वही पात्र कहलाता है । इसी प्रकार जो जहाज के समान इष्ट स्थान में पहुंचाने वाला हो वही पात्र कहलाता है ।।144।। जिस प्रकार लोहे की बनी हुई नाव समुद्र से दूसरे को पार नहीं कर सकती (और न स्वयं ही पार हो सकती है) इसी प्रकार कर्मों के भार से दबा हुआ दोषवान् पात्र किसी को संसार-समुद्र से पार नहीं कर सकता (और न स्वयं ही पार हो सकता है) ।।145।। इसलिए, जो मोक्ष के साधनस्वरूप दिगंबर वेष को धारण करते हैं, जो शरीर की स्थिति और ज्ञानादि गुणों की सिद्धि के लिए आहार की इच्छा करते हैं, जो बल, आयु, स्वाद अथवा शरीर को पुष्ट करने की इच्छा नहीं करते, जो केवल प्राण धारण करने के लिए थोड़े से ग्रासों से ही संतुष्ट हो जाते हैं, और जो निज तथा पर को तारने वाले हैं ऐसे ऊपर लिखे हुए गुणों से सहित मुनिराज ही पात्र हो सकते हैं उनके लिए दिया हुआ आहार अपुनर्भव अर्थात् मोक्ष का कारण है ।।146-148।। दानरूपी पुण्य के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए सबसे बड़ा और पुष्ट उदाहरण यही है कि मैंने दान के माहात्म्य से ही पंचाश्चर्य प्राप्त किये हैं ।।149।। इसलिए हे राजर्षि भरत, हम सबको उत्तम दान देना चाहिए । अब भगवान् वृषभदेव के तीर्थ के समय सब जगह पात्र फैल जायेंगे । भावार्थ―भगवान के सदुपदेश से अनेक मनुष्य मुनिव्रत धारण करेंगे, उन सभी के लिए हमें आहार आदि दान देना चाहिए ।।150।। राजकुमार श्रेयान्स ने उन सब सदस्यों के लिए अपने स्वामी भगवान् वृषभदेव के पूर्वभव विस्तार के साथ कहे जिससे उन सबके उत्तम दान देने में रुचि उत्पन्न हुई थी ।।151।। इस प्रकार आनंद उत्पन्न करने वाले और पुण्य बढ़ाने वाले श्रेयान्स के वचन सुनकर भरत महाराज परमप्रीति को प्राप्त हुए ।।152।। अतिशय प्रसन्न हुए महाराज भरत ने राजा सोमप्रभ और श्रेयान्सकुमार का खूब सम्मान किया, उन पर बड़ा स्नेह प्रकट किया और फिर गुरुदेव―वृषभनाथ के गुणों का चिंतवन करते हुए अपने घर के लिए वापिस गये ।।153।।
अथानंतर आहार ग्रहण करने से जिनके बल और वीर्य की उत्पत्ति हुई है जो महा धीर-वीर और योगविद्या के जानने वाले हैं ऐसे भगवान वृषभदेव जिनेंद्रदेव के द्वारा कहे हुए उत्कृष्ट तपोयोग को धारण करने लगे ।।154।। इनके मनरूपी मंदिर में मोहरूपी सघन अंधकार को नष्ट करने वाला, समीचीन मार्ग दिखलाने वाला और अतिशय दैदीप्यमान ज्ञानरूपी दीपक प्रकाशमान हो रहा था ।।155।। जो पुरुष गुणों को गुण-बुद्धि से और दोषों को दोष-बुद्धि से देखता है अर्थात् गुणों को गुण और दोषों को दोष समझता है वही हेय (छोड़ने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) वस्तुओं का जानकार हो सकता है । अज्ञानी पुरुष की ऐसी अवस्था कहाँ हो सकती है ।।156।। वे भगवान् तत्त्वों का ठीक-ठीक परिज्ञान होने से गुण और दोषों के विभाग को अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे दोषों को पूर्ण रूप से छोड़कर केवल गुणों में ही आसक्त रहते थे ।।157।।
अतिशय बुद्धिमान् भगवान वृषभदेव ने पापरूपी योगों से पूर्ण विरक्ति धारण की थी तथा उसके भेद जो कि व्रत कहलाते हैं उनका भी वे पालन करते थे ।।158।। दयारूपी स्त्री का आलिंगन करना, सत्यव्रत में सदा अनुरक्त रहना, अचौर्यवत में तत्पर रहना, ब्रह्मचर्य को ही अपना सर्वस्व समझना, परिग्रह में आसक्त नहीं होना और असमय में भोजन का परित्याग करना; भगवान् इन व्रतों को धारण करते थे और उनकी सिद्धि के लिए निरंतर नीचे लिखी हुई भावनाओं का चिंतवन करते थे ।।159-160।। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईर्यासमिति, कायनियंत्रण अर्थात् देखभाल कर किसी वस्तु का रखना-उठाना और विष्वाणसमिति अर्थात आलोकितपानभोजन ये पाँच प्रथम-अहिंसा व्रत की भावनाएँ हैं ।।161।। क्रोध, लोभ, भय और हास्य का परित्याग करना तथा शास्त्र के अनुसार वचन कहना ये पांच द्वितीय सत्यव्रत की भावनाएं हैं ।।162।। परिमित―थोड़ा आहार लेना, तपश्चरण के योग्य आहार लेना, श्रावक के प्रार्थना करने पर आहार लेना, योग्यविधि के विरुद्ध आहार नहीं लेना तथा प्राप्त हुए भोजन-पान में संतोष रखना ये पाँच तृतीय अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं ।।163।। स्त्रियों की कथा का त्याग, उनके सुंदर अंगोपांगों के देखने का त्याग, उनके साथ रहने का त्याग, पहले भोगे हुए भोगों के स्मरण का त्याग और गरिष्ठ रस का त्याग इस प्रकार ये पाँच चतुर्थ ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएं हैं ।।164।। जिनके बाह्य आभ्यंतर इस प्रकार दो भेद हैं ऐसे पाँचों इंद्रियों के विषयभूत सचित्त अचित्त पदार्थों में आसक्ति का त्याग करना सो पाँचवें परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।।165।। धैर्य धारण करना, क्षमा रखना, ध्यान धारण करने में निरंतर तत्पर रहना और परीषहों के आने पर मार्ग से च्युत नहीं होना ये चार उक्त व्रतों की उत्तर भावनाएँ हैं ।।166।। समस्त जीवों की रक्षा करने वाले भगवान् वृषभदेव अपने पापों को नष्ट करने के लिए ऊपर लिखी हुई भावनाओं से सुसंस्कृत (शुद्ध) ऐसे व्रतों का पालन करते थे ।।167।। इसी प्रकार अन्य बुद्धिमान् मनुष्यों को भी आलस्य छोड़कर मातृकापद अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों से सहित अहिंसा आदि पाँचों महाव्रतों का पालन करना चाहिए ।।168।। इसी प्रकार जैन-शास्त्रों में जो निंदनीय माया मिथ्यात्व और निदान ऐसी तीन शल्य कही है उन सबको छोड़कर और निःशल्य होकर ही मुनियों को विहार करना चाहिए ।।169।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए व्रतों का पालन करना स्थविर कल्प है, इसे जिनकल्प में भी लगा लेना चाहिए । आगमानुसार स्थविर कल्प धारण कर जिनकल्प धारण करना चाहिए । भावार्थ―ऊपर कहे हुए व्रतों का पालन करते हुए मुनियों के साथ रहना, उपदेश देना, नवीन शिष्यों को दीक्षा देना आदि स्थविरकल्प कहलाता है और व्रतों का पालन करते हुए अकेले रहना, हमेशा आत्मचिंतवन में ही लगे रहना जिनकल्प कहलाता है । तीर्थंकर भगवान जिनकल्पी होते हैं और यही वास्तव में उपादेय है । साधारण मुनियों को यद्यपि प्रारंभ अवस्था में स्थविरकल्पी होना पड़ता है परंतु उन्हें भी अंत में जिनकल्पी होने के लिए उद्योग करते रहना चाहिए ।।170।। मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इस प्रकार चार ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाले तीर्थंकर परमदेव प्राय: प्रतिक्रमणरहित एक सामायिक नाम के चारित्र में ही रत रहते हैं । भावार्थ―तीर्थकर भगवान् के किसी प्रकार का दोष नहीं लगता इसलिए उन्हें प्रतिक्रमण-छेदोपस्थापना चारित्र धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे केवल सामायिक चारित्र ही धारण करते हैं ।।171।। परंतु उन्हीं तीर्थंकर देव ने बल, आयु और ज्ञान की हीनाधिकता देखकर अन्य साधारण मुनियों के लिए यथाकाल छेदोपस्थापना चारित्र के अनेक भेद दिखलाये हैं―उनका निरूपण किया है ।।172।। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य की विशेषता से संयम की रक्षा करने वाला चारित्र भी जिनेंद्रदेव ने पाँच प्रकार का कहा है । भावार्थ―चारित्र के पांच भेद हैं―1 ज्ञानाचार, 2 दर्शनाचार, 3 चारित्राचार, 4 तपआचार और 5 वीर्याचार ।।173।। तदनंतर ज्ञान, धैर्य और बल से सहित परम पुरुष―भगवान् वृषभदेव ने संयम की सिद्धि के लिए बारह प्रकार का तपश्चरण किया था ।।174।। अतिशय उग्र तपश्चरण को धारण करने वाले वे वृषभदेव मुनिराज अनशन नाम का अत्यंत कठिन तप तपते थे और एक सीथ (कण) आदि का नियम लेकर अवमौदर्य (ऊनोदर) नामक तपश्चरण करते थे ।।175।। वे भगवान् कभी अत्यंत कठिन वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप तपते थे जिसके कि वीथी, चर्या आदि अनेक भेद हैं ।।176।। इसके सिवाय वे आदिपुरुष आलस्यरहित हो दूध, घी, गुड़ आदि रसों का परित्याग कर नित्य ही रसपरित्याग नाम का घोर तपश्चरण करते थे ।।187।। वे योगिराज वर्षा, शीत और ग्रीष्म इस प्रकार तीनों कालों में शरीर को क्लेश देते थे अर्थात् कायक्लेश नाम का तप तपते थे । वास्तव में गणधर देव ने शरीर के निग्रह करने अर्थात् कायक्लेश करने को ही उत्कृष्ट और कठिन तप कहा है ।।178।। क्योंकि इसमें कुछ भी संदेह नहीं है कि शरीर का निग्रह होने से चक्षु आदि सभी इंद्रियों का निग्रह हो जाता है और इंद्रियों का निग्रह होने से मन का निरोध हो जाता है अर्थात् संकल्प-विकल्प दूर होकर चित्त स्थित हो जाता है। मन का निरोध हो जाना ही उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है तथा यह ध्यान ही समस्त कर्मों के क्षय हो जाने का साधन है और समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से अनंत सुख की प्राप्ति होती है इसलिए शरीर को कृश करना चाहिए ।।179-180।। यद्यपि वे भगवान् वृषभदेव मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानों को गर्भ से ही धारण करते थे और मन:पर्यय ज्ञान उन्हें दीक्षा के बाद ही प्राप्त हो गया था इसके सिवाय सिद्धत्व पर उन्हें केवलज्ञान अवश्य ही प्राप्त होने वाला था तथापि सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाले धीर-वीर भगवान् ने हजार वर्ष तक अतिशय उत्कृष्ट और उग्र तप तपा दैदीप्यमान था इससे मालूम होता है कि महामुनियों को कायक्लेश नाम का तप अतिशय अभीष्ट है―उसे वे अवश्य करते हैं । जिस प्रकार प्राणियों के शरीर में मस्तक प्रधान होता है उसी प्रकार कायक्लेश नाम का तप समस्त बाह्य तपश्चरणों में प्रधान होता है ।।181-183।। इसीलिए उस समय समस्त परीषहों को सहन करने वाले योगिराज भगवान् वृषभदेव मोक्ष का उत्तम साधन और अतिशय कठिन कायक्लेश नाम का तप तपते थे ।।184।। तपरूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए तैयार हुए वे धीर-वीर भगवान् प्रज्वलित हुई अग्नि के समान अत्यंत दैदीप्यमान हो रहे थे ।।185।। उस समय वे असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा के द्वारा कर्मरूपी गाढ़ अंधकार को नष्ट कर रहे थे और उनका शरीर तपश्चरण की कांति से अतिशय हो रहा था इसलिए वे ठीक सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ।।186।। सदा जागृत रहने वाले इन योगिराज की शय्या निर्जन एकांत स्थान में ही होती थी और जब कभी आसन भी पवित्र तथा निर्जीव स्थान में ही होता था । सदा जागृत रहने वाले और इंद्रियों को जीतने वाले वे भगवान् न तो कभी सोते थे और न एक स्थान पर बहुत बैठते ही थे किंतु भोगोपभोग का त्याग कर प्रयत्नपूर्वक अर्थात् ईर्यासमिति का पालन करते हुए समस्त पृथिवी में विहार करते रहते थे । भावार्थ―भगवान सदा जागृत रहते थे इसलिए उन्हें शय्या की नित्य आवश्यकता नहीं पड़ती थी परंतु जब कभी विश्राम के लिए लेटते भी थे तो किसी पवित्र और एकांत स्थान में ही शय्या लगाते थे । इसी प्रकार विहार के अतिरिक्त ध्यान आदि के समय एकांत और पवित्र स्थान में ही आसन लगाते थे । कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् विविक्तशय्यासन नाम का तपश्चरण करते थे ।।187-188।। इस प्रकार वे योगिराज अतिशय कठिन छह प्रकार के बाह्य तपश्चरण का पालन करते हुए आगे कहे जाने वाले छह प्रकार के अंतरंग तप का भी पालन करते थे ।।189।। निरतिचार प्रवृत्ति करने वाले मुनिराज वृषभदेव में प्रायश्चित्त नाम का तप चरितार्थ अर्थात् कृतकार्य हो चुका था सो ठीक ही है क्योंकि सूर्य के बीच में भी क्या कभी अंधकार रहता है ? अर्थात् कभी नहीं । भावार्थ―अतिचार लग जाने पर उसकी शुद्धता करना प्रायश्चित्त कहलाता है । भगवान् के कभी कोई अतिचार लगता ही नहीं था अर्थात् उनका चारित्र सदा निर्मल रहता था इसलिए यथार्थ में उनके निर्मल चारित्र में ही प्रायश्चित्त तप कृतकृत्य हो चुका था । जिस प्रकार कि सूर्य का काम अंधकार को नष्ट करना है जहाँ अंधकार होता है वहाँ सूर्य को अपना प्रकाश-पुंज फैलाने की आवश्यकता होती है परंतु सूर्य के बीच में अंधकार नहीं होता इसलिए सूर्य अपने विषय में चरितार्थ अथवा कृतकृत्य होता है ।।190।।
इसी प्रकार इनका विनय नाम का तप भी अंतर्निलीनता को प्राप्त हुआ था अर्थात् उन्हीं में अंतर्भूत हो गया था क्योंकि वे प्रधान पुरुष सबको नम्र करने वाले थे फिर भला वे किसकी विनय करते अथवा उन्होंने सिद्ध होने की इच्छा से विनयी होकर सिद्ध भगवान् की आराधना की थी क्योंकि सिद्धों के लिए नमस्कार हो ऐसा कहकर ही उन्होंने दीक्षा धारण की थी । अथवा यथार्थ प्रवृत्ति करने वाले भगवान की ज्ञान दर्शन चारित्र तप और वीर्य आदि गुणों में यथायोग्य विनय थी इसलिए उनके विनय नाम का तप सिद्ध हुआ था ।।191-193।। रत्नत्रय रूप मार्ग में व्यापार करना ही उनका वैयावृत्य तप कहलाता था क्योंकि वे परमेष्ठी भगवान् रत्नत्रय को छोड़कर और किसमें व्यावृत्ति (व्यापार) करते । भावार्थ―दीन-दुःखी जीवों की सेवा में व्यापृत रहने को वैयावृत्य कहते हैं परंतु यह शुभ कषाय का तीव्र उदय होते ही हो सकता है । भगवान् की शुभकषाय भी अतिशय मंद हो गयी थी इसलिए उनकी प्रवृत्ति बाह्य व्यापार से हटकर रत्नत्रय रूप मार्ग में ही रहती थी । अत: उसकी अपेक्षा उनके वैयावृत्य तप सिद्ध हुआ था ।।194।। यहाँ तात्पर्य यह है कि स्वामी वृषभदेव के इन प्रायश्चित्त, विनय और वैयावृत्य नामक तीन तपों के विषय में केवल नियंतापन ही था अर्थात् वे इनका दूसरों के लिए उपदेश देते थे, स्वयं किसी के नियम्य नहीं थे अर्थात् दूसरों से उपदेश ग्रहण कर इनका पालन नहीं करते थे । भावार्थ―भगवान् इन तीनों तपों के स्वामी थे न कि अन्य मुनियों के समान पालन करते हुए इनके अधीन रहते थे ।।195।। इस संसार में जो कुछ धर्म-सृष्टि थी सनातन भगवान् वृषभदेव ने वह सब उदाहरण स्वरूप स्वयं धारण कर इस युग के आदि में प्रसिद्ध की थी । भावार्थ―भगवान् धार्मिक कार्यों का स्वयं पालन करके ही दूसरों के लिए उपदेश देते थे ।।196।। यद्यपि भगवान स्वयं अनेक शास्त्रों (द्वादशांग) के जानने वाले थे तथापि वे बुद्धि की शुद्धि के लिए निरंतर स्वाध्याय करते थे क्योंकि इन्हीं का स्वाध्याय देखकर मुनि लोग आज भी स्वाध्याय करते हैं । भावार्थ―यद्यपि उनके लिए स्वाध्याय करना अत्यावश्यक नहीं था क्योंकि वे स्वाध्याय के बिना भी द्वादशांग के जानकार थे तथापि वे अन्य साधारण मुनियों के हित के लिए स्वाध्याय की प्रवृत्ति चलाना चाहते थे इसलिए स्वयं भी स्वाध्याय करते थे । उन्हें स्वाध्याय करते देखकर ही अन्य मुनियों में स्वाध्याय की परिपाटी चली थी जो कि आजकल भी प्रचलित है ।।197।। बाह्य और आभ्यंतर भेदसहित बारह प्रकार के तपश्चरण में स्वाध्याय के समान दूसरा तप न तो है और न आगे ही होगा ।।198।। क्योंकि विनयसहित स्वाध्याय में तल्लीन हुआ बुद्धिमान् मुनि मन के संकल्प-विकल्प दूर हो जाने से निश्चल हो जाता है, उसकी सब इंद्रियाँ वशीभूत हो जाती हैं और उसकी चित्त-वृत्ति किसी एक पदार्थ चिंतवन में ही स्थिर हो जाता है । भावार्थ―स्वाध्याय करने वाले मुनि को ध्यान की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है ।।199।। वन के प्रदेश, पर्वत, लतागृह और श्मशानभूमि आदि एकांत प्रदेशों में शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग करने वाले भगवान के व्युत्सर्ग नाम का पाँचवाँ तपश्चरण भी हुआ था ।।200।। वे भगवान् आत्मा को शरीर से भिन्न देखते थे और मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीनों गुप्तियों का पालन करते थे । इस प्रकार अपने शरीर में भी निःस्पृह रहने वाले भगवान् व्युत्सर्ग नामक तप का अच्छी तरह पालन करते थे ।।201।। तदनंतर स्वामी वृषभदेव के व्युत्सर्गतपश्चरणपूर्वक ध्यान नाम का तप भी हुआ था, सो ठीक ही है शरीर से ममत्व छोड़ देने वाला मुनि ही उत्तम ध्यानरूपी संपदा का स्वामी होता है ।।202।। योगिराज वृषभदेव ध्यानाभ्यासरूप तपश्चरण करते हुए ही कृतकृत्य हुए थे क्योंकि ध्यान ही उत्तम तप कहलाता है इसके सिवाय बाकी सब उसी के साधन मात्र कहलाते हैं । भावार्थ―सबसे उत्तम तप ध्यान ही है क्योंकि कर्मों की साक्षात् निर्जरा ध्यान से ही होती है । शेष ग्यारह प्रकार के तप ध्यान के सहायक कारण है ।।203।।
मन, इंद्रियों का समूह और काय इनके तपन तथा निग्रह करने से ही तप होता है ऐसा तप के जाननेवाले गणधरादि देव कहते हैं और वह तप अनशन आदि के भेद से बारह प्रकार का होता है ।।204।। विद्वानों में अतिशय श्रेष्ठ वे भगवान् कर्मों की बड़ी भारी निर्जरा, और उत्तम फल देने वाले संवर की इच्छा करते हुए इन बारह प्रकार के तपो में सदा प्रयत्नशील रहते थे ।।205।। वे भगवान् परीषहों को जीतते हुए गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, क्षमा आदि धर्म और सम्यक् चारित्र का चिरकाल तक पालन करते रहे थे । भावार्थ―गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र इन छहों कारणों से नवीन आते हुए कर्मों का आस्रव रुककर संवर होता है । जिनेंद्रदेव ने इन छहों ही कारणों को चिरकाल तक धारण किया था ।।206।। तदनंतर ध्यान धारण करने की इच्छा करने वाले भगवान ध्यान के योग्य उन-उन प्रदेशों में निवास करते थे जो कि एकांत थे, मनोहर थे और राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली सामग्री से रहित थे ।।207।। जहाँ न अधिक गरमी पड़ती हो और न अधिक शीत ही होता हो जहाँ साधारण गरमी-सर्दी रहती हो अथवा जहाँ समान रूप से सभी आ-जा सकते हों ऐसे गुफा, नदियों के किनारे, पर्वत के शिखर, जीर्ण उद्यान और वन आदि प्रदेश ध्यान के योग्य क्षेत्र कहलाते हैं । इसी प्रकार जिसमें न बहुत गरमी और न बहुत सर्दी पड़ती हो तथा जो प्राणियों को दुःखदायी भी न हो ऐसा काल ध्यान के योग्य काल कहलाता है । ज्ञान, वैराग्य, धैर्य और क्षमा आदि भाव ध्यान के योग्य भाव कहलाते हैं और जो पदार्थ क्षुधा आदि से उत्पन्न हुए संक्लेश को दूर करने में समर्थ हैं ऐसे पदार्थ ध्यान के योग्य द्रव्य कहलाते हैं । स्वामी वृषभदेव ध्यान की सिद्धि के लिए अनुकूल द्रव्य क्षेत्र काल और भाव का ही सेवन करते थे ।।208-210।। अध्यात्म तत्त्व को जानने वाले वे भगवान कभी तो पर्वत पर के लतागृहों में, कभी पर्वत की गुफाओं में और कभी पर्वत के शिखरों पर ध्यान लगाते थे ।।211।। वे भगवान् अध्यात्म की शुद्धि के लिए कभी तो ऐसे-ऐसे सुंदर पहाड़ों के शिखरों पर पड़े हुए शिलातलों पर आरूढ़ होते थे कि जिनके समीप भाग मयूरों के शब्दों से बड़े ही मनोहर हो रहे थे ।।212।। कभी-कभी समाधि (ध्यान) लगाने के लिए वे भगवान् जहाँ गायों के खुरों तक के चिह्न नहीं थे ऐसे अगम्य वनों में उपद्रव्यशून्य जीवरहित और एकांत विषम भूमि पर विराजमान होते थे ।।213।। कभी-कभी पानी के छींटे उड़ाते हुए समीप में बहने वाले निर्झरनों से जहाँ बहुत ठंड पड़ रही थी ऐसे पर्वत के ऊपरी भाग पर वे ध्यान में तल्लीनता को प्राप्त होते थे ।।214।। कभी-कभी रात के समय जहाँ अनेक राक्षस अपनी इच्छानुसार नृत्य किया करते थे ऐसी श्मशान भूमि में वे भगवान् ध्यान करते हुए विराजमान होते थे ।।215।। कभी शुक्ल अथवा पवित्र बालू से सुंदर नदी के किनारे पर, कभी सरोवर के किनारे, कभी मनोहर वन के प्रदेशों में और कभी मन की व्याकुलता न करने वाले अन्य कितने ही देशों में ध्यान का अभ्यास करते हुए उन क्षमाधारी भगवान् ने इस समस्त पृथिवी में विहार किया था ।।216-217।। मौनी, ध्यानी और मान से रहित वे अतिशय बुद्धिमान् भगवान् धीरे-धीरे अनेक देशों में विहार करते हुए किसी दिन पुरिमताल नाम के नगर के समीप जा पहुँचे ।।218।। उसी नगर के समीप एक शकट नाम का उद्यान था जो कि उस नगर से न तो अधिक समीप था और न अधिक दूर ही था । उसी पवित्र, आकुलतारहित, रमणीय, एकांत और जीवरहित वन में भगवान् ठहर गये ।।219।। शुद्ध बुद्धि वाले भगवान् ने वहाँ ध्यान की सिद्धि के लिए वटवृक्ष के नीचे एक पवित्र तथा लंबी-चौड़ी शिला पर विराजमान होकर चित्त की एकाग्रता धारण की ।।220।। वहाँ पूर्व दिशा की ओर मुख कर पद्मासन से बैठे हुए तथा लेश्याओं की उत्कृष्ट वृद्धि को धारण करते हुए भगवान् ने ध्यान में अपना चित्त लगाया ।।221।।
अतिशय विशुद्ध बुद्धि को धारण करने वाले भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले सर्वश्रेष्ठ मोक्ष-पद में अपना चित्त लगाया और सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुणों का चिंतवन किया ।।222।। अनंत सम्यक्त्व, अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत और अद्भुत वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व ये आठ सिद्धपरमेष्ठी के गुण कहे गये हैं, सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा करने वालों को इन गुणों का अवश्य ध्यान करना चाहिए । इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा उनके और भी चार साधारण गुणों का चिंतवन करना चाहिए । इस तरह जो ऊपर कहे हुए बारह गुणों से युक्त हैं, कर्मबंधन से रहित हैं, सूक्ष्म हैं, निरंजन हैं―रागादि भाव कर्मों से रहित हैं, व्यक्त हैं, नित्य हैं और शुद्ध हैं ऐसे सिद्ध भगवान् का मोक्षाभिलाषी मुनियों को अवश्य ही ध्यान करना चाहिए ।।223-225।। पश्चात् उत्तम धर्मध्यान की इच्छा करने वाले भगवान् ने अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन किया क्योंकि शुभ बारह अनुप्रेक्षाएँ ध्यान की परिवार अवस्था को ही प्राप्त हैं अर्थात् ध्यान का ही अंग कहलाती हैं ।।226।। उन बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम और स्वरूप का वर्णन पहले ही किया जा चुका है । तदनंतर बुद्धि की अतिशय विशुद्धि को धारण करने वाले भगवान् धर्मध्यान को प्राप्त हुए ।।227।। आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इस प्रकार धर्मध्यान के चार भेद हैं । जिनका स्वरूप अपने नाम से प्रकट हो रहा है ऐसे ऊपर कहे हुए चारों धर्मध्यान जिनेंद्रदेव ने धारण किये थे क्योंकि उनसे स्वर्ग लोक के श्रेष्ठ सुखों के कारणस्वरूप बड़े भारी पुण्य की प्राप्ति होती है ।।228-229।। जिनका पापरूपी पराग (धूलि) धुल गया है और राग-द्वेष आदि विभाव नष्ट हो गये हैं ऐसे योगिराज वृषभदेव के अंतःकरण में उस समय ज्ञान, दर्शन आदि शक्तियों के कारण किसी भी जगह प्रमाद नहीं रह सका था । भावार्थ―धर्मध्यान के समय जिनेंद्रदेव प्रमादरहित हो अप्रमत्त संयत नाम के सातवें गुणस्थान में विद्यमान थे ।।230।। ज्ञान आदि परिणामों में परम विशुद्धता को प्राप्त हुए जिनेंद्रदेव के क्लेश उत्पन्न करने वाली अशुभ लेश्याएँ अंशमात्र भी नहीं थी । भावार्थ―उस समय भगवान् के शुक्ल लेश्या ही थी ।।231।। उस समय दैदीप्यमान हुई भगवान की ध्यानरूपी शक्ति ऐसी दिखाई देती थी मानो मोहरूपी शत्रु के नाश को सूचित करने वाली बढ़ी हुई बड़ी भारी उल्का ही हो ।।232।। जिस प्रकार कोई राजा अपनी अंतःप्रकृति अर्थात् मंत्री आदि को शुद्ध कर―उनकी जाँच कर अपनी सेना के जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे तीन भेद करता है और उनको आगे कर मरणभय से रहित हो सब सामग्री के साथ शत्रु की सेना को जीतने के लिए उठ खड़ा होता है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव ने भी अपनी अंतःप्रकृति अर्थात् मन को शुद्ध कर―संकल्प-विकल्प दूर कर अपनी विशुद्धिरूपी सेना के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद किये और फिर उस तीनों प्रकार की विशुद्धिरूपी सेना को आगे कर यमराज-द्वारा की हुई विक्रिया (मृत्युभय) को दूर करते हुए सब सामग्री के साथ मोहरूपी शत्रु की सेना अर्थात् मोहनीय कर्म के 21 अवांतर भेदों को जीतने के लिए तत्पर हो गये ।।233-234।। मोहरूपी शत्रु को भेदन करने की इच्छा करने वाले भगवान् ने इंद्रियसंयम और प्राणिसंयम रूप दो प्रकार के संयम को क्रम से शिर की रक्षा करने वाला टोप और शरीर की रक्षा करने वाला कवच बनाया था तथा उत्तम ध्यान को जयशील अस्त्र बनाया था ।।235।। विशुद्धिरूपी सेना की आपत्ति से रक्षा करने के लिए उन्होंने ज्ञानरूपी मंत्रियों को नियुक्त किया था और विशुद्ध परिणाम को सेनापति के पद पर नियुक्त किया था ।।236।। जिनका कोई भेदन नहीं कर सकता और जो निरंतर युद्ध करने वाले थे ऐसे गुणों को उन्होंने सैनिक बनाया तथा राग आदि शत्रुओं को उनके हंतव्य पक्ष में रखा ।।237।। इस प्रकार समस्त सेना की व्यवस्था कर जगद्गुरु भगवान ने ज्यों ही कर्मों के जीतने का उद्योग किया त्यों ही भगवान की गुण-श्रेणी निर्जरा के बल से कर्मरूपी सेना खंड-खंड होकर नष्ट होने लगी ।।238।। ज्यों-ज्यों भगवान् की विशुद्धि आगे-आगे बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों कर्मरूपी सेना का भंग और रस अर्थान् फल देने की शक्ति का विनाश होता जाता था ।।239।। उस समय भगवान् के कर्मरूप शत्रुओं में परप्रकृतिरूप संक्रमण हो रहा था अर्थान् कर्मों की एक प्रकृति अन्य प्रकृति रूप बदल रही थी, उनकी स्थिति घट रही थी, रस अर्थात् फल देने की शक्ति क्षीण हो रही थी और गुण-श्रेणी निर्जरा हो रही थी ।।240।। जिस प्रकार कोई विजयाभिलाषी राजा शत्रुओं की मंत्री आदि अंतरंग प्रकृति में क्षोभ पैदा करता है और फिर शत्रुओं को जड़ से उखाड़ देता है उस प्रकार योगिराज भगवान् वृषभदेव ने भी अपने योगबल से पहले कर्मों की उत्तर प्रकृतियों में क्षोभ उत्पन्न किया था और फिर उन्हें जड़सहित उखाड़ फेंकने का उपक्रम किया था अथवा मूल प्रकृतियों में उद्वर्तन (उद्वेलन आदि संक्रमणविशेष) किया था ।।241।। तदनंतर उत्कृष्ट विशुद्धि की भावना करते हुए भगवान अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त होकर मोक्षरूपी महल की सीढ़ी के समान क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए ।।242।। प्रथम ही उन्होंने प्रमादरहित हो अप्रमत्तसंयत नाम के सातवें गुणस्थान में अधःकरण की भावना की और फिर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में प्राप्त हुए ।।243।। वहाँ उन्होंने पृथक्त्ववितर्क नाम का पहला शुक्लध्यान धारण किया और इसके प्रवाह से विशुद्धि प्राप्त कर निर्भय हो मोहरूपी राजा की समस्त सेना को पछाड़ दिया ।।244।। प्रथम ही उन्होंने मोहरूपी राजा के अंगरक्षक के समान अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण संबंधी आठ कषायों को चूर्ण किया फिर नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेद ऐसे तीन प्रकार के वेदों को तथा नौकषाय नाम के हास्यादि छह योद्धाओं को नष्ट किया था ।।245।। तदनंतर सबसे मुख्य और सबके आगे चलने वाले संज्वलन क्रोध को, उसके बाद मान को, माया को और बादर लोभ को भी नष्ट किया था । इस प्रकार इन कर्मशत्रुओं को नष्ट कर महाध्यानरूपी रंगभूमि में चारित्ररूपी ध्वज फहराते हुए ज्ञानरूपी तीक्ष्ण हथियार बाँधे हुए और दयारूपी कवच को धारण किये हुए महायोद्धा भगवान् ने अनिवृत्ति अर्थात् जिससे पीछे नहीं हटना पड़े ऐसी नवम गुणस्थान रूप अनिवृत्ति नाम की जयभूमि प्राप्त की सो ठीक ही है क्योंकि पीछे नहीं हटने वाले शूर-वीर योद्धाओं के आगे शत्रु की सेना आदि नहीं ठहर सकती ।।246-248।। अब अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणों का यथार्थ स्वरूप प्रकट करने के लिए आगम के यथार्थ भाव को जानने वाले गणधरादि देवों ने जो ये अर्थसहित पद कहे हैं वे अनुक्रम से जानने योग्य हैं अर्थात् उनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।।249।। नाना जीवों की अपेक्षा अध:प्रवृत्तिकरण के प्रथम क्षण में जो परिणाम होते हैं वे ही परिणाम दूसरे क्षण में होते हैं तथा इसी दूसरे क्षण में पूर्व परिणामों से भिन्न और भी परिणाम होते हैं । इसी प्रकार द्वितीय क्षणसंबंधी परिणामों का जो समूह है वही तृतीय क्षण में होता है तथा उससे भिन्न जाति के और भी परिणाम होते हैं, यही क्रम चतुर्थ आदि अंतिम समय तक होता है इसीलिए इस करण का अधःप्रवृत्तिकरण ऐसा सार्थक नाम कहा जाता है । परंतु अपूर्वकरण में यह बात नहीं है क्योंकि वहाँ प्रत्येक समय अपूर्व ही परिणाम होते रहते हैं इसलिए इस करण का भी अपूर्वकरण यह सार्थक नाम है । अनिवृत्तिकरण में जीवों की निवृत्ति अर्थात् विभिन्नता नहीं होती क्योंकि इसके प्रत्येक क्षण में रहने वाले सभी जीव परिणामों की अपेक्षा परस्पर में समान ही होते हैं इसलिए इस करण का भी अनिवृत्तिकरण यह सार्थक नाम है ।।250-253।। इन तीनों करणों में से प्रथम करण में स्थिति घात आदि का उपक्रम नहीं होता, किंतु इसमें रहने वाला जीव शुद्ध होता हुआ केवल स्थिति-बंध और अनुभाग-बंध को कम करता रहता है ।।254।। दूसरे अपूर्वकरण में भी यही व्यवस्था है किंतु विशेषता इतनी है कि इस करण में रहने वाला जीव गुण-श्रेणी के द्वारा स्थितिबंध और अनुभागबंध का संक्रमण तथा निर्जरा करता हुआ उन दोनो के अग्रभाग को नष्ट कर देता है ।।255।। इसी प्रकार तीसरे अनिवृत्तिकरण में प्रवृत्ति करने वाला अतिशय बुद्धिमान् जीव भी परिणामों की विशुद्धि में अंतर न डालकर कर्मरूपी सोलह और आठ शत्रुओं को उखाड़ फेंकता है ।।256।।
अथानंतर योगिराज भगवान् वृषभदेव ने नरक और तिर्यंचगति में नियम से उदय आने वाली नामकर्म की तेरह (1 नरकगति, 2 नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, 3 तिर्यग्गति, 4 तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, 5 एकेंद्रिय जाति, 6 द्वींद्रियजाति, 7 त्रींद्रियजाति, 8 चतुरिंद्रिय जाति, 9 आतप, 10 उद्योत, 11 स्थावर, 12 सूक्ष्म और 13 साधारण) और स्त्यानगृद्धि आदि तीन (1 स्त्यानगृद्धि, 2 निद्रानिद्रा और 3 प्रचलाप्रचला) इस प्रकार सोलह प्रकृतियों को एक ही प्रहार से नष्ट किया ।।257।। तदनंतर अध्यात्मतत्त्व के जानने वाले भगवान् ने आठ कषायों (अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणसंबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ) को नष्ट किया और फिर कुछ अंतर लेकर शेष बची हुई (नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरुष वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, संज्वलन क्रोध, मान और माया) प्रकृतियों को भी नष्ट किया ।।258।। अश्वकर्ण क्रिया और कृष्टिकरण आदि जो कुछ विधि होती है वह सब भगवान् ने इसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में की और फिर वे सूक्ष्मसांपराय नाम के दसवें गुणस्थान में जा पहुँचे ।।259।। वहीं उन्होंने अतिशय सूक्ष्म लोभ को भी जीत लिया और इस तरह समस्त मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त कर ली सो ठीक ही है क्योंकि बलवान् शत्रु भी दुर्बल हो जाने पर विजिगीषु पुरुष-द्वारा अनायास ही जीत लिया जाता है ।।260।। उस समय क्षपकश्रेणीरूपी रंगभूमि में मोहरूपी शत्रु के नष्ट हो जाने से अतिशय दैदीप्यमान होते हुए मुनिराज वृषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे किसी कुश्ती के मैदान से प्रतिमल्ल (विरोधी मल्ल) के भाग जाने पर विजयी मल्ल सुशोभित होता है ।।261।। तदनंतर अविनाशी गुणों का संग्रह करने वाले भगवान् क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान में प्राप्त हुए । वहाँ उन्होंने संपूर्ण मोहनीय कर्म की धूलि उड़ा दी अर्थात् उसे बिल्कुल ही नष्ट कर दिया और स्वयं स्नातक अवस्था को प्राप्त हो गये ।।262।। तदनंतर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म की जो कुछ उद्धत प्रकृतियाँ थीं उन सबको उन्होंने एकत्ववितर्क नाम के दूसरे शुक्लध्यान से नष्ट कर डाला और इस प्रकार वे मुनिराज ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा अतिशय दुःखदायी चारों घातिया कर्मों को जलाकर केवलज्ञानी हो लोकालोक के देखने वाले सर्वज्ञ हो गये ।।263-264।। इस प्रकार समस्त जगत् को प्रकाशित करते हुए और भव्य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करते हुए वे वृषभजिनेंद्ररूपी सूर्य किरणों के समान अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र, शुद्ध सम्यक्त्व, दान, लाभ, भोग और उपभोग इन अनंत नौ लब्धियों को प्राप्त हुए ।।265-266।। इस प्रकार जिन्होंने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्मरूपी ईंधन के समूह को जला दिया है, जिनके केवलज्ञानरूपी विभूति उत्पन्न हुई है और जिन्हें समवसरण का वैभव प्राप्त हुआ है ऐसे वे जिनेंद्र भगवान् बहुत ही सुशोभित हो रहे थे ।।267।। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ।।268।। मोहनीय कर्म को जीतने वाले भगवान् वृषभदेव ज्यों ही केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी से दैदीप्यमान हुए त्यों ही समस्त देवों के इंद्र भक्ति के भार से नम्रीभूत हो गये अर्थात् उन्होंने भगवान् को सिर झुकाकर नमस्कार किया, आकाश में सभी ओर जय-जय शब्द बढ़ने लगा और आकाश का विवर देवों के नगाड़ों के शब्दों से व्याप्त हो गया ।।269।। उसी समय भ्रमरों के शब्दों से आकाश को शब्दायमान करती हुई तथा दिशाओं के अंत को संकुचित करती हुई कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा बड़े ऊँचे से होने लगी और विरल-विरल रूप से उतरते हुए देवों के विमानों से आकाशरूपी समुद्र ऐसा हो गया मानो उसमें चारों ओर नौकाएँ ही तैर रही हों ।।270।। उसी समय मद से मनोहर शब्द करने वाले भ्रमरों से सहित, गंगा नदी की अत्यंत शीतल तरंगों का स्पर्श करता हुआ और हिलते हुए सुगंधित वन के मध्य भाग में स्थित कमलों की पराग से भरा हुआ वायु चारों ओर धीरे-धीरे बहता हुआ दिशाओं में व्याप्त हो रहा था ।।271।। जिस समय यह सब हो रहा था उसी समय आकाश से बादलों के बिना ही होनेवाली मंद-मंद वृष्टि लोकनाड़ी के आंगन को धूलिरहित कर रही थी । उस वृष्टि की बूँदें चारों ओर फैल रही थीं जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो जगत् के स्वामी वृषभ-जिनेंद्र के समवसरण की भूमि को शुद्ध करने के लिए ही फैल रही हों ।।272।। इस प्रकार उस समय भगवान् वृषभदेवरूपी उदयाचल से उत्पन्न हुआ केवलज्ञानरूपी सूर्य जगत् के जीवों के हित के लिए हुआ था । वह केवलज्ञानरूपी सूर्य तीनों लोकों में आनंद को विस्तृत कर रहा था, जिनेंद्र भगवान् के आधिपत्य को प्रसिद्ध कर रहा था और उनके तीर्थंकरोचित प्रभाव को बतला रहा था ।।273।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में भगवान के
कैवल्योत्पत्ति का वर्णन करने वाला बीसवां पर्व समाप्त हुआ ।।20।।