युक्त्यनुशासन - गाथा 28: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong> | <div class="PravachanText"><p><strong>उपेयतत्त्वाऽनभिलाप्यताव,</strong></p><p><strong> उपायतत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् ।</strong></p> | ||
<p><strong>अशेषतत्त्वाऽनभिलाप्यतायां, द्विषां | <p><strong>अशेषतत्त्वाऽनभिलाप्यतायां,</strong></p><p><strong> द्विषां भवद्युक्त्यभिलाप्यताया: ।।28।।</strong></p> | ||
<p> <strong>(106) अवाच्यैकांत में उपेयतत्त्व की अवाच्यता की तरह उपायतत्त्व की भी अवाच्यता होने से तीर्थप्रवृत्ति के लोप का प्रसंग</strong>―जो लोग ऐसी मान्यता रखते हैं कि संपूर्ण तत्त्व अवाच्य है याने वचनों द्वारा गोचर नहीं है, तो तत्त्व तो है उपेय और तत्त्व को बताया है अवाच्य, तो जब तत्त्व ही अवाच्य रहा तो उसको बताने का जो उपाय तत्त्व है वह भी अवाच्य बन गया । तो जैसे जो उपेय तत्त्व है मोक्ष, उसका कथन सर्वथा किया ही नहीं जा सकता तो उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय, इसका भी कथन सर्वथा नहीं किया जा सकता, क्योंकि तत्त्व तो दोनों ही हैं―एक उपेय तत्त्व है, दूसरा उपाय तत्त्व है । तो जो लोग तत्त्व को सर्वथा अवाच्य मानते हैं उन्हें तो मौन बैठना चाहिए । किसी तत्त्व की सिद्धि के प्रयास में वे क्यों आते हैं? निष्कर्ष यह है कि जो लोग स्याद्वाद से बहिर्भूत हैं उनके यहाँ न उपेय तत्त्व की सिद्धि बनती है और न उपाय तत्त्व की सिद्धि बनती है याने न उनके मोक्ष है, न उनके मोक्षमार्ग बन सकता है । किस उपाय से मोक्ष का प्रयास करें वह उपाय सर्वथा एकांतवाद में हो ही नहीं सकता, क्योंकि सर्वथा एकांतवाद में मोक्ष ही नहीं है । तो उसका उपाय करने की आवश्यकता ही क्या | <p> <strong>(106) अवाच्यैकांत में उपेयतत्त्व की अवाच्यता की तरह उपायतत्त्व की भी अवाच्यता होने से तीर्थप्रवृत्ति के लोप का प्रसंग</strong>―जो लोग ऐसी मान्यता रखते हैं कि संपूर्ण तत्त्व अवाच्य है याने वचनों द्वारा गोचर नहीं है, तो तत्त्व तो है उपेय और तत्त्व को बताया है अवाच्य, तो जब तत्त्व ही अवाच्य रहा तो उसको बताने का जो उपाय तत्त्व है वह भी अवाच्य बन गया । तो जैसे जो उपेय तत्त्व है मोक्ष, उसका कथन सर्वथा किया ही नहीं जा सकता तो उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय, इसका भी कथन सर्वथा नहीं किया जा सकता, क्योंकि तत्त्व तो दोनों ही हैं―एक उपेय तत्त्व है, दूसरा उपाय तत्त्व है । तो जो लोग तत्त्व को सर्वथा अवाच्य मानते हैं उन्हें तो मौन बैठना चाहिए । किसी तत्त्व की सिद्धि के प्रयास में वे क्यों आते हैं? निष्कर्ष यह है कि जो लोग स्याद्वाद से बहिर्भूत हैं उनके यहाँ न उपेय तत्त्व की सिद्धि बनती है और न उपाय तत्त्व की सिद्धि बनती है याने न उनके मोक्ष है, न उनके मोक्षमार्ग बन सकता है । किस उपाय से मोक्ष का प्रयास करें वह उपाय सर्वथा एकांतवाद में हो ही नहीं सकता, क्योंकि सर्वथा एकांतवाद में मोक्ष ही नहीं है । तो उसका उपाय करने की आवश्यकता ही क्या पड़ी? और फिर सर्वथा एकांतवाद में माना हुआ तत्त्व अवस्तु है तो अवस्तु की अवस्तुता छिपाने के लिए अवाच्य करार कर दिया है कि तत्त्व सभी अवाच्य हैं माने वचनों के गोचर नहीं हैं, तो ऐसे अवाच्यवादी दार्शनिकों के यहाँ न कोई उपेय तत्त्व रहा और न कोई उपाय तत्त्व रहा ।</p> | ||
<p><strong> (107) स्याद्वादशासन में बंध की, मोक्ष की व मोक्षोपाय की व्यवस्था</strong>―अब स्याद्वादशासन के अनुसार विचार करें तो वहाँ बंध की और मोक्ष की और मोक्ष के उपाय की सब व्यवस्था युक्तिसंगत बनती है । जितना जो कुछ भी वस्तु तत्त्व है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सत᳭रूप ही है और परपदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा असत᳭रूप ही है । तो बंध मोक्ष के प्रसंग में पुरुष और प्रकृति की बात निहारी जाती हैं याने आत्मा और कर्म, इन दोनों का विवरण देखा जाता है । आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, कर्म के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । इसी प्रकार कर्म भी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, वह आत्मा के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । इस कारण से कर्म जीव की परिणति नहीं करता, जीव कर्म की परिणति नहीं करता, किंतु जीव सत् है और कर्म भी सत् है, तो सत्त्व के नाते से अपने आपमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य का स्वभाव रख रहे हैं सो स्वयं द्रव्यत्व के नाते निरंतर परिणमन किया करते हैं । अब विकार परिणमन जहाँ भी होता है वहाँं यह आवश्यक है कि कोई उपाधि उसके साथ लगी हुई होती है । यद्यपि उपाधि दूसरे पदार्थ का परिणमन नहीं कराती, किंतु परिणमने वाले पदार्थ में कला ऐसी है कि वह उपाधि के सान्निध्य में अपनी परिणति से विकाररूप परिणम जाता है, और यही वैभाविकी शक्ति का अर्थ है । जीवद्रव्य और पुद᳭गलद्रव्य―इन दोनों द्रव्यों मे वैभाविकी शक्ति है सो उस शक्ति का यह कार्य है कि उपाधि सान्निध्य मिले तो पदार्थ को विकाररूप परिणमा दे और उपाधिसान्निध्य नहीं है अर्थात् द्रव्य जब अपनी शुद्ध अवस्था में है तो यहाँ विकारपरिणमन नहीं हुआ करते ।</p> | <p><strong> (107) स्याद्वादशासन में बंध की, मोक्ष की व मोक्षोपाय की व्यवस्था</strong>―अब स्याद्वादशासन के अनुसार विचार करें तो वहाँ बंध की और मोक्ष की और मोक्ष के उपाय की सब व्यवस्था युक्तिसंगत बनती है । जितना जो कुछ भी वस्तु तत्त्व है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सत᳭रूप ही है और परपदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा असत᳭रूप ही है । तो बंध मोक्ष के प्रसंग में पुरुष और प्रकृति की बात निहारी जाती हैं याने आत्मा और कर्म, इन दोनों का विवरण देखा जाता है । आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, कर्म के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । इसी प्रकार कर्म भी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, वह आत्मा के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । इस कारण से कर्म जीव की परिणति नहीं करता, जीव कर्म की परिणति नहीं करता, किंतु जीव सत् है और कर्म भी सत् है, तो सत्त्व के नाते से अपने आपमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य का स्वभाव रख रहे हैं सो स्वयं द्रव्यत्व के नाते निरंतर परिणमन किया करते हैं । अब विकार परिणमन जहाँ भी होता है वहाँं यह आवश्यक है कि कोई उपाधि उसके साथ लगी हुई होती है । यद्यपि उपाधि दूसरे पदार्थ का परिणमन नहीं कराती, किंतु परिणमने वाले पदार्थ में कला ऐसी है कि वह उपाधि के सान्निध्य में अपनी परिणति से विकाररूप परिणम जाता है, और यही वैभाविकी शक्ति का अर्थ है । जीवद्रव्य और पुद᳭गलद्रव्य―इन दोनों द्रव्यों मे वैभाविकी शक्ति है सो उस शक्ति का यह कार्य है कि उपाधि सान्निध्य मिले तो पदार्थ को विकाररूप परिणमा दे और उपाधिसान्निध्य नहीं है अर्थात् द्रव्य जब अपनी शुद्ध अवस्था में है तो यहाँ विकारपरिणमन नहीं हुआ करते ।</p> | ||
<p> <strong>(108) जीव का कर्मोदय के सन्निधान में विकाररूप परिणम कर विशुद्ध भावना के सान्निध्य में नष्ट हो जाना</strong>―तो जीव कर्मोदय के सन्निधान में विकाररूप परिणमता है और जीव की विशुद्ध भावना के सान्निध्य में कर्म में कर्मरस क्षीण हो जाता है, ऐसा दोनों ओर काम होता रहता है । तो जब आत्मा की विशुद्ध भावना का बल जगता है तो कर्म में कर्म की शक्ति क्षीण होती है और उस काल में जीव के विकारभावों के जगने का अवसर होता है, फिर तो जीव के विशुद्ध भाव | <p> <strong>(108) जीव का कर्मोदय के सन्निधान में विकाररूप परिणम कर विशुद्ध भावना के सान्निध्य में नष्ट हो जाना</strong>―तो जीव कर्मोदय के सन्निधान में विकाररूप परिणमता है और जीव की विशुद्ध भावना के सान्निध्य में कर्म में कर्मरस क्षीण हो जाता है, ऐसा दोनों ओर काम होता रहता है । तो जब आत्मा की विशुद्ध भावना का बल जगता है तो कर्म में कर्म की शक्ति क्षीण होती है और उस काल में जीव के विकारभावों के जगने का अवसर होता है, फिर तो जीव के विशुद्ध भाव बढ़ते चले जाते हैं और कर्म के अनुभाग क्षीण होते चले जाते हैं, अंत में कर्म पूर्णतया क्षीण हो जाते हैं और यह आत्मा मुक्त हो जाता है । तो जब जीव और कर्म कथंचित् नित्य और अनित्य हैं तो ऐसे बंध मोक्ष की व्यवस्था बनती है । जहाँ पुरुष अथवा प्रधान कोई भी तत्त्व सर्वथा नित्य माना जाये, उसमें परिणमन ही नहीं होता, ऐसा कूटस्थ अपरिणामी माना जाये तो वहाँ बंध और मोक्ष की व्यवस्था कैसे बन सकती? इस तरह पदार्थ न तो सर्वथा क्षणिक है और न सर्वथा नित्य है, किंतु पदार्थ है सो उसका तभी हैपना संभव है जब कि प्रतिसमय अपनी नवीन-नवीन अवस्थाओं को तो बनावे और वह स्वयं सदाकाल रहे, इसी को कहते हैं; वह प्रतिसमय बनता है, बिगड़ता है और बना रहता है । तो पदार्थ का स्वरूप नित्यानित्यात्मक है और बना रहता है । तो पदार्थ का स्वरूप नित्यानित्यात्मक है और ऐसा ही प्रतीत होने पर जीव को मोक्षमार्ग मिलता है । सर्वथा नित्य में कुछ परिणमन ही नहीं तो बंध से हटकर कोई पदार्थ मोक्षदशा को कैसे पाये और क्षणिकवाद में कोई एक चित्त दूसरे क्षण ही नहीं रहता, तो जिसको बंध हुआ है उसको मोक्ष हो यह व्यवस्था कैसे बन सकती है? इस प्रकार स्याद्वादशासन से सम्मत तत्त्व ही वास्तविक है और वह वीरशासन से प्रकट हुआ है, इस कारण हे वीर जिनेंद्र ! जो आपके शासन से बहिर्भूत है उनके किसी मंतव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है ।</p> | ||
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Latest revision as of 08:17, 30 November 2021
उपेयतत्त्वाऽनभिलाप्यताव,
उपायतत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् ।
अशेषतत्त्वाऽनभिलाप्यतायां,
द्विषां भवद्युक्त्यभिलाप्यताया: ।।28।।
(106) अवाच्यैकांत में उपेयतत्त्व की अवाच्यता की तरह उपायतत्त्व की भी अवाच्यता होने से तीर्थप्रवृत्ति के लोप का प्रसंग―जो लोग ऐसी मान्यता रखते हैं कि संपूर्ण तत्त्व अवाच्य है याने वचनों द्वारा गोचर नहीं है, तो तत्त्व तो है उपेय और तत्त्व को बताया है अवाच्य, तो जब तत्त्व ही अवाच्य रहा तो उसको बताने का जो उपाय तत्त्व है वह भी अवाच्य बन गया । तो जैसे जो उपेय तत्त्व है मोक्ष, उसका कथन सर्वथा किया ही नहीं जा सकता तो उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय, इसका भी कथन सर्वथा नहीं किया जा सकता, क्योंकि तत्त्व तो दोनों ही हैं―एक उपेय तत्त्व है, दूसरा उपाय तत्त्व है । तो जो लोग तत्त्व को सर्वथा अवाच्य मानते हैं उन्हें तो मौन बैठना चाहिए । किसी तत्त्व की सिद्धि के प्रयास में वे क्यों आते हैं? निष्कर्ष यह है कि जो लोग स्याद्वाद से बहिर्भूत हैं उनके यहाँ न उपेय तत्त्व की सिद्धि बनती है और न उपाय तत्त्व की सिद्धि बनती है याने न उनके मोक्ष है, न उनके मोक्षमार्ग बन सकता है । किस उपाय से मोक्ष का प्रयास करें वह उपाय सर्वथा एकांतवाद में हो ही नहीं सकता, क्योंकि सर्वथा एकांतवाद में मोक्ष ही नहीं है । तो उसका उपाय करने की आवश्यकता ही क्या पड़ी? और फिर सर्वथा एकांतवाद में माना हुआ तत्त्व अवस्तु है तो अवस्तु की अवस्तुता छिपाने के लिए अवाच्य करार कर दिया है कि तत्त्व सभी अवाच्य हैं माने वचनों के गोचर नहीं हैं, तो ऐसे अवाच्यवादी दार्शनिकों के यहाँ न कोई उपेय तत्त्व रहा और न कोई उपाय तत्त्व रहा ।
(107) स्याद्वादशासन में बंध की, मोक्ष की व मोक्षोपाय की व्यवस्था―अब स्याद्वादशासन के अनुसार विचार करें तो वहाँ बंध की और मोक्ष की और मोक्ष के उपाय की सब व्यवस्था युक्तिसंगत बनती है । जितना जो कुछ भी वस्तु तत्त्व है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सत᳭रूप ही है और परपदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा असत᳭रूप ही है । तो बंध मोक्ष के प्रसंग में पुरुष और प्रकृति की बात निहारी जाती हैं याने आत्मा और कर्म, इन दोनों का विवरण देखा जाता है । आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, कर्म के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । इसी प्रकार कर्म भी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, वह आत्मा के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । इस कारण से कर्म जीव की परिणति नहीं करता, जीव कर्म की परिणति नहीं करता, किंतु जीव सत् है और कर्म भी सत् है, तो सत्त्व के नाते से अपने आपमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य का स्वभाव रख रहे हैं सो स्वयं द्रव्यत्व के नाते निरंतर परिणमन किया करते हैं । अब विकार परिणमन जहाँ भी होता है वहाँं यह आवश्यक है कि कोई उपाधि उसके साथ लगी हुई होती है । यद्यपि उपाधि दूसरे पदार्थ का परिणमन नहीं कराती, किंतु परिणमने वाले पदार्थ में कला ऐसी है कि वह उपाधि के सान्निध्य में अपनी परिणति से विकाररूप परिणम जाता है, और यही वैभाविकी शक्ति का अर्थ है । जीवद्रव्य और पुद᳭गलद्रव्य―इन दोनों द्रव्यों मे वैभाविकी शक्ति है सो उस शक्ति का यह कार्य है कि उपाधि सान्निध्य मिले तो पदार्थ को विकाररूप परिणमा दे और उपाधिसान्निध्य नहीं है अर्थात् द्रव्य जब अपनी शुद्ध अवस्था में है तो यहाँ विकारपरिणमन नहीं हुआ करते ।
(108) जीव का कर्मोदय के सन्निधान में विकाररूप परिणम कर विशुद्ध भावना के सान्निध्य में नष्ट हो जाना―तो जीव कर्मोदय के सन्निधान में विकाररूप परिणमता है और जीव की विशुद्ध भावना के सान्निध्य में कर्म में कर्मरस क्षीण हो जाता है, ऐसा दोनों ओर काम होता रहता है । तो जब आत्मा की विशुद्ध भावना का बल जगता है तो कर्म में कर्म की शक्ति क्षीण होती है और उस काल में जीव के विकारभावों के जगने का अवसर होता है, फिर तो जीव के विशुद्ध भाव बढ़ते चले जाते हैं और कर्म के अनुभाग क्षीण होते चले जाते हैं, अंत में कर्म पूर्णतया क्षीण हो जाते हैं और यह आत्मा मुक्त हो जाता है । तो जब जीव और कर्म कथंचित् नित्य और अनित्य हैं तो ऐसे बंध मोक्ष की व्यवस्था बनती है । जहाँ पुरुष अथवा प्रधान कोई भी तत्त्व सर्वथा नित्य माना जाये, उसमें परिणमन ही नहीं होता, ऐसा कूटस्थ अपरिणामी माना जाये तो वहाँ बंध और मोक्ष की व्यवस्था कैसे बन सकती? इस तरह पदार्थ न तो सर्वथा क्षणिक है और न सर्वथा नित्य है, किंतु पदार्थ है सो उसका तभी हैपना संभव है जब कि प्रतिसमय अपनी नवीन-नवीन अवस्थाओं को तो बनावे और वह स्वयं सदाकाल रहे, इसी को कहते हैं; वह प्रतिसमय बनता है, बिगड़ता है और बना रहता है । तो पदार्थ का स्वरूप नित्यानित्यात्मक है और बना रहता है । तो पदार्थ का स्वरूप नित्यानित्यात्मक है और ऐसा ही प्रतीत होने पर जीव को मोक्षमार्ग मिलता है । सर्वथा नित्य में कुछ परिणमन ही नहीं तो बंध से हटकर कोई पदार्थ मोक्षदशा को कैसे पाये और क्षणिकवाद में कोई एक चित्त दूसरे क्षण ही नहीं रहता, तो जिसको बंध हुआ है उसको मोक्ष हो यह व्यवस्था कैसे बन सकती है? इस प्रकार स्याद्वादशासन से सम्मत तत्त्व ही वास्तविक है और वह वीरशासन से प्रकट हुआ है, इस कारण हे वीर जिनेंद्र ! जो आपके शासन से बहिर्भूत है उनके किसी मंतव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है ।