वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 27
From जैनकोष
अतत्स्वभावेऽप्यनयोरुपायाद᳭
गतिर्भवेत्तौ वचनीय-गम्यौ ।
संबंधिनौ चेन्न विरोधि दृष्टं
वाच्यं यथार्थं न च दूषणं तत् ।।27।।
(102) शून्यवाद व सत्स्वभावैकांत में बंध और मोक्ष का परिचय कराने का प्रस्तावित प्रयास―यही शून्यवादी जैसा कि कहते हैं कि तत्त्व तो शून्याद्वैतवाद ही है, फिर भी बंध और मोक्ष की व्यवस्था उपाय से बनती है, कल्पनाबुद्धि से बंध और मोक्ष दोनों ही जाने जाते हैं, क्योंकि दोनों के वचन हैं और दोनों का विकल्प है । वैसे ही शून्य स्वभाव के अभावरूप सत् स्वभाव तत्त्व को मानने वाले भी यही कहते हैं कि बंध और मोक्ष दोनों के उपाय से जानकारी होती है । जब पदार्थरूप वचन, बंध और मोक्ष की जानकारी का उपाय बनता है तब बंध और मोक्ष दोनों वचनीय हो जाते हैं याने वचन द्वारा बंध और मोक्ष दोनों की जानकारी होती है । और जिस समय स्वार्थरूप बंध और मोक्ष की जानकारी का उपाय बनता है माने प्रत्यक्ष से जानकारी या अनुमान से जानकारी का उपाय बनता है तो बंध और मोक्ष ये दोनों गम्य होते हैं याने ज्ञान में आते हैं और इसी प्रकार बंध और मोक्ष दोनों संबंधी हैं याने परस्पर इनमें इनका अविनाभाव है । बंध के बिना मोक्ष की जानकारी नहीं और मोक्ष के बिना बंध की जानकारी नहीं । बंध के बिना मोक्ष की जानकारी नहीं, यह तो इस प्रकार है कि चूंकि मोक्ष बंधपूर्वक होता है । तो जहाँ बंध ही नहीं वहाँ मोक्ष की व्यवस्था क्या होगी? जो बँधा हो वही छुटकारा पाता है ऐसा न्याय है तथा जब यह कहा जाये कि मोक्ष के बिना बंध की जानकारी नहीं है तो उसका यह अर्थ समझना कि जहाँ मोक्ष का अभाव है और बंध को माना जा रहा है तो जो पहले से अबद्ध है और उसका पीछे से बंध मानना पड़ेगा अथवा इस तरह से बंध सदा रहने वाला बन जायेगा । दूसरी बात यहाँ यह देखिये कि जैसे प्रतिसमय किसी विशिष्ट नवीन कर्म का बंध हो रहा है तो यह तो सिद्ध ही है कि उस नवीन का बंध पहले नहीं है तब ही तो बंध हो रहा है । तो जिसका वह बंध नहीं है उसको यह ही तो कहा जायेगा कि अबंधपूर्वक बंध है याने बंधा न था अब बंध गया है । तो जो पहले न बंधा था इस स्थिति को एक देश मोक्षरूप समझना चाहिए और इस तरह से यह सिद्ध हो गया कि बंध मोक्ष के साथ अविनाभावी है ।
(103) शून्यवाद व सत्स्वभावैकांत की असंगतता तथा दोनों एकांतवाद में बंध व मोक्ष के परिचय की असंगतता―उक्त शंकाकार की शंका और प्रस्ताव यों सही नहीं है कि जिस प्रकार शंकाकार ने अपना मंतव्य रखा उस तरह तो सत्स्वभाव रूप तत्त्व दिखाई नहीं देता । सर्वथा क्षणिक की मान्यता और सर्वथा नित्य की मान्यता दोनों परस्पर विरोध को लिए हुए हैं याने जैसे सर्वथा क्षणिक में नित्यपने की गुंजाइश नहीं, ऐसे ही सर्वथा नित्य में क्षणिकपने की गुंजाइश नहीं । तो दोनों ही जगह बंध मोक्ष की व्यवस्था नहीं बनती । सर्वथा क्षणिक होने पर एक ही चित्तक्षण के बंध और मोक्ष दोनों सिद्ध नहीं किए जा सकते, ऐसे ही जो नित्य अपरिणामी है, सिर्फ सत् स्वभाव को ही रख रहा है वहाँ भी बंध और मोक्ष की व्यवस्था नही बनती । निष्कर्ष यह है कि द्रव्यदृष्टि से नित्य माने बिना और पर्यायदृष्टि से अनित्य माने बिना सत्त्व की सिद्धि ही नहीं हो सकती ꠰ और कोई परस्पर निरपेक्ष किसी वस्तु को क्षणिक मान ले, किसी वस्तु को अपरिणामी मान ले तो वहाँ भले ही बात तो अलग-अलग दोनों मानी गई लेकिन सदोष हैं ꠰ जो सद᳭भूत तत्त्व है वह सर्वथा एकांतात्मक है ही नहीं, क्योंकि सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य वस्तु की किसी भी प्रमाण से उपलब्धि नहीं होती ꠰
(104) स्वपक्ष की सिद्धि न कर सकने पर ही परपक्ष के दूषण बताकर स्वपक्ष को सिद्ध करने की धांधलेबाजी―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि नित्य अपरिणामी सत्त्व की प्रत्यक्षादिक प्रमाणों से भले ही सिद्धि न हो, लेकिन उसकी सिद्धि इस प्रकार हो सकती है कि जो सर्वथा नित्य नहीं मानते हैं उस पक्ष में दूषण बहुत आते हैं ꠰ तो परपक्ष में दूषण आते हैं, इस कारण से स्वपक्ष सिद्ध हो जायेगा । इस शंका का समाधान यह है कि भले ही वचन से कुछ भी सफाई दी जाये, मगर कोई भी यह बतलावे कि परपक्ष के दूषण से ही वस्तु की सिद्धि है या वस्तु में ही कोई गुण और सत्त्व है इससे सिद्धि है? जो यथार्थ, में वाच्य होता है याने वस्तुभूत पदार्थ है वह पर के दूषणरूप से सिद्ध नहीं होता, किंतु स्व के गुणरूप से ही सिद्ध होता है और फिर जिसको एक पक्ष वाला दूसरे पक्ष के दूषण से अपनी सिद्धि करता है तो उसके मायने यह हैं कि उसके पक्ष में पदार्थ में स्वयं कोई जान नहीं है, इसलिए वह दूषणाभास है ꠰ वास्तव में परपक्ष का दूषण तक भी नहीं है ꠰ जो दूषण परपक्ष का निषेध करने की तरह स्वपक्ष का भी निषेध कर बैठे तो उनका मंतव्य अथवा माना गया तत्त्व कभी सिद्ध नहीं हो सकता ꠰
(105) अनेकांतात्मक पदार्थ की स्याद्वादशासन से सिद्धि किये बिना अक्रिया की सिद्धि की असंभवता―सर्वथा क्षणिक है अथवा पदार्थ सर्वथा अपरिणामी हैं, ये दोनों ही मंतव्य परस्पर विरुद्ध है और दोनों में ही अनेकांत न हो याने द्रव्यदृष्टि से पदार्थ नित्य है, पर्यायदृष्टि से पदार्थ अनित्य है, इस प्रकार दोनों ही तत्त्व स्वीकार न किए जायें तो वहाँ क्रम और अक्रम कुछ नहीं रहते ꠰ अक्रम तो गुण कहलाता और क्रम पर्याय कहलाता है ꠰ किसी भी पदार्थ में यदि शक्ति नहीं है और आस्था नहीं है तो उसमें कोई परिणमन हो ही नहीं सकता ꠰ और जब किसी वस्तु का कोई प्रयोग ही संभव नहीं, उसकी अर्थक्रिया ही संभव न हों तो वह तत्त्व ही क्या रहा ? वस्तु ही कुछ न रही ꠰ जो भी पदार्थ है उसका अर्थक्रिया से संबंध है, मगर अर्थक्रिया हो रही है, प्रवृत्ति होती हे उसका प्रयोग बनता है तब तो वह वस्तु है और जहाँ अर्थक्रिया नहीं है वह वस्तु नहीं है । तो जैसे क्षणिकवाद में कोई व्यवस्था नहीं रहती है इसी प्रकार एकांततः नित्यवाद में भी कोई व्यवस्था नहीं रह सकती है ।