युक्त्यनुशासन - गाथा 30: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन ।</strong></p> | <div class="PravachanText"><p><strong>सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं </strong></p><p><strong>वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन ।</strong></p> | ||
<p><strong> युक्तं प्रतिद्वन्द्वय्नुबंधि-मिश्रं न वस्तु तादृक् त्वदृते जिनेदृक् ।।30।।</strong></p> | <p><strong> युक्तं प्रतिद्वन्द्वय्नुबंधि-मिश्रं </strong></p><p><strong>न वस्तु तादृक् त्वदृते जिनेदृक् ।।30।।</strong></p> | ||
<p> <strong>(111) सत्यानृत, अनृतानृत जैसे वचनों को एकांतवाद में असिद्धि</strong>―कोई दार्शनिक ऐसा कहते हैं कि कोई वचन सत्यानृत ही है अर्थात् सत्य होकर भी असत्य है । सत्य मायने सच और अनृत मायने झूठ । तो उनका कहना है कि कोई वचन सत्यानृत ही है, जो कि अपने प्रतिद्वंदी से मिश्र है । यहाँ सत्य का प्रतिद्वंदी अनृत है । तो ये परस्पर मिले हुए हैं । जैसे किसी ने कहा कि शाखा पर चंद्रमा को देखो, तो उसका कथन कुछ सत्य है, कुछ असत्य हे । चंद्रमा को देखो इतना कहना तो सत्य है । चंद्रमा है और उसको देखने की बात कही जा रही है, किंतु शाखा पर देखो, यह बात असत्य है, क्योंकि चंद्रमा क्या शाखा पर रखा है? भले ही इसमें यह प्रयोजन है कि जो शाखा के निकट नजर आता है, इसलिए शाखा पर कह दिया जाता, पर वस्तुत: शाखा पर चंद्रमा नहीं है, इस कारण यह असत्य हो गया । और चंद्रमा को देखने की बात कहना यह बात सत्य है । तो यों कोई वचन सत्यानृत है, उसी वचन में कुछ हिस्सा सत्य है, कुछ हिस्सा असत्य है, इस तरह वह प्रतिद्वंदी से मिला हुआ है । इसी प्रकार कोई वचन होता है अनृतानृत । अनृत मायने झूठ और दूसरे अनृत का भी अर्थ है झूठ, किंतु यह अनुबंधी से मिश्र है । जैसे किसी ने कहा कि पर्वत पर चंद्रयुगल देखो, तो इन वचनों में दोनों ही बात झूठ हैं । चंद्रयुगल है नहीं । चंद्रमा तो एक है, दो हैं नहीं तो चंद्रयुगल देखो, यह कथन असत्य है और पर्वत पर देखो―यह कथन भी असत्य है । तो ये दोनों ही असत्य होकर दोनो से मिले हुए हैं याने असत्य-असत्य दोनों बातें एकवचन में मिली हुई हैं । तो जैसे उदाहरण में ये दो प्रकार के वचन कहे हैं वे स्याद्वाद की शरण लिये बिना क्या युक्त हो सकते हैं?</p> | <p> <strong>(111) सत्यानृत, अनृतानृत जैसे वचनों को एकांतवाद में असिद्धि</strong>―कोई दार्शनिक ऐसा कहते हैं कि कोई वचन सत्यानृत ही है अर्थात् सत्य होकर भी असत्य है । सत्य मायने सच और अनृत मायने झूठ । तो उनका कहना है कि कोई वचन सत्यानृत ही है, जो कि अपने प्रतिद्वंदी से मिश्र है । यहाँ सत्य का प्रतिद्वंदी अनृत है । तो ये परस्पर मिले हुए हैं । जैसे किसी ने कहा कि शाखा पर चंद्रमा को देखो, तो उसका कथन कुछ सत्य है, कुछ असत्य हे । चंद्रमा को देखो इतना कहना तो सत्य है । चंद्रमा है और उसको देखने की बात कही जा रही है, किंतु शाखा पर देखो, यह बात असत्य है, क्योंकि चंद्रमा क्या शाखा पर रखा है? भले ही इसमें यह प्रयोजन है कि जो शाखा के निकट नजर आता है, इसलिए शाखा पर कह दिया जाता, पर वस्तुत: शाखा पर चंद्रमा नहीं है, इस कारण यह असत्य हो गया । और चंद्रमा को देखने की बात कहना यह बात सत्य है । तो यों कोई वचन सत्यानृत है, उसी वचन में कुछ हिस्सा सत्य है, कुछ हिस्सा असत्य है, इस तरह वह प्रतिद्वंदी से मिला हुआ है । इसी प्रकार कोई वचन होता है अनृतानृत । अनृत मायने झूठ और दूसरे अनृत का भी अर्थ है झूठ, किंतु यह अनुबंधी से मिश्र है । जैसे किसी ने कहा कि पर्वत पर चंद्रयुगल देखो, तो इन वचनों में दोनों ही बात झूठ हैं । चंद्रयुगल है नहीं । चंद्रमा तो एक है, दो हैं नहीं तो चंद्रयुगल देखो, यह कथन असत्य है और पर्वत पर देखो―यह कथन भी असत्य है । तो ये दोनों ही असत्य होकर दोनो से मिले हुए हैं याने असत्य-असत्य दोनों बातें एकवचन में मिली हुई हैं । तो जैसे उदाहरण में ये दो प्रकार के वचन कहे हैं वे स्याद्वाद की शरण लिये बिना क्या युक्त हो सकते हैं?</p> | ||
<p> <strong>(112) स्याद्वाद का शरण लिये बिना वचनव्यवहार की असंगतता</strong>―स्याद्वादशासन को छोड़ देने के कारण सर्वथा एकांत में जितनी बातें कही जाती हैं भले ही उनमें कोई अंश सत्य है, पर एकांत होने से वह दूसरे झूठ के साथ मिश्र है । और कहीं तो पूरा वचन ही असत्य शब्दों से, वाच्यों से भरा हुआ है । उनमें भले ही कुछ कम असत्य, कुछ एकदम असत्य ऐसा भेद भले ही पड़ा आये, मगर स्याद्वाद के बिना प्रवर्तमान जो वचन हैं वे मुक्त नहीं हो पाते । कोई कहे कि जब सत्यानृत कहा तो वह तो अनेकांत का धर्म हो गया, क्योंकि सत्य भी कहा, अनृत भी कहा तो यों अनेकांत शासन नहीं बनता । भले ही अनेक बातें नजर आ रही हैं, पर उनमें वास्तविक एकांतता नहीं है जहाँ स्याद्वाद नहीं है, दृष्टि और अपेक्षा की बुद्धि नहीं है । वहाँ तो वह सर्वथा एकांत है और सर्वथा एकांत अवस्तु होता हे, क्योंकि जो भी सत् है, जो भी वस्तु है वह अनंत धर्मात्मक ही होती है ।</p> | <p> <strong>(112) स्याद्वाद का शरण लिये बिना वचनव्यवहार की असंगतता</strong>―स्याद्वादशासन को छोड़ देने के कारण सर्वथा एकांत में जितनी बातें कही जाती हैं भले ही उनमें कोई अंश सत्य है, पर एकांत होने से वह दूसरे झूठ के साथ मिश्र है । और कहीं तो पूरा वचन ही असत्य शब्दों से, वाच्यों से भरा हुआ है । उनमें भले ही कुछ कम असत्य, कुछ एकदम असत्य ऐसा भेद भले ही पड़ा आये, मगर स्याद्वाद के बिना प्रवर्तमान जो वचन हैं वे मुक्त नहीं हो पाते । कोई कहे कि जब सत्यानृत कहा तो वह तो अनेकांत का धर्म हो गया, क्योंकि सत्य भी कहा, अनृत भी कहा तो यों अनेकांत शासन नहीं बनता । भले ही अनेक बातें नजर आ रही हैं, पर उनमें वास्तविक एकांतता नहीं है जहाँ स्याद्वाद नहीं है, दृष्टि और अपेक्षा की बुद्धि नहीं है । वहाँ तो वह सर्वथा एकांत है और सर्वथा एकांत अवस्तु होता हे, क्योंकि जो भी सत् है, जो भी वस्तु है वह अनंत धर्मात्मक ही होती है ।</p> |
Latest revision as of 18:23, 2 December 2021
सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं
वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन ।
युक्तं प्रतिद्वन्द्वय्नुबंधि-मिश्रं
न वस्तु तादृक् त्वदृते जिनेदृक् ।।30।।
(111) सत्यानृत, अनृतानृत जैसे वचनों को एकांतवाद में असिद्धि―कोई दार्शनिक ऐसा कहते हैं कि कोई वचन सत्यानृत ही है अर्थात् सत्य होकर भी असत्य है । सत्य मायने सच और अनृत मायने झूठ । तो उनका कहना है कि कोई वचन सत्यानृत ही है, जो कि अपने प्रतिद्वंदी से मिश्र है । यहाँ सत्य का प्रतिद्वंदी अनृत है । तो ये परस्पर मिले हुए हैं । जैसे किसी ने कहा कि शाखा पर चंद्रमा को देखो, तो उसका कथन कुछ सत्य है, कुछ असत्य हे । चंद्रमा को देखो इतना कहना तो सत्य है । चंद्रमा है और उसको देखने की बात कही जा रही है, किंतु शाखा पर देखो, यह बात असत्य है, क्योंकि चंद्रमा क्या शाखा पर रखा है? भले ही इसमें यह प्रयोजन है कि जो शाखा के निकट नजर आता है, इसलिए शाखा पर कह दिया जाता, पर वस्तुत: शाखा पर चंद्रमा नहीं है, इस कारण यह असत्य हो गया । और चंद्रमा को देखने की बात कहना यह बात सत्य है । तो यों कोई वचन सत्यानृत है, उसी वचन में कुछ हिस्सा सत्य है, कुछ हिस्सा असत्य है, इस तरह वह प्रतिद्वंदी से मिला हुआ है । इसी प्रकार कोई वचन होता है अनृतानृत । अनृत मायने झूठ और दूसरे अनृत का भी अर्थ है झूठ, किंतु यह अनुबंधी से मिश्र है । जैसे किसी ने कहा कि पर्वत पर चंद्रयुगल देखो, तो इन वचनों में दोनों ही बात झूठ हैं । चंद्रयुगल है नहीं । चंद्रमा तो एक है, दो हैं नहीं तो चंद्रयुगल देखो, यह कथन असत्य है और पर्वत पर देखो―यह कथन भी असत्य है । तो ये दोनों ही असत्य होकर दोनो से मिले हुए हैं याने असत्य-असत्य दोनों बातें एकवचन में मिली हुई हैं । तो जैसे उदाहरण में ये दो प्रकार के वचन कहे हैं वे स्याद्वाद की शरण लिये बिना क्या युक्त हो सकते हैं?
(112) स्याद्वाद का शरण लिये बिना वचनव्यवहार की असंगतता―स्याद्वादशासन को छोड़ देने के कारण सर्वथा एकांत में जितनी बातें कही जाती हैं भले ही उनमें कोई अंश सत्य है, पर एकांत होने से वह दूसरे झूठ के साथ मिश्र है । और कहीं तो पूरा वचन ही असत्य शब्दों से, वाच्यों से भरा हुआ है । उनमें भले ही कुछ कम असत्य, कुछ एकदम असत्य ऐसा भेद भले ही पड़ा आये, मगर स्याद्वाद के बिना प्रवर्तमान जो वचन हैं वे मुक्त नहीं हो पाते । कोई कहे कि जब सत्यानृत कहा तो वह तो अनेकांत का धर्म हो गया, क्योंकि सत्य भी कहा, अनृत भी कहा तो यों अनेकांत शासन नहीं बनता । भले ही अनेक बातें नजर आ रही हैं, पर उनमें वास्तविक एकांतता नहीं है जहाँ स्याद्वाद नहीं है, दृष्टि और अपेक्षा की बुद्धि नहीं है । वहाँ तो वह सर्वथा एकांत है और सर्वथा एकांत अवस्तु होता हे, क्योंकि जो भी सत् है, जो भी वस्तु है वह अनंत धर्मात्मक ही होती है ।