वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 31
From जैनकोष
सहक्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरि-भेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् ।
आत्मांतरं स्याद्भिदुरं समं च स्याच्याऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ।।31।।
(113) भेदि अभेदि अनृत वचन के अनभिलाप्यत्व के प्रसंग में सप्तभंगी का दर्शन―अनृत वचन विषयों की अल्पता और अनल्पता के भेद से भेदरूप होते हैं । जैसे जिस वचन में अभिधेय तो थोड़ा झूठ है और सत्य अधिक है उस वचन को सत्यानृत कहते हैं । सत्य अधिक, असत्य थोड़ा उसे कहते हैं सत्यानृत और इसीलिए सत्य शब्द पहले रखा है कि उसका अंश वचन में अधिक है । तब इस सत्य विशेषण से अनृत को भेदवान् वर्णित किया जाता है । इसी प्रकार दूसरा उदाहरण लीजिए―अनृतानृतवचन । अनृतानृत में दोनों हो अनृत हैं, फिर भी जिस वचन में वाच्य थोड़ा सत्य हो और अधिक असत्य हो उसे अनृतानृत कहते हैं अथवा जल्दी समझने के लिए उसे अनृत सत्य कह लीजिए कि अनृत तो अधिक है और सत्य कम है । तो अनृतानृत वचन में जो अनृत विशेषण दिया गया है उस ही विशेषण से दूसरे अनृत को भेदवाद प्रतिपादित किया गया है याने हैं दोनों झूठ, पर झूठ स्वरूप से झूठ का भेद नहीं निकलता, किंतु झूठ का जो आत्मविशेष लक्षण है अर्थात् घटना उसका विशेष वर्णन वह भेद स्वभाव को लिए हुए है याने विशेषण के भेद से झूठ का भेद जाना जाता है और वही झूठ जब विशेषणभेद का अभाव रहे याने उसमें विशेषता का ध्यान न दिया जाये, तो वही अभेदस्वभाव को लिए हुए है । और इसी तरह अनृत स्वभाव को लिए हुए है वहाँ भेद भी है, अभेद भी है और इसके अतिरिक्त अनृत वचन अनृतस्वरूप अवक्तव्य है, किसी वचन के द्वारा कहा जा सकने योग्य नहीं है, क्योंकि वह भेदस्वरूप है, अभेदस्वरूप है, दोनों धर्मों को एक साथ कहा नहीं जा सकता । तो यह अवाच्य तत्त्व के प्रकरण के प्रसंग में चर्चा चली है, जो यह बतलाया था कि अवाच्य है सो सर्वथा अवाच्य नहीं है । वह भेदरूप से वाच्य है, अभेदरूप से वाच्य है, पर साथ ही साथ भेदरूप अवक्तव्य भी है, अभेदरूप अवक्तव्य भी है और भेदाभेदी अवक्तव्य भी है । तो उस अवाच्य तत्त्व में भी सप्तभंगी का प्रयोग चल रहा है । इस प्रकार जो दार्शनिक तत्त्व को सर्वथा अवाच्य कहते हैं उनका यह प्रयोग युक्तिसंगत नहीं है । तत्त्व कथंचित᳭ वाच्य है और कथंचित् अवाच्य है ।