युक्त्यनुशासन - गाथा 39: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>शीर्षोपहारादि | <div class="PravachanText"><p><strong>शीर्षोपहारादि भिरात्मदुःखै</strong></p><p><strong>र्देवान᳭किलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धा: ।</strong></p> | ||
<p><strong> सिद्धयंति दोषाऽपचयाऽनपेक्षा | <p><strong> सिद्धयंति दोषाऽपचयाऽनपेक्षा</strong></p><p><strong>युक्तं च तेषां त्वमृषिर्न येषाम् ꠰꠰39꠰।</strong></p> | ||
<p> <strong>(138) दोषापचयानपेक्ष पुरुषों की विविध विडंबित चर्या</strong>―कुछ ऐसे मंतव्य वाले हैं कि जो अपना शीश | <p> <strong>(138) दोषापचयानपेक्ष पुरुषों की विविध विडंबित चर्या</strong>―कुछ ऐसे मंतव्य वाले हैं कि जो अपना शीश चढ़ाकर या बकरा, सूकर आदिक का सिर चढ़ाकर ऐसा मानते हैं कि ऐसे कृत्यों के कारण देव प्रसन्न होते हैं और मुक्ति प्राप्त कराते हैं । ये समस्त कृत्य जो पहले प्रचलित थे उनका नमूना रूप अब भी कहीं-कहीं देखा जाता है । जैसे पर्वत पर से गिरना, देवता के आगे बकरा मुर्गा आदिक पशुओं का वध करना; ये सब कृत्य उन्हीं यज्ञों से संबंधित हैं जो हिंसा-कृत्यों का समर्थन करते हैं । ऐसे अज्ञानियों की यह आस्था है कि इन कृत्यों द्वारा यक्ष महेश्वर देवता की आराधना बनती है और उनकी आराधना से संसार के संकटो से छूट होती है, ऐसी आस्था उन्हीं के ही हो सकती है जो दोषों के विनाश की अपेक्षा नहीं रखते । जिनको यह श्रद्धा है कि शांति रागादिक दोषों को दूर करने से ही मिलेगी वे ऐसे मूढ़ता वाले कृत्य नहीं करते । जिनको यह विदित ही नहीं कि शांति रागादिक दोषों के दूर होने से हुआ करती है और इसी कारण जिनको विकार दूर करने की परवाह नहीं है ऐसे पुरुष कामसुख आदिक के लोलुपी होते हैं और महापाप में प्रवृत्त होते हैं । सो ऐसी करनी करना उनको ही ठीक जंच रहा जिनके हे वीर प्रभु ! आप गुरु नहीं हैं अर्थात् आपके शासन से जो बहिर्भूत हैं, घोर अज्ञानता को लिए हुए है ऐसी अंधेरगर्दी उन्हीं मिथ्यादृष्टियों के संभव हैं ।</p> | ||
<p> <strong>(139) दोषापचयानपेक्ष प्रभु के भक्तों की दोषों से मुक्त होने की कामना</strong>―हे प्रभो ! आप वीतराग हैं, आपके जो उपासक हैं वे रागादिक को दूर करने की ही कामना करते हैं, क्योंकि ज्ञानी पुरुषों के यह ही आस्था होती है कि गुण जहाँ पूर्ण हों, दोष जहाँ रंच भी न हों, ऐसी स्थिति प्राप्त हो वहाँ इस जीव की भलाई है । सो हे प्रभु ! यह अवस्था आपको प्राप्त हुई है । आपमें रागादिक दोष रंच भी नहीं रहे और ज्ञानानंदगुण उत्कृष्टता को प्राप्त हुए । सो जो पुरुष वीतराग प्रभु के शिष्य हैं, वे हिंसा आदिक पापों से विरक्तचित्त हैं, दया, इंद्रियदमन, परिग्रहत्याग, आत्मदृष्टि की तत्परता को लिए हुए हैं, स्याद्वाद शासन को प्राप्त हैं, नय प्रमाण आदिक युक्तियों से परमार्थ तत्त्व का भले प्रकार निर्णय किया है । उन सम्यग्दृष्टियों के ऐसी मिथ्या मान्यता नहीं होती जो | <p> <strong>(139) दोषापचयानपेक्ष प्रभु के भक्तों की दोषों से मुक्त होने की कामना</strong>―हे प्रभो ! आप वीतराग हैं, आपके जो उपासक हैं वे रागादिक को दूर करने की ही कामना करते हैं, क्योंकि ज्ञानी पुरुषों के यह ही आस्था होती है कि गुण जहाँ पूर्ण हों, दोष जहाँ रंच भी न हों, ऐसी स्थिति प्राप्त हो वहाँ इस जीव की भलाई है । सो हे प्रभु ! यह अवस्था आपको प्राप्त हुई है । आपमें रागादिक दोष रंच भी नहीं रहे और ज्ञानानंदगुण उत्कृष्टता को प्राप्त हुए । सो जो पुरुष वीतराग प्रभु के शिष्य हैं, वे हिंसा आदिक पापों से विरक्तचित्त हैं, दया, इंद्रियदमन, परिग्रहत्याग, आत्मदृष्टि की तत्परता को लिए हुए हैं, स्याद्वाद शासन को प्राप्त हैं, नय प्रमाण आदिक युक्तियों से परमार्थ तत्त्व का भले प्रकार निर्णय किया है । उन सम्यग्दृष्टियों के ऐसी मिथ्या मान्यता नहीं होती जो लोकमूढ़ता में शामिल है । ज्ञानी पुरुष देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता आदि सर्व मूढ़ताओं से दूर होते हैं । धर्म का रूप रखकर तो हिंसा स्वप्न में भी नहीं बनती है ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:22, 6 December 2021
शीर्षोपहारादि भिरात्मदुःखै
र्देवान᳭किलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धा: ।
सिद्धयंति दोषाऽपचयाऽनपेक्षा
युक्तं च तेषां त्वमृषिर्न येषाम् ꠰꠰39꠰।
(138) दोषापचयानपेक्ष पुरुषों की विविध विडंबित चर्या―कुछ ऐसे मंतव्य वाले हैं कि जो अपना शीश चढ़ाकर या बकरा, सूकर आदिक का सिर चढ़ाकर ऐसा मानते हैं कि ऐसे कृत्यों के कारण देव प्रसन्न होते हैं और मुक्ति प्राप्त कराते हैं । ये समस्त कृत्य जो पहले प्रचलित थे उनका नमूना रूप अब भी कहीं-कहीं देखा जाता है । जैसे पर्वत पर से गिरना, देवता के आगे बकरा मुर्गा आदिक पशुओं का वध करना; ये सब कृत्य उन्हीं यज्ञों से संबंधित हैं जो हिंसा-कृत्यों का समर्थन करते हैं । ऐसे अज्ञानियों की यह आस्था है कि इन कृत्यों द्वारा यक्ष महेश्वर देवता की आराधना बनती है और उनकी आराधना से संसार के संकटो से छूट होती है, ऐसी आस्था उन्हीं के ही हो सकती है जो दोषों के विनाश की अपेक्षा नहीं रखते । जिनको यह श्रद्धा है कि शांति रागादिक दोषों को दूर करने से ही मिलेगी वे ऐसे मूढ़ता वाले कृत्य नहीं करते । जिनको यह विदित ही नहीं कि शांति रागादिक दोषों के दूर होने से हुआ करती है और इसी कारण जिनको विकार दूर करने की परवाह नहीं है ऐसे पुरुष कामसुख आदिक के लोलुपी होते हैं और महापाप में प्रवृत्त होते हैं । सो ऐसी करनी करना उनको ही ठीक जंच रहा जिनके हे वीर प्रभु ! आप गुरु नहीं हैं अर्थात् आपके शासन से जो बहिर्भूत हैं, घोर अज्ञानता को लिए हुए है ऐसी अंधेरगर्दी उन्हीं मिथ्यादृष्टियों के संभव हैं ।
(139) दोषापचयानपेक्ष प्रभु के भक्तों की दोषों से मुक्त होने की कामना―हे प्रभो ! आप वीतराग हैं, आपके जो उपासक हैं वे रागादिक को दूर करने की ही कामना करते हैं, क्योंकि ज्ञानी पुरुषों के यह ही आस्था होती है कि गुण जहाँ पूर्ण हों, दोष जहाँ रंच भी न हों, ऐसी स्थिति प्राप्त हो वहाँ इस जीव की भलाई है । सो हे प्रभु ! यह अवस्था आपको प्राप्त हुई है । आपमें रागादिक दोष रंच भी नहीं रहे और ज्ञानानंदगुण उत्कृष्टता को प्राप्त हुए । सो जो पुरुष वीतराग प्रभु के शिष्य हैं, वे हिंसा आदिक पापों से विरक्तचित्त हैं, दया, इंद्रियदमन, परिग्रहत्याग, आत्मदृष्टि की तत्परता को लिए हुए हैं, स्याद्वाद शासन को प्राप्त हैं, नय प्रमाण आदिक युक्तियों से परमार्थ तत्त्व का भले प्रकार निर्णय किया है । उन सम्यग्दृष्टियों के ऐसी मिथ्या मान्यता नहीं होती जो लोकमूढ़ता में शामिल है । ज्ञानी पुरुष देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता आदि सर्व मूढ़ताओं से दूर होते हैं । धर्म का रूप रखकर तो हिंसा स्वप्न में भी नहीं बनती है ।