वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 38
From जैनकोष
प्रवृतिरक्तै: शमतुष्टिरिक्तै
रूपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्गनिष्ठा ।
प्रवृत्तितः शांतिरपि प्ररूढं
तम: परेषां तव सुप्रभातम् ।।38।।
(137) अज्ञानवश प्रवृत्तिरक्त शमतुष्टिरिक्त पुरुषों की हिंसा में अभ्युदयांग की आस्था तथा प्रवृत्ति में शांति की आस्था―जो लोग शांति और यथार्थ संतोष से नहीं रहते हैं याने क्रोधादिक कषायों का जहाँ शमन नहीं है और आत्मदृष्टि न होने के कारण जिनके पास संतोष फटकता भी नहीं है और इसी कारण वे पापकार्यों की प्रवृत्ति में रत रहा करते हैं, ऐसे यज्ञवादी दार्शनिकों के द्वारा वह घोषणा की गई है कि हिंसा स्वर्गादिक प्राप्ति के हेतु का आधार है अर्थात् हिंसा से स्वर्गादिक प्रात होते हैं, और इतना ही नहीं उन्होंने इस चर्या को स्वयं अपनाया है ऐसी जो उन यज्ञवादियों ने मान्यता प्रचलित की है यह बहुत बड़ा घोर अंधकार है, अज्ञानभाव है, इसके फल में वे स्वयं संसार में रुलते हैं और जीवों को जिन्होंने बहकाया है ये यथेष्ट प्रवृत्ति करके संसार में रुला करते हैं । तो ऐसे इस अज्ञान-अंधकार में पड़े हुए दार्शनिकों का यह विश्वास है कि यज्ञ में की हुई हिंसा स्वर्ग का कारण होती है अथवा किसी भी समय की हुई हिंसा कोई दुर्गति नहीं करती । इसी प्रकार ऐसी भी इनकी मान्यता है कि यज्ञादिक कार्यों में जो भी प्रवृत्ति की जाती है, जो भी राग मोह का नाट्य किया जाता उससे शांति होती है । ऐसी उनकी मान्यता वह भी घोर अंधकार है क्योंकि जितनी भी प्रवृत्ति होती है वह तो रागादिक के उत्पन्न करने वाली है, अशांति की ही उत्पन्न करने वाली है । क्योंकि जहाँ रागादिक का उद्वेग है वहाँं शांति नहीं हो सकती । वहाँ अशांति ही बढ़ेगी प्रवृत्ति में वीतरागता तो नहीं और शांति का कारण वीतरागता ही है । इस कारण हे प्रभो ! आपका यह स्याद्वादशासन ही अज्ञान-अंधकार को दूर करने में समर्थ है, इस कारण स्याद्वादशासन ही वास्तविक सुप्रभात है । और जहाँ वस्तुस्वरूप का निर्णय नहीं है, आत्मा के सहजस्वरूप का निर्णय नहीं है वहाँ भी उपयोग बाहर भटकायेंगे ही और बाह्य पदार्थों में भटका हुआ उपयोग अशांति का ही कारण है, वहाँ शांति हो ही न सकेगी ।