नवनीत: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/12 </span><span class="SanskritGatha"> मधुवन्नवनीतं च मुंचेतत्रापि भूरिश:। द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसजंत्यंगिराशय:।12।</span> | <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/12 </span><span class="SanskritGatha"> मधुवन्नवनीतं च मुंचेतत्रापि भूरिश:। द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसजंत्यंगिराशय:।12।</span> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/12 </span>में उद्धृत–<span class="SanskritGatha">अंतमुहूर्तात्परत: सुसूक्ष्मा जंतुराशय:। यत्र मूर्च्छंति नाद्यं तन्नवनीतं विवेकिभि:।1।</span> | <span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/12 </span>में उद्धृत–<span class="SanskritGatha">अंतमुहूर्तात्परत: सुसूक्ष्मा जंतुराशय:। यत्र मूर्च्छंति नाद्यं तन्नवनीतं विवेकिभि:।1।</span> | ||
<span class="HindiText">=मधु के समान नवनीत भी त्याग देना चाहिए; क्योंकि उसमें भी दो मुहूर्त के पश्चात् निरंतर अनेक सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं।12।</span> | <span class="HindiText">=मधु के समान नवनीत भी त्याग देना चाहिए; क्योंकि उसमें भी दो मुहूर्त के पश्चात् निरंतर अनेक सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं।12।</span><br /> | ||
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=और किन्हीं आचार्यों के मत से तो अंतर्मुहूर्त पश्चात् ही उसमें अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए वह नवनीत विवेकी जनों द्वारा खाने योग्य नहीं है।1।</span> | |||
=और किन्हीं आचार्यों के मत से तो अंतर्मुहूर्त पश्चात् ही उसमें अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए वह नवनीत विवेकी जनों द्वारा खाने योग्य नहीं | |||
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Revision as of 10:22, 8 September 2022
- नवनीत की अभक्ष्यता का निर्देश –देखें भक्ष्याभक्ष्य - 2।
- नवनीत के निषेध का कारण
-देखें मांस - 2: नवनीत, मदिरा, मांस, मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं, जो काम, मद (अभिमान व नशा) और हिंसा को उत्पन्न करते हैं।
रत्नकरंड श्रावकाचार/85 अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणिशृंगवेराणि। नवनीत निंबकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ।85।=फल थोड़ा परंतु त्रस हिंसा अधिक होने से नवनीत आदि वस्तुएँ छोड़ने योग्य हैं।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/163 नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । =उसी वर्ण व जाति के ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/71 ) बहुत से जीवों का उत्पत्तिस्थानभूत नवनीत त्यागने योग्य है।
सागार धर्मामृत/2/12 मधुवन्नवनीतं च मुंचेतत्रापि भूरिश:। द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसजंत्यंगिराशय:।12। सागार धर्मामृत/2/12 में उद्धृत–अंतमुहूर्तात्परत: सुसूक्ष्मा जंतुराशय:। यत्र मूर्च्छंति नाद्यं तन्नवनीतं विवेकिभि:।1। =मधु के समान नवनीत भी त्याग देना चाहिए; क्योंकि उसमें भी दो मुहूर्त के पश्चात् निरंतर अनेक सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं।12।
=और किन्हीं आचार्यों के मत से तो अंतर्मुहूर्त पश्चात् ही उसमें अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए वह नवनीत विवेकी जनों द्वारा खाने योग्य नहीं है।1।