विरोध: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/18/261/20 </span><span class="SanskritText"> [अनुपलंभसाध्यो हि विरोधः– (स.भ.त./83/2)] –इह विरोधः कल्प्यमानः त्रिधा व्यवतिष्ठते–बध्यघातकभावेन वा सहानवस्थात्मना वा प्रतिबंध्यप्रतिबंधकरूपेण वा। तत्र बध्यघातकभावः अहिनकुलाग्न्युदकादिविषयः। स त्वेकस्मिन् काले विद्यमानयोः सति संयोगे भवति, संयोगस्यानेकाश्रयत्वात् द्वित्ववत्। नासंयुक्तमुदकमग्निं विध्यापयति सर्वत्राग्न्यभावप्रसंगात्। ततः सति संयोगे बलीयसोत्तरकालमितरद् बाध्यते।....... सहानवस्थनलक्षणो विरोधः......। स ह्ययुगपत्कालयोर्भवति यथा आम्रफले श्यामतापीततयोः पीततोत्पद्यमाना पूर्वकालभाविनीं श्यामतां निरुणद्धि।.... प्रतिबंध्यप्रतिबंधक.... विरोधः....। यथा सति फलवृंतसंयोगे प्रतिबंध के गौरवं पतनकर्म नारभते प्रतिबंधात्, तदभावे तु पतनकर्म दृश्यते ‘‘संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् [वैशे. सू./5/1/7] इति वचनात्। [सिति मणिरूपप्रति बंध के वह्निना दाहो न जायत इति मणिदाहयोः प्रतिबध्यप्रतिबंधकभावो युक्तः (स.भ.त./88/9)] ।</span> = <span class="HindiText">अनुपलंभ अर्थात् अभाव के साध्य को विरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है–बध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबंधक भाव। बध्यघातक भाव विरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जल में होता है। यह दो विद्यमान पदार्थों में संयोग होने पर होता है। संयोग के बाद जो बलवान् होता है वह निर्बल को बाधित करता है। अग्नि से असंयुक्त जल अग्नि को नहीं बुझा सकता है। दूसरा सहानबस्थान विरोध एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायों में होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है, जैसे आम का हरा रूप नष्ट होता है और पीत रूप उत्पन्न होता है। प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भाव विरोध ऐसे है जैसे आम का फल जब तक डाल में लगा हुआ है तब तक फल और डंठल का संयोग रूप प्रतिबंधक के रहने से गुरुत्व मौजूद रहने पर भी आम को नीचे नहीं गिराता। जब संयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है। संयोग के अभाव में गुरुत्व पतन का कारण है, यह सिद्धांत है। अथवा जैसे दाह के प्रतिबंधक चंद्रकांत मणि के विद्यमान रहते अग्नि से दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होती इसलिए मणि तथा दाह के प्रतिबध्य प्रतिबंधक भाव युक्त है। (स.भ.त./87/4)। </span><br /> | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/42/18/261/20 </span><span class="SanskritText"> [अनुपलंभसाध्यो हि विरोधः– (स.भ.त./83/2)] –इह विरोधः कल्प्यमानः त्रिधा व्यवतिष्ठते–बध्यघातकभावेन वा सहानवस्थात्मना वा प्रतिबंध्यप्रतिबंधकरूपेण वा। तत्र बध्यघातकभावः अहिनकुलाग्न्युदकादिविषयः। स त्वेकस्मिन् काले विद्यमानयोः सति संयोगे भवति, संयोगस्यानेकाश्रयत्वात् द्वित्ववत्। नासंयुक्तमुदकमग्निं विध्यापयति सर्वत्राग्न्यभावप्रसंगात्। ततः सति संयोगे बलीयसोत्तरकालमितरद् बाध्यते।....... सहानवस्थनलक्षणो विरोधः......। स ह्ययुगपत्कालयोर्भवति यथा आम्रफले श्यामतापीततयोः पीततोत्पद्यमाना पूर्वकालभाविनीं श्यामतां निरुणद्धि।.... प्रतिबंध्यप्रतिबंधक.... विरोधः....। यथा सति फलवृंतसंयोगे प्रतिबंध के गौरवं पतनकर्म नारभते प्रतिबंधात्, तदभावे तु पतनकर्म दृश्यते ‘‘संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् [वैशे. सू./5/1/7] इति वचनात्। [सिति मणिरूपप्रति बंध के वह्निना दाहो न जायत इति मणिदाहयोः प्रतिबध्यप्रतिबंधकभावो युक्तः (स.भ.त./88/9)] ।</span> = <span class="HindiText">अनुपलंभ अर्थात् अभाव के साध्य को विरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है–बध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबंधक भाव। बध्यघातक भाव विरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जल में होता है। यह दो विद्यमान पदार्थों में संयोग होने पर होता है। संयोग के बाद जो बलवान् होता है वह निर्बल को बाधित करता है। अग्नि से असंयुक्त जल अग्नि को नहीं बुझा सकता है। दूसरा सहानबस्थान विरोध एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायों में होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है, जैसे आम का हरा रूप नष्ट होता है और पीत रूप उत्पन्न होता है। प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भाव विरोध ऐसे है जैसे आम का फल जब तक डाल में लगा हुआ है तब तक फल और डंठल का संयोग रूप प्रतिबंधक के रहने से गुरुत्व मौजूद रहने पर भी आम को नीचे नहीं गिराता। जब संयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है। संयोग के अभाव में गुरुत्व पतन का कारण है, यह सिद्धांत है। अथवा जैसे दाह के प्रतिबंधक चंद्रकांत मणि के विद्यमान रहते अग्नि से दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होती इसलिए मणि तथा दाह के प्रतिबध्य प्रतिबंधक भाव युक्त है। (स.भ.त./87/4)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 13/174/1 </span><span class="SanskritText">अस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात्, अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात्। </span>= <span class="HindiText">गुणों में परस्पर | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 13/174/1 </span><span class="SanskritText">अस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात्, अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात्। </span>= <span class="HindiText">गुणों में परस्पर परिहार लक्षण विरोध इष्ट ही है, क्योंकि यदि गुणों का एक दूसरे का परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता हैं <br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/ </span>भाषाकार/1/8/3/591/17 ज्ञान को मान लेने पर सब पदार्थों का शून्यपना नहीं बन पाता है और सबका शून्यपना मान लेने पर स्वसंवेदन की सत्ता नहीं ठहरती है। यह | <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/ </span>भाषाकार/1/8/3/591/17 ज्ञान को मान लेने पर सब पदार्थों का शून्यपना नहीं बन पाता है और सबका शून्यपना मान लेने पर स्वसंवेदन की सत्ता नहीं ठहरती है। यह तुल्य बल वाला विरोध है। <br /> | ||
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Revision as of 18:44, 18 September 2022
राजवार्तिक/4/42/18/261/20 [अनुपलंभसाध्यो हि विरोधः– (स.भ.त./83/2)] –इह विरोधः कल्प्यमानः त्रिधा व्यवतिष्ठते–बध्यघातकभावेन वा सहानवस्थात्मना वा प्रतिबंध्यप्रतिबंधकरूपेण वा। तत्र बध्यघातकभावः अहिनकुलाग्न्युदकादिविषयः। स त्वेकस्मिन् काले विद्यमानयोः सति संयोगे भवति, संयोगस्यानेकाश्रयत्वात् द्वित्ववत्। नासंयुक्तमुदकमग्निं विध्यापयति सर्वत्राग्न्यभावप्रसंगात्। ततः सति संयोगे बलीयसोत्तरकालमितरद् बाध्यते।....... सहानवस्थनलक्षणो विरोधः......। स ह्ययुगपत्कालयोर्भवति यथा आम्रफले श्यामतापीततयोः पीततोत्पद्यमाना पूर्वकालभाविनीं श्यामतां निरुणद्धि।.... प्रतिबंध्यप्रतिबंधक.... विरोधः....। यथा सति फलवृंतसंयोगे प्रतिबंध के गौरवं पतनकर्म नारभते प्रतिबंधात्, तदभावे तु पतनकर्म दृश्यते ‘‘संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् [वैशे. सू./5/1/7] इति वचनात्। [सिति मणिरूपप्रति बंध के वह्निना दाहो न जायत इति मणिदाहयोः प्रतिबध्यप्रतिबंधकभावो युक्तः (स.भ.त./88/9)] । = अनुपलंभ अर्थात् अभाव के साध्य को विरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है–बध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबंधक भाव। बध्यघातक भाव विरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जल में होता है। यह दो विद्यमान पदार्थों में संयोग होने पर होता है। संयोग के बाद जो बलवान् होता है वह निर्बल को बाधित करता है। अग्नि से असंयुक्त जल अग्नि को नहीं बुझा सकता है। दूसरा सहानबस्थान विरोध एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायों में होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है, जैसे आम का हरा रूप नष्ट होता है और पीत रूप उत्पन्न होता है। प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भाव विरोध ऐसे है जैसे आम का फल जब तक डाल में लगा हुआ है तब तक फल और डंठल का संयोग रूप प्रतिबंधक के रहने से गुरुत्व मौजूद रहने पर भी आम को नीचे नहीं गिराता। जब संयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है। संयोग के अभाव में गुरुत्व पतन का कारण है, यह सिद्धांत है। अथवा जैसे दाह के प्रतिबंधक चंद्रकांत मणि के विद्यमान रहते अग्नि से दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होती इसलिए मणि तथा दाह के प्रतिबध्य प्रतिबंधक भाव युक्त है। (स.भ.त./87/4)।
धवला 1/1, 1, 13/174/1 अस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात्, अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात्। = गुणों में परस्पर परिहार लक्षण विरोध इष्ट ही है, क्योंकि यदि गुणों का एक दूसरे का परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता हैं
श्लोकवार्तिक/2/ भाषाकार/1/8/3/591/17 ज्ञान को मान लेने पर सब पदार्थों का शून्यपना नहीं बन पाता है और सबका शून्यपना मान लेने पर स्वसंवेदन की सत्ता नहीं ठहरती है। यह तुल्य बल वाला विरोध है।
- अन्य संबंधित विषय
- स्व वचन बाधित विरोध।–देखें बाधित ।
- वस्तु के विरोधी धर्मों में अविरोध।–देखें अनेकांत - 5।
- आगम में पूर्वापर विरोध में अविरोध।–देखें आगम - 5.6।