संमूर्च्छिम
From जैनकोष
- समूर्च्छिम का लक्षण
- संमूर्च्छिम जन्म का स्वामित्व
- संमूर्च्छन मनुष्य निर्देश
- संमूर्च्छिम तिर्यंच संज्ञी भी होते हैं तथा सम्यक्त्वादि प्राप्त कर सकते हैं
- परंतु प्रथमोपशम को नहीं प्राप्त कर सकते
- संमूर्च्छिमों में संयमासंयम व अवधिज्ञान की प्राप्ति संबंधी दो मत
- महामत्स्य की विशालकाय का निर्देश
- अन्य संबंधित विषय
1. समूर्च्छिम का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/31/187/3 त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समंततो मूर्च्छनं संमूर्च्छनमवयवप्रकल्पनम् । =तीनों लोकों में ऊपर, नीचे, और तिरछे देह का चारों ओर से मूर्च्छन् अर्थात् ग्रहण होना सम्मूर्छन है। (अर्थात् चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर अवयवों की रचना होना); ( राजवार्तिक/2/21/140/23 )।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/83/204/17 सं समंतात् मूर्च्छनं जायमानजीवानुग्राहकाणां शरीराकारपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कंधानां समुच्छ्रयणं सम्मूर्च्छनम् । =सं अर्थात् समस्तपने, मूर्च्छनं अर्थात् जन्म ग्रहण करता जो जीव, उसको उपकारी ऐसे जो शरीराकार परिणमने योग्य पुद्गल स्कंधों का स्वमेव प्रगट होना सो संमूर्छन जन्म है।
2. संमूर्च्छिम जन्म का स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र/2/33 शेषाणां संमूर्च्छनम् ।33। =गर्भज और उपपादज जन्म वालों के अतिरिक्त शेष जीवों का संमूर्च्छन जन्म होता है।
तिलोयपण्णत्ति/4/2948 उप्पत्ती मणुवाणं गब्भज सम्मुच्छिनं खु दुभेदा। =मनुष्यों का जन्म गर्भ व सम्मूर्च्छन के भेद से दो प्रकार का है।
तिलोयपण्णत्ति/5/293 उप्पत्ती तिरियाणं गब्भजसमुच्छिमो त्ति। =तिर्यंचों की उत्पत्ति गर्भ और संमूर्च्छन जन्म से होती है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/91/213/4 )।
राजवार्तिक/2/33/11/144/23 एकद्वित्रिचतुरिंद्रियाणां पंचेंद्रियाणां तिरश्चां मनुष्याणां च केषांचित्संमूर्च्छनमिति...। एक, दो, तीन, चार इंद्रिय वाले जीवों का, किन्हीं पंचेंद्रिय तिर्यंचों तथा मनुष्यों का संमूर्च्छन जन्म होता है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/84/207/6 एकद्वित्रिचतुरिंद्रियाणां केषांचित्पंचेंद्रियाणां लब्ध्यपर्याप्तमनुष्याणां च संमूर्च्छनमेव जन्मेति प्रवचने निर्दिष्टम् । =एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, कोई पंचेंद्रिय तिर्यंच और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य इनके सम्मूर्च्छन ही जन्म होता है, ऐसा प्रवचन में कहा है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/90/212/11 )।
3. संमूर्च्छन मनुष्य निर्देश
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/937 पर उद्धृत गाथा - कर्मभूमिषु चक्रास्त्रहलभृद्धरिभूभुजाम् । स्कंधाबारसमूहेषु प्रस्रवोच्चारभूमिषु। शुक्रसिंघाणकश्लेष्मकर्णदंतमलेषु च। अत्यंताशुचिदेशेषु सद्य: सम्मूर्च्छनेन ये। भूत्वांगुलस्यासंख्येयभागमात्रशरीरका:। आशु नश्यंत्यपर्याप्तास्ते स्यु: सम्मूर्च्छना नरा:। =कर्मभूमि में चक्रवर्ती, बलभद्र वगैरह बड़े राजाओं के सैन्यों में मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं ऐसे स्थानों पर, वीर्य, नाक का मल, कफ, कान और दाँतों का मल और अत्यंत अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं। जिनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र रहता है। और जो जन्म लेने के बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्च्छन मनुष्य कहते हैं।
4. संमूर्च्छिम तिर्यंच संज्ञी भी होते हैं तथा सम्यक्त्वादि प्राप्त कर सकते हैं
धवला 4/1,5,18/350/2 सण्णि पंचिंदियतिरिक्खसंमुच्छिमपज्जत्तएसु मच्छ-कच्छव-मंडूकादिसु उववण्णो। सव्वलहूएण अंतोमुहुत्तकालेण सव्वाहिपज्जत्तीहि पज्जत्तयदो जादो। विसंतो। विसुद्धो होदूण संजमासंजमं पडिवण्णो। पुव्वकोडिकालं संजमासंजममणुपालिदूणमदो सोधम्मादि-आरणच्चुदंतेसु देवेसु उववण्णो। =संज्ञी पंचेंद्रिय और पर्याप्तक, ऐसे संमूर्च्छन तिर्यंच, मच्छ, कच्छप, मेंढकादिकों में उत्पन्न हुआ, सर्व लघु अंतर्मुहूर्तकाल द्वारा सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। पुन: विश्राम लेता हुआ, विशुद्ध हो करके संयमासंयम को प्राप्त हुआ। वहाँ पर पूर्वकोटि काल तक संयमासंयम को पालन करके मरा और सौधर्म कल्प को आदि लेकर आरण, अच्युतांतकल्पों में देवों में उत्पन्न हुआ। ( धवला 5/1,6,234/115/6 )
5. परंतु प्रथमोपशम को नहीं प्राप्त कर सकते
धवला 5/1,6,121/73/3 सण्णिसम्मुच्छिम-पंचिंदिएसुप्पाइय...पढमसम्मत्तग्गहणाभावा। =संज्ञी पंचेंद्रिय सम्मूर्च्छन जीवों में प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण का अभाव है। ( धवला 5/1,6,237/118/11 )।
6. संमूर्च्छिमों में संयमासंयम व अवधिज्ञान की प्राप्ति संबंधी दो मत
धवला 5/1,6,234/115/51
अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णि-समुच्छिम-पज्जत्तएसु...विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तदो अंतोमुहुत्तेण ओघिणाणी जादो।
धवला 5/1,6,237/118/11 सण्णिसमुच्छिमपज्जत्तएसु संजमासंजमस्सेव ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो। तं कधं णव्वदे। 'पंचिंदिएसु उवसामेंतो गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छियेसु' त्ति चुलियासुत्तादो। =1. मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला संज्ञी सम्मूर्च्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ।...विशुद्धि हो वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। पश्चात् अवधिज्ञानी हो गया। ( धवला 5/1,6,234/115,117 )। 2. संज्ञी सम्मूर्च्छिम पर्याप्तकों में संयमासंयम के समान अवधिज्ञान और उपशम सम्यक्त्व की संभवता का अभाव है। =प्रश्न - यह कैसे जाना है ? उत्तर - 'पंचेंद्रियों में दर्शनमोह का उपशमन करता हुआ गर्भोत्पन्न जीवों में ही उत्पन्न करता है। सम्मुर्च्छिमों में नहीं', इस प्रकार चूलिका सूत्र से जाना जाता है।
7. महामत्स्य की विशालकाय का निर्देश
धवला 11/4,2,5,8/16/6 के वि आइरिया महामच्छो मुहपृच्छेमु सुट्ठ्ठ सण्हओ त्ति भणंति। एत्थतणमच्छे दट्ठूण एदं ण घडदे, कहल्लिमच्छगेसु वियहिचारदंसणादो। अधवा एदे विक्खं भुस्सेहा समकरणसिद्धा त्ति के वि आइरिया भणंति। ण च सुट्ठ्ठ सण्णमुहो महामच्छो अण्णेगजोयणसदोगाहणतिमिंगिलादिगिलणखमो, विरोहादो। =महामत्स्य मुख और पूँछ में अतिशय सूक्ष्म हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किंतु यहाँ के मत्स्यों को देखकर यह घटित नहीं होता, तथा कहीं-कहीं मत्स्यों के अंगों में व्यभिचार भी देखा जाता है। अथवा ये विष्कंभ और उत्सेध समकरणसिद्ध हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्म मुख से संयुक्त महामत्स्य एक सौ योजन की अवगाहना वाले अन्य तिमिंगिल आदि मत्स्यों के निगलने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि विरोध आता है।
धवला 14/5,6,580/467-468/10 ण च महामच्छउक्कस्सविस्सासुवचओ अणंतगुणो होदि, जहण्णबादरणिगोदवग्गणादो उक्कस्ससुहुमणिगोदवग्गणाए अणंतगुणत्तप्पसंपादो।...महामच्छाहारो पोग्गलकलावो पत्तेयसरीरबादर-सुहुमणिगोदवग्गणसहुममेत्तो ण होदि किंतु तस्स पुट्ठीए संभूदउट्ठियकलावो तत्तो सम्मुच्छिदपत्थरसज्जज्जुण-णिंब-कयंबंब जंबु-जंबीर-हरि-हरिणादयो च विस्ससोवचयंतब्भूदा दट्ठव्वा। ण च तत्थ मट्टियादीणमुप्पत्ती असिद्धा, सइलोदए पदिदपण्णाण पि सिलाभावेण परिणामदंसणादो सुत्तिवुडपदिदोदबिंदूणं मुत्ताहलागारेण परिणामुवलंभादो। ण च तत्थ सम्मुच्छिमपंचिंदियजीवाणमुप्पत्ती असिद्धा, पाउसयारंभवासजलधरणिसंबंधेण भेगंदर-मच्छ - कच्छादीणमुप्पत्ति दंसणादो।...ण च एदेसिं महामच्छत्तमसिद्धं माणुसजडसप्पण्णगंडुवालाणं पि माणुसववएसुवलंभादो। सव्वेसिमेदेसिं गहणादो सिद्धं उक्कस्सविस्सासुवचयस्स अणंतगुणत्तं। अधवा ओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण जे एयबंधणबद्धा पोग्गला विस्सासुवचयसण्णिया तेसिं सचित्तवग्गणाणं अंतब्भावो होदि।...जे पुण...बंधणगुणेण तत्थ समवेदा पोग्गला...जीवेण अणणुगय भावादो अलद्धसचित्तवग्गणववएसा ते एत्थ विस्सासुवचया घेत्तव्वा। ण च णिज्जीवविस्सासुवचयाणं अत्थित्तमसिद्धं, रुहिर-वस-सुक्क-रस-सेंभ-पित्त-मुत्त-खरित्त-मत्थुलिंगादीणं जीववज्जियाणं विस्सासुवचयाणमुवलंभादो। ण च दंतहडु वाला हव सव्वे विस्सासुवचया णिज्जीवा पच्चक्खा चेव, अणुभावेण अणंताणं विस्सासुवचयाणं आगमचक्खु गोयराणमुवलंभादो। एदे विस्सासुवचया महामच्छदेहभूदछज्जीवणिकायविसया अणंतगुणा त्ति घेत्तव्वा। =प्रश्न - महामत्स्य का उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनंतगुणा नहीं है, क्योंकि जघन्य बादर निगोद वर्गणा से उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा के अनंतगुणे प्राप्त होने का प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर - महामत्स्य का आहार रूप जो पुद्गल कलाप है, वह प्रत्येक शरीर, बादर-निगोद-वर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणा का समुदायमात्र नहीं होता है किंतु उसकी पीठ पर आकर जमी हुई जो मिट्टी का प्रचय है वह और उसके कारण उत्पन्न हुए पत्थर, सर्ज नाम के वृक्ष विशेष, अर्जुन, नीम, कदंब, आम, जामुन, जंबीर, सिंह और हरिण आदिक ये सब विस्रसोपचय में अंतर्भूत जानने चाहिए। वहाँ मिट्टी आदि की उत्पत्ति असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शैल के पानी में गिरे हुए पत्तों का शिलारूप से परिणमन देखा जाता है तथा शुक्तिपुट में गिरे हुए जलबिंदुओं का मुक्ताफल रूप से परिणमन उपलब्ध होता है। वहाँ पंचेंद्रिय सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति असिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि वर्षाकाल के प्रारंभ में वर्षाकाल के जल और पृथिवी के संबंध से मेंढक, चूहा, मछली और कछुआ आदि की उत्पत्ति देखी जाती है...इनका महामत्स्य होना असिद्ध है यह कहना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि मनुष्य के जठर में उत्पन्न हुई कृमि विशेष की भी मनुष्य संज्ञा उपलब्ध होती है। इन सबके ग्रहण करने से उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनंतगुणा है यह बात सिद्ध होती है। अथवा औदारिक तैजस कार्मण परमाणु पुद्गलों के बंधन गुण के कारण जो एक बंधनबद्ध विस्रसोपचय संज्ञावाले पुद्गल हैं उनका सचित्त वर्गणाओं में अंतर्भाव देखा होता है।...बंधनगुण के कारण जो पुद्गल वहाँ समवेत होते हैं...और जो सचित्त वर्गणाओं को नहीं प्राप्त होते, इसलिए यहाँ विस्रसोपचय रूप से ग्रहण करना चाहिए। निर्जीव विस्रसोपचयों का अस्तित्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीव रहित रुधिर, वसा, शुक्र, रस, कफ, पित्त, मूत्र, खरिस, और मस्तक में से निकलने वाले चिकने द्रव्यरूप विस्रसोपचय उपलब्ध होते हैं। दाँतों की हड्डियों के समान सभी विस्रसोपचय प्रत्यक्ष से निर्जीव होते हैं यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभाव के कारण आगम चक्षु के विषयभूत अनंत विस्रसोपचय उपलब्ध होते हैं। महामत्स्य के देह में उत्पन्न हुए छह जीव निकायों को विषय करने वाले ये विस्रसोपचय अनंतगुणे होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1649/1489/7 उत्थानिका - आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिंगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामा: षण्मासं विवृतवदना: स्वपंति। निद्राविमोक्षानंतरं पिहितानना: स्वजठरप्रविष्टमत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशंति। तत्कणविलग्नमलाहारा: शालिसिक्थसंज्ञका: यदीदृशमस्माकं शरीरं भवेत् । किं नि:सर्तुं एकोऽपि जंतुर्लभते। सर्वान्भक्षयामीति कृतमन: प्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशंति। =स्वयंभूरमण समुद्र में तिमितिमिंगिलादिक महामत्स्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा होता है। उनके शरीर की लंबाई हज़ार योजन की कही है। वे मत्स्य छह मास तक अपना मुँह उघाड़कर नींद लेते हैं, नींद खुलने के बाद आहार में लुब्ध होकर अपना मुँह बंद करते हैं, तब उनके मुँह में जो मत्स्य आदि प्राणी आते हैं, उनको वे निगल जाते हैं। वे मत्स्य आयुष्य समाप्ति के अनंतर अवधिस्थान नामक नरक में प्रवेश करते हैं। इन मत्स्यों के कान में शालिसिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं, वे उनके कान का मल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। उनका शरीर तंडुल के सिक्थ के प्रमाण होता है इसलिए उनका नाम सार्थक है। वे अपने मन में ऐसा विचार करते हैं कि यदि हमारा शरीर इन महामत्स्यों के समान होता तो हमारे मुंह से एक भी प्राणी न निकल सकता, हम संपूर्ण को खा जाते। इस प्रकार के विचार से उत्पन्न हुए पाप से वे भी अवधिस्थान नरक में प्रवेश करते हैं।
8. अन्य संबंधित विषय
- संमूर्च्छन जीव नपुंसकवेदी होते हैं - देखें वेद - 5.3।
- चींटी आदि संमूर्च्छित कैसे हैं - देखें वेद - 5.6।
- महामत्स्य मरकर कहाँ जन्म धारे इस संबंध में दो मत - देखें मरण - 5.6।
- मारणांतिक समुद्घात गत महामत्स्य का विस्तार - देखें मरण - 5.5,6।
- बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव इस योनि स्थान में जन्म धारण कर सकता है - देखें जन्म - 2।