श्रावक
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
विवेकवान विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं - पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक। निज धर्म का पक्ष मात्र करने वाला पाक्षिक है और व्रतधारी नैष्ठिक। इसमें वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर 11 श्रेणियाँ हैं। जिन्हें 11 प्रतिमाएँ कहते हैं। शक्ति को न छिपाता हुआ वह निचली दशा में क्रमपूर्वक उठता चला जाता है। अंतिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचित् न्यून रहता है। गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है।
- भेद व लक्षण
- पृथक्-पृथक् 11 प्रतिमाएँ। - देखें दर्शन_प्रतिमा ; व्रत_प्रतिमा ; सामायिक ; प्रोषधोपवास ; सचित्तत्यागप्रतिमा ; रात्रिमृत्तित्याग ; ब्रह्मचर्य ; आरंभ_त्याग_प्रतिमा ; परिग्रह_त्याग_व्रत_व_प्रतिमा ; अनुमतित्यागप्रतिमा ; उदिष्ट त्याग प्रतिमा ।
- श्रावक सामान्य निर्देश
- गृहस्थ धर्म की प्रधानता।
- श्रावक धर्म के योग्य पात्र।
- विवकी गृहस्थ को हिंसा का दोष नहीं।
- श्रावक को भव धारण की सीमा।
- श्रावक के मोक्ष निषेध का कारण।
- श्रावक के पढ़ने न पढ़ने योग्य शास्त्र। - देखें श्रोता 6 ।
- श्रावक में विनय व नमस्कार योग्य व्यवहार। - देखें विनय - 3।
- सम्यग्दृष्टि भी श्रावक पूज्य नहीं - देखें विनय - 4.9।
- गृहस्थाचार्य - देखें आचार्य - 2।
- श्रावक ही वास्तव में ब्राह्मण है - देखें ब्राह्मण 4 ।
- श्रावक को गुरु संज्ञा नहीं - देखें गुरु - 1.3।
- प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में श्रावकों का प्रमाण - देखें तीर्थंकर - 5.3.6।
- पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
- संयतासंयत गुणस्थान - देखें संयतासंयत ।
- सम्यग्दृष्टि श्रावक मिथ्यादृष्टि साधु से ऊँचा है - देखें साधु - 4।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के व्यवहार धर्म में अंतर - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- क्षुल्लका - देखें क्षुल्लक ।
- ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तरोत्तर व्रतों की तरतमता।
- पाक्षिक श्रावक सर्वथा अविरति नहीं।
- पाक्षिक श्रावक की दिनचर्या।
- पाँचों व्रतों के एक देश पालन करने से व्रती होता है।
- पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक में अंतर।
- श्रावक के योग्य लिंग - देखें लिंग - 1।
- श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
- अष्ट मूलगुण विशेष व उनके अतिचार - देखें मद्य ; मांस ; मधु ; अहिंसाणुव्रत ; सत्याणुव्रत , अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्य , परिग्रहपरिमाणुव्रत ।
- श्रावक के 12 व्रत। - देखें व्रत - 1.3।
- अष्ट मूलगुण व्रती व अव्रती दोनों को होते हैं।
- मूलगुण साधु को पूर्ण व श्रावक को एक देश होते हैं।
- श्रावक के अनेकों उत्तरगुण
- श्रावक के दो कर्तव्य।
- श्रावके के 4 कर्तव्य।
- श्रावक के 5 कर्तव्य।
- श्रावक के 6 कर्तव्य।
- श्रावक को 53 क्रियाएँ।
- श्रावक की 25 क्रियाएँ। - देखें क्रिया 3 ।
- गर्भान्वय आदि 10 या 53 क्रियाएँ - देखें संस्कार - 2।
- श्रावक के अन्य कर्तव्य।
- श्रावक की स्नान विधि - देखें स्नान -4 ।
- दान देना ही गृहस्थ का प्रधान धर्म है - देखें दान - 3।
- वैयावृत्य करना गृहस्थ का प्रधान धर्म है - देखें वैयावृत्त्य 8।
- सावद्य होते भी पूजा व मंदिर आदि निर्माण की आज्ञा - देखें धर्म - 5.2।
- श्रावकों को सल्लेखना धारने संबंधी - देखें सल्लेखना - 1व 3।
- अणुव्रतों में भी कथंचित् महाव्रतत्व - देखें व्रत - 3.8।
- सामायिक के समय श्रावक भी साधु - देखें सामायिक - 3.4।
- साधु व श्रावक के धर्म में अंतर - देखें धर्म - 6।
- साधु व श्रावक के ध्यान व अनुभव में अंतर - देखें अनुभव - 5.7।
- श्रावक को भी समिति गुप्ति आदि का पालन करना चाहिए। - देखें व्रत - 2.4।
- श्रावक को स्थावर वध आदि की भी अनुमति नहीं है - देखें व्रत - 3।
- भेद व लक्षण
- श्रावक सामान्य के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/45/458/8 स एव पुनश्चारित्रमोहकर्मविकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको...। = वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ...।
सागार धर्मामृत/1/15-16 मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्य:। दानयजनप्रधानो, ज्ञानसुधां श्रावक: पिपासु: स्यात् ।15। रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधाद्यं होव्यपोहात्मसु। सद्दृग् दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-स्वेकं य: श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।16। = पंच परमेष्ठी का भक्त ,प्रधानता से दान और पूजन करने वाला, भेद ज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक, तथा मूलगुण और उत्तरगुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है।15। अंतरंग में रागादिक के क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रगट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है स्वरूप जिनका ऐसे, और बहिरंग में त्रस हिंसा आदिक पाँचों पापों से विधि पूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिनका, ऐसे ग्यारह देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दार्शनिक आदि स्थानों - दरजों में मुनिव्रत का इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ।
सागार धर्मामृत/ स्वोपज्ञ-टीका/1/15 शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक:। = जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/34/5 स पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति।=पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है। - श्रावक के भेद
- पाक्षिकादि तीन भेद
चारित्रसार/41/3 साधकत्वमेवं पक्षादिभिस्त्रिभिर्हिंसाद्युपचितं पापम् अपगतं भवति। =इस प्रकार पक्ष, चर्या और साधकत्व - इन तीनों से गृहस्थी के हिंसा आदि के इकट्ठे किये हुए पाप सब नष्ट हो जाते हैं।
सागार धर्मामृत/1/20 पाक्षिकादिभि त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिक:। ...नैष्ठिक: साधक:...।20। =पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भेद से श्रावक तीन प्रकार के होते हैं।
सागार धर्मामृत/3/6 प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नाश्चार्हतस्य देशयम:। योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी।6। =जिस प्रकार प्रारब्ध आदि तीन प्रकार के योग से योगी तीन प्रकार का होता है, उसी प्रकार देशसंयमी भी प्रारब्ध (प्राथमिक), घटमानो (अभ्यासी) और निष्पन्न के भेद से तीन प्रकार के हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/725 किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। =पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे। - नैष्ठिक श्रावक के 11 भेद
बारस अणुवेक्खा/69 दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य। वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे।136। =दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, आरंभविरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्टविरत ये (श्रावक के) ग्यारह भेद होते हैं।136। ( चारित्तपाहुड़/मूल/22); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/136 ), ( धवला 1/1,1,2/ गाथा 74/102), ( धवला 1/1,1,123/ गाथा 193/373), ( धवला 9/4,1,45/ गाथा 78/201), ( गोम्मटसार जीवकांड/477/884 ), ( वसुनंदी श्रावकाचार/4 ), ( चारित्रसार/3/3 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/34 पर उद्धृत), (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/14)।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/5 दार्शनिक ...व्रतिक:...त्रिकालसामयिके प्रवृत्त:, प्रोषधोपवासे, सचित्तपरिहारेण पंचम:, दिवाब्रह्मचर्येण षष्ठ:, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तम:, आरंभनिवृत्तोऽष्टम:...परिग्रहनिवृत्तो नवम:... अनुमतनिवृत्तो दशम: उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशम:। =दार्शनिक, व्रती, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, और सचित्त विरत तथा दिवामैथुन विरत, अब्रह्म विरत, आरंभविरत और परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्ट विरत श्रावक के ये 11 स्थान हैं ( सागार धर्मामृत/3/2-3 )। - ग्यारहवीं प्रतिमा के 2 भेद
वसुनंदी श्रावकाचार/301 एयोरसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ। वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ।301। = ग्यारहवें अर्थात् उद्दिष्ट विरत स्थान में गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं - प्रथम एक वस्त्र रखने वाला (क्षुल्लक), दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रह वाला (ऐलक) ( गुणभद्र श्रावकाचार/184 ), ( सागार धर्मामृत/7/38-39 )।
- पाक्षिकादि तीन भेद
- पाक्षिकादि श्रावकों के लक्षण
- पाक्षिक श्रावक
चारित्रसार/40/4 असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्ष:। = असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरंभों कर्मों से गृहस्थों के हिंसा होना संभव है तथापि पक्ष चर्या और साधकपना इन तीनों से हिंसा का निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है।
सागार धर्मामृत/2/2,16 तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्, पंच क्षीरिफलानि च।2। स्थूल हिंसानृतस्तेयमैथुनग्रंथवर्जनम् । पापभीरुतयाभ्यस्येद्-बलवीर्यनिगूहक:।16। =उस गृहस्थ धर्म में जिनेंद्र देव संबंधी आज्ञा को श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस, मधु को और पंच उदंबर फलों को छोड़ देवे।2। शक्ति और सामर्थ्य को नहीं छिपाने वाला पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे।16। (पाक्षिक श्रावक, गुरु उपासना आदि कार्य को शक्त्यनुसार नित्य करता है - देखें देवपूजा ; गुरुपास्ति ; स्वाध्याय ; संयम ; तप ; दान ) सदाव्रत खुलवाना (देखें पूजा - 1) मंदिर में फुलवाड़ी आदि खुलवाना कार्य करता है (देखें चैत्य चैत्यालय )। रात्रि भोजन का त्यागी होता है, परंतु कदाचित् रात्रि को इलाइची आदि का ग्रहण कर लेता है - देखें रात्रि भोजन -2.2 । पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास को करता है - देखें प्रोषधोपवास 3.1। व्रत खंडित होने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है ( सागार धर्मामृत/2/79 )। आरंभादि में संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता - (देखें श्रावक - 3) इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि को पाता प्रतिमाओं को धारण करके एक दिन मुनि धर्म पर आरूढ़ होता है।
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष है। देखें पक्ष -2 । - चर्या श्रावक
चारित्रसार/40/4 धर्मार्थं देवतार्थमंत्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसां न कुर्वंति। हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्ध: सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्मं च वेश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति। = धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोग के लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित्त कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रह का त्याग करने के समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि को समर्पण कर जब तक वे घर को परित्याग करते हैं तब तक उनके चर्या कहलाती है। (यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यंत होती है ( सागार धर्मामृत/1/19 )। - नैष्ठिक श्रावक
सागार धर्मामृत/3/1 देशयमघ्नकषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशत: स्यात् । दर्शनिकाद्येकादश-दशावशो नैष्ठिक: सुलेश्यतर:।1। = देश संयम का घात करने वाली कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दार्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।1। - साधक श्रावक
महापुराण/39/149 ...जीवितांते तु साधनम् । देहादेर्हितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ।149। = जो श्रावक आनंदित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधन करता है वह साधक कहा जाता है। ( सागार धर्मामृत/1/19-20/8/1 )।
चारित्रसार/41/2 सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकंपनोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य लोकाग्रमनस: शरीरपरित्याग: साधकत्वम् । = इसी तरह जिसमें संपूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीर का कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रों का खोलना आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।पुराणकोष से
पांच अणुव्रत, तीन गुणवत तथा चार शिक्षाव्रतों का धारी गृहस्थ । उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से भी श्रावक तीन प्रकार के कहे हैं । इनमें पहली से छठी प्रतिमा के धारी जघन्य श्रावक, सातवीं से नौवीं प्रतिमा के धारी मध्यम और दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक कहे गये हैं । समवसरण में श्रावकों का निश्चित स्थान होता है । श्रावक के व्रतों को मोक्षमहल की दूसरी सीढ़ी कहा है । दान, पूजा, तप और शील श्रावकों का बाह्य धर्म है । महापुराण 39.143-150, 67.69, हरिवंशपुराण 3.63, 10. 7-8, 12.78 वीरवर्द्धमान चरित्र 17.82, 18. 36-37, 60-70
- पाक्षिक श्रावक
- श्रावक सामान्य के लक्षण