सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं
From जैनकोष
(राग ठुमरी)
सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं, आतमरूप अबाधित ज्ञानी ।।टेक ।।
रोगादिक तो देहाश्रित हैं, इनतें होत न मेरी हानी ।
दहन दहत ज्यों दहन न तदगत, गगन दहन ताकी विधि ठानी ।।१ ।।
वरणादिक विकार पुद्गलके, इनमें नहिं चैतन्य निशानी ।
यद्यपि एकक्षेत्र-अवगाही, तद्यपि लक्षण भिन्न पिछानी ।।२ ।।
मैं सर्वांगपूर्ण ज्ञायक रस, लवण खिल्लवत लीला ठानी ।
मिलौ निराकुल स्वाद न यावत, तावत परपरनति हित मानी ।।३ ।।
`भागचन्द' निरद्वन्द निरामय, मूरति निश्चय सिद्धसमानी ।
नित अकलंक अवंक शंक बिन, निर्मल पंक बिना जिमि पानी ।।४ ।।