नपुंसक
From जैनकोष
- भाव नपुंसक निर्देश
पं.सं./प्रा./१/१०७ णेवित्थि ण वि पुरिसो णउंसओ उभयलिंगवदिरित्तो। इट्टावग्गिसमाणो वेदणगरुओ कलुसचित्तो।=जो भाव से न स्त्रीरूप है न पुरुषरूप, जो द्रव्य की अपेक्षा तो स्त्रीलिंग व पुरुषलिंग से रहित है। ईंटों के पकानेवाली अग्नि के समान वेद की प्रबल वेदना से युक्त है, और सदा कलुषचित्त है, उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए। (ध.१/१,१,१०१/१७१/३४२); (गो.जी./मू./२७५/५९६)।
स.सि./२/५२/२००/७ नपुंसकवेदोदयात्तदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम् ।=नपुंसकवेद के उदय से जो (स्त्री व पुरुष) दोनों शक्तियों से रहित है वह नपुंसक है। (ध.६/१,९-१/२४/४६/९)। ध.१/१,१,१०१/३४१/११ न स्त्री न पुमान्नपुंसकमुभयाभिलाष इति यावत् ।=जो न स्त्री है और न पुरुष है, उसे नपुंसक कहते हैं, अर्थात् जिसके स्त्री और पुरुष विषयक दोनों प्रकार की अभिलाषा रूप (मैथुन संज्ञा) पायी जाती है, उसे नपुंसक कहते हैं। (गो.जी./जी.प्र./२७१/५९१/१७)। - द्रव्य नपुंसक निर्देश
पं.सं./प्रा./१/१०७ उभयलिंगवदिरित्तो।=स्त्री व पुरुष दोनों प्रकार के लिंगों से रहित हो वह नपुंसक है। (ध.१/१,१,१०१/१७२/३४२); (गो.जी./मू./२७५/५९६)।
गो.जी./जी.प्र./२७१/५९२/१ नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्ग व्यतिरिक्तदेहाङ्कितो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति। गो.जी./जी./प्र./२७५/५९७/४ उभयलिङ्गव्यतिरिक्त: श्मश्रुस्तनादिपुंस्त्रीद्रव्यलिंगरहित:...जीवो नपुंसकमिति।=नपुंसकवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म सहित अंगोपांग नामकर्म के उदय से स्त्री व पुरुष दोनों लिंगों से रहित अर्थात् मूँछ, दाढ़ी व स्तनादि, पुरुष व स्त्री योग्य द्रव्य लिंग से रहित देह से अंकित जीव, भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के चरम समय पर्यन्त द्रव्य नपुंसक होता है। - नपुंसक वेदकर्म निर्देश
स.सि./८/९/३८६/३ यदुदयान्नपुंसकान्भावानुपव्रजति स नपुंसकवेद:।=जिसके उदय से नपुंसक सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है (देखें - भाव नपुंसक निर्देश ), वह नपुंसक वेद है। (रा.वा./९/८/४/५७४/२५) (गो.क./जी.प्र./३३/२८/१)। - अन्य सम्बन्धित विषय
- द्रव्य भाव नपुंसकवेद सम्बन्धी विषय।‒देखें - वेद।
- नपुंसकवेदी भी ‘मनुष्य’ कहलाता है।‒ देखें - वेद / २ ।
- साधुओं को नपुंसक की संगति वर्जनीय है।‒देखें - संगति।
- नपुंसकवेद प्रकृति के बन्ध योग्य परिणाम।‒ देखें - मोहनीय / ३ / ६ ।
- नपुंसक को दीक्षा व मोक्ष का निषेध।‒ देखें - वेद / ७ ।