श्रीमुनि राजत समता संग
From जैनकोष
श्रीमुनि राजत समता संग । कायोत्सर्ग समायत अंग ।।टेक ।।
करतैं नहिं कछु कारज तातैं, आलम्बित भुज कीन अभंग ।
गमन काज कछु हू नहिं तातैं, गति तजि छाके निज रसरंग ।।१ ।।
लोचनतैं लखिवौ कछु नाहीं, तातैं नासा दृग अचलंग ।
सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातैं प्राप्त इकंत सुचंग ।।२ ।।
तहँ मध्यान्हमाहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग ।
कैधौं ज्ञान पवनबल प्रज्वलित, ध्यानानलसौं उछलि फुलिंग ।।३ ।।
चित निराकुल अतुल उठत जहँ, परमानन्द पियूषतरंग ।
`भागचन्द' ऐसे श्रीगुरुपद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ।।४ ।।