वसतिका
From जैनकोष
साधु के ठहरने का स्थान वसतिका कहलाता है । वह मनुष्यों, तिर्यंचों व शीत-उष्णादिकी बाधाओं से रहित होना चाहिए । ध्यानाध्ययन की सिद्धि के अर्थ एकान्त गुफा व शून्य स्थान ही उसके लिए अधिक उपयुक्त हैं ।
- वसतिका का सामान्य स्वरूप
भ.आ./मू./636-638/836 उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु । वसइ असंसत्तए ण्णिप्पाहुडियाए-सेज्जाए ।636। सुहणिक्खवणपवेसुणघणाओ अवियडअणंधयाराओ ।637। घणकुड्डे सकवाडे गामबहिं बालबुढ्ढग-णजोग्गे ।638।
भ.आ./मू./229/442 वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं च अंतो वा ।...... ।229। =- जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित है, जिसमें जन्तुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं । (भ.आ./मू./230/443) - (विशेष देखें वसतिका - 7)
- जिसमें प्रवेश करना या जिसमें से निकलना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो ।637। जिसके किवाड़ व दीवारें मजबूत हों, जो ग्राम के बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकार के गण (मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका) आ जा सकते हों ।638। जिसके द्वार खुले हों या भिड़े हों, जो समभूमि युक्त हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्राम के बाह्य भाग में हो अथवा अन्त में हो ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं ।229।
- ध्यानाध्ययन में बाधा कारक व मोहोत्पादक न हो
भ.आ./मू./228, 635 जत्थ ण सोत्तिग अत्थि दु सद्दरसरूवगंधफासेहिं । सज्झायज्झाणवाधादो वा वसधी विवित्त सा ।228। पंचिंदियप्पयारो मणसंखेभकरणो जहिं णत्थि । चिठुदि तहिं तिगुत्ते ज्झाणेण सहप्पवत्तेण ।635। = जहाँ अमनोहर या मनोहर स्पर्श रस गन्ध रूप और शब्दों द्वारा अशुभ परिणाम नहीं होते, जहाँ स्वाध्याय व ध्यान में विघ्न नहीं होता ।228 । जहाँ रहने से मुनियों की इन्द्रियाँ विषयों की तरफ नहीं दौड़तीं, मन की एकाग्रता नष्ट नहीं होती और ध्यान निर्विघ्न होवे, ऐसी वसतिका में मुनि निवास करते हैं ।635।
मू.आ./949 जत्थ कसायुप्पत्तिरभत्तिंदियदारइत्थिजणबहुलं । दुक्खमुवसग्गबहुलं भिक्खू खेत्तं विवज्जेऊ ।949। = जिस क्षेत्र में कषाय की उत्पत्ति हो, आदर का अभाव हो, मूर्खता हो, इन्द्रियविषयों की अधिकता हो, स्त्री आदि बहुत जनों का संसर्ग हो तथा क्लेश व उपसर्ग हों, ऐसे क्षेत्र को मुनि अवश्य छोड़ दें ।
ज्ञा./27/31 किं च क्षोभाय मोहाय यद्विकाराय जायते । स्थानं तदपि मोक्तव्यं ध्यानविध्वंसशङ्कितैः ।31। = ध्यानविध्वंस के भय से क्षोभकारक, मोहक तथा विकार करने वाला स्थान भी छोड़ देना चाहिए ।31। (अनु. ध./7/30/681)
- कुशीलसंसक्त स्थानों से दूर होनी चाहिए
भ.आ./मू./633-634/834 गंधव्वणट्टजट्टस्सचक्कजंतग्गिकम्मफरुसे य । णत्तिजया पाडहि पाडहिडोंबणंडरा-यमग्गे ।633। चारण कोट्टगकल्लालकरकचे पुप्फदयसमीपे च । एवंविध वसधीए होज्ज समाधीए बाधादो ।634। = गन्धर्व, गायन, नृत्य, गज, अश्व आदि शालाओं के; तेली, कुम्हार, धोबी, नट, भांड, शिल्पी, कुलाल आदि के घरों के तथा राज्यमार्ग के तथा बगीचे व जलाशय के समीप में वसतिका होने से ध्यान में विघ्न पड़ता है ।633-634 ।
मू.आ./357 तेरिक्खी माणुस्सिय सविकारिणि-देविगेहिसंसत्ते । वज्जेंति अप्पमत्त णिलए सयणासणट्ठाणे ।357। = गाय आदि तिर्यंचिनी, कुशील स्त्री, भवनवासी व्यन्तरी देवी, असंयमी गृहस्थ, इनके रहने के निवासों को यत्नचारी मुनि शयन करने, बैठने व खड़े होने के लिए छोड़े ।
रा.वा./9/6/16/597/34 संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण स्त्रीक्षुद्रचौरपानाक्षशौण्डशाकुनिकादिपापजनवासा वर्ज्याः, शृङ्गारविकारभूषणोज्ज्वलवेषवेश्याक्रीडाभिरामगीतनृत्यवादित्राकुलशालादयश्च परिहर्त्तव्याः । = शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर संयत को स्त्री, क्षुद्र, जन्तु, चोर, मद्यपान, जूआ, शराबी और चिड़ीमार आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिये । और शृंगार, विकार, आभूषण, उज्ज्वलवेष, वेश्याक्रीड़ा, मनोहर गीत, नृत्य, वादित्र आदि से परिपूर्ण शालाओं आदि में रहने आदि का त्याग करना चाहिए । बो.पा./टी./57/120/20) ।
देखें कृतिकर्म - 3.4.3 (रुद्र आदि के मन्दिर तथा दुष्ट स्त्री पुरुषों से संसक्त स्थान ध्यान के लिए अत्यन्त निषिद्ध हैं ।)
- स्त्रियों व अन्य जन्तुओं आदि की बाधा से रहित व अनुकूल होनी चाहिए
भ.आ./मू./229/442 इत्थिणउंसयसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ।229। = जो स्त्री पुरुष व नपुंसक जनों से वर्जित हो, तथा जो शीत व उष्ण हो अर्थात् गर्मियों में शीत और सर्दियों में उष्ण हो, ऐसी वसतिका योग्य है ।
स.सि./1/19/438/10 विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यासनम्...कर्त्तव्यमिति । = एकान्त व जन्तुओं की पीड़ा से रहित स्थानों में मुनि को शय्या व आसन लगाना चाहिए । (रा.वा./9/19/12/619/13) ।
ध.13/5, 4, 26/58/8 त्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाणज्झेयविग्घकारणेहि वज्जिय....पदेसा विवित्तं णाम । = ध्यान और ध्येय में विघ्न के कारणभूत स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से रहित प्रदेश विविक्त कहलाते हैं । (बो.पा./टी./57/120/19 तथा 78/222/5) ।
देखें वसतिका नं.....[जिसमें जन्तुओं का वास न हो और जहाँ प्राणी बाहर से आकर न ठहरते हों, ऐसा स्थान योग्य है । (वसतिका/1 में भ.आ./मू./636) । स्त्रियों व बहुजन संसर्ग तथा क्लेश व उपसर्ग से रहित स्थान मुनियों के रहने योग्य है । (वसतिका/2/में मू.आ./949) । कुशीली स्त्रियों, तिर्यंचिनियों, देवियों, दुष्ट पुरुषों से संसक्त स्थान तथा देवी-देवताओं के मन्दिर वर्जनीय हैं (वसतिका/3) ।]
देखें कृतिकर्म - 3.4.2 [पवित्र, सम, निजन्तुक, स्त्रियों, नपुंसकों व पशुपक्षियों की कंटक आदि की बाधाओं से रहित स्थान ही ध्यान के योग्य हैं ।]
- नगर व ग्राम में बसने का निषेध
देखें वसतिका 1 में भ.आ./मू./229, 638 (मुनिकी या क्षपक की वसतिका ग्राम से बाहर या ग्राम के अन्त में होनी चाहिए ।)
आ.अनु./197-198 इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः । वनाद्विशंत्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ।197। वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसंपदः ।198। = जिस प्रकार सिंहादि के भय से मृगादि रात्रि के समय गाँव के निकट आ जाते हैं, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी वन को छोड़ गाँव के समीप रहने लगे हैं, यह खेद की बात है ।197। यदि आज का ग्रहण किया तप कल स्त्रियों के कटाक्षरूप लुटेरों के द्वारा वैराग्य सम्पत्ति से रहित कर दिया जाय तो इस तप की अपेक्षा तो गृहस्थ जीवन ही कहीं श्रेष्ठ था ।198।
- शून्य गृह, गिरिगुहा, वृक्ष की कोटर, श्मशान आदि स्थान साधु के योग्य हैं
भ.आ./मू./गा.सुण्णघरगिरिगुहारुक्खमूल......विचित्तइं ।231। उज्जाणघरे गिरिकंदरे गुहाए व सुण्णहरे ।638। = शून्यघर, पर्वत की गुफा, वृक्ष का मूल, अकृत्रिम गृह ये सब विविक्त वसतिकाएँ हैं ।231। उद्यानगृह, गुफा और शून्यघर ये भी वसतिका व क्षपक का संस्तर करने के योग्य माने गये हैं ।638।
मू.आ./950 गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं विरागबहुलं धीरो भिक्खू णिसेवेऊ ।950। = पर्वत की गुफा (व कन्दरा) शमशानभूमि, शून्यघर और वृक्ष की कोटर ऐसे वैराग्य के कारण-स्थानों में धीर मुनि रहें ।950। (मू.आ./787-789); (अन.ध./7/30/681) ।
बो.पा./मू./42 सुण्णहरे तरुहिट्ठे उज्जाणे तह मसाणवासे वा । गिरिगुह गिरिसिहरे वा भोमवणे अहव वसिते वा ।42। = श्मशानभूमि, गिरिगुफा, गिरिशिखर, भयानकवन, अथवा सूना घर, वृक्ष का मूल अर्थात् कोटर, उद्यानवन, वसतिका इनविषै दीक्षासहित मुनि तिष्ठै ।42।
त.सू./7/6 शून्यागारविमोचितावास... ।6। = शून्यागार विमोचितावास ये अचौर्यमहाव्रत की भावनाएँ हैं ।
स.सि./9/19/438/10 शून्यागारादिषु विविक्तेषु....संयतस्य शय्यासनम्....कर्त्तव्यमिति पञ्चमं तपः । = शून्यघर आदि विविक्त स्थानों में संयतको शय्यासन लगाना चाहिए । ये पाँचवाँ (विविक्त शय्यासन नाम का) तप है । (रा.वा./9/19/12/619/12); (वो.पा./टी./78/222/6) ।
रा.वा./9/6/16/597/36 अकृत्रिमगिरिगुहातरुकोटरादयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा... । = (शयनासन की शुद्धि में तत्पर संयत को) प्राकृतिक गिरिगुफा, वृक्ष की खोह, तथा शून्य या छोड़े हुए मकानों में बसना चाहिए ।
ध.13/5, 4, 26/58/8 गिरिगुहा-कंदर-पब्भार-सुसाण-सुण्णहरारामुज्जाणाओ पदेसा विवित्तं णाम । =गिरि की गुफा, कन्दरा, पब्भार (शिक्षागृह - देखें अगला शीर्षक ), शमशान, शून्यघर, आराम और उद्यान आदि प्रदेश विविक्त कहलाते हैं ।
देखें कृतिकर्म - 3.4.1 (पर्वत की गुफा, वृक्ष की कोटर, नदी का किनारा या पुल, शून्य घर आदि ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान हैं ।)
- अनुद्दिष्ट धर्मशाला आदि भी युक्त है
भ.आ./मू./231, 639....आगंतुगारदेवकुले । अकदप्पब्भारारामघरादीणि य विचित्तइं ।231। आगंतुघरादिसु वि कडएहिं य चिलिमिलीहिं कायव्वो । खवयस्सोगारा धम्मसवणमंडवादी य ।639। = देवमन्दिर, व्यापारार्थ भ्रमण करने वाले व्यक्तियों के निवासार्थ बनाये गये घर, पब्भार (शिक्षागृह), अकृत्रिम गृह, क्रीडार्थ आने-जाने वालों के लिए बनाये गये घर ये सब विविक्त वसतिकाएँ हैं ।231। व्यापारियों के ठहरने के लिए निर्माण किये गये घर या ऐसी वसतिकाएँ उपलब्ध न हों तो क्षपक के लिए बाँस व पत्तें आदि का आच्छादन या सभामंडप आदि भी काम में लाये जा सकते हैं ।639।
रा.वा./9/6/16/597/36 कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वर्तिता निरारम्भाः सेव्याः । = (शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर संयत को) शून्य मकान या छोड़े हुए ऐसे मकानों में बसना चाहिए जो उनके उद्देश से नहीं बनाये गये हों और न जिनमें उनके लिए कोई आरम्भ ही किया गया हो । - (और भी देखें वसतिका 1, 6) ।
- वसतिका के 46 दोषों का निर्देश
- उद्गम दोष निरूपण
भ.आ./वि./230/443/10 तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते वृक्षच्छेदस्तदानयनं, इष्टकापाकः भूमिखननं.... इत्येवमा-दिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन व कारिता वसतिराधाकर्मशब्देनाच्यते । यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिङ्गिनो वा तेषामियमित्युद्दिश्य कृता, पाषंडिनामेवेति वा श्रमणानामेवेति, निर्ग्रन्थानामेवेति सा उद्देसिगा वसदिति भण्यते । आत्मार्थं गृहं कुर्वता अपवरकं संयतानां भवत्विति कृतं अब्भोवब्भमित्युच्यते । आत्मानो गृहार्थमानीतैः काष्ठादिभिः सह बहुभिः श्रमणार्थमानीयाल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । पाषंडिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रेण निष्पादितं वेश्ममिश्रम् । स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति स्थापितं ठविदं इत्युच्यते । संयतः स च यावद्भिर्दिनैरागमिष्यति तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कारं सकलं करिष्यामः इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारितं वेश्म तत्पाहुडिगमित्युच्यते । (यक्षनागमातृकाकुलदेवताद्यर्थं कृतं गृहं तेभ्यश्च यथास्वं दत्तं तद्दत्तवशिष्टं यतिभ्यो दीयमानं बलिरित्युच्यते) । तदागमानुरोधेन गृहसंस्कारकालापह्नासं कृत्वा वा संस्कारिता वसतिः प्रदीपकं वा तत्प्रादुष्कृतमित्युच्यते । यद्गृहं अन्धकारबहुलं तत्र बहुप्रकाशसंपादनाय यतीनां छिद्रीकृत-कुड्यं, अपाकृतफलकं, सुविन्यस्तप्रदीपकं वा तत्पादुकारशब्देन भण्यते । द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं इति द्विविधं क्रीतं वेश्म, सचित्तं गोबलीवर्द्दादिक दत्वा संयतार्थक्रीतं, अचित्तं वा घृतगुड़खण्डादिकं दत्वा क्रीतं द्रव्यक्रीतम् । विद्यामन्त्रादिदानेन वा क्रीतं भावक्रीतम् । अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहितं अवृद्धिकं पा गृहीतं संयतेभ्यः पमिच्छं उच्यते । मदीये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मदीयं तावद्गृहं यतिभ्यः प्रयच्छेति गृहीतं परियट्टमित्युच्यते । कुडय्याद्यर्थं कुटीरककटादिकं स्वार्थं निष्पन्नमेव यत्संयतार्थमानीतं तदभ्यहिडमुच्यते । तद्द्विविधमाचरितमनाचरितमिति । दूरदेशाद्ग्रामान्तराद्वानीत-मनाचरितं । इष्टका-दिभिः, मृत्पिण्डेन, वृत्या, कवाटेनोपलेन वा स्थगितं अपनीय दीयते यत्तदुद्भिन्नं । निश्रेण्यादिभिरारुह्य इत आगच्छत युष्माकमियं वसतिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमिः सा मालारीहमित्युच्यते । राजामात्यादिभिर्भयमुपदर्श्य परकीयं यद्दीयते तदुच्यते अच्छेज्जं इति । अनिसृष्टं पुनर्द्विविधं । गृहस्वामिना अनियुक्तेन या दीयते वसतिः यत्स्वामिनापि बालेन परवशवर्तिना दीयते सोभय्यप्यनिसृष्टेति उच्यते । उद्गमदोषा निरूपिताः । =- झाड़ तोड़कर लाना, ईंटें पकवाना, जमीन खोदना,......इत्यादि क्रियाओं से षट्काय जीवों को बाधा देकर स्वयं वसतिका बनायी हो या दूसरों से बनवायी हो वह वसतिका अधःकर्म के दोष से दूषित है ।
- ‘‘दीन, अनाथ अथवा कृपण आवेंगे अथवा सर्वधर्म के साधु आवेंगे, किंवा जैनधर्म से भिन्न ऐसे साधु अथवा निर्ग्रन्थमुनि आवेंगे, उन सब जनों को यह वसतिका होगी’’, इस उद्देश्य से जो वसतिका बाँधी जाती है वह उद्देशिक दोष से दुष्ट है ।
- जब गृहस्थ अपने लिए घर बँधवाता है, तब कोठरी संयतों के लिए होगी’ ऐसा मन में विचारकर बँधवायी गयी वह वसतिका अब्भोब्भव दोष से दुष्ट है ।
- अपने घर के लिए लाये गये बहुत काष्ठादिकों से श्रमणों के लिए लाये हुए काष्ठादिक मिश्रण कर बनायी गयी जो वसतिका वह पूतिकदोष से दुष्ट है ।
- पाखंडी साधु अथवा गृहस्थों के लिए घर बाँधने का कार्य शुरू हुआ था, तदनन्तर संयतों के उद्देश्य से काष्ठादिकों का मिश्रण कर बनवायी जो वसतिका वह मिश्रदोष से दूषित समझना चाहिए ।
- गृहस्थ ने अपने लिए ही प्रथम बनवाया था परन्तु अनन्तर ‘यह गृह संयतों के लिए हो’ ऐसा संकल्प जिसमें हुआ है वह गृह स्थापितदोष से दुष्ट है ।
- ‘‘संयत अर्थात् मुनि इतने दिनों के अनन्तर आवेंगे अतः जिस दिन में उनका आगमन होगा उस दिन में सब घर झाड़कर, लीपकर स्वच्छ करेंगे,’’ ऐसा मन में संकल्प कर प्रवेश दिन में वसतिका का संस्कृत करना पाहुडिग नाम का दोष है ।
- (मूलाराधना दर्पण के अनुसार पाहुडिग से पहिले बलि नामक दोष है । उसका लक्षण वहाँ इस प्रकार किया है) - यक्ष, नाग, माता, कुलदेवता, इनके लिए घर निर्माण करके उनको देकर अवशिष्ट रहा हुआ स्थान मुनिको देना यह बलि नामक दोष है ।
- मुनि प्रवेश के अनुसार संस्कार के काल में ह्रासकर अर्थात् उनके पूर्व ही संस्कारित जो वसतिका वह प्रादुष्कृत दोष से दूषित समझनी चाहिए ।
- जिस घर में विपुल अन्धकार हो तो वहाँ प्रकाश के लिए भित्ति में छेद करना, वहाँ काष्ठ का फलक है तो उसे निकालना, उसमें दीपक की योजना करना यह प्रदुकारदोष है ।
- द्रव्यक्रीत और भावक्रीत ऐसे खरीदे हुए घर के दो भेद हैं । गाय, बैल, वगैरह सचित्त पदार्थ देकर संयतों के लिए खरीदा हुआ जो घर उसको सचित्त द्रव्यक्रीत कहते हैं । घृत, गुड़, खाँड़ ऐसे अचित पदार्थ देकर खरीदा हुआ जो घर उसको अचितद्रव्यक्रीत कहते हैं । विद्या मन्त्रादि देकर खरीदे हुए घर को भावक्रीत कहते हैं ।
- अल्प ॠण करके और उसका सूद देकर अथवा न देकर संयतों के लिए जो मकान लिया जाता है वह पामिच्छदोष से दूषित है ।
- ‘‘मेरे घर में आप ठहरो और आपका घर मुनियों को रहने के लिए दो -’’ ऐसा कहकर उनसे लिया जो घर वह परिपट्टदोष से दूषित समझना चाहिए ।
- अपने घर की भीत के लिए जो स्तम्भादिक सामग्री तैयार की थी वह संयतों के लिए लाना, सो अभिघट नामका दोष है । इसके आचरित व अनाचरित ऐसे दो भेद हैं । जो सामग्री दूर देश से अथवा अन्य ग्राम से लायी गयी होय तो उसको अनाचरित कहते हैं और जो ऐसी नहीं होय तो वह आचरित समझनी चाहिए ।
- ईंट, मिट्टी के पिण्ड, काँटों की बाड़ी अथवा किवाड़, पाषाणों से ढका हुआ जो घर खुला करके मुनियों को रहने के लिए देना वह उद्भिन्नदोष है ।
- ‘‘नसैनी (सीढ़ी) वगैरह से चढ़कर आप यहाँ आइए, आपके लिए यह वसतिका दी जाती है,’’ ऐसा कहकर संयतों को दूसरा अथवा तीसरा मंजिला रहने के लिए देना, यह मालारोह नामका दोष है ।
- राजा अथवा प्रधान इत्यादिकों से भय दिखाकर दूसरों का गृहादिक यतियों को रहने के लिए देना वह अच्छेज्ज नामका दोष है ।
- अनिसृष्ट दोष के दो भेद हैं - जो दानकार्य में नियुक्त नहीं हुआ है ऐसे स्वामी से जो वसतिका दी जाती है वह अनिसृष्ट दोष से दूषित है । और जो वसतिका बालक और परवश ऐसे स्वामी से दी जाती है वह अनिसृष्ट दोष से दूषित समझनी चाहिए । इस तरह उद्गम दोष निरूपण किये ।
- उत्त्पादन दोष निरूपण
भ.आ./वि.230/444/6 उत्पादनदोषा निरूप्यन्ते - पञ्चविधानां धात्रीकर्मणां अन्यतमेनोत्पादिता वसतिः । काचिद्दारकं स्नपयति, भूषयति, क्रीडयति, आशयति, स्वापयति बा । वसत्यर्थमेवोत्पादिता वसतिर्धात्रीदोषदुष्टा । ग्रामान्तरान्नगरान्तराच्च देशादन्य देशतो वा सम्बन्धिनां वार्तामभिधायोत्पादिता दुतकर्मोत्पादिता । (अङ्ग, स्वरो, व्यञ्जनं, लक्षणं, छिन्नं, भौमं, स्वप्नोऽन्तरिक्षमिति एवं भूतनिमित्तेपदेशेन लब्धा वसतिर्निमित्तदोषदुष्टा । आत्मनो जातिं, कुलं, ऐश्वर्यं वाभिधाय स्वमाहात्म्यप्रकटनेनोत्पादिता वसतिराजीवशब्देनोच्यते । भगवन्सर्वेषां आहारदानाद्वसतिदानाच्च पुण्यं किमु महदुपजायते इति पृष्टो न भवतीत्युक्ते गृहिजनः प्रतिकूलवचनरुष्टो वसतिं न प्रयच्छेदिति एवमिति तदनुकूलमुक्त्वा योत्पादिता सा वणिगवा शब्देनोच्यते । अष्टविधया चिकित्सया लब्धा चिकित्सोत्पादिता । क्रोधोत्पादिता (क्रोधं, मानं, मायां, लोभं वा प्रयुज्योत्पादिता क्रोधादिचतुष्टयदुष्टा) । गच्छतामागच्छतां च यतीनां भवदीयमेव गृहमाश्रयः इतीयं वार्ता दूरादेवास्माभिः श्रतेति पूर्वं स्तुत्वा या लब्धा । वसनोत्तरकालं च गच्छन्प्रशंसां करोति पुनरपि वसतिं लप्स्ये इति । एवं उत्पादितासंस्तवदोषदुष्टाः । विद्यया, मन्त्रेण, चूर्ण प्रयोगेण वा गृहिणं वशे स्थापयित्वा लब्धा । मूलकर्मणा वा भिन्नकन्यायोनिसंस्थापना मूलकर्म । विरक्तानां अनुरागजननं वा । उत्पादनाख्योऽभिहितो दोषः षोडशप्रकारः । =- धात्री पाँच प्रकार की है - बालक को स्नान कराने वाली,उसे वस्त्राभूषण पहनाने वाली, उसका मन प्रसन्न करने वाली, उसे अन्नपान कराने वाली और उसे सुलाने वाली । इन पाँच कार्यों में से किसी भी कार्य का गृहस्थ को उपदेश देकर उससे यति अपने रहने के लिए वसतिका प्राप्त करते हैं । अतः वह वसतिका धात्रीदोष से दुष्ट है ।
- अन्यग्राम, अन्य नगर और अन्य देश के सम्बन्धीजनों की वार्ता श्रावक को निवेदित कर वसतिका प्राप्त करना दूतकर्म नाम का दोष है ।
- अंग, स्वर आदि आठ प्रकार के निमित्तशास्त्र का उपदेश कर श्रावक से वसतिका की प्राप्ति करना निमित्त नाम का दोष है ।
- अपनी जाति, कुल, ऐश्वर्य वगैरह का वर्णन कर अपना माहत्म्य श्रावक को निवेदन कर वसतिका की प्राप्ति करना आजीव नामक दोष है ।
- हे भगवन् ! सर्व लोगों को आहार व वसतिका का दान देने से क्या महान् पुण्य की प्राप्ति न होगी? ऐसा श्रावक का प्रश्न सुनकर यदि मैं पुण्य प्राप्ति नहीं होती, ऐसा कहूँ तो श्रावक वसतिका न देगा ऐसा मन में विचार कर उसके अनुकूल वचन बोलकर वसतिका की प्राप्ति करना वणिग दोष है ।
- आठ प्रकार की चिकित्सा करके वसतिका की प्राप्ति करना चिकित्सा नामक दोष है ।
- 7-10. क्रोध, मान, माया व लोभ दिखाकर वसतिका प्राप्त करना क्रोधादि चतुष्टय दोष है ।
- जाने वाले और आने वाले मुनियों को आपका घर ही आश्रय स्थान है । यह वृत्तन्त हमने दूर देश में भी सुना है ऐसी प्रथम स्तुति करके वसतिका प्राप्त करना पूर्वस्तुति नाम का दोष है ।
- निवासकर जाने के समय पुनः भी कभी रहने के लिए स्थान मिले इस हेतु से (उपरोक्त प्रकार ही) स्तुति करना पश्चात्स्तुति नाम का दोष है ।
- 13-15. विद्या, मन्त्र अथवा चूर्ण प्रयोग से गृहस्थ को अपने वशकर वसतिका की प्राप्ति कर लेना विद्यादि दोष हैं ।
- भिन्न जाति की कन्या के साथ सम्बन्ध मिलाकर वसतिका प्राप्त करना अथवा विरक्तों को अनुरक्त करने का उपाय कर उनसे वसतिका प्राप्त कर लेना मूलकर्म नाम का दोष है । इस प्रकार उत्पादन नामक दोष के 16 भेद हैं ।
- एषणादोष निरूपण
भ.आ./वि./230/444/16 अथ एषणादोषान्दश प्राह-किमियं योग्या वसतिर्नेति शङ्किता । तदानीमेव सिक्ता सत्यालिप्ता सती वा छिद्रस्त्रुतजलप्रवाहेण वा, जलभाजनलोठनेन वा तदानीमेव लिप्ता वा म्रश्रितेत्युच्यते । सचित्तपृथिव्या, अपां, हरितानां, बीजानां त्रसानां उपरि स्थापितं पीठफलकादिकं अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते सा पिहिता । काष्ठचेलकण्टकप्रावरणाद्याकर्षणं कुर्वता पुरोयायिनोपदर्शिता वसतिः साहारणशब्देनोच्यते । मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनने, मत्तेन, व्याधितेन, नपुंसकेन, पिशाचगृहीतेन, नग्नया वा दीयमाना वसतिर्दांयकदुष्टा । स्थावरैः पृथिव्यादिभिः, त्रसैः पिपीलिकमत्कुणादिभिः सहितोन्मिश्रा । अधिकवितस्तिमात्राया भूमेरधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरेकदोषः । शीतवातातपाद्युपद्रवसहिता वसतिरियमिति निन्दां कुर्वतो वसनं धूमदोषः । निर्वाता, विशाला, नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रानुराग इंगाल इत्युच्यते । =- ‘यह वसतिका योग्य है अथवा नहीं है’, ऐसी जिस वसतिका के विषय में शंका उत्पन्न होगी वह शंकितदोष से दूषित समझनी चाहिए ।
- वसतिका तत्काल ही लीपी गयी है, अथवा छिद्र से निकलने वाले जलप्रवाह से किंवा पानी का पात्र लुढ़काकर जिसकी लीपापोती की गयी है वह म्रक्षित वसतिका समझनी चाहिए ।
- सचित्त जमीन के ऊपर अथवा पानी, हरित बनस्पति, बीज वा त्रसजीव इनके ऊपर पीठ फलक वगैरह रखकर ‘यहाँ आप शय्या करें’ ऐसा कहकर जो वसतिका दी जाती है वह निक्षिप्तदोष से युक्त है ।
- हरितकाय वनस्पति, काँटे, सचित्त मृत्तिका, वगैरह का आच्छादन हटाकर जो वसतिका दी जाती है वह पिहितदोष से युक्त है ।
- लकड़ी, वस्त्र, काँटे इनका आकर्षण करता हुआ अर्थात् इनको घसीटता हुआ आगे जाने वाला जो पुरुष उससे दिखायी गयी जो वसतिका वह साधारणदोष से युक्त होता है ।
- जिसको मरणाशौच अथवा जननाशौच है, जो मत्त, रोगी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त और नग्न है ऐसे दोष से युक्त गृहस्थ के द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायकदोष से दूषित है ।
- पृथिवी जल स्थावर जीवों से और चींटी खटमल वगैरह वगैरह त्रस जीवों से जो युक्त है, वह वसतिका उन्मिश्रदोष सहित समझना चाहिए ।
- मुनियों को जितने बालिश्त प्रमाण भूमि ग्रहण करनी चाहिए, उससे अधिक प्रमाण भी भूमिका ग्रहण करना यह प्रमाणातिरेक दोष है ।
- ‘‘ठण्ड, हवा और कड़ी धूप वगैरह उपद्रव इस वसतिका में हैं’’ ऐसी निन्दा करते हुए वसतिका में रहना धूमदोष है।
- ‘‘यह वसतिका वात रहित है’’, विशाल है, अधिक उष्ण है और अच्छी है, ऐसा समझकर उसके ऊपर राग भाव करना यह इंगाल नाम का दोष है।
- उद्गम दोष निरूपण
- अन्य सम्बन्धित विषय
- वीतरागियों के लिए स्थान का कोई नियम नहीं। - देखें कृतिकर्म - 3.4.4।
- विविक्त वसतिका का महत्त्व। - देखें विविक्त शय्यासन ।
- वसतिका में प्रवेश आदि के समय निःसही और असही शब्द का प्रयोग। - देखें असही ।
- अनियत स्थानों में निवास तथा इसका कारण प्रयोजन। - देखें विहार ।
- एक स्थान पर टिकने की सीमा। - देखें विहार ।
- पञ्चमकाल में संघ से बाहर रहने का निषेध। - देखें विहार ।
- वसतिका के अतिचार। - देखें अतिचार - 3।
- वीतरागियों के लिए स्थान का कोई नियम नहीं। - देखें कृतिकर्म - 3.4.4।