निगोद निर्देश
From जैनकोष
- निगोद निर्देश
- निगोद सामान्य का लक्षण
ध.14/5, 6, 93/85/13 के णिगोदा णाम । पुलवियाओ णिगोदा त्ति भणंति । = प्रश्न−निगोद किन्हें कहते हैं? उत्तर−पुलवियों को निगोद कहते हैं । विशेष देखें वनस्पति - 3.7 । (ध.14/5, 6, 582/470/1) ।
गो.जी./जी.प्र./191/429/15 साधारणनामकर्मोदयेन जीवा निगोदशरीरा भवन्ति । नि-नियतां गां-भूमिं क्षेत्रं निवासं, अनन्तानन्तजीवानां ददाति इति निगोदम् । निगोदशरीरं येषां ते निगोदशरीरा इति लक्षणसिद्धत्वात् । = साधारण नामक नामकर्म के उदय से जीव निगोद शरीरी होता है । ‘नि’ अर्थात् अनन्तपना है निश्चित जिनका ऐसे जीवों को, ‘गो’ अर्थात् एक ही क्षेत्र, ‘द’ अर्थात् देता है, उसको निगोद कहते हैं । अर्थात् जो अनन्तों जीवों को एक निवास दे उसको निगोद कहते हैं । निगोद ही शरीर है जिनका उनको निगोद शरीरी कहते हैं ।
- निगोद जीवों के भेद
ध.14/5, 6, 128/236/5 तत्थ णिगोदेसु जे ट्ठिदा जीवा ते दुविहाचउग्गइणिगोदा णिच्चणिगोदा चेदि । = निगोदों में स्थित जीव दो प्रकार के हैं−चतुर्गतिनिगोद और नित्यनिगोद (ये दोनों बादर भी होते हैं सूक्ष्म भी का.अ.) (का.अ./मू./125) ।
- नित्य व अनित्य निगोद के लक्षण
- नित्यनिगोद
ष.खं.14/5, 6/सू.127/233 अत्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्ते तसाण परिणामो भावकलंकअपउरा णिगोदवासं ण मुचंति ।127। = जिन्होंने अतीत काल में त्रसभाव को नहीं पाया है ऐसे अनन्त जीव हैं, क्योंकि वे भाव कलंक प्रचुर होते हैं, इसलिए निगोदवास को नहीं त्यागते ।127। (मू.आ./1203), (पं.सं./प्रा./1/85), (ध.1/1, 1, 41/गा.148/271), (ध.4/1, 5, 310/गा.42/477), गो.जी./मू./194/441) (पं.सं./सं./1/110), (का.अ./टी./125) ।
रा.वा./2/32/27/143/20 त्रिष्वपि कालेषु त्रसभावयोग्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोताः । = जो कभी त्रस पर्याय को प्राप्त करने के योग्य नहीं होते, वे नित्य निगोद हैं ।
ध.14/5, 6, 128/236/8 तत्थ णिच्चणिगोदा णाम जे सव्वकालंणिगोदेसु चेव अच्छंति ते णिच्चणिगोदा णाम । = जो सदा निगोदों में ही रहते हैं वे नित्य निगोद हैं ।
- अनित्य निगोद
रा.वा./2/32/27/143/21 त्रसभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति च ये ते अनित्यनिगोताः । =जिन्होंने त्रस पर्याय पहले पायी थी अथवा पायेंगे वे अनित्य निगोद हैं ।
ध.14/5, 6, 128/236/6 जे देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्सेसूप्पज्जियूण पुणो णिगोदेसु पविसिय अच्छंति ते चदुगइणिच्चगोदा णाम । = जो देव, नारकी तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुनः निगोदों में प्रवेश करके रहते हैं वे चतुर्गतिनिगोद जीव कहे जाते हैं । (गो.जी./जी.प्र./197/441/14) ।
- नित्यनिगोद
- सूक्ष्म वनस्पति तो निगोद ही है, पर सूक्ष्म निगोद वनस्पतिकायिक ही नहीं है
ष.खं.7/2, 10/सू.31-32/504 सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहुमणिगोदजीवपज्जत्त सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ।31। संखेज्जा भागा ।32।
ध.7/2, 1, 32/504/12 सुहुमवणप्फदिकाइए भणिदूण पुणो सुहुमणिगोदजीवे वि पुध भणदि, एदेण णव्वदि जधा सव्वे सुहुमवणप्फदिकाइया चेव सुहुमणिगोदजीवा ण होंति त्ति । जदि एवं तो सव्वे सुहुमवणप्फदिकाइया णिगोदा चेवेत्ति एदेण वयणेण विरुज्झदि त्ति भणिदे ण विरुज्झदे, सुहुमणिगोदा सुहुमवणप्फदिकाइया चेवेत्ति अव्हारणाभावादो ।... कधमेदं णव्वदे । बादरणिगोदजीवा णिगोदपदिट्ठिदा अप्पज्जत्त असंखेज्जगुणा (ष.खं.7/2, 11/सू.86/545) णिगोद पदिट्ठिदाणं बादरणिगोदजीवा त्ति णिद्देसादो, बादरवणप्फदिकाइयाणमुवरि ‘णिगोदजीवा विसेसाहिया’ (ष.खं.7/2, 11/सू.75/539) त्ति भणिदवयणादो च णव्वदे ।
ध.7/2, 11, 75/539/11 एत्थ चीदगो भणदि-णिप्फलमेदं सुत्तं, वणप्फदिकाइएहिंतो पुधभूदणिगोदाणा-मणुवलंभादो । ण च वणप्फदिकाइएहिंतो पुधभूदा पुढविकाइयादिसु णिगोदा अत्थि त्ति आइरियाणमुवदेसो जेणेदस्स वयणस्स सुत्तत्तं पसज्जदे इदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे-होदु णाम तुब्भेहिं वुत्तस्स सच्चत्तं, बहुएसु सुत्तेसु वणप्फदीणं उवरि णिगोदपदस्स अणुवलंभादो णिगोदाणामुवरि वणप्फदिकाइयाणं पढणस्सुवलंभादो बहुएहि आइरिएहि संमदत्तदो च । किं तु एदं सुत्तमेव ण होदि त्ति णावहारणं काउं जुत्तं । सो एवं भणदि जो चोदसपुव्वधरो केवलणाणी वा ।... तदो थप्पं काऊण वे वि सुत्तणि सुत्तसायणभीरुहि आइरिएहि वक्खाणेयव्वाणि त्ति । = सूक्ष्म वनस्पतिकायिक व सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्त सर्व जीवों के कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? ।31। उपर्युक्त जीव सर्व जीवों के संख्यात बहुभाग-प्रमाण हैं ।32.... सूक्ष्म वनस्पतिकायिक को कहकर पुनः सूक्ष्म निगोद जीवों को भी पृथक् कहते हैं, इससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोद जीव नहीं होते । प्रश्न - यदि ऐसा है तो ‘सर्व सूक्ष्म वनस्पतिकायिक निगोद ही हैं’ इस वचन के साथ विरोध होगा? उत्तर - उक्त वचन के साथ विरोध नहीं होगा, क्योंकि सूक्ष्म निगोद जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही हैं, ऐसी यहाँ अवधारण नहीं है ।.... प्रश्न - यह कैसे जाना जाता है? उत्तर - (बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तों से निगोद प्रतिष्ठित बादर निगोदजीव अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं । यहाँ पर) निगोद प्रतिष्ठित जीवों के बाद ‘निगोद जीव’ इस प्रकार के निर्देश से, तथा (‘वनस्पतिकायिकों से निगोद जीव विशेष अधिक हैं, इस सूत्र में) बादर वनस्पतिकायिकों के आगे ‘निगोद जीव विशेष अधिक हैं’ इस प्रकार कहे गये सूत्र वचन से भी जाना जाता है । प्रश्न - यहाँ शंकाकार कहता है कि यह सूत्र निष्फल है, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों से पृथग्भूत निगोद जीव पाये नहीं जाते तथा ‘वनस्पतिकायिक जीवों से पृथग्भूत पृथिवीकायिकादिकों में निगोद जीव पाये नहीं जाते तथा वनस्पतिकायिक जीवों से पृथग्भूत पृथिवी कायिकादिकों में निगोद जीव हैं’ ऐसा आचार्यों का उपदेश भी नहीं है, जिससे इस वचन को सूत्रत्व का प्रसंग हो सके? उत्तर - यहाँ उपर्युक्त शंका का परिहार कहते हैं - तुम्हारे द्वारा कहे हुए वचन में भले ही सत्यता हो, क्योंकि बहुत से सूत्रों में वनस्पतिकायिक जीवों के आगे ‘निगोद’ पद नहीं पाया जाता, निगोद जीवों के आगे वनस्पतिकायिकों का पाठ पाया जाता है, ऐसा बहुत से आचार्यों से सम्मत भी है । किन्तु ‘यह सूत्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चय करना उचित नहीं है । इस प्रकार तो वह कह सकता है जो कि चौदह पूर्वों का धारक हो अथवा केवलज्ञानी हो ।... अतएव सूत्र की आशातना (छेद या तिरस्कार) से भयभीत रहने वाले आचार्यों को स्थाप्य समझकर दोनों ही सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिए ।
- प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को उपचार से सूक्ष्म निगोद भी कह देते हैं
ध.7/2, 10, 32/505/3 के पुण ते अण्णे सुहुमणिगोदा सुहुमवणप्फदिकाइये मोत्तूण । ण, सुहुमणिगोदेसु व तदाधारेसु वणप्फदिकाइएसु वि सुहुमणिगोदजीवत्तसंभवादो । तदो सुहुमवणप्फदिकाइया चेव सुहुमणिगोदजीवा ण होंति त्ति सिद्धं । सुहुमकम्मोदएण जहा जीवाणं वणप्फदिकाइयादीणं सुहुमत्तं होदि तहा णिगोदणामकम्मोदएण णिगोदत्तं होदि । ण च णिगोदणामकम्मोदओ बादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणमत्थि जेण तेसिं णिगोदसण्णा होदि त्ति भणिदे-ण, तेसिं पि आहारे आहेओवयारेण णिगोदत्तविरोहादो । = प्रश्न - तो फिर सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों को छोड़कर अन्य सूक्ष्म निगोद जीव कौन-से हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि सूक्ष्म निगोद जीवों के समान उनके आधारभूत (बादर) वनस्पतिकायिकों में भी सूक्ष्म निगोद जीवत्व की सम्भावना है । इस कारण ‘सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोद जीव नहीं होते, यह बात सिद्ध होती है । प्रश्न - सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिस प्रकार वनस्पतिकायिकादिक जीवों के सूक्ष्मपना होता है, उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदय से निगोदत्व होता है । किन्तु बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों के निगोद नामकर्म का उदय नहीं है जिससे कि उनकी ‘निगोद’ संज्ञा हो सके? उत्तर - नहीं, क्योंकि बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों के भी आधार में आधेय का उपचार करने से निगोदपने का कोई विरोध नहीं है ।
- प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को उपचार से बादर निगोद भी कहते हैं
ध.1/1, 1, 41/271/5 बादरनिगोदप्रतिष्ठिताश्चार्षान्तिरेषु श्रूयन्ते, क्व तेषामन्तर्भावश्चेत् प्रत्येकशरीरवनस्प-तिष्विति ब्रूमः । के ते । स्नुगार्द्रकमूलकादयः । = प्रश्न - बादर निगोदों से प्रतिष्ठित वनस्पति दूसरे आगमों में सुनी जाती है, उसका अन्तर्भाव वनस्पति के किस भेद में होगा? उत्तर - प्रत्येक शरीर वनस्पति में उसका अन्तर्भाव होगा, ऐसा हम कहते हैं । प्रश्न - जो बादर निगोद से प्रतिष्ठित हैं, वे कौन हैं? उत्तर - थूहर, अदरख और मूली आदिक वनस्पति बादर निगोद से प्रतिष्ठित हैं ।
ध.2/1, 2, 87/347/7 पत्तेगसाधारणसरीरवदिरित्ते बादरणिगोदपदिट्ठिदरासी ण जाणिज्जदि त्ति वुत्ते सच्चं, तेहिं वदिरित्ते वणप्फइकाइएसु जीवरासी णत्थि चेव, किं तु पत्तेयसरीरा दुविहा भवंति बादरणिगोदजीवाणं जोणीभूदसरीरा तव्विवरीदसरीरा चेदि । तत्थ जे बादरणिगोदाणं जोणीभूदसरीरपत्तेगसरीरजीवा ते बादरणिगोदपदिट्ठिदा भणंति । के ते । मूलयुद्ध-भल्लय सूरण-गलोइ-लोगेसरपभादओ । = प्रश्न - प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर, इन दोनों जीव राशियों को छोड़कर बादरनिगोद प्रतिष्ठित जीवराशि क्या है, यह नहीं मालूम पड़ता है? उत्तर - यह सत्य है कि उक्त दोनों राशियों के अतिरिक्त वनस्पतिकायिकों में और कोई जीव राशि नहीं है, किन्तु प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं, एक तो बादरनिगोद जीवों के योनिभूत प्रत्येक शरीर और दूसरे उनसे विपरीत शरीरवाले अर्थात् बादरनिगोद जीवों के अयोनिभूत प्रत्येकशरीर जीव । उनमें से जो बादरनिगोद जीवों के योनिभूत शरीर प्रत्येकशरीर जीव हैं उन्हें बादरनिगोद प्रतिष्ठित कहते हैं । प्रश्न - वे बादरनिगोद जीवों के योनिभूत प्रत्येक शरीर जीव कौन हैं? उत्तर - मूली, अदरक (?), भल्लक (भद्रक), सूरण, गलोइ (गुडुची या गुरवेल), लोकेश्वरप्रभा? आदि बादरनिगोद प्रतिष्ठित हैं ।
ध.7/2, 11, 75/540/8 णिगोदाणामुवरि वणप्फदिकाइया विसेसाहिया होंति बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरमेत्तेण, वणप्फदिकाइयाणं उवरि णिगोदा पुण केण विसेसाहिया होंति त्ति भणिदे वुच्चदे । तं जहा-वणप्फदिकाइया त्ति वुत्ते बादरणिगोदपदिट्ठिदापदिट्ठिदजीवा ण घेत्तव्वा । कुदो । आधेयादो आधारस्स भेददंसणादो । वणप्फदिणामकम्मोद-इल्लत्तणेण सव्वेसिमेगत्तमत्थि त्ति भणिदे होदु तेण एगत्तं, किंतु तमेत्थ अविवक्खियं आहारअणाहारत्तं चेव विवक्खियं । तेण वणप्फदिकाइएसु बादरणिगोदपदिट्ठिदापदिट्ठिदा ण गहिदा । वणप्फदिकाइयाणामुवरि ‘णिगोदा विसेसाहिया’ त्ति भणिदे बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरे हि बादरणिगोदपदिट्ठिदेहि य विसेसाहिया । बादरणिगोदपदिट्ठिदापदिट्ठिदाणं कधं णिगोदववएसो । ण, आहारे आहेओवयारादो तेसिं णिगोदत्तसिद्धीदो । वणप्फदिणामकम्मोदइल्लाणं सव्वेसिं वणप्फदिसण्णा सुत्ते दिस्सदि । बादरणिगोदपदिट्ठिदअपदिट्ठिदाणमेत्थ सुत्ते वणप्फदिसण्णा किण्ण णिद्दिट्ठा । गोदमो एत्थपुच्छेयव्वो । अम्हेहिगोदमो बादरणिगोदपदिट्ठिदाणं वणप्फदिसण्णं णेच्छदि त्ति तस्स अहिप्पओ कहिओ । = प्रश्न - निगोद जीवों के ऊपर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर मात्र से विशेषाधिक होते हैं, परन्तु वनस्पतिकायिक जीवों के आगे निगोदजीव किसमें विशेष अधिक होते हैं । उत्तर - उपर्युक्त शंकाका उत्तर इस प्रकार देते हैं - ‘वनस्पतिकायिकजीव’ ऐसा कहने पर बादर निगोदों से प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवों का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि आधेय से आधार का भेद देखा जाता है । प्रश्न - वनस्पति नामकर्म के उदय से संयुक्त होने की अपेक्षा सबों के एकता है । उत्तर - वनस्पति नामकर्मोदय की अपेक्षा एकता रहे, किन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है । यहाँ आधारत्व और अनाधारत्व की ही विवक्षा है । इस कारण वनस्पतिकायिक जीवों में बादर निगोदों से प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवों का ग्रहण नहीं किया गया । वनस्पतिकायिक जीवों के ऊपर ‘निगोदजीव विशेष अधिक हैं’ ऐसा कहने पर बादरनिगोद जीवों से प्रतिष्ठित बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों से विशेष अधिक हैं । प्रश्न - बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवों के ‘निगोद’ संज्ञा कैसे घटित होती है? उत्तर - नहीं, क्योंकि आधार में आधेय का उपचार करने से उनके निगोदत्व सिद्ध होता है । प्रश्न - वनस्पति नामकर्म के उदय से संयुक्त सब जीवों के ‘वनस्पति’ संज्ञा सूत्र में देखी जाती है । बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवों के यहाँ सूत्र में वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं निर्दिष्ट की? उत्तर - इस शंका का उत्तर गौतम से पूछना चाहिए । हमने तो ‘गौतम बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित जीवों के वनस्पति संज्ञा नहीं स्वीकार करते’ इस प्रकार उनका अभिप्राय कहा है ।
- साधारण जीव को ही निगोद जीव कहते हैं
मो.जी./मू.व जो.प्र./191/429 साहारणोदयेण णिगोदसरीरा हवंति सामण्णा ।... ।191। - निगोदशरीरं येषां ते निगोदशरीराः इति लक्षणसिद्धत्वात् । = साधारण नामकर्म के उदय से निगोद शरीर को धारण करने वाला साधारण जीव होता है ।.... निगोद (देखें वनस्पति - 2.1) ही है शरीर जिनका उनको निगोदशरीरा कहते हैं ।
का.अ./टी./125/63 साधारणनामकर्मोदयात् साधारणाः साधारणनिगोदाः । = साधारण नामकर्म के उदय से साधारण वनस्पतिकायिक जीव होते हैं, जिन्हें निगोदिया जीव भी कहते हैं ।
- विग्रहगति में निगोदिया जीव साधारण ही होते हैं प्रत्येक नहीं
ध.14/5, 6, 91/81/10 विग्गहगदीए वट्टमाणा बादर-सुहुम-णिगोद जीवा पत्तेयसरीरा ण होंतिः णिगोदणाम कम्मोदयसहगदत्तेण विगाहगदीए वि एगबधणद्धाणंतजीवसमूहत्तदो ।.... विग्गहगदीए सरीरणाम कम्मोदयाभावादो ण पत्तेयसरीरत्तं ण साहारणसरीरत्तं । तदो ते पत्तेयसरीर-बादर-सुहुमणिगोदवग्गणासु ण कत्थ वि वुत्ते वुच्चदे ण एस दोसो, विग्गहगदीए बादर-सुहुमणिगोदणामकम्माणमुदयदंसणेण तत्थवि बादर-सुहुमणिगोददव्ववग्गणाणमुवलंभादो । ऐदहितो बदिरित्त जीवा गहिदसरीरा अगहिदसरीरा वा पत्तेयसरीरवग्गणा होंति । = विग्रहगति में विद्यमान बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव प्रत्येक-शरीर वाले नहीं होते हैं, क्योंकि निगोद नामकर्म के उदय के साथ गमन होने के कारण विग्रहगति में भी एक बद्धनबद्ध अनन्त जीवों का समूह पाया जाता है ।... प्रश्न - विग्रहगति में शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ न तो प्रत्येक शरीरपना प्राप्त होता है और न साधारण शरीरपना ही प्राप्त होता है । इसलिए वे प्रत्येक शरीर, बादर और सूक्ष्म निगोद वर्गणाओं में से किन्हीं में भी अन्तर्भूत नहीं होती है । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विग्रहगति में बादर और सूक्ष्म निगोद नामकर्मों का उदय दिखाई देता है, इसलिए वहाँ पर भी बादर और सूक्ष्म निगोद वर्गणाएँ उपलब्ध होती हैं और इनसे अतिरिक्त जिन्होंने शरीरों को ग्रहण कर लिया है या नहीं ग्रहण किया है वे सब जीव प्रत्येक शरीर वर्गणा वाले होते हैं ।
- निगोदिया जीव का आकार
देखें अवगाहना - 1.4 (प्रथम व द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्म निगोदिया का आकार आयत चतुस्त्र होता है और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्मनिगोद का आकार गोल होता है ।)
- सूक्ष्म व बादर निगोद वर्गणाएँ व उनका लोक में अवस्थान
ष.खं.14/5, 6/सू.नं.व टीका/492-494 बादरणिगोदवग्गणाए जहण्णियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ते णिगोदाणां ।636। - ‘सुहुमणिगोदवग्गणाए जहण्णियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेणिगोदाणं ।637।’ - एसा जहण्णिया सुहुमणिगोदवग्गणा जले थले आगासे वा होदि, दव्व-खेत्त-कालभावणियमाभावादो । ‘सुहुमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ते णिगोदाणं ।638।’ - एसा पुण सुहुमणिगोदुक्कस्सवग्गणा महामच्छसरीरे चेव होंति ण अण्णत्थ उवदेसाभावादो । ‘बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जदि भागमेत्ते णिगोदाणं ।639।’ - मूलयथूहल्लयादिसु सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवीओ अणंतजीवावुरिद असंखेज्जलोगसरीराओ घेत्तूण बादरणिगोदुक्कस्सबग्गणा होदि । ‘एदेसिं चेव सव्वणिगोदाणं मूलमहाखंधट्ठाणाणि ।640।’ - सव्वणिगोदाणमिदि वुत्ते सव्ववादरणिगोदाणमिदि घेत्तव्वं । सुहुमणिगोदाकिण्ण गहिदा । ण, एत्थेव ते उप्पज्जंति अण्णत्थ ण उप्पज्जंति त्ति णियमाभावादो । = ‘जघन्य बादर निगोद वर्णणा में निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भाग मात्र होता है ।636।’ ‘जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा में निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं ।637।’ - यह जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा जल में, स्थल में और आकाश में होती है, इसके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का कोई नियम नहीं है । ‘उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा में निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं ।638।’ - यह उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा महामत्स्य के शरीर में ही होती है, अन्यत्र नहीं होती, क्योंकि अन्यत्र होती हैं ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता । ‘उत्कृष्ट बादरनिगोद वर्गणा में निगोदों का प्रमाण जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र है ।639।’ मूली, थूवर और आर्द्रक आदि में अनन्त जीवों से व्याप्त असंख्यात लोक प्रमाण शरीर वाली जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण पुलवियाँ (पुलवियों को लेकर उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा) होती है । ‘इन्हीं सब निगोदों का मूल महास्कन्धस्थान हैं ।640।’ सब निगोदों का ऐसा कहने पर सब बादर निगोदों का ऐसा ग्रहण करना चाहिए । प्रश्न - सूक्ष्म निगोदों का ग्रहण क्यों नहीं किया है । उत्तर - नहीं, क्योंकि यहाँ ही वे उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते ऐसा कोई नियम नहीं है ।
- निगोद सामान्य का लक्षण