क्रिया
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
गमन कम्पन आदि अर्थों में क्रिया शब्द का प्रयोग होता है। जीव व पुद्गल ये दो ही द्रव्य क्रिया शक्ति सम्पन्न माने गये हैं। संसारी जीवों में, और अशुद्ध पुद्गलों की क्रिया वैभाविक होती है। और मुक्तजीवों व पुद्गल परमाणुओं की स्वाभाविक। धार्मिक क्षेत्र में श्रावक व साधुजन जो कायिक अनुष्ठान करते हैं वे भी हलन-चलन होने के कारण क्रिया कहलाते हैं। श्रावक की अनेकों धार्मिक क्रियाएँ आगम में प्रसिद्ध हैं।
- क्रिया सामान्य निर्देश
- गणितविषयक क्रिया
ध./5/प्र.27 Operation
- क्रिया सामान्य के भेद व लक्षण
रा.वा./5/12/7/455/4 क्रिया द्विविधा-कर्तृसमवायिनी कर्मसमवायिनी चेति। तत्र कर्तृ समवायिनी आस्ते गच्छतीति। कर्मसमवायिनी ओदनं पचति, कुशूलं भिनत्तीति।=क्रिया दो प्रकार की होती है—कर्तृ समवायिनी क्रिया और कर्मसमवायिनी। आस्ते गच्छति आदि क्रियाओं को कर्तृ समवायिनी क्रिया कहते हैं। और ओदन को पकाता है, घड़े को फोड़ता है आदि क्रियाओं को कर्मसमवायिनी क्रिया कहते हैं।
- गणितविषयक क्रिया
- गतिरूप क्रिया निर्देश
- क्रिया सामान्य का लक्षण
स.सि./5/7/272/10 उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमान: पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतु: क्रिया।=अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है वह क्रिया कहलाती है।
रा.वा./5/22/19/481/11 द्रव्यस्य द्वितीयनिमित्तवशात् उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते।=बाह्य और आभ्यन्तर निमित्त से द्रव्य में होने वाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। (रा.वा./5/7/1/446/1) (त.सा./3/47)।
ध.1/1,1,1/18/3 किरियाणाम परिप्फंदणरूवा=परिस्पन्द अर्थात् हलन चलन रूप अवस्था को क्रिया कहते हैं। (प्र.सा./त.प्र./129)।
पं.ध./पू./134 तत्र क्रियाप्रदेशो देशपरिस्पन्दलक्षणो वा स्यात् ।=प्रदेश परिस्पन्द हैं लक्षण जिसका ऐसे परिणमन विशेष को क्रिया कहते हैं। (पं.ध./3/34)
पं.का./त.प्र./98 प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतु: परिस्पन्दरूपपर्याय: क्रिया।=प्रदेशान्तर प्राप्ति का हेतु ऐसा जो परिस्पन्दरूप पर्याय वह क्रिया है।
पं.का./ता.वृ./27/57/8 क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनरूपपरिस्पन्दवती चलनवती क्रिया।=एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमनरूप हिलने वाली अथवा चलने वाली जो क्रिया है। (द्र.सं./टी./2 अध्याय की चूलिका/पृ.77)।
* परिणति के अर्थ में क्रिया—देखें कर्म ।
- गतिरूप क्रिया के भेद
स.सि./5/22/292/8 सा द्विविधा—प्रायोगिकवैस्रसिकभेदात् ।=वह परिस्पन्दात्मक क्रिया दो प्रकार की है—प्रायोगिक और वैस्रसिक। (रा.वा./5/7/17/448/17) (रा.वा./5/22/19/481/12)।
रा.वा./5/24/21/490 सा दशप्रकारप्रयोगबन्धाभावाच्छेदाभिघातावगाहनगुरुलघुसंचारसंयोगस्वभावनिमित्तभेदात् ।= अथवा वह क्रिया, 1. प्रयोग; 2. बन्धाभाव; 3. छेद; 4. अभिघात; 5. अवगाहन; 6. गुरु; 7. लघु; 8. संचार; 9. संयोग; 10. स्वभाव निमित्त के भेद से दस प्रकार की है।
चार्ट
- स्वभाव व विभाव गति क्रिया के लक्षण
नि.सा./ता.वृ./184 जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं विभावक्रिया षट्कायक्रमयुक्तत्वं, पुद्गलानां स्वभावक्रिया परमाणुगति: विभावक्रिया द्वयगुणकादिस्कन्धगति।=जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है और विभावक्रिया (अन्य भव में जाते समय) छह दिशा में गमन है; पुद्गलों की स्वभावक्रिया परमाणु की गति है और विभावक्रिया द्वि-अणुकादि स्कन्धों की गति है।
- <a name="2.4" id="2.4"></a>प्रायोगिक व वैस्रसिक क्रियाओं के लक्षण
स.सि./5/22/292/8 तत्र प्रायोगिकी शकटादीनाम्, वैस्रसिकी मेघादीनाम् ।=गाड़ी आदि की प्रायोगिकी क्रिया है। और मेघ आदिक की वैस्रसिकी। (रा.वा./5/22/19/481/11)।
- क्रिया व क्रियावती शक्ति का लक्षण
प्र.सा./मू./129 उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स। परिणामादो जायंते संघादादो व भेदादो।129।=पुद्गल जीवात्मक लोक के परिणमन से और संघात (मिलने) और भेद (पृथक् होने) से उत्पाद ध्रौव्य और व्यय होते हैं।
स.सि./5/7/273/12 अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगते जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्थादापन्नम् ।=अधिकार प्राप्त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, यह प्रकरण से अपने आप प्राप्त हो जाता है।
रा.वा./1/8/2/41 क्रिया च परिस्पन्दात्मिका जीवपुद्गलेषु अस्ति न इतरेषु।=परिस्पन्दात्मक क्रिया जीव और पुद्गल में ही होती है अन्य द्रव्यों में नहीं।
स.सा./आ./परि.नं.40 कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्ति।=कारक के अनुसार होने रूप भावमयी चालीसवीं क्रियाशक्ति है।
नोट—क्रियाशक्ति के लिए और भी देखें क्रिया - 2.1।
- अन्य सम्बन्धित विषय
1. गमनरूप क्रिया का विषय विस्तार—देखें गति ।
2. क्रिया व पर्याय में अन्तर—देखें पर्याय - 2।
3. षट्द्रव्यों में क्रियावान् अक्रियावान् विभाग—देखें द्रव्य - 3।
4. ज्ञाननय व क्रियानय का समन्वय—देखें चेतना - 3.8।
5. ज्ञप्ति व करोति क्रिया सम्बन्धी विषय विस्तार—देखें चेतना - 3।
6. शुद्ध जीववत् शुद्ध परमाणु निष्क्रिय नहीं—देखें परमाणु - 2।
- क्रिया सामान्य का लक्षण
- श्रावक की क्रियाओं का निर्देश
- श्रावक की 25 क्रियाओं का नाम निर्देश
देखें अगला शीर्षक पच्चीस क्रियाओं को कहते हैं –1 सम्यक्त्व क्रिया; 2 मिथ्यात्व क्रिया; 3 प्रयोगक्रिया; 4 समादानक्रिया; 5 ईर्यापथक्रिया; 6 प्रादोषिकीक्रिया; 7 कायिकीक्रिया; 8 अधिकारिणिकीक्रिया; 9 पारितापिकीक्रिया; 10 प्राणातिपातिकी क्रिया; 11 दर्शनक्रिया; 12 स्पर्शनक्रिया; 13 प्रात्ययकीक्रिया; 14 समन्तानुपातक्रिया; 15 अनाभोगक्रिया; 16 स्वहस्तक्रिया; 17 निसर्गक्रिया; 18 विदारणक्रिया; 19 आज्ञाव्यापादिकीक्रिया; 20 अनाकांक्षक्रिया; 21 प्रारम्भक्रिया; 22 परिग्रहिकीक्रिया; 23 मायाक्रिया; 24 मिथ्यादर्शनक्रिया; 25 अप्रत्याख्यानक्रिया, (रा.वा./6/5/7-11/509-510)।
- श्रावक की 25 क्रियाओं के लक्षण
स.सि./6/5/321-323/11 पञ्चविंशति: क्रिया उच्यन्ते-चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धनीक्रिया सम्यक्त्वक्रिया। अन्यदेवतास्तवनादिरूपामिथ्यात्वहेतुकी प्रवृत्तिर्मिथ्यात्वक्रिया। गमनागमनादिप्रवर्तनं कायादिभि: प्रयोगक्रिया (वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमेस्ति अङ्गोपाङ्गोपष्टम्भादात्मन: कायवाङ्मनोयोगनिर्वृत्तत्तिसमर्थपुद्गलग्रहणं वा (रा.वा./6/5) संयतस्य सत: अविरतिं प्रत्याभिमुख्यं समादानक्रिया। ईर्यापथनिमित्तेर्यापथक्रिया। ता एता पञ्चक्रिया:। क्रोधावेशात्प्रादोषिकीक्रिया। प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यम: कायिकीक्रिया। हिंसोपकरणादानादाधिकरणिकीक्रिया। दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात्पारितापिकीक्रिया। आयुरिन्द्रियबलोच्छ्वासनि:श्वासप्राणानां वियोगकरणात्प्राणातिपातिकी क्रिया। ता एता: पञ्चक्रिया:। रागार्द्रीकृतत्वात्प्रमादिनोरमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया:। प्रमादवशात्स्पृष्टव्यसनंचेतनानुबन्ध: स्पर्शनक्रिया। अपूर्वाधिकरणोत्पादनात्प्रात्ययिकी क्रिया। स्त्रीपुरुषपशुसम्पातिदेशेऽन्तर्मलात्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया। अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादिनिक्षेपोऽनाभोगक्रिया। ता एता: पञ्चक्रिया:। या परेण निर्वर्त्यां क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया। पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया। पराचरितसावद्यादिप्रकाशनं विदारणक्रिया, यथोक्ताप्रमाज्ञावश्यकादिषु चारित्रमोहोदयात्कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथा प्ररूपणादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया। शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया। ता एता: पञ्चक्रिया:। छेदनभेदनविशसनादि क्रियापरत्वमन्येन वारम्भे क्रियमाणे प्रहर्ष: प्रारम्भक्रिया। परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी क्रिया। ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनमायाक्रिया। अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिर्दृढयति यथा साधु करोषीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया। ता एता: पञ्चक्रिया:। समुदिता: पञ्चविंशतिक्रिया:।=चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदि रूप सम्यक्त्व को बढ़ानेवाली सम्यक्त्व क्रिया है। मिथ्यात्व के उदय से जो अन्य देवता के स्तवन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्वक्रिया है। शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदि रूप प्रवृत्ति प्रयोगक्रिया है। [अथवा वीर्यान्तराय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर अंगोपांग नामकर्म के उदय से काय, वचन और मनोयोग की रचना में समर्थ पुद्गलों का ग्रहण करना प्रयोगक्रिया है। (रा.वा./6/5/7/509/18)] संयत का अविरति के सन्मुख होना समादान क्रिया है। ईर्यापथ की कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं।
क्रोध के आवेश से प्रादोषिकी क्रिया होती है। दुष्टभाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकीक्रिया है। हिंसा के साधनों को ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है। जो दुःख की उत्पत्ति का कारण है वह पारितापिकी क्रिया है। आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास रूप प्राणों का वियोग करने वाली प्राणातिपातिकी क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। रागवश प्रमादी का रमणीय रूप के देखने का अभिप्राय दर्शनक्रिया है। प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थ का अनुबन्ध स्पर्शन क्रिया है। नये अधिकरणों को उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष और पशुओं के जाने, आने, उठने और बैठने के स्थान में भीतरी मल का त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है। प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमि पर शरीर आदि का रखना अनाभोगक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। जो क्रिया दूसरों द्वारा करने की हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस्त क्रिया है। पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेष के लिए सम्मत्ति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरे ने जो सवाद्यकार्य किया हो उसे प्रकाशित करना विदारणक्रिया है। चारित्रमोहनीय के उदय से आवश्यक आदि के विषय में शास्त्रोक्त आज्ञा को न पाल सकने के कारण अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। धूर्तता और आलस्य के कारण शास्त्र में उपदेशी गयी विधि करने का अनादर अनाकांक्षाक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। छेदना-भेदना और रचना आदि क्रियाओं में स्वयं तत्पर रहना और दूसरे के करने पर हर्षित होना प्रारम्भक्रिया है। परिग्रह का नाश न हो इसलिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकीक्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में छल करना मायाक्रिया है। मिथ्यादर्शन के साधनों से युक्त पुरुष की प्रशंसा आदि के द्वारा दृढ़ करना कि ‘तू ठीक करता है’ मिथ्यादर्शनक्रिया है। संयम का घात करने वाले कर्म के उदय से त्यागरूप परिणामों का न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। ये सब मिलकर पच्चीस क्रियाएँ होती हैं। (रा.वा./6/5/7/16)।
- श्रावक की अन्य क्रियाओं का लक्षण
स.सि./7/26/366/9 अन्येनानुक्तमननुष्ठितं यत्किंचित्परप्रयोगवशादेवं तेनोक्तमनुष्ठितमिति वञ्चनानिमित्तं लेखनं कूटलेखक्रिया।=दूसरे ने तो कुछ कहा और न कुछ किया तो भी अन्य किसी की प्रेरणा से उसने ऐसा कहा है और ऐसा किया है इस प्रकार छल से लिखना कूट लेखक्रिया है।
नि.सा./ता.वृ./152...निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते।=महामुमुक्षु...निश्चयप्रतिक्रमणादि सत्क्रिया को करता हुआ स्थित है। (नि.सा./ता.वृ./155)।
यो.सा.अ./8/20 आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना। क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपङ्क्तिरसौ मता।20।=अन्तरात्मा के मलिन होने से मूर्ख लोग जो लोक के रंजायमान करने के लिए क्रिया करते हैं उसे बाल अथवा लोक पंक्तिक्रिया कहते हैं।
- 25 क्रियाओं, कषाय व अव्रतरूप आस्रवों में अन्तर
रा.वा./6/5/15/510/32 कार्यकारणक्रियाकलापविशेषज्ञापनार्थं वा।5। निमित्तनैमित्तिकविशेषज्ञापनार्थं तर्हि पृथगिन्द्रियादिग्रहणं क्रियते; सत्यम्; स्पृशत्यादय: क्रुध्यादय: हिनस्त्यादयश्च क्रिया आस्रव: इमा: पुनस्तत्प्रभवा: पञ्चविंशतिक्रिया: सत्स्वेतेषु त्रिषु प्राच्येषु परिणामेषु भवन्ति यथा मूर्च्छा कारणं परिग्रहं कार्यं तस्मिन्सति पारिग्राहिकीक्रिया न्यासरक्षणाविनाशसंस्कारादिलक्षणा। =निमित्त नैमित्तिक भाव ज्ञापन करने के लिए इन्द्रिय आदि का पृथक् ग्रहण किया है। छूना आदि और हिंसा करना आदि क्रियाएँ आस्रव हैं। ये पच्चीस क्रियाएँ इन्हीं से उत्पन्न होती हैं। इनमें तीन परिणमन होते हैं। जैसे—मूर्च्छा–ममत्व परिणाम कारण हैं, परिग्रह कार्य हैं। इनके होने पर पारिग्राहिकी क्रिया होती है जो कि परिग्रह के संरक्षण अविनाशी और संस्कारादि रूप है इत्यादि....।
- अन्य सम्बन्धित विषय
* कर्म के अर्थ में क्रिया—देखें योग ।
1. श्रावक की 53 क्रियाएँ—देखें श्रावक - 4।
2. साधु की 10 या 13 क्रियाएँ–देखें साधु - 2।
3. धार्मिक क्रियाएँ–देखें धर्म - 1।
- श्रावक की 25 क्रियाओं का नाम निर्देश
पुराणकोष से
श्रावकों का संस्कार । इसके तीन भेद हैं― गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्त्रन्वय । गर्भान्वय की गर्भ से लेकर निर्वाण-पर्यन्त त्रेपन, दीक्षान्वय की अड़तालीस और कर्त्रन्वय की सात, इस तरह कुल एक सौ आठ क्रियाएं होती हैं । साम्परायिक आस्रव की भी पच्चीस क्रियाएँ होती हैं । महापुराण 38. 47-69, हरिवंशपुराण 58.60-82, पांडवपुराण 5.87-90