अवस्था
From जैनकोष
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक संख्या ११७ अपि नित्याः प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः। स च परिणामोऽवस्था तेषामेव ।।११७।।
= गुण (या द्रव्य) नित्य है तो भी वे स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं। वह परिणमन ही उन गुणों (या द्रव्यों) की अवस्था है।
अवस्थान - स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान उपपाद, आदि जीवों के विभिन्न अवस्थान। - दे. क्षेत्र।