वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 35
From जैनकोष
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत्।।३५।।
जो पुरुष अज्ञानी है, तत्त्वज्ञानकी जिनमें उत्पत्ति नही हो सकती है अथवा कहिए अभव्य है वे किसी भी प्रसंगसे ज्ञानी नही हो पाते हैं। और जो ज्ञानी है, जिनके तत्त्वज्ञान हो गया हे वे अज्ञानी नही हो सकते। अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानको प्राप्त नही करते और ज्ञानी जीव मोहको प्राप्त नही होते ।
ज्ञान विकास व अज्ञान परिहार—जैसे बाहर रस्सी पड़ी हुई है और उसमें किसी को सांप का भ्रम हो गया है तो जब तक सांप का भ्रम बना हुआ है उस भ्रमों को ज्ञान नही हो पाता है, और जब ज्ञान हो गया, जान लिया कि यह रस्सी ही है तब उसके भ्रम नही हो पाता है, अथवा अज्ञानी से ज्ञानी बनने के लिए स्वयं में ही तो अज्ञानका परिहार करना होगा और स्वयं में ही ज्ञानका विकास करना होगा। गुरु विकास नही करते। विकास हो रहा हो तो अन्य गुरु जन निमित्तमात्र होते हैं। जैसे जीव पुद्गल जब चलने को उद्यत होते हैं तो धर्मद्रव्य निमित्त है, पर धर्मद्रव्य चला नही देता। पानी में मछली है, जब वह चलती है तो उसके चलाने में पानी कारण है, पर पानी मछली को चलाता नही है। चलना चाहे मछली तो निमित्त मौजूद है। ऐसे ही जो पुरुष अज्ञान को छोड़कर ज्ञानी होना चाहता है अथवा ज्ञानी होने को उद्यत है उसको गुरुजन निमित्त मात्र है।।
उपादान सिद्धता—भैया ! जो ज्ञानी बनना चाहता है उसको कहाँ रूकावट है। शास्त्र है, गुरु है, साधर्मियों का संग है, सब कुछ प्रसंग हे, कहाँ अटक है कि मुझे साधन नही है, मैं कैसे ज्ञान पैदा करूँ? जिसे ज्ञान नही पैदा करना है उसको निमित्त ही कुछ नही बन पाते हैं। वह ही चीज दूसरों के लिए निमित्त बन गई जो ज्ञानी होना चाहते हैं और जो ज्ञानी नही होना चाहते हैं उनके लिए कुछ निमित्त नही है। प्रत्येक पदार्थ में परिणमन की शक्ति हे। पदार्थ मे जो शक्ति है उसका परिणमन स्वयं का ही कार्य बनता है। उस कार्य के समय अन्य पदार्थ निमित्त मात्र है। जैस इस समय जो श्रोता यह रूचि करता हो कि मुझे तो अपने ज्ञानस्वरूप में अपने उपयोगोंको लगाना है और अपना ध्यान अच्छा बनाना है तो उसके लिए तो शास्त्र के वचन निमित्त हो जायेंगे, पर जिनके ऐसी रूचि नही है, जिनका उपयोग भ्रम में बना हुआ है उनके लिए ये शास्त्र के वचन निमित्त नही है। सब जीवों के स्वयं के उपादान की विशेषता है।
उपादान और निमित्त प्रसंग—पूर्व श्लोक में कहा गया था कि परमार्थ से आत्मा का आत्मा ही गुरु है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा स्वयं ही अपने में उत्तम हित की अभिलाषा रखता है, उसका ज्ञान और उस रूप आचरण भी यह स्वयं करता है इस कारण अपना गुरु यह स्वयं है। ऐसी बात आने पर यह शंका होती है तो फिर गुरुजन और उनके उपदेश ये सब बेकार हे क्या? उसके उत्तर में यह कहा गया कि वास्तवमें तो जितने भी कार्य होते हैं,चाहे कोई ज्ञानरूप परिणमे चाहे कोई अज्ञानरूप परिणमें तो यह उसके उपादान से होता है। वहाँ अन्य जन, पदार्थ तो निमित्तमात्र होते हैं और उसके उदाहरण में दृष्टान्त देते हे, जैसे जीव पुद्गल जब चलने को उद्यत होते हैं तो अपनी उपादान शक्ति से चलते हैं। उस समयमें धर्मास्तिकाय निमित्तमात्र है।
सिद्धि का आधार और उसका निमित्त—भैया उपादान व निमित्त की स्वतंत्रता के अनेक उदाहरण ले लो। चूल्हे पर ठंडा पानी रखा हुआ है, तो पानी जो गर्म होता है वह आग की परिणति से नही गर्म होता है, उस पानी मे स्वयं गर्म होने की शक्ति है। वह पानी अपने उपादान से ही गर्म होता है। हाँ उस सम्बंध मे निमित्त अग्नि अवश्य है, पर आग की परिणति पानी में आकर पानी को गर्म कर रही हो, ऐसा नही है। जैसे आप सब सुन रहे हैं,जो बातें हम कह रहे हैं वे बातें आप सब ज्ञान में ला रहे हैं,स्वयं ही अपने अन्तर में ज्ञान का पुरुषार्थ करके जान रहे हैं,हम आपमें ज्ञान की परिणति नही बना सकते हैं। हाँ उस तरह के ज्ञान के विकास में ये वचन निमित्त मात्र हो रहे हैं। प्रत्येक पदार्थ अपने आपके उपादान से परिणत होता है, बाह्यपदार्थ निमित्तरूप सहकारी होते हैं।
अयोग्य उपादानमें विवक्षित सिद्धि का अभाव—जिसमें परिणमनेकी शक्ति नही है उसमें कितने ही निमित्त जुटे, पर वह परिणमता नही है। जैसे कुरडूं मूँगमें पकनेकी शक्ति नही है तो आप उसे चार घंटे भी गर्म पानी में पकावें तो भी नही पक सकती। अज्ञानी पुरुष में अभव्यमें, जिसका होनहार अच्छा नही है ऐसे मिथ्यादृष्टियों में ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता नही है, अतएव वहाँ कितने ही निमित्त मौजूद हो तो भी वे लाभ नही उठा सकते, क्योंकि उपयोग गंदा है। जिन निमित्तोंको पाकर सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी बन सकता है उन ही निमित्तों को पाकर मिथ्यादृष्टि मोही अज्ञानी जीव दोष ग्रहण करने लगता है। यह सब अपने-अपने उपादानके योग्यता की बात है।
लब्धिके बिना विकासका अवरोध—यदि आत्मा में एक ज्ञान प्राप्त करनेका क्षयोपशम नही है, तत्त्वज्ञानकी योग्यता नही है उन अभव्य जनों को सैकड़ो धर्माचार्यों के उपदेश भी सुनने को मिलें तो भी वे ज्ञानी नही हो सकते, क्योंकि कोई पदार्थ किसी भी अवस्था को छोड़कर कोई नई अवस्था बनाए तो उसमें उस पदार्थ की क्रिया और गुणों की विशेषता है, दूसरा तो निमित्त मात्र है। प्रयोग करके देख लो—बगुला पढ़ नही सकता कभी तोते की भांति, वह अक्षर नही बोल सकता तो बगुला को पालकर यदि उसे वर्षों तक भी सिखावो तो क्या वह बोल लेगा? नही बोल सकता। उसमे उस तरह परिणमनेकी शक्ति ही नही है। तोते में बोलने की योग्यता है, चाहे वह न समझ पाये बोलने का भाव, किन्तु उसका मुख उसकी जिह्वा व चोंच ऐसी है कि कुछ शब्द वह मनुष्यों की तरह बोल सकता है। कितने ही लोग तो तोते को चौपाई तक सिखा देते हैं। कोई गद्य में बात सिखा देते हे। वह तोता बोलता रहता है। तो जैसे बगला सैकड़ो प्रयत्न करनेपर भी बोल नही सकता है इसी प्रकार अभव्य जीवों के अज्ञानी जीवों के चूँकि तत्त्वज्ञान उत्पन्न करने की योग्यता नही है, इस कारण कितने ही ज्ञानी पुरुषों के उपदेश मिले, कितने ही निमित्त साधन मिलें तो भी वे ज्ञानी नही बनाये जा सकते हैं। उपादान ही विपरीत है तो वे ज्ञान को कैसे ग्रहण करेंगे? बल्कि वे अज्ञान ही ग्रहण करेंगे।
योग्यतानुसार परिणमन—जब तीर्थंकरोंका समवशरण होता था उस समवशरणमें अनेक जीव अपना कल्याण करते थे और अनेक जीव उस समय ऐसे भी थे कि प्रभु को मायावी, इन्द्रजालिया, ऐसे अनेक गालियों के शब्द कहकर अपना अज्ञान बढ़ाया करते थे, वे कल्याण का पथ नही पा सकते थे। हुआ क्या, प्रभु तो वही के वही, अनेकों ने तो कल्याण प्राप्त कर लिया और अनेकों ने दुर्गतियोंका रास्ता बना लिया। ये सब जीवों की अपनी-अपनी योग्यता की बातें है। जो पुरुष अज्ञान दशा को छोड़कर ज्ञान अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं वे अपनी ही योग्यतासे ज्ञानी बनते हैं। अन्य जन तो निमित्तमात्र है, ऐसे ही जो पुरुष पाप करना चाहते हैं पापों मेंमौज मानते हैं वे अपनी ही अशुद्धपरिणति से पापों का परिणाम बनाते हैं। अन्य जो विषयों के साधन है वे निमित्तमात्र है।
योगीश्वरों का ज्ञान से अविचलितपना—जो योगीश्वर सम्यग्ज्ञानके प्रकाश से मोहान्धकारको नष्ट कर देते हैं,जो तत्त्व दृष्टि वाले हैं,यथार्थ ज्ञानी है, शान्तस्वभावी है, ऐसे योगीश्वर किसी भी प्रसंग में अपने ज्ञानपथको नही छोड़ते हैं। यह साहस सम्यग्दृष्टिमें है कि कैसा भी विपदा, कैसा भी उपसर्ग आ जाय तिस पर भी वे अपने ज्ञानस्वभावको नही छोड़ सकते। परपदार्थ कैसे ही परिणमे, पर सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष उसके ज्ञाता द्रष्टा मात्र रहते हैं। किसी कवि ने कहा है कि गाली देने वाला पुरुष गाली देता है और सज्जन पुरुष विनय प्रकट करता है, तो जिसके समीप जो कुछ है उससे वही तो प्रकट होगा।
परिणमनकी उपादानानुसारिता—ज्ञानी पुरुष दूसरोंके गुण ग्रहण करता है, दोष नही ओर अज्ञानी पुरुष दूसरों के गुण नही ग्रहण कर सकता, दोष ही ग्रहण करेगा। जो जैसा है वह वैसा ही परिणमता है, कहाँ तक रोका जाए ? मूर्ख पुरुष किसी सभा में सजधज कर बैठा हो तो कहाँ तक उसकी शोभा रह सकती है? आखिर किसी प्रसंग में कुछ भी शब्द बोल दिया तो लोग उसकी असलियत जान ही जायेंगे। तोतला आदमी बड़ा सजधज कर बैठा हो मौज से तो उसकी यह शोभा कब तक है जब तक कि वह मुख से कुछ बोलता नही है। बोलने पर तो सब बात विदित हो जाती है। जो लोग भीतर से पोले हैं और आर्थिक स्थिति ठीक नही है और बहुत बड़ी सजावट करके लोगों में अपनी शान जताये तो देखा होगा कि किसी प्रसंग में वे हँसेंगे तो वह हँसी कुछ उड़ती हुई सी रहती है, और जानने वाले जान जाते हैं कि ये बनकर हँस रहे हैं,इनके चित्त में इस प्रकार की स्वाभाविक हँसी नही है जो स्वाभाविक बात आ सके। कहाँ तक क्या चीज दबाई जाय, जिसमें जैसा उपादान है वह अपने उपादान के अनुकूल ही कार्य करेगा।
प्रत्येक प्रसंग में ज्ञानी की अन्तःप्रतिबुद्धता—तत्त्वज्ञानी पुरुष ज्ञानका ही कार्य करेगा और अज्ञानी पुरुष अज्ञान का ही कार्य करेगा। जैसे स्वर्ण धातु से लोहे का पात्र नही बनाया जा सकता और लोहे की धातु से स्वर्ण का पात्र नही बनाया जा सकता अथवा गेहूं बोकर चना नही पैदा किया जा सकता और चना बोकर गेहूं नही पैदा किया जा सकता। ऐसे ही अज्ञानी जीव, अभव्य जीव धर्म के नाम पर बहुत बड़ा ढोंग रचे तिस पर भी उनके अंतरंग ज्ञान कैसे प्रकट हो सकता है और ज्ञानी पुरुष किसी परिस्थिति में अयोग्य भी व्यवहार करता हो तो भी वह भीतर में प्रतिबुद्ध रहता है। श्री राम का दृष्टान्त सब लोग जानते हैं। जब लक्ष्मण की मृत्यु हो गई थी उस समय उनको कितनी परेशानी और विह्वलता थी? जब सीता का हरण हुआ था उस समय भी कितनी विह्वलता थी? उस समय के लोग उन्हें अपने भीतर में पागल कहे बिना न रहते होंगे, वह स्थिति बन गयी थी। किन्तु वे महापुरुष थे, रहे।
श्रीरामकी अन्तःप्रतिबुद्धताका उदाहरण—भैया ! कैसे जाना कि राम संकटकाल में भी प्रतिबुद्ध थे? तो एक दो दृष्टान्त देखलो। जिस समय श्रीराम और रावण का युद्ध चल रहा था उन दिनों में रावण शान्तिनाथ चैत्यालयमें बैठकर बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। लोगों ने राम से कहा कि रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। उसने यह विद्या यदि सिद्ध कर ली तो फिर उसका जीतना कठिन है, इस कारण विद्या सिद्धन होने दे, उसमें विघ्न डाले, उसका उपयोग भ्रष्ट कर दे, इसकी ही इस समय आवश्यकता है। तब राम बोले कि वह चैत्यालयमें बैठा है, अपनी साधना कर रहा है, उसमें विघ्न करनेका हमें क्या अधिकार? रामने इजाजत नही दी कि तुम रावण की इस साधना में विघ्न डालों। विवेकी थे तभी तो विवेकी की बात निकली। फिर क्या हुआ यह बात अलग है। कुछ मनचले राजाओं ने वहाँ जाकर थोड़ा बहुत उपद्रव किया। राजाओं द्वारा उपद्रव किया जाने पर भी रावण अपनी साधना से विचलित नही हुआ। तब जो विद्या अनेक दिनों में सिद्ध हो सकती थी वह मिनटों में ही सिद्ध हो गई।
निर्भयताके लिये अन्तःसाहसकी आवश्यकता—भैया! खुद मजबूत होना चाहिए फिर क्या डर है? स्वयं ही कायर हो, भयशील हो तो दुःखी होगा ही। कोई दूसरा पुरुष उसे कदाचित् भी दुःखी नही कर सकता। मैं ही दुःख के योग्य कल्पना बनाऊँ तो दुखी हो सकता हूं। क्या दुःख है, दुःख सब मान रहे हैं। हर एक कोई यह अनुभव करता है कि मेरे पास जो वर्तमानमें धन है वह पर्याप्त नही है, मेरी पोजीशनको बढ़ाने वाला नही है। इस कल्पना से सभी जीव दुःखी है और देखो तो कही दुःख नही है, जिसके पास जो स्थिति है उससे भी चौथाई होती तो क्या गुजारा न होता? जिसके पास इस सम्पत्तिका हजारवां भाग भी नही है क्या उसका गुजारा नही होता है? होता है और उनके सद्बुद्धि है तो वे धर्ममें लगे हुए है। क्या कष्ट है, पर कल्पना उठ गई इससे सुख सुविधाओं का भी उपयोग सही नही किया जा सकता।
बुद्धि के अनुसार घटनाका अर्थ—जिसका जैसा उपादान है। वह अपने उपादान के अनुकूल ही कार्य करेगा। एक नाव में कुछ लोग बैठे थे। कुछ गुण्डों ने उनको गालियाँ दी तो वे समता से सहन कर गए। वे गुण्डे यह कहते जाये कि ये चोर है, बदमाश है, झूठे है, ढोंगी है आदि तो साधु कहते हैं कि ये लोग ठीक कह रहे हैं हम चोर है, बदमाश है। झूठे है अन्यथा इस संसार में क्यों भटकते? आप लोग इन पर क्यों नाराज होते हो? खैर जब तक बातें हुई तब तक तो ठीक, लेकिन एक उद्दण्ड ने एक साधु के सिर में तमाचा भी मार दिया। तो वह साधु कहता है कि आप लोग इस पर नाराज मत होओ। यह भाई यह कह रहा है कि तुमने अपना सिर प्रभु के चरणों में भक्तिपूर्वक नमाया नही है इसलिए यह सिर तोड़ने योग्य है, यह मुझे शिक्षा दे रहा है। नाराज मत होओ। चीज वही की वही है, चाहे गुण ग्रहण करने लायक कल्पना बना लें और चाहे दोष ग्रहण करने लायक कल्पना बना ले। ज्ञानी पुरुष गुणग्रहणकी कल्पना बनाते हैं और अज्ञानी पुरुष दोषग्रहण करने की कल्पना बनाते हैं जो पुरुष दूसरों के दोष ग्रहण कर रहा है उसने दूसरे का बिगाड़ा क्या, खुदका ही उसने बिगाड़ कर लिया।
योग्यताकी संभालमें ही सुधार—जितने भी पदार्थ हे वे सब अपनी योग्यता के अनुकूल परिणमते हैं। इन सब कथनों से यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानी बनने की सामर्थ्य भी अपनी आत्मामें है और अज्ञानी बनने की सामर्थ्य भी अपनी आत्मा में है। गुरुजन तो बाह्य निमित्त कारण है। जिसे कामी बनना ही रूचिकर है उसको फोटो या कोई स्त्री पुरुष रूपवान कुछ भी दीखे तो सब निमित्तमात्र है, पर स्वयं में ही ऐसी कलुषता है योग्यता है जिसके कारण वे काम के मार्ग में लग जाते हैं। कोई पुरुष क्रोध स्वभाव वाला है, उसको जगह-जगह क्रोध आने का साधन जुट जाता है और कोई शान्तस्वभावी है तो उसे किसी भी विषय में क्रोध नही आता है। इससे यह जानना कि अपनी योग्यता संभाले बिना अपने आपका सुधार कभी हो नही सकता है।
उपादान के परिणमन में अन्य का निमित्तपना—भैया! दूसरे का नाम लगाना क्या करे, अमुक है, ऐसा है इसलिए हमारा काम नही बनता, ये सब बहानेबाजी है। राजा जनक के समय में एक गृहस्थ आया, जनक बैठे थे। बोले महाराज हम बहुत दुःखी है, मुझे गृहस्थी ने फंसा रक्खा है, धन वैभव ने हमें जकड़ रक्खा है, मुझे साधुता का आनन्द नही मिल पाता है, तो आप कोई ऐसा उपाय बताओ कि वे सब मुझे छोड़ दे ? तो जनक से कुछ उत्तर ही न दिया गया। और सामने जो खम्भा खड़ा था उसको अपनी जोट में भर कर कुछ चिल्लाने लगे कि भाई-भाई मैं क्या करूँ, मुझे तो इस खम्भे ने जकड़ लिया है। मैं कुछ जवाब नही दे सकता। मुझे यह खम्भा छोड़ दे तो फिर जवाब दूँ, । तो गृहस्थ बोला—महाराज ! कैसे आप भूली-भूली बातें करते हैं। अरे खम्भे ने आपको जकड़ लिया है कि आपने खम्भे को जकड़ लिया है ? तो राजा जनक कहते हैं कि बस यही तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। धन, दौलत, कुटुम्ब ने तुमको फंसा रक्खा है कि तुमने खुद उनको फंसा रक्खा है तो कोई किसी को न ज्ञानी बना सकता है, न अज्ञानी बना सकता है। निमित मात्र अवश्य है। इस कारण ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरुओं की सेवा सुश्रूषा करना कर्तव्य है, उनमें श्रद्धा भक्ति कर्तव्य हे, परन्तु परमार्थ से अपने आत्मा को ही अपना मार्ग चालक जानकर अपने पुरुषार्थ और कर्तव्य का सदा ध्यान रखना चाहिए।