वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 36
From जैनकोष
अभवच्चित्तविक्षेप एकांते तत्त्वसंस्थितिः।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्त्वं निजात्मनः।।36।।
आत्मतत्त्वाभ्यास की प्रेरणा―जिसके चित्त में किसी भी प्रकार का विक्षेप नही है अर्थात् रागद्वेष की तरंग की कलुषता नही है, तथा जिसकी बुद्धि एकांत में तत्त्व में लगा करती है ऐसा योगी निज तत्त्व का विधिविधान सहित योग साधना समाधि सहित ध्यान का अभ्यास करता है। आत्मस्वरूप के अभ्यास का उपाय क्या है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्लोक में यह बताया है कि रागद्वेष का क्षोभ न हो तो तत्त्वचिंतन का अभ्यास बने। रागद्वेष का क्षोभ न हो इसके लिए यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान चाहिए। सो सर्वप्रयत्न करके अध्यात्मयोगार्थी को आत्मतत्त्व का अभ्यास करना चाहिये।
सर्वत्र ज्ञान लीला―भैया! सब कुछ लीला ज्ञान की है, सर्वत्र निहार लो, जो आनंद में रत है, योगी है उनके भी ज्ञान की लीला चल रही है। जो दुःखी पुरुष है, जो दुःख की कल्पना बनाते हैं तो कल्पना भी तो ज्ञान से ही संबंध रखने वाली चीज हुई ना, कुछ तो ज्ञान में आया, किसी प्रकार की जानकारी तो बनायी उसका क्लेश है। वहाँ भी ज्ञान की एक लीला हुई। जो पुरुष आनंद में रत है उसने भी अपना विशुद्ध ज्ञान बनाया, उस विशुद्ध ज्ञान का उसे आनंद है, वहाँ तो ज्ञान की विशुद्ध लीला है ही । यो योगी अपने तत्त्वचिंतन का अभ्यास बनाता है।
चित्त का विक्षेप महती विपदा―चित्त का विक्षिप्त हो जाना यह महती विपत्ति है। किसी धनी पुरुष के कोई पागल बिगड़े दिमाग का, कम दिमाग का या जिसके चित्त में विक्षेप होता रहे ऐसे दिमाग का बालक हो तो लोग इसके रक्षक माता पिताजन रिश्तेदार वगैरह हजारों लाखों का खर्च करके भी चाहते हैं कि उसके चित्त का विक्षेप बदल दे तो ऐसा उपाय करते हैं। पर हैरान हो जाते हैं,दुःखी ही रहते हैं। कदाचित् ठीक हो जाय तो उसके ही होनहार से वह ठीक होता है। दूसरे लोग उसमें कुछ अपना करतब नही अदा कर सकते हैं। चित्त का विक्षिप्त हो जाना यह जब तक बना रहेगा तब तक रागद्वेष का क्षोभ रहेगा। इस आकुलता के कारण आत्मस्वरूप का ध्यान नही बन सकता। किसी मनुष्य के द्वारा कुछ अपने को कष्ट पहुंचे, कष्ट तो नही पहुंचा, पर किसी मनुष्य का बोल सुनकर उसकी चेष्टा निरखकर कुछ ऐसी कल्पना बनायी कि दुःखी हो गए, तो दुःखी हो जाने पर चित्त में ऐसा हठ होता है कि हम भी इसका कुछ बदला चुकावेंगे, लेकिन ऐसे परिणाम का होना यह इसके लिए बहुत बड़ी विपत्ति है।
अंतः साहस―दुनिया के जीव जो कुछ करते हो, करे, उनका उसी प्रकार का अशुभ कर्म का उदय है कि थोड़ी बुद्धि है, थोड़ी योग्यता है, उसके अनुकूल उन्होने अपनी प्रवृत्ति की, उसको देखकर यदि हम भी चलित हो जायें अर्थात् क्षमाभाव से, सत्य श्रद्धा से, आत्मकल्याण की दृष्टि से हम भी चिग जाये तो हमने कौनसा अपूर्व काम किया? इससे यह बड़ी साधना है, बड़ा ज्ञानबल है कि इतनी हिम्मत भीतर में रहे कि लोग जो चेष्टा करे सो करते जायें पर हम तो अपने आपके सत्य विचार सत्य कर्तव्य में ही रत रहेंगे। हाँ कोई आजीविका पर धक्का लगे, अथवा आत्महित में कोई बाधा आए और उस बाधा को दूर करने के लिए कुछ सामना करना पडे़, उत्तर देना पड़े तो वह बात अलग है, पर जहाँ न हमारी आजीविका पर ही धक्का लग रहा हो और न हमारी धर्मसाधना में कोई आ रही हो, फिर भी किसी प्रतिकूल चलने वाले पर रोष करना अथवा उससे बदला लेने का भाव करना, यह तो हित की बात नही है।
क्षमा से अंतःस्वच्छता―भैया ! खुद को तो बहुत स्वच्छ रहना चाहिए क्योंकि बदला देने का परिणाम यदि रहा तो उससे चित्त में शल्य रहा, पापों का बंध बराबर चलता रहा जब तक कि बदला लेने का संस्कार मन में रहा आया हो। लाभ क्या उठा पाया, हानि ही अपनी की, कर्मबंध किया, समय दुरूपयोग में गुजारा और फायदा कुछ भी न उठाया। शांत रहते तो बुद्धि स्वच्छ रहती, पुण्य बंध होता, धर्म में भी गति होती। तब गृहस्थ को कम से कम इतना तो अपना मनोबल बढ़ाना चाहिए कि जिस घटना में आजीविका आदि पर धक्का न लग रहा हो, आत्महित में बाधा न हो रही हो तो ऐसी घटनाओं में न कुछ क्षोभ लाना है और न कुछ प्रतिक्रिया करने का आशय बनाना है। योगी साधु पुरुष तो किसी भी परिस्थिति में चाहे कोई प्राण भी ले रहा हो तब भी उस घातक पुरुष पर रोष नही करते हैं उनके और उत्कृष्ट क्षमा होती है। चित्त में रागद्वेष का क्षोभ न मच सकेऐसा अपना ज्ञानबल बढ़ाना, यही आत्मा के हित की बात है।
कल्पना की व्यर्थ विपदा―भैया! मोटी बात सोचो, इस आत्मा का साथी कौन है? इस आत्मा के साथ जायेगा कौन? मरते हुए लोगों को देखा है, एक धागा भी साथ नही जाता है। खूब बढ़िया ऐसी बंडी पहिना दो जिसे उतार भी न सकें या कैसे ही कपड़ों में गूँथकर रख दो, पर जीव जो मर रहा है उसके साथ कुछ भी जा सकता है क्या? मरने वाले मनुष्य की छाती पर नोटों की गठरी रख दो तो भी वह उसमें से कुछ ग्रहण कर सकता है क्या? कितना दयापूर्ण वातावरण है वह। मोही पुरुष कितनी विपत्ति में पड़ा हुआ है, उसे सत्य मार्ग ही नही दीखता। एक राग के अंधकार में बहा जा रहा है और रागी पुरुष ही सामने मिलते हैं,सो वे पुरुष इसको कुछ बुरा भी नही कहते। दूसरें की रागभरी चेष्टा को देखकर दूसरे रागी लोग उसकी सराहना ही करते हैं। तब कैसे इस राग की विपदा से दूर हो?
अंतः आश्रय का साहस―धर्म का पथ बड़ा कटीला पथ है। जब तक कोई अपने में इतना साहस नही करता कि लो मैं तो दुनिया के लिए मरा ही हुआ हूं, अर्थात् मुझे दुनिया को कुछ नही दिखाना है। दस साल आगे मरने को समझलें कि अभी हम दुनिया के लिए मर गए। जो जीवित हूं, वह केवल आत्मकल्याण के लिए शांति और संतोष से रहकर इन कर्मों को काटने के लिए जीवित हूं, ऐसा साहस जब तक नही आता तब तक तो सही मायने में यह धर्म का पात्र नही होता। अब अपने को टटोल लो कि हमें किस प्रकार का साहस रखना है, जिन जीवों में मोह पड़ा हुआ है, पुत्र हो, स्त्री हो, कोई हो उनके प्रति उनको विषय बनाकर जो उपयोग विकल्पों में गुथे रहते हैं भला बतलाओ तो सही कि इन विकल्प जालों से कौन सा आनंद पाया, कौन सा प्रकाश पाया?
व्यामोह विपत्―व्यामोही प्राणियो क कितना अंधकार बना हुआ है, अंतर में श्रद्धा यह बैठी है कि यह तो मेरा है, बाकी दुनिया गैर है। भाईचारे के नाते से व्यवस्था करना अन्य बात है। व्यवस्था करना पड़ती है, ठीक है, किंतु अंतरंग में यह श्रद्धा जम जाय कि मेरे तो ये ही है तीन साड़े तीन लोग, और बाकी सब गैर है, ऐसी बुद्धि में कितना पाप समाया हुआ है, उसे कौन भोगेगा? प्रकट भी दिखता है कि किसी का कुछ कोई दूसरा नही है। देखते भी जाते हैं,घटनाएँ भी घट जाती है, तिस पर भी वासना वही रहती है। एक अहाने में कहते हैं कि कुत्ता की पूँछ को किसी पुँगेरी में अर्थात् पोले बांस में जो कि सीधा होता है उसमें पूँछ को रख दो तो पूँछ सीधी तो रहेगी किंतु जब निकलेगी तो तुरंत टेढ़ी हो जायगी, ऐसे ही कितनी मोह की तीव्र वासना भरी है अज्ञानी जीवों की। किसी गोष्ठी में या पंचकल्याण विधानों के दृश्यों में, या विद्वानों के भाषणों में या मरघटों में, किसी को जलाने जा रहे हैं अथवा समुदायो में ये भाव कर लेते हैं,चर्चा कर लेते हैं,ज्ञान की और वैराग्य की, पर थोड़ी ही देर बाद जैसे के तैसे ही रह जाते हैं। बड़ी विपदा है यह मोह की।
निर्मोहता की अमीरी―भैया ! मोह जिसका छूटे वही पुरुष सच्चा अमीर है। कौन पूछने वाला है, किसके लिए तृष्णा बढ़ाई जा रही है? कोई जीवन में अथवा मरण में साथी हो सकता हो तो निहारो जब तक चित्त में विक्षेप है तब तक इस जीव को साता हो ही नही सकती। इसलिए सबसे पहिले योगी को अपना चित्त शांत रखना चाहिए। एक ज्ञान बढ़ाने का चस्का लगा लीजिए फिर दिन बडे़ अच्छे कटेंगे। इतना ज्ञान सीखा अब और आगे समझना है।
प्राप्त बल का आत्महित में सदुपयोग―जब तक आँखे काम दे रही है, जब तक इन आँखों से देखना बन रहा है तब तक स्वाध्याय करके, ज्ञान सीखकर क्यों न सदुपयोग कर लिया जाय? जब कदाचित् मान लो आँखों से दिखना बंद हो जाय तब क्या किया जाएगा? ज्ञानार्जन का उपाय फिर ज्यादा तो न किया जा सकेगा। भले ही बहुत कुछ सीखा हो तो ध्यान करके ज्ञान का फल पा सके। लेकिन जब तक ये इंद्रियां सजग है, समर्थ है तब तक इनका सदुपयोग कर ले। कानों से जब तक सुनाई दे रहा है तो तत्त्व की बात सुनें ना, ज्ञान की बात वैराग्य की बात सुनें ना, महापुरुषों के चारित्र की बात सुने, जिनके सुनने से कुछ लाभ होगा। जब तक बोलते बन रहा है जीभ ठीक चल रही है तब तक प्रभुभक्ति गुणगान स्तवन कर लें ना। जब बल थक जायगा, कुछ बोल न सकेंगे, जीभ लड़खड़ा जायगी फिर क्या कर सकेंगे? जब तक शरीर में बल है, हाथ पैर चलते हैं तब तक गुरुओं की सेवा कर ले ना। जब स्वयं ही थक जायेंगे, उठ ही न सकेंगे फिर क्या किया जा सकेगा? जब तक यह बल बना हुआ है इस बल का उपयोग धर्म साधना के लिए करना चाहिए।
धर्म साधना―धर्म साधना मोह राग द्वेष उत्पन्न न हो, इसमें ही है। इसकी सिद्धि के लिए योगी पुरुष एकांत स्थान में रहने का अभ्यास करते हैं।एकांत निवास आत्मस्वरूप की बड़ी साधना है। एकांत निवास में जब रागद्वेष के साधन ही सामने नही है तो प्रकृति से इसके चित्त पर स्फूर्ति जाग्रत होती है। जब तक हेय और उपादेय पदार्थ का परिज्ञान न होगा तब तक कैसे आत्मस्वरूप का अभ्यास बन सकता है? सबसे बड़ी दुर्लभ वस्तु है तो ज्ञान है। धन, कन, कंचन, हाथी, घोड़ा दुकान वैभव ये कोई काम न आयेंगे, पर अपना आत्मज्ञान एक बार भी प्रकट हो जाए तो यह अचल सुख को उत्पन्न कर देगा। इसलिए करोड़ों बातो मे भी प्रधान बात यह यही है कि अनेक उपाय करके एक ज्ञानार्जन का साधन बना ले।
विनाशीक वस्तु से अविनाशी तत्त्व के लाभ का विवेक―यदि नष्ट हो जाने वाली चीज का व्यय करके अविनाशी चीज प्राप्त होती है तो इसमें विवेक ही तो रहा। यह वैभव धन खर्च हो जाता है त्याग हो जाता है और उस त्याग और व्यय करने से कोई हमें कुछ ज्ञान की सिद्धि होती है, दृष्टि जगती है तो ऐसी उदारता का आना लाभ ही तो है, अन्यथा तृष्णा में कृपणता में होता क्या है कि वियोग तो सबका होगा ही, इसमें ज्ञान से सूना-सूना रहने के कारण अंधेरी छायी रहेगी, दुःखी होगे। कृपण पुरुष के कितनी विपत्ति है, इसका ज्ञान कब होता है जब कोई लुटेरे लूट ले, धन नष्ट हो जाय, तो लोगो को विदित होता है कि इसके पास इतना कुछ था। बताओ कौन सा लाभ लूट लिया राग की आसक्ति में और मोह ममता में?
तत्त्वज्ञान का आदर―भैया! जब तक एक ज्ञान का प्रकाश नही हो सकता तब तक आत्मा में शांति आ ही नही सकती। इस कारण यह कर्तव्य है कि इस स्व और पर का यथार्थ विवेक बनाएँ। मेरा आत्मा समस्त परपदार्थों से न्यारा ज्ञानानंदस्वरूप है, ऐसा भान जिन संतो के रहा करता है ये ज्ञानी योगी पुरुष है। सब दशाओं में ज्ञान ही तो मदद देता है। धन कमा रहे हों तो वहाँ भी क्या ज्ञान बना रहकर, भोंदूपना करके व्यापार का काम बन जायगा? वहाँ भी ज्ञानकला का ही प्रताप चल रहा है। किसी भी प्रकार की जो कुछ भी श्रेष्ठता है वह सब ज्ञान की कला के प्रताप से है। इस तत्त्वज्ञान का आदर करो, यही सहाय है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी जगत में सहाय नही है। जो जीवन में ज्ञानी होता है वह मरते समय भी अपनी ज्ञान वासना के कारण प्रसन्न रहता है।
जगत् का खेल―अहो कैसा है यह जगत का खेल, पहिले बनाया जाता और फिर मिटाना पड़ता। जैसे बच्चे लोग मिट्टी का भदूना बनाते हे बाद में बनाकर बिगाड़ देते हैं,अपना समय उस खेल में व्यर्थ गंवाते हैं ऐसे ही रागी मोही जन किसी काम को बनाते हैं तो वह भी क्या सदा तक बना रह पाता है? वह भी बिखर जाता है। तो क्या बुद्धिमानी हुई, बनाया और बिगाड़ा। बनाने में तो इतना समय लगा और बिगाड़ने में कुछ भी समय न लगा। जिंदगी भर तो इतना श्रम किया और अंत में फल कुछ न मिला तो ऐसे व्यवसाय से, परिश्रम से कौन सा अपने आपके आत्मा का लाभ उठाया?
व्यवहार से लाभ―भैया ! सब हिम्मत की बात है। जो पुरुष इतना तक समझने के लिए तैयार रह सकता है कि मैं तो इस दुनिया के लिए मरा हुआ ही हूं, मैं इन मायामयी मोहीप्राणियों से, इन मोही मायामयी समागमों से मैं कुछ नही कहलवाना चाहता हूँ, मैं अपने आप में ही प्रसन्न हूं, इतना साहस यदि किया जा सकता है तब धर्म पालन की बात बोलना चाहिए अन्यथा सब एक पार्ट अदा किया जा रहा है। जैसे दूकान किया, ऐसे ही पूजन भी किया, यह सब तफरी है एक तरह की। जिसको ज्ञान की दृष्टि नही है, जिसने अपना लक्ष्य विशुद्ध नही बना पाया है उनका दिल बहलावा है। खोटे-खोटे कामों में ही बहुत समय तक रहने पर फिर दिल नही लगता है, ऊब जाता है, अब उस दिल को कहाँ लगाये? तो कुछ यहाँ व्यवहार धर्म की बातें भी बना ली।
व्यवहार धर्म की बाह्य सहायकता―व्यवहार धर्म बुरा नही है, हमारी भलाई में सहायक है, पर जैसे हमारी भलाई हो सकती है उस प्रकार की दृष्टि बनाकर व्यवहार धर्म को करें तब ही तो भलाई हो सकती है जो पुरुष अपने को सबसे न्यारा अकिंचन केवल ज्ञानानंद स्वरूप निहारेगा उसको ऋद्वि सिद्धि होगी और जो बहिर्मुखदृष्टि करके अपना उपयोगबिगाड़ेगा, भले ही पूर्वजन्म के पुण्य के प्रताप से कुछ जड़ विभूति मिल जाय किंतु उसने किया कुछ नही है, आगे वह दुर्गति का ही पात्र होगा। इससे रागद्वेष न हो, ज्ञानप्रकाश बने ऐसा उद्यम करना इसमें ही हित की बात होगी।