ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 8
From जैनकोष
अष्टमं पर्व
विवाह हो जाने के बाद वज्रजंघ ने, जहाँ नित्य ही अनेक उत्सव होते रहते थे ऐसे चक्रवर्ती के भवन में उत्तम-उत्तम भोगोपभोग संपदाओं के द्वारा भोगोपभोगों का अनुभव करते हुए दीर्घकाल तक निवास किया था ।।1।। वहां श्रीमती के स्तनों का स्पर्श करने तथा मुखरूपी कमल के देखने से उसे बड़ी प्रसन्नता होती थी सो ठीक ही है क्योंकि इष्ट वस्तु के आश्रय से सभी को प्रसन्नता होती है ।।2।। जिस प्रकार भौंरा कमल से रस और सुवास को ग्रहण करता हुआ कभी संतुष्ट नहीं होता उसी प्रकार राजा वज्रजंघ भी श्रीमती के मुखरूपी कमल से रस और सुवास को ग्रहण करता हुआ कभी संतुष्ट नहीं होता था । सच है, कामसेवन से कभी संतोष नहीं होता ।।3।। श्रीमती का मुखरूपी चंद्रमा चमकीले दाँतों की किरणरूपी चाँदनी से हमेशा उज्जवल रहता था इसलिए वज्रजंघ उसे टिमकाररहित लालसापूर्ण दृष्टि से देखता रहता था ।।4।। श्रीमती ने अत्यंत मनोहर कटाक्षावलोकन, लीलासहित मुसकान और मधुर भाषणों के द्वारा उसका चित्त अपने अधीन कर लिया था ।।5।। श्रीमती की कमर पतली थी और उदर किसी नदी के गहरे कुंड के समान था । क्योंकि कुंड जिस प्रकार लहरों से मनोहर होता है उसी प्रकार उसका उदर भी त्रिवलि से (नाभि के नीचे रहने वाली तीन रेखाओं से) मनोहर था और कुंड जिस प्रकार आवर्त से शोभायमान होता है उसी प्रकार उसका उदर भी नाभिरूपी आवर्त से शोभायमान था । इस तरह जिसका मध्य भाग कृश है ऐसी किसी नदी के कुंड के समान श्रीमती के उदर प्रदेश पर वह वज्रजंघ रमण करता था ।।6।। तरुण हंस के समान वह वज्रजंघ, करधनीरूपी पक्षियों के शब्द से शब्दायमान उस श्रीमती के मनोहर नितंबरूपी पुलिन पर चिरकाल तक क्रीडा करके संतुष्ट रहता था ।।7।। स्तनों से वस्त्र हटाकर उन पर हाथ फेरता हुआ वज्रजंघ ऐसा शोभायमान होता था जैसा कि कमलिनी के कुड्मल (बौडी) का स्पर्श करता हुआ मदोन्मत्त हाथी शोभायमान होता है ।।8।। जो स्तनरूपी चक्रवाक पक्षियों से सहित है, चंदनद्रवरूपी कीचड़ से युक्त है और स्तनवस्त्र (कंचुकी) रूपी शेवाल से शोभित है ऐसे उस श्रीमती के वक्ष:-स्थलरूपी सरोवर में वह वज्रजंघ निरंतर क्रीडा करता था ।।9।। उस सुंदरी तथा सहृदया श्रीमती ने कामपाश के समान अपनी कोमल भुजलताओं को वज्रजंघ के गले में डालकर उसका मन बाँध लिया था―अपने वश कर लिया था ।।10।। वह वज्रजंघ श्रीमती की कोमल बाहुओं के स्पर्श से स्पर्शन इंद्रिय को, मुखरूपी कमल के रस और गंध से रसना तथा घ्राण इंद्रिय को, संभाषण के समय मधुर शब्दों को सुनकर कर्ण इंद्रिय को और शरीर के सौंदर्य को निरखकर नेत्र इंद्रिय को तृप्त करता था । इस प्रकार वह पाँचों इंद्रियों को सब प्रकार से चिरकाल तक संतुष्ट करता था सो ठीक ही है इंद्रियसुख चाहने वाले जीवों को इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है ।।11-12।। करधनी रूपी महासर्प से घिरे हुए होने के कारण अन्य पुरुषों को अप्राप्य श्रीमती के कटिभागरूपी बड़े खजाने पर वज्रजंघ निरंतर क्रीड़ा किया करता था ।।13।। जब कभी श्रीमती प्रणयकोप से कुपित होती थी तब वह धीरे-धीरे वज्रजंघ के केश पकड़कर खींचने लगती थी तथा कर्णोत्पल के कोमल प्रहारों से उसका ताड़न करने लगती थी । उसकी इन चेष्टाओं से वज्रजंघ को बड़ा ही संतोष और सुख होता था ।।14।। परस्पर की खीचातानी से जिसके आभरण अस्त-व्यस्त होकर गिर पड़े हैं तथा जो रतिकालीन स्वेद-बिंदुओं से कर्दम युक्त हो गया है ऐसे श्रीमती के शरीर में उसे बड़ा संतोष होता था । सो ठीक है कामीजन इसी को उत्कृष्ट सुख समझते हैं ।।15।। राजमहल में झरोखे के समीप ही इनकी शय्या थी इसलिए झरोखे से आने वाली मंद-मंद वायु से इनका रति-श्रम दूर होता रहता था ।।16।। श्रीमती का मुखरूपी चंद्रमा वज्रजंघ के आनंद को बढ़ाता था, उसके नेत्र, नेत्रों का सुख विस्तृत करते थे तथा उसके दोनों स्तन अपूर्व स्पर्श-सुख को बढ़ाते थे ।।17।।जिस प्रकार कोई रोगी पुरुष उत्तम औषध पाकर समय पर उसका सेवन करता हुआ ज्वर आदि से रहित होकर सुखी हो जाता है उसी प्रकार वज्रजंघ भी उस कन्यारूपी अमृत को पाकर समय पर उसका सेवन करता हुआ काम-ज्वर से रहित होकर सुखी हो गयी था ।।18।। वह वज्रजंघ कभी तो नंदन वन के साथ स्पर्धा करनेवाले श्रेष्ठ वृक्षों से शोभायमान और महाविभूति से युक्त घर के उद्यानों में श्रीमती के साथ रमण करता था और कभी लतागृहों (निकुंजों) से शोभायमान तथा क्रीड़ा-पर्वतों से सहित बाहर के उद्यानों में उत्सुक होकर क्रीड़ा करता था ।।19-20।। कभी फूली हुई लताओं से झरे हुए पुष्पों से शोभायमान नदीतट के प्रदेशों में विहार करता था ।।21।। और कभी कमलों की परागरज के समूह से पीले हुए बावड़ी के जल में प्रिया के साथ जलक्रीड़ा करता था ।।22।। वह वज्रजंघ जलक्रीड़ा के समय सुवर्णमय पिचकारियों से अपनी प्रिया श्रीमती के तीखे कटाक्षों वाले मुख-कमल का सिंचन करता था ।।23।। पर श्रीमती जब प्रिय पर जल डालने के लिए पिचकारी उठाती थी तब उसके स्तनों का आंचल खिसक जाता था और इससे वह लज्जा से विमुख हो जाती थी ।।24।। जलक्रीड़ा करते समय श्रीमती के स्तन तट पर जो महीन वस्त्र पानी से भीगकर चिपक गया था वह जल की छाया के समान मालूम होता था । तथा उसने उसके स्तनों की शोभा कम कर दी थी ।।25।। श्रीमती के स्तन कुड्मल (बौंड़ी) के समान, कोमल भुजाएँ मृणाल के समान और मुख कमल के समान शोभायमान था इसलिए वह जल के भीतर कमलिनी की शोभा धारण कर रही थी ।।26।। हमारे ये कमल श्रीमती के मुखकमल की कांति को जीतने के लिए समर्थ नहीं हैं―यह विचार कर ही मानो चंचल जल ने श्रीमती के कर्णोत्पल को वापस बुला लिया था ।।27।। ऊपर से पड़ती हुई जलधारा से जिसमें सदा वर्षाऋतु बनी रहती है ऐसे धारागृह में (फव्वारा के घर में) वह वज्रजंघ बिजली के समान अपनी प्रिया श्रीमती के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करता था ।।28।। और कभी ताराओं के प्रतिबिंब के बहाने जिन पर उपहार के फूल बिखेरे गये हैं ऐसे राजमहलों की रत्नमयी छतों पर रात के समय चाँदनी का उपभोग करता हुआ क्रीड़ा करता था ।।29।। इस प्रकार दोनों वधू-वर उस पुंडरीकिणी नगरी में स्वर्गलोक के भोगों से भी बढ़कर मनोहर भोगोपभोगों के द्वारा चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे ।।30।। ऊपर कहे हुए भोगों के द्वारा, जिनेंद्रदेव की पूजा आदि उत्सवों के द्वारा और पात्र दान आदि मांगलिक कार्यों के द्वारा उन दोनों का वहाँ बहुत समय व्यतीत हो गया था ।।31।। वहाँ अनेक लोग आकर वज्रजंघ के लिए उत्तम-उत्तम वस्तुएँ भेंट करते थे, पूजा आदि के उत्सव होते रहते थे तथा पुत्र-जन्म आदि के समय अनेक उत्सव मनाये जाते थे जिससे उन दोनों का दीर्घ समय अनायास ही व्यतीत हो गया था ।।32।।
वज्रजंघ की एक अनुंधरी नाम की छोटी बहन थी जो उसी के समान सुंदरी थी । राजा वज्रबाहु ने वह बड़ी विभूति के साथ चक्रवर्ती के बड़े पुत्र अमिततेज के लिए प्रदान की थी ।।33।। जिस प्रकार कोयल वसंत को पाकर प्रसन्न होती है उसी प्रकार वह नवविवाहिता सती अनुंधरी, चक्रवर्ती के पुत्र को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुई थी ।।34।। इस प्रकार जब सब कार्य पूर्ण हो चुके तब चक्रवर्ती वज्रदंत महाराज ने अपने नगर को वापस जाने के लिए पूजा सत्कार आदि से सबका सम्मान कर वधू-वर को विदा कर दिया ।।35।। उस समय चक्रवर्ती ने पुत्री के लिए हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, रत, देश और खजाना आदि कुलपरंपरा से चला आया बहुत-सा धन दहेज में दिया था ।।36।।
वज्रजंघ और श्रीमती ने अपने गुणों से समस्त पुरवासियों को उन्मुग्ध कर लिया था इसलिए उनके जाने का क्षोभकारक समाचार सुनकर समस्त पुरवासी अत्यंत व्याकुल हो उठे थे ।।37।। तदनंतर किसी शुभ दिन श्रीमान् वज्रजंघ ने अपनी पत्नी श्रीमती के साथ प्रस्थान किया । उस समय उनके प्रस्थान को सूचित करने वाले नगाड़ों का गंभीर शब्द हो रहा था ।।38।। वज्रजंघ अपनी पत्नी के साथ आगे चलने लगे और महाराज वज्रबाहु तथा उनकी पत्नी वसुंधरा महाराज्ञी उनके पीछे-पीछे जा रहे थे ।।39।। पुरवासी, मंत्री, सेनापति तथा पुरोहित आदि जो भी उन्हें पहुँचाने गये थे वज्रजंघ ने उन्हें थोड़ी दूर से वापस विदा कर दिया था ।।40।। हाथी, घोड़े, रथ और पियादे आदि की विशाल सेना का संचालन करता हुआ वज्रजंघ क्रम-क्रम से उत्पलखेटक नगर में पहुँचा ।।41। उस समय उस नगरी में अनेक उत्तम-उत्तम रचनाएँ हो गयी थीं, कई प्रकार के उत्सव मनाये जा रहे थे । उस नगर में प्रवेश करता हुआ अतिशय दैदीप्यमान् वज्रजंघ इंद्र के समान शोभायमान हो रहा था ।।42।। जब वज्रजंघ ने अपनी प्रिया श्रीमती के साथ नगर की प्रधान-प्रधान गलियों में प्रवेश किया तब पुरसुंदरियों ने महलों की छतों पर चढ़कर उन दोनों पर बड़े प्रेम के साथ अंजलि भर-भरकर फूल बरसाये थे ।।43।। उस समय सभी ओर से प्रजाजन आते थे और शुभ आशीर्वाद के साथ-साथ पुष्प तथा अक्षत से मिला हुआ पवित्र प्रसाद उन दोनों दंपतियों के समीप पहुँचाते थे ।।44।। तदनंतर बजती हुई भेरियों के गंभीर शब्द से व्याप्त तथा अनेक तोरणों से अलंकृत नगर की शोभा देखते हुए वज्रजंघ ने राजभवन में प्रवेश किया ।।45।। वह राजभवन अनेक प्रकार की लक्ष्मी से शोभित था, महा मनोहर था और सर्व ऋतुओं में सुख देने वाली सामग्री से सहित था । ऐसे ही राजमहल में वज्रजंघ श्रीमती के साथ बड़े प्रेम और सुख से निवास करता था ।।46।। यद्यपि माता-पिता आदि गुरुजनों के वियोग से श्रीमती खिन्न रहती थी परंतु वज्रजंघ बड़े प्रेम से अत्यंत सुंदर राजमहल दिखलाकर उसका चित्त बहलाता रहता था ।।47।। शीलव्रत धारण करने वाली तथा सब सखियों में श्रेष्ठ पंडिता नाम की सखी भी उसके साथ आयी थी । वह भी नृत्य आदि अनेक प्रकार के विनोदों से उसे प्रसन्न रखती थी ।।48।। इस प्रकार निरंतर भोगोपभोगों के द्वारा समय व्यतीत करते हुए उसके क्रमश: उनचास युगल अर्थात् अट्ठानवे पुत्र उत्पन्न हुए ।।49।।
तदनंतर किसी एक दिन महाकांतिमां महाराज वज्रबाहु महल की छत पर बैठे हुए शरद् ऋतु के बादलों का उठाव देख रहे थे ।।50।। उन्होंने पहले जिस बादल को उठता हुआ देखा था उसे तत्काल में विलीन हुआ देखकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया । वे उसी समय संसार के सब भोगों से विरक्त हो गये और मन में इस प्रकार गंभीर विचार करने लगे ।।51।। देखो, यह शरद् ऋतु का बादल हमारे देखते-देखते राजमहल की आकृति को धारण किये हुए था और देखते-देखते ही क्षण-भर में विलीन हो गया ।।52।। ठीक, इसी प्रकार हमारी यह संपदा भी मेघ के समान क्षण-भर में विलीन हो जायेगी । वास्तव में यह लक्ष्मी बिजली के समान चंचल है और यौवन की शोभा भी शीघ्र चली जाने वाली है ।।53।। ये भोग प्रारंभ काल में ही मनोहर लगते हैं किंतु अंतकाल में (फल देने के समय) भारी संताप देते हैं । यह आयु भी फूटी हुई नाली के जल के समान प्रत्येक क्षण नष्ट होती जाती है ।।54।। रूप, आरोग्य, ऐश्वर्य, इष्ट-बंधुओं का समागम और प्रिय स्त्री का प्रेम आदि सभी कुछ अनवस्थित हैं―क्षणनश्वर हैं ।।55।। इस प्रकार विचार कर चंचल लक्ष्मी को छोड़ने के अभिलाषी बुद्धिमान् राजा वज्रबाहु ने अपने पुत्र वज्रजंघ का अभिषेक कर उसे राज्यकार्य में नियुक्त किया ।।56।। और स्वयं राज्य तथा भोगों से विरक्त हो शीघ्र ही श्री यमधरमुनि के समीप जाकर पाँच सौ राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले ली ।।57।। उसी समय वीरबाहु आदि श्रीमती के अट्ठानवे पुत्र भी इन्हीं राजऋषि वज्रबाहु के साथ दीक्षा लेकर संयमी हो गये ।।58।। वज्रबाहु मुनिराज ने विशुद्ध परिणामों के धारक वीरबाहु आदि मुनियों के साथ चिरकाल तक विहार किया । फिर क्रम-क्रम से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षरूपी परमधाम को प्राप्त किया ।।59।। उधर वज्रजंघ भी पिता की राज्य-विभूति प्राप्त कर प्रजा को प्रसन्न करता हुआ चिरकाल तक अनेक प्रकार के भोग भोगता रहा ।।60।।
अनंतर किसी एक दिन बड़ी विभूति के धारक तथा अनेक राजाओं से घिरे हुए महाराज वज्रदंत सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे ।।61।। कि इतने में ही वनपाल ने एक नवीन खिला हुआ सुगंधित कमल लाकर बड़े हर्ष से उनके हाथ पर अर्पित किया ।।62।। वह कमल राजा के मुख की सुगंध के समान सुगंधित और बहुत ही सुंदर था । उन्होंने उसे अपने हाथ में लिया और अपने करकमल से घुमाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ सूँघा ।।63।। उस कमल के भीतर उसकी सुगंधि का लोभी एक भ्रमर रुककर मरा हुआ पड़ा था । ज्यों ही बुद्धिमान महाराज ने उसे देखा त्यों ही वे विषयभोगों से विरक्त हो गये ।।64।। वे विचारने लगे कि―अहो, यह मदोन्मत्त भ्रमर इसकी सुगंधि से आकृष्ट होकर यहाँ आया था और रस पीते-पीते ही सूर्यास्त हो जाने से इसी में घिरकर मर गया । ऐसी विषयों की चाह को धिक्कार हो ।।65।। ये विषय किंपाक फल के समान विषम हैं । प्रारंभ काल में अर्थात् सेवन करते समय तो अच्छे मालूम होते हैं परंतु फल देते समय अनिष्ट फल देते हैं इसलिए इन्हें धिक्कार हो ।।66।। प्राणियों का यह शरीर जो कि विषय-भोगों का साधन है शरद्ऋतु के बादल के समान क्षण-भर में विलीन हो जाता है इसलिए ऐसे शरीर को भी धिक्कार हो ।।67।। यह लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चंचल है, यह इंद्रिय-सुख भी अस्थिर हैं और धन-धान्य आदि की विभूति भी स्वजन में प्राप्त हुई विभूति के समान शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली है ।।68।। जो भोग संसारी जीवों को लुभाने के लिए आते हैं और लुभाकर तुरंत ही चले जाते हैं ऐसे इन विषयभोगों को प्राप्त करने के लिए हे विद्वजनों, तुम क्यों भारी प्रयत्न करते हो ।।69।। शरीर, आरोग्य, ऐश्वर्य, यौवन, सुखसंपदाएँ, गृह, सवारी आदि सभी कुछ इंद्रधनुष के समान अस्थिर हैं ।।70।। जिस प्रकार तृण के अग्रभाग पर लगा हुआ जल का बिंदु पतन के सम्मुख होता है उसी प्रकार प्राणियों की आयु का विलास पतन के सम्मुख होता है ।।71।। यह यमराज संसारी जीवों के साथ सदा युद्ध करने के लिए तत्पर रहता है । वृद्धावस्था इसकी सबसे आगे चलने वाली सेना है, अनेक प्रकार के रोग पीछे से सहायता करने वाले बलवान् सैनिक हैं और कषायरूपी भील सदा इसके साथ रहते हैं ।।72।। ये विषय-तृष्णारूपी विषम ज्वालाओं के द्वारा इंद्रियसमूह को जला देते हैं और विषमरूप से उत्पन्न हुई वेदना प्राणों को नष्ट कर देती है ।।73।। जब कि इस संसार में प्राणियों को सुख तो अत्यंत अल्प है और दुःख ही बहुत है तब फिर इसमें संतोष क्या है और कैसे हो सकता है ? ।।74।। विषय प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ यह प्राणी पहले तो अनेक क्लेशों से दुःखी होता है फिर भोगते समय तृप्ति न होने से दुःखी होता है और फिर वियोग हो जाने पर पश्चात्ताप करता हुआ दुःखी होता है । भावार्थ―विषय-सामग्री की तीन अवस्थाएँ होती हैं―1 अर्जन, 2 भोग और 3 वियोग । यह जीव उक्त तीनों ही अवस्थाओं में दुःखी रहता है ।।75।। जो कुल आज अत्यंत धनाढ्य और सुखी माना जाता है वह कल दरिद्र हो सकता है और जो आज अत्यंत दुःखी है वही कल धनाढ्य और सुखी हो सकता है ।।76।। यह सांसारिक सुख दुःख उत्पन्न करने वाला है, धन विनाश से सहित है, संयोग के बाद वियोग अवश्य होता है और संपत्तियों के अनंतर विपत्तियाँ आती हैं ।।77।। इस प्रकार समस्त संसार को अनित्यरूप से देखते हुए चक्रवर्ती ने अंत में नीरस होने वाले विषयों को विष के समान माना था ।।78।।
इस तरह विषयभोगों से विरक्त होकर चक्रवर्ती ने अपने साम्राज्य का भार अपने अमिततेज नामक पुत्र के लिए देना चाहा ।।79।। और राज्य देने की इच्छा से उससे बार-बार आग्रह भी किया परंतु वह राज्य लेने के लिए तैयार नहीं हुआ । इसके तैयार न होने पर इसके छोटे भाइयों से कहा गया परंतु वे भी तैयार नहीं हुए ।।80।। अमिततेज ने कहा―हे देव, जब आप ही इस राज्य को छोड़ना चाहते हैं तब यह हमें भी नहीं चाहिए । मुझे यह राज्यभार व्यर्थ मालूम होता है । हे पूज्य, मैं आपके साथ ही तपोवन को चलूँगा इससे आपकी आज्ञा भंग करने का दोष नहीं लगेगा । हमने यह निश्चय किया है कि जो गति आपकी है वही गति मेरी भी है ।।81-82।। तदनंतर, वज्रदंत चक्रवर्ती ने पुत्रों का राज्य नहीं लेने का दृढ़ निश्चय जानकर अपना राज्य, अमिततेज के पुत्र पुंडरीक के लिए दे दिया । उस समय वह पुंडरीक छोटी अवस्था का था और वही संतान की परिपाटी का पालन करने वाला था ।।83।। राज्य की व्यवस्था कर राजर्षि वज्रदंत यशोधर तीर्थंकर के शिष्य गुणधर मुनि के समीप गये और वहाँ अपने पुत्र, स्त्रियों तथा अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गये ।।84।। महाराज वज्रदंत के साथ साठ हजार रानियों ने, बीस हजार राजाओं ने और एक हजार पुत्रों ने दीक्षा धारण की थी ।।85।। उसी समय श्रीमती की सखी पंडिता ने भी अपने अनुरूप दीक्षा धारण की थी―व्रत ग्रहण किये ये । वास्तव में पांडित्य वही है जो संसार से उद्धार कर दे ।।86।।
तदनंतर, जिस प्रकार सूर्य के वियोग से कमलिनी शोक को प्राप्त होती है उसी प्रकार चक्रवर्ती वज्रदंत और अमिततेज के वियोग से लक्ष्मीमती और अनुंधरी शोक को प्राप्त हुई थीं ।।87।। पश्चात् जिन्होंने दीक्षा नहीं ली थी मात्र दीक्षा का उत्सव देखने के लिए उनके साथ-साथ गये थे ऐसे प्रजा के लोग, मंत्रियों-द्वारा अपने आगे किये गये पुंडरीक बालक को साथ लेकर नगर में प्रविष्ट हुए । उस समय वे सब शोक से कांति शून्य हो रहे थे ।।88।। तदनंतर लक्ष्मीमती को इस बात की भारी चिंता हुई कि इतने बड़े राज्य पर एक छोटा-सा अप्रसिद्ध बालक स्थापित किया गया है । यह हमारा पौत्र (नाती या पोता) है । बिना किसी पक्ष की सहायता के मैं इसकी रक्षा किस प्रकार कर सकूँगी । मैं यह सब समाचार आज ही बुद्धिमान् वज्रजंघ के पास भेजती हूँ । उनके द्वारा अधिष्ठित (व्यवस्थित हुआ) इस बालक का यह राज्य अवश्य ही निष्कंटक हो जायेगा अन्यथा इस पर आक्रमण कर बलवान् राजा इसे अवश्य ही नष्ट कर देंगे ।।89-91।। ऐसा निश्चय कर लक्ष्मीमती ने गंधर्वपुर के राजा मंदरमाली और रानी सुंदरी के चिंतागति और मनोगति नामक दो विद्याधर पुत्र बुलाये । वे दोनों ही पुत्र चक्रवर्ती से भारी स्नेह रखते थे पवित्र हृदय वाले, चतुर, उच्चकुल में उत्पन्न, परस्पर में अनुरक्त, समस्त शास्त्रों के जानकार और कार्य करने में बड़े ही कुशल थे ।।92-93।। इन दोनों को एक पिटारे में रखकर समाचारपत्र दिया तथा दामाद और पुत्री को देने के लिए अनेक प्रकार की भेंट दी और नीचे लिखा हुआ संदेश कहकर दोनों को वज्रजंघ के पास भेज दिया ।।94।। वज्रदंत चक्रवर्ती अपने पुत्र और परिवार के साथ वन को चले गये हैं―वन में जाकर दीक्षित हो गये हैं । उनके राज्य पर कमल के समान मुख वाला पुंडरीक बैठाया गया है । परंतु कहाँ तो चक्रवर्ती का राज्य और कहाँ यह दुर्बल बालक ? सचमुच एक बड़े भारी बैल के द्वारा उठाने योग्य भार के लिए एक छोटा-सा बछड़ा नियुक्त किया गया । यह पुंडरीक बालक है और हम दोनों सास बहू स्त्री हैं इसलिए यह बिना स्वामी का राज्य प्राय: नष्ट हो रहा है । अब इसकी रक्षा आप पर ही अवलंबित है । अतएव अविलंब आइए । आप अत्यंत बुद्धिमान् हैं । इसलिए आपके सन्निधान से यह राज्य निरुपद्रव हो जायेगा ।।95-98।। ऐसा संदेश लेकर वे दोनों उसी समय आकाशमार्ग से चलने लगे । उस समय वे समीप में स्थित मेघों को अपने वेग से दूर तक खींचकर ले जाते थे ।।99।। वे कहीं पर अपने मार्ग में रुकावट डालने वाले ऊंचे-ऊंचे मेघों को चीरते हुए जाते थे । उस समय उन मेघों से जो पानी की बूँदें पड़ रही थीं उनसे ऐसे मालूम होते थे मानो आँसू ही बहा रहे हों । कहीं नदियों को देखते जाते थे, वे नदियाँ दूर होने के कारण ऊपर से अत्यंत कृश और श्वेतवर्ण दिखाई पड़ती थीं जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वर्षाकालरूपी पति के विरह से कृश और पांडुरवर्ण हो गयी हों । वे पर्वत भी देखते जाते थे उन्हें दूरी के कारण वे पर्वत गोल-गोल दिखाई पड़ते थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो सूर्य के संताप से डरकर जमीन में ही छिपे जा रहे हों । वे बावड़ियों का जल भी देखते जाते थे । दूरी के कारण वह जल उन्हें अत्यंत गोल मालूम होता था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो पृथ्वीरूप स्त्री ने चंदन का सफेद तिलक ही लगाया हो । इस प्रकार प्रत्येक क्षण मार्ग की शोभा देखते हुए वे दोनों अनुक्रम से उत्पलखेटक नगर जा पहुँचे । वह नगर संगीत काल में होने वाले गंभीर शब्दों से दिशाओं को बधिर (बहरा) कर रहा था ।।100-104।। जब वे दोनों भाई राजमंदिर के समीप पहुंचे तब द्वारपाल उन्हें भीतर ले गये । उन्होंने राजमंदिर में प्रवेश कर राजसभा में बैठे हुए वज्रजंघ के दर्शन किये ।।105।। उन दोनों विद्याधरों ने उन्हें प्रणाम किया और फिर उनके सामने, लायी हुई भेंट तथा जिसके भीतर पत्र रखा हुआ है ऐसा रत्नमय पिटारा रख दिया ।।106।। महाराज वज्रजंघ ने पिटारा खोलकर उसके भीतर रखा हुआ आवश्यक पत्र ले लिया । उसे देखकर उन्हें चक्रवर्ती के दीक्षा लेने का निर्णय हो गया और इस बात से वे बहुत ही विस्मित हुए ।।107।। वे विचारने लगे कि अहो, चक्रवर्ती बड़ा ही पुण्यात्मा है जिसने इतने बड़े साम्राज्य के वैभव को छोड़कर पवित्र अंग वाली स्त्री के समान दीक्षा धारण की है ।।108।। अहो चक्रवर्ती के पुत्र भी बड़े पुण्यशाली और अचिंत्य साहस के धारक हैं जिन्होंने इतने बड़े राज्य को ठुकराकर पिता के साथ ही दीक्षा धारण की है ।।109।। फूले हुए कमल के समान मुख की कांति का धारक बालक पुंडरीक राज्य के इन महान् भार को वहन करने से लिए नियुक्त किया गया है और मामी लक्ष्मीमती कार्य चलाना कठिन है यह समझकर राज्य में शांति रखने के लिए शीघ्र ही मेरा सन्निधान चाहती है अर्थात् मुझे बुला रही हैं ।।110-111।। इस प्रकार कार्य करने में चतुर बुद्धिमान् वज्रजंघ ने पत्र के अर्थ का निश्चय कर स्वयं निर्णय कर लिया और अपना निर्णय श्रीमती को भी समझा दिया ।।112।। पत्र के सिवाय उन विद्याधरों ने लक्ष्मीमती का कहा हुआ मौखिक संदेश भी सुनाया था जिससे वज्रजंघ को पत्र के अर्थ का ठीक-ठीक निर्णय हो गया था । तदनंतर बुद्धिमान् वज्रजंघ ने पुंडरीकिणी पुरी जाने का विचार किया ।।113।। पिता और भाई के दीक्षा लेने आदि के समाचार सुनकर श्रीमती को बहुत दुःख हुआ था परंतु वज्रजंघ ने उसे समझा दिया और उसके साथ भी गुण-दोष का विचार कर साथ-साथ वहाँ जाने का निश्चय किया ।।114।। तदनंतर खूब आदर-सत्कार के साथ उन दोनों विद्याधर दूतों को उन्होंने आगे भेज दिया और स्वयं उनके पीछे प्रस्थान करने की तैयारी की ।।115।।
तदनंतर मतिवर, आनंद, धनमित्र और अकंपन इन चारों महामंत्री, पुरोहित, राजसेठ और सेनापतियों ने तथा और भी चलने के लिए उद्यत हुए प्रधान पुरुषों ने आकर राजा वज्रजंघ को उस प्रकार घेर लिया था जिस प्रकार कि कहीं जाते समय इंद्र को देव लोग घेर लेते हैं ।।116-117।। उस कार्यकुशल वज्रजंघ ने उसी दिन शीघ्र ही प्रस्थान कर दिया । प्रस्थान करते समय अधिकारी कर्मचारियों में बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था ।।118।। वे अपने सेवकों से कह रहे थे कि तुम रानियों के सवार होने के लिए शीघ्र ही ऐसी हथिनियाँ लाओ जिनके गले में सुवर्णमय मालाएँ पड़ी हों, पीठ पर सुवर्णमय मालाएं पड़ी हों और जो मदरहित होने के कारण कुलीन स्त्रियों के समान साध्वी हों । तुम लोग शीघ्र चलने वाली खबरियों को जीन कसकर शीघ्र ही तैयार करो । तुम स्त्रियों के चढ़ने के लिए पालकी लाओ और तुम पालकी ले जानेवाले मजबूत कहारों को खोजो । तुम शीघ्रगामी तरुण घोड़ों को पानी पिलाकर और जीन कसकर शीघ्र ही तैयार करो । तुम शीघ्र ही ऐसी दासियाँ बुलाओ जो सब काम करने में चतुर हों और खासकर रसोई बनाना, अनाज कूटना, शोधना आदि का कार्य कर सकें । तुम सेना के आगे-आगे जाकर ठहरने की जगह पर डेरा-तंबू आदि तैयार करो तथा घास-भुस आदि के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगाकर भी तैयार करो । तुम लोग सब संपदाओं के अधिकारी हो इसलिए महाराज की भोजनशाला में नियुक्त किये जाते हो । तुम बिना किसी प्रतिबंध के भोजनशाला की समस्त योग्य सामग्री इकट्ठी करो तुम बहुत दूध देने वाली और बछड़ों सहित सुंदर-सुंदर गाय ले जाओ, मार्ग में उन्हें जलसहित और छाया वाले प्रदेशों में सुरक्षित रखना । तुम लोग हाथ में चमकीली तलवार लेकर मछलियों सहित समुद्र की तरंगों के समान शोभायमान होते हुए बड़े प्रयत्न से राजा के रनवास की रक्षा करना । तुम वृद्ध कंचुकी लोग अंतःपुर की स्त्रियों के मध्य में रहकर बड़े आदर के साथ अंग रक्षा का कार्य करना । तुम लोग यहाँ ही रहना और पीछे के कार्य बड़ी सावधानी से करना । तुम साथ-साथ जाओ और अपने-अपने कार्य देखो । तुम लोग जाकर देश के अधिकारियों से इस बात की शीघ्र ही प्रेरणा करो कि वे अपनी योग्यतानुसार सामग्री लेकर महाराज को लेने के लिए आयें । मार्ग में तुम हाथियों और घोड़ों की रक्षा करना, तुम ऊँटों का पालन करना और तुम बहुत दूध देने वाली बछड़ों सहित गायों की रक्षा करना । तुम महाराज के लिए शांतिवाचन करके रत्नत्रय के साथ-साथ जिनेंद्रदेव की प्रतिमा की पूजा करो । तुम पहले जिनेंद्रदेव का अभिषेक करो और फिर शांतिवाचन के साथ-साथ पवित्र आशीर्वाद देते हुए महाराज के मस्तक पर गंधोदक से मिले हुए सिद्धों के शेषाक्षत क्षेपण करो । तुम ज्योतिषी लोग ग्रहों के शुभोदय आदि का अच्छा निरूपण करते हो इसलिए महाराज की यात्रा की सफलता के लिए प्रस्थान का उत्तम समय बतलाओ । इस प्रकार उस समय वहाँ महाराज वज्रजंघ के प्रस्थान के लिए सामग्री इकट्ठी करने वाले कर्मचारियों का भारी कोलाहल हो रहा था ।।119-135।। तदनंतर राजभवन के आगे का चौक हाथी, घोड़े, रथ और हथियार लिये हुए पियादों से खचाखच भर गया था ।।136।। उस समय ऊपर उठे हुए सफेद छत्रों से तथा मयूरपिच्छ के बने हुए नीले-नीले वस्त्रों से आकाश व्याप्त हो गया था जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कुछ सफेद और कुछ काले मेघों से ही व्याप्त हो गया हो ।।137।। उस समय तने हुए छत्रों के समूह से सूर्य का तेज भी रुक गया था सो ठीक ही है । सद्वृत्त―सदाचारी पुरुषों के समीप तेजस्वी पुरुषों का भी तेज नहीं ठहर पाता । छत्र भी सद्वृत्त―सदाचारी (पक्ष में) गोल थे इसलिए उनके समीप सूर्य का तेज नहीं ठहर पाया था ।।138।। उस समय रथों और हाथियों पर लगी हुई पताकाएँ वायु के वेग से हिलती हुई आपस में मिल रही थीं जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो बहुत समय बाद एक दूसरे को देखकर संतुष्ट हो परस्पर में मिल ही रही हों ।।139।। घोड़ों की टापों से उठी हुई धूल आगे-आगे उड़ रही थी जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वह वज्रजंघ को मार्ग दिखाने के लिए ही आकाशप्रदेश का उल्लंघन कर रही हो ।।140।। हाथियों की मदधारा से, उनकी हट से निकले हुए जल के छींटों से और घोड़ों की लार तथा फेन से पृथ्वी की सब धूल जहाँ की तहाँ शांत हो गयी थी ।।141।। तदनंतर, नगर से बाहर निकलती हुई वह सेना किसी महानदी के समान अत्यंत शोभायमान हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार महानदी में फेन होता है उसी प्रकार उस सेना में सफेद छत्र थे और नदी में जिस प्रकार लहरें होती हैं उसी प्रकार उसमें अनेक घोड़े थे ।।142।। अथवा बड़े-बड़े हाथी ही जिसमें बड़े-बड़े जल जंतु थे, घोड़े ही जिसमें तरंगें थीं और चंचल तलवारें ही जिसमें मछलियाँ थीं ऐसी वह सेनारूपी नदी बड़ी ही सुशोभित हो रही थी ।।143।। उस सेना ने ऊंची-नीची जमीन को सम कर दिया था तथा वह चलते समय बड़े भारी मार्ग में भी नहीं समाती थी इसलिए वह अपनी इच्छानुसार जहाँ-तहाँ फैलकर जा रही थी ।।144।। प्राय: नवीन वस्तु ही लोगों को अधिक आनंद देती है, लोक में जो यह कहावत प्रसिद्ध है वह बिलकुल ठीक है इसीलिए तो मद के लोभी भ्रमर जंगली हाथियों के गंडस्थल छोड़-छोड़कर राजा वज्रजंघ की सेना के हाथियों के मद बहाने वाले गंडस्थलों में विलीन हो रहे थे और सुगंध के लोभी कितने ही भ्रमर वन के मनोहर वृक्षों को छोड़कर महाराज के हाथियों पर आ लगे थे ।।145-146।। मार्ग में जगह-जगह पर फल और फूलों के भार से झुके हुए तथा घनी छाया वाले बड़े-बड़े वृक्ष लगे हुए थे । उनसे ऐसा मालूम होता था मानो मनोहर वन उन वृक्षों के द्वारा मार्ग में महाराज वज्रजंघ का सत्कार ही कर रहे हों ।।147।। उस समय स्त्रियों ने कर्णफूल आदि आभूषण बनाने के लिए अपने करपल्लवों से वनलताओं के बहुत से फूल और पत्ते तोड़ लिये थे ।।148।। मालूम होता है कि उन वन के वृक्षों को अवश्य ही अक्षीणपुष्प नाम की ऋद्धि प्राप्त हो गयी थी इसीलिए तो सैनिकों द्वारा बहुत से फूल तोड़ लिये जाने पर भी उन्होंने फूलों की शोभा का परित्याग नहीं किया था ।।149।। अथानंतर घोड़ों के हींसने और हाथियों की गंभीर गर्जना के शब्दों से शब्दायमान वह सेना क्रम-क्रम से शष्प नामक सरोवर पर जा पहुँची ।।150।।
उस सरोवर की लहरें कमलों की पराग के समूह से पीली-पीली हो रही थीं और इसीलिए वह पिघले हुए सुवर्ण के समान पीले तथा शीतल जल को धारण कर रहा था ।।151।। उस सरोवर के किनारे के प्रदेश हरे-हरे वनखंडों से घिरे हुए थे इसलिए सूर्य की किरणें उसे संतप्त नहीं कर सकती थीं सो ठीक ही है जो संवृत है―वन आदि से घिरा हुआ हैं (पक्ष में गुप्ति समिति आदि से कर्मों का संवर करने वाला है) और जिसका अंतःकरण―मध्यभाग (पक्ष में हृदय) आर्द्र है―जल से सहित होने के कारण गीला है (पक्ष में दया से भीगा है) उसे कौन संतप्त कर सकता है ।।152।। उस सरोवर में लहरें उठ रही थीं और किनारे पर हंस, चकवा आदि पक्षी मधुर शब्द कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो यह सरोवर लहररूपी हाथ उठाकर पक्षियों के द्वारा मधुर शब्द करता हुआ ‘यहाँ ठहरिए’ इस तरह वज्रजंघ की सेना को बुला ही रहा हो ।।153।। तदनंतर, जिसके किनारे छोटे-बड़े वृक्ष और लताओं से घिरे हुए हैं तथा जहाँ मंद-मंद वायु बहती रहती है ऐसे उस सरोवर के तट पर वज्रजंघ की सेना ठहर गयी ।।154।। जिस प्रकार व्याकरण में ‘वध’ ‘घस्लृ’ आदि आदेश होने पर हन् आदि स्थानी अपना स्थान छोड़ देते हैं उसी प्रकार उस तालाब के किनारे बलवान् प्राणियों द्वारा ताड़ित हुए दुर्बल प्राणियों ने अपने स्थान छोड़ दिये थे । भावार्थ―सैनिकों से डरकर हरिण आदि निर्बल प्राणी अन्यत्र चले गये थे और उनके स्थान पर सैनिक ठहर गये थे ।।155।। उस सेना के क्षोभ से पक्षियों ने अपने घोंसले छोड़ दिये थे, मृग भयभीत हो गये थे और सिंहों ने धीरे-धीरे आँखें खोली थीं ।।156।। सेना के जो स्त्री-पुरुष वन वृक्षों के नीचे ठहरे थे उन्होंने उनकी डालियों पर अपने आभूषण, वस्त्र आदि टाँग दिये थे इसलिए वे वृक्ष कल्पवृक्ष की शोभा को प्राप्त हो रहे थे ।।157।। पुष्प तोड़ते समय वे वृक्ष अपनी डालियों से झुक जाते थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वे वृक्ष आतिथ्यसत्कार को उत्तम समझकर उन पुष्प तोड़ने वालों के प्रति अपनी अनुकूलता ही प्रकट कर रहे हों ।।158।। सेना की स्त्रियाँ उस सरोवर के जल में स्तन पर्यंत प्रवेश कर स्नान कर रही थीं, उस समय वे ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो सरोवर का जल अदृष्टपूर्व सौंदर्य का लाभ समझकर उन्हें अपने आपमें निगल ही रहा हो ।।159।। भार ढोने से जिनके मजबूत कंधों में बड़ी-बड़ी भट्टें पड़ गयी हैं, ऐसे कहार लोगों को प्रवेश करते हुए देखकर वह तालाब ‘इनके नहाने से हमारा बहुत-सा जल व्यर्थ ही खर्च हो जायेगा’ मानो इस भय से ही काँप उठा था ।।160 ।। इस तालाब के किनारे चारों ओर लगे हुए तंबू ऐसे मालूम होते थे मानो वनलक्ष्मी ने भविष्यत्काल में तीर्थंकर होने वाले वज्रजंघ के लिए उत्तम भवन ही बना दिये हों ।।161।। जमीन में लोटने के बाद खड़े होकर हींसते हुए घोड़े ऐसे मालूम होते थे मानो तेल लगाकर पुष्ट हुए उद्धत मल्ल ही हों ।।162।। पीठ की उत्तम रीढ़ वाले हाथी भी भ्रमरों के द्वारा मदपान करने के कारण कुपित होने पर ही मानो महावतों द्वारा बाँध दिये गये थे जैसे कि जगत्पूज्य और कुलीन भी पुरुष मद्यपान के कारण बाँधे जाते हैं ।।163।।
तदनंतर जब समस्त सेना अपने-अपने स्थान पर ठहर गयी तब राजा वज्रजंध मार्ग तय करने में चतुर-शीघ्रगामी घोड़े पर बैठकर शीघ्र ही अपने डेरे में जा पहुँचे ।।164।। घोड़ों के खुरों से उठी हुई धूलि से जिसके शरीर रूक्ष हो रहे हैं ऐसे घुड़सवार लोग पसीने से युक्त होकर उस समय डेरों में पहुँचे थे जिस समय कि सूर्य उनके ललाट को तपा रहा था ।।165।। जहाँ सरोवर के जल की तरंगों से उठती हुई मंद वायु के द्वारा भारी शीतलता विद्यमान थी ऐसे तालाब के किनारे पर बहुत ऊँचे तंबू में राजा वज्रजंघ ने सुखपूर्वक निवास किया ।।166।।
तदनंतर आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर नामक मुनिराज, सागरसेन नामक मुनिराज के साथ-साथ वज्रजंघ के पड़ाव में पधारे ।।167।। उन दोनों मुनियों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा की थी इसलिए इच्छानुसार विहार करते हुए वज्रजंघ के डेरे के समीप आये ।।168।। वे मुनिराज अतिशय कांति के धारक थे, और पापकर्मों से रहित थे इसलिए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्वर्ग और मोक्ष के साक्षात् मार्ग ही हों ऐसे दोनों मुनियों को राजा वज्रजंघ ने दूर से ही देखा ।।169।। जिन्होंने अपने शरीर की दीप्ति से वन का अंधकार नष्ट कर दिया है ऐसे दोनों मुनियों को राजा वज्रजंघ ने संभ्रम के साथ उठकर पड़गाहन किया ।।170।। पुण्यात्मा वज्रजंघ ने रानी श्रीमती के साथ बड़ी भक्ति से उन दोनों मुनियों को हाथ जोड़ अर्घ दिया और फिर नमस्कार कर भोजनशाला में प्रवेश कराया ।।171।। वहाँ वज्रजंघ ने उन्हें ऊँचे स्थानपर बैठाया, उनके चरणकमलों का प्रक्षालन किया, पूजा की, नमस्कार किया, अपने मन, वचन, काय को शुद्ध किया और फिर श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, अलोभ, क्षमा, ज्ञान और शक्ति इन गुणों से विभूषित होकर विशुद्ध परिणामों से उन गुणवान् दोनों मुनियों को विधिपूर्वक आहार दिया । उसके फलस्वरूप नीचे लिखे हुए पंचाश्चर्य हुए । देव लोग आकाश से रत्नवर्षा करते थे, पुष्पवर्षा करते थे, आकाशगंगा के जल के छींटों को बरसाता हुआ मंद-मंद वायु चल रहा था, दुंदुभि बाजों की गंभीर गर्जना हो रही थी और दिशाओं को व्याप्त करने वाले ‘अहो दानम् अहो दानम्’ इस प्रकार के शब्द कहे जा रहे थे ।।172-175।। तदनंतर वज्रजंघ, जब दोनों मुनिराजों को वंदना और पूजा कर वापस भेज चुका तब उसे अपने कंचुकी के कहने से मालूम हुआ कि उक्त दोनों मुनि हमारे ही अंतिम पुत्र हैं ।।176।। राजा वज्रजंघ श्रीमती के साथ-साथ बड़े प्रेम से उनके निकट गया और पुण्य प्राप्ति की इच्छा से सद्गृहस्थों का धर्म सुनने लगा ।।177।। दान, पूजा, शील और प्रोषध आदि धर्मों का विस्तृत स्वरूप सुन चुकने के बाद वज्रजंघ ने उनसे अपने तथा श्रीमती के पूर्वभव पूछे ।।178।। उनमें से दमधर नाम के मुनि अपने दाँतों की किरणों से दिशाओं में प्रकाश फैलाते हुए उन दोनों के पूर्वभव कहने लगे ।।178।।
हे राजन्, तू इस जन्म से चौथे जन्म में जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में स्थित गंधिल देश के सिंहपुर नगर में राजा श्रीषेण और अतिशय मनोहर सुंदरी नाम की रानी के ज्येष्ठ पुत्र हुआ था । वहाँ तूने विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की । परंतु संयम प्रकट नहीं कर सका और विद्याधर राजाओं के भोगों में चित्त लगाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ जिससे पूर्वोक्त गंधिल देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर अलका नाम की नगरी में महाबल हुआ । वहाँ तूने मनचाहे भोगों का अनुभव किया । फिर स्वयंबुद्ध मंत्री के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त कर तूने जिनपूजा कर समाधिमरण से शरीर छोड़ा और ललितांगदेव हुआ । वहाँ से च्युत होकर अब वज्रजंघ नाम का राजा हुआ है ।।180-184।।
यह श्रीमती भी पहले एक भव में धातकीखंडद्वीप में पूर्व मेरु से पश्चिम की ओर गंधिलदेश के पलालपर्वत नामक ग्राम में किसी गृहस्थ की पुत्री थी । वहाँ कुछ पुण्य के उदय से तू उसी देश के पाटली नामक ग्राम में किसी वणिक के निर्नामिका नाम की पुत्री हुई । वहाँ उसने पिहितास्रव नामक मुनिराज के आश्रय से विधिपूर्वक जिनेंद्रगुणसंपत्ति और श्रुतज्ञान नामक व्रतों के उपवास किये जिसके फलस्वरूप श्रीप्रभ विमान में स्वयंप्रभा देवी हुई । जब तुम ललितांगदेव की पर्याय में थे तब यह तुम्हारी प्रिय देवी थी और अब वहाँ से चयकर वज्रदंत चक्रवर्ती के श्रीमती पुत्री हुई है ।।185-188।। इस प्रकार राजा वज्रजंघ ने श्रीमती के साथ अपने पूर्वभव सुनकर कौतूहल से अपने इष्ट संबंधियों के पूर्वभव पूछे ।।189।। हे नाथ, ये मतिवर, आनंद, धनमित्र और अकंपन मुझे अपने भाई के समान अतिशय प्यारे हैं इसलिए आप प्रसन्न होइए और इनके पूर्वभव कहिए । इस प्रकार राजा का प्रश्न सुनकर उत्तर में मुनिराज कहने लगे ।।190।।
हे राजन् इसी जंबूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में एक वत्सकावती नाम का देश है जो कि स्वर्ग के समान सुंदर है, उसमें एक प्रभाकरी नाम की नगरी है । यह मतिवर पूर्वभव में इसी नगरी में अतिग्रंथ नाम का राजा था । वह विषयों में अत्यंत आसक्त रहता था । उसने-बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण नरक आयु का बंध कर लिया था जिससे वह मरकर पंकप्रभा नाम के चौथे नरक में उत्पन्न हुआ । वहाँ दशसागर तक नरकों के दुःख भोगता रहा ।।191-193।। उसने पूर्वभव में पूर्वोक्त प्रभाकरी नगरी के समीप एक पर्वत पर अपना बहुत-सा धन गाड़ रखा था । वह नरक से निकलकर इसी पर्वत पर व्याघ्र हुआ ।।194।। तत्पश्चात् किसी एक दिन प्रभाकरी नगरी का राजा प्रीतिवर्धन अपने प्रतिकूल खड़े हुए छोटे भाई को जीतकर लौटा और उसी पर्वतपर ठहर गया ।।195।। वह वहाँ अपने छोटे भाई के साथ बैठा हुआ था इतने में पुरोहित ने आकर उससे कहा कि आज यहाँ आपको मुनिदान के प्रभाव से बड़ा भारी लाभ होने वाला है ।।196।। हे राजन् वे मुनिराज यहाँ किस प्रकार प्राप्त हो सकेंगे । इसका उपाय मैं अपने दिव्यज्ञान से जानकर आपके लिए कहता हूँ । सुनिए―।।197।।
हम लोग नगर में यह घोषणा दिलाये देते हैं कि आज राजा के बड़े भारी हर्ष का समय है इसलिए समस्त नगरवासी लोग अपने-अपने घरों पर पताकाएँ फहराओ, तोरण बाँधो और घर के आंगन तथा नगर की गलियों में सुगंधित जल सींचकर इस प्रकार फूल बिखेर दो कि बीच में कहीं कोई रंध्र खाली न रहे ।।198-199।। ऐसा करने से नगर में जाने वाले मुनि अप्रासुक होने के कारण नगर को अपने विहार के अयोग्य समझ लौटकर यहाँ पर अवश्य ही आयेंगे ।।200।। पुरोहित के वचनों से संतुष्ट होकर राजा प्रीतिवर्धन ने वैसा ही किया जिससे मुनिराज लौटकर वहाँ आये ।।201।। पिहितास्रव नाम के मुनिराज एक महीने के उपवास समाप्त कर आहार के लिए भ्रमण करते हुए क्रम-क्रम से राजा प्रीतिवर्धन के घर में प्रविष्ट हुए ।।202।। राजा ने उन्हें विधिपूर्वक आहार दान दिया जिससे देवों ने आकाश से रत्नों की वर्षा की और वे रत्न मनोहर शब्द करते हुए भूमि पर पड़े ।।203।। राजा अतिगृंध्र के जीव सिंह ने भी वहाँ यह सब देखा जिससे उसे जाति-स्मरण हो गया । वह अतिशय शांत हो गया, उसकी मूर्च्छा (मोह) जाती रही और यहाँ तक कि उसने शरीर और आहार से भी ममत्व छोड़ दिया ।।204।। वह सब परिग्रह अथवा कषायों का त्याग कर एक शिलातल पर बैठ गया । मुनिराज पिहितास्रव ने भी अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से अकस्मात् सिंह का सब वृत्तांत जान लिया ।।205।। और जानकर उन्होंने राजा प्रीतिवर्धन से कहा कि―हे राजन्, इस पर्वत पर कोई श्रावक होकर (श्रावक के व्रत धारण कर) संन्यास कर रहा है तुम्हें उसकी सेवा करनी चाहिए ।।206।। वह आगामी काल में भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर श्रीवृषभदेव के चक्रवर्ती पद का धारक पुत्र होगा और उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं है ।।207।। मुनिराज के इन वचनों से राजा प्रीतिवर्धन को भारी आश्चर्य हुआ । उसने मुनिराज के साथ वहाँ जाकर अतिशय साहस करने वाले सिंह को देखा ।।208।। तत्पश्चात् राजा ने उसकी सेवा अथवा समाधि में योग्य सहायता की और यह देव होने वाला है यह समझकर मुनिराज ने भी उसके कान में नमस्कार मंत्र सुनाया ।।209।। वह सिंह अठारह दिन तक आहार का त्याग कर समाधि से शरीर छोड़ दूसरे स्वर्ग के दिवाकरप्रभ नामक विमान में दिवाकरप्रभ नाम का देव हुआ ।।210।। इस आश्चर्य को देखकर राजा प्रीतिवर्धन के सेनापति, मंत्री और पुरोहित भी शीघ्र ही अतिशय शांत हो गये ।।211।। इन सभी ने राजा के द्वारा दिये हुए पात्रदान की अनुमोदना की थी इसलिए आयु समाप्त होने पर वे उत्तरकुरु भोगभूमि में आर्य हुए ।।212।। और आयु के अस्त में ऐशान स्वयं में लक्ष्मीमान् देव हुए । उनमें से मंत्री, कांचन नामक विमान में कनकाभ नाम का देव हुआ, पुरोहित रुषित नाम के विमान में प्रभंजन नाम का देव हुआ और सेनापति प्रभानामक विमान में प्रभाकर नाम का देव हुआ । आपकी ललितांगदेव की पर्याय में ये सब आपके ही परिवार के देव थे ।।213-214।। सिंह का जीव वहाँ से च्युत हो मतिसागर और श्रीमती का पुत्र होकर आपका मतिवर नाम का मंत्री हुआ है ।।215।। प्रभाकर का जीव स्वर्ग से च्युत होकर अपराजित सेनानी और आर्जवा का पुत्र होकर आपका अकंपन नाम का सेनापति हुआ है ।।216।। कनकप्रभ का जीव श्रुतकीर्ति और अनंतमती का पुत्र होकर आपका आनंद नाम का प्रिय पुरोहित हुआ है ।।217।। तथा प्रभंजन देव वहाँ से च्युत होकर धनदत्त और धनदत्ता का पुत्र होकर आपका धनमित्र नाम का संपत्तिशाली सेठ हुआ है ।।218।। इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर राजा वज्रजंघ और श्रीमती―दोनों ही धर्म के विषय में अतिशय प्रीति को प्राप्त हुए ।।219।।
राजा वज्रजंघ ने फिर भी बड़े आश्चर्य के साथ उन मुनिराज से पूछा कि ये नकुल, सिंह, वानर और शूकर चारों जीव आपके मुख-कमल को देखने में दृष्टि लगाये हुए इन मनुष्यों से भरे हुए स्थान में भी निर्भय होकर क्यों बैठे हैं ? ।।220-221।। इस प्रकार राजा के पूछने पर चारण ऋद्धि के धारक ऋषिराज बोले,
हे राजन्, यह सिंह पूर्वभव में इसी देश के प्रसिद्ध हस्तिनापुर नामक नगर में सागरदत्त वैश्य से उसकी धनवती नामक स्त्री में उग्रसेन नाम का पुत्र हुआ था ।।222-223।। वह उग्रसेन स्वभाव से ही अत्यंत क्रोधी था इसलिए उस अज्ञानी ने पृथिवी भेद के समान अप्रत्याख्यानावरण क्रोध के निमित्त से तिर्यंच आयु का बंध कर लिया था ।।224।। एक दिन उस दुष्ट ने राजा के भंडार की रक्षा करने वाले लोगों को घुड़ककर वहाँ से बलपूर्वक बहुत-सा घी और चावल निकालकर वेश्याओं को दे दिया ।।225।। जब राजा ने यह समाचार सुना तब उसने उसे बँधवा कर थप्पड़, लात, हंसा आदि की बहुत ही मार दिलायी जिससे वह तीव्र वेदना सहकर मरा और यहाँ यह व्याघ्र हुआ है ।।226।।
हे राजन् यह सूकर पूर्वभव में विजय नामक नगर में राजा महानंद से उसकी रानी वसंतसेना में हरिवाहन नाम का पुत्र हुआ था । वह अप्रत्याख्यानावरण मान के उदय से हड्डी के समान मान को धारण करता था इसलिए माता-पिता का भी विनय नहीं करता था ।।227-228।। और इसीलिए उसे तिर्यंच आयु का बंध हो गया था । एक दिन यह माता-पिता का अनुशासन नहीं मानकर दौड़ा जा रहा था कि पत्थर के खंभे से टकराकर उसका शिर फूट गया और इसी वेदना में आर्तध्यान से मरकर यह सूकर हुआ है ।।229।।
हे राजन्, यह वानर पूर्वभव में धन्यपुर नाम के नगर में कुबेर नामक वणिक के घर उसकी सुदत्ता नाम को स्त्री के गर्भ से नागदत्त नाम का पुत्र हुआ था वह मेंड़ें के सींग के समान अप्रत्याख्यानावरण माया को धारण करता था ।।230-231।। एक दिन इसकी माता, नागदत्त की छोटी बहन के विवाह के लिए अपनी दूकान से इच्छानुसार छाँट-छाँटकर कुछ सामान ले रही थी । नागदत्त उसे ठगना चाहता था परंतु किस प्रकार ठगना चाहिए ? इसका उपाय वह नहीं जानता था इसलिए उसी उधेड़बुन में लगा रहा और अचानक आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच आयु का बंध होने से यहां यह वानर अवस्था को प्राप्त हुआ है ।।232-233।। और―
हे राजन्, यह नकुल (नेवला) भी पूर्वभव में इसी सुप्रतिष्ठित नगर में लोलुप नाम का हलवाई था । वह धन का बड़ा लोभी था ।।234।। किसी समय वहाँ का राजा जिनमंदिर बनवा रहा था और उसके लिए वह मजदूरों से ईटें बुलाता था । वह लोभी मूर्ख हलवाई उन मजदूरों को कुछ पुआ वगैरह देकर उनसे छिपकर कुछ ईंटें अपने घर में डलवा लेता था । उन ईंटों के फोड़ने पर उनमें से कुछ में सुवर्ण निकला । यह देखकर इसका लोभ और भी बढ़ गया । उस सुवर्ण के लोभ से उसने बार-बार मजदूरों को पुआ आदि देकर उनसे बहुत-सी ईटें अपने घर डलवाना प्रारंभ किया ।।235-237।। एक दिन उसे अपनी पुत्री के गाँव जाना पड़ा । जाते समय वह पुत्र से कह गया कि हे पुत्र, तुम भी मजदूरों को कुछ भोजन देकर उनसे अपने घर ईटें डलवा लेना ।।238।। यह कहकर वह तो चला गया परंतु पुत्र ने उसके कहे अनुसार घर पर ईटें नहीं डलवायी । जब वह दुष्ट लौटकर घर आया और पुत्र से पूछने पर जब उसे सब हाल मालूम हुआ तब वह पुत्र से भारी कुपित हुआ ।।239।। उस मूर्ख ने लकड़ी तथा पत्थरों की मार से पुत्र का शिर फोड़ डाला और उस दुःख से दुःखी होकर अपने पैर भी काट डाले ।।240।। अंत में वह राजा के द्वारा मारा गया और मरकर इस नकुल पर्याय को प्राप्त हुआ है । वह हलवाई अप्रत्याख्यानावरण लोभ के उदय से ही इस दशा तक पहुँचा है ।।241।।
हे राजन् आपके दान को देखकर ये चारों ही परम हर्ष को प्राप्त हो रहे हैं और इन चारों को ही जाति-स्मरण हो गया है जिससे ये संसार से बहुत ही विरक्त हो गये हैं ।।242।। आपके दिये हुए दान की अनुमोदना करने से इन सभी ने उत्तम भोगभूमि की आयु का बंध किया है । इसलिए ये भय छोड़कर धर्मश्रवण करने की इच्छा से यहाँ बैठे हुए हैं ।।243।। हे राजन् इस भव से आठवें आगामी भव में तुम वृषभनाथ तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करोगे और उसी भव में ये सब भी सिद्ध होंगे, इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं है ।।244।। और तब तक ये पुण्यशील जीव आपके साथ-साथ ही देव और मनुष्यों के उत्तम-उत्तम सुख तथा विभूतियों का अनुभोग करते रहेंगे ।।245।। इस श्रीमती का जीव भी आपके तीर्थ में दानतीर्थ की प्रवृत्ति चलाने वाला राजा श्रेयान्स होगा और उसी भव से उत्कृष्ट कल्याण अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होगा, इसमें संशय नहीं है ।।246।। इस प्रकार चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के वचन सुनकर राजा वज्रजंघ का शरीर हर्ष से रोमांचित हो उठा जिससे ऐसा मालूम होता था मानो प्रेम के अंकुरों से व्याप्त ही हो गया हो ।।247।। तदनंतर राजा उन दोनों मुनिराजों को नमस्कार कर रानी श्रीमती और अतिशय प्रसन्न हुए मतिवर आदि के साथ अपने डेरे पर लौट आया ।।248।। तत्पश्चात् वायुरूपी वस्तु को धारण करने वाले (दिगंबर) वे दोनों मुनिराज मुनियों की वृत्ति परिग्रहरहित होती है इस बात को प्रकट करते हुए वायु के साथ-साथ ही आकाशमार्ग से विहार कर गये ।।249।। राजा वज्रजंघ ने उन मुनियों के गुणों का ध्यान करते हुए उत्कंठित चित्त होकर उस दिन का शेष भाग अपनी सेना के साथ उसी शष्प नामक सरोवर के किनारे व्यतीत किया ।।250।। तदनंतर वहाँ से कितने ही पड़ाव चलकर वे पुंडरीकिणी नगरी में जा पहुँचे । वहाँ जाकर राजा वज्रजंघ ने शोक से पीड़ित हुई सती लक्ष्मीमती देवी को देखा और भाई के मिलने की उत्कंठा से सहित अपनी छोटी बहन अनुंधरी को भी देखा । दोनों को धीरे-धीरे आश्वासन देकर समझाया तथा पुंडरीक के राज्य को निष्कंटक कर दिया ।।251-252।। उसने साम, दाम, दंड, भेद आदि उपायों से समस्त प्रजा को अनुरक्त किया और सरदारों तथा आश्रित राजाओं का भी सम्मान कर उन्हें पहले की भाँति (चक्रवर्ती के समय के समान) अपने-अपने कार्यों में नियुक्त कर दिया ।।253।। तत्पश्चात् प्रातःकालीन सूर्य के समान दैदीप्यमान पुंडरीक बालक को राज्य-सिंहासन पर बैठाकर और राज्य की सब व्यवस्था सुयोग्य मंत्रियों के हाथ सौंपकर राजा वज्रजंघ लौटकर अपने उत्पलखेटक नगर में आ पहुंचे ।।254।। उत्कृष्ट शोभा से सुशोभित महाराज वज्रजंघ ने प्रिया श्रीमती के साथ बड़े ठाट-बाट से स्वर्गपुरी के समान सुंदर अपने उत्पलखेटक नगर में प्रवेश किया । प्रवेश करते समय नगर की मनोहर स्त्रियाँ अपने नेत्रों-द्वारा उनके सौंदर्य-रस का पान कर रही थीं । नगर में प्रवेश करता हुआ वज्रजंघ ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो स्वर्ग में प्रवेश करता हुआ इंद्र ही हो ।।255।।
क्या यह इंद्र है ? अथवा कुबेर है ?अथवा धरणेंद्र है ? अथवा शरीरधारी कामदेव है ? इस प्रकार नगर की नर-नारियों की बातचीत के द्वारा जिनकी प्रशंसा हो रही है ऐसे अत्यंत शोभायमान और उत्कृष्ट विभूति के धारक वज्रजंघ ने अपने श्रेष्ठ भवन में प्रवेश किया ।।256।। छहों ऋतुओं में हर्ष उत्पन्न करने वाले उस मनोहर राजमहल में कामदेव के समान सुंदर वज्रजंघ अपने पुण्य के उदय से प्राप्त हुए मनवांछित भोगों को भोगता हुआ सुख से निवास करता था । तथा जिस प्रकार संभोगादि उचित उपायों के द्वारा इंद्र इंद्राणी को प्रसन्न रखता है उसी प्रकार वह वज्रजंघ संभोग आदि उपायों से श्रीमती को प्रसन्न रखता था । वह सदा जैन धर्म का स्मरण रखता था और दिशाओं में अपनी कीर्ति फैलाता रहता था ।।257।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणित त्रिषष्टिलक्षण
महापुराण संग्रह में श्रीमती और वज्रजंघ के पात्रदान का वर्णन
करने वाला आठवां पर्व समाप्त हुआ ।।8।।