ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 7
From जैनकोष
सप्तमं पर्व
अनंतर कार्य-कुशल चक्रवर्ती ने मानसिक पीड़ा से पीड़ित पुत्री को बुलाकर मंद हास्य की किरणरूपी जल के द्वारा सिंचन करते हुए की तरह नीचे लिखे अनुसार उपदेश दिया ।।1।। हे पुत्रि, शोक को मत प्राप्त हो, मौन का संकोच कर, मैं अवधिज्ञान के द्वारा तेरे पति का सब वृत्तांत जानता हूँ ।।2।। हे पुत्रि, तू शीघ्र ही सुखपूर्वक स्नान कर, अलंकार धारण कर और चंद्रबिंब के समान उज्ज्वल दर्पण में अपने मुख की शोभा देख ।।3।। भोजन कर और मधुर बातचीत से प्रिय सखीजनों को संतुष्ट कर । तेरे इष्ट पति का समागम आज या कल अवश्य ही होगा ।।4।। श्रीयशोधर महायोगी के केवलज्ञान महोत्सव के समय मुझे अवधिज्ञान प्राप्त हुआ था, उसी से मैं कुछ भवों का वृत्तांत जानने लगा हूँ ।।5। हे पुत्रि, तू अपने, मेरे और अपने पति के पूर्वजन्म संबंधी वृत्तांत सुन । मैं तेरे लिए पृथक-पृथक् कहता हूँ ।।6।। इस भव से पहले पाँचवें भव में मैं अपनी ऋद्धियों से स्वर्गपुरी के समान शोभायमान और महादैदीप्यमान इसी पुंडरीकिणी नगरी में अर्धचक्रवर्ती का पुत्र चंद्रकीर्ति नाम से प्रसिद्ध हुआ था । उस समय जयकीर्ति नाम का मेरा एक मित्र था जो हमारे ही साथ वृद्धि को प्राप्त हुआ था ।।7-8।। समयानुसार पिता से कुलपरंपरा से चली आयी उत्कृष्ट राज्यविभूति को पाकर मैं इसी नगर में अपने मित्र के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ।।9।। उस समय मैं अणुव्रत धारण करने वाला गृहस्थ था । फिर क्रम से समय बीतने पर आयु के अंत समय में समाधि धारण करने के लिए चंद्रसेन नामक गुरु के पास पहुँचा । वहाँ प्रीतिवर्धन नाम के उद्यान में आहार तथा शरीर का त्याग कर संन्यास विधि के प्रभाव से चौथे माहेंद्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ।।10-11।। वहाँ मैं सात सागर की आयु का धारक सामानिक जाति का देव हुआ । मेरा मित्र जयकीर्ति भी वहीं उत्पन्न हुआ । वह भी मेरे ही समान ऋद्धियों का धारक हुआ था ।।12।। आयु के अंत में वहां से च्युत होकर
हम दोनों पुष्कर नामक द्वीप में पूर्वमेरुसंबंधी पूर्वविदेह क्षेत्र में मंगलावती देश के रत्नसंचय नगर में श्रीधर राजा के पुत्र हुए । मैं बलभद्र हुआ और जयकीर्ति का जीव नारायण हुआ । मेरा जन्म श्रीधर महाराज की मनोहरा नाम की रानी से हुआ था और श्रीवर्मा मेरा नाम था तथा जयकीर्ति का जन्म उसी राजा की दूसरी रानी मनोरमा से हुआ था और उसका नाम विभीषण था । हम दोनों भाई राज्य पाकर वहाँ दीर्घकाल तक क्रीड़ा करते रहे ।।13-15।। हमारे पिता श्रीधर महाराज ने मुझे राज्यभार सौंपकर सुधर्माचार्य से दीक्षा ले ली और अनेक प्रकार के उपवास करके सिद्ध पद प्राप्त कर लिया ।।16।। मेरी माता मनोहरा मुझ पर बहुत स्नेह रखती थी इसलिए पवित्र व्रतों का पालन करती हुई और सुधर्माचार्य के द्वारा बताये हुए तपों का आचरण करती हुई वह चिरकाल तक घर में ही रही ।।17।। उसने विधिपूर्वक कर्मक्षपण नामक व्रत के उपवास किये थे और आयु के अंत में समाधिपूर्वक शरीर छोड़ा था जिससे मरकर स्वर्ग में ललितांगदेव हुई ।।18।। तदनंतर कुछ समय बाद मेरे भाई विभीषण की मृत्यु हो गयी और उसके वियोग से मैं जब बहुत शोक कर रहा था तब ललितांगदेव ने आकर अनेक उपायों से मुझे समझाया था ।।19।। कि हे पुत्र, तू अज्ञानी पुरुष के समान शोक मत कर और यह निश्चय समझ कि इस संसार में जन्म-मरण आदि के भय अवश्य ही हुआ करते हैं ।।20।। इस प्रकार जो पहले मेरी माता थी उस ललितांगदेव के समझाने से मैंने शोक छोड़ा और प्रसन्नचित्त होकर धर्म में मन लगाया ।।21।। तत्पश्चात् मैंने श्री युगंधर मुनि के समीप पाँच हजार राजाओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की ।।22।। और अत्यंत कठिन, किंतु उत्तम फल देनेवाले सिंहनिष्क्रीडित तथा सर्वतोभद्र नामक तप को विधिपूर्वक तपकर मति श्रुत अवधिज्ञानरूपी निर्मल प्रकाश को प्राप्त किया । फिर आयु के अंत में मरकर अनल्प ऋद्धियों से युक्त अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में इंद्र पदवी प्राप्त की । वहाँं मेरी आयु बाईस सागर प्रमाण थी ।।23-24।। अत्यंत कांतिमान उस अच्युत स्वर्ग में मैं दिव्य भोगों को भोगता रहा । किसी दिन मैंने माता के स्नेह से ललितांग के समीप जाकर उसकी पूजा की ।।25।। मैं उसे अत्यंत चमकीले प्रीतिवर्धन नाम के विमान में बैठाकर अपने स्वर्ग (सोलहवाँ स्वर्ग) ले गया और वहाँ उसका मैंने बहुत ही सत्कार किया ।।26।। इस प्रकार मेरी माता का जीव ललितांग, अत्यंत सुख संयुक्त स्वर्ग में दिव्य भोगों को भोगता हुआ जब तक विद्यमान रहा तब तक मैंने कई बार उसका सत्कार किया ।।27।। तदनंतर ललितांगदेव वहाँ से चयकर जंबूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में गंधर्वपुर के राजा वासव विद्याधर के घर उसकी प्रभावती नाम की महादेवी से महीधर नाम का पुत्र हुआ ।।28-29।। राजा वासव अपना सब राज्यभार महीधर पुत्र के लिए सौंपकर तथा अरिंजय नामक मुनिराज के समीप मुक्तावली तप तपकर निर्वाण को प्राप्त हुए । रानी प्रभावती पद्यावती आर्यिका के समीप दीक्षित हो उत्कृष्ट रत्नावली तप तपकर अच्युत स्वर्ग में प्रतींद्र हुई और तब तक इधर महीधर भी अनेक विद्याओं को सिद्ध कर आश्चर्यकारी विभव से संपन्न हो गया ।।30-32।। तदनंतर किसी दिन मैं पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम भाग के पूर्व विदेहसंबंधी वत्सकावती देश में गया वहाँ प्रभाकरी नगरी में श्री विनयंधर मुनिराज की निर्वाण-कल्याण की पूजा की और पूजा समाप्त कर मेरु पर्वत पर गया वहाँ उस समय नंदनवन के पूर्व दिशासंबंधी चैत्यालय में स्थित राजा महीधर को (ललितांग का जीव) विद्याओं की पूजा करने के लिए उद्यत देखकर मैंने उसे उच्चस्वर में इस प्रकार समझाया―अहो भद्र, जानते हो, मैं अच्युत स्वर्ग का इंद्र हूँ और तू ललितांग है । तू मेरी माता का जीव है इसलिए तुझ पर मेरा असाधारण प्रेम है । हे भद्र, दुःख देने वाले इन विषयों की आसक्ति से अब विरक्त हो ।।33-37।। इस प्रकार से उससे कहा ही था कि वह विषयभोगों से विरक्त हो गया और महीकंप नामक ज्येष्ठ पुत्र के लिए राज्यभार सौंपकर अनेक विद्याधरों के साथ जगंनंदन मुनि का शिष्य हो गया, तथा कनकावली तप तपकर उसके प्रभाव से प्राणत स्वर्ग में बीस सागर की स्थिति का धारक इंद्र हुआ । वहाँ वह अनेक भोगों को भोगकर धातकीखंड द्वीप के पूर्व दिशासंबंधी पश्चिमविदेह क्षेत्र में स्थित गंधिलदेश के अयोध्या नामक नगर में जयवर्मा राजा के घर उसकी सुप्रभा रानी से अजितंजय नामक पुत्र हुआ ।।38-41।। कुछ समय बाद राजा जयवर्मा ने अपना समस्त राज्य अजितंजय पुत्र के लिए सौंपकर अभिनंदन मुनिराज के समीप दीक्षा ले ली और आचाम्लवर्धन तप तपकर कर्म बंधन से रहित हो मोक्षरूप उत्कृष्ट पद को प्राप्त कर लिया । उस मोक्ष में आत्यंतिक, अविनाशी और अव्याबाध उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है ।।42-43।। रानी सुप्रभा भी सुदर्शना नाम की गणिनी के पास जाकर तथा रत्नावली व्रत के उपवास कर अच्युत स्वर्ग के अनुदिश विमान में देव हुई ।।44।। तदनंतर अजितंजय राजा चक्रवर्ती होकर किसी दिन भक्तिपूर्वक अभिनंदन स्वामी की वंदना के लिए गया । वंदना करते समय उसके पापास्रव के द्वार रुक गये थे इसलिए उसका पिहितास्रव नाम पड़ गया । पिहितास्रव इस सार्थक नाम को पाकर वह सुदीर्घ काल तक राज्यसुख का अनुभव करता रहा ।।45-46।।
किसी दिन खेदपूर्वक मैंने उसे इस प्रकार समझाया―हे भव्य, तू इन नष्ट हो जाने वाले विषयों में आसक्त मत हो । देख, पंडित जन उस तृप्ति को ही सुख कहते हैं जो विषयों से उत्पन्न न हुई हो तथा अंत से रहित हो । वह तृप्ति मनुष्य तथा देवों के उत्तमोत्तम विषय भोगने पर भी नहीं हो सकती । ये भोग बार-बार भोगे जा चुके हैं, इनमें कुछ भी रस नहीं बदलता । जब इनमें वही पहले का रस है तब फिर चर्वण किये हुए का पुन: चर्वण करने में क्या लाभ है ? जो इंद्र संबंधी भोगों से तृप्त नहीं हुआ वह क्या मनुष्यों के भोगों से तृप्त हो सकेगा इसलिए तृप्ति नहीं करने वाले इन विनाशीक सुखों से बाज आओ, इन्हें छोड़ो ।।47-50।। इस प्रकार मेरे वचनों से जिसे वैराग्य उत्पन्न हो गया है ऐसे पिहितास्रव राजा ने बीस हजार बड़े-बड़े राजाओं के साथ मंदिरस्थविर नामक मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि प्राप्त की । उन्हीं पिहितास्रव मुनिराज ने अंबरतिलक नामक पर्वत पर पूर्वभव में तुम्हें स्वर्ग के श्रेष्ठ सुख देने वाले जिनगुण संपत्ति और श्रुतज्ञान संपत्ति नाम के व्रत दिये थे ।
इस प्रकार हे पुत्रि, जो पिहितास्रव पहले मेरे गुरु थे―माता के जीव थे वही पिहितास्रव व्रतदान की अपेक्षा तेरे भी पूज्य गुरु हुए । मेरी माता के जीव ललितांग ने मुझे उपदेश दिया था इसलिए मैंने गुरु के स्नेह से अपने समय में होने वाले बाईस ललितांग देवों की पूजा की थी ।।51-54।। [उन बाईस ललितांगों में से पहला ललितांग तो मेरी माता मनोहरा का जीव था जो कि क्रम से जंमांतर में पिहितास्रव हुआ] और अंत का ललितांग तेरा पति था जो कि पूर्वभव में महाबल था तथा स्वयंबुद्ध मंत्री के उपदेश से देवों की विभूति का अनुभव करने वाला हुआ था ।।55।। वह बाईसवाँ ललितांग स्वर्ग से च्युत होकर इस समय मनुष्यलोक में स्थित है । वह हमारा अत्यंत निकट संबंधी है । हे पुत्रि, वही तेरा पति होगा ।।56।।
हे कमलानने, मैं उस विषय का परिचय कराने वाली एक कथा और कहता हूँ उसे भी सुन । जब मैं अच्युत स्वर्ग का इंद्र था तब एक बार ब्रह्मेंद्र और लांतव स्वर्ग के इंद्रों ने भक्तिपूर्वक मुझ से पूछा था कि हम दोनों ने युगंधर तीर्थंकर के तीर्थ में सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है इसलिए इस समय उनका पूर्ण चरित्र जानना चाहते हैं ।।57-58।। उस समय मैंने उन दोनों इंद्रों तथा अपनी इच्छा से साथ-साथ आये हुए तुम दोनों दंपत्तियों (ललितांग और स्वयंप्रभा) के लिए युगंधर स्वामी का चरित्र इस प्रकार कहा था ।।59।।
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक वत्सकावती देश है जो कि भोगभूमि के समान है । इसी देश में सीता नदी की दक्षिण दिशा की ओर एक सुसीमा नाम का नगर है । उसमें किसी समय प्रहसित और विकसित नाम के दो विद्वान् रहते थे, वे दोनों ज्ञानरूपी धन सहित अत्यंत बुद्धिमान् थे ।।60-61।। उस नगर के अधिपति श्रीमान् अजितंजय राजा थे । उनके मंत्री का नाम अमितमति और अमितमति की स्त्री का नाम सत्यभामा था । प्रहसित, इन दोनों का ही बुद्धिमान् पुत्र था और विकसित इसका मित्र था । ये दोनों सदा साथ-साथ रहते थे ।।62-63।। ये दोनों विद्वान हेतु, हेत्वाभास, छल, जाति आदि सब विषयों के पंडित, व्याकरणरूपी समुद्र के पारगामी, सभा को प्रसन्न करने में तत्पर, राजमान्य, वादविवादरूपी खुजली को नष्ट करने के लिए उत्तम वैद्य तथा विद्वानों की गोष्ठी में यथार्थ ज्ञान की परीक्षा के लिए कसौटी के समान थे ।।64-65।। किसी दिन उन दोनों विद्वानों ने राजा के साथ अमृतस्राविणी ऋद्धि के धारक मतिसागर नामक मुनिराज के दर्शन किये ।।66।। राजा ने मुनिराज से जीवतत्त्व का स्वरूप पूछा, उत्तर में वे मुनिराज जीवतत्त्व का निरूपण करने लगे, उसी समय प्रश्न करने में चतुर होने के कारण वे दोनों विद्वान् प्रहसित और विकसित हठपूर्वक बोले कि उपलब्धि के बिना हम जीवतत्त्व पर विश्वास कैसे करें? जब कि जीव ही नहीं है तब मरने के बाद होने वाला परलोक और पुण्य-पाप आदि का फल कैसे हो सकता है? ।।67-68।। वे धीर-वीर मुनिराज उन विद्वानों के ऐसे उपालंभरूप वचन सुनकर उन्हें समझाने वाले नीचे लिखे वचन कहने लगे ।।69।।
आप लोगों ने जीव का अभाव सिद्ध करने के लिए जो अनुपलब्धि हेतु दिया है (जीव नहीं है क्योंकि वह अनुपलब्ध है) वह असत् हेतु है क्योंकि उसमें हेतुसंबंधी अनेक दोष पाये जाते हैं।।70।। उपलब्धि पदार्थों के सद्भाव का कारण नहीं हो सकती क्योंकि अल्प ज्ञानियों को परमाणु आदि सूक्ष्म, राम, रावण आदि अंतरित तथा मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थों की भी उपलब्धि नहीं होती परंतु इन सर्व का सद्भाव माना जाता है इसलिए जीव का अभाव सिद्ध करने के लिए आपने जो हेतु दिया है वह व्यभिचारी है ।।71।। इसके सिवाय एक बात हम आपसे पूछते हैं कि आपने अपने पिता के पितामह को देखा है या नहीं ? यदि नहीं देखा है, तो वे थे या नहीं? यदि नहीं थे तो आप कहाँ से उत्पन्न हुए ? और थे, तो जब आपने उन्हें देखा ही नहीं है―आपको उनकी उपलब्धि हुई ही नहीं; तब उसका सद्भाव कैसे माना जा सकता है । यदि उनका सद्भाव मानते हो तो उन्हीं की भाँति जीव का भी सद्भाव मानना चाहिए ।।72।।
यदि यह मान भी लिया जाये कि जीव का अभाव है; तो अनुपलब्धि होने से ही उसका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसे कितने ही सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनका अस्तित्व तो है परंतु उपलब्धि नहीं होती ।।73।। जैसे जीव अर्थ को कहने वाले ‘जीव’ शब्द और उसके ज्ञान का जीवज्ञान का सद्भाव माना जाता है, उसी प्रकार उसके वाच्यभूत बाह्य-जीव अर्थ के भी सद्भाव को मानने में क्या हानि है क्योंकि जब जीव पदार्थ ही नहीं होता तो उसके वाचक शब्द कहाँ से आते और उनके सुनने से वैसा ज्ञान भी कैसे होता ? ।।74।।
जीव शब्द अभ्रांत बाह्य पदार्थ की अपेक्षा रखता है क्योंकि वह संज्ञावाचक शब्द है । जो-जो संज्ञावाचक शब्द होते हैं, वे किसी संज्ञा से अपना संबंध रखते हैं जैसे लौकिक घट आदि शब्द, भ्रांति शब्द, मत शब्द और हेतु आदि शब्द । इत्यादि युक्तियों से मुनिराज ने जीवतत्त्व का निर्णय किया, जिसे सुनकर उन दोनों विद्वानों ने ज्ञान का अहंकार छोड़कर मुनि को नमस्कार किया ।।75-76।।
उन दोनों विद्वानों ने उन्हीं मुनि के समीप उत्कृष्ट तप ग्रहण कर सुदर्शन और आचाम्लवर्द्धन व्रतों के उपवास किये ।।77।। विकसित ने नारायण पद प्राप्त होने का निदान भी किया । आयु के अंत में दोनों शरीर छोड़कर महाशुक्र स्वर्ग में इंद्र और प्रतींद्र पद पर सोलह सागर प्रमाण स्थिति के धारक उत्तम देव हुए । वे वहाँ सुख में तन्मय होकर स्वर्ग-लक्ष्मी का अनुभव करने लगे ।।78-79।।
अपनी आयु के अंत में दोनों वहाँ से चयकर धातकीखंड द्वीप के पश्चिम भाग संबंधी पूर्वविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में राजा धनंजय की जयसेना और यशस्वती रानी के बलभद्र और नारायण का पद धारण करने वाले पुत्र उत्पन्न हुए । अब उत्पत्ति की अपेक्षा दोनों के क्रम में विपर्यय हो गया था । अर्थात् बलभद्र ऊर्ध्वगामी था और नारायण अधोगामी था । बड़े पुत्र का नाम महाबल था और छोटे का नाम अतिबल था (महाबल प्रहसित का जीव था और अतिबल विकसित का जीव था) ।।80-82।। राज्य के अंत में जब नारायण अतिबल की आयु पूर्ण हो गयी तब महाबल ने समाधिगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा लेकर अनेक तप तपे, जिससे आयु के अंत में शरीर छोड़कर वह प्राणत नामक चौदहवें स्वर्ग में इंद्र हुआ ।।83।। वहाँ वह बीस सागर तक देवों की लक्ष्मी का उपभोग करता रहा ।
आयु पूर्ण होने पर वहाँ से चयकर धातकीखंड द्वीप के पश्चिम भाग संबंधी पूर्वविदेह क्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के अधिपति तथा अपने प्रताप से समस्त शत्रुओं को नष्ट करने वाले महासेन राजा की वसुंधरा नामक रानी से जयसेन नाम का पुत्र हुआ । वह पुत्र चंद्रमा के समान समस्त प्रजा को आनंदित करता था ।।84-86।। अनुक्रम से उसने चक्रवर्ती होकर पहले तो चिरकाल तक प्रजा का शासन किया और फिर भोगों से विरक्त हो जिनदीक्षा धारण की ।।87।। सीमंधर स्वामी के चरणकमलों के मूल में सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करते हुए उसने बहुत समय तक निर्दोष तपश्चरण किया ।।88।।
फिर आयु का अंत होने पर उपरिम ग्रैवेयक के मध्यभाग अर्थात् आठवें ग्रैवेयक में अहमिंद्र पद प्राप्त किया । वहाँ तीस सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर वहाँ से अवतीर्ण हुआ और पुष्करार्ध द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में मंगलावती देश के रत्न-संचय नगर में अजितंजय राजा की वसुमती रानी से युगंधर नाम का प्रसिद्ध पुत्र हुआ । वह पुत्र मनुष्य तथा देवों द्वारा पूजित था ।।89-91।। वही पुत्र गर्भ-जन्म और तप इन तीनों कल्याणों में इंद्र आदि देवों-द्वारा की हुई पूजा को प्राप्त कर आज अनुक्रम से केवलज्ञानी हो सबके द्वारा पूजित हो रहा है ।।92।। इस प्रकार उस प्रहसित के जीव ने पुण्यकर्म से छयासठ सागर (16+20+30=66) तक स्वर्गों के सुख भोग कर अरहंत पद प्राप्त किया है ।।93।। ये युगंधर स्वामी इस युग के सबसे श्रेष्ठ पुरुष हैं, तीर्थंकर हैं, धर्मरूपी रथ के चलाने वाले हैं तथा भव्यजीवरूप कमल वन को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं । ऐसे ये तीर्थंकर देव हमारी रक्षा करें―संसार के दुःख दूर कर मोक्ष पद प्रदान करें ।।94।।
उस समय मेरे ये वचन सुनकर अनेक जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए थे तथा आप दोनों भी (ललितांग और स्वयंप्रभा) परम धर्मप्रेम को प्राप्त हुए थे ।।95।। हे पुत्रि, तुम्हें इस बात का स्मरण होगा कि जब पिहितास्रव भट्टारक को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था उस समय हम लोगों ने साथ-साथ जाकर ही उनकी पूजा की थी ।।96।। हे पुत्रि, तू यह भी जानती होगी कि हम लोग क्रीड़ा करने के लिए स्वयंभूरमण समुद्र तथा अंजनगिरि पर जाया करते थे ।।97।।
इस प्रकार पिता के कह चुकने पर श्रीमती ने कहा कि हे तात, आपके प्रसाद से मैं यह सब जानती हूँ ।।98।। अंबरतिलक पर्वत पर गुरुदेव पिहितास्रव मुनि के केवलज्ञान की जो पूजा की थी वह भी मुझे याद है तथा अंजनगिरि और स्वयंभूरमण समुद्र में जो विहार किये थे वे सब मुझे याद है ।।99।। हे पिताजी, वे सब बातें प्रत्यक्ष की तरह मेरे हृदय में प्रतिभासित हो रही हैं किंतु मेरा पति ललितांग कहाँ उत्पन्न हुआ है इसी विषय में मेरा चित्त चंचल हो रहा है ।।100।।
इस प्रकार कहती हुई श्रीमती से वज्रदंत पुन: कहने लगे कि हे पुत्रि, जब तुम दोनों स्वर्ग में स्थित थे तब मैं तुम्हारे च्युत होने के पहले ही अच्युत स्वर्ग से च्युत हो गया था और इस नगरी में यशोधर महाराज तथा वसुंधरा रानी के वज्रदंत नाम का श्रेष्ठ पुत्र हुआ हूँ ।।101-102।। जब आप दोनों की आयु में पचास हजार पूर्व वर्ष बाकी थे तब मैं स्वर्ग से च्युत हुआ था ।।103।। तुम दोनों भी अपनी बाकी आयु भोगकर स्वर्ग से च्युत हुए और इसी देश में यथायोग्य राजपुत्र और राजपुत्री हुए हो ।।104।। आज से तीसरे दिन तेरा ललितांग के जीव राजपुत्र के साथ समागम हो जायेगा । तेरी पंडिता सखी आज ही उसके सब समाचार स्पष्ट रूप से लायेगी ।।105।। हे पुत्रि, वह ललितांग तेरी बुआ के ही पुत्र उत्पन्न हुआ है और वही तेरा भर्ता होगा । यह समागम ऐसा आ मिला है मानो जिस बेल को खोज रहे हों वह स्वयं ही अपने पाँव में आ लगी हो ।।106।। हे पुत्रि तेरी मामी आज आ रही हैं इसलिए उन्हें लाने के लिए हम लोग भी उनके सम्मुख जाते हैं ऐसा कहकर राजा वज्रदंत उठकर वहाँ से बाहर चले गये ।।107।।
राजा गये ही थे कि उसी क्षण पंडिता सखी आ पहुँची । उस समय उसका मुख प्रफुल्लित हो रहा था और मुख की प्रसन्न कांति कार्य की सफलता को सूचित कर रही थी । वह आकर श्रीमती से बोली ।।108।। हे कन्ये, तू भाग्य से बढ़ रही है (तेरा भाग्य बड़ा बलवान् है) । आज तेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है । मैं विस्तार के साथ सब समाचार कहती हूँ, सावधान होकर सुन ।।109।। उस समय मैं तेरी आज्ञा से चित्रपट लेकर यहाँ से गयी और अनेक आश्चर्यों से भरे हुए महापूत नामक जिनालय में जा ठहरी ।।110।। मैंने वहाँ जाकर तेरा विचित्र चित्रपट फैलाकर रख दिया । अपने-आपको पंडित मानने वाले कितने ही मूर्ख लोग उसका आशय नहीं समझ सके । इसलिए देखकर ही वापस चले गये थे ।।111।। हाँ, वासव और दुर्दांत, जो झूठ बोलने में बहुत ही चतुर थे, हमारा चित्रपट देखकर बहुत प्रसन्न हुए और फिर अपने अनुमान से बोले कि हम दोनों चित्रपट का स्पष्ट आशय जानते हैं । किसी राजपुत्री को जाति-स्मरण हुआ है, इसलिए उसने अपने पूर्वभव की समस्त चेष्टाएँ लिखी हैं ।।112-113।। इस प्रकार कहते-कहते वे बड़ी चतुराई से बोले कि इस राजपुत्री के पूर्व जन्म के पति हम ही हैं । मैंने बहुत देर तक हँसकर कहा कि कदाचित् ऐसा हो सकता है ।।114।। अनंतर जब मैंने उनसे चित्रपट के गूढ़ अर्थों के विषय में प्रश्न किये और उन्हें उत्तर देने के लिए बाध्य किया तब वे चुप रह गये और लज्जित हो चुपचाप वहाँ से चले गये ।।115।। तत्पश्चात् तेरे श्वशुर का तरुण पुत्र वज्रजंघ वहाँ आया, जो अपने दिव्य शरीर, कांति और तेज के द्वारा समस्त भूतल में अनुपम था ।।116।। उस भव्य ने आकर पहले जिनमंदिर की प्रदक्षिणा दी । फिर जिनेंद्रदेव की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया, उनकी पूजा की और फिर चित्रशाला में प्रवेश किया ।।117।। वह श्रीमान् इस चित्रपट को देखकर बोला कि ऐसा मालूम होता है मानो इस चित्रपट में लिखा हुआ चरित्र मेरा पहले का जाना हुआ हो ।।118।। इस चित्रपट पर जो यह चित्र चित्रित किया गया है इसकी शोभा वाणी के अगोचर है । यह चित्र लंबाई चौड़ाई ऊँचाई आदि के ठीक-ठीक प्रमाण से सहित है तथा इसमें ऊँचे-नीचे सभी प्रदेशों का विभाग ठीक-ठीक दिखलाया गया है ।।119।। अहा, यह चित्र बड़ी चतुराई से भरा हुआ है, इसकी दीप्ति बहुत ही शोभायमान है, यह रस और भावों से सहित है, मनोहर है तथा रेखाओं की मधुरता से संगत है ।।120।। इस चित्र में मेरे पूर्वभव का संबंध विस्तार के साथ लिखा गया है । ऐसा जान पड़ता मानो मैं अपने पूर्वभव में होने वाले श्रीप्रभ विमान के अधिपति ललितांगदेव के स्वामित्व को साक्षात् देख रहा हूँ ।।121।। अहा, यहाँ यह स्त्री का रूप अत्यंत शोभायमान हो रहा है । यह अनेक प्रकार के आभरणों से उज्ज्वल है और ऐसा जान पड़ता है मानो स्वयंप्रभा का ही रूप हो ।।122।। किंतु इस चित्र में कितने ही गूढ़ विषय क्यों दिखलाये गये हैं मालूम होता है कि अन्य लोगों को मोहित करने के लिए ही यह चित्र बनाया गया है ।।123।। यह ऐशान स्वर्ग लिखा गया है । यह दैदीप्यमान श्रीप्रभविमान चित्रित किया गया है और यह श्रीप्रभविमान के अधिपति ललितांगदेव के समीप स्वयंप्रभा देवी दिखलायी गयी है ।।124।। यह कल्पवृक्षों की पंक्ति है, यह फूले हुए कमलों से शोभायमान सरोवर है, यह मनोहर दोलागृह है और यह अत्यंत सुंदर कृत्रिम पर्वत है ।।125।। इधर यह प्रणय-कोप कर पराङ्मुख बैठी हुई स्वयंप्रभा दिखलायी गयी है जो कल्पवृक्षों के समीप वायु से झकोर हुई लता के समान शोभायमान हो रही है ।।126।। इधर तट भाग पर लगे हुए मणियों की फैलती हुई प्रभारूपी परदा से तिरोहित मेरुपर्वत के तट पर हम दोनों की मनोहर क्रीड़ा दिखलायी गयी है ।।127।। इधर, अंतःकरण में छिपे हुए प्रेम के साथ कपट से कुछ ईर्ष्या करती हुई स्वयंप्रभा ने यह अपना पैर हठपूर्वक मेरी गोदी से हटाकर शय्या के मध्यभाग पर रखा है ।।128।। इधर, यह स्वयंप्रभा मणिमय नुपूरों की झंकार से मनोहर अपने चरणकमल के द्वारा मेरा ताड़न करना चाहती है परंतु गौरव के कारण ही मानो सखी के समान इस करधनी ने उसे रोक दिया है ।।129।। इधर दिखाया गया है कि मैं बनावटी कोप किये हुए बैठा हूँ और मुझे प्रसन्न करने के लिए अति नम्रीभूत हुई स्वयंप्रभा अपना मस्तक मेरे चरणों पर रख रही है ।।130।। इधर यह अच्युत स्वर्ग के इंद्र के साथ हुई भेंट तथा पिहितास्रव गुरु की पूजा आदि का विस्तार दिखलाया गया है और इस स्थान पर परस्पर के प्रेमभाव से उत्पन्न हुआ रति आदि भाव दिखलाया गया है ।।131।। यद्यपि इस चित्र में अनेक बातें दिखला दी गयी हैं; परंतु कुछ बातें छूट भी गयी हैं । जैसे कि एक दिन मैं प्रणय-कोप के समय इस स्वयंप्रभा के चरण पर पड़ा था और यह अपने कोमल कर्णफूल से मेरा ताड़न कर रही थी; परंतु वह विषय इसमें नहीं दिखाया गया है ।।132।। एक दिन इसने मेरे वक्षःस्थल पर महावर लगे हुए अपने पैर के अँगूठे से छाप लगायी थी । वह क्या थी मानो यह हमारा पति है इस बात को सूचित करने वाला चिह्न ही था । परंतु वह विषय भी यहां नहीं दिखाया गया है ।।333।। मैंने इसके प्रियंगु फाल के समान कांतिमां कपोलफलक पर कितनी ही बार पत्र-रचना की थी, परंतु वह विषय भी इस चित्र में नहीं दिखाया है ।।134।। निश्चय से यह हाथ की ऐसी चतुराई स्वयंप्रभा के जीव की ही है क्योंकि चित्रकला के विषय में ऐसी चतुराई अन्य किसी स्त्री के नहीं हो सकती ।।135।। इस प्रकार तर्क-वितर्क करता हुआ वह राजकुमार व्याकुल की तरह शून्यहृदय और निमीलितनयन होकर क्षण-भर कुछ सोचता रहा ।।136।। उस समय उसकी आंखों से आँसू झर रहे थे, वह अंत की मरण अवस्था को प्राप्त हुआ ही चाहता था कि दैव योग से उसी समय मूर्च्छा ने सखी के समान आकर उसे पकड़ लिया, अर्थात् वह मूर्च्छित हो गया ।।137।। उसकी वैसी अवस्था देखकर केवल मुझे ही विषाद नहीं हुआ था, किंतु चित्र में स्थित मूर्तियों का अंतःकरण भी आर्द्र हो गया था ।।138।। अनंतर परिचारकों ने उसे अनेक उपायों से सचेत किया किंतु उसकी चित्तवृत्ति तेरी ही ओर लगी रही । उसे समस्त दिशा ऐसी दिखती थीं मानो तुझसे ही व्याप्त हों ।।139।। थोड़ी ही देर बाद जब वह सचेत हुआ तो मुझसे इस प्रकार पूछने लगा कि हे भद्रे, इस चित्र में मेरे पूर्वभव की ये चेष्टाएँ किसने लिखी हैं ? ।।140।। मैंने उत्तर दिया कि तुम्हारी मामी की एक श्रीमती नाम की पुत्री है, वह स्त्रियों की सृष्टि की एक मात्र मुख्य नायिका है―वह स्त्रियों में सबसे अधिक सुंदर है और पति-वरण करने के योग्य अवस्था में विद्यमान है―अविवाहित है ।।141।। हे राजकुमार, तुम उसे उज्ज्वल वस्त्र से शोभायमान कामदेव की पताका ही समझो, अथवा स्त्रीसृष्टि की माधुर्य से शोभायमान अंतिम निर्माणरेखा ही जानों अर्थात् स्त्रियों में इससे बढ़कर सुंदर स्त्रियों की रचना नहीं हो सकती ।।142।। उसके लंबायमान कटाक्ष क्या हैं मानो पूर्ण यौवन के प्रारंभ को सूचित करनेवाले सूत्रपात ही हैं । उसके ऐसे कटाक्षों से ही कामदेव अपने बाणों के कौशल की प्रशंसा करता है अर्थात् उसके लंबायमान कटाक्षों को देखकर मालूम होता है कि उसके शरीर में पूर्ण यौवन का प्रारंभ हो गया है तथा कामदेव जो अपने बाणों की प्रशंसा किया करता है सो उसके कटाक्षों के भरोसे ही किया करता है ।।143।। उसका मुखरूपी चंद्रमा सदा दाँतों की उज्ज्वल किरणों से शोभायमान रहता है । इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो लक्ष्मी के हाथ में स्थित क्रीड़ाकमल को ही जीतना चाहता हो ।।144।। चलते समय, उसके लाक्षा रस से रँगे हुए चरणों को लालकमल समझकर भ्रमर शीघ्र ही घेर लेते हैं ।।145।। उसके कर्णफूल पर बैठी तथा मनोहर शब्द करती हुई भ्रमरियाँ ऐसी मालूम होती हैं मानो उसे कामशास्त्र का उपदेश ही दे रही हों और इसीलिए वे ताड़ना करने पर भी नहीं हटती हों ।।146।। राजा वज्रदंत की प्रियपुत्री उस श्रीमती ने ही इस चित्र में अपना कलाकौशल दिखलाया है ।।147।। जो लक्ष्मी की तरह अनेक अर्थीजनों के द्वारा प्रार्थनीय है अर्थात् जिसे अनेक अर्थीजन चाहते हैं । जो यौवनवती होने के कारण स्थूल और कठोर स्तनों से सहित है तथा जो अच्छे-अच्छे मनुष्यों-द्वारा खोज करने के योग्य है अर्थात् दुर्लभ है, ऐसी वह श्रीमती आज आपकी खोज कर रही है । आपकी खोज के लिए ही उसने मुझे यहाँ भेजा है । इसलिए समझना चाहिए कि आपके समान और कोई पुण्यवान् नहीं है ।।148।। वह प्यारी श्रीमती आपका स्वर्ग का (पूर्वभव का) नाम ललितांग बतलाती है । परंतु वह झूठ है क्योंकि आप इस मनुष्य-भव में भी सौम्य तथा सुंदर अंगों के धारक होने से साक्षात् ललितांग दिखायी पड़ते हैं ।।149।। इस प्रकार मेरे कहने पर वह राजकुमार कहने लगा कि ठीक पंडिते, ठीक, तुमने बहुत अच्छा कहा । अभिलषित पदार्थों की सिद्धि में कर्मों का उदय भी बड़ा विचित्र होता है ।।150।। देखो, अनुकूलता को प्राप्त हुआ कर्मों का उदय जीवों को जंमांतर से लाकर इस दूसरे भव में भी शीघ्र मिला देता है ।।151।। अनुकूलता को प्राप्त हुआ दैव अभीष्ट पदार्थ को किसी दूसरे द्वीप से, दिशाओं के अंत से, किसी टापू से अथवा समुद्र से भी लाकर उसका संयोग करा देता है ।।152।। इस प्रकार जो अनेक वचन कह रहा था, जिसके हाथ से पसीना निकल रहा था तथा जिसे कौतूहल उत्पन्न हो रहा था, ऐसे उस राजकुमार वज्रजंघ ने हमारा चित्रपट अपने हाथ में ले लिया और यह अपना चित्र हमारे हाथ में सौंप दिया । देख, इस चित्र में तेरे चित्र से मिलते-जुलते सभी विषय स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं ।।153-154।। जिस प्रकार प्रत्याहारशास्त्र (व्याकरणशास्त्र) में सूत्र, वर्ण और धातुओं के अनुबंध का क्रम स्पष्ट रहता है उसी प्रकार इस चित्र में भी रेखाओं, रंगों और अनुकूल भावों का क्रम अत्यंत स्पष्ट दिखाई दे रहा है अर्थात् जहाँ जो रेखा चाहिए वहाँ वही रेखा खींची गयी है; जहाँ जो रंग चाहिए वहाँ वह रंग भरा गया है और जहाँ जैसा भाव दिखाना चाहिए वहीं वैसा ही भाव दिखाया गया है ।।155।। राजकुमार ने मुझे यह चित्र क्या सौंपा है मानो अपने मन का अनुराग ही सौंपा है अथवा तेरे मनोरथ को सिद्ध करने के लिए सत्यंकार (बयाना) ही दिया है ।।156।। अपना चित्र मुझे सौंप देने के बाद राजकुमार ने हाथ फैलाकर कहा कि हे आर्ये, तेरा दर्शन फिर भी कभी हो, इस समय जाओ, हम भी जाते हैं । इस प्रकार कहकर यह जिनालय से निकलकर बाहर चला गया ।।157।। और मैं उस समाचार को ग्रहण कर यहाँ आयी हूँ । ऐसा कहकर पंडिता ने वज्रजंघ का दिया हुआ चित्रपट फैलाकर श्रीमती के सामने रख दिया ।।158।।
उस चित्रपट को उसने बड़ी देर तक गौर से देखा, देखकर उसे अपने मनोरथ पूर्ण होने का विश्वास हो गया और उसने सुख की साँस ली । जिस प्रकार चिरकाल से संतप्त हुई चातकी मेघ का आगमन देखकर हर्षित होती है, जिस प्रकार हंसी शरद ऋतु में किनारे की निकली हुई जमीन देखकर प्रसन्न होती है, जिस प्रकार भव्यजीवों की पंक्ति अध्यात्मशास्त्र को देखकर प्रमुदित होती है, जिस प्रकार कोयल फूले हुए आमों का वन देखकर आनंदित होती है और जिस प्रकार देवों की सेना नंदीश्वर द्वीप को पाकर प्रसन्न होती है; उसी प्रकार श्रीमती उस चित्रपट को पाकर प्रसन्न हुई थी । उसकी सब आकुलता दूर हो गयी थी । सो ठीक ही है अभिलषित वस्तु की प्राप्ति किसकी उत्कंठा दूर नहीं करती ? ।।159-162 ।। तत्पश्चात् श्रीमती इच्छानुसार वर प्राप्त होने से कृतार्थ हो जायेगी इस बात का समर्थन करने के लिए पंडिता श्रीमती से उस अवसर के योग्य वचन कहने लगी ।।163।। कि हे कल्याणि, दैवयोग से अब तू शीघ्र ही अनेक कल्याण प्राप्त कर । तू विश्वास रख कि अब तेरा प्राणनाथ के साथ समागम शीघ्र ही होगा ।।164।। वह राजकुमार वहाँ से चुपचाप चला गया इसलिए अविश्वास मत कर, क्योंकि उस समय भी उसका चित्त तुझमें ही लगा हुआ था । इस बात का मैंने अच्छी तरह निश्चय कर लिया है ।।165।। वह जाते समय दरवाजे पर बहुत देर तक विलंब करता रहा, बार-बार मुझे देखता था और सुखपूर्वक गमन करने योग्य उत्तम मार्ग में चलता हुआ भी पद-पद पर स्खलित हो जाता था । वह हंसता था, जँभाई लेता था, कुछ स्मरण करता था, दूर तक देखता था और उष्ण तथा लंबी साँस छोड़ता था । इन सब चिह्नों से जान पड़ता था कि उसमें कामज्वर बढ़ रहा है ।।166-167।। वह वज्रजंघ राजा वज्रदंत का भानजा है और लक्ष्मीमती देवी के भाई का पुत्र (भतीजा) है । इसलिए तेरे माता-पिता भी उसे श्रेष्ठ वर समझते हैं ।।168।। इसके सिवाय वह लक्ष्मीमान् है, उच्चकुल में उत्पन्न हुआ है, चतुर है, सुंदर है और सज्जनों का मान्य है । इस प्रकार उसमें वर के योग्य अनेक गुण विद्यमान हैं ।।169।। हे कल्याणि, तू लक्ष्मी और सरस्वती की सपत्नी (सौत) होकर सैकडों सुखों का अनुभव करती हुई चिरकाल तक उसके हृदयरूपी घर में निवास कर ।।170।। यदि सामान्य (गुणों की बराबरी) की अपेक्षा विचार किया जाये तो लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही तेरी उपमा को नहीं पा सकतीं, क्योंकि तू अनोखी लक्ष्मी है और अनोखी ही सरस्वती है । जिसके पत्ते फटे हुए हैं, जो सदा संकुचित (संकीर्ण) होता रहता है और जो परागरूपी धूलि से सहित है ऐसे कमलरूपी झोपड़ी में जिस लक्ष्मी का जन्म हुआ है उसे लक्ष्मी नहीं कह सकते यह तो अलक्ष्मी है―दरिद्रा है । भला, तुम्हें उसकी उपमा कैसे दी जा सकती है ? इसी प्रकार उच्छिष्ट तथा चंचल जिह्वा के अग्रभागरूपी पल्लव पर जिसका जन्म हुआ है वह सरस्वती भी नीच कुल में उत्पन्न होने के कारण तेरी उपमा को प्राप्त नहीं हो सकती । क्योंकि तेरा कुल अतिशय शुद्ध है―उत्तम कुल में ही तू उत्पन्न हुई है ।।171-173।। हे लतांगि (लता के समान कृश अंगों को धारण करने वाली) जिस प्रकार पवित्र मानससरोवर में राजहंसी क्रीड़ा किया करती है उसी प्रकार तू पति के आगमन के लिए सारा नगर कैसा अतिशय कौतुकपूर्ण हो रहा है ।।176।। इस तरह पंडिता ने वज्रजंघ संबंधी अनेक मनोहर बातें कहकर श्रीमती को सुखी किया, परंतु वह उसकी प्राप्ति के विषय में अबतक भी निराकुल नहीं हुई ।।177।।
इधर पंडिता ने श्रीमती से जब तक सब समाचार कहे तब तक महाराज वज्रदंत, विशाल भ्रातृप्रेम को विस्तृत करते हुए आधी दूर तक जाकर वज्रबाहु राजा को ले आये ।।178।। राजा वज्रदंत अपने बहनोई, बहन और भानजे को देखकर परम प्रीति को प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि इष्टजनों का दर्शन प्रीति के लिए ही होता है ।।179।। तदनंतर कुछ देर तक कुशलमंगल की बातें होती रही और फिर चक्रवर्ती की ओर से सब पाहुनों (अतिथियों) का उचित सत्कार किया गया ।।180।। स्वयं चक्रवर्ती के द्वारा किये हुए सत्कार को पाकर राजा वज्रबाहु बहुत प्रसन्न हुआ । सच है, स्वामी के द्वारा किया हुआ सत्कार सेवकों की प्रीति के लिए ही होता है ।।181।।
इस प्रकार जब सब बंधु संतोषपूर्वक सुख से बैठे हुए थे तब चक्रवर्ती ने अपने बहनोई राजा वज्रबाहु से नीचे लिखे हुए वचन कहे ।।182।। यदि आपकी मुझ पर असाधारण प्रीति है तो मेरे घर में जो कुछ वस्तु आपको अच्छी लगती हो वही ले लीजिए ।।183।। आज आप पुत्र और स्त्रीसहित मेरे घर पधारे हैं इसलिए मेरा मन प्रीति की अंतिम अवधि को प्राप्त हो रहा है ।।184।। आप मेरे इष्ट बंधु हैं और आज पुत्रसहित मेरे घर आये हुए हैं इसलिए देने के योग्य इससे बढ़कर और ऐसा कौन-सा अवसर मुझे प्राप्त हो सकता है ।।185।। इसलिए इस अवसर पर ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मैं आपके लिए न दे सकूँ । हे प्रणयिन्, मुझ प्रार्थी के इस प्रेम को भंग मत कीजिए ।।186।।
इस प्रकार प्रेम के वशीभूत चक्रवर्ती के वचन सुनकर राजा वज्रबाहु ने इस प्रकार उत्तर दिया । हे चक्रिन्, आपके प्रसाद से मेरे यहाँ सब कुछ है, आज मैं आप से किस वस्तु की प्रार्थना करूँ ? ।।187।। आज आपने सम्मानपूर्वक जो मेरे साथ स्वयं साम का प्रयोग किया है―भेंट आदि करके स्नेह प्रकट किया है सो मानो आपने मुझे स्नेह की सबसे ऊँची भूमि पर ही चढ़ा दिया है ।।188।। हे देव, नष्ट हो जाने वाला यह धन कितनी-सी वस्तु है ? यह आपने संपन्न बनाने वाली अपनी दृष्टि मुझ पर अर्पित कर दी है मेरे लिए यही बहुत है ।।189।। हे देव, आज आपने मुझे स्नेह से भरी हुई दृष्टि से देखा है इसलिए मैं आज कृतकृत्य हुआ हूँ, धन्य हुआ हूँ और मेरा जीवन भी आज सफल हुआ है ।।190।। हे देव, जिस प्रकार लोक में शास्त्रों की रचना करने वाले तथा प्रसिद्ध धातुओं से बने हुए जीव अजीव आदि शब्द परोपकार करने के लिए ही अर्थों को धारण करते हैं, उसी प्रकार आप-जैसे उत्तम पुरुष भी परोपकार करने के लिए ही अर्थों धनधान्यादि विभूतियों) को धारण करते हैं ।।191।।
हे देव, आपको उसी वस्तु से संतोष होता है जो कि याचकों के उपयोग में आती है और इससे भी बढ़कर संतोष उस वस्तु से होता है जो कि धन आदि के विभाग से रहित (सम्मिलित रूप से रहने वाले) बंधुओं के उपयोग में आती है ।।192।। इसलिए, आपके जिस धन को मैं अपनी इच्छानुसार भोग सकता हूँ ऐसा वह धन धरोहररूप से आपके ही पास रहे, इस समय मुझे आवश्यकता नहीं है । हे देव, आप से धन नहीं माँगने में मुझे कुछ अहंकार नहीं है और न आपके विषय में कुछ अनादर ही है ।।193।।
हे देव, यद्यपि मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है तथापि आपकी आज्ञा को पूज्य मानता हुआ आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप अपनी श्रीमती नाम की उत्तम कन्या मेरे पुत्र वज्रजंघ के लिए दे दीजिए ।।194।। यह वज्रजंघ प्रथम तो आपका भानजा है, और दूसरे आपका भानजा होने से ही इसका उच्चकुल प्रसिद्ध है । तीसरे आज आपने जो इसका सत्कार किया है वह इसकी योग्यता को पुष्ट कर रहा है ।।195।। अथवा यह सब कहना व्यर्थ है । वज्रजंघ हर प्रकार से आपकी कन्या ग्रहण करने के योग्य है । क्योंकि लोक में ऐसी कहावत प्रसिद्ध है कि कन्या चाहे हंसती हो चाहे रोती हो, अतिथि उसका अधिकारी होता है ।।196।। इसलिए हे स्वामिन्, अपने भानजे वज्रजंघ को पुत्री देने के लिए प्रसन्न होइए । मैं आशा करता हूँ कि मेरी प्रार्थना सफल हो और यह कुमार वज्रजंघ ही उसका पति हो ।।197।। हे देव, धन, सवारी आदि वस्तुएँ तो मुझे आप से अनेक बार मिल चुकी है इसलिए उनसे क्या प्रयोजन है ? अब की बार तो कन्यारत्न दीजिए जो कि पहले कभी नहीं मिला था ।।198।।
इस प्रकार राजा वज्रबाहु ने जो प्रार्थना की थी उसे चक्रवर्ती ने यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि आपने जैसा कहा है वैसा ही हो, युवावस्था को प्राप्त हुए इन दोनों का यह समागम अनुकूल ही है ।।199।। स्वभाव से ही सुंदर शरीर को धारण करने वाला यह वज्रजंघ वर हो और अनेक गुणों से युक्त कन्या श्रीमती उसकी वधू हो ।।200।। इन दोनों का प्रेम जन्मांतर से चला आ रहा है इसलिए इस जन्म में भी चंद्रमा और चाँदनी के समान इन दोनों का योग्य समागम हो ।।201।। इस लोकोत्तर कार्य का मैंने पहले से ही विचार कर लिया था । अथवा इन दोनों का दैव (कर्मों का उदय) इस विषय में पहले से ही सावधान हो रहा है । इस विषय में हम लोग कौन हो सकते हैं ? ।।202।।
इस प्रकार चक्रवर्ती के द्वारा कहे हुए वचनों का सत्कार कर वह पवित्र बुद्धि का धारक राजा वज्रबाहु प्रीति की परम सीमा पर आरूढ़ हुआ―अत्यंत प्रसन्न हुआ ।।203।। उस समय वज्रजंघ की माता वसुंधरा महादेवी अपने पुत्र की विवाहरूप संपदा से इतनी अधिक हर्षित हुई कि अपने अंग में भी नहीं समा रही थी ।।204।। उस समय वसुंधरा के शरीर में पुत्र के विवाहरूप महोत्सव से रोमांच उठ आये थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो हर्ष के अंकुर ही हो ।।205।। मंत्री, महामंत्री, सेनापति, पुरोहित, सामंत तथा नगरवासी आदि सभी लोगों ने उस विवाह की प्रशंसा की ।।206।। यह कुमार वज्रजंघ कामदेव के समान सुंदर आकृति का धारक है और यह श्रीमती अपनी सौंदर्य-संपत्ति से रति को जीतना चाहती है ।।207।। यह कुमार सुंदर है और यह कन्या भी सुंदरी है इसलिए देव-देवांगनाओं की लीला को धारण करने वाले इन दोनों का योग्य समागम होना चाहिए ।।208।। इस प्रकार आनंद के विस्तार को धारण करता हुआ वह नगर बहुत ही शोभायमान हो रहा था और राजमहल का तो कहना ही क्या था ? वह तो मानो दूसरी ही शोभा को प्राप्त हो रहा था, उसकी शोभा ही बदल गयी थी ।।209।।
चक्रवर्ती की आज्ञा से विश्वकर्मा नामक मनुष्य रत्न ने महामूल्य रत्नों और सुवर्ण से विवाहमंडप तैयार किया था ।।210।। उस विवाहमंडप में सुवर्ण के खंभे लगे हुए थे और उनके नीचे रत्नों से शोभायमान बड़े-बड़े तलकुंभ लगे हुए थे, उन तलकुंभों से वे सुवर्ण के खंभे ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे कि सिंहासनों से राजा सुशोभित होते हैं ।।211।। उस मंडप में स्फटिक की दीवालों पर अनेक मनुष्य के प्रतिबिंब पड़ते थे जिनसे वे चित्रित हुई-सा जान पड़ती थी और इसीलिए दर्शकों का मन अनुरक्षित कर रही थीं ।।212।। उस मंडप की भूमि नील रत्नों से बनी हुई थी, उस पर जहां-तहां फूल बिखेरे गये थे । उन फूलों से वह ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो ताराओं से व्याप्त नीला आकाश ही हो ।।213।। उस मंडप के भीतर जो मोतियों की मालाएँ लटकती थी वे ऐसी भली मालूम होती थीं मानो किसी ने कौतुकवश फेनसहित मृणाल ही लटका दिये हैं ।।214।। उस मंडप के मध्य में पद्मराग मणियों की एक बड़ी वेदी बनी थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो मनुष्यों के हृदय का अनुराग ही वेदी के आकार में परिणत हो गया हो ।।215।। उस मंडप के पर्यंत भाग में चूना से पुते हुए सफेद शिखर ऐसे शोभायमान होते थे मानो अपनी शोभा से संतुष्ट होकर देवों के विमानों की हँसी ही उड़ा रहे हों ।।216।। उस मंडप के सब ओर एक छोटी-सी वेदिका बनी हुई थी, वह वेदिका उसके कटिसूत्र के समान जान पड़ती थी । उस वेदिकारूप कटिसूत्र से घिरा हुआ मंडप ऐसा मालूम होता था मानो सब ओर से दिशा को रोकने वाली सौंदर्य की सीमा से ही घिरा हो ।।217।। अनेक प्रकार के रत्नों से बहुत ऊँचा बना हुआ उसका गोपुर-द्वार ऐसा मालूम होता था मानो रत्नों की फैलती हुई कांति के समूह से इंद्रधनुष ही बना रहा हो ।।218।। उस मंडप का भीतरी दरवाजा सब प्रकार के रत्नों से बनाया गया था और उसके दोनों ओर मंगल-द्रव्य रखे गये थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो लक्ष्मी के प्रवेश के लिए ही बनाया गया हो ।।219।।
उसी समय वज्रदंत चक्रवर्ती ने महापूत चैत्यालय में आठ दिन तक कल्पवृक्ष नामक महापूजा की थी ।।220।। तदनंतर ज्योतिषियों के द्वारा बताया हुआ शुभ दिन शुभ लग्न और चंद्रमा तथा ताराओं के बल से सहित शुभ मुहूर्त आया । उस दिन नगर विशेषरूप से सजाया गया । चारों ओर तोरण लगाये गये तथा और भी अनेक विभूति प्रकट की गयी जिससे वह स्वर्गलोक के समान शोभायमान होने लगा । राजभवन के आंगन में सब ओर सघन चंदन छिड़का गया तथा गुंजार करते हुए भ्रमरों से सुशोभित पुष्प सब ओर बिखेरे गये । इन सब कारण से वह राजभवन का आंगन बहुत ही शोभायमान हो रहा था । उस आंगन में वधू-वर बैठाये गये तथा विधि-विधान के जानने वाले लोगों ने पवित्र जल से भरे हुए रत्नजड़ित सुवर्णमय कलशों से उनका अभिषेक किया ।।221-224।। उस समय राजमंदिर में शंख के शब्द से मिला हुआ बड़े-बड़े दुंदुभियों का भारी कोलाहल हो रहा था और वह आकाश को भी उल्लंघन कर सब ओर फैल गया था ।।225।। श्रीमती और वज्रजंघ के उस विवाहाभिषेक के समय अंतःपुर का ऐसा कोई मनुष्य नहीं था जो हर्ष से संतुष्ट होकर नृत्य न कर रहा हो ।।226।।
उस समय वारांगनाएँ, कुलवधूएँ और समस्त नगर-निवासी जन उन दोनों वरवधूओं को आशीर्वाद के साथ-साथ पवित्र पुष्प और अक्षतों के द्वारा प्रसाद प्राप्त करा रहे थे ।।227।। अभिषेक के बाद उन दोनों वर-वधू ने क्षीरसागर की लहरों के समान अत्यंत उज्ज्वल, महीन और नवीन रेशमी वस्त्र धारण किया ।।228।। तत्पश्चात् दोनों वर-वधू अतिशय मनोहर प्रसाधन-गृह में जाकर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ गये और वहाँ उन्होंने विवाह मंगल के योग्य उत्तम-उत्तम आभूषण धारण किये ।।229।। पहले उन्होंने अपने सारे शरीर में चंदन का लेप किया । फिर ललाट पर विवाहोत्सव के योग्य, घिसे हुए चंदन का तिलक लगाया ।।230।। तदनंतर सफेद चंदन अथवा केशर से शोभायमान वक्षःस्थल पर गोल नक्षत्रमाला के समान सुशोभित बड़े-बड़े मोतियों के बने हुए हार धारण किये ।।231।। कुटिल केशों से सुशोभित उनके मस्तक पर धारण की हुई पुष्पमाला नीलगिरि के शिखर के समीप बहती हुई सीता नदी के समान शोभायमान हो रही थी ।।232।। उन दोनों ने कानों में ऐसे कर्णभूषण धारण किये थे कि जिनमें लगे हुए रत्नों की किरणों से उनका मुख-कमल उत्कृष्ट शोभा को प्राप्त हो रहा था ।।233।। वे दोनों शरद्ऋतु की चाँदनी अथवा मृणाल तंतु के समान सुशोभित सफेद, घुटनों तक लटकती हुई पुष्पमालाओं से अतिशय शोभायमान हो रहे थे ।।234।। कड़े, बाजूबंद, केयर और अँगूठी आदि आभूषण धारण करने से उन दोनों की भुजाएँ भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष की शाखाओं की तरह अतिशय सुशोभित हो रही थीं ।।235।। उन दोनों ने अपने-अपने नितंब भाग पर करधनी पहनी थी । उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घंटियाँ (बोरा) मधुर शब्द कर रही थीं । उन करधनियों से वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो उन्होंने कामदेवरूपी हस्ती के विजय-सूचक बाजे ही धारण किये हों ।।236।। श्रीमती के दोनों चरण मणिमय नुपूरों की झंकार से ऐसे मालूम होते थे मानो भ्रमरों के मधुर शब्दों से शोभायमान कमल ही हों ।।237।। विवाह के समय आभूषण धारण करना चाहिए, केवल इसी पद्धति को पूर्ण करने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े आभूषण धारण किये थे । नहीं तो उनके सुंदर शरीर की शोभा ही उनका आभूषण थी ।।238।। साक्षात् लक्ष्मी के समान लक्ष्मीमति ने स्वयं अपनी पुत्री श्रीमती को अलंकृत किया था और साक्षात् वसुंधरा पृथिवी के समान वसुंधरा ने अपने पुत्र वज्रजंघ को आभूषण पहनाये थे ।।239।।
इस प्रकार अलंकार धारण करने के बाद वे दोनों जिसकी मंगल क्रिया पहले ही की जा चुकी है ऐसी रत्न-वेदी पर यथायोग्य रीति से बैठाये गये ।।240।। मणिमय दीपकों के प्रकाश से जगमगाती हुई और मंगल-द्रव्यों से सुशोभित वह वेदी उन दोनों के बैठ जाने से ऐसी शोभायमान होने लगी थी मानो देव-देवियों से सहित मेरु पर्वत का तट ही हो ।।241।। उस समय समुद्र के समान गंभीर शब्द करते हुए, डंडों से बजाये गये नगाड़े बड़ा ही मधुर शब्द कर रहे थे ।।242।। वारांगनाएँ मधुर मंगल गीत गा रही थीं और बंदीजन मागध जनों के साथ मिलकर चारों ओर उत्साहवर्धक मंगल पाठ पढ़ रहे थे ।।243।। जिनकी भौं: कुछ-कुछ ऊपर को उठी हुई हैं ऐसी वारांगनाएँ लय-तान आदि से सुशोभित तथा रुन-झुन शब्द करते हुए नूपुर और मेखलाओं से मनोहर नृत्य कर रही थीं ।।244।। तदनंतर जिनके मस्तक सिद्ध प्रतिमा के जल से पवित्र किये गये हैं ऐसे वधू-वर अतिशय शोभायमान सुवर्ण के पाटे पर बैठाये गये ।।245।। घुटनों तक लंबी भुजाओं के धारक चक्रवर्ती ने स्वयं अपने हाथ में शृंगार धारण किया । वह शृंगार सुवर्ण से बना हुआ था, बड़े-बड़े रत्नों से खचित था तथा मोतियों से अतिशय उज्ज्वल था ।।246।। मुख पर रखे हुए अशोक वृक्ष के पल्लवों से वह शृंगार ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो इन दोनों वर-वधूओं के हस्तपल्लव की उत्तम कांति का अनुकरण ही कर रहा हो ।।247।। तदनंतर आप दोनों दीर्घकाल तक जीवित रहें, मानो यह सूचित करने के लिए ही ऊँचे लगार से छोड़ी गयी जलधारा वज्रजंघ के हस्त पर पड़ी ।।248।।
तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी भुजाओं को धारण करनेवाले वज्रजंघ ने हर्ष के साथ श्रीमती का पाणिग्रहण किया । उस समय उसके कोमल स्पर्श के सुख से वज्रजंघ के दोनों नेत्र बंद हो गये थे ।।249।। वज्रजंघ के हाथ के स्पर्श से श्रीमती के शरीर में भी पसीना आ गया था जैसे कि चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से चंद्रकांत मणि की बनी हुई पुतली में जलबिंदु उत्पन्न हो जाते हैं ।।250।। जिस प्रकार मेघों की वृष्टि से पृथ्वी का संताप नष्ट हो जाता है उसी प्रकार वज्रजंघ के हाथ के स्पर्श से श्रीमती के शरीर का चिरकालीन संताप भी नष्ट हो गया था ।।251।। उस समय वज्रजंघ के समागम से श्रीमती किसी बड़े कल्पवृक्ष से लिपटी हुई कल्प-लता की तरह सुशोभित हो रही थी ।।252।। वह श्रीमती स्त्री-संसार में सबसे श्रेष्ठ थी, समीप में बैठी हुई उस श्रीमती से वह वज्रजंघ भी ऐसा सुशोभित होता था जैसे रति से कामदेव सुशोभित होता है ।।253।। इस प्रकार लोगों को परमानंद देने वाला उन दोनों का विवाह गुरुजनों की साक्षीपूर्वक बड़े वैभव के साथ समाप्त हुआ ।।254।।
उस समय सब लोग उस विवाहिता श्रीमती का बड़ा आदर करते थे और कहते थे कि यह श्रीमती सचमुच में श्रीमती है अर्थात् लक्ष्मीमती है ।।255।। उत्तम आकृति के धारक, देव-देवांगनाओं के समान क्रीड़ा करने वाले तथा अमृत के समान आनंद देने वाले उन वधू और वर को जो भी देखता था उसी का चित्त आनंद से संतुष्ट हो जाता था ।।256।। जो स्वर्गलोक में दुर्लभ है ऐसे उस विवाहोत्सव को देखकर देखने वाले पुरुष परम आनंद को प्राप्त हुए थे और सभी लोग उसकी प्रशंसा करते थे ।।257।। वे कहते थे कि चक्रवर्ती बड़ा भाग्यशाली है जिसके यह ऐसा उत्तम स्त्री–रत्न उत्पन्न हुआ है और वह उसने सब लोगों की प्रशंसा के स्थानभूत वज्रजंघरूप योग्य स्थान में नियुक्त किया है ।।258।। इसकी यह पुण्यवती माता पुत्रवतियों में सबसे श्रेष्ठ है जिसने लक्ष्मी के समान कांति वाली यह उत्तम संतान उत्पन्न की है ।।259।। इस वज्रजंघकुमार ने पूर्व जन्म में कौन-सा तप तपा था जिससे कि संसार का सारभूत और अतिशय कांति का धारक यह स्त्री-रत्न इसे प्राप्त हुआ है ।।260।। चूँकि इस कन्या ने वज्रजंघ को पति बनाया है इसलिए यह कन्या धन्य है, मान्य है और भाग्यशालिनी है । इसके समान और दूसरी कन्या पुण्यवती नहीं हो सकती ।।261।। पूर्व जन्म में इन दोनों ने न जाने कौन-सा उपवास किया था, कौन-सा भारी तप तपा था, कौन-सा दान दिया था, कौन-सी पूजा की थी अथवा कौन-सा व्रत पालन किया था ।।262।। अहो, धर्म का बड़ा माहात्म्य है, तपश्चरण से उत्तम सामग्री प्राप्त होती है, दान देने से बड़े-बड़े फल प्राप्त होते हैं और दयारूपी बेल पर उत्तम-उत्तम फल फलते हैं ।।263।। अवश्य ही इन दोनों ने पूर्वजन्म में महापूजा अर्हंत देव की उत्कृष्ट पूजा की होगी क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा अवश्य ही संपदा की परंपरा प्राप्त कराती रहती है ।।264।। इसलिए जो पुरुष अनेक कल्याण, धन-ऋद्धि तथा विपुल सुख चाहते हैं उन्हें स्वर्ग आदि महाफल देनेवाले श्री अरहंत देव के कहे हुए मार्ग में ही अपनी बुद्धि लगानी चाहिए ।।265।।
इस प्रकार दर्शक लोगों के वार्तालाप से प्रशंसनीय वे दोनों वर-वधू अपने इष्ट बंधुओं से परिवारित हो सभा-मंडप में सुख से बैठे थे ।।266।। उस विवाहोत्सव में दरिद्र लोगों ने अपनी दरिद्रता छोड़ दी थी, कृपण लोगों ने अपनी कृपणता छोड़ दी थी और अनाथ लोग सनाथता को प्राप्त हो गये थे ।।263।। चक्रवर्ती ने इस महोत्सव में दान, मान, संभाषण आदि के द्वारा अपने समस्त बंधुओं का सम्मान किया था तथा दासी दास आदि भृत्यों को भी संतुष्ट किया था ।।268।। उस समय घर-घर बड़ा संतोष हुआ था, घर-घर पताकाएँ फहरायी गयी थीं, घर-घर वर के विषय में बात हो रही थी और घर-घर वधू की प्रशंसा हो रही थी ।।269।। उस समय प्रत्येक दिन बड़ा संतोष होता था, प्रत्येक दिन धर्म में भक्ति होती थी और प्रत्येक दिन इंद्र जैसी विभूति से वधू-वर का सत्कार किया जाता था ।।270।।
तत्पश्चात् दूसरे दिन अपना धार्मिक उत्साह प्रकट करने के लिए उद्युक्त हुआ वज्रजंघ सायंकाल के समय अनेक दीपकों का प्रकाश कर महापूत चैत्यालय को गया ।।271।। अतिशय कांति का धारक वज्रजंघ आगे-आगे जा रहा था और श्रीमती उसके पीछे-पीछे जा रही थी । जैसे कि अंधकार को नष्ट करनेवाले सूर्य के पीछे-पीछे उसकी दैदीप्यमान प्रभा जाती है ।।272।। वह वज्रजंघ पूजा की बड़ी भारी सामग्री साथ लेकर जिनमंदिर पहुँचा । वह मंदिर मेरु पर्वत के समान ऊँचा था, क्योंकि उसके शिखर भी अत्यंत ऊँचें थे ।।273।। श्रीमती के साथ-साथ चैत्यालय की प्रदक्षिणा देता हुआ वज्रजंघ ऐसा शोभायमान हो रहा था जैसा कि महाकांति से युक्त सूर्य मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ शोभायमान होता है ।।274।। प्रदक्षिणा के बाद उसने ईर्यापथशुद्धि की अर्थात् मार्ग चलते समय होनेवाली शारीरिक अशुद्धता को दूर किया तथा प्रमादवश होने वाली जीवहिंसा को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त आदि किया । अनंतर, अनेक विभूतियों को धारण करने वाले जिनमंदिर के भीतर प्रवेश कर वहाँ महातपस्वी मुनियों के दर्शन किये और उनकी वंदना की । फिर गंधकुटी के मध्य में विराजमान जिनेंद्रदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा की अभिषेकपूर्वक चंदन आदि द्रव्यों से पूजा की ।।275-276।।
पूजा करने के बाद उस महाबुद्धिमान् वज्रजंघ ने स्तुति करने के योग्य जिनेंद्रदेव को साक्षात् कर (प्रतिमा को साक्षात् जिनेंद्रदेव मानकर) उत्तम अर्थों से भरे हुए स्तोत्रों से उनकी स्तुति करना प्रारंभ किया ।।277।। हे देव ! आप कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, और मानसिक व्यथाओं से रहित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । हे ईश, आज मैं कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करने की इच्छा से आपकी आराधना करता हूँ ।।278।। हे देव, आपके अनंत गुणों की स्तुति स्वयं गणधरदेव भी नहीं कर सकते तथापि मैं भक्तिवश आपकी स्तुति प्रारंभ करता हूँ क्योंकि भक्ति ही कल्याण करने वाली है ।।279।। हे प्रभो, आपका भक्त सदा सुखी रहता है, लक्ष्मी भी आपके भक्त पुरुष के समीप ही जाती है आप में अत्यंत स्थिर भक्ति स्वर्गादि के भोग प्रदान करती है और अंत में मोक्ष भी प्राप्त कराती है ।।280।। इसलिए ही भव्य जीव शुद्ध मन, वचन, काय से आपकी स्तुति करते हैं । हे देव, फल चाहने वाले जो पुरुष आपकी सेवा करते हैं उनके लिए आप स्पष्ट रूप से कल्पवृक्ष के समान आचरण करते हैं अर्थात् मन वांछित फल देते हैं ।।281।। हे प्रभो, आपने धर्मोपदेशरूपी वर्षा करके, दुष्कर्मरूपी संताप से अत्यंत प्यासे संसारी जीवरूपी चातकों को नवीन मेघ के समान आनंदित किया है ।।282।। हे देव, जिस प्रकार कार्य की सिद्धि चाहने वाले पुरुष सूर्य के द्वारा प्रकाशित हुए मार्ग की सेवा करते हैं―उसी मार्ग से आते-जाते हैं उसी प्रकार आत्महित चाहने वाले पुरुष आपके द्वारा दिखलाये हुए मोक्षमार्ग की सेवा करते हैं ।।283।। हे देव, आपके द्वारा निरूपित तत्त्व जन्ममरणरूपी संसार के नाश करने का कारण है तथा इसी से प्राणियों की इस लोक और परलोकसंबंधी समस्त कार्यों की सिद्धि होती है ।।284।। हे प्रभो, आपने लक्ष्मी के सर्वस्वभूत तथा उत्कृष्ट वैभव से युक्त साम्राज्य को छोड़कर भी इच्छा से सहित हो मुक्तिरूपी लक्ष्मी का वरण किया है, यह एक आश्चर्य की बात है ।।285।। हे देव, आप दयारूपी लता से वेष्टित हैं, स्वर्ग आदि बड़े-बड़े फल देने वाले हैं, अत्यंत उन्नत हैं―उदार हैं और मनवान्छित पदार्थ प्रदान करने वाले हैं इसलिए आप कल्पवृक्ष के समान हैं ।।286।। हे देव, आपने कर्मरूपी बड़े-बड़े शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा से तपरूपी धार से शोभायमान धर्मरूपी चक्र को बिना किसी घबराहट के अपने हाथ में धारण किया है ।।287।। हे देव, कर्मरूपी शत्रुओं को जीतते समय आपने न तो अपनी भौंह ही चढ़ायी, न ओठ ही चबाये, न मुख की शोभा नष्ट की और न अपना स्थान ही छोड़ा है ।।288।। हे देव, आपने दयालु होकर भी मोहरूपी प्रबल शत्रु को नष्ट करने की इच्छा से अतिशय कठिन तपश्चरणरूपी कुठार पर अपना हाथ चलाया है अर्थात् उसे अपने हाथ में धारण किया है ।।289।। हे देव, अज्ञानरूपी जल के सींचने से उत्पन्न हुई और अनेक दुःखरूपी फल को देने वाली संसाररूपी लता आपके द्वारा वर्धित होने पर भी बढ़ाये जाने पर भी बढ़ती नहीं है यह भारी आश्चर्य की बात है (पक्ष में आपके द्वारा छेदी जाने पर बढ़ती नहीं है अर्थात् आपने संसाररूपी लता का इस प्रकार छेदन किया है कि वह फिर कभी नहीं बढ़ती ।) भावार्थ―संस्कृत में ‘वृधु’ धातु का प्रयोग छेदना और बढ़ाना इन दो अर्थों में होता है । श्लोक में आये हुए वर्धिता शब्द का जब ‘बढ़ाना’ अर्थ में प्रयोग किया जाता है तब विरोध होता है और जब छेदन अर्थ में प्रयोग किया जाता है तब उसका परिहार हो जाता है ।।290।। हे भगवन्, आपके चरण-कमल के प्रसन्न होने पर लक्ष्मी प्रसन्न हो जाती है और उनके विमुख होने पर लक्ष्मी भी विमुख हो जाती है । हे देव, आपकी यह मध्यस्थ वृत्ति ऐसी ही विलक्षण है ।।291।।
हे जिनेंद्र, यद्यपि आप अन्यत्र नहीं पायी जाने वाली प्रातिहार्यरूप विभूति को धारण करते हैं तथापि संसार में परम वीतराग कहलाते हैं, यह बड़े आश्चर्य की बात है ।।292।। शीतल छाया से युक्त तथा आश्रय लेने वाले भव्य जीवों के शोक को दूर करता हुआ यह आपका अतिशय उन्नत अशोकवृक्ष बहुत ही शोभायमान हो रहा है ।।293।। हे जिनेंद्र, जिस प्रकार फूले हुए कल्पवृक्ष मेरु पर्वत के सब तरफ पुष्पवृष्टि करते हैं उसी प्रकार ये देव लोग भी आपके सब ओर आकाश से पुष्पवृष्टि कर रहे हैं ।।294।। हे देव समस्त भाषारूप परिणत होने वाली आपकी दिव्य ध्वनि उन जीवों के भी मन का अज्ञानांधकार दूर कर देती है जो कि मनुष्यों की भाँति स्पष्ट वचन नहीं बोल सकते ।।295।। हे जिन, आपके दोनों तरफ ढुराये जाने वाले, चंद्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल दोनों चमर ऐसे शोभायमान हो रहे हैं मानों ऊपर से पड़ते हुए पानी के झरने ही हों ।।296।। हे जिनराज, मेरु पर्वत के शिखर के साथ ईर्ष्या करने वाला और सुवर्ण का बना हुआ आपका यह सिंहासन बड़ा ही भला मालूम होता है ।।297।। हे देव, सूर्यमंडल के साथ विद्वेष करने वाला तथा जगत् के अंधकार को दूर करने वाला और सब ओर फैलता हुआ आपका यह भामंडल आपके शरीर को अलंकृत कर रहा है ।।298।। हे देव, आकाश में जो दुंदुभि का गंभीर शब्द हो रहा है वह मानो जोर-जोर से यही घोषणा कर रहा है कि संसार के एक मात्र स्वामी आप ही हैं ।।299।। हे देव, चंद्रबिंब के साथ स्पर्धा करने वाले और अत्यंत ऊँचे आपके तीनों छत्र आपके सर्वश्रेष्ठ प्रभाव को प्रकट कर रहे हैं ।।300।। हे जिन, ऊपर कहे हुए आपके इन आठ प्रातिहार्यों का समूह ऐसा शोभायमान हो रहा है मानो एक जगह इकट्ठे हुए तीनों लोकों के सर्वश्रेष्ठ पदार्थों का सार ही हो ।।301।। हे देव, यह प्रातिहार्यों का समूह आपकी वैराग्यरूपी संपत्ति को रोकने के लिए समर्थ नहीं है क्योंकि यह भक्तिवश देवों के द्वारा रचा गया है ।।302।।
हे जिनदेव, आपके चरणों के स्मरण मात्र से हाथी, सिंह, दावानल, सर्प, भील, विषम समुद्र, रोग और बंधन आदि सब उपद्रव शांत हो जाते हैं ।।303।। जिसके गंडस्थल से झरते हुए मदरूपी जल के द्वारा दुर्दिन प्रकट किया जा रहा है तथा जो आघात करने के लिए उद्यत है ऐसे हाथी को पुरुष आपके स्मरण मात्र से ही जीत लेते हैं ।।304।। बड़े-बड़े हाथियों के गंडस्थल भेदन करने से जिसके नख अतिशय कठिन हो गये हैं ऐसा सिंह भी आपके चरणों का स्मरण करने से अपने पैरों में पड़े हुए जीव को नहीं मार सकता है ।।305।। हे देव, जिसकी ज्वालाएँ बहुत ही प्रदीप्त हो रही हैं तथा जो उन बढ़ती हुई ज्वालाओं के कारण ऊँची उठ रही है ऐसी अग्नि यदि आपके चरण-कमलों के स्मरणरूपी जल से शांत कर दी जाये तो फिर वह अग्नि भी उपद्रव नहीं कर सकती ।।306।। क्रोध से जिसका फण ऊपर उठा हुआ है और जो भयंकर विष उगल रहा है ऐसा सर्प भी आपके चरणरूपी औषध के स्मरण से शीघ्र ही विषरहित हो जाता है ।।307।। हे देव, आपके चरणों के अनुगामी धनी व्यापारी जन प्रचंड लुटेरों के धनुषों की टंकार से भयंकर वन में भी निर्भय होकर इच्छानुसार चले जाते हैं ।।308।। जो प्रबल वायु की असामयिक अचानक वृद्धि से कंपित हो रहा है ऐसे बड़ी-बड़ी लहरों वाले समुद्र को भी आपके चरणों की सेवा करने वाले पुरुष लीलामात्र में पार हो जाते हैं ।।305।। जो मनुष्य कुढंगे स्थानों में उत्पन्न हुए फोड़ों आदि के बड़े-बड़े घावों से रोगी हो रहे हैं वे भी आपके चरणरूपी औषध का स्मरण करने मात्र से शीघ्र ही नीरोग हो जाते हैं ।।310।। हे भगवन् आप कर्मरूपी बंधनों से रहित हैं । इसलिए मजबूत बंधनों से बँधा हुआ भी मनुष्य आपका स्मरण कर तत्काल ही बंधनरहित हो जाता है ।।311।। हे जिनेंद्रदेव, आपने विघ्नों के समूह को भी विघ्नित किया हैं―उन्हें नष्ट किया है इसलिए अपने विघ्नों के समूह को नष्ट करने के लिए मैं भक्तिपूर्ण हृदय से आपकी उपासना करता हूँ ।।312।। हे देव, एकमात्र आप ही तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली ज्योति हैं, आप ही समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी हैं, आप ही समस्त संसार के एकमात्र बंधु हैं और आप ही समस्त लोक के एकमात्र गुरु हैं ।।313।। आप ही धर्मरूपी विद्याओं के आदि स्थान हैं, आप ही समस्त योगियों में प्रथम योगी हैं, आप ही धर्मरूपी तीर्थ के प्रथम प्रवर्तक हैं, और आप ही प्राणियों के प्रथम गुरु हैं ।।314।। आप ही सबका हित करने वाले हैं, आप ही सब विद्याओं के स्वामी है और आप ही समस्त लोक को देखने वाले हैं । हे देव, आपकी स्तुति का विस्तार कहाँ तक किया जाये । अबतक जितनी स्तुति कर चुका हूँ मुझ-जैसे अल्पज्ञ के लिए उतनी ही बहुत है ।।315।। हे देव, इस प्रकार आपकी वंदना कर मैं आपको प्रणाम करता हूँ और उसके फलस्वरूप आपसे किसी सीमित अन्य फल की याचना नहीं करता हूँ । किंतु हे जिन, आप में ही मेरी भक्ति सदा अचल रहे यही प्रदान कीजिए क्योंकि वह भक्ति ही स्वर्ग तथा मोक्ष के उत्तम फल उत्पन्न कर देती है ।।316।। इस प्रकार श्रीमान् वज्रजंघ राजा ने जिनेंद्र देव को उत्तम रीति से नमस्कार किया, उनकी स्तुति और पूजा की । फिर रागद्वेष से रहित मुनिसमूह की भी क्रम से पूजा की । तदनंतर श्रीजिनेंद्रदेव के गुणों का बार-बार स्मरण करता हुआ वह वज्रजंघ राज्यादि की विभूति प्राप्त करने के लिए हर्ष से श्रीमती के साथ-साथ अनेक ऋद्धियों से शोभायमान पुंडरीकिणी नगरी में प्रविष्ट हुआ ।।317।। वहाँ भरतभूमि के बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं ने उस लक्ष्मीवान् वज्रजंघ का राज्याभिषेकपूर्वक भारी सम्मान किया था । इस प्रकार जिनेंद्र भगवान् की पूजा करते हुए हजारों राजाओं के द्वारा बार-बार प्राप्त हुई कल्याण परंपरा का अनुभव करते हुए और श्रीमती के साथ उत्तमोत्तम भोग भोगते हुए वज्रजंघ ने दीर्घकाल तक उसी पुंडरीकिणी नगरी में निवास किया था ।।318।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रह में
श्रीमती और वज्रजंघ के समागम का वर्णन करने वाला सातवाँ पर्व पूर्व हुआ ।।7।।