उद्दिष्ट
From जैनकोष
1. आहारकका औद्देशिक दोष
1. दातार अपेक्षा
मू. आ. /मू. 425-426 देवदपासंडट्ठं किविणट्ठं चावि जं तु उद्दिसियं कदमण्णसमुद्देसं चतुव्विधं वा समासेण ।425। जावदियं उद्देसो पासंडीत्ति य हवे समुद्देसो। समणोत्ति य आदेसो णिग्गंथोत्ति य हवे समादेसो ॥426॥
= नाग यक्षादि देवताके लिए, अन्यमती पाखंडियोंके लिए, दीनजन कृपणजनोंके लिए, उनके नामसे बनाया गया भोजन औद्देशिक है। अथवा संक्षेपसे समौद्देशिकके कहे जानेवाले चार भेद हैं ॥425॥ 1-जो कोई आयेगा सबको देंगे ऐसे उद्देशसे किया (लंगर खोलना) अन्न याचानुद्देश है; 2. पाखंडी अन्यलिंगीके निमित्तसे बना हुआ अन्न समुद्देश है; 3. तापस परिव्राजक आदिके निमित्त बनाया भोजन आदेश है; 4. निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओंके निमित्त बनाया गया समादेश दोष सहित है। ये चार औद्देशिकके भेद हैं।
पद्मपुराण सर्ग 4/91-97 इत्युक्ते भगवानाह भरतेयं न कल्पते। साधूनामीदृशी भिक्षा या तदुद्देशसंस्कृता ॥95॥
= एक बार भगवान् ऋषभदेव ससंघ अयोध्या नगरीमें पधारे। तब भत अच्छे-अच्छे भोजन बनवाकर नौकरके हाथ उनके स्थान पर ले गया और भक्ति-पूर्वक भगवान्से प्रार्थना करने लगा कि समस्त संघ उस आहारको ग्रहण करके उसे सन्तुष्ट करें ॥91-94॥ भरतके ऐसा कहने पर भगवान् ने कहा कि हे भरत! जो भिक्षा मुनियोंके उद्देश्यसे तैयार की जाती है, वह उनके योग्य नहीं है-मुनिजन उद्दिष्ट भोजन ग्रहण नहीं करते ॥95॥ श्रावकोंके घर ही भोजनके लिए जाते हैं और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको मौनसे खड़े रहकर ग्रहण करते हैं ॥96-97॥
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/613/8 श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकं उद्देसिगमित्युच्यते। तच्च षोडशविधं आधाकर्मादिविकल्पेन। तत्परिहारो द्वितीयः स्थितिकल्पः। तथा चोक्तं कल्पे-सोलसविधमुद्देसं वज्जेदवंतिमुरिमचरिमाणं। तित्थगराणं तित्थे ठिदिकप्पो होदि विदिओ हु।
= मुनिके उद्देशसे किया हुआ आहार, वसतिका वगैरहको उद्देशिक कहते हैं। उसके आधाकर्मादिक विकल्पसे सोलह प्रकार हैं। (देखो आहार II/4 में 16 उद्गमदोष)। उसका त्याग करना सो द्वितीय स्थिति कल्प है। कल्प नामक ग्रन्थ अर्थात् कल्पसूत्रमें इसका ऐसा वर्णन है - श्री आदिनाथ तीर्थंकर और श्री महावीर स्वामी (आदि और अन्तिम तीर्थंकरों) के तीर्थमें 16 प्रकारके उद्देशका परिहार करके आहारादि ग्रहण करना चाहिए, यह दूसरा स्थितिकल्प है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 287 आहारग्रहणात्पूर्वंतस्य पात्रस्य निमित्तं यत्किमप्यशनपानादिकं कृतं तदौपदेशिकं भण्यते।....अधःकर्मोपदेशिकं च पुद्गलमयत्वमेतद्द्रव्यं।
= आहार ग्रहण करनेसे पूर्व उस पात्रके निमित्तसे जो कुछ भी अशनपानादिक बनाये गये हैं उन्हें औपदेशिक कहते हैं। अधःकर्म और औपदेशिक ये दोनों ही द्रव्य पुद्गलमयी हैं।
2. पात्रकी अपेक्षा
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 485,928 पगदा असओ जम्हा तम्हादो दव्वदोत्ति तं दव्व। फासुगमिदि सिद्धेवि य अप्पट्ठकदं असुद्धं तु ॥485॥ पयणं वा पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बोहेदि। जेमं-तोवि सघादी णवि समणो दिट्ठि संपण्णो ॥928॥
= साधु द्रव्य और भाव दोनोंसे प्रासुक द्रव्यका भोजन करे। जिसमेंसे एकेन्द्रिय जीव निकल गये वह द्रव्य-प्रासुक आहार है। और जो प्रासुक आहार होनेपर भी `मेरे लिए किया है' ऐसा चिन्तन करे वह भावसे अशुद्ध जानना। चिन्तन नहीं करना वह भाव-प्रासुक आहार है ।485। पाक करनेमें अथवा पाक करानेमें पाँच उपकरणोंके (पंचसूनासे) अधःकर्ममें प्रवृत्त हुआ, और अनुमोदनासे प्रवृत्त जो मुनि उस पचनादिसे नहीं डरता है, वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है। न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है ।928।
3. भावार्थ
उद्दिष्ट वास्तवमें एक सामान्यार्थ वाची शब्द है इसलिए इसका पृथक् से कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं है। आहारके 46 दोषोंमें जो अधः कर्मादि 16 उद्गम दोष हैं वे सर्व मिलकर एक उद्दिष्ट शब्दके द्वारा कहे जाते हैं। इसलिए `उद्दिष्ट' नामक किसी पृथक् दोषका ग्रहण नहीं किया गया है। तिसमें भी दो विकल्प हैं-एक दातारकी अपेक्षा उद्दिष्ट और दूसरा पात्रकी अपेक्षा उद्दिष्ट। दातार यदि उपरोक्त 16 दोषोंसे युक्त आहार बनाता है तो वह द्रव्यसे उद्दिष्ट है; और यदि पात्र अपने चित्तमें, अपने लिए बनेका अथवा भोजनके उत्पादन सम्बन्धी किसी प्रकार विकल्प करता है तो वह भावसे उद्दिष्ट है। ऐसा आहार साधुको ग्रहण करना नहीं चाहिए।
2. वसतिकाका दोष
(भ. आ./वि. 230/443/13) यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिङ्गिनो वा, तेषामियमित्युद्दिश्य कृता, पाषंडिनामेवेति वा, श्रमणानामेवेति वा, निर्ग्रन्थानामेवेति सा उद्देसिगा वसदिति भण्यते।
= `दीन अनाथ अथवा कृपण आवेंगे, अथवा सर्वधर्मके साधु आवेंगे, किंवा जैनधर्मसे भिन्न ऐसे साधु अथवा निर्ग्रन्थ मुनि आवेंगे उन सब जनोंको यह वसति होगी' इस उद्देश्यसे बाँधी गई वसतिका उद्देशिक दोषसे दृष्ट है।
3. उदिष्ट त्याग प्रतिमा
(अ. ग. श्रा. 7/77) यो बंधुराबंधुरतुल्यचित्तो, गृह्णाति भोज्यं नवकोटिशुद्धं। उद्दिष्टवर्जी गुणिभिः स गीतो, विभीलुकः संसृति यातुधान्याः ।77।
= जो पुरुष भले-बुरे आहारमें समान है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष नवकोटिशुद्ध कहिये मन वचनकायकरि कर्या नाहीं कराया नाहीं करे हुएको अनुमोद्या नाहीं ऐसे आहारको ग्रहण करै है सो उद्दिष्ट त्यागी गुणवंतनिने कह्या है। कैसा है, सो संसार रूपी राक्षसीसे विशेष भयभीत है।
• उद्दिष्ट आहारमें अनुमति का दोष - देखें अनुमति - 3
• उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाके भेद रूप क्षुल्लक व ऐलकका निर्देश - देखें श्रावक - 1
• क्षुल्लक व ऐलकका स्वरूप - देखें वह वह नाम