आस्तिक्य
From जैनकोष
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ५६१ में उद्धृत `आप्ते श्रुते तत्त्वचित्तमस्तिव्यसंयुतं। आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं सम्यक्त्वेन युते नरे ।।२।। = जो सम्यग्दृष्टि जीव, सर्वज्ञ देवविषैं, व्रतविषैं, शास्त्रविषैं तत्त्वविषैं `ऐसैं ही है' ऐसा अस्तित्व भाव करि संयुक्त चित्त हो है सो सम्यक्त्व सहित जीव विषें आस्तिक्य गुण है। न्या.दो.३/$५६/९८/७ आस्तिक्यं हि सर्वज्ञवीतरागप्रणीत जीवादितत्त्वरुचिरुपलक्षणम्। = सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा प्रणीत जीवादिक तत्त्वों में रूचि होनेको आस्तिक्य कहते हैं। पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ४५२,४६३ आस्तिक्यं तत्त्वसद्भावे स्वतः सिद्धे विनिश्चितिः। धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽस्त्यादि धर्मवित् ।।४५२।। स्वात्मानुभूमिमात्रं स्याद्वास्तिक्यं परमो गुणः। भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्रं (त्रे) परत्वतः ।।४६३।। = स्वतः सिद्ध नव तत्त्वोंके सद्भावमें तथा धर्ममें धर्मके हेतुमें और धर्मके फलमें जो निश्चय रखना है वह जीवादि पदार्थोमें अस्तित्व बुद्धि रखनेवाला आस्तिक्य गुण है ।।४५२।। केवल स्वात्मामुभूति रूप आस्तिक्य परम गुण है, परद्रव्यमें पररूपपनेसे ज्ञानमात्र जो स्वात्मानुभूति है वह हो व न हो ।।४६३।।