प्रतिज्ञांतर
From जैनकोष
न्यायदर्शन सूत्र/ मू.व.टी./5/3/3/310 प्रतिज्ञातार्थप्रतिपषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थ निर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् ।3। प्रतिज्ञातार्थोऽनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वाद् धटवदित्युक्ते योऽस्य प्रतिषेधः प्रतिदृष्टान्तेन हेतुव्यभिचारः सामान्यमैन्द्रियकं नित्यमिति तस्मिश्च प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पादिति दृष्टान्तप्रतिदृष्टान्तयोः साधर्म्ययोगे धर्मभेदात्सामान्यमैन्द्रियकं सर्वगतमैन्द्रियकस्त्वसर्वगतो घट इति धर्मविकल्पात्तदर्थ निर्द्देश इति साध्यसिद्धय्यर्थं कथं यथा घटोऽसर्वगत एवं शब्दोऽप्यसर्वगतो घटवदेवानित्य इति तत्रानित्यः शब्द इति पूर्वा प्रतिज्ञा असर्वगत इति द्वितीया प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तरं तत्कथं निग्रहस्थानमिति न प्रतिज्ञायाः साधनं प्रतिज्ञान्तरं किंतु हेतुदृष्टान्तौ साधनं प्रतिज्ञाया: तदेतदसाधनोपादानमनर्थकमिति । अनार्थक्यान्निग्रहस्थानमिति ।3। = वादी द्वारा प्रतिज्ञात हो चुके अर्थ का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करने पर वादी उस दूषण का उद्धार करने की इच्छा से धर्म का यानी धर्मान्तर का विशिष्ट कल्प करके उस प्रतिज्ञात अर्थ का अन्य विशेषण से विशिष्टपने करके कथन कर देता है, यह प्रतिज्ञान्तर है ।3। जैसे - शब्द अनित्य है ऐन्द्रियिकहोने से घटके समान, इस प्रकार वादी के कहने पर प्रतिवादी द्वारा अनित्यपने का निषेध किया गया । ऐसी दशा में वादी कहता है कि जिस प्रकार घट असर्वगत है उसी प्रकार शब्द भी अव्यापक हो जाओ और उस ऐन्द्रियक सामान्य के समान यह शब्द भी नित्य हो जाओ । इस प्रकार धर्म की विकल्पना करने से ऐन्द्रियिकत्व हेतु का सामान्य नाम को धारने वाली जाति करके व्यभिचार हो जाने पर भी वादी द्वारा अपनी पूर्व की प्रतिज्ञा की प्रसिद्धि के लिए शब्द के सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया गया कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाओ । इस प्रकार वादी की दूसरी प्रतिज्ञा तो उस अपनेप्रकृत पक्ष को साधने में समर्थ नहीं है । इस प्रकार वादी का निग्रह होना माना जाता है । किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नहीं है । ( श्लोकवार्तिक 4/ न्या.130/354/16 में इस पर चर्चा की गयी है )।